Thursday 19 June 2014

उमा पर गंगा उद्धार की चुनौती

जो मनुष्य नदी में थूकता, कूड़ा करकट डालता, गंदा जल डालता, नदी किनारे शौच करता और मल त्याग करता है, वह न केवल नर्क में जाता है बल्कि उस पर ब्रह्महत्या का पाप भी लगता है। हमें पद्य पुराण में कही इन बातों पर जरा भी यकीन है तो सच मानिए हम सब पर जल सम्पदा के दुरुपयोग के चलते किसी न किसी रूप में ब्रह्महत्या का पाप लग चुका है। यही वजह है कि जलजनित व्याधियों से आज मानव समाज अभिशप्त है। देश भर में हर रोज शुद्ध पेयजल को लेकर जगह-जगह फसाद हो रहे हैं और निर्दोष लोगों की जानें जा रही हैं। केन्द्र की सल्तनत पर नरेन्द्र मोदी के काबिज होने के बाद पानी को अभिशप्त समाज में एक उम्मीद जगी है कि अब गंगा और यमुना कि दिन बहुरेंगे तथा पतित पावनी गंगा अब मैली नहीं रहेगी। देश में नदियों की शुद्धता काम आसान बात नहीं है, पर जल संसाधन, नदी विकास और गंगा सफाई मंत्रालय की अलम्बरदार साध्वी उमा भारती ने इस दुरूह कार्य को अंजाम तक पहुंचाने का न केवल संकल्प लिया है बल्कि वह आज हर उस चौखट पर जा रही हैं, जहां से उन्हें मदद की जरा भी उम्मीद है।
भारत को नदियों और मंदिरों का देश कहा जाता है। लेकिन सच यही है कि यहां नदियों और मंदिरों की दशा काफी सोचनीय है। नदियों और मंदिरों के चारों तरफ पसरी गंदगी हर किसी को नाक-भौं सिकोड़ने पर मजबूर कर देती है। जो एक बार जाता है फिर कभी न जाने की कसम खा लेता है। नदियों की शुद्धता आज ज्वलंत मुद्दा है। इस पर अब तक अरबों रुपया खर्च किया जा चुका है पर नतीजा कतई संतोषजनक नहीं है। इस मामले में अंधश्रद्धा और आस्था भी बड़ा रोड़ा है यही वजह है कि इस मामले में असहाय सरकारों ने भी कमोबेश घुटने टेक दिए हैं। उन्हें लगने लगा है कि यह लाइलाज बीमारी है। भारत का भौगोलिक क्षेत्रफल 32.90 लाख वर्ग किलोमीटर तो देश में स्थित नदियों का जलग्रहण क्षेत्रफल 31 लाख वर्ग किलोमीटर है। इन नदियों में लगभग 4000 घन किलोमीटर जल बहता है। देश में 14 बड़ी, 45 मध्यम तथा 170 छोटी नदियां हैं एवं कुल उपलब्ध जल संसाधन की मात्रा 1953 घन किलोमीटर आंकी गई है इसमें उपयोग में आने वाला सतही जल 693 घन किलोमीटर एवं भूजल 431 घन किलोमीटर है। मुल्क में प्रदूषण का आलम यह है कि कुल जल सम्पदा का 65 फीसदी से अधिक जल प्रदूषित हो चुका है।
देश में तीव्र गति से हो रहे उद्योगी और शहरीकरण से जल की मांग निरंतर बढ़ती जा रही है। जल समस्या से निजात को केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा वर्ष 1976 में जल गुणवत्ता प्रबंध संस्थान की स्थापना की गई। भारत के प्रमुख जल निकायों पर 550 से अधिक प्रबंधन केन्द्र स्थापित हैं जिसमें से लगभग 400 संस्थान नदियों के शुद्धिकरण तथा शेष भूमिगत जल प्रबंधन के लिए स्थापित हैं। जल गुणवत्ता प्रबंधन केन्द्र मानता है कि फिलवक्त देश में अमोनिक एवं बैक्टीरियल मिश्रण की उत्तरोतर वृद्धि हो रही है। इस समस्या का प्रमुख कारण शहरी क्षेत्र के अपजल का बिना समुचित शोधन नदियों तथा अन्य जलस्रोतों में समाहित होना है। जल निकाय चाहकर भी इसे शुद्ध इसलिए नहीं कर सकते क्योंकि इस मिश्रण के तनुकरण के लिये वहां पर्याप्त जलराशि का अभाव है। पानी की अनुपलब्धता में आज नदियां सूख रही हैं तो कुल उपलब्ध जलराशि का 50 फीसदी प्रदूषित है। इस जल प्रदूषण के लिए 70 फीसदी घरेलू निश्राव तथा 30 प्रतिशत मिश्राव प्रमुख कारण है। गंगा और यमुना शुद्धिकरण के अब तक बहुतेरे भगीरथ प्रयास किए जा चुके हैं लेकिन आज स्थिति इतनी भयावह हो चली है कि शहरी आबादी का 80 प्रतिशत से अधिक मलजल बिना किसी प्रभावी उपचार के नदियों में छोड़ा जा रहा है। औद्योगिक मिश्राव का 70 प्रतिशत से अधिक प्रदूषित जल बिना उपचार के जलीय संसाधनों में विसर्जित कर दिया जाता है। यही वजह है कि कुल उपलब्ध भूजल सम्पदा का 50 फीसदी से अधिक जल प्रदूषित हो चुका है। इस मात्रा में सात प्रतिशत से अधिक स्वयमेव भूमि में मिश्रित रसायनों के कारण प्रदूषित है।  जल प्रदूषण के दंश से सिर्फ भारत ही नहीं दुनिया के दूसरे देश भी आहत हैं यही वजह है कि आज विश्व की डेढ़ अरब आबादी को पीने का शुद्ध पानी तक मयस्सर नहीं है। भारत में शुद्ध पेयजल की स्थिति काफी चिन्ताजनक है। शहरों में पेयजल जैसी सार्वजनिक व्यवस्थाएं दम तोड़ रही हैं तो निजीकरण की आड़ में इन्हें लाभ कमाने का जरिया बनाया जा रहा है। भारत के पास दुनिया का चार प्रतिशत नवीकरणीय जल संसाधन है जबकि जनसंख्या 17 प्रतिशत। यहां दो तिहाई भूजल भण्डार खाली हो चुके हैं और जो बचे हैं वे भी प्रदूषित होते जा रहे हैं। सम्भावना है कि 2050 तक भारत चीन को पीछे छोड़ते हुए आबादी के मामले में पहले नम्बर पर पहुंच जाएगा और उस स्थिति में लगभग 160 करोड़ लोगों के लिए जल संकट विकराल रूप धारण कर सकता है।
अब सवाल यह उठता है कि जब पानी ही नहीं होगा तो आपूर्ति किसकी करेंगे? विकास की दौड़ में कोई भी रुककर यह सोचने को तैयार नहीं है कि शहरों का विस्तार नियंत्रित हो। पर्यावरण के प्रति सचेत समुदाय को विकास विरोधी होने का तमगा देना अब फैशन बन गया है। क्या जल, जंगल, जमीन, खनिज सब कुछ बाजार के हवाले कर देना ही विकास है? आज बाजार का विस्तार तय करने को भी कोई तैयार नहीं है।
उमा भारती की गंगा और यमुना के कायाकल्प की प्रतिबद्धता पर किसी को संदेह नहीं है। वह ऊर्जावान हैं, जो ठान लेती हैं, उसे अंजाम तक पहुंचाकर ही दम लेती हैं लेकिन सवाल यह भी उठता है कि क्या गंगा और यमुना के शुद्धिकरण से ही मुल्क की सारी समस्याओं का समाधान हो जाएगा। मोदी सरकार यदि वास्तव में भारत के भविष्य को लेकर चिंतित है तो उसे अंतिम वृक्ष, आखिरी नदी और अंतिम मछली का इंतजार नहीं करना चाहिए और पूरी शिद्दत से स्वीकारना चाहिए कि पैसे खाकर जिन्दा नहीं रहा जा सकता।

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