Saturday 9 May 2015

खिलाड़ियों के उत्पीड़न की इन्तिहा

केरल के अलाप्पुझा जिले के वेम्बानाड लेक स्थित भारतीय खेल प्राधिकरण सेण्टर में प्रशिक्षकों और सीनियर खिलाड़ियों से आजिज चार बालिका खिलाड़ियों के जहर खाकर जान देने के मामले का स्याह सच तो जांच के बाद पता चलेगा पर जो भी हुआ उससे खेल की दुनिया में भारत की जरूर किरकिरी हुई है। भारत में महिला खिलाड़ियों के उत्पीड़न और यौन शोषण के लगातार बढ़ते मामले यह साबित करते हैं कि यहां सारी की सारी खेल गंगोत्री गलत हाथों में है। एक तरफ भारत सरकार रियो ओलम्पिक में अधिकाधिक पदक जीतने की लालसा पाले है तो दूसरी तरफ उसका समूचा खेल परिदृश्य प्रशिक्षकों की काली करतूतों से लगी आग में धू-धू कर जल रहा है। इस आग में भारतीय बेटियों के अरमान जल रहे हैं तो दूसरी तरफ बेशर्म प्रशिक्षक जोश में होश खो रहे हैं।
भारत में गुरु-शिष्य परम्परा के पवित्र रिश्ते पर बुरी नजर डालकर चूल्लू भर पानी में डूब मरने का काम एक-दो लोगों तक सीमित नहीं है बल्कि इसमें मुल्क के हजारों गुरु-घण्टाल शामिल हैं। खेलों में खिलवाड़ का यह पहला मामला होता तो यह माना जाता कि बेटियां बेवजह प्रशिक्षकों को बदनाम कर रही हैं, इससे पहले भी महिला खिलाड़ियों के उत्पीड़न के दर्जनों मामले सामने आये, पर वही चोर वही पहरुआ की तर्ज पर हर मामले को रफा-दफा कर दिया गया। पांच साल पहले हॉकी खिलाड़ी टी. रंजीता देवी ने अपने कोच महाराज किशन कौशिक तो मध्यप्रदेश की महिला बॉस्केटबाल प्रशिक्षक माधवी शर्मा ने संयुक्त संचालक खेल विनोद प्रधान पर कुदृष्टि डालने का आरोप लगाया था, पर जांच के नाम पर न केवल लीपापोती हुई बल्कि गुनाहगारों को ही क्लीन चिट दे गई। देश में महिला खिलाड़ियों के उत्पीड़न की जहां तक बात है सिडनी ओलम्पिक खेलों की कांस्य पदक विजेता भारोत्तोलक कर्णम मल्लेश्वरी, पूर्व भारतीय हॉकी गोलकीपर हैलेन मैरी, पूर्व भारतीय महिला हॉकी कप्तान सुरिन्दर कौर, जसजीत कौर सहित दर्जनों भारतीय महिला खिलाड़ियों का साफ-साफ कहना है कि बेटियों पर प्रशिक्षक न केवल कुदृष्टि डालते हैं बल्कि उनका दैहिक शोषण किया जाता है।
भारतीय खेलों में प्रशिक्षकों और खेलनहारों की हैवानियत के एक-दो नहीं हजारों ऐसे मामले हैं जिन पर पूर्व में ही यदि कठोर कार्रवाई हुई होती तो शायद केरल की जलपरियों के साथ जो हुआ वैसा नहीं होता। सच्चाई तो यह है कि खिलाड़ी बेटियों के साथ दुराचार भारतीय खेल परिदृश्य का हिस्सा बन चुका है। यह घिनौना कृत्य अमूमन हर खेल में अपनी जड़ें गहरे जमा चुका है। चौंकाने वाली बात तो यह है कि यह विषबेल शहरी मैदानों से निकल कर अब गांव-गलियों के मैदानों तक जा पहुंची है। देखा जाये तो मुल्क के अधिकांश क्रीड़ांगनों में बेटियां प्रशिक्षकों और खेल अधिकारियों की हैवानियत का शिकार हो रही हैं। यह बात अलग है कि कुछ खिलाड़ी बेटियां ही अपने  गुरु-घण्टालों को सबक सिखाने की हिम्मत जुटा पाती हैं। भारतीय खेलों से हबस रूपी गंदगी दूर करने व बार-बार अग्नि-परीक्षा देती बेटियों को इंसाफ दिलाने में भारतीय ओलम्पिक संघ ही नहीं भारत सरकार भी असहाय है। भारतीय ओलम्पिक संघ असहाय हो भी क्यों न जब उसके ही जवाबदेह पदाधिकारी पर ग्लासगो राष्ट्रमण्डल खेलों में रंगरेलियां मनाने का आरोप लगा तो मामले को ऐसे रफा-दफा किया गया मानों वह वाकई दूध का धुला है। खेलों में बेटियों के साथ होती हैवानियत की वारदातों पर अंकुश लगाने के बजाय ऐसे मामलों में जांच समितियां गठित कर इतिश्री कर दी जाती है। जांच समितियां इंसाफ तो नहीं दिला पातीं अलबत्ता खेल बेटियां असमय खेल मैदान छोड़कर घर में घुट-घुट कर मरने को मजबूर जरूर हो जाती हैं। बात भारतीय खेल प्राधिकरण की करें तो इनमें ग्रामीण प्रतिभाशाली खिलाड़ियों को प्रवेश तो मिल जाता है लेकिन लाख मशक्कत के बावजूद भी वे अपने ऊपर होते जुल्म-ज्यादती के खिलाफ मुंह तक नहीं खोल पातीं। देखा जाये तो भारत सरकार देश में खेलों की सेहत सुधारने के नाम पर प्रतिवर्ष अरबों रुपया पानी की तरह बहा रही है। बड़े-बड़े खेल संस्थान प्रशिक्षक और खिलाड़ी तैयार कर रहे हैं लेकिन सब दूर सांस्कारिक दोष व्याप्त है। यही वजह है कि खेलों में मादरेवतन को गौरव दिलाती बेटियां मैदानों में महफूज नहीं हैं।
खेलों में दुराचार के मामलों में हर बार बेटियों को ही अग्नि-परीक्षा देनी पड़ती है। दुर्भाग्य और दुखद बात तो यह है कि ऐसे मसलों पर बेटियों को न्याय दिलाने के मामलों में महिला खेलनहारों को भी सांप सूंघ जाता है और वे अपनी आसंदी की खातिर दुष्ट कामांधों को बचाने की पुरजोर कोशिश करती हैं। खिलाड़ी बेटियों के दैहिक शोषण में सिर्फ गुरु-घण्टाल ही नहीं बल्कि भारतीय ओलम्पिक संघ के पदाधिकारी, भारतीय खेल प्राधिकरण से जुड़े खेलनहार और खेलों में दखल देने वाले राजनीतिज्ञ भी शामिल हैं। केरल स्थित भारतीय खेल प्राधिकरण सेण्टर में चार उभरती खिलाड़ियों द्वारा आत्महत्या का प्रयास और एक खिलाड़ी का असमय काल के गाल में समा जाना दिल दहलाने वाला वाक्या है। इन चार नाबालिग लड़कियों ने जहरीला फल खाकर अपनी जिन्दगी खत्म करने का फैसला अनायास नहीं लिया होगा। उनके साथ लगातार ऐसा गलत जरूर हुआ होगा जोकि बर्दाश्त से बाहर हो गया। काश जो कवायद अब हो रही है उस पर पहले से ही सजगता बरती गई होती तो शायद एक प्रतिभाशाली खिलाड़ी मौत को गले नहीं लगाती। इस दिल दहलाने वाले वाक्ये से नि:संदेह उन बेटियों में जरूर गलत संदेश गया होगा जोकि खेलों को अपना करियर और मुल्क का गौरव बढ़ाने का माध्यम समझकर मैदान में उतरने की सोच रही होंगी। अपर्णा की मौत ने जो सवाल छोड़े हैं, उनका निदान जांच समितियां गठित करने भर से नहीं होगा। महिला उत्पीड़न से इतर भारतीय खेल प्राधिकरण के सेण्टरों में क्या-क्या गुल खिलाये जाते हैं, यह सर्वविदित है। अपर्णा की मौत और तीन अन्य खिलाड़ियों का जीवन-मौत से जूझना मामूली बात नहीं है। केन्द्रीय खेल मंत्री सर्बानंद सोनोवाल हों या फिर केरल के खेल मंत्री तिरुवंचूर राधाकृष्णन उन्हें यह ध्यान रखना होगा कि एक सुशिक्षित राज्य केरल में घटित हुए इस वाक्ये की जांच में हमेशा की तरह यदि लीपापोती हुई तो सच मानिए देश अपनी बेटियों के खेल कौशल को देखने के लिए हमेशा-हमेशा के लिए वंचित हो जाएगा।
(लेखक पुष्प सवेरा के समाचार संपादक हैं)

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