Monday 3 December 2012

आईओए चुनावों पर रहस्य का पर्दा


भारतीय ओलम्पिक संघ के चुनाव में नाम वापसी की रस्म पूरी होते ही अभय चौटाला (अध्यक्ष), ललित भनोट (महासचिव), वीरेंद्र नानावटी (वरिष्ठ उपाध्यक्ष) और एन. रामचंद्रन (कोषाध्यक्ष) को बेशक देश भर से जीत की बधाइयां मिलने लगी हों पर इन चुनावों से अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति (आईओसी) के रहस्य का पर्दा उठना अभी भी बाकी है। दरअसल इस रहस्य के पर्दे की डोर उन हाथों में है जो भारत की खाते हैं लेकिन आईओसी की बजाते हैं। ये वे लोग हैं जो भारतीय खेल मंत्रालय के साथ मिलकर न केवल चुनावी खेल बिगाड़ने की हरमुमकिन कोशिश कर रहे हैं बल्कि भारतीय अस्मिता की भी इन्हें परवाह नहीं है।
भारतीय ओलम्पिक संघ के चुनाव पांच दिसम्बर को होने हैं। प्रथम दृष्टया इन चुनावों पर भले ही किसी तरह का संकट नजर नहीं आ रहा हो पर आईओए और केन्द्रीय खेल मंत्रालय की आपसी लड़ाई आईओसी को अपना कानूनी डण्डा चलाने को जरूर उकसा रही है। आईओए चुनाव को लेकर भारतीय खेल मंत्रालय ने अन्तरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति के अध्यक्ष जैक्स रोगे को कई परवाने लिखकर स्पष्ट किया है कि उसका आईओए के मामलों में हस्तक्षेप का कोई इरादा नहीं है पर आईओए स्वयं ही पारदर्शिता, सुशासन तथा ओलम्पिक चार्टर का पालन करने में विफल है। भारतीय खेल मंत्रालय द्वारा आईओए पर उंगली उठाना आईओसी को तो नागवार नहीं गुजरा पर आईओए के कार्यवाहक अध्यक्ष विजय कुमार मल्होत्रा इससे जरूर आग-बबूला हैं। श्री मल्होत्रा ने आईओसी अध्यक्ष रोगे को लिखे पत्र में स्पष्ट कहा था कि मंत्रालय उसके मामलों और चुनावी प्रक्रिया में अनावश्यक हस्तक्षेप कर रहा है। मल्होत्रा ने सख्त आपत्ति जताते हुए खेल सचिव प्रदीप के. देव पर आईओसी को सीधे पत्र लिखकर मुल्क के खेल महासंघों की स्वायत्तता पर हमला बोलने की तोहमत भी लगाई।
देश के खेलप्रेमियों को आईओए चुनाव बेशक सामान्य प्रक्रिया नजर आ रहे हों पर आईओए और खेल मंत्रालय की इस लड़ाई से यह तो साफ हो ही गया कि है कि पांच दिसम्बर को होने जा रहे चुनावों में सब कुछ साफ-सुथरा नहीं है। इन चुनावों में अभी भी काफी घटनाक्रम बदल सकते हैं। पहले आईओए के चुनाव 25 नवम्बर को होने थे लेकिन चुनावी कवायद में कुछ अड़चनों के चलते इन्हें पांच दिसम्बर तक आगे बढ़ाया गया। आईओए और खेल मंत्रालय के बीच पर्दे के पीछे जारी नूरा-कुश्ती जहां इन चुनावों को विवादित बना रही है वहीं आईओसी के सदस्य रणधीर सिंह भी चुपचाप नहीं बैठे हैं।
दरअसल इन चुनावों के जरिये भारतीय खेल मंत्रालय जहां अपने खेल विधेयक को अस्तित्व में लाने का प्रयास कर रहा है वहीं आईओसी अपने चार्टर में किसी भी फेरबदल के खिलाफ है। एक तरफ तो सरकार कह रही है कि वह आईओए के मामले में हस्तक्षेप नहीं करना चाहती तो दूसरी तरफ वह इस बात पर जोर दे रही है कि राष्ट्रीय खेल महासंघ तथाकथित खेल संहिता को स्वीकार करें। देखा जाए तो सरकार की खेल संहिता में हर उस चीज का उल्लंघन होता है जो आईओए के संविधान और आईओसी के चार्टर में है। आईओए और सरकार के बीच लड़ाई सिर्फ इस बात पर है कि खेल महासंघ खेल संहिता को सीधे-सीधे नकार चुके हैं जबकि खेल मंत्रालय चाहता है कि चुनाव खेल विधेयक के दायरे में हों। भारतीय खेल संहिता का उद्देश्य आईओए और अन्य खेल संघों के चुनाव निष्पक्ष, पारदर्शी और ओलम्पिक चार्टर के अनुसार कराने पर है। खेल संहिता जहां ओलम्पिक चार्टर के सिद्धांतों की हिमायती है वहीं दिल्ली न्यायालय ने भी संहिता का अनुमोदन किया है।
दुविधा की इस स्थिति में आईओए और खेल मंत्रालय की इस लड़ाई का पांच दिसम्बर को होने वाले चुनावों पर सीधा असर पड़ सकता है। हालांकि अभी आईओसी ने मंत्रालय और आईओए के लिखे गये परवानों पर अपनी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की है पर आईओए चुनावों पर संकट अभी भी बरकरार है। हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला के छोटे बेटे अभय खेलप्रेमी हैं, उनमें खेल-खिलाड़ियों को प्रोत्साहन देने का जुनून भी है। वह चाहते हैं कि खिलाड़ी मैदान में अपने शानदार प्रदर्शन से मादरेवतन का नाम रोशन करें पर आईओसी व भारतीय खेल मंत्रालय के कुछ पिछलग्गू नहीं चाहते कि भारतीय ओलम्पिक संघ का माहौल सुधरे। देखा जाए तो अभय सिंह चौटाला के पक्ष में अधिकांश राज्य ओलम्पिक संघों सहित लगभग सभी संघ पदाधिकारी लामबंद रहे हैं। अभय सिंह चौटाला की इसी ताकत के चलते ही रणधीर सिंह को आईओए के चुनावी मैदान से हटना पड़ा है। रणधीर सिंह के मैदान छोड़ने और उनके द्वारा लगातार आईओसी को शह देने से इन चुनावों को आईओसी की मान्यता मिलना दूर की कौड़ी नजर आ रही है। इन चुनावों में फसाद की सबसे बड़ी जड़ ललित भनोट हैं जिनको राष्ट्रमण्डल खेलों में भ्रष्टाचार के चलते लगभग एक साल जेल की सलाखों के भीतर रहना पड़ा है। आईओए चुनाव से पहले ही आईओसी ने स्पष्ट कर दिया था कि राष्ट्रमण्डल के दागी लोग यदि चुनाव में उतरे तो वह इन चुनावों को मान्यता नहीं देगा। आईओए के इन चुनावों में राष्ट्रमंडल खेलों में भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे ललित भनोट के भारतीय ओलम्पिक संघ के महासचिव पद पर निर्विरोध निर्वाचित होने से एक बार फिर मामला गर्मा गया है। यद्यपि ललित भनोट को अदालत ने अभी दोषी करार नहीं दिया है ऐसे में आईओसी का रुख क्या होगा यह कहना अभी जल्दबाजी होगी। सच तो यह है कि इस देश का कानून जब तक भनोट को दोषी नहीं ठहराता तब तक उन्हें चुनाव लड़ने से नहीं रोका जा सकता। जो भी हो इन चुनावों में अभी भी गेंद आईओसी के ही पाले में है। हालांकि आईओए के कार्यकारी अध्यक्ष वीके मल्होत्रा को उम्मीद है कि आईओसी चुनाव को गलत नहीं ठहराएगी।

Wednesday 21 November 2012

क्या वीरेन्द्र सहवाग अपने 100वें टेस्ट में पूरा करेंगे शतक?


टेस्ट क्रिकेट में 100 मैच खेलना किसी भी खिलाड़ी का सपना होता है और यदि वह अपने 100वें मैच में शतक बना दे तो इसे सोने पर सुहागा ही कहा जाएगा। भारतीय ओपनर वीरेंद्र सहवाग शुक्रवार को
 मुंबई में जब इंग्लैंड के खिलाफ दूसरे टेस्ट में मैदान पर उतरेंगे तो यह उनका 100वां मैच होगा और उनके पास मौका रहेगा कि वह इस उपलब्धि को शतक के साथ यादगार बना दें। भारतीय क्रिकेट के 74वर्षों के इतिहास में अब तक कोई भारतीय बल्लेबाज अपने 100वें टेस्ट में शतक नहीं बना पाया है। दुनिया में केवल सात बल्लेबाज ऐसे हैं जिन्होंने अपने 100वें टेस्ट में शतक बनाने की उपलब्धि हासिल की है। अहमदाबाद टेस्ट में भारत की पहली पारी में शानदार 117 रन बनाकर फार्म में वापसी करने वाले सहवाग के बल्ले में वह दम है जो मुंबई में भी सैकड़ा निकाल सकता है। सहवाग ने अब तक 99 टेस्टों में 50.89 के शानदार औसत से 8448 रन बनाए हैं जिनमें 23 शतक और 32 अर्द्धशतक शामिल हैं। सहवाग भारत के एकमात्र ऐसे बल्लेबाज हैं जिन्होंने टेस्ट क्रिकेट में दो तिहरे शतक बनाये हैं। वह दुनिया के चार विशिष्ट बल्लेबाजों में से एक हैं जिनके खाते में दो-दो तिहरे शतक हैं। आस्ट्रेलिया के डान ब्रेडमैन, वेस्टइंडीज के ब्रायन लारा और क्रिस गेल तीन ऐसे बल्लेबाज हैं जिन्होंने दो-दो तिहरे शतक बनाए हैं। अपने 100वें टेस्ट में शतक लगाने की उपलब्धि सबसे पहले इंग्लैंड के कोलिंग काउड्रे ने हासिल की थी जिन्होंने जुलाई 1968 में बर्मिंघम में आस्ट्रेलिया के खिलाफ 104 रन बनाए थे। पाकिस्तान के जावेद मियांदाद ने भारत के खिलाफ दिसंबर 1989 में लाहौर में 145 रन बनाए थे। वेस्टइंडीज के गोेर्डन ग्रीनिज ने अप्रैल 1990 में सेंट जोन्स में इंग्लैंड के खिलाफ 149 की पारी खेली थी। इंग्लैंड के एलेक स्टीवर्ट ने मैनचेस्टर में भारत के खिलाफ अगस्त 2000 में 105 रन बनाए थे। पाकिस्तान के इंजमाम उल हक ने बेंगलूर में भारत के खिलाफ मार्च 2005 में 184 रन बनाए थे। आस्ट्रेलिया के पूर्व कप्तान रिकी पोंटिंग ने अपने 100वें टेस्ट की दोनों पारियों में शतक बनाने की दुर्लभ उपलब्धि हासिल की थी। पोंटिंग ने दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ सिडनी में 2006 में 120 और नाबाद 143 रन बनाए थे। दक्षिण अफ्रीका के ग्रीम स्मिथ ने ओवल में इंग्लैंड के खिलाफ जुलाई 2012 में 131 रन बनाकर अपने 100वें टेस्ट का जश्न मनाया था। सहवाग के पास मौका है कि वह 100वें टेस्ट में एक भारतीय के शतकधारी होने का इंतजार पूरा करें। अहमदाबाद में उन्होंने बेहतरीन 117 रन बनाए थे। भारत के दो पूर्व कप्तानों दिलीप वेंगसरकर और कपिल देव ने विश्वास व्यक्त किया हैै कि सहवाग यह उपलब्धि हासिल कर सकते हैं। सहवाग मुंबई में दूसरे टेस्ट में उतरने के साथ ही 100 टेस्ट खेलने वाले भारत के नौवें खिलाड़ी बन जाएंगे। उनसे आगे सौरभ गांगुली (113 टेस्ट), वेंगसरकर (116) सुनील गावस्कर (125) कपिल देव (131) अनिल कुंबले (132) वीवीएस लक्ष्मण (134) राहुल द्रविड़ (163) और सचिन तेंदुलकर (191 टेस्ट) हैं।

आईओए चुनाव में हठधर्मी का ग्रहण

अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक संघ की नाराजगी कहीं भारत को विश्व खेल बिरादर से अलग-थलग न कर दे
आगरा। भारतीय ओलम्पिक एसोसिएशन के चुनावों में हठधर्मी का ग्रहण लग चुका है। अब 25 नवम्बर को होने वाले इन चुनावों पर संदेह के बादल मंडराने लगे हैं। इन चुनावों में जिस तरह छल-प्रपंच चल रहा है उससे भारत अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक संघ की न केवल नाराजगी का शिकार हो सकता है बल्कि वह विश्व बिरादर से भी अलग-थलग पड़ जाए तो किसी को अचरज नहीं होना चाहिए। भारतीय ओलम्पिक एसोसिएशन के चुनाव कुछ लोगों के लिए जहां नाक का सवाल बन गये हैं वहीं इनकी हठधर्मी से देश की अस्मिता तार-तार हो रही है। भारत में आईओए चुनावों को लेकर जो कुछ चल रहा है उससे आईओसी भी खुश नहीं है। कुछ लोग जहां भारतीय खेल मंत्रालय के खेल विधेयक की खिल्ली उड़ाते दिख रहे हैं वहीं कुछ दागी आईओसी की मनाही के बाद भी चुनावी दंगल में कूद गये हैं। अभय चौटाला व रणधीर सिंह के बीच अध्यक्ष की आसंदी को लेकर चल रही नूरा-कुश्ती भी दिलचस्प मोड़ पर पहुंच गई है। दोनों गुटों के बीच चल रहे चीरहरण के बाद एक बार फिर खेल सल्तनत खिलाड़ी की जगह अनाड़ी के हाथ में जाती दिख रही है। इन आरोप-प्रत्यारोपों का परिणाम कुछ भी निकले पर इससे अंतरराष्ट्रीय खेल जगत में भारत की जरूर थू-थू हो रही है।  आईओए चुनाव में रणधीर सिंह खेमा जहां भारतीय मुक्केबाजी संघ के चेयरमैन अभय चौटाला पर निशाना साध रहा है वहीं अभय चौटाला गुट के लोग रणधीर सिंह पर अध्यक्ष पद की अपनी उम्मीदवारी को पुख्ता करने के लिए सरकार से सम्पर्क करके ओलम्पिक चार्टर का उल्लंघन करने का आरोप लगा रहे हैं। भारतीय टेबल टेनिस महासंघ के अध्यक्ष अजय चौटाला, भारतीय तीरंदाजी संघ के उपाध्यक्ष तिरलोचन सिंह,आइस स्केटिंग संघ के अध्यक्ष भावेश भांगा, खो-खो संघ के अध्यक्ष राजीव मेहता और भारतीय कुश्ती महासंघ के सचिव सहदेव यादव ने अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति (आईओसी) के अध्यक्ष जाक रोगे को पत्र लिखकर कहा है कि रणधीर सिंह, जो खुद आईओसी के सदस्य भी हैं, ने ओलम्पिक चार्टर का उल्लंघन किया है। इनका कहना है कि अपनी सम्भावित पराजय को देखते हुए रणधीर सिंह खेल मंत्रालय से इन चुनावों में खेल संहिता को लागू करने का दबाव डाल रहे हैं जबकि आईओसी पहले ही चुनाव में सरकारी खेल संहिता अपनाये जाने के भारतीय खेल मंत्रालय के फैसले को पूरी तरह से खारिज कर चुका है।  भरोसेमंद सूत्रों का कहना है कि आईओए को आईओसी से एक पत्र मिला है जिसमें विश्व संस्था ने कहा है कि आईओए चुनाव हर हाल में उसके मौजूदा संविधान और ओलम्पिक चार्टर के नियमों के तहत हों। इन चुनावों को लेकर आईओसी ने तो यहां तक कहा है कि आईओए चुनाव में उसे किसी तरह का कोई सरकारी हस्तक्षेप स्वीकार नहीं होगा। इन चुनावों को लेकर आईओए के कार्यवाहक अध्यक्ष विजय कुमार मल्होत्रा भी खासे परेशान हैं। उन्होंने आईओसी से कहा है कि आईओए इस समय अजीब स्थिति में फंसा है। एक तरफ ओलम्पिक चार्टर है तो दूसरी तरफ सरकारी दिशा-निर्देश। इतना ही नहीं दिल्ली उच्च न्यायालय भी आदेश दे चुका है कि आईओए चुनाव सरकारी दिशा-निर्देशों के तहत ही हों।  बकौल मल्होत्रा हम उच्च न्यायालय के निर्देश की अवहेलना भी नहीं कर सकते तो दूसरी तरफ ओलम्पिक चार्टर का पालन करना भी हमारे लिए जरूरी है। दुविधा की स्थिति में अब राजस्थान उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश अनिल देव सिंह का पैनल ही कोई रास्ता निकाल सकता है। इन चुनावों की जटिलता को देखते हुए ही कुछ दिन पहले चुनाव पैनल के अध्यक्ष रहे एस.वाई. कुरैशी ने इस्तीफा दे दिया। उनके इस्तीफे के बाद आईओए चुनाव समय से हों इसके लिए सोमवार 19 नवम्बर को आईओए के कार्यवाहक अध्यक्ष प्रोफेसर विजय कुमार मल्होत्रा ने अनिल देव को चुनाव पैनल का नया अध्यक्ष नियुक्त करने की घोषणा की। आईओए चुनाव आयोग के दो अन्य सदस्य जस्टिस वीके बाली (सेवानिवृत्त) और जस्टिस जे.डी. कपूर (सेवानिवृत्त) हैं। जस्टिस बाली की जहां तक बात है वह निर्वाचन अधिकारी भी हैं। ललित भनोट दे रहे आईओसी को चुनौती आईओए चुनाव में आईओए व आईओसी के बीच सहमति बनने में सबसे बड़ी रुकावट राष्ट्रमण्डल खेलों में दागी करार दिए गए ललित भनोट प्रमुख हैं। श्री भनोट आईओसी की परवाह किये बिना जहां स्वयं महासचिव का चुनाव लड़ रहे हैं वहीं उनकी तरफ से अभय चौटाला को जिताने की भी पुरजोर कोशिश की जा रही है। दरअसल इन चुनावों में भनोट की दिलचस्पी से ही रणधीर सिंह कमजोर पड़ते दिख रहे हैं। हालांकि खेल बिरादर के अधिकांश खिलाड़ी उनके पक्ष में लामबंद हैं पर पलड़ा चौटाला का ही भारी दिख रहा है। इसे देश का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि मैदान में पसीना बहाने वाले खिलाड़ियों पर हमेशा अनाड़ियों ने ही शासन किया है।

Sunday 18 November 2012

टेस्ट क्रिकेट की आत्मा से खिलवाड़


अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद ने टेस्ट क्रिकेट में दर्शकों की दिलचस्पी बढ़ाने के लिए दिन-रात के टेस्ट मैचों को हरी झण्डी दिखा दी है। 30 अक्टूबर से प्रभावशाली नये नियमों के मुताबिक दो मुल्कों के क्रिकेट बोर्डों की सहमति से अब दूधिया रोशनी में टेस्ट क्रिकेट खेली जा सकती है। क्रिकेट के इस प्रारूप पर आस्ट्रेलिया और इंग्लैण्ड के अधिकांश क्रिकेटर पहले से ही रजामंद हैं तो भारत सहित अन्य टेस्ट बिरादर देशों में आम सहमति और इसके नफा-नुकसान को लेकर बहस चल रही है। आईसीसी का मानना है कि इस प्रयोग से बेशक युवा दर्शक मैदान तक न पहुंचें पर वे अपने घरों में टेलीविजन के माध्यम से टेस्ट क्रिकेट का दीदार अवश्य करेंगे। क्रिकेट आस्ट्रेलिया ने आईसीसी के इस फैसले का न केवल समर्थन किया है बल्कि उसके बोर्ड के चीफ एक्जीक्यूटिव जेम्स सदरलैण्ड ने एशेज 2013 में दूधिया रोशनी में टेस्ट क्रिकेट को आजमाने की सम्भावना भी जता दी है।
दूधिया रोशनी में टेस्ट क्रिकेट को लेकर सभी एकराय नहीं हैं। न्यूजीलैण्ड के पूर्व कप्तान तथा टीम इण्डिया के प्रशिक्षक रहे जॉन राइट, हरफनमौला कपिलदेव आस्ट्रेलियाई क्रिकेटर एडम गिलक्रिस्ट जैसे कई क्रिकेट जानकारों ने इस फार्मेट को बेजा करार दिया है। इनका तर्क है कि आईसीसी के इस प्रयोग के पीछे टेस्ट क्रिकेट की बेहतरी से ज्यादा टेलीविजन प्रसारण से होने वाली कमाई मुख्य वजह है। इस फार्मेट का भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड ने विरोध तो नहीं किया लेकिन वह इसके प्रति ज्यादा उत्साहित नहीं है। आईसीसी के फैसले का विरोध करने वालों का तर्क है कि इससे मूल क्रिकेट (टेस्ट क्रिकेट) की महत्ता खत्म हो जाएगी और वनडे एवं टी-20 की तरह यह भी व्यावसायिकता का लबादा ओढ़ लेगी। दूधिया रोशनी में टेस्ट क्रिकेट के हिमायतियों का कहना है कि दर्शकों की कमी के चलते टेस्ट क्रिकेट अस्तित्व के संकट से जूझ रही है। युवा पीढ़ी टेस्ट मुकाबले नहीं देख पाती क्योंकि इसकी टाइमिंग उनके लिए अनुकूल नहीं है। दिन-रात के टेस्ट मुकाबलों को देखने जहां दर्शक बढ़ेंगे वहीं मूल क्रिकेट की लोकप्रियता को भी चार चांद लगेंगे। देखा जाये तो जिस दिन-रात टेस्ट क्रिकेट की वकालत आईसीसी आज कर रही है उसका प्रयोग बीसीसीआई 15 साल पहले कर चुकी है। पांच से नौ अप्रैल, 1997 को ग्वालियर के कैप्टन रूप सिंह मैदान में मुम्बई और दिल्ली के बीच रणजी ट्रॉफी का फाइनल मुकाबला दूधिया रोशनी में खेला गया था। पांच दिवसीय इस मुकाबले में मुम्बई ने दिल्ली पर पहली पारी की बढ़त के आधार पर जीत दर्ज की थी। भारत के अलावा आस्ट्रेलिया और इंग्लैंड भी अपने घरेलू टूर्नामेंटों में दिन-रात के प्रथम श्रेणी मैचों को प्रायोगिक तौर पर आजमा चुके हैं। देखा जाए तो टेस्ट क्रिकेट में दर्शकों के घटते रुझान के पीछे इसके परिणाम से कहीं अधिक वनडे व टी-20 मुकाबलों का होना है। टेस्ट क्रिकेट में दर्शकों की घटती संख्या के पीछे आईसीसी भी कम जवाबदेह नहीं है। सच तो यह है कि क्रिकेट के बढ़ते व्यवसायीकरण के बाद आयोजकों के लिए टेलीविजन के दर्शक स्टेडियम में आने वाले दर्शकों से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गये हैं। दिन में खेले जाने की वजह से टेस्ट मैच को क्रिकेट प्रेमी अपनी व्यस्तताओं के चलते टेलीविजन पर नहीं देख पाते हैं जिसके चलते टेस्ट क्रिकेट को प्रायोजक नहीं मिलते। टेस्ट क्रिकेट भी मालामाल हो इसीलिए क्रिकेट बिरादर के अधिकांश देश चाहते हैं कि टेस्ट क्रिकेट भी दूधिया रोशनी में परवान चढ़े। दूधिया रोशनी से टेस्ट क्रिकेट में दर्शक बढ़ेंगे तो पैसा बढ़ेगा पर गेंदबाजों का क्या होगा जो प्राकृतिक प्रकाश में सुबह के समय पिच से मिलने वाली मदद से पासा पलटने की फिराक में रहते हैं तो बल्लेबाज धूप चटकने के साथ पिच के बदलते मिजाज का फायदा लम्बी पारियां खेलने के लिए करते हैं। दिन-रात के मुकाबले स्पिनरों के लिए भी किसी मुसीबत से कम नहीं होंगे। रात को ओस के चलते स्पिन गेंदबाज न तो ठीक तरह से गेंद को ग्रिप कर पाएंगे और न ही पिच से उन्हें विशेष मदद मिल पाएगी। आईसीसी का यह फैसला स्पिन गेंदबाजी की कला के ताबूत में आखिरी कील साबित हो सकता है। दिन-रात के टेस्ट मैचों में दोनों टीमों के लिए परिस्थितियां भिन्न-भिन्न होंगी। दिन के समय बल्लेबाजी आसान होगी क्योंकि गेंदबाजों को पिच से अधिक मदद नहीं मिलेगी वहीं रात में पिच में नमी के कारण वह तेज गेंदबाजों के लिए मददगार होगी और बल्लेबाजी करना काफी मुश्किल होगा। ऐसे में यह गैर बराबरी का मुकाबला होगा। पांच दिनी टेस्ट मैचों में हर पल खेल का स्वरूप बदलता रहता है। आखिरी क्षणों में कम होती रोशनी में पराजय टालने की कोशिश करते बल्लेबाज तो दूसरी तरफ आखिरी विकेट लेने की कोशिश करते गेंदबाज, चौथे-पांचवें दिन पिच के बदले मिजाज के चलते पैदा होने वाली अनिश्चितता कई ऐतिहासिक मुकाबलों की गवाह रही है, दिन-रात मुकाबलों के बाद खत्म हो जाएगी। दिन-रात के टेस्ट मुकाबलों में गेंद भी विलेन का रोल अदा करे तो हैरानी नहीं होनी चाहिए। दरअसल गेंद का रंग ऐसा होना चाहिए जो दिन व रात के समय आसानी से नजर आए और पांच दिनों तक चल सके। वैसे आईसीसी ऐसी गेंद तकनीक की तलाश कर रही है। अभी तक पिंक और आॅरेंज कलर की गेंदों का प्रयोग संतोषजनक नहीं रहा है।
क्रिकेट की जहां तक बात है, 24-25 सितम्बर 1844 को अमेरिका और कनाडा के बीच पहला अन- आॅफिशियल अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैच खेला गया  तो 15 से 19 मार्च 1877 को मेलबोर्न क्रिकेट मैदान पर आस्ट्रेलिया और इंग्लैण्ड के बीच पहला आॅफिशियल टेस्ट मुकाबला खेला गया जिसमें आस्ट्रेलिया 45 रन से विजयी रहा। क्रिकेट का यह अजब संयोग है कि 12 से 17 मार्च 1977 को टेस्ट क्रिकेट के 100 साल पूरे होने पर एमसीजी में ही आस्ट्रेलिया और इंग्लैण्ड के बीच खेले गए टेस्ट मुकाबले में एक बार फिर आस्ट्रेलिया ने 45 रन से जीत दर्ज की।

Saturday 10 November 2012

राजा रणधीर को चौटाला की चुनौती


एक तरफ देश दीपोत्सव की तैयारी में तल्लीन है तो दूसरी तरफ 25 नवम्बर को होने जा रहे भारतीय ओलम्पिक संघ के चुनाव के लिए खेलों के तहखाने में सियासत की सरगर्मी तेज हो गई है। नाक का सवाल बने इन चुनावों में राष्ट्रमण्डल खेलों का दागी सुरेश कलमाडी गुट जहां इण्डियन एमेच्योर बॉक्सिंग फेडरेशन के चेयरमैन अजय चौटाला की पीठ थपथपा रहा है वहीं देश के नामचीन हॉकी ओलम्पियन भारतीय ओलम्पिक संघ के प्रधान सचिव व कोषाध्यक्ष राजा रणधीर सिंह का हौसला बढ़ा रहे हैं। खेलों में सियासत का ऊंट किस करवट बैठेगा इस बात का पता तो चुनाव के बाद चलेगा पर मौजूदा दौर में भारतीय खेल मंत्रालय ने अभय चौटाला के वोट पर सवालिया निशान लगाकर शांत प्याले में तूफान ला दिया है।
भारतीय ओलम्पिक संघ भारत की राष्ट्रीय ओलम्पिक समिति है। इसका कार्य ओलम्पिक, राष्ट्रमंडल, एशियाई व अन्य अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले खिलाड़ियों का चयन और भारतीय दल का प्रबंधन करना है। वर्ष 1927 से अस्तित्व में आए भारतीय ओलम्पिक संघ ने देश को अब तक नौ अध्यक्ष दिये हैं। दोराबजी टाटा (1927-1928) भारतीय ओलम्पिक संघ के पहले अध्यक्ष रहे हैं, इनके प्रयासों से ही 1928 के ओलम्पिक खेलों में भारतीय दल शिरकत कर सका था। भारतीय ओलम्पिक संघ में इसके बाद लगातार 47 साल तक राजा रणधीर सिंह के परिवार का ही राज रहा है। टाटा के बाद 1928 से 1938 तक रणधीर के बाबा महाराजा भूपिन्दर सिंह अध्यक्ष की आसंदी पर बिराजे तो उसके बाद 1938 से 1960 तक यानि पूरे 22 साल उनके चाचा महाराजा यादविन्द्र सिंह आईओए के अध्यक्ष रहे। यादविन्द्र के हटने के बाद रणधीर सिंह के पिता भालिन्द्र सिंह (1960-1975) ने अध्यक्ष की कुर्सी सम्हाली।
देखा जाए तो जिस तरह भारतीय लोकतंत्र की सियासत पर वंशवाद हावी है कमोबेश उसी तरह यहां खेल भी परिवारवाद की परिधि में ही परवान चढ़ रहे हैं। भारतीय ओलम्पिक संघ तो सिर्फ एक उदाहरण है। देश के अधिकांश खेल संघों पर उन खेलनहारों का कब्जा है जिनके बाप-दादा भी कभी नहीं खेले। जो भी हो 1996 के बाद भारतीय ओलम्पिक संघ के होने जा रहे इन चुनावों में कुछ नए समीकरण बन सकते हैं। भारतीय खेल मंत्रालय व अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति ने यदि कानूनी डंडा चला दिया तो कई खेल संघ पदाधिकारी न केवल स्वयं के वोट से वंचित होंगे बल्कि उन्हें हमेशा के लिए खेल संघों से किनारा करना पड़ सकता है।
बीते पांच साल खेल जगत में भारतीय खेल-खिलाड़ियों की हनक के रहे हैं। इस बीच भारत ने राष्ट्रमण्डल खेलों की शानदार मेजबानी का श्रेय लूटा तो हमारे सूरमा खिलाड़ियों ने अपने पौरुष से नए आयाम स्थापित किए। हाल ही केन्द्रीय मंत्रिमंडल में हुए फेरबदल के चलते अजय माकन को खेल मंत्री का पद छोड़ना पड़ा। यह वही अजय माकन हैं जिन्होंने अपने पारदर्शी नजरिये व खेल विधेयक के माध्यम से लम्बे समय से खेल संघों में बिराजे पदाधिकारियों की नींद उड़ा दी थी केन्द्र सरकार को यही नागवार गुजरा। भारतीय ओलम्पिक संघ के होने जा रहे चुनाव पर न केवल अंतरराष्टीय ओलम्पिक समिति पैनी नजर रखे हुए है बल्कि उसने साफ-साफ कह दिया है कि कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाले के किसी आरोपी को चुनावी दंगल में न उतारा जाए। आईओसी ने तो यहां तक धमकाया है कि यदि सुरेश कलमाड़ी, ललित भनोट या वीके वर्मा में से कोई चुनाव लड़ा और जीता तो वह आईओए के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करेगी। राष्ट्रमंडल खेलों में हुए अरबों के घोटाले के बाद जहां भारत की खेल जगत में जमकर किरकिरी हुई वहीं आईओसी ने भारतीय ओलम्पिक संघ के चुनाव में अपना पर्यवेक्षक भेजने का फैसला लेकर  चिन्ता की लकीरें खींच दी हैं। याद नहीं आता कि दुनिया के किसी देश में इससे पूर्व अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति की देखरेख में चुनाव हुए हों। इन चुनावों को लेकर जहां आईओसी के तेवर तल्ख हैं वहीं आईओए के कार्यवाहक अध्यक्ष प्रोफेसर विजय कुमार मल्होत्रा भारतीय खेल मंत्रालय के किसी भी दिशा-निर्देश को न मानने की कसम खा रहे हैं। प्रो. मल्होत्रा का कहना है कि उम्र और कार्यकाल को लेकर कोर्ट ने हमें और खेल फेडरेशनों को चुनाव कराने का जो आदेश दिया है, वह न तो सही है और न ही तथ्यों पर आधारित। मल्होत्रा का कहना है कि सरकारी खेल विधेयक चूंकि कैबिनेट में ही औंधे मुंह गिर चुका है ऐसे में उसके दिशा-निर्देशों के कोई मायने नहीं रह जाते। भारतीय ओलम्पिक संघ के चुनाव से पूर्व चल रही खेलनहारों की नूराकुश्ती इस बात का सूचक है कि भारतीय खेलों में चोर-चोर मौसेरे भाइयों की पैठ होने के चलते भारतीय खेल मंत्रालय को ही बैकफुट पर जाना होगा। खेलों की इस खेमेबंदी ने चूंकि कई बार खेल मंत्रालय को चौंकाया है ऐसे में इस बात की जरा भी गुंजाइश नहीं है कि नए खेल मंत्री जितेन्द्र सिंह कोई बड़ा जोखिम लेंगे। उन्हें पता है कि अजय माकन की पारदर्शिता का हश्र क्या हुआ है। सच्चाई तो यह है कि अजय माकन को खेल मंत्री पद से इसीलिए हटाया गया ताकि अनाड़ियों का खेलों पर कब्जा बरकरार रहे और कांगे्रस के खेलनहारों के दामन पर लगे भ्रष्टाचार के दाग भी आसानी से धुल जाएं। खैर, अध्यक्षी के लिए राजा रणधीर सिंह जहां दक्षिणी राज्यों से समर्थन जुटा रहे हैं वहीं अभय चौटाला दागियों को अभयदान का वास्ता देकर रिझा रहे हैं।
भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष
अध्यक्ष अवधि
दोराबजी टाटा 1927-1928
भूपिन्दर सिंह 1928-1938
यादविन्द्र सिंह 1938-1960
भालिन्द्र सिंह 1960-1975
ओमप्रकाश मेहरा 1976-1980
भालिन्द्र सिंह 1980-1984
विद्या चरण शुक्ला 1984-1987
शिवान्थि अदिथन 1987-1996
सुरेश कलमाड़ी 1996- बर्खास्त

Sunday 28 October 2012

पंच प्यारे हुए नकारे


वर्षों से रूठे हैं सचिन तेंदुलकर, वीरेंद्र सहवाग, गौतम गम्भीर, सुरेश रैना व  महेंद्र सिंह धोनी के बल्ले

भारतीय पंच प्यारे सचिन तेंदुलकर, वीरेंद्र सहवाग, गौतम गम्भीर, सुरेश रैना व  महेंद्र सिंह धोनी लम्बे समय से नकारा साबित हो रहे हैं। इनके बल्ले इनसे इस कदर रूठे हैं कि गौतम गंभीर पिछले 34 महीने से, सुरेश रैना 28 महीने से, वीरेंद्र सहवाग दो साल से, सचिन तेंदुलकर 22 महीने से और कप्तान महेंद्र सिंह धोनी एक साल से टेस्ट क्रिकेट में शतक नहीं लगा पाये हैं। यह आंकडेÞ इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इंग्लैण्ड के खिलाफ 15 नवम्बर से शुरू होने वाली चार टेस्ट मैचों की शृंखला में इन बल्लबाजों पर भारतीय टीम का बड़ा दारोमदार रहेगा। 

पिछले साल इंग्लैण्ड दौरे में 4-0 की करारी हार का बदला लेने के लिये उत्सुक भारत के लिये इस महत्वपूर्ण शृंखला से पहले इस तरह के खराब आंकडेÞ हमारे बांकुरों के लिए सचमुच में चिन्ता का विषय हो सकते हैं। भारत के पास पिछले सात साल से गंभीर और सहवाग के रूप में एक अदद सलामी जोड़ी है और मुख्य समस्या यही है कि टीम के पास इनका कोई विकल्प भी नहीं है। गंभीर इस बात को समझते हैं। उन्होंने कहा कि अब भी सलामी जोड़ी के रूप में हमारा औसत 53 है और मुझे लगता है कि जब विश्व क्रिकेट में ओपनिंग की बात आती है तो मैं समझता हूं कि यह सर्वश्रेष्ठ में एक है। यदि 53 का औसत अच्छा नहीं है तो मैं नहीं जानता कि क्या अच्छा है। लेकिन सच्चाई यह भी है कि गंभीर पिछले 22 मैच की 40 पारियों में शतक नहीं लगा पाये हैं जबकि सहवाग बिना शतक के 16 टेस्ट और 29 पारियां खेल चुके हैं। गंभीर ने अपना आखिरी शतक जनवरी, 2010 में बांग्लादेश के खिलाफ चटगांव में और सहवाग ने नवम्बर 2010 में न्यूजीलैंड के खिलाफ अहमदाबाद में लगाया था। गंभीर ने आखिरी शतक जड़ने के बाद जो 40 पारियां खेली हैं उनमें उन्होंने 28.36 की औसत से 1078 रन बनाये हैं। सहवाग का अहमदाबाद टेस्ट मैच के बाद 29 पारियों में औसत 35 रन प्रति पारी है। उन्होंने इन मैचों में केवल 980 रन बनाये हैं। इन दोनों ने इस बीच नौ-नौ पचासे जरूर जमाये। गंभीर औसत की बात करते हैं लेकिन किसी भी टीम के लिये 28 या 35 के औसत से रन बनाने वाले बल्लेबाजों को सलामी जोड़ी के रूप में उतारना आसान नहीं होगा। यह सभी जानते हैं कि तेंदुलकर को अपने सौवें शतक के लिये लम्बा इंतजार करना पड़ा था।
आखिर में उन्होंने इस साल 16 मार्च को बांग्लादेश के खिलाफ एकदिवसीय मैच में शतक लगाकर महाशतक पूरा किया था लेकिन यह स्टार बल्लेबाज भी पिछली 24 पारियों से टेस्ट मैचों में शतक नहीं लगा पाया है। तेंदुलकर ने आखिरी शतक दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ जनवरी 2011 में केपटाउन में जमाया था। इसके बाद अगले 13 टेस्ट मैच में वह तिहरे अंक में भी नहीं पहुंचे। तेंदुलकर ने इन मैचों में 35.04 की औसत से 841 रन बनाये हैं। वह दो अवसरों पर नर्वस नाइंटीज का शिकार बने। इस बीच वेस्टइंडीज के खिलाफ मुंबई में खेली गयी 94 रन की पारी उनका सर्वाेच्च स्कोर है। कप्तान धोनी के लिये भी लम्बी अवधि के मैचों में शतक जमाना आसान नहीं रहा है। उन्होंने पिछले साल वेस्टइंडीज के खिलाफ कोलकाता में 144 रन की पारी खेली थी लेकिन इसके बाद अगली 11 टेस्ट पारियों में उनका उच्चतम स्कोर 73 रन रहा। धोनी ने इस बीच 34 रन प्रति पारी की दर से 306 रन बनाये। राहुल द्रविड़ और वीवीएस लक्ष्मण के संन्यास लेने के बाद धोनी ने मध्यक्रम में रैना पर विश्वास जताया पर बायें हाथ के इस बल्लेबाज ने टेस्ट क्रिकेट में अपना एकमात्र शतक अपने पहले टेस्ट मैच (जुलाई 2010) में बनाया था। इसके बाद 16 टेस्ट मैच की 28 पारियों में उन्होंने 24.92 के औसत से 648 रन बनाये हैं। उनके नाम पर इस बीच सात पचासे जरूर दर्ज हैं। रैना का स्थान हालांकि युवराज सिंह को मिल सकता है। इन दोनों को भारत ए की तरफ से इंग्लैंड के खिलाफ अभ्यास मैच में अच्छा प्रदर्शन करना होगा। वैसे मध्यक्रम में भारत का भरोसा दो युवा बल्लेबाजों पर रहेगा जो अच्छी फार्म में चल रहे हैं। चेतेश्वर पुजारा और विराट कोहली दोनों ने ही न्यूजीलैंड के खिलाफ अगस्त में हुई टेस्ट शृंखला में शतक जमाये थे। इसके बाद भी इन दोनों ने अच्छा प्रदर्शन किया है। पुजारा नम्बर तीन पर बल्लेबाजी के लिये आ सकते हैं जबकि कोहली को पांचवें नम्बर की जिम्मेदारी सम्हालनी पड़ेगी लेकिन छठे नम्बर के लिये युवराज और रैना में किसी एक को ही चुना जा सकता है।

अजय माकन क्यों बने बलि का बकरा?

लम्बे समय से प्रतीक्षित केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में आज बदलाव की जो बयार बही उसमें राहुल गांधी की मंशा का विशेष ख्याल रखा गया। अब देश के खेल परिदृश्य को बदलने की जवाबदेही निशानेबाज जीतेन्द्र सिंह को सौंपी गई है। जो भी हो युवाओं को तरजीह देने के नाम पर अजय माकन को इसलिए बदला गया ताकि दागी खेलनहार पुन: खेलों की गंगोत्री में डुबकी लगा सकें। 
देखा जाए तो खेल के क्षेत्र में अजय माकन का कार्यकाल न केवल पारदर्शी रहा बल्कि उन्होंने खिलाड़ियों के मर्म को करीब से देखा और उनकी परेशानी दूर करने के समुचित प्रयास भी किये। माकन ने कई खिलाड़ी हितैषी योजनाओं को मूर्तरूप देते हुए उन खेलनहारों को सबक सिखाया जिनके चलते खेलों की गंगोत्री पूरी तरह से मैली हो चुकी थी। अजय माकन ने पंचायत युवा क्रीड़ा और खेल अभियान (पायका) के जरिये गांव-गांव में खेल मैदान की जहां मजबूत नींव रखी वहीं उन्होंने खेल संघों की पारदर्शिता और जवाबदेही सम्बन्धी विधेयक के जरिये लम्बे समय से खेल संघों में बिराजे खेलनहारों को कुर्सी छोड़ने को भी मजबूर किया।
श्री माकन ने खेल संघ पदाधिकारियों पर नकेल कसने के साथ ही भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) को सूचना के अधिकार के दायरे में लाने की पुरजोर कोशिश भी की। माकन के इस प्रयास की देश भर में सराहना भी हुई। यही सराहना व अजय माकन का खेल एवं युवा कल्याण विभाग की सूरत बदलना उनकी पार्टी के लोगों को नागवार गुजरा। दरअसल अजय माकन के नेक प्रयासों के चलते ही सुरेश कलमाड़ी जैसे खेल सत्यानाशी जेल सींखचों तक पहुंचे तो कांग्रेस के कई अन्य दिग्गजों पर भी गाज गिरती दिखी। दरअसल केन्द्र ने श्री माकन को इस फेरबदल के तहत प्रोन्नत कर बेशक आवास एवं शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्री के रूप में कैबिनेट का झुनझुना थमाया हो पर खेल की दुनिया में तो इस बात के संकेत जा रहे हैं कि भारतीय खेल महासंघ के चुनाव से पहले माकन का बदला जाना कांग्रेस की नाक का सवाल था। यदि माकन नहीं बदले जाते तो कई कांग्रेसी खेलनहार हमेशा हमेशा के लिए खेल संघों में खेलने से वंचित रह जाते तो कई लोगों की शेष जिन्दगी जेल में गुजरती।
निशानेबाज जितेन्द्र सिंह बने नये खेल मंत्री
राजस्थान के अलवर से सांसद जितेन्द्र सिंह को केन्द्र सरकार में आज हुए फेरबदल के तहत खेल एवं युवा कल्याण मामलों के राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) के रूप में नियुक्त किया गया है। अब तक केन्द्रीय गृह राज्यमंत्री के रूप में काम कर रहे श्री सिंह खेल एवं युवा कल्याण मामलों के मंत्रालय में अजय माकन का स्थान लेंगे। अलवर राजघराने से ताल्लुक रखने वाले 41 वर्षीय जीतेन्द्र सिंह खुद एक निशानेबाज रहे हैं और राष्ट्रीय स्तर की कई प्रतियोगिताओं में उन्होंने पदक भी जीते हैं। दो बार राजस्थान विधानसभा में विधायक रहने के बाद वह 2009 में पहली बार सांसद बने।


Tuesday 22 May 2012




 आईपीएल  में  फिक्सिंग  फसाद  का साया  

 श्रीप्रकाश शुक्ला

इंडियन  प्रीमियर लीग के पांचवें संस्करण की समाप्ति से कुछ पहले ही क्रिकेट को लेकर समूचा खेल जगत न केवल स्तब्ध है बल्कि आग-बबूला भी है। जिस क्रिकेट को लेकर भारत में अन्य खेल रसातल को जाते दिख रहे हैं उसी खेल ने सभी मर्यादाओं को ताक पर रख खेलभावना को आग लगा दी है। क्रिकेट के अलम्बरदार न्याय देने की जगह अपना मुंह छिपाते नजर आ रहे हैं। क्रिकेट की खोई अस्मत व किस्मत का फैसला तो भविष्य तय करेगा पर दुनिया यह जरूर जान गई है कि भद्रजनों का यह खेल अब बेईमानों, दुराचारियों के हाथ की कठपुतली बन गया है। आईपीएल तो हमेशा विवादों में रही है। कभी विवाद खिलाड़ियों की खरीद-फरोख्त को लेकर हुआ तो कभी चीयर लीडर्स को लेकर भारतीय संस्कृति सकते में नजर आई। पांचवें संस्करण में तो इंतहा ही हो गई। खिलाड़ियों पर फिक्सिंग का भूत सवार हुआ तो कोलकाता नाइट राइडर्स के मालिक किंग शाहरुख खान सुरा के सुरूर में मदहोश हो गए। फिक्सिंग की फांस में फंसे खिलाड़ियों को भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड ने मैदान से बाहर का रास्ता दिखाया तो शाहरुख खान भी अब अपने ही शहर में पांच साल तक मैदान में क्रिकेट का मजा नहीं ले पाएंगे। मुम्बई क्रिकेट एसोसिएशन शाहरुख खान को सबक सिखाकर अपनी पीठ थपथपा रही है तो दूसरी तरफ क्रिकेट से वास्ता न रखने वाले सियासत की जमीन को खाद-पानी देने से बाज नहीं आ रहे।  
पिछले कुछ साल से क्रिकेट में मैच फिक्सिंग व फसाद की घटनाएं जिस तरह सामने आई हैं उससे इस खेल की विश्वसनीयता सवालों के घेरे में आ गई है। पैसे लेकर टीम बदलने या सौदे के मुताबिक गेंद फेंकने की बात कबूल करने वाले पांच खिलाड़ियों को निलम्बित कर दिया गया। देखने में यह भारतीय क्रिकेट नियंत्रण बोर्ड यानी बीसीसीआई का एक सख्त फैसला लगता है लेकिन क्या इतने भर से इस खेल पर लगते ग्रहण को दूर किया जा सकता है? आईपीएल मैचों के नतीजे पहले से तय होने के आरोप पहले भी लग चुके हैं और बीसीसीआई ने सच्चाई का पता लगाकर कार्रवाई करने का आश्वासन भी दिया था। लेकिन ताजा मामला इस बात का सबूत है कि इस गोरखधंधे को रोकने के लिए शायद कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। टेलीविजन चैनल के स्टिंग आॅपरेशन में खिलाड़ियों को जो कहते हुए दिखाया गया, अगर वह सच है तो इससे आईपीएल मैचों के बहाने काले धन के एक व्यापक खेल का संकेत जरूर मिलता है। मैदान में अगर कोई खिलाड़ी नो बॉल फेंकता है, बल्ला गलत चला देता है या रन आउट हो जाता है, तो दर्शक यह कैसे मान लेंगे कि उसके पीछे मोटी रकम का खेल नहीं होगा। दरअसल, आईपीएल जैसे आयोजनों में शुरुआत ही जिस तरह खिलाड़ियों की खरीद-बिक्री से होती है, उसमें पैसे के लेन-देन या अपनी ज्यादा कीमत वसूलने की बीमारी का और फैलना या गहरा होना लाजिमी है। सच तो यह है कि अब आईपीएल के साथ-साथ दूसरे मैचों के आयोजनों में पैसे का खेल जिस तरह शामिल हो चुका है, वह न सिर्फ क्रिकेट के प्रति दर्शकों के आकर्षण को छीन सकता है, बल्कि इससे खुद इस खेल का स्वभाव भी खत्म होता जा रहा है। यह बेवजह नहीं है कि आईपीएल को पैसे वालों का तमाशा और काले धन का खेल कहा जाने लगा है। इस तरह की गतिविधियां कितनी व्यापक होती जा रही हैं इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि बीसीसीआई को भारतीय क्रिकेट के लिए भ्रष्टाचार निरोधक इकाई गठित करने की घोषणा करनी पड़ी। दर्शक यही मानकर मैदान में या टेलीविजन पर मैच देखते हैं कि खिलाड़ी अपनी पूरी क्षमता के साथ टीम के लिए खेल रहे हैं। लेकिन अगर उनके हाथ से निकलने वाली गेंद या चलने वाला बल्ला कहीं और से नियंत्रित हो रहा हो तो यह दर्शकों के साथ धोखा नहीं तो और क्या है? अगर दर्शकों का भरोसा ऐसी प्रतियोगिताओं से उठ गया तो उनके आयोजन का क्या मतलब रह जाएगा? यह ध्यान रखने की जरूरत है कि इसका असर केवल आईपीएल जैसे आयोजनों तक सीमित नहीं रहेगा। कोई भी मैच देखते हुए आम लोगों के मन में एक संदेह बना रहेगा कि इसमें किस पक्ष का खिलाड़ी ईमानदारी से खेल रहा है। यूं तो जिस पूरे आयोजन की बुनियाद ही पैसे के खेल और चकाचौंध पर कायम हो, उसमें अगर कुछ खिलाड़ी अपने हुनर का सौदा लाखों-करोड़ों रुपए रिश्वत लेकर कर रहे हों तो यह कोई हैरान होने वाली बात नहीं होनी चाहिए। खेल के साथ हो रहे इस खिलवाड़ में क्रिकेट महज पैसे का तमाशा बनता जा रहा है। अगर क्रिकेट को एक स्वस्थ खेल के रूप में बचाए रखना है तो आईपीएल जैसे आयोजनों को खत्म करने पर विचार किया जाना चाहिए। इंडियन प्रीमियर लीग जब से शुरू हुआ है, तब से विवादों के घेरे में रहा है। जिस प्रकार इसमें उद्योग व फिल्म जगत की हस्तियां जुड़ीं, खिलाड़ियों को करोड़ों की बोली लगाकर खरीदा गया, चौकों-छक्कों का जश्न मनाने के लिए चीयर लीडर्स को मैदान में उतारा गया और मैच के बाद सुरा-सुन्दरियों के साथ देर रात तक चलने वाली पार्टियों का चलन प्रारम्भ किया गया, उससे क्रिकेट नाम का लोकप्रिय खेल शोहदों की पार्टी बनकर रह गया। अपने पांचवें सीजन में भी आईपीएल विवादों से बच नहीं पाया है। इस बार उस पर क्रिकेट के पुराने जिन्न फिक्सिंग का साया पड़ा है। फर्क इतना ही है कि मैच की जगह स्पॉट फिक्सिंग की जा रही है। स्टिंग आॅपरेशन में कुछेक खिलाड़ियों से टीमों में शामिल होने, खरीदने की असली कीमत, काला धन   और स्पॉट फिक्सिंग आदि पर बातचीत में इसका खुलासा किया है। अपना दामन बचाए रखने के लिए बीसीसीआई ने पांच खिलाड़ियों पर क्रिकेट के हर फार्म में प्रतिबंध लगा दिया है। समिति गठित कर जांच करने की बात भी कही है। संसद में भी आईपीएल में स्पॉट फिक्सिंग मामले पर सवाल उछाले गए लेकिन सारे सवालों के बीच जो सबसे बड़ा सवाल है, उसका जवाब देने से बीसीसीआई और खेल संघों पर काबिज राजनेता भी  बच रहे हैं। सवाल यह है कि चंद छोटे खिलाड़ियों को, जो कुछ लाख रुपयों के लिए नो बाल डालने या आउट होने को तैयार हो जाते हैं, खेल से बेदखल कर देने से क्या क्रिकेट में आयी गंदगी की सफाई हो सकती है। जब तक फिक्सिंग कर अरबों का खेल खेलने वाली बड़ी मछलियों को कांटे में नहीं फंसाया जाता, तब तक गंदगी के बढ़ने के आसार हमेशा बने रहेंगे। दु:खद यह है कि इन बड़ी मछलियों पर कोई जाल नहीं डालना चाहता। खेल मंत्री के रूप में अजय माकन ने खेल विधेयक पारित करवाने की भरसक कोशिश की थी लेकिन उसका विरोध खिलाड़ी राजनेताओं ने बखूबी किया। वे जानते हैं कि जब तक खेल संघों पर उनका वर्चस्व बना रहेगा, तब तक खेल और खिलाड़ी दोनों उनकी मुट्ठी में रहेंगे। राजनीति का खेल और खेल की राजनीति दोनों इससे भलीभांति चलेंगे। अगर माकन का खेल विधेयक पारित होता तो बीसीसीआई पर भी थोड़ा अकुंश लगता लेकिन वह तो उल्टे आंखें तरेर रही है, यह कह कर कि हम सरकार से पैसा लेते नहीं, बल्कि देते हैं। ऐसे में अगर बीसीसीआई यह कहती है कि क्रिकेट को साफ-सुथरा रखा जा रहा है, पूरी पारदर्शिता बरती जा रही है, तो उस पर विश्वास कैसे किया जा सकता है।
बीसीसीआई और उसके द्वारा नियुक्त किसी भी समिति से मामले की निष्पक्ष जांच की उम्मीद नहीं की जा सकती है। इसका कारण यह है कि आईपीएल टीम मालिकों और बीसीसीआई के अधिकारियों के सीधे सम्बन्ध हैं। बीसीसीआई अध्यक्ष एन. श्रीनिवासन खुद चेन्नई सुपर किंग्स के मालिक हैं। श्रीनिवासन का कहना है कि इस मामले में टीम मालिकों की भूमिका की जांच की जाए या नहीं, इसका फैसला आईपीएल गवर्निंग काउंसिल करेगी। गौरतलब है कि काउंसिल श्रीनिवासन को ही रिपोर्ट करती है। ऐसे में काउंसिल से निष्पक्ष जांच की उम्मीद कैसे की जा सकती है। यह खुद मुजरिम और खुद जज जैसा मामला हो जाएगा। आईपीएल के कीचड़ को साफ करने में इसलिए भी दिक्कत आ सकती है कि जनता के बीच यह फारमेट लोकप्रिय हो चुका है। बीसीसीआई और आईपीएल के आयोजकों को इस बात से बल मिलता है कि वे चाहे जिस तरह से मैच करवा रहे हों, जनता तो उसे देखने आ ही रही है। दर्शक क्रिकेट देखने के लिए स्टेडियम पहुंच रहे हैं, पर्दे के पीछे क्या खेल चल रहा है, इस बारे में वे लगभग अनभिज्ञ हैं। लेकिन अब जरूरी है कि जनता भी क्रिकेट के नाम खपाए जा रहे कालेधन की हकीकत को समझे। आखिर आयोजक, टीम मालिक और उनके इशारों पर नाचने वाले खिलाड़ी सबका कारोबार जनता की गाढ़ी कमाई से ही जो चल रहा है।

सरकार को भ्रूणों की चिन्ता, जिन्दा बच्चों की नहीं


एक ओर केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा कन्या  भ्रूण  हत्या रोकने के लिए सख्त कदम उठाये जाने के दावे किए जा रहे हैं, समाज में जागरूकता लाए जाने की बात की जा रही है, पुलिस प्रशासन को ऐसे मामलों में अतिरिक्त संवेदनशीलता बरतने को कहा जा रहा है पर स्थिति सुधरने की जगह और बिगड़ती जा रही है। देश में कन्या भ्रूण हत्या कब थमेगी इसका कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता क्योंकि मुल्क में साक्षर-असाक्षर, अमीर-गरीब, सरकारी-गैरसरकारी सभी तबकों में लड़कियां अभिशप्त हैं। देश में एक तरफ अजन्मों की फिक्र की जा रही है तो दूसरी तरफ उन करोड़ों निरीह-लाचार बच्चों की तरफ किसी का ध्यान नहीं है जो दो वक्त की रोटी के लिए अभिशप्त जीवन जी रहे हैं। देखा जाए तो आज देश में भ्रूण हत्या से भी अधिक बच्चों पर हो हो रहे जुल्म अधिक चिन्ता का विषय हैं।
मानव अपनी चेतना के रथ पर अनादिकाल से गतिमान है। उसकी यात्रा की परिसमाप्ति कहां और कैसे होगी यह कोई नहीं कह सकता। हम अपने जीवन के अश्रुकणों की कहानी और हास की परम स्निग्ध-ज्योत्सना को अपने तक सीमित नहीं रखना चाहते। हमारी इच्छा होती है कि कोई हमारे आंसुओं को पोछे, हमारी आहों को दुलराये और हमारी हँसी में अपने हृदय के उल्लास को घोल दे। यही नहीं हम अपने समस्त अनुभवों का दान, अपने समस्त ज्ञान की मंजूषा एवं अपनी समस्त कामनाओं की कलना अपनी संतति को दे जाना चाहते हैं। सच तो यह है कि हम सब अपने लिए जी रहे हैं परिणामस्वरूप राष्ट्र का भविष्य बच्चे दुराचारियों के हाथ का खिलौना बन गये हैं।
देखा जाए तो हमारे मुल्क का भावी विकास और निर्माण वर्तमान पीढ़ी के साथ ही आने वाली नई पीढ़ी पर भी निर्भर है, तभी तो कहा जाता है कि बच्चे देश का भविष्य होते हैं। लेकिन आज देश-समाज का नैतिक पतन भविष्य की पीढ़ी के लिए काफी विध्वंसक है। देश में बाल अपराध के आंकड़े दिनोंदिन बढ़ते जा रहे हैं। लोग गरीब बच्चों की मजबूरी का फायदा उठाते हुए उनसे गैर कानूनी कार्य करा रहे हैं। बच्चों के अपहरण की घटनाएं लगातार बढ़ रही है। वे पशु-पक्षियों की तरह बेचे जा रहे हैं। निश्चित ही इसके पीछे परिवार, अवांछित पड़ोस, समाज, स्कूलों का अविवेकपूर्ण वातावरण, टेलीविजन, सिनेमा, असुरक्षा की भावना, भय, अकेलापन, भावनात्मक द्वन्द्व, अपर्याप्त निवास, निम्न जीवनस्तर, पारिवारिक अलगाव, पढ़ाई का बोझ, सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, आधुनिक संस्कृति, मनोवैज्ञानिक एवं पारिवारिक कारक निहित हैं। देखा जाए तो आज के अभिभावक भी भौतिकता एवं महत्वाकांक्षा की अंधी दौड़ में व्यस्त हैं और वे बच्चों को पर्याप्त समय नहीं दे पा रहे। पिता को व्यवसाय व नौकरी तो मां को नियमित कार्यों व अपने सगे-सम्बन्धियों से फुर्सत नहीं है। कहने को देश में बाल अपराधों पर अंकुश लगाने के लिए किशोर न्याय अधिनियम 1986 जैसे और भी नियम-कायदे चलन में हैं पर इन नियमों का असर तब तक नहीं होगा जब तक कि देश से गरीबी-भुखमरी दूर नहीं हो जाती। दरअसल पेट की आग इंसान से सब कुछ गलत कराती है। देश के कोने-कोने में हम बच्चों को भीख मांगते देख सकते हैं। भिक्षावृत्ति जहां एक सामाजिक बुराई है वहीं उदरपूर्ति का सबसे आसान जरिया भी है। इस लाइलाज बीमारी के चलते ही भारत को भिखारियों का देश कहा जाने लगा है? यह विडम्बना ही है कि भारत का एक बड़ा वर्ग भिखमंगों का है। वैसे तो भारत में भीख मांगना वैदिक काल से ही चला आ रहा है लेकिन उस समय इसका अर्थ भिक्षा व दान होता था। आज भीख मांगना धंधा बन गया है। देश में बाल श्रम व बाल अपराध की स्थिति पर सरकारी आंकड़े कुछ भी कहते हों पर जानकर ताज्जुब होगा कि निजी क्षेत्रों में कोई 12 करोड़ बच्चे पेट की खातिर जुल्म-ज्यादती सहन कर रहे हैं। इनमें 25 फीसदी बच्चे दुराचारियों के हाथ की कठपुतली बने हुए हैं। वैसे तो बच्चों की उचित परवरिश को देशभर में बहुत से नियम-कायदे हैं पर राजनीतिक व सामाजिक इच्छाशक्ति में अभाव के चलते सरकारी तंत्र इन्हें लागू करने में अपने आपको अक्षम पाता है। बेहतर होगा कानून बिना दबाव अपने काम को अंजाम दे और बच्चों के पुनर्वास का भी ख्याल रखे क्योंकि खोया बचपन कभी वापस नहीं लौटता। बीते महीने यूनीसेफ की रिपोर्ट में खुलासा किया गया कि भारत में 22 फीसदी लड़कियां कम उम्र में ही मां बन जाती हैं और 43 फीसदी पांच साल से कम उम्र के बच्चे कुपोषण का शिकार हैं। शहरों में रहने वालों की संख्या तकरीबन 37 करोड़ है इनमें अधिकतर संख्या गांव से पलायन करने वालों की है। इन शहरों में हर तीन में से एक व्यक्ति नाले अथवा रेलवे लाइन के किनारे रहता है। देश के बड़े शहरों में कुल मिलाकर करीब पचास हजार ऐसी बस्तियां हैं जहां बुनियादी सुविधाएं भी नहीं हंै। दुनिया भर में कम उम्र के बच्चों की मौतों में 20 प्रतिशत भारत में होती हैं और इनमें सबसे अधिक अल्पसंख्यक तथा दलित समुदाय प्रभावित हैं।  सरकार ने जिस तरह से ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चों के लिए योजनाएं चला रखी हैं वैसी ही योजनाएं शहरों में रहने वाले गरीब बच्चों के लिए भी शुरू की जानी चाहिए। हिन्दुस्तान सदियों से एक ऐसा देश रहा है जो अपनी सांस्कृतिक विरासत और उन्नत सामाजिक चेतना के लिए दुनिया भर में जाना जाता है। यहां महिलाओं और बच्चों को भगवान का दर्जा दिया गया है पर आज स्थिति भयावह है। यहां कथनी और करनी में एक बड़ा अंतर है। हम नारी को देवी के रूप में सम्मान की बात तो करते हैं परंतु उसे दर्जा नहीं देना चाहते हैं। हम बच्चों को भगवान का रूप तो मानते हैं परंतु उसका ख्याल नहीं रखना चाहते। देश में बच्चों के अपहरण और उनके लापता होने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। वर्ष 2008 से 2010 के दौरान देश में 28 हजार से अधिक बच्चों का अपहरण हुआ जबकि 1.84 लाख बच्चे इस अवधि के दौरान लापता हुए। बच्चों के अपहरण के मामले में उत्तरप्रदेश देश भर में वर्ष 2011 में अव्वल रहा। वर्ष 2008 में 7,862 बच्चों का अपहरण हुआ, तो 2009 में 9,436 और 2010 में ऐसे 11,297 मामले दर्ज किए गए। इसी अवधि में कुल 1,84,605 बच्चे लापता हुए। बच्चों के अपहरण के पीछे कोई एक कारण नहीं है। कुछ बच्चे जहां रंजिशन व पैसे के कारण अपहृत किये जा रहे हैं वहीं गरीब बच्चों का अपहरण अनैतिक कार्यों के लिए किया जा रहा है। यह बच्चे विदेशियों तक बेचे जा रहे हैं।
भ्रूण हत्या जहां स्वेच्छा की परिधि में आता है वहीं बाल अपराध सामाजिक अनैतिकता का घृणित खेल है। बाल अपराधों में उत्तरप्रदेश की स्थिति काफी खराब है। आगरा को ही लें तो यहां चार मई, 2011 से चार मई, 2012 तक 29 किशोरियों से दुराचार होना हमारे समाज का सबसे विद्रूप चेहरा है। एक साल में ही यहां बच्चों के अपहरण की दर्जनों वारदातें हुई हैं।


Monday 21 May 2012

उत्तर प्रदेश की हर ग्राम पंचायत में होगा खेल मैदान


अब उत्तर प्रदेश की खेल प्रतिभाओं को अपना खेल निखारने के लिए शहर की तरफ नहीं भागना पड़ेगा। अब उनकी ग्राम पंचायत में न केवल खेल मैदान होंगे बल्कि केन्द्र सरकार खेल सामग्री भी मुहैया कराएगी। केन्द्र सरकार की महत्वाकांक्षी पंचायत युवा क्रीड़ा और खेल अभियान योजना के तहत प्रदेश की सभी ग्राम पंचायतों को चिह्नित किया जा चुका है। सब कुछ ठीकठाक रहा तो वर्ष 2017 तक देश की हर ग्राम पंचायत के पास स्वयं का खेल मैदान व सामान होगा। पायका योजना का लाभ आगरा जिले की 640 ग्राम पंचायतों को मिलेगा जिसमें 10 करोेड़, 57 लाख 20 हजार रुपये की लागत आएगी। कुल लागत का 75 फीसदी पैसा केन्द्र और 25 फीसदी पैसा राज्य सरकार वहन करेगी।
केन्द्र व राज्य सरकार द्वारा वित्तीय वर्ष 2008-09 से संयुक्त रूप से पंचायत युवा क्रीड़ा और खेल अभियान (पायका) योजना संचालित की जा रही है। इस योजना का उद्देश्य पंचायत स्तर पर आधारभूत खेल अवस्थापना एवं खेल उपकरण आदि उपलब्ध कराकर आमजन की सहभागिता से ग्रामीण क्षेत्रों में खेलकूद को प्रोत्साहित करना तथा प्रतिभाशाली ग्रामीण खिलाड़ियों को जिला, ब्लॉक स्तर की वार्षिक खेल प्रतियोगिताओं के माध्यम से आगे बढ़ने का अवसर सुलभ कराना है। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के वित्तीय वर्ष 2008-09 से 2011-12 तक जनपद की समस्त ग्राम पंचायतों एवं क्षेत्र पंचायतों के 10 प्रतिशत की दर से तथा बारहवीं पंचवर्षीय योजना के वित्तीय वर्ष 2012-13 से 2016-17 तक 12 प्रतिशत की दर से ग्राम पंचायतों तथा क्षेत्र पंचायत स्तर पर खेल मैदानों का विकास कर खेल गतिविधियों को बढ़ावा दिया जाना है।
इस योजना से उत्तर प्रदेश के सभी जिले लाभान्वित होंगे। आगरा जनपद में भी यह योजना अपना काम शुरू कर चुकी है। इस योजना से आगरा जनपद के विकास खण्ड खन्दौली की 56 ग्राम पंचायतें व 42 पायका सेण्टर, शमशाबाद की 55  ग्राम पंचायतें व 44 पायका सेण्टर, फतेहाबाद की 64 ग्राम पंचायतें व 39 पायका सेण्टर, जगनेर की 26 ग्राम पंचायतें व 19 पायका सेण्टर, सैंया की 39 ग्राम पंचायतें व 28 पायका सेण्टर, खेरागढ़ की 35 ग्राम पंचायतें व 24 पायका सेण्टर, एत्मादपुर की 36 ग्राम पंचायतें व 26 पायका सेण्टर, अछनेरा की 51 ग्राम पंचायतें व 37 पायका सेण्टर, बाह की 45 ग्राम पंचायतें व 28 पायका सेण्टर, जैतपुर कलां की 45 ग्राम पंचायतें व 28 पायका सेण्टर, बिचपुरी की 24 ग्राम पंचायतें व 21 पायका सेण्टर, फतेहपुर सीकरी की 51 ग्राम पंचायतें व 32 पायका सेण्टर, अकोला की 32 ग्राम पंचायतें व 25 पायका सेण्टर तथा पिनाहट की 35 ग्राम पंचायतें व 23 पायका सेण्टर लाभान्वित होंगे। अब सवाल यह उठता है कि 11वीं पंचवर्षीय योजना समाप्ति की ओर है, ऐसे में तय समय पर कार्य कैसे पूरा हो सकेगा?  नियम के मुताबिक अब तक 192 ग्राम पंचायतों में काम पूरा हो जाना था, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और है।