Friday 25 April 2014

हॉकी का दर्पण: नौ साल में निकलीं 35 बेमिसाल प्रतिभाएं

राष्ट्रीय क्षितिज पर नई पहचान ग्वालियर का दर्पण मिनी स्टेडियम
रंग लाती गुरु अविनाश भटनागर की मेहनत
आगरा। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पुश्तैनी खेल हॉकी के उत्थान का एक संकल्प लिया था। उन्होंने कहा था कि जब तक देश की हॉकी अपने स्वर्णिम अतीत को हासिल नहीं कर लेती वे इस खेल की मदद करते रहेंगे। इसी गरज से प्रदेश भर में हॉकी के फीडर सेण्टर खोले गये थे। खेल विभाग की शिथिलता के चलते यह महत्वाकांक्षी योजना बेशक परवान नहीं चढ़ी हो पर ग्वालियर के एनआईएस हॉकी प्रशिक्षक अविनाश भटनागर ने अपनी अदम्य इच्छाशक्ति और कर्मठता के बूते वह कर दिखाया जोकि देश और प्रदेश के बड़े-बड़े सूरमाभोपाली भी नहीं कर सके।
 ग्वालियर का दर्पण मिनी स्टेडियम बेशक आज शाहाबाद मारकंडा (हरियाणा) से थोड़ा पीछे हो पर मामूली सुविधाओं के बीच दो बालिका खिलाड़ियों (नेहा सिंह और करिश्मा यादव) का भारतीय टीम के दरवाजे तक दस्तक देना और 33 बालक-बालिकाओं का मध्यप्रदेश की दोनों हॉकी एकेडमियों सहित भारतीय खेल प्राधिकरण और विभिन्न छात्रावासों में प्रवेश किसी अजूबे से कम नहीं है। हाल ही ग्वालियर के दर्पण मिनी स्टेडियम की चार बालिका प्रतिभाओं (रितु तिर्की, नेहा सेन, विद्या लोधे और संजना प्रजापति) का चयन भारतीय खेल प्राधिकरण के धार सेण्टर में हुआ है। दर्पण से पिछले साल छह प्रतिभाएं साइ सेण्टर के लिए चयनित हुई थीं। मध्य प्रदेश खेल एवं युवा कल्याण विभाग में बतौर संविदा खेल प्रशिक्षक सेवाएं दे रहे अविनाश भटनागर ने पिछले नौ साल में देश की हॉकी के लिए जो किया है उससे उन लोगों को नसीहत लेनी चाहिए जोकि मध्यप्रदेश के पैसे पर आरामतलबी कर रहे हैं।
कहते हैं मेहनत कभी अकारथ नहीं जाती। यही सिद्ध किया है हॉकी प्रशिक्षक अविनाश भटनागर ने। मध्य प्रदेश के अव्वल फीडर सेण्टरों में शुमार ग्वालियर के दर्पण मिनी स्टेडियम को सुविधाओं की दरकार है पर अफसोस हॉकी की इस प्राथमिक शाला की तरफ खेल विभाग का ध्यान ही नहीं है। उम्मीद है कि ग्वालियर की खेल मंत्री यशोधरा राजे सिंधिया की नजर एक दिन इस दर्पण पर जरूर पड़ेगी और इसका कायाकल्प हो जाएगा। खेल मंत्री सिंधिया की नजर पड़नी भी चाहिए क्योंकि यहां आयातित खिलाड़ी नहीं बल्कि उनके ही शहर की प्रतिभाएं निखर रही हैं। खेलप्रेमी प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह को इस फीडर सेण्टर की तरफ ध्यान देने की दरकार है। यदि श्री चौहान वाकई हॉकी का उत्थान चाहते हैं तो फिर उन्हें कुछ नहीं तो खिलाड़ियों को साजो-सामान के साथ चना-चिरौंजी तो देना ही चाहिए वरना लोग कहेंगे कि घर के देव भूखे बाहर के पूजा मांगें।
   

Thursday 24 April 2014

नजीर बनें खाप पंचायतें

समय दिन और तारीख देखकर आगे नहीं बढ़ता। वह गतिमान है। उसकी गति पर लाख रुकावट डालने की कोशिश की जाए, वह कभी नहीं रुकेगा। भारत जज्बाती युवाओं का देश है। उसे अपनी इच्छा के विपरीत कुछ भी स्वीकार नहीं है। आज वह अपने निर्णय स्वयं लेना चाहता है। उसे रूढ़िवादी परम्पराओं से नफरत है। युवाओं की नफरत में सिर्फ गुस्सा ही नहीं बल्कि नसीहत भी छिपी होती है। ऐसा नहीं है कि खाप पंचायतें हमेशा अनिर्णय का शिकार रही हैं पर पिछले कुछ वर्षों पर नजर डालें तो मुल्क में खाप पंचायतों ने प्रेम विवाह, अंतरजातीय सम्बन्ध, आधुनिक पोशाक और युवाओं की जीवनशैली को लेकर कई तरह के तुगलकी फरमान सुनाए हैं। इन फरमानों से न केवल युवाओं की हसरतों पर पाबंदी लगी बल्कि उनके मन-मानस में एक अनचाहा खौफ भी पैदा हुआ।
भारत में खाप पंचायतों का चलन बहुत पुराना है। यह खाप पंचायतें थाना-पुलिस यहां तक कि न्यायपालिका से भी अधिक अस्तित्व रखती हैं। ये पहले भी अपनी संकुचित मानसिकता और बहुत हद तक पुरुषवादी सोच का परिचय देती रही हैं जिसका असर महिलाओं पर अधिक पड़ता है। यह बात सही है कि दशकों पहले पंचायतों के निर्णय क्षेत्र विशेष तक सीमित होते थे लेकिन सूचना क्रांति के बाद खाप पंचायतों के फैसलों की अनुगूंज दूर-दूर तक सुनाई देने लगी है। अब पंचायतों के निर्णयों पर आंख मूंदकर चलने के दिन नहीं रहे। अब उसके निर्णयों पर पक्ष व विपक्ष में माहौल बनने लगा है। रूढ़िवादी परम्पराओं को खत्म करने के पक्षधर इज्जत के नाम पर हत्या जैसे प्रकरणों के खिलाफ आवाज उठाने का साहस दिखाने लगे हैं।
युवाओं के इसी साहस का ही परिणाम है कि अब खाप पंचायतें न केवल समय के बदलाव की पदचाप सुनने लगी हैं बल्कि अपनी प्रचलित रूढ़िवादिता और परम्पराओं को बदलने की दिशा में भी सोचने लगी हैं। खाप पंचायतों के इस बदलाव को नजीर बनने की जरूरत है। एक सुधरेगा तो तय है दूसरा भी सुधार की दिशा में चलने के बारे में जरूर सोचेगा। कुछ महीनों पहले खाप पंचायतों ने कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ आवाज बुलंद की थी, जिसकी सर्वत्र प्रशंसा हुई थी। अब सतरोल खाप पंचायत ने अपनी साढ़े छह सौ साल पुरानी परम्परा को बदलते हुए अंतरजातीय विवाह को मंजूरी देने का ऐतिहासिक कदम उठाया है। उसके इस कदम को दूर-दूर तक सराहा जा रहा है।
दरअसल, खाप पंचायतों का गठन गांव-गली की आपसी खुन्नस और मतभेदों को मिल-बैठकर सुलझाने,आपसी भाईचारा बढ़ाने आदि के लिए किया गया था। इसके मूल में व्यक्ति से ऊपर समाज को तरजीह देने की सोच थी। मुल्क में 643 ईस्वी में राजा हर्षवर्द्धन के शासनकाल में सर्वखाप पंचायत प्रणाली की स्थापना हुई। सात गांवों को साथ में लेते हुए सर्वखाप ने कार्य करना प्रारम्भ किया। धीरे-धीरे इसका दायरा बढ़ता गया और सतरोल खाप का गठन हुआ। इस वक्त सतरोल खाप में 42 गांव आते हैं। अब तक इन 42 गांवों मेंं भाईचारे के कारण 60-70 गोत्रों में आपसी विवाह की अनुमति नहीं थी। इससे न केवल लिंगानुपात बिगड़ा बल्कि युवक-युवतियों के परिणय सम्बन्धों में भी अड़चनें आने लगीं। कई युवा शादी की उम्र निकल जाने के बावजूद कुंवारे रह गए। इनकी संख्या बहुतायत है। समय बदला और लोगों की सोच में भी बदलाव आया। मसलन युवाओं ने शिक्षा की तरफ न केवल रुझान किया बल्कि पढ़-लिखकर रोजगार के लिए गांवों से बाहर भी निकले। युवाओं ने रूढ़िवादिता से परे नई सोच को अपनाते हुए दकियानूसी बातों को मानने से इंकार करने का हौसला भी दिखाया। इस दिशा में सिर्फ लड़कों में ही चेतना का प्रस्फुटन नहीं हुआ बल्कि लड़कियां भी जागृत हुर्इं। आज स्थितियां बेशक पूरी तरह से नहीं बदली हों पर युवा सिर झुकाकर हर फैसले को मानने से पहले सवाल जरूर उठाए लगे हैं। यह अच्छी बात है कि आज का युवा अपने भविष्य के अच्छे-बुरे पर स्वयं विचार करने लगा है तो उसके बहुत से मामलों में परिजन भी साथ देने लगे हैं। यूं तो किसी भी वयस्क का अपनी पसंद से विवाह करना संवैधानिक अधिकार है, वह चाहे अपने गोत्र के भीतर हो या फिर अंतरजातीय लेकिन कई बार परम्पराओं के प्रति सामाजिक जड़ता कानूनी अधिकारों को भी बाधित करती है। इस लिहाज से देखें तो सतरोल खाप का फैसला समय के साथ पारम्परिक धारणाओं के लचीला होने के साथ-साथ संवैधानिक हकों की बहाली की दिशा में भी अपनी भूमिका तय करने की एक अच्छी पहल है। मगर जिस तरह कुछ समूहों ने इस फैसले पर विरोध जताया है, उसे देखते हुए खाप पंचायतों को सर्वसम्मत राय बनाने की दिशा में भी सोचना होगा। सामाजिक और गैरसामाजिक संस्थाओं ने हमेशा खाप की सत्ता पर प्रश्न खड़े किए हैं। इन प्रश्नों का उत्तर एक दिन में देना असम्भव है, पर जिस तरह खाप पंचायतों ने समय के साथ कदमताल करने की सोच अपनायी है, वह प्रशंसनीय है।
हरियाणा के नारनौंद कस्बे में आयोजित महापंचायत में खाप चौधरियों ने एक सुर में ऐलान किया कि अब सतरोल खाप के 42 गांवों के लोग अपनी संतानों के रिश्ते कर सकेंगे। इसके साथ ही जातीय बंधनों को तोड़ते हुए फैसला लिया गया कि कोई भी युवक व युवती अपनी जाति से बाहर भी अपनी मर्जी से शादी कर सकता है बशर्ते ऐसे अंतरजातीय विवाह खुद के गांव, गोत्र व पड़ोसी गांव को छोड़कर हों। बदलाव की इस बयार का मकसद सतरोल खाप के भाईचारे को तोड़ना नहीं बल्कि रिश्ते-नातों के बंधन को खोलना है। महापंचायत का मानना है कि इससे सतरोल खाप का भाईचारा खत्म नहीं होगा बल्कि रिश्तेदारी होने के बाद खाप को और ज्यादा मजबूती मिलेगी। इस निर्णय पर सभी एकराय नहीं हैं, पर यह भी सच है कि हर बड़े परिवर्तन के बाद थोड़ी हलचल मचना स्वाभाविक है। इसलिए ऐसे विरोध होंगे, यह मानकर चलना चाहिए। फिलवक्त महत्वपूर्ण यह है कि खाप पंचायतों ने जो ऐतिहासिक, प्रगतिशील व उदार कदम उठाया है, उसे मजबूती से लागू होने दिया जाए। खाप पंचायत ने जिस तरह युवकों के परिणय बंधन पर जातिगत दायरों को तोड़ने का साहस दिखाया है कुछ उसी तरह उसे कन्या भ्रूण हत्या पर रोक और महिलाओं को बराबरी का अधिकार देने की दिशा में भी सोचना चाहिए।
(लेखक पुष्प सवेरा से जुड़े हैं।)

Friday 18 April 2014

शक के साये में क्रिकेट

अपयश की कालिख से सराबोर पेप्सी इण्डियन प्रीमियर लीग के सातवें संस्करण का आगाज पिछले साल के चैम्पियन मुम्बई इण्डियंस की शर्मनाक पराजय के साथ रेगिस्तानी सरजमीं संयुक्त अरब अमीरात में हो चुका है। इस साल एक खिताब के लिए आठ टीमें 13 मैदानों में 47 दिन तक पसीना बहाएंगी। आईपीएल के सातवें संस्करण में 60 मुकाबलों के बाद जहां चैम्पियन का पता लगेगा वहीं इस बीच कई कीर्तिमान भी जमींदोज होंगे। इस बार तमाशाई क्रिकेट से जहां मीडिया को दूर रखने के प्रयास हो रहे हैं वहीं नचनियों और देर रात तक चलने वाली पार्टियों पर भी बंदिश है। सुनील गावस्कर की निगहबानी में शुरू हुए आईपीएल क्रिकेट के रोमांच से इतर इस बार खेलप्रेमियों की नजर खिलाड़ियों के चाल, चेहरे और चरित्र पर भी होगी। फिलहाल, हर भारतीय इण्डियन प्रीमियर लीग और इण्डियन पोलिटिकल लीग को न केवल करीब से देख रहा है बल्कि उसे इसके परिणामों को लेकर भी खासी उत्सुकता है।
कम आॅन बुलावा आया है, मस्ती भरी ये बोल इन दिनों बच्चे-बच्चे की जुबान पर हैं। विवादों के साये में खेली जा रही इस प्रतियोगिता के सातवें संस्करण में कई नामचीन खिलाड़ी नहीं हैं पर क्रिकेट के सबसे छोटे प्रारूप को लेकर लोगों का उत्साह सातवें आसमान पर है। पिछले कुछ साल से क्रिकेट में मैच फिक्सिंग की घटनाएं जिस तरह सामने आई हैं उससे इस खेल की विश्वसनीयता सवालों के घेरे में है। पैसे लेकर टीम बदलने या सौदे के मुताबिक गेंद फेंकने की बातें सच साबित होने के बाद संयुक्त अरब अमीरात में क्रिकेट तमाशे पर तब तक संदेह रहेगा जब तक कि आखिरी गेंद नहीं फिंक जाती। यह दूसरा मौका है जब आईपीएल विदेशी सरजमीं पर हो रहा है। इससे पहले 2009 में आईपीएल दक्षिण अफ्रीका में आयोजित हुआ था। तब भी इण्डियन पोलिटिकल लीग आईपीएल के आड़े आई थी।  इस बार टूर्नामेंट में शिरकत कर रही सभी टीमें एक-दूजे से दो-दो मैच खेलेंगी। इस तरह एक टीम को कम से कम 14 मैच खेलने को जरूर मिलेंगे। क्रिकेटप्रेमियों को चुम्बक की तरह खींचने वाली आईपीएल की रौनक स्पॉट फिक्सिंग प्रकरण के कारण कम तो हुई है लेकिन लोग फिर भी इसे देखना चाहते हैं। यह अच्छी बात है कि इस बार आईपीएल का आगाज नंगनाच की जगह सौम्य तरीके से हुआ। आईपीएल को साफ-सुथरा बनाना बीसीसीआई और आईपीएल के अंतरिम अध्यक्ष सुनील गावस्कर के लिये एक चुनौती है। क्रिकेट मुरीदों की निगाहें जहां खिलाड़ियों के प्रदर्शन पर होंगी वहीं सनी पर यह दबाव होगा कि क्रिकेट का यह तमाशा पारदर्शितापूर्ण हो। गावस्कर को सर्वोच्च न्यायालय की सलाह के बाद भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड और आईपीएल का अंतरिम अध्यक्ष बनाया गया है। बोर्ड के नियमित अध्यक्ष एन. श्रीनिवासन अपनी टीम चेन्नई सुपर किंग्स और अपने दामाद गुरुनाथ मयप्पन को लेकर उठे विवादों के कारण अलग-अलग थलग पड़ गये हैं। हालांकि क्रिकेट आसंदी का मोह आज भी उनके दिलोदिमाग पर सवार है।
भारतीय संस्कृति के हिमायतियों के लिए यह खुशखबर है कि इस बार के आईपीएल तड़के से नाइट पार्टियों और चीयर गर्ल्स को दूर रखा गया है। ये दोनों मुद्दे ऐसे हैं जो आईपीएल में हमेशा विवादों की जड़ रहे हैं। दरअसल, आईपीएल जैसे आयोजनों में शुरूआत ही जिस तरह खिलाड़ियों की खरीद-फरोख्त से होती है, उसमें पैसे के लेन-देन या अपनी ज्यादा कीमत वसूलने की बीमारी का फैलना या गहरा होना अचरज की बात नहीं लगती। यह बेवजह नहीं है कि आईपीएल को पैसे वालों का तमाशा और काले धन का खेल कहा जाने लगा है। दर्शक यही मानकर मैदान या टेलीविजन पर मैच देखते हैं कि खिलाड़ी अपनी पूरी क्षमता के साथ टीम के लिए खेल रहे हैं। लेकिन अगर उनके हाथ से निकलने वाली गेंद या चलने वाला बल्ला कहीं और से नियंत्रित हो रहा हो तो यह दर्शकों के साथ सरासर बेईमानी है। आईपीएल का तमाशा जब से शुरू हुआ है, तभी से विवादों के घेरे में है। जिस प्रकार इसमें उद्योग व फिल्म जगत की हस्तियां जुड़ीं, खिलाड़ियों को करोड़ों की बोली लगाकर खरीदा गया, चौकों-छक्कों का जश्न मनाने के लिए चीयर लीडर्स को मैदान में उतारा गया और मैच के बाद सुरा-सुन्दरियों के साथ देर रात तक चलने वाली पार्टियों का चलन बढ़ा, उससे क्रिकेट नाम का यह लोकप्रिय खेल शोहदों की पार्टी बनकर रह गया। एक वक्त था जब शारजाह के अमीर व्यापारी अबुल रहमान बुखातिर वहां एकदिवसीय क्रिकेट मैचों का आयोजन करवाते थे। मुम्बई अण्डरवर्ल्ड के कुख्यात चेहरे, जिसमें दाउद इब्राहिम प्रमुख है, वीआईपी दीर्घा में फिल्मी कलाकारों के साथ देखा जा सकता था। फिल्म, क्रिकेट और अण्डरवर्ल्ड में गठजोड़ होगा तो गंदगी पनपेगी ही। यही कारण है कि अण्डरवर्ल्ड के किरदारों का भावनात्मक लगाव हिन्दी फिल्मों में हुआ और क्रिकेट में मैच फिक्सिंग की शुरूआत भी यहीं से हुई। मैच फिक्सिंग के खुलासे दर खुलासे के बाद शारजाह में क्रिकेट मैच होने लगभग बंद हो गए। आज आईपीएल उसी शारजाह में फिर जा पहुंचा है। आईपीएल में फिक्सिंग की जांच कर रही मुदगल कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया है कि आईपीएल और बीसीसीआई में सब कुछ ठीकठाक नहीं है।
खैर, फिक्सिंग के गढ़ संयुक्त अरब अमीरात के तीन शहरों में हो रहे पहले चरण के मुकाबलों सहित पूरी प्रतियोगिता में कई रिकॉर्ड खिलाड़ियों और टीमों के निशाने पर होंगे। कई टीमें और खिलाड़ी जहां मैचों का सैकड़ा पूरा करेंगे वहीं चौकों-छक्कों के कीर्तिमान भी बनेंगे। यदि मौसम की खलल न पड़ी तो मौजूदा चैम्पियन मुम्बई इण्डियंस 30 अप्रैल को सनराइजर्स हैदराबाद के खिलाफ दुबई में अपना 100वां मुकाबला जरूर खेलेगी तो सुरेश रैना भी सबसे पहले मैचों का सैकड़ा जमाएंगे। रैना इस सत्र में तीन हजार रनों का जादुई आंकड़ा छूने वाले पहले खिलाड़ी बन सकते हैं। रैना के नाम 99 मैचों में सर्वाधिक 2802 रन दर्ज हैं। क्रिकेट के इस छोटे प्रारूप में खेलप्रेमियों को चौके और छक्के भी खूब रास आते हैं। आईपीएल में सर्वाधिक चौके जमाने का रिकॉर्ड जहां अब गौतम गम्भीर के नाम होगा वहीं क्रिस गेल छक्कों का दोहरा शतक जरूर पूरा करना चाहेंगे। आईपीएल में कोई जीते या हारे पर क्रिकेट का यह लुभावना संस्करण अनावश्यक विवादों से दूर रहे यही इस खेल के लिए बेहतर होगा।
(लेखक पुष्प सवेरा से जुड़े हैं।)

Thursday 10 April 2014

मजबूत सरकार की आस

लोकतंत्र के सोलहवें महायज्ञ में मताहुति प्रारम्भ हो चुकी है। राजनीतिक दल भय-भूख-भ्रष्टाचार के समूल नाश की कसम खाने के साथ जनता जनार्दन को सुखराज का भरोसा दे रहे हैं। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा आजादी के बाद से ही मुल्क की आवाम राजनीतिज्ञों के झूठे आश्वासनों का झुनझुना बजा रही है। मौजूदा चुनाव में कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और आम आदमी पार्टी ने ही चार सौ से अधिक प्रत्याशी मैदान में उतारे हैं बाकी सभी क्षेत्रीय दलों ने अपने मजबूत ठौर-ठिकानों पर ही कसरत करने का मन बनाया है। देश में गठबंधन का फार्मूला सफल नहीं रहा। लम्बे समय से गठबंधन सरकारों के चलते ही मुल्क की आर्थिक स्थिति तहस-नहस हुई है। कहने को अटल बिहारी बाजपेयी और मनमोहन सिंह ने गठबंधन धर्म का सलीके से पालन करते हुए सरकारें चलार्इं लेकिन सहयोगी दलों की कारगुजारियों से न केवल लोकतंत्र शर्मसार हुआ बल्कि मुल्क की जनता भी खूब खून के आंसू रोई। मुल्क की आवाम गठबंधन सरकारों से उकता गई है ऐसे में उम्मीद बंधी है कि वह इस बार नेक फैसला ही लेगी और उसे लेना भी चाहिए।
गठबंधन के बंधन में फंसे बड़े दल जहां जनहितैषी फैसले नहीं ले पाते वहीं लोक-मर्यादा का सारा ठीकरा भी उन्हीं पर फूटता है। 1984 से अब तक मुल्क में कांग्रेस और भाजपा की ही गठबंधन सरकारें रही हैं लेकिन सुख भोगने में छोटे दलों के साथ स्वतंत्र सांसद भी पीछे नहीं रहे। महंगाई से जनता का दम घुटता रहा पर माननीयों की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा। गठबंधन धर्म के दौर में भी भारत ने विज्ञान, शिक्षा, रोजगार, उद्योग, रक्षा जैसे अनेक क्षेत्रों में महत्वपूर्ण उपलब्धियां दर्ज कीं किन्तु उनका उतना बखान नहीं हुआ जितना विभिन्न घोटालों को लेकर हंगामा होता रहा। देश में प्रगति के जितने भी कार्य हुए, उसके पीछे निश्चित ही सरकार की सोच, योजनाएं और नीतियां रही हैं, लेकिन उन पर चर्चा कम होने की वजह यूपीए के नेताओं का जनता से जीवंत जुड़ाव और प्रत्यक्ष संवाद न होना रहा। कई बार नाराज जनता सड़कों पर उतरी लेकिन सत्तासीन राजनीतिज्ञों ने उनकी पीड़ा पर जरा भी परवाह नहीं की।
आज जनता के फैसले का वक्त है पर वह अपने स्वतंत्र मताधिकार से झिझक रही है, उसे अनचाहा डर सता रहा है। चुनाव आयोग लाख दुहाई दे पर राजनीतिज्ञ आज भी मतदाता को धमका रहे हैं। लोकतंत्र में जनता किसे अपना प्रतिनिधि बनाना चाहती है, यही सवाल महत्वपूर्ण होता है किन्तु भारत की वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों में पार्टी किसे प्रतिनिधि बनवाना चाहती है, यह अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। टिकटों की मारामारी, जोड़-तोड़ और रूठने-मनाने का अभी तक का परिदृश्य तो कम से कम यही गवाही दे रहा है। लोग कपड़े की तरह दल और अपने विचार बदल रहे हैं। आलम यह है कि राजनीतिक पार्टियां असमंजस में हैं। वे जीत के भरोसे से नहीं बल्कि हार की आशंका से इस कदर डरी हुई हैं कि एक कदम आगे बढ़कर दो कदम पीछे हटने को मजबूर हैं। यह सभी दलों के टिकट बंटवारे में भी साफ देखा गया। दल-बदल से सभी राजनीतिज्ञ क्षत्रप परेशान हैं। 24 अप्रैल तक पार्टियों में क्या-क्या होता है, यह देखना दिलचस्प होगा।
नए गठजोड़ हो रहे हैं, नेताओं में पाला बदलने की होड़ चल रही है, ऐसे में टिकटों के फैसलों से बदलाव कोई अचरज वाली बात नहीं है। सोलहवें लोकतंत्र के गठन से पूर्व जो हो रहा है उसमें कुछ भी नया नहीं दिखता। ऐसा हमेशा हुआ है, यह बात दीगर है कि इस बार परिणामों के बाद होने वाली नंगनाच पहले ही हो रही है। राजनीतिक दल जिस तरह नूरा-कुश्ती लड़ रहे हैं उसे देखते हुए मुल्क में मजबूर नहीं बल्कि मजबूत सरकार की दरकार है। यह काम कोई और नहीं बल्कि हमारा बेरोजगार युवा और मुल्क की आधी आबादी ही कर सकती है। वैसे तो मुल्क में प्रारम्भ से ही महिलाओं को मताधिकार प्राप्त है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में राजनीति में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी ने हर दल को मजबूर कर दिया है कि वे अपने एजेण्डे में महिलाओं को विशेष स्थान दें। इस बार 38.79 करोड़ महिलाएं 543 सांसदों का भाग्य लिखेंगी तो 50 फीसदी युवा सारे आकलन मटियामेट कर सकते हैं।
यह खुशखबर है कि चुनाव आयोग के विशेष प्रयासों से देश में न केवल मतदाता बढ़े बल्कि उन्होंने मतदान के महत्व को भी स्वीकारा है। कल तक चूल्हे-चौके से वास्ता रखने वाली महिलाएं भी बड़ी संख्या में मतदान के लिए निकलने लगी हैं। चुनावों में 70 फीसदी से अधिक औसत मतदान इस बात का सुबूत है कि लोगों ने मतदान के महत्व को जान लिया है और उन्हें अपने मत की कीमत का अंदाजा भी हो गया है। स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव के लिए यह जरूरी है कि लोग न केवल अपने मताधिकार का प्रयोग करें बल्कि राजनीतिक दलों को यह संदेश दें कि अब उनका कोई भी प्रलोभन नहीं चलने वाला। भारतीय युवाओं में चुनाव नतीजे बदलने का माद्दा है। वे पढ़े-लिखे हैं और यह जानते हैं कि एक योग्य प्रत्याशी का चुना जाना उनके और देश के लिए कितना अहम है।
लोकतंत्र के इस महाकुम्भ में इस बार 25 वर्ष से कम उम्र के लोगों का प्रतिनिधित्व 50 प्रतिशत के करीब है। अगर 35 साल से कम उम्र के लोगों को भी इस चुनाव के लिए एक पैमाना मान लें तो यह कुल आबादी का 65 फीसदी होता है। भारत में सामान्यत: 35 साल का व्यक्ति युवा श्रेणी में आता है, इस लिहाज से देश की अधिकांश आबादी युवाओं की है। यही वजह है कि आज हर क्षेत्र में युवाओं पर दांव लगाया जा रहा है। मुल्क की सियासत भी इससे अछूती नहीं है। वैसे भी जिस देश के 21 करोड़ मतदाता 32 साल से कम उम्र के हों और पहली बार वोट देने जा रहे युवा वोटरों की तादाद भी 12 करोड़ से अधिक हो, ऐसे में यह तरुणाई क्या नहीं कर सकती। सत्ता का सोपान तय करने का वक्त आज उसके हाथ है। भारत गांवों का देश है। विकास की बयार गांवों तक पहुंचे इसके लिए जरूरी है कि मुल्क में मजबूर नहीं मजबूत सरकार हो।

Wednesday 9 April 2014

हौसला हारती आधी आबादी

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चुनावी बिगुल बज चुका है। राजनीतिक सेनाएं छल-प्रपंच के हथियारों से सज्जित हो दिल्ली कूच करने को बेताब हैं। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के महाभारत में इस बार दागी, बागी, बाहुबली और भ्रष्टों के साथ राजा-महाराजा, उनके बेटे-बेटियां ही नहीं सैकड़ों शिखण्डी भी ताल ठोक रहे हैं। विजय वरण से पहले आधी आबादी के मतों पर हर दल और राजनीतिज्ञ की गिद्ध दृष्टि है पर उसके सरोकार सिरे से खारिज हैं। हमारे राजनीतिज्ञों के घोषणा पत्र चीख-चीख कर बता रहे हैं कि पांच साल में उनकी तिजोरी में कई गुना बढ़ोत्तरी हुई है पर मुल्क का गरीब भुखमरी की कगार तक जा पहुंचा है। राजनीति में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की बात करें तो आजादी के 67 साल बाद भी वह निचले पायदान पर ही खड़ी है।
भारत में लोकतंत्र के आंदोलन का लम्बा इतिहास है। मुल्क को आजादी सैकड़ों साल के आंदोलन और हजारों लोगों की कुर्बानियों के बाद नसीब हुई है। उन आंदोलनों में वीरांगनाओं का भी असीम योगदान रहा है। मुल्क आजाद हुआ, लोकतंत्र अस्तित्व में आया लेकिन आधी आबादी को उसके समुचित अधिकार नहीं मिले, नतीजन वह आज भी उपेक्षा का दंश झेल रही है। सवाल राजनीति में आधी आबादी के प्रतिनिधित्व का नहीं बल्कि उनके सरोकारों और अस्तित्व का है। महिला सशक्तीकरण और बेटी बचाओ अभियान पर अकूत पैसा जाया करने के बाद भी किसी सल्तनत ने यह जानने-समझने की कोशिश नहीं की कि जिस मर्ज की दवा की जा रही है उसमें सुधार हो भी रहा है या नहीं। चुनावी पावन बेला में राजनीतिज्ञ अल्पसंख्यकों और दलितों की माली हालत में सुधार को बड़े फिक्रमंद हैं। उनके हालातों में सुधार को बड़ी-बड़ी बातें हो रही हैं पर जो काम छह दशक में नहीं हुआ वह आगे होगा भी इसकी क्या गारण्टी ?
हमारी सरकारें बेशक विकास का दम्भ भर रही हों पर राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन की रिपोर्ट पर नजर डालें तो बीते तीन साल में एक करोड़ से अधिक महिला श्रमिक बेगार हुई हैं। इसका असर सीधे तौर पर दलित और गरीब परिवारों पर पड़ा है। हम लाख विकास की बातें करें मुल्क में आज भी करोड़ों लोगों को दो जून की रोटी मयस्सर नहीं है। हमारे राजनीतिज्ञ जिस आधी आबादी की तरक्की का राग अलाप रहे हैं उसकी जमीनी हकीकत कुछ और ही कहानी बयां कर रही है। दरअसल बाजार की मेहरबानी पर टिकी भारतीय अर्थव्यवस्था ने महिला कामगारों को रोजगार बाजार से ही परे कर दिया है। नतीजन समाज में अत्याचार, हिंसा और बलात्कार की घटनाओं में बेतरतीब बढ़ोत्तरी हुई है। आर्थिक तंगहाली ने सामाजिक ताने-बाने को भी तहस-नहस कर दिया है। वैश्वीकरण और बाजार आधारित आर्थिक मॉडल से मुल्क को कुछ हासिल होने की बजाय नुकसान अधिक हुआ है। 1972-73 में महिला कामगारों का योगदान जहां 32 फीसदी था वहीं उदारीकरण की राह चलने के बाद दो दशक में यह घटकर 18 फीसदी ही रह गया। मुल्क में 90 फीसदी मजदूर असंगठित क्षेत्र में जीवन बसर करते हैं इनमें महिलाओं की संख्या कहीं अधिक है।
कहने को हमारे संविधान में सभी को बराबरी का दर्जा प्राप्त है पर रोजगार के मोर्चे पर लगी कामगार महिलाओं को आज भी पुरुषों से बहुत कम पारिश्रमिक मिलता है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो यह स्थिति और भी खराब है। शहरों में भी महिला कामगारों की स्थिति संतोषजनक नहीं कही जा सकती। गृहस्थी की गाड़ी खींचने के लिए महिलाएं श्रम करने को तो तैयार हैं पर उन्हें काम नहीं मिल रहा। कामगार महिलाओं से इतर पढ़ी-लिखी बेटियों के सामने भी आज रोजगार परेशानी का सबब है। हालात दिनोंदिन बेकाबू होते जा रहे हैं। गलाकाट महंगाई के इस दौर में साधारण और गरीब परिवारों के सामने घर खर्च चलाना असम्भव होता जा रहा है। कम होते रोजगार के अवसरों के कारण चाहते हुए भी महिलाएं घर की माली हालत सुधारने में असहाय हैं। मुल्क पूर्ण साक्षर नहीं हुआ पर जितने लोग साक्षर भी हैं उन्हें भी रोजगार के अवसर नहीं मिल पा रहे। आज देश की आधी आबादी 30 वर्ष से कम आयु की है। यह युवा वर्ग देश का भाग्य बदलने का जज्बा तो रखता है पर काम के अभाव में वह गलत दिशा की तरफ चल निकला है।
बात आधी आबादी की करें तो इनके साथ सदियों से भेदभाव होता रहा है और आज भी बदस्तूर जारी है। अनिश्चित रोजगार के चलते उन पर यौन शोषण की सम्भावनाएं बढ़ जाती हैं। उदरपूर्ति और गृहस्थी की गाड़ी खींचने की मजबूरी उन्हें जुल्मोसितम सहने को मजबूर कर देती है। वर्ष 2007 में जहां 28.5 फीसदी श्रमशक्ति को साल में छह माह तक बेगार रहना पड़ता था वहीं इन सात वर्षोें में बेगारों की संख्या 36 फीसदी से अधिक हो गई है। जिस मुल्क के एक तिहाई से अधिक कामगार साल के आधे समय तक निठल्ले रहने को मजबूर हों वहां समुचित विकास कैसे सम्भव है। इकोनामिक्स का सिद्धांत है जब किसी मुल्क में विकास का पहिया द्रुतगति से घूमता है तब लोग खेती-किसानी से तौबा कर उद्योगों की ओर पलायन करते हैं। लेकिन विश्व की आर्थिक महाशक्ति का सपना देखते हिन्दुस्तान में आज भी आधी से अधिक आबादी खेती-किसानी पर ही निर्भर है। कृषि लागत बढ़ने और जोत लगातार घटने से आज खेती भी घाटे का सौदा हो गई है। देश में खेतिहर महिला श्रमिकों की संख्या आज भी करोड़ों में है। यही कारण है कि आज पुरुष ही नहीं महिलाएं भी शहरी पलायन के रास्ते चल निकली हैं।
खेती-किसानी में काम करने वाली अधिकतर श्रमशक्ति अशिक्षित और अकुशल होती है लिहाजा उसे शहरों में सलीके का काम भी नहीं मिलता। जीवकोपार्जन के लिए मजदूरी इनकी मजबूरी है। यह बात सच है कि जब से सरकार रोजगार गारण्टी योजना अमल में लाई है ग्रामीण क्षेत्र से पलायन कुछ कम हुआ है। लाखों किसान-मजदूर पुन: शहरों से गांवों की तरफ लौटने लगे हैं। हम कह सकते हैं कि आज गंगा उलटी बह रही है। शहरों से गांवों की तरफ लौटने वालों में महिलाओं की संख्या अधिक है। यह खुशखबर तभी हो सकती है जब इन्हें गांवों में पर्याप्त काम मिले। भारतीय लोकतंत्र का महापर्व सिर पर है लेकिन कोई भी राजनीतिक दल आधी आबादी के उद्धार की बात नहीं कर रहा। कन्या भ्रूण हत्या, महिला कुपोषण, बेटियों की शिक्षा और महिलाओं के प्रति बढ़ती हिंसक घटनाओं का मूल कारण गरीबी और आर्थिक तंगहाली ही है जब तक इस दिशा में सुधार नहीं किया जाता और आधी आबादी अपने पैरों पर खड़ी नहीं होती, सरकार किसी की हो कोई भी बनाए मुल्क के विकास का पहिया नहीं घूमने वाला।    

Tuesday 1 April 2014

यूपी का महासंग्राम: कोई किसी से कम नहीं

उत्तर प्रदेश को लोकसभा पहुंचने का मुख्य मार्ग माना जाता है। अस्सी सीटों वाले इस प्रदेश पर हमेशा से सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के बड़े नेताओं की नजर रहती आई है। सोलहवीं लोकसभा की सीढ़ियां चढ़ने के लिए प्रदेश में सत्तारूढ़ पार्टी के प्रमुख ने तो दो-दो लोकसभा क्षेत्रों से अपनी दावेदारी पेश कर दी है।
कांग्रेस की अध्यक्ष सोनिया गांधी, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी, इसी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह, सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव, राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) अध्यक्ष चौधरी अजित सिंह, आम आदमी पार्टी (आप) के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल, अपना दल की प्रमुख अनुप्रिया पटेल ने लोकसभा पहुंचने के लिए इसी प्रदेश को मुख्य केंद्र बनाया है।
सोनिया गांधी ने अपने ससुर फिरोज गांधी और सास इंदिरा गांधी के संसदीय क्षेत्र रायबरेली सीट से वर्ष 1999 में पहली बार लोकसभा में प्रवेश किया था। उन्होंने इसी सीट से हैट्रिक बनाई और चौथी बार फिर इसी क्षेत्र से चुनाव मैदान में उतरने की तैयारी में हैं। इसी तरह राजनाथ सिंह वर्तमान में गाजियाबाद सीट से सांसद हैं। प्रदेश में पार्टी की पकड़ मजबूत बनाने के इरादे से वह इस बार पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का संसदीय क्षेत्र रह चुके लखनऊ से चुनाव मैदान में हैं।
अजित सिंह अमेरिका में इंजीनियर की नौकरी छोड़कर वर्ष 1987 में सक्रिय राजनीति में आए। वह अपने पिता पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के निधन के बाद 1989 के चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बागपत सीट से लोकसभा चुनाव में उतरे और वहीं से पिता की विरासत संभाल रहे हैं। अजित सिंह ने वर्ष 1989 एवं 1991 में जनता दल और 1996 में कांग्रेस के टिकट पर बागपत सीट से चुनाव जीता। मगर वर्ष 1998 के लोकसभा चुनाव में बागपत सीट से भाजपा के सोमपाल शास्त्री ने उन्हें पराजित कर दिया। इसके बाद वर्ष 1999, 2004 और 2009 के लोकसभा चुनाव में भी अजित सिंह रालोद के सांसद बने। वह इसी सीट से आठवीं बार लोकसभा में प्रवेश करने के लिए मैदान में हैं। मुलायम सिंह यादव वर्तमान में मैनपुरी सीट से सांसद हैं। वह इस बार के आम चुनाव में अपनी पुरानी सीट मैनपुरी के साथ ही उन्होंने पूर्वांचल की आजमगढ़ लोकसभा सीट से भी दावेदारी की है।
दिग्गज नेताओं की तर्ज पर अब आप के मुखिया और दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी उत्तर प्रदेश से ही संसद तक पहुंचने का निर्णय लिया है। उन्होंने वाराणसी सीट से मैदान में उतरे नरेंद्र मोदी को के खिलाफ चुनाव लड़ने का ऐलान किया है। इसके लिए आप ने प्रदेश में अपनी चुनावी जमीन तैयार करनी भी शुरू कर दी है। लोगों में चर्चा है कि सबको तो देख ही लिया, अब इस नई पार्टी को भी मौका देकर देखना चाहिए। इस पार्टी में युवाओं की संख्या ज्यादा है और सभी उच्च शिक्षा प्राप्त व ऊर्जा से लबरेज हैं। अपना दल की प्रमुख एवं महासचिव अनुप्रिया पटेल भी इस बार पूर्वांचल की फूलपुर सीट से चुनाव मैदान में उतरने की तैयारी में हैं। इन सभी नेताओं ने लोकसभा पहुंचने के लिए उत्तर प्रदेश को मुख्य केंद्र बनाया है।