Friday 28 April 2017

दिग्गजों के बीच चमके सितारे


आईपीएल-10 कोई टीम अजेय नहीं, बेंगलूर का बुरा हाल
 श्रीप्रकाश शुक्ला
आईपीएल क्रिकेट का दसवां संस्करण धीरे-धीरे समापन की तरफ बढ़ रहा है। रतजगा करते भारतीय क्रिकेट मुरीदों को इस बार दिग्गज खिलाड़ियों के लचर प्रदर्शन ने जहां निराशा के भंवरजाल में डाल रखा है वहीं अनजान सितारे लाजवाब प्रदर्शन से अपने भविष्य की जमीन तैयार करते दिख रहे हैं। दिग्गजों के खामोश बल्लों से यह भी तय नहीं हो पा रहा है कि आखिर खिताब किस टीम की झोली में जाएगा। यह क्रिकेट ही तो है जिसके परिणाम को लेकर अंतिम गेंद तक आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता। हो सकता है रंगमंच के आखिरी पड़ाव तक दिग्गजों के खामोश बल्ले चल निकलें और परिदृश्य बदल जाए लेकिन अब तक जो हुआ है उससे टीम मालिकों के मन में दुविधा घर कर गई है। खैर, चमक-दमक के बीच क्रिकेटप्रेमी आधी रात तक जागकर आईपीएल का लुत्फ उठा रहे हैं। क्या स्टेडियम और क्या घर, क्रिकेट मुरीद अपने पसंदीदा खिलाड़ियों की हौसलाअफजाई करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। हर साल की तरह इस साल भी टीम मालिकों ने दिग्गजों पर धनवर्षा करने में कोई कोताही नहीं बरती लेकिन अब तक तो खोटे सिक्कों ने ही कमाल और धमाल दिखाया है। आईपीएल के दसवें संस्करण में अब तक दो ही शतक लगना और लेग स्पिनरों का चलना क्रिकेट मुरीदों में चर्चा का विषय है।
यूं तो आईपीएल के 10 साल के स्वप्निल सफर में कई स्थानीय क्रिकेटर हीरो की तरह उभर कर सामने आए हैं और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इन जांबाजों ने अपनी पहचान भी बनाई है। आईपीएल 10 में भी ऐसे कई खिलाड़ी शामिल हैं जिनका नाम शायद ही आपने पहले कभी सुना हो। ये ऐसे खिलाड़ी हैं जिनका जिक्र बड़े-बड़े स्टार खिलाड़ियों के बीच कहीं दबकर रह जाता है लेकिन इससे इन खिलाड़ियों की प्रतिभा पर किसी भी तरह का कोई फर्क नहीं पड़ता। ये खिलाड़ी चकाचौंध से दूर न केवल अपने खेल पर फोकस कर रहे हैं बल्कि जून में इंग्लैण्ड में होने वाली चैम्पियंस ट्राफी क्रिकेट को देखते हुए कई दिग्गजों के अरमानों पर पानी भी फेर रहे हैं। ताबड़तोड़ क्रिकेट के इस प्रारूप ने प्रतिभाशाली खिलाड़ियों को अपनी प्रतिभा दिखाने का न केवल मंच दिया है बल्कि उनकी तंगहाली भी दूर की है।
राइजिंग पुणे सुपरजाइंट के राहुल त्रिपाठी का नाम इस टूर्नामेंट से पहले शायद ही किसी ने सुना हो। अजिंक्य रहाणे के साथ ओपन करने वाले राहुल ने अब तक बेहतरीन प्रदर्शन किया है। राहुल अजय त्रिपाठी दायें हाथ के आक्रामक बल्लेबाज हैं और जरूरत पड़ने पर वह मध्यम गति की गेंदबाजी भी कर लेते हैं। राहुल त्रिपाठी ने अब तक खेले गये मैचों में अपनी लाजवाब बल्लेबाजी से सबका ध्यान अपनी ओर खींचा है। इस खिलाड़ी को उम्मीद है कि आईपीएल-10 उनके लिए क्रिकेट की एक नयी जमीन तैयार करेगा। मूल रूप से महाराष्ट्र से खेलने वाले 26 साल के राहुल इस आईपीएल से पहले केवल 26 प्रथम श्रेणी मैच ही खेले थे और टी-20 मुकाबलों के 18 मैचों की नौ पारियों में उन्होंने 138 गेंदों का सामना करते हुए 170 रन बनाये थे लेकिन आईपीएल में उनके धूम-धड़ाके की हर कोई चर्चा कर रहा है। राहुल की ही तरह दिल्ली में पैदा हुए नितीश राणा भी फिलवक्त मुम्बई इंडियंस के लिए तारणहार साबित हुए हैं। आईपीएल से पहले उनका प्रदर्शन ऐसा नहीं था जिस पर चर्चा हुई हो। बायें हाथ के बल्लेबाज और दायें हाथ के ऑफ ब्रेक गेंदबाज नितीश राणा इस आईपीएल से पहले 32 टी-20 खेल चुके थे और सात पारियों में केवल 94 रन ही बना सके थे लेकिन इस आईपीएल में इनके इरादे कुछ और ही हैं। क्रिकेटरों के इस भव्य मेले में राणा अपनी पहचान बनाना चाहते थे और इसकी शुरुआत उन्होंने पहले ही मैच से कर दी थी। सितारों से सजी मुम्बई टीम में कप्तान रोहित शर्मा, जोस बटलर, केन पोलार्ड, हार्दिक पांड्या, कुणाल पांड्या और पार्थिव पटेल जैसे खिलाड़ी हैं लेकिन नितीश राणा ने अपनी बिंदास बल्लेबाजी से क्रिकेटप्रेमियों को खासा प्रभावित किया है। राणा के लगातार बेहतर प्रदर्शन से ही मुम्बई इंडियंस अपनी साख पर बट्टा लगने से अभी तक बची है।
आईपीएल के दसवें संस्करण में पांड्या ब्रदर्स ने भी काफी शोहरत बटोरी है। कुणाल का जन्म अहमदाबाद में हुआ। उनका पूरा नाम कुणाल हिमांशु पांड्या है। बड़ोदा की ओर से खेलने वाले कुणाल हार्दिक पांड्या के भाई हैं। हार्दिक की ही तरह वह भी मुम्बई इंडियंस के लिए खेल रहे हैं। हरफनमौला कुणाल बायें हाथ से बल्लेबाजी करते हैं और स्लो लेफ्ट आर्म आर्थोडॉक्स गेंदबाज हैं। हार्दिक की तरह उनकी खेलने की शैली भी आक्रामक है। इस आईपीएल से पहले तक उन्होंने 34 टी-20 मैचों की 23 पारियों में 158 की औसत से 509 रन बनाए थे। उनका अधिकतम स्कोर 86 रहा है। कुणाल जानते हैं कि यह आईपीएल उन्हें स्थानीय हीरो से अंतरराष्ट्रीय हीरो बना सकता है। वह अब तक गेंद और बल्ले से काफी सफल साबित हुए हैं। वह खुद को परिस्थितियों के अनुरूप तेजी से ढाल लेते हैं। कुणाल एक बेहतरीन क्षेत्ररक्षक भी हैं। कुणाल इसी तरह खेले तो यह आईपीएल उन्हें भी स्टार खिलाड़ी का दर्जा दिला सकता है। कुणाल की ही तरह उनके भाई हार्दिक पांड्या भी शानदार हरफनमौला खिलाड़ी होने की छाप छोड़ रहे हैं। अब तक मिले अवसरों को इस खिलाड़ी ने जाया नहीं किया है। शार्दुल नरेंद्र ठाकुर का जन्म महाराष्ट्र के पालगढ़ में 1991 में हुआ। अब तक किंग्स इलेवन पंजाब के लिए खेल चुके शार्दुल ठाकुर इस बार राइजिंग पुणे सुपरजाइंट टीम के सदस्य हैं। दायें हाथ के मध्यम तेज गति के गेंदबाज शार्दुल ऐसे आक्रामक गेंदबाज हैं जो गेंद को खूबसूरती से स्विंग कराते हैं। 49 प्रथम श्रेणी मैचों की 87 पारियों में शार्दुल 169 विकेट ले चुके हैं। 22 टी-20 मैचों में शार्दुल 25 विकेट चटका चुके हैं। शार्दुल जानते हैं कि उनमें प्रतिभा है और आईपीएल ही ऐसा मंच हो सकता है जहां वे अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा कर टीम इण्डिया में दस्तक दे सकते हैं। शार्दुल ने अभी तक बेहतरीन गेंदबाजी की है लेकिन उन्हें अभी और बेहतर प्रदर्शन करना होगा तभी वह आईपीएल के सितारों की फेहरिस्त में शामिल हो पाएंगे।
आईपीएल के दसवें रंगमंच पर मनन वोहरा ने भी अपने प्रदर्शन से खासा प्रभावित किया है। किंग्स इलेवन पंजाब के लिए खेल रहे मनन वोहरा का जन्म पंजाब में ही हुआ वहीं उन्होंने क्रिकेट का ककहरा भी सीखा। 68 टी-20 मैचों की 66 पारियों में अब तक मनन 127 की औसत से 1635 रन बना चुके हैं। ओपनिंग बल्लेबाज के रूप में उनकी पहचान बन चुकी है लेकिन आईपीएल एक ऐसा टूर्नामेंट है जो इस पहचान को अंतरराष्ट्रीय पहचान में बदल सकता है। मनन वोहरा इसी प्रयास में लगे हैं। अब तक मनन यह दिखा चुके हैं कि वह एक आक्रामक बल्लेबाज हैं और वह जब चाहें रन गति को बढ़ा सकते हैं। मनन इसी गति से रन बनाते रहे तो उन्हें स्थानीय से राष्ट्रीय हीरो बनने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। इन खिलाड़ियों के अलावा कुलदीप यादव, युदवेन्द्र चहल, मनोज तिवारी, मनीष पाण्डेय, पवन नेगी, केदार जाधव, अक्षर पटेल जैसे खिलाड़ी भी अपनी प्रतिभा से न्याय करते दिख रहे हैं। इसे समय का फेर कहें या कुछ और कभी महेन्द्र सिंह धोनी का विकल्प माने जा रहे मुम्बई इंडियंस के बल्लेबाज सौरभ तिवारी प्लेइंग इलेवन में भी जगह नहीं बना पा रहे हैं।
आईपीएल के दसवें संस्करण में नए खिलाड़ियों से इतर कुछ पुराने जांबाज खिलाड़ी भी रौ में हैं। सुरेश रैना, गौतम गम्भीर, राबिन उथप्पा, अजिंक्य रहाणे, दिनेश कार्तिक, पार्थिव पटेल, भुवनेश्वर कुमार और पीयूष चावला जैसे खिलाड़ी अपने पराक्रमी खेल से अपनी-अपनी टीमों को ही नहीं आईपीएल के रंगमंच को भी गौरवान्वित कर रहे हैं। चिन्ता नामवर और महंगे खिलाड़ियों को लेकर है। भारतीय टीम के कप्तान विराट कोहली, महेन्द्र सिंह धोनी, क्रिस ग्रेल, एबी डिविलियर्स, बेन स्टोक्स, टाइमल मिल्स, कागिसो रबाडा, ट्रेंट बोल्ट, पैट कमिन्स, क्रिस वाक्स, कर्ण शर्मा और टी. नटराजन जैसे खिलाड़ी जहां अपनी प्रतिभा से अभी तक न्याय नहीं कर पाए हैं वहीं इमरान ताहिर, नरेन सुनील, सैमुअल बद्री, डेविड वार्नर, ब्रेंडन मैकुलम, हासिम अमला, स्टीव स्मिथ, आरोन फिंच, राशिद खान जैसे विदेशी खिलाड़ियों ने अपने फन का शानदार जौहर दिखाया है। 
आईपीएल क्रिकेट का आधा सीजन बीत चुका है। अब प्लेऑफ की रेस दिलचस्प होती जा रही है। हर टीम को 14 लीग मैच खेलने हैं। प्लेऑफ में पहुंचने के लिए कम से कम 16 अंक चाहिए यानी आठ मैचों में जीत के बाद ही प्लेऑफ का रास्ता खुलता है। मौजूदा नतीजों पर नजर डालें तो दो टीमें ही ऐसी हैं जिनकी राह आसान नजर आ रही है, इनमें मुंबई और कोलकाता के लिए 16 अंक तक पहुंचना मुश्किल नहीं दिखता। स्टार खिलाड़ियों से लैश बेंगलुरू की स्थिति इस बार काफी दयनीय है। विराट कोहली, एबी डिविलियर्स और तूफानी क्रिस ग्रेल अभी तक लय में नहीं लौटे हैं। जब तक इनके बल्ले दहाड़ेंगे तब तक टीम का प्लेऑफ में पहुंचने का सपना चकनाचूर हो चुका होगा। खैर, दुनिया की इस सबसे अमीर टी-20 लीग में सबसे ज्यादा रन बनाने वाले बल्लेबाजों की लिस्ट के टॉप पांच में से चार बल्लेबाज अपनी-अपनी टीमों के कप्तान हैं। इन चार में ज्यादातर कप्तानों की टीमें अच्छा प्रदर्शन भी कर रही हैं लेकिन फिर भी सुरेश रैना जैसे कप्तान अपनी शानदार बल्लेबाजी के बावजूद अपनी टीम की रंगत नहीं बदल पा रहे हैं। कोलकाता के कप्तान गौतम गम्भीर शानदार फॉर्म में नजर आ रहे हैं। न सिर्फ बल्लेबाजी से बल्कि अपनी विविधतापूर्ण और चपल कप्तानी से भी गम्भीर दिग्गजों की शाबासी बटोर रहे हैं। क्रिकेट विशेषज्ञ भी उनकी बल्लेबाजी के साथ-साथ उनकी कप्तानी के कायल हैं। 2012 और 2014 में दो बार अपनी टीम को चैम्पियन बनवाने वाले कप्तान गम्भीर ने इस संस्करण में अब तक आठ पारियों में तीन सौ से अधिक रन बनाए हैं।
पिछले साल की चैम्पियन हैदराबाद के कप्तान डेविड वॉर्नर बॉर्डर-गावस्कर टेस्ट सीरीज में फ्लाप रहने के बाद शॉर्टर फॉरमेट में फार्म में दिख रहे हैं लेकिन टीम के अन्य बल्लेबाज और गेंदबाज वक्त पर बाजी मारने से चूक लगातार चूके हैं। अब तो उसके प्लेआफ में पहुंचने की सम्भावनाएं भी धूमिल नजर आने लगी हैं। कप्तान सुरेश रैना की जहां तक बात है वह पूरा जोर लगा रहे हैं कि उनकी टीम प्लेऑफ में जगह बनाए। आईपीएल के इतिहास में अब तक सबसे ज्यादा रनों का रिकार्ड अपने नाम रखने वाले रैना इस सीजन में भी दो अर्द्धशतकीय पारियों की मदद से तीन सौ रनों का आंकड़ा पार कर चुके हैं। बेहद औसत स्तर की गेंदबाजी की वजह से रैना की टीम यदि प्लेऑफ में पहुंच जाए तो बड़ी बात होगी। आईपीएल के दसवें संस्करण में पुणे के कप्तान बने ऑस्ट्रेलिया के स्टीवन स्मिथ आंकड़ों में रैना की बराबरी करते दिख रहे हैं। उन्होंने भी रैना की ही तरह दो अर्द्धशतकों के सहारे अपनी प्रतिभा से न्याय किया है लेकिन विकेटकीपर बल्लेबाज महेन्द्र सिंह धोनी की असफलता टीम को शिखर तक ले जाने में असमर्थ है। विकेट के पीछे धोनी की चपलता तो श्रेष्ठ है लेकिन बल्ला समय के मुताबिक रंगत नहीं दिखा पाने से टीम संकट में है।
मुंबई के कप्तान रोहित शर्मा बेशक अपने निजी प्रदर्शन को लेकर फिक्रमंद हों लेकिन उनकी टीम सभी बड़ी टीमों को टक्कर दे रही है। रोहित शर्मा का बल्ला बेशक शुरुआती मैचों में खामोश रहा हो लेकिन अब वे पुरानी रंगत में लौटते दिख रहे हैं। अब तक उनकी टीम के बल्लेबाज और गेंदबाज चैम्पियन की तरह ही खेले हैं और अपने कप्तान के प्रदर्शन की कमी अब तक महसूस नहीं होने दी। पंजाब के कप्तान ग्लेन मैक्सवेल का प्रदर्शन भी बुरा नहीं कहा जा सकता। हां उनकी टीम के अन्य खिलाड़ी अपनी प्रतिभा से न्याय करते नहीं दिख रहे। उम्मीद है कि पंजाब के खिलाड़ी अब तक की शिकस्त से नसीहत लेते हुए वापसी करेंगे। जहीर खान की टीम दिल्ली डेयरडेविल भी मंझधार में फंसी दिख रही है। टीम खिलाड़ी जितनी जल्दी अपना दम दिखाएं उनकी टीम और उनके प्रशंसकों के लिए उतना बेहतर होगा। विराट कोहली खासे संकट में हैं, उनका बल्ला ही नहीं उनकी टीम के दिग्गजों के बल्ले भी खामोश हैं। नामचीन खिलाड़ियों से लैश बेंगलूर टीम का कोलकाता के खिलाफ 49 रनों पर बोरिया-बिस्तर बंधना क्रिकेट प्रशंसकों के गले नहीं उतर रहा। अब तक के सफर में बेंगलूरु के बल्लेबाजों और गेंदबाजों ने खासा निराश किया है। क्रिकेट अनिश्चितताओं का खेल है। अभी बहुत क्रिकेट खेली जानी है ऐसे में कौन किसके अरमानों पर पानी फेरता है यह देखना दिलचस्प होगा। अब तक के सफर में मुम्बई इंडियंस और कोलकाता नाइट राइडर्स टीमों ने क्रिकेट मुरीदों को अपने शानदार खेल से काफी प्रभावित किया है। खिताबी जश्न कौन मनाएगा यह भविष्य के गर्भ में है।


Wednesday 19 April 2017

छोटे शहर की बड़ी खिलाड़ी सबा अंजुम

बेटी की हौसलाअफजाई को गरीब बाप ने बेच दिए थे घर के बर्तन
श्रीप्रकाश शुक्ला
धीरे-धीरे ही सही भारतीय खेलों का परिदृश्य अब बदलता दिख रहा है। कभी अंतरराष्ट्रीय खेल मंचों पर देश के महानगरों के खिलाड़ी ही नजर आते थे लेकिन अब ऐसी बात नहीं है। यह पुरशकून की बात है कि अब देश को छोटे-छोटे शहरों से बड़े खिलाड़ी मिल रहे हैं। भारतीय महिला हाकी टीम की पूर्व कप्तान सबा अंजुम भी छत्तीसगढ़ के दुर्ग की रहने वाली हैं। जब इस खिलाड़ी को भारत का प्रतिनिधित्व करने का मौका मिला तब उसे यह भी पता नहीं था कि राष्ट्रीय टीम में खेलने के लिए पासपोर्ट की भी जरूरत होती है। खेलप्रेमियों को जानकर ताज्जुब होगा कि अपनी बेटी की हौसलाअफजाई के लिए गरीब पिता ने घर के बर्तन तक बेच दिए थे। आज सबा अंजुम पुलिस अधिकारी हैं।
बकौल सबा अंजुम जब मेरा चयन भारतीय हाकी टीम के लिए हुआ तब उन्हें ये भी नहीं मालूम था कि बाहर जाने के लिए भी पासपोर्ट जरूरी होता है। सबा की बातों से यह पता चलता है कि देश के छोटे-छोटे शहरों से खेलने आते खिलाड़ी बाहर की दुनिया से कितना अनभिज्ञ होते हैं। सबा अंजुम उन दिनों की याद कर शर्मा जाती हैं। छत्तीसगढ़ के दुर्ग की रहने वाली सबा अंजुम का महिला हॉकी में सफर 1994 से ही शुरू हुआ था। सबा अंजुम कहती हैं मेरे पापा ने घर के बर्तन बेचकर मेरा पासपोर्ट बनवाया और मेरे खेलने के लिए सामान जुटाया। कई सालों के बाद आज सबा अंजुम जब अपने सफर को पीछे मुड़कर देखती हैं तो उनकी आँखें भर जाती हैं।
अर्जुन और पद्मश्री अवार्डी सबा कहती हैं कि मेरे पिता दुर्ग में ही एक मस्जिद के मुआज्ज़िन थे जो पाँचों वक्त अज़ान देने का काम करते थे। इसके बदले उन्हें महीने में सिर्फ 400 रुपए मिला करते थे। सबा कहती हैं कि वह घर में सबसे छोटी थीं और स्कूल में ही उन्होंने हॉकी खेलना शुरू किया था। मैं घर में सबसे छोटी थी लिहाजा मुझे किसी ने खेलने से नहीं रोका। अब्बाजान कहा करते थे इसे खेलने दो जब ये 15 साल की हो जाएगी तो इसका खेलना बंद करवा देंगे। मगर हुआ यूँ कि खेलते खेलते मैंने कई कीर्तिमान स्थापित किये और मुझे भारतीय रेलवे में बहुत कम उम्र में ही नौकरी मिल गई। मेरा खेलना जारी रहा और जल्द ही मुझे भारतीय टीम में शामिल कर लिया गया।
सबा अंडर-18 की उस भारतीय महिला हॉकी टीम की सदस्य थीं जिसने चीन में हुए ए.एच.एफ. कप में स्वर्ण हासिल किया था। इसके अलावा 2002 में मैनचेस्टर में हुए कॉमनवेल्थ खेलों में भारतीय टीम ने स्वर्ण पदक जीता था। सबा इस दल की सदस्य थीं। इसके बाद महिला हाकी टीम ने एक के बाद एक अन्तरराष्ट्रीय मैचों में जीत का परचम लहराना शुरू कर दिया। सबा कहती हैं कि कई साल खेलने के बाद पहली बार 2002 में हमारी जीत के बाद मुझे काफी पैसा मिला। उस पैसे से मैंने अपने और अपने परिवार के लिए अपना मकान बनवाया। कभी दुर्ग में किराए के मकान में गुजर-बसर करने वाली सबा अंजुम ने 2002 में राष्ट्रकुल खेलों में स्वर्ण पदक जीतने के बाद अपना मकान बनवाया। इस बारे में चर्चा करते हुए उनकी आँखें भर आती हैं। सबा के दिल के किसी कोने में कहीं इस बात की कसक तो है कि और खेलों की बनिस्बत या यूँ कहा जाए कि क्रिकेट की तुलना में हॉकी की उपेक्षा हुई है। ख़ासतौर पर महिलाओं के खेल का जहाँ तक सवाल है तो युवा पीढ़ी के लिए बैडमिंटन और टेनिस ज्यादा आकर्षण रखते हैं। हॉकी की कोई महिला खिलाड़ी युवा पीढ़ी की रोल माडल कभी नहीं बन पाई। वह मुस्कुराते हुए कहती हैं कि अब इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हम देश के लिए खेले, हमें तिरंगे से मोहब्बत है। सबा को भरोसा है कि वह दिन जरूर आएगा जब हाकी के खिलाड़ी भी युवा पीढ़ी के रोल माडल होंगे।
सबा का कहना है कि उन्हें अफसोस है कि नौकरियों में हॉकी खिलाड़ियों की उपेक्षा की जाती रही है जबकि हर खिलाड़ी अपने गृह राज्य के लिए कुछ करना चाहता है। इस मामले में हरियाणा और पंजाब के अलावा खिलाड़ियों की कहीं पूछ नहीं है। राज्य सरकारें अगर खिलाड़ियों को अपने यहां नौकरी दें तो इससे खेल को बहुत फायदा होगा। सबा की सगाई उनके एक बचपन के मित्र से हुई है और वह शादी के बाद दुर्ग में ही रहना चाहती हैं।


Monday 17 April 2017

खेलों की साख पर बट्टा



भारतीय खेलों पर बेईमानों का राज
 श्रीप्रकाश शुक्ला
जय-पराजय खेल का हिस्सा है। आज हम हारेंगे तो कल जीतेंगे भी। खेलों की दुनिया में ऐसा कौन सा खिलाड़ी है जिसे कभी पराजय से वास्ता न पड़ा हो। आज दुनिया के छोटे-छोटे देशों के खिलाड़ी जहां अपने शारीरिक कौशल और अदम्य इच्छाशक्ति से नित नए कीर्तिमान गढ़ रहे वहीं हमारे कपूत खिलाड़ी इस मूल मंत्र से परे शक्तिवर्द्धक दवाएं गटक कर मुल्क की साख को बट्टा लगा रहे हैं। यह कुलक्षण कम होने की बजाय लगातार बढ़ रहा है। पानी सिर से ऊपर जा चुका है। मुल्क खेल बिरादर के सामने बार-बार शर्मसार हो रहा है लेकिन भारतीय बेईमान खेलनहारों पर इसका रत्तीभर अपराध बोध नजर नहीं आ रहा। डोपिंग के खतरे से बचाव के लिए आज देश में एक ऐसे शीर्ष निकाय के गठन की जरूरत है जो न केवल दोषी खिलाड़ियों पर नजर रखे बल्कि युवा खिलाड़ियों का सही मार्गदर्शन भी कर सके। माना कि अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति के नियमों के मुताबिक शक्तिवर्द्धक दवाओं के सेवन के लिए खिलाड़ी और सिर्फ खिलाड़ी ही जिम्मेदार होता है लेकिन इतना कह देने मात्र से अधिकारियों या खेल संघों की जिम्मेदारी खत्म नहीं हो जाती।
नेशनल एंटी डोपिंग एजेंसी भारतीय एथलेटिक्स में डोपिंग के बढ़ते मामलों की वजह खिलाड़ियों का शरीर की ताकत पर ज्यादा और स्किल पर कम निर्भर होना बताती है। उसका मानना है कि शॉर्ट कट रास्ते से कामयाबी की मंजिल हासिल करने के चलते ही भारतीय एथलीट शक्तिवर्द्धक पदार्थों का सहारा लेते हैं। यह सही है कि खेलों को डोपिंग से बिल्कुल मुक्त नहीं किया जा सकता क्योंकि यह चोरी और बेईमानी की मानवीय प्रवृत्ति है। भारतीय खेल मंत्रालय भी मानता है कि पिछले तीन साल में देश के सैकड़ों खिलाड़ी डोप टेस्ट में पकड़े गए हैं। भारत जैसे-जैसे खेलों के अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में अपने कदम बढ़ा रहा है, कुछ उसी गति से खिलाड़ी डोपिंग का शिकार हो रहे हैं। हालात इतने खराब हो गये हैं कि आज जब कोई भारतीय खिलाड़ी अनुमान से अच्छा प्रदर्शन करता है तो उसे दुनिया संदेह की नजर से देखती है। स्कूल नेशनल खेलों में खिलाड़ियों का डोपिंग में पकड़ा जाना यही सिद्ध करता है कि यह बीमारी जिलास्तर तक अपनी पैठ बना चुकी है। डोपिंग से सिर्फ भारतीय खिलाड़ी ही प्रभावित नहीं हैं बल्कि विदेशों में भी इसका जहर खिलाड़ियों के करियर को लील रहा है। विश्‍व का ऐसा कोई देश नहीं है जहां के खिलाड़ियों ने प्रतिबंधित दवाएं न ली हों या डोपिंग में पकड़े न गए हों। विदेशी खिलाड़ी ज्यादा शातिर होते हैं लिहाजा वे प्रतिबंधित दवाएं लेकर भी डोप परीक्षण में साफ बच जाते हैं।
शक्तिवर्द्धक दवाओं के सेवन की जहां तक बात है खिलाड़ी जब अतिरिक्त शक्ति और स्टेमिना बढ़ाने के लिए प्रतिबंधित दवाएं लेता है तब प्रशिक्षक, डॉक्टर और खेल फेडरेशनों को इसकी जानकारी होती है। अपवादस्वरूप कुछ खिलाड़ियों को प्रतिबंधित दवाओं के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं होती और वे सर्दी-जुकाम होने पर उन दवाओं का सेवन कर लेते हैं जोकि प्रतिबंधित होती हैं। वर्ष 2011 में विश्‍व एंटी डोपिंग एजेंसी ने नई गाइड लाइन के तहत मिथाइल हैक्सामाइन को प्रतिबंधित दवाओं की सूची में डाल दिया। चूंकि यह प्रतिबंधित पदार्थ भारत में कई खाद्य-तेलों में पाया जाता है लिहाजा कई खिलाड़ी ऐसे खाद्य तेल खाकर भी अनजाने में डोपिंग का शिकार हो रहे हैं। सच तो यह भी है कि प्रतिबंधित दवाओं की सूची इतनी लम्बी है कि खिलाड़ियों के लिए इसे याद रखना बहुत मुश्किल है।
भारत में अधिकांश डोपिंग मामलों में विदेशी प्रशिक्षकों की भूमिका भी संदिग्ध रही है। देखा जाए तो पिछले एक दशक में भारतीय खेल प्राधिकरण ने खेलों में बेहतर प्रदर्शन के लिए जिन 30-40 विदेशी प्रशिक्षकों को नियुक्त किया है, इनमें से अधिकांश पूर्व सोवियत संघ के गणराज्यों से सम्बन्ध रखते हैं, जहां डोपिंग का खेल लम्बे अर्से से चल रहा है। दरअसल, भारतीय खेल फेडरेशन जब विदेशी प्रशिक्षकों को नियुक्त करते हैं तो उनसे उम्मीद की जाती है कि उनके प्रशिक्षण से भारतीय खिलाड़ी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वर्ण पदक ही जीतें। खेल फेडेरशनों की इसी अपेक्षा पर खरा उतरने के लिए विदेशी प्रशिक्षक कुछ भी करने से नहीं चूकते। जानकर ताज्जुब होगा कि कई देशों में तो बेहतर प्रदर्शन करने वाली ऐसी शक्तिवर्द्धक दवाओं पर शोध भी किया जा रहा है जो डोप टेस्ट में पकड़ में न आएं। अमेरिका के नामी साइक्लिस्ट और रिकॉर्ड सात बार टूर डे फ्रांस जीतने वाले लांस आर्मस्ट्रांग ने अपना हर खिताब प्रतिबंधित दवाओं के सेवन के बल पर ही जीता लेकिन अपने 15 साल के करियर में 500 डोप टेस्ट के दौरान वह एक बार भी नहीं पकड़े गए। बाद में लांस आर्मस्ट्रांग ने स्वीकारा कि डोपिंग के बिना उनका जीतना मुमकिन ही नहीं था। अपने साफ-सुथरे खेल और ईमानदार खिलाड़ियों पर गर्व करने वाले ऑस्ट्रेलिया को तब झटका लगा जब उसे एक सरकारी रिपोर्ट के जरिए पता लगा कि उसके कई खिलाड़ी डोपिंग में शामिल हैं। रूस के कई ओलम्पिक पदक विजेताओं के डोप टेस्ट में फेल होने के चलते उनसे पदक छीने गए और आजीवन प्रतिबंध भी लगाया गया। डोपिंग के मामले में चीन भी अच्छा-खासा बदनाम है।
खेलों में डोपिंग कोई नई बात नहीं है। खेल, खिलाड़ियों और शक्तिवर्धक दवाओं का बहुत पुराना नाता है। प्राचीन ओलम्पिक खेलों से ही डोपिंग होती आई है। 1896 में शुरुआती ओलम्पिक में खिलाड़ियों को दवाएं, टॉनिक और अन्य शक्तिवर्द्धक पदार्थ लेने की पूरी छूट थी। उन दिनों खिलाड़ी थकान और दर्द दूर करने के लिए कोकीन और शराब को दवा के तौर पर लेते थे। 1904 के सेंट लुई ओलम्पिक में डोपिंग का पहला मामला पकड़ा गया था। इसमें अमेरिकी मैराथन धावक थॉमस हिक्स को उनके कोच ने दौड़ के दौरान स्ट्रेचनाइन और ब्रांडी दी थी। हिक्स ने तब दो घंटे 22 मिनट और 18.4 सेकेंड में नए ओलम्पिक रिकॉर्ड के साथ मैराथन जीती थी लेकिन तब डोपिंग के लिए कोई नियम नहीं था इसलिए हिक्स के खिलाफ कोई कार्रवाई भी नहीं हुई। 1960 के रोम ओलम्पिक के दौरान डेनमार्क के जानसन साइकिल रेस के दौरान नीचे गिर गए और उनकी मौत हो गई। बाद में जांच से पता चला कि उन्होंने प्रतिबंधित एम्फेटेमाइन्स दवा ली थी। यह ओलम्पिक में डोपिंग के कारण हुई पहली मौत थी। खेलों में शक्तिवर्द्धक दवाओं के बढ़ते चलन के कारण विभिन्न खेल संघों ने डोपिंग पर प्रतिबंध लगाने का निश्‍चय किया, जिसे 1968 के मैक्सिको ओलम्पिक में अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति ने लागू किया। 1999 में अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति ने विश्‍व एंटी डोपिंग एजेंसी (वाडा) की स्थापना की जो खिलाड़ियों का डोप टेस्ट करने के अलावा डोपिंग से जुड़े अन्य मसलों से भी वास्ता रखती है। इसके बावजूद 2004 के एथेंस ओलम्पिक में 27, 2008 के बीजिंग ओलम्पिक में 14 तथा लंदन ओलम्पिक में 12 खिलाड़ी डोपिंग में पकड़े गए। डोपिंग के चलते पहला प्रतिबंध झेलने वाले स्वीडन के हांस गुनार लिजनेवाल थे। भारत की वेटलिफ्टर प्रतिमा कुमारी और सनामाचा चानू को 2004 के एथेंस ओलम्पिक में एनाबॉलिक और फुटोसेनाइड के सेवन का दोषी पाया गया था और इसके कारण इन दोनों खिलाड़ियों पर तो आजीवन प्रतिबंध लगा ही साथ ही इंडियन वेटलिफ्टिंग फेडरेशन पर भी दो साल का प्रतिबंध लग गया।
भारत का भले ही खेलजगत में बहुत बड़ा स्थान नहीं है लेकिन अगर डोपिंग के उल्लंघन की बात करें तो विश्व डोपिंग रोधी एजेंसी (वाडा) की 2015 की रिपोर्ट में वह तीसरे स्थान पर है। देश के कुल 117 खिलाड़ियों को प्रतिबंधित दवाइयों के सेवन का दोषी पाया गया और यह लगातार तीसरा अवसर है जबकि भारत डोपिंग उल्लंघन के मामलों में शीर्ष तीन देशों में शामिल है। वाडा ने हाल ही डोपिंग उल्लंघन की जो सूची जारी की है उसमें भारत से आगे रूस (176) और इटली (129) शामिल हैं। भारत इससे पहले 2013 और 2014 में भी इस सूची में तीसरे स्थान पर था। भारत के लिए यह चिन्ता का विषय है कि इन तीन वर्षों के दौरान डोप में पकड़े जाने वाले खिलाड़ियों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है। डोपिंग रोधी नियमों के उल्लंघन में भारत से 2013 में 91 और 2014 में 96 मामले सामने आये थे। वर्ष 2015 में जिन 117 भारतीयों को डोपिंग अपराध में पकड़ा गया उनमें 80 पुरुष और 37 महिला खिलाड़ी शामिल हैं। अगर अलग-अलग खेलों की बात करें तो सबसे ज्यादा भारोत्तोलक डोपिंग में पकड़े गए। कुल 56 भारतीय भारोत्तोलक (32 पुरुष और 24 महिलाएं) डोपिंग में नाकाम रहे थे, इसके बाद एथलेटिक्स (21) का नम्बर आता है जिसमें 14 पुरुष और सात महिला एथलीट शामिल हैं। इसके बाद मुक्केबाजी (आठ), कुश्ती (आठ), साइकिलिंग (चार), कबड्डी (चार), तैराकी (तीन), पावरलिफ्टिंग (तीन), जूडो (दो), वुशू (दो), रोइंग, बॉडी बिल्डिंग हॉकी, फुटबॉल तथा स्ट्रीट एण्ड बॉल हॉकी  में एक-एक खिलाड़ी शामिल हैं। राष्ट्रीय डोपिंग रोधी एजेंसी (नाडा) ने 2015 के दौरान 5162 नमूने लिये थे जिसमें 110 प्रतिबंधित पदार्थों के लिए पॉजीटिव पाये गये थे।
भारतीय खिलाड़ियों पर प्रतिबंधित दवाओं के सेवन के आरोप नए नहीं हैं। पहले भी ऐसी खबरें आती रही हैं लेकिन चिन्ता की बात तो यह है कि पिछले कुछ वर्षों में इसमें लगातार बढ़ोत्तरी हुई है। 1968 के मेक्सिको खेलों के ट्रायल में दिल्ली के रेलवे स्टेडियम में कृपाल सिंह 10 हजार मीटर दौड़ में भागते समय ट्रैक छोड़कर सीढ़ियों पर चढ़ गए थे। उनके मुंह से झाग निकला और वे बेहोश हो गए, बाद में पता चला कि उन्होंने नशीले पदार्थ ले रखे थे ताकि मेक्सिको ओलम्पिक खेलों के लिए क्वालीफाई कर सकें। 1982 के दिल्ली एशियाड में भी विवाद हुआ था जब शॉटपुट के रजत पदक विजेता कुवैत के मोहम्मद झिंकावी ने स्वर्ण पदक विजेता बहादुर सिंह के खिलाफ आरोप लगाए थे कि उन्होंने डोप टेस्ट नहीं करवाया। झिंकावी ने तब विरोध जाहिर करते हुए अपना रजत पदक भी नहीं लिया था। वह यह कहकर वापस गए थे कि एक महीने बाद कुवैत में होने वाली एशियन चैम्पियनशिप में वे बहादुर सिंह का मानमर्दन करेंगे और ऐसा हुआ भी था। तब हमारे खेलनहारों ने इस गम्भीर मामले पर ध्यान देने की बजाय बहादुर सिंह को न केवल दोषमुक्त करार दिया बल्कि बाद में उन्हें भारतीय एथलीटों के प्रशिक्षण का महती दायित्व भी सौंपा।
भारतीय खेल मंत्रालय की भी जिम्मेदारी बनती है कि वह खिलाड़ियों को ऐसी सुविधाएं और सही जानकारी दे जिससे कि खिलाड़ी डोपिंग के डंक से बच सकें। अब तक देश के कई बेहतरीन खिलाड़ी डोप टेस्ट में फेल होने की वजह से आजीवन प्रतिबंध झेल रहे हैं। पिछले कुछ सालों से भारत में डोपिंग के बढ़ते मामलों को देखते हुए सरकार ने राष्ट्रीय एंटी डोपिंग एजेंसी (नाडा) का गठन किया है। यह संस्था कुछ हद तक अपने काम में सफल भी रही है। 2010 राष्ट्रमण्डल खेलों में मिली अपार सफलता के बाद हर भारतीय खुश था लेकिन उसके बाद एक-एक कर जिस तरह हमारे खिलाड़ी डोपिंग में फंसे उससे हमें दुनिया के सामने शर्मसार होना पड़ा। जब भी हमारा कोई खिलाड़ी डोपिंग में पकड़ा जाता है, अधिकारियों की तंद्रा टूटती है, कुछ दिनों तक हो-हल्ला मचता है और आखिरकार अज्ञानता का बहाना लेकर मामले को रफा-दफा कर दिया जाता है। पहलवान नरसिंह यादव के मामले में क्या कुछ नहीं हुआ सबके सामने है। भारतीय खेल मंत्रालय का दायित्व बनता है कि वह इस कुलक्षण पर तत्काल अंकुश लगाए वरना हमारा हर खिलाड़ी बेईमान कहलाएगा।