Friday 6 June 2014

आधी आबादी, अधूरे सपने

मनुष्य परिस्थितियों का दास है। उसका जीवन अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों का खेल तमाशा है। ज्ञानवान इसे सजग प्रहरी के तौर पर तो बुद्धिमान अहंकार के वशीभूत अपने तरीके जीता है। प्रतिकूल परिस्थितियों से असहाय मुल्क की आधी आबादी आज अधूरे सपनों के बीच जी रही है। उसकी अस्मत और किस्मत के साथ होता खिलवाड़ सामाजिक विद्रूपता का घिनौना रूप है। यह सच है कि इंसान का प्रारब्ध उसके अपने कर्म पर टिका होता है। वह जैसा कर्म करता है, वैसा ही उसे फल मिलता है। परिस्थितियां सिर्फ परिस्थितियां हैं वे न कभी अनुकूल होती हैं और न ही प्रतिकूल। परिस्थितियां एक रस हैं। अनुकूल और प्रतिकूल का निर्धारण हर इंसान अपने मन से करता है। यह प्रकृति का खेल है जो जीवन भर चलता है। सांसारिक परिस्थितियां हमारे लाख चाहने के बाद भी कभी प्रभावित नहीं होंगी क्योंकि परिवर्तन प्रकृति का अटल सत्य है।
प्रकृति पल-पल बदलेगी और नई परिस्थितियां जन्म लेंगी। आज मुल्क की आधी आबादी को हैवानों की नजर लग गई है और हम उस व्यवस्था को कोस रहे हैं जोकि खुद के हाथों निर्मित की गई है। परिस्थितियां इस कदर जटिल हो गई हैं कि इंसान हारी जिन्दगी जीने को मजबूर है। महिलाओं के साथ हो रही बर्बरता के लिए किसी एक प्रदेश पर हायतौबा मचाना न्यायसंगत नहीं होगा। महिला सशक्तीकरण पर बात करना और उस पर प्रभावी अमल में बड़ा फर्क है। सोलहवीं लोकसभा में आजादी के बाद सर्वाधिक 61 महिलाएं संसद में पहुंची हैं तो मोदी सरकार ने उन्हें बड़े-बड़े ओहदों से नवाजा है बावजूद इसके आधी आबादी का भाग्य आसानी से नहीं बदलेगा।
महिला उत्पीड़न के खिलाफ एक बार फिर मुल्क गुस्से में है। सड़कों पर तांडव हो रहा है तो दूसरी तरफ आधी आबादी अपने लिए रहम की भीख मांग रही है। दिल्ली गैंग रेपकाण्ड के बाद भी समाज के हर वर्ग में गुस्सा था, तब लगा था कि हमारा समाज जाग गया है और आगे ऐसा कुछ नहीं होगा। पर पिछले संत्रास से समाज ने कोई सबक नहीं लिया। कितनी अजीब बात है कि बलात्कार जैसे अपराध के बाद शुरू हुए आंदोलन से वह बातें निकल कर नहीं आईं जो महिलाओं को राजनीतिक ताकत देतीं और उनके सशक्तीकरण की बात को आगे बढ़ातीं। गैंगरेप की शिकार हुई लड़की के साथ हमदर्दी वाला जो आंदोलन शुरू हुआ था उसमें बहुत कुछ ऐसा था जोकि व्यवस्था बदल देने की क्षमता रखता था, लेकिन बीच में पता नहीं कब राजनीतिक पार्टियों ने आंदोलन को हाईजैक कर लिया और केन्द्र सरकार, दिल्ली सरकार और इन सरकारों को चलाने वाले फोकस में आ गए।
कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने की कोशिश में पार्टियों ने आंदोलन को दिशाहीन और हिंसक बना दिया। इस दिशाहीनता के नतीजे से महिला सशक्तीकरण का मुख्य मुद्दा राजनीतिक विमर्श से भटक गया और बेटियों के प्रति समाज के रवैये को बदल डालने का जो अवसर मिला था वह अकारथ चला गया। एक बार फिर मुल्क में बेटियों के साथ दरिन्दगी के एक साथ कई मामले सामने आए हैं। गुस्सा फिर सड़कों पर फूट रहा है और पुन: वही कुछ कहा जा रहा है जोकि दामिनी के मामले में सबने सुना था। एक बार फिर कठोरतम कानून की वकालत की जा रही है। लोगों का कहना है कि कानून में ऐसे इंतजामात किए जाएं कि अपराधी को मिलने वाली सजा देख भविष्य में कोई दूसरा दुस्साहस नहीं दिखा सके। कानून हर समस्या का निदान नहीं हो सकता। दरिन्दगी के मामलों में तो कदाचित नहीं। यदि समाज से इस विद्रूपता को दूर करना ही है तो आज उस समाज के खिलाफ सभ्य समाज को लामबंद होने की जरूरत है जो बेटियों को सिर्फ भोग-विलासिता का खिलौना समझता है।
सामाजिक बदलाव का संकल्प लेने से पहले हमें उन बातों पर भी विचार करने की दरकार है जोकि ऐसे कृत्यों को बढ़ावा दे रहे हैं। बेटियों की अस्मत पर हाथ डालने वालों से भी कहीं ज्यादा अमर्यादित विज्ञापन आज समाज का मिजाज खराब कर रहे हैं। दुष्कर्मियों पर नकेल डालने से पहले हमें उस मानसिकता के खिलाफ जंग छेड़ने की जरूरत है, जोकि बेटियों को दोयमदर्जे का इंसान मानती है और उनकी इज्जत को मर्दानी इज्जत से जोड़कर देखा जाता है। बेटियों की इज्जत की रक्षा करना समाज का कर्तव्य है। यह गलत धारणा है। पुरुष कौन होता है लड़की की रक्षा करने वाला। मुल्क में ऐसी शिक्षा और माहौल बनाया जाना चाहिए जिसमें बेटियां खुद को अपना रक्षक मानें। समाज से महिला रक्षक के रूप में पुरुष को पेश करने की  मानसिकता को जब तक खत्म नहीं किया जाएगा तब तक कुछ भी नहीं बदलेगा। जो पुरुष समाज अपने आपको महिला की इज्जत का रखवाला मानता है, वही पुरुष समाज अपने आपको यह अधिकार भी तो दे देता है कि वह महिला के यौन जीवन का संरक्षक और उसका उपभोक्ता है। आज पुरुषवादी इसी सोच के खिलाफ जेहाद की जरूरत है। लेकिन यह जंग वही लड़ सकते हैं जो बेटे और बेटी को बराबर का इंसान मानें और उसी सोच को जीवन के हर क्षेत्र में उतारें भी। कमजोर को मारकर बहादुरी दिखाने वाले जब तक अपने कायराना काम को शौर्य बताते रहेंगे, तब तक इस देश में बलात्कार करने वालों के हौसलों को तोड़ पाना सम्भव नहीं होगा। हमारे समाज में औरत को कमजोर बनाने के सैकड़ों संस्कार मौजूद हैं। स्कूलों में भी कायरता को शौर्य बताने वाले पाठ्यक्रमों की कमी नहीं है। इन पाठ्यक्रमों को आज खत्म करने की जरूरत है। अगर हम एक समाज के रूप में अपने आपको बराबरी की बुनियाद पर नहीं स्थापित कर सके तो जो पुरुष अपने आपको महिला का रक्षक बताता है वह उसके साथ बलात कोशिश में संकोच कतई नहीं करेगा। आज शिक्षा और समाज की बुनियाद में यह जोर देने की जरूरत है कि महिला-पुरुष बराबर हैं और कोई किसी का भी रक्षक नहीं है। बिना बुनियादी बदलाव के समाज से दरिन्दगी दूर करने की कोशिश वैसी ही है जैसे किसी घाव पर मलहम लगाना। यदि हम वाकई बेटियों का भला चाहते हैं तो उन्हें भीरु नहीं बल्कि फौलाद का बनाएं।

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