इन दिनों पाकिस्तान में अमन का दीप बुझ रहा है और उससे लगी आग में वहां के दहशतगर्द तथा हठी सेना हाथ सेंक रही है। नरेन्द्र मोदी और नवाज शरीफ के बीच बढ़ते दोस्ती के पैगाम पर हाफिज सईद जैसे कठमुल्ले रोड़ा अटका रहे हैं। भारत और पाकिस्तान के बीच जब-जब दोस्ताना सम्बन्धों की प्रगाढ़ता परवान चढ़ती दिखी कोई न कोई विघ्नसंतोषी अवरोध जरूर बना। पाकिस्तान में सेना और दहशतगर्दों का गठजोड़ लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए हमेशा चुनौती रहा है। कश्मीर मुद्दे को सदैव इन्हीं साजिशों के तहत जिन्दा रखा जाता है ताकि दोनों मुल्कों की लोकतांत्रिक ताकतों के बीच एक अभेद्य दीवार खिंची रहे। मोदी और शरीफ की नजदीकियां एक बार फिर दहशतगर्दों की आंख की किरकिरी बन गई हैं। भारत-पाकिस्तान के बीच सुधरते रिश्तों को दुनिया बेशक नेक नजरिए से देख रही हो पर इससे दोनों देशों के कट्टरपंथी मायूस हैं।
भारत-पाकिस्तान के बीच रिश्ते सुधारने की पहल अटल बिहारी बाजपेयी और परवेज मुशर्रफ के शासनकाल में भी परवान चढ़ी थी लेकिन तब उस ठोस पहल पर कारगिल संघर्ष की दास्तां लिख दी गई। एक बार फिर कट्टरपंथी दोनों देशों की दोस्ती में दखल दे रहे हैं। कराची विमान तल पर आतंकी हमला और बलूचिस्तान में निर्दोष शिया तीर्थयात्रियों के नरसंहार की क्रूर वारदातें बेशक पाकिस्तान का आंतरिक मामला है पर उससे भारत का बेखबर रहना ठीक नहीं होगा। मोदी का सभी को साथ लेकर चलना एक अच्छी सोच का परिचायक है पर हमें पड़ोसी की धोखे से वार करने की आदत से हमेशा सावधान रहने की जरूरत है। आज जो दहशतगर्द पाकिस्तानी सरजमीं को लहूलुहान कर रहे हैं वे कालांतर में भारतीय अमनचैन को आग लगाने के लिए ही तैयार किए गए थे।
पाकिस्तान में आज जो हो रहा है उसके लिए कमोबेश वही जिम्मेदार है। पाकिस्तान ने कभी यह नहीं सोचा कि आतंकवादी किसी का सगा नहीं हो सकता। पाकिस्तान में हमलों का सिलसिला लगातार जारी है। तहरीके तालिबान पाकिस्तान में हुए हमलों की जिम्मेदारी ले रहा है। जो भी हो इन हमलों के बाद आतंकवाद की राजनीति में एक नया अध्याय जरूर जुड़ गया है। पाकिस्तान के तत्कालीन फौजी तानाशाह जनरल जिया उल हक ने जब आतंकवाद को विदेश नीति का बुनियादी आधार बनाने का खतरनाक खेल खेलना शुरू किया तो दुनिया के शान्तिप्रिय लोगों ने उन्हें आगाह किया था कि आतंकवाद को कभी भी राजनीति का हथियार नहीं बनाना चाहिए। लेकिन जनरल जिया अपनी जिद पर अड़े रहे और उन्होंने भारत के कश्मीर और पंजाब में फौज की मदद से आतंकवादियों की घुसपैठ कराने का काम जारी रखा। भारत ही नहीं जिया ने पड़ोसी फगानिस्तान में भी अमरीकी मदद से आतंकवादियों की बड़े पैमाने पर तैनाती की। आज जनरल जिया का आतंकवाद अपनी जड़ें जमा चुका है। यह बात दीगर है कि आज आतंकवाद की आग में भारत और अफगानिस्तान से कहीं ज्यादा पाकिस्तान तबाह हो रहा है।
पाकिस्तानी मौजूदा खून-खराबे में उसकी फौज और आईएसआई के खिलाफ आज उसके पोषक आतंकवादी ही मैदान में हैं। यह पहला अवसर है जब पाकिस्तान के खिलाफ तालिबान के लड़ाकू हमला कर रहे हैं। जो आतंकवाद भारत को नुकसान पहुंचाने के लिए पाकिस्तानी फौज ने तैयार किया था आज वही उसके लिए मुसीबत का सबब बन गया है। 1980 के दशक में पाकिस्तान अमरीका की कठपुतली के रूप में भारत के खिलाफ आतंकवाद फैलाने का काम करता था। अमरीका और भारत के बीच विरोध की वजह निर्गुट आंदोलन की स्थापना थी जिसे अमरीका की रजांदी के खिलाफ पंडित जवाहरलाल नेहरू ने शुरू की थी। करीब तीन साल पहले अमरीका की जेएफके लाइब्रेरी द्वारा नेहरू-केनेडी पत्र-व्यवहार को सार्वजनिक किये जाने के बाद कुछ ऐसे तथ्य सामने आये जिनसे पता चलता है कि अमरीका ने भारत की मुसीबत के वक्त कभी कोई मदद नहीं की। भारत पर जब 1962 में चीन का हमला हुआ था उस वक्त नवस्वतंत्र भारत के लिए सबसे बड़ी मुसीबत थी।
तब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अमरीका से मदद की गुहार लगाई थी लेकिन तब अमरीकी राष्ट्रपति जॉन केनेडी ने कोई सहारा देना तो दूर पंडित जी के पत्रों का जवाब तक नहीं दिया था। इसके बाद इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद लिंडन जॉनसन ने भारत का अमरीकी कूटनीति के हित में इस्तेमाल करने की कोशिश की थी लेकिन इंदिरा गांधी ने अपने राष्ट्रहित को महत्व देते हुए गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की नेता के रूप में भारत का गौरव बढ़ाया। पिछले छह दशक के इतिहास पर नजर डालें तो अमरीका ने भारत को हमेशा ही नीचा दिखाने की कोशिश की है। 1948 में जब कश्मीर मामला संयुक्त राष्ट्र में गया था तो तेजी से सुपर पॉवर बन रहे अमरीका ने भारत के खिलाफ काम किया था। 1965 में जब कश्मीर में घुसपैठ हुई उस वक्त के पाकिस्तानी तानाशाह जनरल अयूब ने भारत पर जो हमला किया था, उनकी सेना के पास पाये गये सभी हथियार अमरीकी ही थे। उस लड़ाई में जिन पैटन टैंकों को भारतीय सेना ने नेस्तनाबूद किया था, वे सभी अमरीका की खैरात के रूप में पाकिस्तान की झोली में आये थे।
पाकिस्तानी सेना के हार जाने के बाद अमरीका ने भारत पर दबाव बनाया था कि वह अपने कब्जे वाले पाकिस्तानी इलाकों को छोड़ दे। 1971 की बंगलादेश मुक्ति लड़ाई में भी अमरीकी राष्ट्रपति निक्सन ने तानाशाह याहया खां के बड़े भाई के रूप में काम किया था और भारत को धमकाने के लिए अमरीकी सेना के सातवें बेड़े को बंगाल की खाड़ी में तैनात कर दिया था। उस वक्त के अमरीकी विदेश मंत्री हेनरी कीसिंजर ने न केवल पाकिस्तान की तरफ से पूरी दुनिया में पैरवी की थी बल्कि संयुक्तराष्ट्र में भी भारत के खिलाफ काम किया था। जब भी भारत ने परमाणु परीक्षण किया अमरीका को ही तकलीफ हुई। भारत ने बार -बार पूरी दुनिया से अपील की कि बिजली पैदा करने के लिए उसे परमाणु शक्ति का विकास करने दिया जाए, लेकिन अमरीका हमेशा राह में रोड़ा बना और उसने भारत पर तरह-तरह की पाबंदियां लगार्इं। अमरीका की हमेशा कोशिश रही कि वह भारत और पाकिस्तान को बराबर की हैसियत वाला मुल्क बना कर रखे लेकिन वह कभी सफल नहीं हो सका। आज भारत के जिन इलाकों में भी अशांति है,वह सब अमरीका की कृपा से की गयी पाकिस्तानी दखलंदाजी का ही नतीजा है। कश्मीर में आज जो कुछ भी पाकिस्तान कर रहा है उसके पीछे पूरी तरह से अमरीका का हाथ है। पंजाब में भी आतंकवाद पाकिस्तानी फौज की ही देन था। आज जिस तरह पाक अपनी ही लगाई आग में धू-धू कर जल रहा है उसकी फौज और राजनेताओं को चाहिए कि वे अपने देश की सुरक्षा को सबसे ऊपर रखें वरना एक राष्ट्र के रूप में पाक साफ हो जाएगा।
भारत-पाकिस्तान के बीच रिश्ते सुधारने की पहल अटल बिहारी बाजपेयी और परवेज मुशर्रफ के शासनकाल में भी परवान चढ़ी थी लेकिन तब उस ठोस पहल पर कारगिल संघर्ष की दास्तां लिख दी गई। एक बार फिर कट्टरपंथी दोनों देशों की दोस्ती में दखल दे रहे हैं। कराची विमान तल पर आतंकी हमला और बलूचिस्तान में निर्दोष शिया तीर्थयात्रियों के नरसंहार की क्रूर वारदातें बेशक पाकिस्तान का आंतरिक मामला है पर उससे भारत का बेखबर रहना ठीक नहीं होगा। मोदी का सभी को साथ लेकर चलना एक अच्छी सोच का परिचायक है पर हमें पड़ोसी की धोखे से वार करने की आदत से हमेशा सावधान रहने की जरूरत है। आज जो दहशतगर्द पाकिस्तानी सरजमीं को लहूलुहान कर रहे हैं वे कालांतर में भारतीय अमनचैन को आग लगाने के लिए ही तैयार किए गए थे।
पाकिस्तान में आज जो हो रहा है उसके लिए कमोबेश वही जिम्मेदार है। पाकिस्तान ने कभी यह नहीं सोचा कि आतंकवादी किसी का सगा नहीं हो सकता। पाकिस्तान में हमलों का सिलसिला लगातार जारी है। तहरीके तालिबान पाकिस्तान में हुए हमलों की जिम्मेदारी ले रहा है। जो भी हो इन हमलों के बाद आतंकवाद की राजनीति में एक नया अध्याय जरूर जुड़ गया है। पाकिस्तान के तत्कालीन फौजी तानाशाह जनरल जिया उल हक ने जब आतंकवाद को विदेश नीति का बुनियादी आधार बनाने का खतरनाक खेल खेलना शुरू किया तो दुनिया के शान्तिप्रिय लोगों ने उन्हें आगाह किया था कि आतंकवाद को कभी भी राजनीति का हथियार नहीं बनाना चाहिए। लेकिन जनरल जिया अपनी जिद पर अड़े रहे और उन्होंने भारत के कश्मीर और पंजाब में फौज की मदद से आतंकवादियों की घुसपैठ कराने का काम जारी रखा। भारत ही नहीं जिया ने पड़ोसी फगानिस्तान में भी अमरीकी मदद से आतंकवादियों की बड़े पैमाने पर तैनाती की। आज जनरल जिया का आतंकवाद अपनी जड़ें जमा चुका है। यह बात दीगर है कि आज आतंकवाद की आग में भारत और अफगानिस्तान से कहीं ज्यादा पाकिस्तान तबाह हो रहा है।
पाकिस्तानी मौजूदा खून-खराबे में उसकी फौज और आईएसआई के खिलाफ आज उसके पोषक आतंकवादी ही मैदान में हैं। यह पहला अवसर है जब पाकिस्तान के खिलाफ तालिबान के लड़ाकू हमला कर रहे हैं। जो आतंकवाद भारत को नुकसान पहुंचाने के लिए पाकिस्तानी फौज ने तैयार किया था आज वही उसके लिए मुसीबत का सबब बन गया है। 1980 के दशक में पाकिस्तान अमरीका की कठपुतली के रूप में भारत के खिलाफ आतंकवाद फैलाने का काम करता था। अमरीका और भारत के बीच विरोध की वजह निर्गुट आंदोलन की स्थापना थी जिसे अमरीका की रजांदी के खिलाफ पंडित जवाहरलाल नेहरू ने शुरू की थी। करीब तीन साल पहले अमरीका की जेएफके लाइब्रेरी द्वारा नेहरू-केनेडी पत्र-व्यवहार को सार्वजनिक किये जाने के बाद कुछ ऐसे तथ्य सामने आये जिनसे पता चलता है कि अमरीका ने भारत की मुसीबत के वक्त कभी कोई मदद नहीं की। भारत पर जब 1962 में चीन का हमला हुआ था उस वक्त नवस्वतंत्र भारत के लिए सबसे बड़ी मुसीबत थी।
तब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अमरीका से मदद की गुहार लगाई थी लेकिन तब अमरीकी राष्ट्रपति जॉन केनेडी ने कोई सहारा देना तो दूर पंडित जी के पत्रों का जवाब तक नहीं दिया था। इसके बाद इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद लिंडन जॉनसन ने भारत का अमरीकी कूटनीति के हित में इस्तेमाल करने की कोशिश की थी लेकिन इंदिरा गांधी ने अपने राष्ट्रहित को महत्व देते हुए गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की नेता के रूप में भारत का गौरव बढ़ाया। पिछले छह दशक के इतिहास पर नजर डालें तो अमरीका ने भारत को हमेशा ही नीचा दिखाने की कोशिश की है। 1948 में जब कश्मीर मामला संयुक्त राष्ट्र में गया था तो तेजी से सुपर पॉवर बन रहे अमरीका ने भारत के खिलाफ काम किया था। 1965 में जब कश्मीर में घुसपैठ हुई उस वक्त के पाकिस्तानी तानाशाह जनरल अयूब ने भारत पर जो हमला किया था, उनकी सेना के पास पाये गये सभी हथियार अमरीकी ही थे। उस लड़ाई में जिन पैटन टैंकों को भारतीय सेना ने नेस्तनाबूद किया था, वे सभी अमरीका की खैरात के रूप में पाकिस्तान की झोली में आये थे।
पाकिस्तानी सेना के हार जाने के बाद अमरीका ने भारत पर दबाव बनाया था कि वह अपने कब्जे वाले पाकिस्तानी इलाकों को छोड़ दे। 1971 की बंगलादेश मुक्ति लड़ाई में भी अमरीकी राष्ट्रपति निक्सन ने तानाशाह याहया खां के बड़े भाई के रूप में काम किया था और भारत को धमकाने के लिए अमरीकी सेना के सातवें बेड़े को बंगाल की खाड़ी में तैनात कर दिया था। उस वक्त के अमरीकी विदेश मंत्री हेनरी कीसिंजर ने न केवल पाकिस्तान की तरफ से पूरी दुनिया में पैरवी की थी बल्कि संयुक्तराष्ट्र में भी भारत के खिलाफ काम किया था। जब भी भारत ने परमाणु परीक्षण किया अमरीका को ही तकलीफ हुई। भारत ने बार -बार पूरी दुनिया से अपील की कि बिजली पैदा करने के लिए उसे परमाणु शक्ति का विकास करने दिया जाए, लेकिन अमरीका हमेशा राह में रोड़ा बना और उसने भारत पर तरह-तरह की पाबंदियां लगार्इं। अमरीका की हमेशा कोशिश रही कि वह भारत और पाकिस्तान को बराबर की हैसियत वाला मुल्क बना कर रखे लेकिन वह कभी सफल नहीं हो सका। आज भारत के जिन इलाकों में भी अशांति है,वह सब अमरीका की कृपा से की गयी पाकिस्तानी दखलंदाजी का ही नतीजा है। कश्मीर में आज जो कुछ भी पाकिस्तान कर रहा है उसके पीछे पूरी तरह से अमरीका का हाथ है। पंजाब में भी आतंकवाद पाकिस्तानी फौज की ही देन था। आज जिस तरह पाक अपनी ही लगाई आग में धू-धू कर जल रहा है उसकी फौज और राजनेताओं को चाहिए कि वे अपने देश की सुरक्षा को सबसे ऊपर रखें वरना एक राष्ट्र के रूप में पाक साफ हो जाएगा।
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