Friday 28 February 2014

वायदे हैं, वायदों का क्या!

देश की आवाम को आजादी की सांस लिए साढ़े छह दशक से अधिक समय हो चुका है पर जय जवान, जय किसान, सबको रोटी, कपड़ा और मकान रूपी सरकारी फलसफे आज भी करोड़ों लोगों से बहुत दूर हैं। लोकसभा चुनाव सिर पर हैं। राजनीतिक दल हमेशा की तरह फिर वायदों की झमाझम बारिश कर रहे हैं। चुनावी वैतरणी पार करने की होड़ और प्रधानमंत्री पद की लालसा में अधिकांश दल किसी न किसी जाति की अलम्बरदारी के बूते मुल्क की सल्तनत पर काबिज होने की पृष्ठभूमि तैयार करने में जुटे हुए हैं। सभी दलों के अपने-अपने वोट बैंक हैं लिहाजा दलितों, अल्पसंख्यकों और पिछड़ों को लुभाने की अपनी-अपनी तरह से कोशिशें जारी हैं। लोकतंत्र के सोलहवें महायज्ञ में अपने मतों की आहुति से पहले आहत-मर्माहत आम आवाम दुविधा में है, उसे फिर ठगे जाने का डर सता रहा है। मुल्क का युवा वर्ग भ्रष्टाचार के खिलाफ मुखर दिख रहा है तो दूसरी तरफ आधी आबादी जाति-धर्म से परे महंगाई से मुंह फुलाए बैठी है। होम मिनिस्टरों का यह गुस्सा किस पर फूटेगा यह तो समय बताएगा पर राजनीतिज्ञ अपने दोनों हाथों से खैरातों की खुशफहमी लुटाने का कोई मौका जाया नहीं कर रहे। इसे मौकापरस्ती कहें या भारतीय लोकतंत्र की विडम्बना कि राजनीतिज्ञों का अपनी वाणी पर भी संयम नहीं रहा।
यह सच है कि मुल्क की अर्थव्यवस्था संकट में है। महंगाई सुरसा के मुंह की तरह आम आदमी की खुशियों को निगल जाना चाहती है बावजूद सरकारें अपनी  उपलब्धियों का गुणगान करने में इस कदर मस्त हैं कि उन्हें गरीब परवरदिगारों की मुश्किलें दिखाई ही नहीं दे रहीं। कांग्रेस इस भरोसे में जी रही है कि खाद्य सुरक्षा, मनरेगा, गैर सब्सिडी और कैश फॉर सब्सिडी आमजन के गमों को भुला देगी, पर कैसे? खैरातों के इस दौर पर हमारी शीर्ष अदालत की चिन्ता बिल्कुल जायज है। आजादी के बाद से ही राजनीतिक दलों ने सत्ता की खातिर आम आवाम को गहरे जख्म दिए हैं। गरीबों के यही जख्म अब नासूर बन चुके हैं। किसी काम को कर सकने की सामर्थ्य और आर्थिक क्षमता का आकलन किए बिना लोकलुभावन घोषणाएं राजनीतिज्ञों का शगल बन गई हैं। चुनाव पूर्व सत्तासीन केन्द्र ही नहीं राज्य सरकारें भी अपनी जर्जर अर्थव्यवस्था से बेखबर ऐसी घोषणाएं कर रही हैं जिन्हें पूरा कर पाना भविष्य में असम्भव होगा।
आगत ही नहीं विगत चुनावों में भी विकास पर खर्च होने वाला अकूत पैसा चुनावी चकल्लस में खर्च होता रहा है। राजनीतिक दलों के इस फरेबी कृत्य पर शीर्ष अदालत ही नहीं चुनाव आयोग की मुस्तैदी काबिलेगौर है, पर पहले भी आयोग राजनीतिक दलों को घोषणा-पत्र के लिए दिशा-निर्देश जारी करता रहा है ताकि वे अपने वायदों के व्यावहारिक पहलुओं का आकलन कर ही कोई घोषणा करें। अफसोस, चुनाव आयोग की इस चिन्ता को राजनीतिक दलों ने कभी गम्भीरता से नहीं लिया। सरकारों ने न कभी आर्थिक विकास को गति दी, न सुशासन स्थापित किया और न ही आर्थिक संसाधनों के विकास की पहल होती दिखी। सच्चाई यह है कि देश में ऐसा कोई नियम-कानून नहीं है जो राजनीतिक दलों को बाध्य कर सके कि वे कैसी घोषणाएं कर सकते हैं और कैसी नहीं। जब तक इसको लेकर कोई स्थायी व्यवस्था हमारी शीर्ष अदालत और चुनाव आयोग नहीं देते, तब तक राजनीतिज्ञों की हिमाकत पर अंकुश नहीं लगेगा। आज शायद ही कोई दल या राजनेता हो जो वायदों की नैतिकता की कसौटी पर खरा उतरता हो। अब तो राजनीतिज्ञों की नजर में वायदे हैं वायदों का क्या, रूपी जुमला आम हो गया है। लाखों-करोड़ों के कर्ज में डूबी उत्तर प्रदेश सरकार दिल्ली की सल्तनत की खातिर लैपटॉप और बेरोजगारी भत्ता सहित अनगिनत सौगातें बांटने में लगी है तो दूसरे सूबे के राजनीतिक दल भूखे पेट भरने की जगह उनसे दैनिक उपयोग की वस्तुएं देने का वायदा कर रहे हैं। यह सब किसी भी सरकार के लिए नामुमकिन है।
हर चुनाव से पहले खैरातें बंटना चलन सा हो गया है लेकिन कोई भी दल उनके अनुपालन के लिए वित्तीय संसाधन जुटाने पर विचार नहीं करता। यही वजह है कि सल्तनत मिलने के बाद सरकारों की वादाखिलाफी के विरोध में सड़कों पर नंगनाच होता है। वास्तविकता तो यह  है कि सरकारों की लोकलुभावन नीतियां ही जनता के लिए मुसीबत का सबब बन रही हैं। पिछले तीन साल में खाद्य पदार्थों की कीमतें 48 फीसदी बढ़ चुकी हैं वहीं  हमारा धरती पुत्र कर्ज के बोझ तले दब गया है। देश की जीडीपी में कृषि का योगदान बराबर गिरता जा रहा है। खेती-किसानी दिन-प्रतिदिन घाटे का सौदा होती जा रही है, इसलिए 60 प्रतिशत से अधिक किसान दो जून की रोटी के लिए मनरेगा पर निर्भर हैं। कृषि की बदहाली का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2007 से 2012 के बीच करीब 3.2 करोड़ किसानों ने खेती से तौबा कर ली है और पेट भरने के लिए शहरों की ओर पलायन कर चुके हैं। जो लोग कृषि छोड़ रहे हैं, अपना घर-बार छोड़ रहे हैं और बेहतर जीवन के लिए शहर जा रहे हैं वे वहां मजदूरी करने या फिर रिक्शा खींचने को मजबूर हैं। आजादी के बाद से ही हमारे राजनीतिज्ञ झूठे वायदों के सहारे आम आवाम को खून के आंसू रुला रहे हैं। यही वजह है कि आज का राजनीतिज्ञ आवाम की नजर में औरंगजेब, नैपोलियन बोनापार्ट और हिटलर की ही तरह हेयदृष्टि से देखा जाने लगा है। अपवाद गिने नहीं जाते। अशोक सम्राट युद्ध में लाशों के ढेर के कारण अशोक महान नहीं कहलाये वरन उनका लाशों के प्रति प्रायश्चित और लोगों के प्रति सहानुभूति ने उन्हें महान बनाया। यह कुदरत का नियम है जो हंसाता है वही हंसी का लाभ भी उठाता है और जो समाज को रुलाता है वह देर-सवेर ही सही, रोता भी है।

Friday 21 February 2014

विदेशों में भारतीय क्रिकेट टीम के प्रदर्शन की होगी समीक्षा

भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) ने विदेशी धरती पर भारतीय टीम के प्रदर्शन की समीक्षा करने का फैसला किया है। बीते तीन साल में भारत ने विदेशों में एक भी श्रृंखला नहीं जीती है।
बीसीसीआई के शीर्ष अधिकारी जल्द ही कप्तान महेंद्र सिंह धोनी और कोच डंकन फ्लेचर से मिलने वाले हैं। दोनों से यह जानने का प्रयास किया जाएगा कि बीते तीन साल में विदेशों में भारत के प्रदर्शन में लगातार गिरावट क्यों आई है?
बकौल बोर्ड अधिकारी, हम हालात का जायजा लेना चाहते हैं। हम जानना चाहते हैं कि आखिरकार गलती कहां हो रही है। हम उनसे यह भी जानना चाहेंगे कि सुधार के क्या रास्ते हैं। फ्लेचर ने 2011 में इंग्लैंड दौरे के साथ भारत के कोच के तौर पर काम करना शुरू किया था। उस श्रृंखला में भारत को 0-4 से हार मिली थी और उसके बाद के तीन सालों में भारत ने घर में तो कई श्रृंखलाएं जीती हैं लेकिन विदेशोें में उसे लगातार हार मिली है। अधिकारी ने कहा कि न्यूजीलैंड के हाथों मिली हार के बाद लोगों में टीम के प्रदर्शन को लेकर गुस्सा था और वे चाहते थे कि कप्तान और कोच को हटाया जाए लेकिन इसके बावजूद बोर्ड ने उन पर विश्वास कायम करते हुए उन्हें आगे की जिम्मेदारी सौंपी है। धोनी की कप्तानी में भारतीय टीम विदेशों में लगातार चार टेस्ट श्रृंखला गंवा चुकी है। विदेशी धरती पर खेली गई किसी टेस्ट श्रृंखला में भारत को अंतिम जीत जून 2011 में मिली थी। भारतीय टीम ने तीन मैचों की श्रृंखला में वेस्टइंडीज को 1-0 से हराया था लेकिन उसके बाद से सूखा सा आ गया है। इस दौरान भारत ने अपने घर में चार श्रृंखलाएं जीतीं लेकिन विदेशों में जीत का उसका मंसूबा धरा ही रह गया है।
न्यूजीलैंड ने मंगलवार को समाप्त दो मैचों की टेस्ट श्रृंखला में भारत को 1-0 से हराया। उसने आॅकलैंड टेस्ट में जीत हासिल की थी। वेलिंगटन में भारतीय टीम तीसरे दिन तक जीत की स्थिति में थी लेकिन चौथे और पांचवें दिन के खेल के दौरान वह बैकफुट पर नजर आई और एक समय टेस्ट गंवाने की स्थिति में दिख रही थी लेकिन विराट कोहली ने नाबाद 105 रन बनाकर उसे इस फजीहत से बचा लिया। न्यूजीलैंड दौरे से पहले भारत ने दक्षिण अफ्रीका दौरा किया था और वहां उसे दो मैचों की टेस्ट श्रृंखला में 0-1 से मुंह की खानी पड़ी थी। उससे पहले 2013-14 और 2012-13 सत्रों में भारत ने दो लगातार घरेलू श्रृंखलाएं जीतीं। उसने वेस्टइंडीज को दो मैचों की श्रृंखला में पारी के अंतर से हराया। यह सचिन तेंदुलकर की विदाई श्रृंखला थी। उससे पहले भारत ने बार्डर-गावस्कर ट्रॉफी के तहत आस्टेलिया के साथ खेली गई चार मैचों की श्रृंखला में 4-0 से जीत हासिल की थी। उस श्रृंखला में भारतीय टीम का प्रदर्शन काबिलेतारीफ था लेकिन उसे उतना प्रभावशाली नहीं माना गया क्योंकि आस्टेलियाई टीम संक्रमणकाल से गुजर रही थी और वह अपनी क्षमता के अनुरूप नहीं खेल सकी थी। आस्टेलिया पर फतह से पहले 2012-13 सत्र में ही भारत ने इंग्लैंड की मेजबानी की थी, जो उसके लिए नाक कटाने वाला साबित हुआ था। इंग्लिश टीम ने भारत को उसके घर में 2-1 से हराकर अपना वर्चस्व कायम किया था। इस श्रृंखला से पहले भारत ने न्यूजीलैंड टीम की मेजबानी की थी और दो मैचों की श्रृंखला में 2-0 से जीत हासिल की थी। उस हार से ही तमतमाई कीवी टीम ने अपने घर में न सिर्फ भारत को एकदिवसीय श्रृंखला में हराया बल्कि टेस्ट मैचों में पटखनी दी। जून 2011 में वेस्टइंडीज पर मिली अंतिम विदेशी टेस्ट श्रृंखला के बाद भारत ने इंग्लैंड का दौरा किया था। यह दौरा भारत के दिग्गजों के लिए आंख खोलने वाला साबित हुआ था। एशेज में कई मौकों पर आस्टेलिया को पटखनी देने वाली इंग्लिश टीम ने खेल के हर विभाग में भारत को दोयम साबित करते हुए चार मैचों की श्रृंखला 4-0 से अपने नाम की थी। 2011-12 सत्र में जब वेस्टइंडीज टीम भारत दौरे पर आई तो भारत ने उसे एक बार फिर तीन मैचों की श्रृंखला में 2-0 से हराकर इंग्लैंड के हाथों बीती हार का गम भुलाने का प्रयास किया लेकिन उसकी अगली परीक्षा आस्टेÑलिया दौरे पर होनी थी। तमाम दिग्गजों से लैस भारतीय टीम को आस्टेÑलिया में अगले ही दौरे में 4-0 की हार मिली। इसी ने शायद भारत को 2012-13 सत्र में अपने घर में आस्टेÑलिया को इसी अंतर से हराने की प्रेरणा दी थी।

हत्यारों की सजा पर सियासत

मौत आमजन की हो या किसी खास की, मौत तो आखिर मौत ही होती है। किसी पर दिल से दया करना अच्छी बात है लेकिन पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के मामले को लेकर जो कुछ हो रहा है वह सतही सियासत की पराकाष्ठा के सिवा कुछ भी नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राजीव गांधी के हत्यारों की मृत्युदण्ड की सजा को आजीवन कारावास में बदलना मानवाधिकार उल्लंघन की मजबूत मुखालफत है तो राजनीतिक दलों की सजायाफ्ता लोगों की रिहाई की कुचेष्टा सियासी मजबूरी से प्रेरित शर्मनाक कृत्य है। यदि समय रहते सभी राजनीतिक दल क्षेत्रवाद और जातिवाद  के नंगनाच से बाज नहीं आये तो वह दिन दूर नहीं जब लाख सुरक्षा व्यवस्था के बावजूद आमजन का जीना दुश्वार हो जाएगा। अपराधी किसी का सगा नहीं होता, उसे जब भी मौका मिलेगा समाज और मुल्क का अहित ही करेगा।
सर्वोच्च न्यायालय के दिशा निर्देश मानवाधिकार और समाज की इस मान्यता पर आधारित हैं कि यथासम्भव किसी को फांसी न मिले। भारत को छोड़ दें तो दुनिया के अधिकांश देशों में मृत्युदण्ड पर रोक लग चुकी है। हमारे यहां मृत्युदण्ड का प्रावधान तो है लेकिन अब तक दुर्लभतम मामलों में ही लोगों को फांसी दी गई है। इस प्रक्रिया को हमें मजबूत न्यायिक प्रक्रिया के रूप देखना चाहिए। मुल्क में किसी को फांसी देने से पहले उसे राष्टÑपति और राज्यपाल के पास दया याचना की छूट है। अब तक कई सजायाफ्ता लोग राष्ट्रपति की दरियादिली के चलते मौत से बच भी चुके हैं। दया याचिका का जहां तक सवाल है, मौजूदा समय में इस अधिकार पर हमारी सल्तनतें फैसला लेने लगी हैं। राजीव गांधी मामले में आज जो हो रहा है उसके लिए जयललिता ही नहीं कमोबेश कांग्रेस भी कम जवाबदेह नहीं है। कांग्रेस ने इस मामले में यदि त्वरित फैसला लिया होता तो शायद अब तक राजीव गांधी के हत्यारे फांसी का फंदा चूम चुके होते। मृत्यदण्ड ही नहीं दीगर मसलों पर भी हमारी न्यायपालिकाएं समय-समय पर सरकारों को आगाह करती रही हैं लेकिन कार्यपालिका ने हमेशा इसे दखलंदाजी के रूप में देखा। कारण कुछ भी हो, हमारी न्यायपालिका और कार्यपालिका में न केवल सामंजस्य की कमी है बल्कि कार्यप्रणाली भी बेहद धीमी है।
सर्वोच्च न्यायालय ने एक माह पहले फांसी की सजा को उम्रकैद में तब्दील करने के स्पष्ट दिशा-निर्देश बताए थे जिसमें प्रमुख बात यह थी कि अगर फांसी की सजा प्राप्त कैदी की दया याचिका पर लम्बे समय तक कोई फैसला नहीं लिया जाता तो उसे उम्रकैद में बदल दिया जाना चाहिए। इसी आधार पर 15 लोगों की मौत की सजा उम्रकैद में बदली गई। सर्वोच्च न्यायालय ने राजीव गांधी की हत्या के दोषी तीन लोगों की फांसी की सजा को जैसे ही उम्रकैद में बदलने का निर्णय सुनाया तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने बिना समय गंवाये अगले ही दिन राजीव गांधी की हत्या के दोषी सभी लोगों की रिहाई का फरमान सुना दिया। यद्यपि इस पर केन्द्र सरकार की पुनर्विचार याचिका के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने रोक लगा दी है। गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय ने उम्रकैद का मतलब आजीवन कारावास बताया था किन्तु जयललिता ने फांसी की सजा पाए तीन कैदियों सहित सभी सातों दोषियों की रिहाई के सम्बन्ध में जल्दबाजी दिखाकर एक राजनीतिक विवाद की पटकथा लिख दी।
देश में क्षेत्रवाद, भाषावाद और जातिवाद किस कदर अपनी जड़ें जमा चुके हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। उत्तर प्रदेश में जहां मुस्लिमों की रिहाई के प्रयास हो चुके हैं वहीं तमिलनाडु में कई साल से एमडीएमके के वाइको, द्रमुक के करुणानिधि और अन्नाद्रमुक की जयललिता अपने-अपने तरीके से तमिल भावनाओं को भुनाते रहे हैं। जयललिता की मौजूदा मंशा भी राजनीति से ही प्रेरित है। लोकसभा चुनाव निकट हैं लिहाजा जयललिता भी अन्य राजनीतिज्ञों की तरह प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा रखती हैं। आगत लोकसभा चुनावों में वाइको या करुणानिधि तमिल भावनाओं को भुनाने की कोई तुरुप चाल चलते उसके पहले ही जयललिता ने राजीव गांधी के हत्यारों की रिहाई का फरमान सुनाकर अपने आपको तमिलों का सबसे बड़ा रहनुमा होने का दांव चल दिया। इस दांव से उन्हें कितना लाभ मिलेगा और विपक्षी दल इसका जवाब कैसे देंगे, यह तो समय बताएगा पर इससे राष्ट्रीय हितों और न्यायालय की भावना को जरूर ठेस पहुंची है।
फांसी पर राजनीतिक चालें इस देश के लिए अभिशाप हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने जब से 15 लोगों की फांसी की सजा को उम्रकैद में बदला है तभी से अफजल गुरु को दी गई फांसी पर तरह-तरह की बातें होने लगी हैं। कश्मीरी राजनेता अफजल गुरु की फांसी को गलत करार दे रहे हैं। उनका कहना है कि एक ही अपराध की दो अलग-अलग सजाएं कैसे हो सकती हैं। इसी तरह पंजाब में बेअंत सिंह की हत्या के आरोपी बलवंत सिंह राजोआना को लेकर भी बहुत-कुछ कहा-सुना जा रहा है। राजीव गांधी की हत्या दरिन्दगी की इंतहा थी और हमेशा रहेगी, पर इस मामले से कांग्रेस सहित सभी दलों को सावधान होने की जरूरत है। राजीव गांधी के हत्यारों की रिहाई के मामले पर जयललिता की राजनीतिक कुचेष्टा बेशक सवालिया नजरों से देखी जा रही हो पर कांग्रेसियों को उस दिन मुंह खोलना था जिस दिन सर्वोच्च न्यायालय ने 15 दुर्दान्तों की फांसी की सजा को उम्रकैद में तब्दील किया था। इन दुर्दान्तों में कुख्यात वीरप्पन के सहयोगी भी शामिल हैं जोकि जांबाज पुलिस कर्मियों को मौत की नींद सुलाने के गुनहगार हैं। दया याचिकाओं में देरी के लिए कांग्रेस भी कसूरवार है। जब तक मुल्क में दया याचिकाओं में देरी संकीर्ण राजनीतिक लाभ-हानि के नजरिये की भेंट चढ़ेगी तब तक न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच ऊहापोह की स्थिति बनी ही रहेगी। राजनीतिक दलों को न्यायपालिका की उदार और तर्कसंगत सोच का अनुचित राजनीतिक लाभ उठाने से बाज आना चाहिए वरना जनभावनाएं भड़केंगी और अखण्ड भारत खण्ड-खण्ड हो जाएगा।

Wednesday 12 February 2014

खेलों की कलंक गाथा

चौदह माह के निर्वासन के बाद भारत का अंतरराष्ट्रीय खेल बिरादर में पुन: शामिल होना हर भारतीय के लिए खुश खबर है तो दूसरी तरफ आईपीएल-6 की बोतल से निकले फिक्सिंग के जिन्न ने खेलप्रेमियों को फिर से डरा दिया है। खेलप्रेमी, खिलाड़ी और खेलों से थोड़ी-बहुत दिलचस्पी रखने वाले लोगों की समझ में नही आ रहा कि आखिर मुल्क से खेलों की कलंक गाथा का पटाक्षेप कब और कैसे होगा। दिल्ली में 2010 में हुए राष्ट्रमण्डल खेलों में अरबों रुपये का घोटाला, भारत रत्न सचिन तेंदुलकर का आयकर में छूट का लोभ तो कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी का फिक्सिंग खेल उन सब के लिए चिन्ता का सबब है जोकि खेलों को अपना करियर बनाना चाहते हैं। देश में पारदर्शी खेल व्यवस्था लाने की सोच पर धन्नासेठों की पैठ आग में घी का काम कर रही है। भारतीय ओलम्पिक संघ हो या मालामाल क्रिकेट इन पर जिस तरह  धनकुबेर काबिज होते जा रहे हैं उससे खेलों का दामन पाक-साफ होने पर हमेशा संदेह रहेगा।
यह बात सही है कि धनकुबेर खिलाड़ियों को हमेशा खेल मंच उपलब्ध कराते रहे हैं पर इस उपकार के पीछे भी गहरी साजिश छिपी होती है। खिलाड़ियों के हक हमेशा इनके रहमोकरम पर आश्रित होते हैं। खिलाड़ी सुविधाओं का रोना रोते हैं तो ये आरामतलबी में मस्त हो अपने तरीके से खेल चलाते हैं। आज मुल्क तो आजाद है पर भारतीय खिलाड़ी परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है। वह उनका चाकर है जोकि खिलाड़ी न होते हुए भी सब कुछ हैं। खेलों में हमारा लचर प्रदर्शन सवा अरब आबादी को मुंह चिढ़ा रहा है तो दूसरी तरफ हमारा खेल तंत्र बड़े-बड़े खेल आयोजनों के लिए अंतरराष्ट्रीय खेल संघों के सामने मिन्नते करता है। दरअसल खेलनहारों के इस खेल के पीछे खिलाड़ियों के भले की जगह उनका स्वयं का हित संवर्द्धन होता है। आज मुल्क का खिलाड़ी अंधकूप में है जिसे बाहर निकालने के सारे जतन इसलिए अकारथ हैं क्योंकि खेल अनाड़ियों के हाथ संचालित हो रहे हैं।
हम खुश हैं कि सोचि विंटर ओलम्पिक के समापन पर तिरंगा फहरेगा लेकिन हमारे खेलनहारों को इस बात पर शर्म कभी नहीं आई कि आखिर हमारे खिलाड़ियों ने इन खेलों में पांच दशक बाद भी कोई पदक क्यों नहीं जीता है। 1924 में पहली बार इन खेलों का आयोजन फ्रांस में हुआ था। इन खेलों में भारतीय प्रतिभागिता का जहां तक सवाल है 1964 में आस्ट्रिया में हुए विंटर ओलम्पिक खेलों में एकमात्र भारतीय एथलीट जेरेमी बुजाकोवास्की एल्पाइन स्कीइंग में जौहर दिखाने उतरे थे। इन बर्फीले खेलों में नौ मर्तबा भारतीय खिलाड़ी अपना पराक्रम दिखाने तो गये लेकिन पदक तालिका आज भी रीती की रीती ही है। देखा जाए तो मुल्क में खेल संस्कृति का घोर अभाव है। धनकुबेरों के हाथ अधिकांश खेल संगठन होने के चलते खिलाड़ी कभी नहीं उबर पाया। किसी बड़े खेल आयोजन से पूर्व विदेशी प्रशिक्षकों को मोेटी रकम देकर बुलाया जाता है लेकिन इनकी काली करतूतों ने पदक तो नहीं दिलाए अलबत्ता हमारे खिलाड़ी शक्तिवर्द्धक दवाओं के लती जरूर हो गये। हमारे वेटलिफ्टरों की इसी खराब लत ने मुल्क को दो बार प्रतिबंध का दंश तो तीन करोड़ का भारी-भरकम जुर्माना अदा करने को बाध्य किया। दीगर खेलों के खिलाड़ी भी कामयाबी के लिए शॉर्टकट रास्ता अपना रहे हैं। मुल्क में जहां प्रतिभाएं हैं वहां खेल संसाधनों का अभाव है, जहां सुविधायें हैं वहां शक्तिवर्द्धक दवाओं का मायाजाल खिलाड़ियों को ललचा और मुल्क को लजा रहा है।
हाल ही दो शीर्ष खेल संस्थाएं एक ही परिवार की जागीर हो गई हैं। क्रिकेट पर एन. श्रीनिवासन काबिज हैं तो भारतीय ओलम्पिक संघ पर उनके अनुज एन. रामचंद्रन का कब्जा हो गया है। खेल की इन दो महत्वपूर्ण संस्थाओं पर दो भाइयों का शीर्ष पदों पर काबिज होना अनूठा संयोग नजर आता है, लेकिन यह भी मुमकिन है कि खेलजगत के वर्तमान दौर में धन और शक्ति का वर्चस्व जिस तरह से बढ़ता जा रहा है, उसके चलते ही ऐसा संयोग बना है। आईओए पिछले 14 महीनों से अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति से निलम्बित था। इसके प्रमुख कारणों में भ्रष्टाचार, शीर्ष पदों पर दागियों की नियुक्ति और चुनाव में धांधली आदि थे। आईओसी से इस निलम्बन के कारण वैश्विक स्तर पर भारत की खूब किरकिरी हुई। खैर, भारत पुन: बहाल हो गया है। अब हर खेल आयोजन में हमारा प्रदर्शन बेशक थू-थू करने वाला रहे पर अब तिरंगा जरूर फहरेगा। यह खुशी की बात है। पर  मूल सवाल अब भी वहीं कायम है कि क्या सचमुच भारतीय खेलों की गंगोत्री साफ-सुथरी हो चुकी है।
एन. रामचंद्रन विश्व स्क्वैश संगठन के अध्यक्ष भी हैं, हालांकि ओलम्पिक में यह  नहीं खेला जाता। बहरहाल, दिसम्बर 2012 में आईओए के निलम्बन के पहले एन. रामचंद्रन इसके कोषाध्यक्ष थे। उन पर राष्ट्रीय खेल प्रोत्साहन पुरस्कार में गड़बड़ी के अलावा धोखाधड़ी और जानकारी छिपाने के मुकदमे अदालतों में चल रहे हैं और इनमें से किसी एक में भी आरोप पत्र दाखिल होता है तो उन्हें आईओए के अध्यक्ष पद को छोड़ना पड़ेगा। इससे आईओए को फिर निलम्बन का सामना करना पड़ सकता है और खेल जगत में जो किरकिरी होगी, सो अलग। आईसीसी के बदले स्वरूप में एन. श्रीनिवासन का अध्यक्ष पद पर काबिज होना चौंकाने वाला समाचार हो सकता था, लेकिन क्रिकेट में जब पैसों का ही बोलबाला है, तो फिर नैतिकता किस बात की। आईपीएल में गड़बड़ी, बीसीसीआई के अध्यक्ष पद से न हटने की जिद जैसी कुछ घटनाओं में एन. श्रीनिवासन की धृष्टता पूरे देश ने देखी है। लेकिन आईसीसी में उन्होंने अपना दबदबा कायम कर लिया क्योंकि विश्व क्रिकेट के कुल राजस्व में भारत का सबसे अधिक योगदान जो है। जुलाई में जैसे ही वह आईसीसी की आसंदी पर काबिज होंगे तो भारत में क्रिकेट के सभी प्रारूपों में उनका प्रत्यक्ष-परोक्ष दखल होगा। इसके बाद क्रिकेट में सट्टा, स्पाट फिक्सिंग और न जाने कितनी नीचता आएगी, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। 

Monday 10 February 2014

रामचंद्रन आईओए अध्यक्ष बने

भारत के ओलंपिक अभियान में वापसी के लिये रास्ता साफ हो गया, जब 14 महीने के प्रतिबंध के बाद भारतीय ओलंपिक संघ ने अपने चुनाव कराये जिसमें एन रामचंद्रन को अध्यक्ष चुना गया।
     विश्व स्क्वाश महासंघ के प्रमुख और बीसीसीआई अध्यक्ष एन श्रीनिवासन के छोटे भाई रामचंद्रन का आईओए अध्यक्ष बनना महज एक औपचारिकता था क्योंकि वह इस शीर्ष पद के लिये अकेले उम्मीदवार थे। भारतीय खो खो महासंघ के अध्यक्ष राजीव मेहता और अखिल भारतीय टेनिस संघ (एआईटीए) के प्रमुख अनिल खन्ना को चुनावों में क्रमश: निर्विरोध महासचिव और कोषाध्यक्ष चुना गया जिससे भ्रष्टाचार में लिप्त अभय सिंह चौटाला और ललित भनोट आईओए से बाहर हो गये। मतदान केवल आठ उपाध्यक्षों के लिये हुआ क्योंकि दौड़ में नौ उम्मीदवार थे।  एक सीनियर उपाध्यक्ष, छह संयुक्त सचिव और कार्यकारी परिषद के नौ सदस्यों को निर्विरोध चुना गया। आईओए के सभी अधिकारियों का कार्यकाल ओलंपिक वर्ष 2016 तक होगा।
अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति के तीन पर्यवेक्षकों ने कहा कि वे आईओसी अध्यक्ष थामस बाक को अनुकूल रिपोर्ट सौंपेंगे और उम्मीद जतायी कि भारत का निलंबन जल्द ही हट जायेगा। फिजी से आईओसी के सदस्य और तीनों में वरिष्ठ रोबिन मिशेल ने यहां तक संकेत दिया कि भारत का निलंबन मौजूदा सोची शीतकालीन ओलंपिक खेलों के खत्म होने से पहले ही हटाया जा सकता है ताकि खेलों में भाग ले रहे तीनों भारतीय एथलीट 23 फरवरी को समापन समारोह में तिरंगा अपने हाथ में थाम सकें। मिशेल ने कहा, जिस तरीके से कार्रवाई हुई है, हम उससे काफी खुश हैं। हम कल सोची पहुंच रहे हैं और अपनी रिपोर्ट आईओसी अध्यक्ष को सौंपेंगे और यह उन पर निर्भर करेगा कि वे भारत की वापसी पर फैसला करने के लिये कार्यकारी बोर्ड की बैठक कब बुलायेंगे। हमें उम्मीद है कि यह जल्द ही होगा।
समय सीमा के बारे में पूछने पर उन्होंने कहा, आईओसी कार्यकारी बोर्ड सोची शीतकालीन खेलों से समापन समारोह से पहले बैठक कर रहा है और उम्मीद है कि कार्यकारी बोर्ड इस बैठक में भारत से निलंबन हटाने का फैसला करेगा। हम भारतीय एथलीटों को समापन समारोह में राष्ट्रीय ध्वज के साथ भाग लेते हुए देखना चाहते हैं। शिवा केशवन, हिमांशु ठाकुर और नदीम इकबाल ने शुक्रवार को सोची ओलंपिक खेलों के उद्घाटन समारोह में आईओसी ध्वज के तले भाग लिया था। आईओसी के एनओसी रिलेशंस निदेशक पेरे मीरो ने कहा कि तीनों पर्यवेक्षक आईओए चुनावों से संतुष्ट थे और वे आईओसी अध्यक्ष को अनुकूल रिपोर्ट सौंपेंगे।
आईओसी के इंस्टीट्यूशनल रिलेशंस प्रमुख जेरोम पोइवे ने यहां तक कहा कि यह संशोधित आईओए संविधान दुनिया में सर्वश्रेष्ठ में से एक है और इसे पूर्ण रूप से लागू किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा, संशोधित आईओए संविधान दुनिया में सबसे आधुनिक में से एक है और हम इसके लिये पूरी तरह से आईओसी की प्रशंसा करते हैं। हम उम्मीद करते हैं कि यह संविधान पूर्ण रूप से लागू किया जायेगा। चुनाव आईओए के तीन सदस्यीय चुनाव आयोग द्वारा कराये गये, जिससे पहले विशेष आम सभा बैठक हुई जिसमें इसके संविधान में आईओसी के निर्देश के तहत संशोधन किये गये ताकि साफ किया जा सके कि दागी व्यक्तियों को चुनाव में लड़ने से रोका जा सके और इससे उनकी आईओए सदस्यता खत्म हो जायेगी।
  जैसे ही आम सभा बैठक में संशोधन किये गये, चौटाला और भनोट की आईओए सदस्यता खत्म हो गयी जो पांच दिसंबर 2012 को क्रमश: आईओए के अध्यक्ष और महासचिव चुने गये थे, इसके एक दिन बाद भारत को निलंबित कर दिया गया था।  एक शीर्ष अधिकारी ने कहा, एक बार आम सभा बैठक संशोधनों की पुष्टि करती है, स्वत: ही उनकी आईओए सदस्यता खत्म हो जायेगी। चौटाला और भनोट को क्रमश: भारतीय एथलेटिक्स महासंघ और दिल्ली ओलंपिक संघ के प्रतिनिधियों के तौर पर शामिल किया गया था, इन दोनों ने आज मतदान नहीं किया। आज 138 सदस्यों ने अपना मत दिया जिसमें से 70 ओलंपिक खेलों में से थे। चुनाव के बाद दो सदस्य (आनंदेश्वर पांडे संयुक्त सचिव चुने गये और अधीप दास कार्यकारी परिषद के सदस्य चुने गये) ने इस्तीफा दे दिया ताकि ओलंपिक खेलोें के सदस्यों की आईओए कार्यकारी समिति में गैर ओलंपिक खेलों के सदस्यों से संख्या ज्यादा रहे। आईओए की कुल संख्या 25 है जिसमें से 13 ओलंपिक खेलों से हैं। रामचंद्रन ने प्रेस कांफ्रेंस में कहा, अब मेरा काम यह सुनिश्चित करना होगा कि भारत ओलंपिक अभियान में वापसी कर ले और अन्य एथलीट अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में राष्ट्रीय तिरंगे के तले शिरकत करें।
जब उनसे उच्च न्यायालय में उनके खिलाफ लंबित मामलों के बारे में पूछा गया तो उन्होंने इस पर टिप्पणी करने से इनकार कर दिया। रामचंद्रन ने कहा, नियमों के तहत, कार्यकाल ओलंपिक वर्ष से ओलंपिक वर्ष तक है। एक साल बीत चुका है और यह 2016 तक है। लेकिन अगर आईओसी चाहता है तो हमारा कार्यकाल एक साल के लिये बढ़ाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि भारतीय एथलीटों को अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंट और ओलंपिक में चमकदार प्रदर्शन करने के लिये धनराशि की जरूरत है और वह ओलंपिक खेलों में कारपोरेट कोष लाने के लिये काम करेंगे। यह पूछने पर कि आईओए में पिछले 14 महीने में जो कुछ हुआ, क्या वह दुखी थे तो उन्होंने कहा, मैं अतीत में मुड़कर नहीं देखता। मैं वर्तमान और भविष्य के बारे में देखना चाहता हूं। जब उनसे यह पूछा गया कि भारतीय खेलों में दो शीर्ष पद पर दो भाई काबिज हो गये हैं क्योंकि उनके भाई एन श्रीनिवासन बीसीसीआई प्रमुख हैं तो रामचंद्रन ने कहा, मैं आईओए के साथ हूं। मैं आईओए का प्रमुख हूं और मेरा क्रिकेट से कोई लेना देना नहीं है। आज के चुनाव भारतीय मुक्केबाज महासंघ, भारतीय ताइक्वांडो महासंघ और भारतीय तलवारबाजी संघ के प्रतिनिधियों के बिना हुए, जिन्हें आईओसी ने वोट देने से रोक दिया था क्योंकि इन तीन राष्ट्रीय खेल महासंघों को उनके अंतरराष्ट्रीय महासंघों ने निलंबित किया हुआ है।
आईओए अधिकारियों की सूची इस प्रकार है-
 अध्यक्ष : एन रामचंद्रन
 सीनियर उपाध्यक्ष : वीरेंद्र डी. नानावती
 उपाध्यक्ष : जनार्दन सिंह गहलोत, वीरेंद्र प्रसाद वैस्य, अखिलेश दास गुप्ता, परमिंदर सिंह ढींढसा, तरलोचन सिंह, अनुराग ठाकुर, आरके आनंद, जीएस मंढेर।
 महासचिव : राजीव मेहता
 कोषाध्यक्ष : अनिल खन्ना
 संयुक्त सचिव : कुलदीप वत्स, राजा केएस सिद्धू, राकेश गुप्ता, एसएम बाली, सुनैना कुमारी।
 कार्यकारी परिषद सदस्य: अजीत बनर्जी, अवधेश कुमार, बलबीर सिंह कुशवाहा, भुवनेश्वर कलिता, धनराज चौधरी, नामदेव शिरगांवकर, राणा गुरमीत सिंह सोढ़ी, विक्रम सिंह सिसोदिया।

Friday 7 February 2014

रसिकों पर चिरंतरपतझड़

समय दिन और तारीख देख कर आगे नहीं बढ़ता, बल्कि समय की शिला पर हमेशा इंसानी जज्बात परवान चढ़ते हैं। समय करवट बदल रहा है और इंसानी फितरत प्रेमाभाव के विभाजन की रेखा खींच रही है। इंसान की आधुनिकता के इस स्वांग का अंत कहां और कब होगा कहना कठिन है। जीवन फूल है और प्रेम उसकी सुगन्ध इस ध्येय वाक्य पर दिनोंदिन पहरा गहराता जा रहा है। युवा तरुणाई प्रेम की पींगों पर  समय की पाबंदी से खुश हो सकती है पर कवि मन रो रहे हैं। उसके काव्य-संसार में अब आम नहीं बौराते, उसकी डालियां फल-फूल से नहीं लदतीं। कवि मन सहज रसग्राही नहीं रहा। उसकी सहज स्वाभाविक अनुभूतियां प्रकृति से निरंतर दूर होती जा रही हैं। मौसम कैसा भी हो उसका मन मयूर सुखानुभूति से अनुप्राणित होने की बजाय विरह वेदना में समाहित होता जा रहा है। प्रकृति की महत्ता मानव के दोहन का शिकार हो गई है।
जो बावरा मन कभी प्रकृति की सुखानुभूति की तरंगों में गोते लगाने लगता था वही बैरी मन अब एक चिरंतर पतझड़ का मौसम बनता जा रहा है। अब बावरा मन बहकता नहीं बल्कि अनजान जंगली फूलों की महक उसे तरंगित करने की बजाय अनचाहा दर्द दे रही है। एक समय था जब कवि-कलाकार ही नहीं, सामान्य लोग भी बदलते मौसम की बलैंया लेते थे, खासकर वसंत और वर्षा ऋतुएं बूढ़े लोगों के मन को भी जवानी का अहसास कराती थीं। वसंत पंचमी आते-आते कोहरे को चीर सुनहरी गुनगुनी धूप और खेतों की मेड़ों पर पीले, गुलाबी, हल्के नीले छोटे-छोटे जंगली फूलों को देख मन मचल उठता था। हिन्दी कविता प्रकृति के आगोश में समाहित हो जाती थी, तो मन से प्रेम रस झरने लगता था। मध्यकाल का षड्ऋतु वर्णन तो एक प्रकार से रूढ़ि बन चुका था। सावन-भादों में नव यौवन पर विरह की तड़प तो वसन्त में मुग्धा नायिका अपनी ही विकसित होती देह देख लज्जा से लाल हो जाती थी। समय बदला, प्रकृति बदली और लोगों के विचार भी बदल गये। अब प्रेमरस से गांव-कस्बे और प्रकृति से जुड़ाव की अनुभूति नदारद है।
मानव इक्कीसवीं सदी के अतिरेक में बह रहा है। भारतीय संस्कृति की जगह पाश्चात्य संस्कृति ने ले ली है। जो प्रेम-स्नेह सदाबहार होता था उस पर समय की पाबंदी लग गई है। मदर्स-फादर्स डे, वैलेंटाइन-डे आदि बदलते समय की नकारात्मक सोच का परिणाम हैं। मुल्क में इन दिवसों का चलन 21वीं सदी के देन कहें तो सही होगा। हम हर साल बहुत से संकल्प लेते हैं। वे कितना फलीभूत हुए इस पर जरा भी गौर नहीं करते। आज मुल्क की राजनीतिक, सामाजिक,आर्थिक स्थिति सुखद नहीं है। राजनीतिक गतिविधियां बार-बार यही सिद्ध करती हैं कि राजनीतिज्ञों के स्वार्थ सर्वोपरि हैं। देश उनकी नजर में कुछ भी नहीं है। एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप, एक-दूसरे को नीचा दिखाने, भ्रष्टाचार में दूसरों से खुद को कमतर जताने और देशहित के प्रश्नों को हाशिए पर डालकर छल-बल से सत्तासुख भोगना ही उनका राज धर्म या राष्ट्र धर्म रह गया है। कश्मीर समस्या, असम समस्या, चीनी घुसपैठ, पाकिस्तानी घुसपैठ, बांग्लादेशियों की घुसपैठ, नक्सलवाद, आतंकवाद आदि संकट नासूर बन चुके हैं लेकिन इनसे निपटने की बजाय राजनीति मात्र सत्ता-सुख का अवलम्ब बन चुकी है। भ्रष्टाचार, अवसाद, खुशहाली, स्वास्थ्य, जीवन स्तर आदि कई बिन्दुओं पर अन्तरराष्ट्रीय संस्थाएं जो आंकड़े उजागर कर रही हैं, उनमें हमारा मुल्क बहुत पिछड़ा हुआ है। देश का धार्मिक परिदृश्य निराशाजनक है। ढोंगी साधु-संतों ने अपने पाखण्ड और दुराचार से धार्मिक विश्वास और आस्था को खण्ड-खण्ड कर दिया है, फिर भी कदाचारियों के प्रति लोगों की अंधभक्ति और अंधश्रद्धा यह सवाल पैदा करती है कि आखिर यह धार्मिक प्रवंचना समाज को कहां ले जाएगी। परिवार और समाज का ताना-बाना बिखर रहा है। दहेज, बाल विवाह और गृह कलह से भी बढ़कर समलैंगिक सम्बन्ध, सहजीवन, महिलाओं की तस्करी, यौन शोषण जैसे कई नये संकट मुंहबाये खड़े हैं। आधुनिक संचार साधनों ने खुशफहमी के पल कम, नयी मुसीबतें अधिक पैदा की हैं। फेसबुक और इंटरनेट का दुरुपयोग हर वय के लोगों को स्वार्थी, आत्मकेन्द्रित और आत्मघाती बना रहा है। सारे मानवीय मूल्य और जीवन मूल्य तिरोहित हो रहे हैं। हमारे न्यायालय अपने सांस्कृतिक मूल्यों की अवहेलना कर जिन वैश्विक परम्पराओं को भारतीय समाज में स्थापित कर स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं वस्तुत: वह मुल्क के साथ छलावा है।
हमारा समाज पतनोन्मुख की राह चल रहा है। हमारी पावन भूमि पर भारतीय सांस्कृतिक मूल्य और भारतीय परम्परा ही सामाजिक उन्नति और स्थिरता में सहायक हो सकते हैं पर हमारी युवा पीढ़ी पाश्चात्य रंग-ढंग को इस तरह आत्मसात कर चुकी है कि उसे उचित-अनुचित का जरा भी भान नहीं रहा। हमारी शिक्षा बौद्धिक विकास की बजाय रोटी का जरिया बन चुकी है। शिक्षा में ज्ञान, विवेक और संवेदना का अभाव हमें मानवीय गुणों से वंचित कर पाशविक बना रहा है। शिक्षा का सही पाथेय क्या है? इस दुनिया की नियति क्या है? मानव जीवन का लक्ष्य क्या होना चाहिए? ऐसे कई महत्वपूर्ण प्रश्न हम दरकिनार करते आए हैं इसीलिए जीवन जटिल होता जा रहा है और हम खुशी के पलों को बेवजह अकारथ करने की गुस्ताखी कर रहे हैं। यह अच्छी बात है कि नवकल्पनाशील वैज्ञानिक दृष्टिवाला तरुण संतुलित पथ पर चलकर नया संसार रचना चाहता है। उसके सामने यथार्थ और वर्चुअल दोनों संसार हैं। उन दोनों को वह जोड़ना चाहता है। वह कलाओं व साहित्य को विज्ञान का प्रतिरोधी नहीं सम्पूरक मानता है। वसंत सिर्फ परपरा ही नहीं हमारे समय का सच है। अपने समय के सच को जानना और समझना तथा सौंदर्य से अभिभूत होना ही तो सुखद सम्मोहन है। आओ कुछ ऐसा करें जिससे मानव जाति हर पल खुशी की अनुभूति करे और हमेशा प्रेमाभाव के अतिरेक में बहे।

Wednesday 5 February 2014

अपने बेजार, गैरों पर लाखों निसार

ग्वालियर। अपने बेजार, गैरों पर लाखों निसार यह कहावत मध्यप्रदेश खेल एवं युवा कल्याण विभाग पर अक्षरश: सच साबित होती है। प्रदेश का खेल एवं युवा कल्याण विभाग अपने खेल प्रशिक्षकों का पेट काटकर उन लोगों पर अनाप-शनाप पैसा खर्च कर रहा है जोकि बमुश्किल महीने में एक-दो बार ही खिलाड़ियों को समय दे पाते हैं। विभाग क्रिकेट प्रशिक्षक मदनलाल, हॉकी प्रशिक्षक अशोक कुमार, बैडमिंटन प्रशिक्षक पुलेला गोपीचंद और कुश्ती प्रशिक्षक सुशील कुमार पर अब तक कई करोड़ रुपये खर्च कर चुका है। प्रदेश के खिलाड़ियों को इनसे कितना लाभ मिला किसी से छिपा नहीं है।
मध्यप्रदेश खेल युवा कल्याण विभाग वैसे तो प्रदेश की स्थापना वर्ष से ही छू-छू छैया कर रहा है पर यहां खेलों को रफ्तार पकड़े महज आठ साल ही हुए हैं। आठ साल पहले प्रदेश का खेल बजट महज पांच करोड़ हुआ करता था लेकिन आज 136 करोड़ रुपये है। फिलवक्त प्रदेश में खेलों की बयार बहाने वाले खेल प्रशिक्षकों का बुरा हाल है। यह संविदा प्रशिक्षक वर्ष भर खिलाड़ियों का खेल-कौशल तो निखार रहे हैं पर  विभाग की नजर इनके पेट की तरफ नहीं है। पांच जून, 2012 को कैबिनेट ने प्रदेश के खेल विभाग में 512 संविदा कर्मियों की न केवल नियुक्ति को कागजी और मैदानी अमला पहनाया बल्कि यह भी तय किया गया कि इन संविदा प्रशिक्षकों व कर्मचारियों को एक अप्रैल, 2012 से प्रतिवर्ष 10 फीसदी वेतन बढ़ोत्तरी का लाभ भी दिया जाएगा। अफसोस की बात है कि आठ साल से मशक्कत कर रहे इन प्रशिक्षकों को एक पैसे का भी लाभ नहीं दिया गया जबकि तीन साल में महंगाई जमीन से आसमान में पहुंच गई है। ऐसा नहीं कि इन प्रशिक्षकों और कर्मचारियों ने विभाग के सामने फरियाद न की हो। कई बार विभागीय मंत्री से लेकर अन्य जवाबदेह लोगों को इन्होंने अपने भूखे पेट से अवगत कराया लेकिन किसी ने ध्यान देने की कोशिश तो क्या भरोसा भी नहीं दिया।
वैसे तो किसी विभाग में अपने कर्मचारी को नियमित सेवा में लेने के लिए 90 दिन की समय सीमा तय है पर खेल विभाग इससे वास्ता नहीं रखता। नियमित करना तो दूर उसने अपने कहे के मुताबिक प्रतिवर्ष प्रशिक्षकों और कर्मचारियों के वेतन में 10 फीसदी की बढ़ोत्तरी भी नहीं की। पानी सिर से ऊपर पहुंचने के बाद खेल प्रशिक्षकों ने 28 जनवरी को ग्वालियर हाईकोर्ट तो चार फरवरी को जबलपुर हाईकोर्ट में एके अराधे की बेंच में मामला पंजीबद्ध करा दिया है। अदालत ने कर्मचारियों की उपेक्षा के मामले को गम्भीरता से लेते हुए खेल विभाग से जवाब मांगा है। खेल विभाग की पहचान प्रशिक्षकों और खिलाड़ियों से होती है लेकिन विभाग बाबुओं पर मेहरबान है। वर्ष 2012 में विभाग ने लगभग एक सैकड़ा बाबुओं की नियमित नियुक्ति की है, जबकि इनकी विभाग को कम ही दरकार थी।
संविदा प्रशिक्षकों और कर्मचारियों की वेतन बढ़ोत्तरी और नियमितीकरण में विभाग के ही कुछ खेलनहार अवरोधक हैं। खेलों के यह मठाधीश  नहीं चाहते कि संविदा प्रशिक्षकों और कर्मचारियों का भला हो। इन्हें डर है कि यदि ये नियमित हो गये तो वे अपनी धौंस-दपट आखिर किस पर दिखाएंगे। खेल विभाग में कुछ साल तक जहां चौधराहट चली वहीं लगभग दो दशक से प्रतिनियुक्ति पर जमे एक प्रोफेसर ने विभाग को ही अपने कब्जे में ले लिया है। इस प्रोफेसर की ताकत का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उसे विभाग से खदेड़ने के लिए विभागीय मंत्री तुकोजी राव पवार ने एड़ी-चोटी का जोर लगा लिया लेकिन प्रधान का बाल बांका भी नहीं कर सके। जो भी हो अब वह समय दूर नहीं जब प्रोफेसर साहब को बड़े बेआबरू होकर कूचे से बाहर जाना पड़ सकता है।  दरअसल विभाग के ही कुछ लोग प्रोफेसर से मुक्ति के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाने जा रहे हैं। आहत-मर्माहत इन प्रशिक्षकों का कहना है कि उन्हें अब अदालत के सिवाय किसी पर भरोसा नहीं रहा।

Saturday 1 February 2014

साक्षरता पर जवाबदेही का अभाव

लोकसभा की चुनावी रणभेरी बजने में बेशक कुछ दिन शेष हों, राजनीतिक दलों को दिल्ली का भूत डराने लगा है। खुले हाथ सौगातें बंट रही हैं, फिर भी लोग खुश नहीं हैं। इस नाखुशी की कई वजह हैं। सभी को पता है कि चुनाव पूर्व सौगातें और खैरातें हमेशा बंटती हैं लेकिन राजनीतिज्ञों के हाथ सल्तनत लगते ही आम लोग सरकारी रियायतों से दूर हो जाते हैं। शिक्षा सबका अधिकार है लेकिन किसी भी राजनीतिक दल के जेहन और घोषणा-पत्र में इसे कभी तवज्जो नहीं मिली। आजादी के 66 साल बाद भी अशिक्षा के अभाव में प्रतिवर्ष लाखों नौनिहाल बेमौत मर रहे हैं। बेटी बचाओ अभियान के स्वांग पर अरबों रुपये पानी की तरह बहाने के बाद भी आधी आबादी अपने अधिकारों से जहां वंचित है वहीं लगभग 29 करोड़ भारतीय वयस्क ककहरा न सीख पाने से आज भी निरक्षर हैं।
देश में साक्षरता की अलख जगाने में पैसे की कमी कभी आड़े नहीं आई बावजूद निरक्षरता ने भारत का पीछा नहीं छोड़ा। शिक्षा के क्षेत्र में गिरावट एक दिन में नहीं आई। इस दिशा पर समय-समय पर चिन्तन-मनन भी हुआ पर शिक्षा की नब्ज ने रफ्तार नहीं पकड़ी। शिक्षा पर सबका अधिकार है, यह ध्येय वाक्य लोगों के जेहन में अंकित होने की बजाय दीवारी लेखन की शोभा अधिक बना। आज राजनीतिक दलों में दलित और मुस्लिमों का हिमायती बनने की होड़ सी मची है, पर इनके बाल-गोपाल भी साक्षर हों, इस तरफ किसी ने ध्यान नहीं दिया। आज शहरी साक्षरता के आंकड़े कुछ भी कहानी बयां कर रहे हों पर 70 फीसदी गांवों में अभी भी शिक्षा पर छलावा हो रहा है। स्कूलों की हालत खराब है तो शिक्षक और छात्रों के बीच सामंजस्य का घोर अभाव है। देश में शिक्षा खामियों का एक बड़ा कारण राजनीति भी है। सच तो यह है कि राजनीतिज्ञों ने शिक्षा मंदिरों को भी अपनी जद में ले लिया है। स्कूल-कॉलेज अध्ययन-अध्यापन की जगह राजनीति का अखाड़ा बन चुके हैं।
देश के अधिकांश राज्यों में माध्यमिक परीक्षा की घण्टी बज चुकी है। बच्चे कोर्स पूरा न होने का उलाहना दे रहे हैं तो दूसरी तरफ ग्रामीण व कस्बाई क्षेत्रों में बिजली की आंख-मिचौनी कोढ़ में खाज का काम कर रही है। एक तरफ परीक्षाओं में नकल रोकने के विभागीय टोने-टोटके हो रहे हैं तो दूसरी तरफ परीक्षा सेण्टरों की खरीद-फरोख्त पर किसी को गुरेज नहीं है। आधी-अधूरी तैयारी होने के चलते छात्र परीक्षा से डर रहे हैं। बच्चों में परीक्षा का भय नहीं होना चाहिए। आखिर किसी भी शिक्षा का उद्देश्य मूल्यांकन का भय नहीं हो सकता, पर आज आश्चर्यजनक रूप से स्कूली परीक्षाएं इसका पर्याय बन चुकी हैं। भय का यह भूत न केवल बच्चों को डरा रहा है बल्कि बड़े पैमाने पर नकल संस्कृति को भी प्रोत्साहित कर रहा है। आज नकल देशव्यापी मुद्दा है। नकलची छात्रों को सजा दी जाए या नहीं, इस पर शिक्षाविदों में मतैक्य नहीं है।
देश में सरकारी शिक्षा भगवान भरोसे है। नियमित शिक्षा के अभाव में एक तरफ छात्र जहां नकल की ओर विमुख हुए हैं वहीं सरकारें और उनके मातहत विभाग अपनी कामचोरी छिपाने की खातिर नकल को प्रश्रय दे रहे हैं। सवाल यह है कि किसी बच्चे या कुछ बच्चों को आखिर नकल क्यों करना पड़ रही है? ऐसे बच्चे नकल कर पास होने की मानसिकता में क्यों जी रहे हैं? क्या इस प्रवृत्ति की रोकथाम में उड़नदस्ता या  दूसरी व्यवस्थाएं कारगर हैं? शिक्षा मनोविज्ञानी ऐसे उपायों को बेशक घातक मानते हों पर इसे रोक पाना सहज भी तो नहीं है। नकल का चलन शिक्षा व्यवस्था की असफलता का द्योतक है। इस व्यवस्था ने ही नकल माफिया और दूसरे तरह के दलाल पैदा किए हैं। हर साल प्रशासनिक तंत्र और कथित नकल माफियों के बीच हिंसक वारदातें तो परीक्षाओं के दौरान किशोरों में आत्महत्या के मामले बढ़ते जा रहे हैं। कुछ जो ऐसा नहीं करते वे पेपर लीक कराने या अंकों में हेराफेरी का सहारा लेने लगे हैं। ऐसा क्यों हो रहा है?
शिक्षा प्रणाली में परीक्षाओं का आयोजन इसलिए किया जाता है ताकि छात्रों की योग्यता का मूल्यांकन किया जा सके, लेकिन क्या परीक्षाएं योग्यता का सही मूल्यांकन कर पा रही हैं? आज की शिक्षा व्यवस्था समझ के विकास की जगह रटंत विद्या पर केन्द्रित हो गई है। बच्चों का कानून और व्यवस्था पर भरोसा नहीं रहा। वे सफलता के लिए शॉर्टकट का सहारा लेने लगे हैं। गुरुजन छात्रों पर न पढ़ने तो छात्र और अभिभावक शिक्षकों पर शिक्षणेत्तर कार्यों में रुचि न लेने की तोहमत लगाते हैं। कुल मिलाकर इससे जहां छात्रों का नुकसान हो रहा है वहीं साक्षरता की लौ भी दिन-ब-दिन मद्धिम पड़ती जा रही है। शिक्षा को बढ़ावा देकर सभी समस्याओं का समाधान निकाला जा सकता है बशर्ते इसके लिए हमारी सरकारें ईमानदार प्रयास करें।