शत-प्रतिशत साक्षरता और स्कूलों में शिक्षा का नया वातावरण तैयार करने के लिए यूं तो देश में तरह-तरह के प्रयोग तथा प्रयास होते रहे हैं पर परिणाम संतोषजनक नहीं कहे जा सकते। मौजूदा समय में शिक्षा के बदलते स्वरूप और पाठ्यक्रम के भारी-भरकम बोझ ने प्राथमिक शिक्षा से लेकर महाविद्यालयीन शिक्षा तक हर उम्र के विद्यार्थियों को पशोपेश में डाल रखा है। आज सामाजिक शिक्षा की जगह रोजगारमूलक शिक्षा ने ले ली है। यही वजह है कि आज का छात्र न केवल अपने लक्ष्य से भटक रहा है बल्कि सकारात्मक सोच, प्रतिबद्धता और कड़ी मेहनत से भी जी चुराने लगा है। उसके मानस में सफलता का भूत इस कदर सवार है कि वह शॉर्टकट रास्ते तलाशने से भी गुरेज नहीं कर रहा। शिक्षक मोटी पगार पाने के बाद भी अपने कर्तव्य से बेपरवाह हैं, नतीजन शिक्षा का निरंतर हृास हो रहा है।
प्राथमिक कक्षाओं में शिक्षा किस भाषा माध्यम से दी जाए, इस पर लम्बे समय से बहस होती रही है। निश्चित रूप से कम उम्र के बच्चों के लिए मातृभाषा में शिक्षा सहज ग्राह्य होती है और इससे उनके भीतर सोचने-समझने की क्षमता का स्वाभाविक विकास भी होता है। तकरीबन दो दशक पहले कर्नाटक सरकार का कक्षा एक से चार तक के लिए शिक्षा माध्यम मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा यानि कन्नड़ को अनिवार्य करने का फैसला अपने आपमें विरोधाभासी था। अगर कर्नाटक सरकार की यह दलील मान भी ली जाए कि बच्चों के सम्पूर्ण बौद्धिक विकास के लिए मातृभाषा सीखनी जरूरी है, तो सवाल यह उठता है कि इसकी सीमा स्थानीय संस्कृति ही क्यों हो? बहरहाल, सरकारी स्कूलों में तो यह चलता रहा, लेकिन निजी स्कूलों ने इस पर आपत्ति जताई। इसी के बाद जुलाई 2008 में कर्नाटक हाईकोर्ट ने कहा था कि भाषा माध्यम की नीति निजी स्कूलों पर नहीं थोपी जा सकती। अब सर्वोच्च न्यायालय ने भी यह व्यवस्था दे दी है कि बच्चों को प्राथमिक शिक्षा किस भाषा में दी जाए, यह तय करने का हक केवल विद्यार्थी और अभिभावक को है। नियमत: सरकारी या निजी स्कूलों में शिक्षा पद्धति एक समान होनी चाहिए, क्योंकि इन अलग-अलग स्कूलों में पढ़ने वाले सभी बच्चे ही होते हैं, फर्क सिर्फ आर्थिक पहुंच का है।
छात्र जीवन आज कठिन समस्या से कम नहीं है। आज हर छात्र का स्वर्णिम भविष्य ही प्रमुख लक्ष्य है लेकिन शैक्षणिक स्तर इस कदर गिर गया है कि उसे सही और गलत का भान ही नहीं रहा। शिक्षा को साधना माना जाता है लेकिन साधना का अर्थ तपस्वियों की तरह धुनी रमाकर तप करना नहीं वरन उन सारी गलत आदतों से ध्यान हटाना है, जो छात्र जीवन की स्वर्णिम पगडंडियों पर गंदे कचरे की भांति जमकर उन्हें पथभ्रमित कर जाती हैं। शिक्षा साधना से जुड़े विद्यार्थियों को सत्र शुरू होते ही गुरुजनों द्वारा पढ़ाये गये पाठ्यक्रमों की पुनरावृत्ति ठीक उसी तरह अमल में लानी चाहिये, जिस तरह गुरुकुल शिक्षा के समय सुबह और शाम नियमित रूप से पूजा-आराधना के रूप में गुरुओं के सान्निध्य में जरूरी हुआ करता था। आज के विद्यार्थी को पहले दिन से ही परीक्षा का भूत डराने लगता है। इससे निजात के लिए उसे सबसे पहले अपने अंदर आत्मविश्वास जगाना चाहिए क्योंकि आत्मविश्वास ऐसा मनोविज्ञानी शब्द है, जो हर प्रकार की चिन्ता और घबराहट को मिनटों में दूर भगा सकता है।
मुल्क में शिक्षा के अधोपतन के कई कारण हैं। इनमें शिक्षक और छात्र दोनों शामिल हैं। शासकीय और निजी शिक्षण संस्थाओं में शिक्षण का तरीका भिन्न-भिन्न है। शासकीय शिक्षक मोटी पगार पाकर भी जहां शिक्षणेत्तर कार्यों में दिलचस्पी नहीं लेता वहीं निजी शिक्षण संस्थानों के शिक्षक अल्पवेतन के बावजूद कड़ी मशक्कत करने से जी नहीं चुराते। हर साल के परीक्षा परिणामों पर नजर डालें तो पाएंगे कि शासकीय स्कूलों से कहीं बेहतर निजी स्कूल हैं। भारत सरकार ने वर्ष 1964 में यूजीसी के तत्कालीन अध्यक्ष डॉ. दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में स्कूली शिक्षा प्रणाली को नया आकार और नयी दिशा देने के उद्देश्य से एक आयोग का गठन किया था। आयोग ने अपनी रिपार्ट में सामाजिक बदलावों को ध्यान में रखकर कुछ ठोस सुझाव देते हुए देश में समान स्कूल शिक्षा प्रणाली की वकालत की थी। उनका तर्क था कि इस प्रणाली से एक ऐसी राष्ट्रीय व्यवस्था तैयार होगी जहां सभी तबके के बच्चे एक साथ पढ़ेंगे। अगर ऐसा नहीं हुआ तो समाज के ताकतवर लोग सरकारी स्कूलों से विमुख होकर निजी स्कूलों की ओर रुख करेंगे तथा पूरी प्रणाली छिन्न-भिन्न हो जाएगी। आज देश की शिक्षा व्यवस्था में यह खोट जगजाहिर सी बात है।
24 जुलाई, 1968 को भारत की प्रथम राष्ट्रीय शिक्षा नीति घोषित की गई जोकि पूर्ण रूप से कोठारी आयोग के प्रतिवेदन पर ही आधारित थी। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में सामाजिक दक्षता, राष्ट्रीय एकता एवं समाजवादी समाज की स्थापना करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया। पूरे देश में शिक्षा की समान संरचना बनी और लगभग सभी राज्यों द्वारा 10+2+3 की प्रणाली को मान लेना 1968 की शिक्षा नीति की सबसे बड़ी देन है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अधिनियम,1956 के तीसरे अध्याय में आयोग की शक्तियां और कृत्य को परिभाषित कर लिखा हुआ है कि विश्वविद्यालयों में शिक्षा की अभिवृद्धि और उसमें एकसूत्रता लाने के लिए विश्वविद्यालयों में अध्यापन, परीक्षा और अनुसंधान के स्तरमानों का निर्धारण करने के लिए जो आयोग ठीक समझे, वह कार्रवाई कर सकता है। इतना ही नहीं आयोग के अधिनियम, 1956 में यह भी लिखा है कि यदि केन्द्र सरकार और आयोग के बीच यह विवाद उठता है कि कोई प्रश्न राष्ट्रीय उद्देश्यों से सम्बन्धित नीति का है या नहीं तो उस पर केन्द्र सरकार का विनिश्चय ही अंतिम होगा। कोठारी आयोग, राधाकृष्णन आयोग, मुदलियार आयोग और यशपाल समिति ने हमेशा ही शिक्षण संस्थानों को ज्ञान-सृजन पर तरह-तरह की सलाह दी हैं। यदि शिक्षक थोड़ा प्रयास करें और अभिभावक भी बच्चों को कुछ नया सिखाने को प्रेरित करें तो सरकारी स्कूलों के बच्चे भी बुलंदियां छू सकते हैं। लापरवाह शिक्षकों के खिलाफ सख्ती तो अपने दायित्व का ईमानदारी से निर्वहन कर रहे शिक्षकों को प्रोत्साहन मिलना भी समयानुकूल होगा।
प्राथमिक कक्षाओं में शिक्षा किस भाषा माध्यम से दी जाए, इस पर लम्बे समय से बहस होती रही है। निश्चित रूप से कम उम्र के बच्चों के लिए मातृभाषा में शिक्षा सहज ग्राह्य होती है और इससे उनके भीतर सोचने-समझने की क्षमता का स्वाभाविक विकास भी होता है। तकरीबन दो दशक पहले कर्नाटक सरकार का कक्षा एक से चार तक के लिए शिक्षा माध्यम मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा यानि कन्नड़ को अनिवार्य करने का फैसला अपने आपमें विरोधाभासी था। अगर कर्नाटक सरकार की यह दलील मान भी ली जाए कि बच्चों के सम्पूर्ण बौद्धिक विकास के लिए मातृभाषा सीखनी जरूरी है, तो सवाल यह उठता है कि इसकी सीमा स्थानीय संस्कृति ही क्यों हो? बहरहाल, सरकारी स्कूलों में तो यह चलता रहा, लेकिन निजी स्कूलों ने इस पर आपत्ति जताई। इसी के बाद जुलाई 2008 में कर्नाटक हाईकोर्ट ने कहा था कि भाषा माध्यम की नीति निजी स्कूलों पर नहीं थोपी जा सकती। अब सर्वोच्च न्यायालय ने भी यह व्यवस्था दे दी है कि बच्चों को प्राथमिक शिक्षा किस भाषा में दी जाए, यह तय करने का हक केवल विद्यार्थी और अभिभावक को है। नियमत: सरकारी या निजी स्कूलों में शिक्षा पद्धति एक समान होनी चाहिए, क्योंकि इन अलग-अलग स्कूलों में पढ़ने वाले सभी बच्चे ही होते हैं, फर्क सिर्फ आर्थिक पहुंच का है।
छात्र जीवन आज कठिन समस्या से कम नहीं है। आज हर छात्र का स्वर्णिम भविष्य ही प्रमुख लक्ष्य है लेकिन शैक्षणिक स्तर इस कदर गिर गया है कि उसे सही और गलत का भान ही नहीं रहा। शिक्षा को साधना माना जाता है लेकिन साधना का अर्थ तपस्वियों की तरह धुनी रमाकर तप करना नहीं वरन उन सारी गलत आदतों से ध्यान हटाना है, जो छात्र जीवन की स्वर्णिम पगडंडियों पर गंदे कचरे की भांति जमकर उन्हें पथभ्रमित कर जाती हैं। शिक्षा साधना से जुड़े विद्यार्थियों को सत्र शुरू होते ही गुरुजनों द्वारा पढ़ाये गये पाठ्यक्रमों की पुनरावृत्ति ठीक उसी तरह अमल में लानी चाहिये, जिस तरह गुरुकुल शिक्षा के समय सुबह और शाम नियमित रूप से पूजा-आराधना के रूप में गुरुओं के सान्निध्य में जरूरी हुआ करता था। आज के विद्यार्थी को पहले दिन से ही परीक्षा का भूत डराने लगता है। इससे निजात के लिए उसे सबसे पहले अपने अंदर आत्मविश्वास जगाना चाहिए क्योंकि आत्मविश्वास ऐसा मनोविज्ञानी शब्द है, जो हर प्रकार की चिन्ता और घबराहट को मिनटों में दूर भगा सकता है।
मुल्क में शिक्षा के अधोपतन के कई कारण हैं। इनमें शिक्षक और छात्र दोनों शामिल हैं। शासकीय और निजी शिक्षण संस्थाओं में शिक्षण का तरीका भिन्न-भिन्न है। शासकीय शिक्षक मोटी पगार पाकर भी जहां शिक्षणेत्तर कार्यों में दिलचस्पी नहीं लेता वहीं निजी शिक्षण संस्थानों के शिक्षक अल्पवेतन के बावजूद कड़ी मशक्कत करने से जी नहीं चुराते। हर साल के परीक्षा परिणामों पर नजर डालें तो पाएंगे कि शासकीय स्कूलों से कहीं बेहतर निजी स्कूल हैं। भारत सरकार ने वर्ष 1964 में यूजीसी के तत्कालीन अध्यक्ष डॉ. दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में स्कूली शिक्षा प्रणाली को नया आकार और नयी दिशा देने के उद्देश्य से एक आयोग का गठन किया था। आयोग ने अपनी रिपार्ट में सामाजिक बदलावों को ध्यान में रखकर कुछ ठोस सुझाव देते हुए देश में समान स्कूल शिक्षा प्रणाली की वकालत की थी। उनका तर्क था कि इस प्रणाली से एक ऐसी राष्ट्रीय व्यवस्था तैयार होगी जहां सभी तबके के बच्चे एक साथ पढ़ेंगे। अगर ऐसा नहीं हुआ तो समाज के ताकतवर लोग सरकारी स्कूलों से विमुख होकर निजी स्कूलों की ओर रुख करेंगे तथा पूरी प्रणाली छिन्न-भिन्न हो जाएगी। आज देश की शिक्षा व्यवस्था में यह खोट जगजाहिर सी बात है।
24 जुलाई, 1968 को भारत की प्रथम राष्ट्रीय शिक्षा नीति घोषित की गई जोकि पूर्ण रूप से कोठारी आयोग के प्रतिवेदन पर ही आधारित थी। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में सामाजिक दक्षता, राष्ट्रीय एकता एवं समाजवादी समाज की स्थापना करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया। पूरे देश में शिक्षा की समान संरचना बनी और लगभग सभी राज्यों द्वारा 10+2+3 की प्रणाली को मान लेना 1968 की शिक्षा नीति की सबसे बड़ी देन है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अधिनियम,1956 के तीसरे अध्याय में आयोग की शक्तियां और कृत्य को परिभाषित कर लिखा हुआ है कि विश्वविद्यालयों में शिक्षा की अभिवृद्धि और उसमें एकसूत्रता लाने के लिए विश्वविद्यालयों में अध्यापन, परीक्षा और अनुसंधान के स्तरमानों का निर्धारण करने के लिए जो आयोग ठीक समझे, वह कार्रवाई कर सकता है। इतना ही नहीं आयोग के अधिनियम, 1956 में यह भी लिखा है कि यदि केन्द्र सरकार और आयोग के बीच यह विवाद उठता है कि कोई प्रश्न राष्ट्रीय उद्देश्यों से सम्बन्धित नीति का है या नहीं तो उस पर केन्द्र सरकार का विनिश्चय ही अंतिम होगा। कोठारी आयोग, राधाकृष्णन आयोग, मुदलियार आयोग और यशपाल समिति ने हमेशा ही शिक्षण संस्थानों को ज्ञान-सृजन पर तरह-तरह की सलाह दी हैं। यदि शिक्षक थोड़ा प्रयास करें और अभिभावक भी बच्चों को कुछ नया सिखाने को प्रेरित करें तो सरकारी स्कूलों के बच्चे भी बुलंदियां छू सकते हैं। लापरवाह शिक्षकों के खिलाफ सख्ती तो अपने दायित्व का ईमानदारी से निर्वहन कर रहे शिक्षकों को प्रोत्साहन मिलना भी समयानुकूल होगा।
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