Wednesday 28 January 2015

सतपाल को पद्मभूषण, सरदार, सिंधू को पद्मश्री


सरकार ने देश के प्रख्यात पहलवान और कुश्ती के कोच सतपाल सिंह को देश का तीसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘पद्मभूषण’ प्रदान करने की घोषणा की। इसके अलावा सरकार ने हॉकी टीम के कप्तान सरदार सिंह और महिला बैडमिंटन खिलाड़ी पी.वी. सिंधू सहित पांच खेल हस्तियों को उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किए जाने की घोषणा भी की।
सरदार और सिंधू के अलावा पूर्व महिला हॉकी खिलाड़ी सबा अंजुम, माउंट एवरेस्ट फतह करने वाली पहली विकलांग महिला पर्वतारोही अरुणिमा सिन्हा और भारतीय महिला क्रिकेट टीम की कप्तान मिताली राज को भी पद्मश्री प्रदान किए जाने की घोषणा की गई है। सतपाल सिंह कुश्ती में देश के अग्रणी खिलाड़ियों में रहे हैं तथा 1974 में हुए एशियाई खेलों में कांस्य और 1982 में स्वर्ण पदक दिला चुके हैं।सक्रिय खेल से हटने के बाद सतपाल सिंह ने छत्रसाल स्टेडियम में अपना अखाड़ा शुरू किया, जिसने आज देश को सुशील कुमार जैसे शीर्ष खिलाड़ी देश को दिए। सतपाल सिंह को 1974 में अर्जुन अवार्ड, 1983 में पद्मश्री से और 2009 में द्रोणाचार्य सम्मान से सम्मानित किया गया।
पद्मश्री से सम्मानित होने वाले सरदार सिंह के नेतृत्व में भारतीय टीम ने पिछले वर्ष 16 वर्षों के बाद स्वर्ण पदक हासिल किया। इसके अलावा भारतीय टीम लगातार दो बार राष्ट्रमंडल खेलों में रजत पदक विजेता भी रही। सरदार सिंह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय टीम का 200 मैचों में प्रतिनिधित्व कर चुके हैं।
बैडमिंटन स्टीर पी.वी. सिंधू विश्व चैम्पियनशिप के एकल वर्ग में कांस्य पदक जीतने वाली देश की पहली खिलाड़ी बनीं और वह लगातार दो बार विश्व चैम्पियनशिप में कांस्य पदक जीतने में सफल रहीं। सिंधू पूरे वर्ष 10 सर्वोच्च विश्व वरीय खिलाड़ियों में स्थान बनाए रहने में कामयाब रहीं।
सुखद आश्चर्य की तरह है पद्मश्री मिलना: सिंधू
देश की अग्रणी महिला बैडमिंटन खिलाड़ी पी.वी. सिंधू प्रतिष्ठित पद्म पुरस्कार ‘पद्मश्री’ के लिए चुने जाने पर अचंभित रह गर्इं। सिंधू ने पुरस्कार के लिए चुने जाने की सूचना मिलने पर कहा कि यह पुरस्कार उन्हें भविष्य में और अच्छा प्रदर्शन करने की प्रेरणा देगा। सिंधू ने हैदराबाद से फोन पर खेलपथ से कहा, ‘सचमुच बहुत अच्छा लग रहा है। मैं इस पुरस्कार के लिए चुने जाने से बेहद खुश हूं। इससे मुझे भविष्य में और अच्छा करने और अधिक से अधिक मैच एवं खिताब जीतने की प्रेरणा मिलेगी।’ सिंधू ने कहा, ‘मेरा परिवार भी बहुत खुश है। मैंने सच में इसकी उम्मीद भी नहीं की थी और यह मेरे लिए किसी सुखद आश्चर्य की तरह है।’
सिंधु लखनऊ में हुए सैयद मोदी इंटरनेशनल इंडिया मास्टर्स ग्रांप्री. गोल्ड टूर्नामेंट में हिस्सा लेकर हाल ही में हैदराबाद पहुंचीं। पिछली बार फाइनल तक का सफर तय करने वाली सिंधू इस बार सेमीफाइनल में मौजूदा विश्व चैम्पियन स्पेन की कैरोलीना मैरीन से हारकर बाहर हुर्इं। 

Tuesday 27 January 2015

एसजीएफआई: खेल प्रतिभाओं के साथ मजाक

-नेशनल विजेता खिलाड़ी को 12वीं की जगह बना दिया नौवीं काछात्र
-केवीएस की राष्ट्रीय प्रतियोगिता में आगरा को दो बार चैम्पियन बना चुका है शिवम  


आगरा। खेल संघ ही खेल प्रतिभाओं के कॅरियर के साथ खिलवाड़ करते हैं। इस तरह के कई उदाहरण अब तक सामने आ चुके हैं और  खेलजगत भी इस बात से अच्छी तरह वाकिफ है। जब स्कूली स्तर पर ही खेल प्रतिभाओं के कॅरियर के साथ मजाक होने लगे तो खेलों के स्तर में सुधार लाने की बातें बेमानी लगने लगती हैं और खेलों के स्वर्णिम भविष्य को लेकर स्थितियां बहुत ही भयावह दिखाई देती हैं। स्कूल स्तर पर खेल प्रतिभाओं को बढ़ावा देने के  लिए स्कूल गेम्स फेडरेशन आॅफ इण्डिया की तरफ से आयोजित होने वाली विभिन्न प्रतियोगिताओं में  ही जब खिलाड़ियों को दिए जाने वाले प्रमाण पत्रों में खिलाड़ी का नाम, उसकी उम्र और कक्षा गलत दर्ज की जाए तो उससे खिलाड़ियों की हौसला अफजाई की जगह उसका मनोबल टूटता है।
पिछले सप्ताह एसजीएफआई द्वारा मध्यप्रदेश के देवास जिले में आयोजित नेशनल सॉफ्ट टेनिस प्रतियोगिता (अंडर-19) के खिताबी मुकाबले में विद्या भारती को पराजित कर स्वर्ण पदक जीत पूरे देश में नेशनल चैम्पियन होने का परचम लहराने वाले ग्वालियर के खिलाड़ी शिवम शुक्ला के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। इस राष्ट्रीय विजेता को एसजीएफआई की तरफ से जो प्रमाण पत्र प्रदान किया गया, उसमें उसे कक्षा-9 का छात्र दर्शाया गया है जबकि जिस प्रतियोगिता में वह खेला वह अंडर-19 की है। शिवम ग्वालियर के शासकीय हरिदर्शन स्कूल का 12वीं कक्षा का छात्र है। एसजीएफआई के स्तर पर हुई यह चूक इस नेशनल विजेता खिलाड़ी का मनोबल तोड़ने का ही प्रयास है। राष्ट्रीय स्कूली खेलों में प्रतिभाग करने से पहले खेल प्रतिभाओं को जिला, संभाग और प्रदेश स्तरीय  प्रतियोगिताओं में अपना पराक्रम दिखाना होता है। शिवम शुक्ला भी सारी प्रक्रिया पार कर मध्यप्रदेश को दो स्वर्ण पदक दिलाने की मंशा के साथ नेशनल स्तर पर खेलने पहुंचा था। अपनी खेल प्रतिभा और लगन के दम पर उसने दिल्ली, तमिलनाडु की चुनौती ध्वस्त कर मध्यप्रदेश  को चैम्पियन का ताज पहनाने में अहम भूमिका निभाई।
-बॉक्स
क्या सोता रहा शिक्षा विभाग?
अब सवाल यह उठता है कि शिवम जब 12वीं का छात्र है तो उसके प्रमाण पत्र पर उसे नौवीं का छात्र कैसे दर्शाया गया? एसजीएफआई की यह गंभीर चूक शिक्षा विभाग पर भी सवालिया निशान लगाती है। यह चूक साबित करती है कि शिक्षा विभाग स्कूली खेलों के प्रति कितना गंभीर है। स्कूली खेलकूद प्रतियोगिताओं में जिलास्तर से ही खिलाड़ियों की जन्मतिथि, उनकी कक्षा और उनकी पहचान को लेकर कड़ी जांच-पड़ताल होने लगती है। ऐसे में शिवम शुक्ला  को कैसे नौवीं का विद्यार्थी मान लिया गया और उसे इसका  प्रमाण पत्र भी प्रदान कर दिया गया,जबकि वह 12वीं का छात्र है। शिक्षा विभाग और एसजीएफआई की यह गंभीर चूक शिवम शुक्ला के लिए सिरदर्द बन गई है। परीक्षाएं सिर पर हैं, ऐसे में  वह अपनी पढ़ाई करे अथवा अपने प्रमाण पत्र को सही करवाने के लिए शिक्षा विभाग और एसजीएफआई कार्यालयों के चक्कर काटे। इससे पहले यह होनहार खिलाड़ी देशभर में आगरा का परचम लहरा चुका है। इस होनहार खिलाड़ी ने केन्द्रीय विद्यालय संगठन की तरफ से लखनऊ और चण्डीगढ़ में आयोजित नेशनल लॉन टेनिस प्रतियोगिता में आगरा संभाग को चैम्पियन बनाने में महती भूमिका निभाई थी। शिवम शुक्ला इन प्रतियोगिताओं में दो स्वर्ण, दो रजत और एक कांस्य पदक जीत चुका है। इसके अलावा शिवम शुक्ला अहमदाबाद में आयोजित जूनियर वर्ल्ड चैम्पियनशिप में  भी देश का प्रतिनिधित्व कर चुका है।
-बॉक्स
यह बहुत बड़ी चूक: राजेश मिश्रा
शिवम शुक्ला के 12वीं का छात्र होने के बावजूद उसके प्रमाण पत्र पर उसे नौवीं का छात्र दर्शाए जाने को खुद एसजीएफआई एक गंभीर चूक बताता है। एसजीएफआई के महासचिव राजेश मिश्रा कहते हैं कि यह प्रदेश स्तर पर एक गंभीर चूक है। इतनी बड़ी चूक नहीं होनी चाहिए, पर इसके बावजूद वह इस चूक को सुधारने  के लिए जो प्रक्रिया बताते हैं, वह काफी लम्बी और भागदौड़ भरी है।  
-मोदी जी, कैसे निकलेंगे अंतरराष्ट्रीय  खिलाड़ी?
 खेल के क्षेत्र में चीन और अमेरिका से होड़ करने की बात करने वाले खेलों के खेलनहार शायद यह भूल जाते हैं कि विश्वस्तरीय खेल प्रतियोगिताओं में जिस  देश के खिलाड़ियों को  प्रवेश शुल्क जमा करना पड़ता हो, उस देश में खेलों का भविष्य क्या होगा? खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के गृहप्रांत अहमदाबाद में आयोजित जूनियर वर्ल्ड सॉफ्ट टेनिस चैम्पियनशिप में प्रतिभाग करने वाले खिलाड़ियों को प्रति खिलाड़ी 500 डॉलर (भारतीय मुद्रा में 30 हजार रुपये) बतौर प्रवेश शुल्क जमा करने पड़े थे। खिलाड़ी को कुछ देने के बजाय उल्टे उससे ही प्रतियोगिताओं में शामिल होने के लिए प्रवेश शुल्क वसूलना किसी भी देश और खिलाड़ी के लिए दुर्भाग्य की ही बात है। 

शिवम ने जीता स्कूल नेशनल का गोल्ड



सॉफ्ट टेनिस में मध्यप्रदेश को किया गौरवान्वित, ओवर आॅल चैम्पियनशिप भी एमपी को
इसी महीने सीनियर नेशनल में भी जीता कांस्य पदक, अब थाइलैण्ड ओपन की तैयारी
नवम्बर में दूसरी वर्ल्ड चैम्पियनशिप में किया था देश का प्रतिनिधित्व
ग्वालियर। देवास में 19 से 23 जनवरी तक खेली गई 60वीं राष्ट्रीय स्कूल खेलों की सॉफ्ट टेनिस प्रतियोगिता में  ग्वालियर के शिवम शुक्ला ने स्वर्ण पदक जीतकर मध्यप्रदेश को गौरवान्वित किया। शिवम ने दिल्ली, तमिलनाडु और विद्या भारती के खिलाफ शानदार प्रदर्शन कर यह स्वर्णिम सफलता हासिल की है। सॉफ्ट टेनिस में मध्यप्रदेश ओवर आॅल चैम्पियन रहा।
स्कूल गेम्स फेडरेशन आॅफ इण्डिया (एसजीएफआई) में लगातार पांच साल से शिरकत कर रहे शिवम ने इसी महीने 4 से 8 जनवरी तक पंजाब के लुधियाना में खेली गई 12वीं सीनियर नेशनल सॉफ्ट टेनिस चैम्पियनशिप में भी मध्य प्रदेश के लिए कांस्य पदक जीतकर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया था। 19 से 24 नवम्बर तक गुजरात के अहमदाबाद में खेली गई दूसरी जूनियर वर्ल्ड चैम्पियनशिप में भी शिवम ने भारत की तरफ से शानदार प्रदर्शन किया था। उस प्रतियोगिता में जापान पहले, भारत दूसरे और दक्षिण कोरिया तीसरे स्थान पर रहा। शिवम दो बार लॉन टेनिस में भी केन्द्रीय विद्यालय संगठन आगरा मण्डल को राष्ट्रीय चैम्पियन बना चुका है। शिवम का अगला लक्ष्य थाइलैण्ड ओपन है। यह प्रतियोगिता 25 से 29 मार्च तक बैंकाक में खेली जाएगी।

Sunday 25 January 2015

एसजीएफआई: खेल प्रतिभाओं के साथ मजाक

-नेशनल विजेता खिलाड़ी को 12वीं की जगह बना दिया नौवीं काछात्र
-केवीएस की राष्ट्रीय प्रतियोगिता में आगरा को दो बार चैम्पियन बना चुका है शिवम  
गिरजा शंकर शुक्ला
आगरा। खेल संघ ही खेल प्रतिभाओं के कॅरियर के साथ खिलवाड़ करते हैं। इस तरह के कई उदाहरण अब तक सामने आ चुके हैं और  खेलजगत भी इस बात से अच्छी तरह वाकिफ है। जब स्कूली स्तर पर ही खेल प्रतिभाओं के कॅरियर के साथ मजाक होने लगे तो खेलों के स्तर में सुधार लाने की बातें बेमानी लगने लगती हैं और खेलों के स्वर्णिम भविष्य को लेकर स्थितियां बहुत ही भयावह दिखाई देती हैं। स्कूल स्तर पर खेल प्रतिभाओं को बढ़ावा देने के  लिए स्कूल गेम्स फेडरेशन आॅफ इण्डिया की तरफ से आयोजित होने वाली विभिन्न प्रतियोगिताओं में  ही जब खिलाड़ियों को दिए जाने वाले प्रमाण पत्रों में खिलाड़ी का नाम, उसकी उम्र और कक्षा गलत दर्ज की जाए तो उससे खिलाड़ियों की हौसला अफजाई की जगह उसका मनोबल टूटता है।
पिछले सप्ताह एसजीएफआई द्वारा मध्यप्रदेश के देवास जिले में आयोजित नेशनल सॉफ्ट टेनिस प्रतियोगिता (अंडर-19) के खिताबी मुकाबले में विद्या भारती को पराजित कर स्वर्ण पदक जीत पूरे देश में नेशनल चैम्पियन होने का परचम लहराने वाले ग्वालियर के खिलाड़ी शिवम शुक्ला के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। इस राष्ट्रीय विजेता को एसजीएफआई की तरफ से जो प्रमाण पत्र प्रदान किया गया, उसमें उसे कक्षा-9 का छात्र दर्शाया गया है जबकि जिस प्रतियोगिता में वह खेला वह अंडर-19 की है। शिवम ग्वालियर के शासकीय हरिदर्शन स्कूल का 12वीं कक्षा का छात्र है। एसजीएफआई के स्तर पर हुई यह चूक इस नेशनल विजेता खिलाड़ी का मनोबल तोड़ने का ही प्रयास है। राष्ट्रीय स्कूली खेलों में प्रतिभाग करने से पहले खेल प्रतिभाओं को जिला, संभाग और प्रदेश स्तरीय  प्रतियोगिताओं में अपना पराक्रम दिखाना होता है। शिवम शुक्ला भी सारी प्रक्रिया पार कर मध्यप्रदेश को दो स्वर्ण पदक दिलाने की मंशा के साथ नेशनल स्तर पर खेलने पहुंचा था। अपनी खेल प्रतिभा और लगन के दम पर उसने दिल्ली, तमिलनाडु की चुनौती ध्वस्त कर मध्यप्रदेश  को चैम्पियन का ताज पहनाने में अहम भूमिका निभाई।
-बॉक्स
क्या सोता रहा शिक्षा विभाग?
अब सवाल यह उठता है कि शिवम जब 12वीं का छात्र है तो उसके प्रमाण पत्र पर उसे नौवीं का छात्र कैसे दर्शाया गया? एसजीएफआई की यह गंभीर चूक शिक्षा विभाग पर भी सवालिया निशान लगाती है। यह चूक साबित करती है कि शिक्षा विभाग स्कूली खेलों के प्रति कितना गंभीर है। स्कूली खेलकूद प्रतियोगिताओं में जिलास्तर से ही खिलाड़ियों की जन्मतिथि, उनकी कक्षा और उनकी पहचान को लेकर कड़ी जांच-पड़ताल होने लगती है। ऐसे में शिवम शुक्ला  को कैसे नौवीं का विद्यार्थी मान लिया गया और उसे इसका  प्रमाण पत्र भी प्रदान कर दिया गया,जबकि वह 12वीं का छात्र है। शिक्षा विभाग और एसजीएफआई की यह गंभीर चूक शिवम शुक्ला के लिए सिरदर्द बन गई है। परीक्षाएं सिर पर हैं, ऐसे में  वह अपनी पढ़ाई करे अथवा अपने प्रमाण पत्र को सही करवाने के लिए शिक्षा विभाग और एसजीएफआई कार्यालयों के चक्कर काटे। इससे पहले यह होनहार खिलाड़ी देशभर में आगरा का परचम लहरा चुका है। इस होनहार खिलाड़ी ने केन्द्रीय विद्यालय संगठन की तरफ से लखनऊ और चण्डीगढ़ में आयोजित नेशनल लॉन टेनिस प्रतियोगिता में आगरा संभाग को चैम्पियन बनाने में महती भूमिका निभाई थी। शिवम शुक्ला इन प्रतियोगिताओं में दो स्वर्ण, दो रजत और एक कांस्य पदक जीत चुका है। इसके अलावा शिवम शुक्ला अहमदाबाद में आयोजित जूनियर वर्ल्ड चैम्पियनशिप में  भी देश का प्रतिनिधित्व कर चुका है।
-बॉक्स
यह बहुत बड़ी चूक: राजेश मिश्रा
शिवम शुक्ला के 12वीं का छात्र होने के बावजूद उसके प्रमाण पत्र पर उसे नौवीं का छात्र दर्शाए जाने को खुद एसजीएफआई एक गंभीर चूक बताता है। एसजीएफआई के महासचिव राजेश मिश्रा कहते हैं कि यह प्रदेश स्तर पर एक गंभीर चूक है। इतनी बड़ी चूक नहीं होनी चाहिए, पर इसके बावजूद वह इस चूक को सुधारने  के लिए जो प्रक्रिया बताते हैं, वह काफी लम्बी और भागदौड़ भरी है।  
-मोदी जी, कैसे निकलेंगे अंतरराष्ट्रीय  खिलाड़ी?
 खेल के क्षेत्र में चीन और अमेरिका से होड़ करने की बात करने वाले खेलों के खेलनहार शायद यह भूल जाते हैं कि विश्वस्तरीय खेल प्रतियोगिताओं में जिस  देश के खिलाड़ियों को  प्रवेश शुल्क जमा करना पड़ता हो, उस देश में खेलों का भविष्य क्या होगा? खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के गृहप्रांत अहमदाबाद में आयोजित जूनियर वर्ल्ड सॉफ्ट टेनिस चैम्पियनशिप में प्रतिभाग करने वाले खिलाड़ियों को प्रति खिलाड़ी 500 डॉलर (भारतीय मुद्रा में 30 हजार रुपये) बतौर प्रवेश शुल्क जमा करने पड़े थे। खिलाड़ी को कुछ देने के बजाय उल्टे उससे ही प्रतियोगिताओं में शामिल होने के लिए प्रवेश शुल्क वसूलना किसी भी देश और खिलाड़ी के लिए दुर्भाग्य की ही बात है। 

तमाशबीनों के हाथ खेल

खेलों में गड़बड़ ही गड़बड़ है। यह बात हाल ही सर्वोच्च न्यायालय ने एन. श्रीनिवासन के खिलाफ फैसला सुनाकर सच साबित कर दिया है। हाल के कुछ घटनाक्रमों के बाद बेशक मुल्क में क्रिकेट को संदेह की नजर से देखा जा रहा हो पर अन्य खेलों में भी ईमानदारी और पारदर्शिता  के अभाव में खिलाड़ी खिलखिलाने की बजाय मायूस हैं। खेलों में प्रतिभा कोई मायने नहीं रखती है क्योंकि उसका पैमाना वे लोग तय करते हैं जिनका खेलों से दूर-दूर तक वास्ता नहीं होता। इन खेलनहारों की जिस पर कृपा हो जाए वह पिद्दी प्रदर्शन के बावजूद चैम्पियन बन सकता है। खेलों और खिलाड़ियों से खेलवाड़ गाहे-बगाहे नहीं बल्कि अमूमन हर प्रतियोगिता में होता है। प्रतिभाएं लाख मिन्नतों के बाद भी न्याय नहीं पातीं। खिलाड़ियों के मायूस चेहरों पर खेलनहार तरस नहीं खाते, उनका दिल नहीं पसीजता। आखिर उपेक्षा से तंग खिलाड़ी असमय खेलों से तौबा कर लेता है और उसके अरमान एक झटके में जमींदोज हो जाते हैं।
आम खेलप्रेमी और खिलाड़ी के बीच लम्बा फासला होने की वजह से  वह सच कभी सामने नहीं आ पाता जोकि प्रतिभाएं हर पल जीती हैं। प्रतिभाशाली खिलाड़ी किन-किन दिक्कतों से जूझता है उससे प्राय: हम बेखबर होते हैं। जो हम देखते हैं, जिनके लिए ताली पीटते हैं वह सिर्फ खेलनहारों का आडम्बर होता है। भारतीय खेलों की हर आचार संहिता खिलाड़ी विरोधी और खेल पदाधिकारियों की आरामतलबी का जरिया है। छोटी सी गलती पर खिलाड़ी तो बलि का बकरा बना दिया जाता है लेकिन उन बेशर्मों का कुछ नहीं होता जिन पर प्राय: प्रतिभा हनन को उंगली उठती है। मैदान में कभी खिलाड़ी बेईमानी से हराया जाता है तो कभी उस पर स्वयं हार जाने का दबाव डाला जाता है। प्रतिभा हनन का यह शर्मनाक खेल गांव-गली से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक चल रहा है।
देश में खेलों से जुड़े ईमानदार लोगों की पहचान आज बहुत बड़ी चुनौती है। सुरेश कलमाड़ी और ललित भनोट जैसे बेईमान-भ्रष्टाचारी बेशक अदालती कार्रवाई के बाद खेल परिदृश्य से ओझल हैं लेकिन उनके दाएं-बाएं हाथ आज भी वही कर रहे हैं जोकि उन्हें बाहर से निर्देश मिलता है। भारत में खेलों का स्याह सच तो यह है कि खिलाड़ी मैदान तो मैदान उससे बाहर भी महफूज नहीं है। सरकार भी खेलनहारों के सामने लाचार है। खेल संगठन सरकारी सहायता से अपना नाम तो चमकाते हैं लेकिन उसकी आचार संहिता से उन्हें गुरेज है। हाल ही बीसीसीआई के निर्वासित अध्यक्ष एन. श्रीनिवासन के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने खेलों का सिर्फ एक परिदृश्य ही दिखाया है, शेष परिदृश्यों की हकीकत न केवल खिलाड़ी का मनोबल तोड़ती है बल्कि स्वस्थ भारत की परिकल्पना को भी तार-तार करती है। दुनिया का सबसे समृद्ध खेल संगठन भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड भारत सरकार से एक पाई भी नहीं लेता यही वजह है कि उसे मुल्क की हुकूमत और उसके नियम-कायदों से परहेज है। असहाय सरकार चाहकर भी क्रिकेट पर लगी कालिख साफ नहीं कर पाती।
सवाल यह उठता है कि जब क्रिकेट बोर्ड सरकार को कुछ मानता ही नहीं है तो भला हम क्रिकेटरों को भारतीय सम्मान देने के साथ देवदूत की संज्ञा क्यों देते हैं? दरअसल देश का कोई भी राजनीतिक दल क्यों न हो उससे जुड़े लोग क्रिकेट ही नहीं हर खेल संगठन में काबिज हैं। सच यह कि राजनीतिज्ञराजनीति ही नहीं मुल्क के खेल भी अपने तरीके से चला रहे हैं। हिन्दुस्तान बेशक खेलों की ताकत बनने और चीन, अमेरिका तथा रूसी खिलाड़ियों से दो-दो हाथ करने का दम्भ भरता हो पर जमीनी हकीकत  चीख-चीख कर बताती है कि हम आने वाले 100 साल में भी दुनिया की खेल ताकत नहीं बन सकते। भारत में खेल प्राथमिक स्तर से ही भ्रष्टाचार और फरेब का शिकार हैं। खेलनहारों की कृपा होने पर ही खिलाड़ी खेल और जीत सकता है।
जीत-हार खेल का हिस्सा है, यह जुमला भारतीय खेलप्रेमियों की व्यक्तिगत राय हो सकती है लेकिन खेल नजरिए से देखें तो मुल्क में खिलाड़ी का खेलना और उसकी जीत-हार सब कुछ उन हाथों में है, जिनके बाप-दादा भी कभी मैदान नहीं गये। देश में स्कूली खेलों का बुरा हाल है। खिलाड़ियों को दी रही सुविधाएं कागजों तक ही सीमित हैं। खिलाड़ियों को लाने-ले-जाने और खाने-खिलाने तक में बोली लगती है। फिलवक्त स्कूली खेलों में देश भर के सभी राज्यों सहित कोई 40 यूनिट शिरकत कर रही हैं, पर खिलाड़ियों को मिल रही सुविधाओं में बड़ा विभेद है। कुछ यूनिट खिलाड़ियों को बेहतर सुविधाएं दे रही हैं तो अधिकांश राज्य यूनिटों में भ्रष्टाचार का खेल चरम पर है। पाठकों को जानकर दु:ख होगा कि जिन प्रतिभाशाली खिलाड़ियों के प्रदर्शन पर हम ताली पीटते हैं वे बेचारे तो भूखे पेट खेलने को मजबूर होते हैं। खिलाड़ी के साथ क्या हो रहा है, इसकी वह शिकायत करे भी तो आखिर किससे?
स्कूल गेम्स फेडरेशन आॅफ इण्डिया (एसजीएफआई) स्कूली खिलाड़ियों की पालनहार संस्था है। इसका मुख्यालय आगरा में है, जिसमें एक-दो नहीं 11 सचिव तैनात हैं बावजूद इसके स्कूल खेलों में भ्रष्टाचार और प्रतिभा हनन का खेल बदस्तूर जारी है। गाहे-बगाहे खेलों में भ्रष्टाचार के मामले सुर्खियां बनते रहे हैं लेकिन जब भी जांच की आंच आई संलिप्त लोग खुद को बेदाग साबित करने से नहीं चूके। हाल ही क्रिकेट में भ्रष्टाचार के जो खलनायक सामने आए उसके बाद हर भारतीय को लगा कि खेलों की समूची गंगोत्री ही मैली है। देश में जब से आईपीएल का आगाज हुआ है समूचा खेल और खिलाड़ी नीलामी, बोली और पैसे की ताकत से तय हो रहे हैं। क्रिकेट में चलने वाली जोड़-तोड़, धन और रसूख का खेल अब किसी से छिपा नहीं है। खेलों में परदे के पीछे सट््टेबाजी और मैच फिक्सिंग के चलन ने हार-जीत को संदिग्ध बना दिया है। अब खेलों के रग-रग में समाए संदिग्ध भूत को कैसे भगाया जाए यह किसी एक की नहीं सबकी जवाबदेही है।

Wednesday 21 January 2015

बच्चों को स्कूल लाने में भारत कामयाब

संयुक्त राष्ट्र ने ठोंकी पीठ
संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत अपने यहां स्कूल में पढ़ने न जाने वाले बच्चों की संख्या में वर्ष 2000 से 2012 के बीच 1.6 करोड़ तक की कमी लाने में और दक्षिणी एशिया में प्रगति का वाहक बनने में सफल रहा है लेकिन अभी भी ऐसे 14 लाख बच्चे यहां हैं, जो प्राथमिक स्कूल नहीं जा पाते। स्कूल न जाने वाले बच्चों की संख्या में सबसे अधिक कमी दक्षिणी एशिया में आई है, जहां इस संख्या में वर्ष 2000 और 2012 के बीच लगभग 2.3 करोड़ की कमी आई है।
यह जानकारी यूनेस्को और यूनिसेफ द्वारा तैयार साझा रिपोर्ट फिक्सिंग द ब््राोकन प्रॉमिस आॅफ एजुकेशन फॉर आॅल: फाइंडिंग्स फ्रॉम द ग्लोबल इनीशिएटिव आॅन आउट आॅफ स्कूल चिल्ड्रन के जरिए दी गई है। वर्ष 2000 के बाद से कुछ ही देश ऐसे हैं, जो स्कूल न जाने वाले बच्चों की संख्या में कमी की दिशा में वैश्विक प्रगति के वाहक हैं। भारत अकेला ऐसा देश है जो स्कूल न जाने वाले बच्चों की संख्या में वर्ष 2000 और 2012 के बीच लगभग 1.6 करोड की कमी लाया है। वहीं 42 देश ऐसे थे, जो वर्ष 2000 और 2012 के बीच प्राथमिक कक्षाओं में स्कूल न जा पाने वाले बच्चों की संख्या को आधे से भी ज्यादा कम करने सफल रहे। इन देशों में अल्जीरिया, बुरूंडी, कंबोडिया, घाना, भारत, ईरान, मोरक्को, मोजेम्बिके, नेपाल, निकारागुआ, रवांडा, वियतनाम, यमन और जाम्बिया शामिल हैं। हालांकि कई देशों द्वारा इतनी प्रभावशाली प्रगति किए जाने के बावजूद वर्ष 2012 में दुनिया भर में प्राथमिक स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की उम्र के लगभग नौ प्रतिशत बच्चे ऐसे थे जो स्कूल में नहीं पढ़ने नहीं जाते थे।
इन बच्चों में लड़कों की संख्या इस उम््रा के लड़कों की कुल संख्या का आठ प्रतिशत थी और लड़कियों की संख्या इस उम्र की लड़कियों की कुल संख्या का 10 प्रतिशत थी। स्कूल न जाने वाले बच्चों की कुल संख्या 5.8 करोड थी और इसमें ज्यादा संख्या (3.1 करोड़) लड़कियों की थी। भारत में 5. 881 करोड लडकियां और 6. 371 लडके प्राथमिक कक्षाओं के छात्रों की उम््रा के हैं। वर्ष 2011 तक, प्राथमिक कक्षा के छात्रों की उम््रा के 14 लाख बच्चे भारत में स्कूल नहीं जाते थे। इनमें 18 प्रतिशत लड़कियां और 14 प्रतिशत लड़के थे। जिन अन्य देशों में स्कूल न जाने वाले बच्चों की संख्या पांच लाख से अधिक है, वे हैं- इंडोनेशिया, बांग्लादेश, नाइजीरिया, पाकिस्तान और सूडान। भारत में सात से 14 वर्ष के उम्र समूह के लगभग 14 प्रतिशत बच्चे ऐसे हैं, जो बाल मजदूरी में लगे हैं। रिपोर्ट में कहा गया कि हालांकि भारत ने प्राथमिक शिक्षा में पंजीकरण करवाने के मामले में महत्वपूर्ण सुधार किया है, लेकिन शारीरिक अक्षमता वाले बच्चों के लिए ये संख्या स्तब्ध करने वाली है। भारत में शारीरिक अक्षमता वाले 29 लाख बच्चों में से 9.9 लाख बच्चे ऐसे हैं जो स्कूल नहीं जाते। छह साल से 14 साल के उम््रा समूह वाले इन बच्चों की यह संख्या कुल संख्या का 34 प्रतिशत है। यह प्रतिशत उन बच्चों में कहीं अधिक है, जिन्हें कोई बौद्धिक अक्षमता :48 प्रतिशत:, बोलने में परेशानी (36 प्रतिशत) और कई अन्य अक्षमताएं (59 प्रतिशत) हैं। रिपोर्ट में कहा गया , भारत ने अपनी शिक्षा व्यवस्था को ज्यादा समावेशी बनाने के लिए बहुत प्रयास किए हैं। शिक्षा का अधिकार कानून के जरिए सभी बच्चों को स्कूल जाने का अधिकार है। किसी तरह की अक्षमता का सामना कर रहे बच्चों की बडी संख्या को स्कूलों से जोड़ने की दिशा में और अधिक प्रगति वांछनीय है।

Tuesday 20 January 2015

अप्रवासियों का स्याह सच

नरेन्द्र मोदी सरकार मुल्क को आर्थिक प्रगति की राह पर ले जाने को दिन-रात एक कर रही है। वह चाहती है कि अप्रवासी भारतीय यहां आकर न केवल निवेश करें बल्कि मुल्क की प्रगति को भी पर लगाएं। मोदी सरकार की सोच भारतीय प्रगति का सूचक है लेकिन अमेरिका के लूसियाना प्रांत के गवर्नर भारतीय मूल के बॉबी जिंदल ने अमेरिका में रह रहे भारतीयों को जो निष्ठा का पाठ पढ़ाया है, उसके निहितार्थ हैं। मोदी सरकार को सरपट दौड़ लगाने की बजाय समय की नजाकत को समझते हुए प्रगति की राह चलना चाहिए। बॉबी जिंदल का खुद को भारतीय अमेरिकी कहे जाने का मलाल यह साबित करता है कि वह अतीत को भूल चुके हैं। जिंदल न केवल अमेरिका में बसे आव्रजकों को अमेरिकी बहु-सांस्कृतिक समाज में पूरी तरह से घुल-मिल जाने की सीख दे रहे हैं बल्कि रंगभेद पर तंज कसते हुए इसे संकुचित मानसिकता करार दिया है।
बॉबी जिंदल अमेरिका को महज एक ठौर-ठिकाना नहीं बल्कि एक अवधारणा मानते हैं। उनका यह कहना कि हम भारतीय बनना चाहते, तो हम भारत में ही रुकते। बॉबी जिन्दल को भारत से तो प्यार है लेकिन अधिकाधिक अवसरों और स्वतंत्रता के मामले में उनकी नजर में आज अमेरिका ही सर्वोपरि है। भारत को लेकर बॉबी जिंदल की सोच सभी अप्रवासी भारतीयों पर बेशक सटीक न बैठती हो पर मोदी सरकार के विकासोन्मुख प्रयासों के लिए करारा झटका जरूर है। मोदी सरकार का जिन्दल की बातों पर गहन चिन्तन समयानुकूल होगा। बॉबी जिन्दल ने स्वयं को भारतीय अमेरिकी कहे जाने पर जो सवाल उठाए हैं उससे भारत में निवेश को इच्छुक अप्रवासी भारतीय बिदक सकते हैं। बॉबी जिन्दल अगले साल अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने का मन बना रहे हैं ऐसे में भारत उनके वक्तव्य का कूटनीतिक प्रयोग कर सकता है। मोदी सरकार के अब तक के कार्यकाल में जिस तरह की जल्दबाजी और प्रबल इच्छाशक्ति दिखी, उससे तो ऐसा ही आभास होता है मानो भारत आर्थिक प्रगति के ककहरे से अब तक अनजान ही था। मोदी सरकार के शुरुआती दिनों में पाकिस्तान को लेकर जिस तरह बलैयां ली गर्इं उससे मुल्क को क्या हासिल हुआ? विकास की टोटा रटंतू बातें भी हुर्इं लेकिन न तो यहां भारी उद्योग लगे, न कारोबार फले-फूले, न ही कोई आर्थिक विकास नजर आया। पिछले साल मोदी के हर चुनावी उद्बोधन में अर्थव्यवस्था की प्रगति का स्वर मुखर होता रहा। मुल्क को गुजरात की तरह विकास के सब्जबाग दिखाए गए, सबका साथ, सबका विकास जैसे गगनभेदी नारे भी गूंजे लेकिन आज वह अप्रवासी भारतीयों के बूते ही देश को प्रगति पथ पर ले जाना चाहते हैं, जोकि उचित नहीं है। मुल्क की बागडोर सम्हालने के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने जन-धन योजना, मेक इन इण्डिया, नीति आयोग आदि योजनाओं को व्यावहारिक शक्ल में उतारा तो जापान, अमेरिका, आस्ट्रेलिया जहां भी वे गए, उनके साथ व्यापारियों का हुजूम भी गया। वह 30 सितम्बर को अमेरिका में बराक ओबामा से भी मिले, उसके बाद से भारत और अमेरिका के बीच तीन दर्जन से अधिक बैठकें हो चुकी हैं। ओबामा की 26 जनवरी की भारत यात्रा को क्षमताओं के दोहन का अवसर करार दिया जा रहा है। यह सच है कि मोदी ने दुनिया में अपनी पहचान आर्थिक सुधारों के हिमायती, निवेशकों के हित की रक्षा करने वाले प्रधानमंत्री के रूप में बनाई तो भारत में ज्यादा से ज्यादा लोग निवेश करें, यहां के संसाधनों के इस्तेमाल से अपने उद्योगों को पर लगाएं ऐसे घोषित-अघोषित वादे उन्होंने दुनिया भर में किए हैं। गुजरात में प्रवासी भारतीय सम्मेलन और वाइब्रेंट गुजरात जैसे आयोजनों में भी इन्हीं बातों की गूंज रही। इसमें कोई शक नहीं कि भारत को निवेश और उद्योग के लिए बेहतर स्थान बनाने में नरेन्द्र मोदी जुटे हुए हैं पर उनके अधिकांश निर्णयों का उद्योगपतियों के लिए हितकारी होना आम भारतीय के लिए सुखद नहीं कहा जा सकता।
मोदी सरकार जो कुछ कह और कर रही है, उसमें उसे किसी की हिमाकत पसंद नहीं है। कुछ दिनों पहले ग्रीनपीस संगठन की कार्यकर्ता प्रिया पिल्लै के साथ जो हुआ उससे इस बात के साफ संकेत मिलते हैं। दरअसल प्रिया पिल्लै के पास वैध वीजा और पासपोर्ट होने के बावजूद लंदन जाने से पहले उन्हें विमानतल पर रोक दिया गया और कहा गया कि उनके खिलाफ लुकआउट नोटिस जारी है। दरअसल, यह नोटिस उनके खिलाफ जारी होता है, जो फरार अपराधी होते हैं। पिल्लै कभी फरार नहीं रहीं। कनबतियों पर यकीन करें तो इंटेलीजेंस ब्यूरो की रिपोर्ट ही प्रिया के लिए मुसीबत बन गई, जिसमें कहा गया है कि ग्रीनपीस संस्था भारत की अर्थव्यवस्था को अस्थिर कर देश को एक बड़े खतरे की ओर धकेलना चाहती है। प्रिया पिल्लै लंदन में कुछ ब्रिटिश सांसदों से कोयला खनन परियोजना और इससे आदिवासियों पर होने वाले प्रभाव के बारे में चर्चा करने जा रही थीं।
देखा जाए तो मध्यप्रदेश के माहन में एक कोयला खदान परियोजना प्रस्तावित है। जिसके खनन से यहां के जंगल और उस पर निर्भर आदिवासी आबादी के जीविकोपार्जन पर खतरे का अंदेशा है। ग्रीनपीस इसके खिलाफ आवाज उठा रही है, जो शायद मोदी सरकार को नागवार गुजरी। इसी तरह केरल के प्लाचीमाड़ा में कोकाकोला संयंत्र के खिलाफ केरल विधानसभा के प्रस्तावित निर्णय को राष्ट्रपति से मंजूरी दिलाने की जगह वापस भेज दिया गया। प्लाचीमाड़ा कोकाकोला विक्टिम रिलीफ एण्ड कम्पनसेशन ट्रिब्यूनल बिल 2011 को राष्ट्रपति की मंजूरी मिल जाती, तो अपनी ही जमीन से बेदखल लोगों को न्याय की आस जगती, लेकिन यहां भी सरकार कोकाकोला के पक्ष में ही दिखाई दी। केरल हो या मध्यप्रदेश, उड़ीसा हो या गुजरात, देशी-विदेशी उद्योगपति तो मजे में हैं, पर वहां के रहवासी खून के आंसू रोने को मजबूर हैं। वे अपने ही जल, जंगल और जमीन के उपयोग से वंचित हो रहे हैं या बेदखल किए जा रहे हैं। आज गरीबों के साथ जो हो रहा है वह सबका साथ, सबका विकास नहीं हो सकता। 

Thursday 15 January 2015

कैसा वसुधैव कुटुम्बकम?

दहशतगर्द आतंकी किसी का सगा नहीं हो सकता यह तो दुनिया मानती है पर इनसे साझा तरीके से निपटने की जब भी बात होती है हम अपने-पराए का रोना रोने लगते हैं। आज दुनिया आतंकवाद की गिरफ्त में है। कोई देश इससे अछूता नहीं है। भारत में भी आतंकी खतरा किसी भी कीमत पर कम नहीं है, पर हमारी तैयारियां ऊंट के मुंह में जीरे के समान हैं। मुम्बई में 26/11 हमले के बाद बैंकिंग, वित्तीय और परिवहन के क्षेत्र में आतंकी गतिविधियों पर निगरानी के लिए नेटग्रिड की स्थापना की गई थी लेकिन देश को उसका कोई फायदा नहीं मिला। आतंकवादी गतिविधियों की जांच और मुकदमा चलाने के लिए 31 दिसम्बर, 2008 को राष्ट्रीय जांच एजेंसी का गठन किया गया था पर वह आधे-अधूरे स्टाफ के चलते कुशलता से अपने काम को अंजाम नहीं दे पा रही। मुम्बई हमले के बाद देश के चार बड़े महानगरों में एनएसजी का हब बनाया जाना था लेकिन वह भी गति नहीं पकड़ सका।
भारत आज आंतरिक आतंकवाद के साथ-साथ अपनी तटीय सीमाओं पर भी महफूज नहीं है। हमारे सामने 7016 किलोमीटर लम्बी तटीय सीमा की सुरक्षा अहम सवाल है। भारतीय तटीय सीमाओं के पास 1197 छोटे-छोटे द्वीप स्थित हैं, जिनकी हिफाजत भी किसी चुनौती से कम नहीं है। सात साल पहले मुम्बई में हुए हमले के आतंकवादी समुद्री रास्ते से ही भारत पहुंचे थे। देखा जाए तो आज के दौर में 1982 में अस्तित्व में आई संयुक्त राष्ट्र समुद्री कानून संधि अब पुरानी पड़ चुकी है। नए खतरों के सामने अब वह कारगर नहीं है। भारत या पाकिस्तान में जब भी कोई आतंकी वारदात होती है एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगना शुरू हो जाते हैं। पाकिस्तान पर हमेशा यह आरोप लगता रहा है कि वह आतंकवाद के खात्मे में अपने-पराए का भेदभाव करता है। यह सच है कि पाकिस्तान ने हमेशा अच्छे और बुरे आतंकवाद का वर्गीकरण किया है। एक ओर तो वह आतंकवाद से लड़ने के दावे करता है तो दूसरी ओर आतंकवादियों को पनाह देने से भी गुरेज नहीं करता।
आतंकवाद के मामले में पाकिस्तान ही नहीं दुनिया के अधिकांश मुल्क वसुधैव कुटुम्बकम की भावना का मजाक उड़ा रहे हैं। बीते रविवार को जब फ्रांसीसी पत्रिका पर आतंकी हमले के विरोध में पेरिस में 10 लाख से अधिक लोग जुटे और कई देशों के प्रतिनिधि इसमें शामिल हुए तब भी  आतंकवाद से उपजे दर्द में अपने और पराए का ही भेद उजागर हुआ। शार्ली एब्दो में छपे कार्टूनों का विरोध करने के लिए जिस तरह उसके संपादक समेत 12 लोगों की हत्या की गई और सुपर मार्केट में बंधक बनाकर लोगों को मारा गया, उसकी चहुंओर निन्दा होना स्वाभाविक थी। पत्रकारों पर हमला सीधे तौर पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रहार है। सच कहें तो यदि कलम के सिपाही किसी डर से अपनी बेबाक राय देना ही बंद कर देंगे तो आतंकवादियों का दुस्साहस कम होने की बजाय और अधिक खतरनाक स्थिति पैदा कर देगा।
फ्रांस में आतंकवादियों की कायराना करतूत के बाद मैं भी हूं शार्ली जैसे जुमलों का हल्ला सोशल मीडिया से लेकर कई जनमंचों पर खूब सुनाई दिया। अभिव्यक्ति की आजादी का पुरजोर समर्थन अच्छी बात है। सोशल मीडिया की बहादुरी और अन्याय के विरुद्ध खड़े होने का उसका जज्बा वाकई सराहनीय है। काश, पेशावर में मारे गए नौनिहालों के परिजनों के साथ भी ऐसी ही बहादुरी और जज्बात यदि परवान चढ़ते तो उससे आतंकवादियों का मनोबल जरूर टूटता। आखिर वे निरीह बच्चे बहादुरी नहीं तो सहानुभूति के हकदार तो थे ही। पेशावर के सैनिक स्कूल मामले में निन्दा की आवाजें उठीं और मृत बच्चों के लिए दु:ख भी जताया गया पर दु:ख की इस घड़ी में विश्व के किसी देश में मृत बच्चों की याद में जनसैलाब नहीं उमड़ा। किसी देश ने यह नहीं कहा कि मैं इन बच्चों का अभिभावक हूं, बड़ा भाई, बहन और दोस्त हूं। जो भी हो 12 जनवरी को जब पेशावर का सैनिक स्कूल पुन: खुला तब भी मीडिया में इस खबर को उतना स्थान नहीं मिला, जितना फ्रांस के प्रदर्शन को दिया गया।
सैनिक स्कूल की इमारत में जहां बच्चे पढ़ने जाते थे, वहां पड़े खून और मांस के कतरों को तो हटा दिया गया, टूटी दीवारों को भी दुरुस्त कर दिया गया लेकिन बच्चे निडरता से तालीम हासिल करें इसके लिए हमारे शांतिप्रिय समाज ने कुछ भी नहीं किया। आतंकवाद से लहूलुहान होने के बाद सहानुभूति में भेदभाव का शिकार अकेले पाकिस्तान ही नहीं नाइजीरिया भी है। नाइजीरिया में लम्बे समय से आतंकी संगठन बोको हराम क्रूर और हिंसक लड़ाई छेड़े हुए है। हाल ही में उत्तर-पूर्वी नाइजीरिया के बागा शहर में बोको हराम के हमले में दो हजार से अधिक लोग मारे गए। इनमें अधिकतर महिलाएं, बच्चे व वृद्ध शामिल थे, जो भागकर अपनी जान नहीं बचा सके। नाइजीरिया में आज भी लगभग 30 हजार लोग खानाबदोश दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। लोग इस वारदात से अभी उबरे भी नहीं थे कि उत्तर-पूर्वी नाइजीरिया के ही मैदुगुरी शहर के व्यस्ततम बाजार में एक आत्मघाती हमले में 19 लोगों की मौत हो गई। आत्मघाती हमला एक 10 साल की बच्ची के जरिए करवाया गया, जिसे शायद यह भी नहीं मालूम रहा होगा कि उसके शरीर पर बम बंधा हुआ है। बोको हराम ने कई लड़कियों और महिलाओं को अगवा कर रखा है। आशंका और डर है कि कहीं वह इनका इस्तेमाल दहशतगर्दी के लिए न कर दे। नाइजीरिया में निर्दोषों के कत्लेआम पर पश्चिमी देशों की असहिष्णुता इंसानियत के साथ विभेद ही कही जाएगी। आज भारत भी पश्चिमी देशों से गलबहियां कर रहा है। हाल ही गुजरात में हुए प्रवासी भारतीय सम्मेलन में कई देशों के नेता जुटे, फ्रांस पर हमले की आलोचना हुई तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने वसुधैव कुटुम्बकम का राग भी अलापा। देखा जाए तो वसुधा हमेशा ही एक कुटुम्ब की तरह रही है। उसने अपने संसाधन सबको बिना भेदभाव के उपभोग के लिए दिए हैं। इंसान ने ही उसमें अपने-पराए की सीमा खींची है। आज  जब हम वसुधैव कुटुम्बकम की बात करते हैं तो हमें यह भी सोचना चाहिए कि यह कैसा कुटुम्ब है, जिसके सदस्यों के दु:ख-दर्द साझा करने में अपना-पराया नजर आता है। सच कहें तो दुनिया का स्वार्थ संचालित कुटुम्ब का हिमायती होना समूची मानवता के लिए गम्भीर खतरे का संकेत है। 

Tuesday 13 January 2015

विश्व कप में धोनी और विराट पर दारोमदार

 भारत ने विश्व कप के लिये जो 15 सदस्यीय टीम चुनी है उसकी बल्लेबाजी मजबूत मानी जा रही है लेकिन कप्तान महेंद्र सिंह धौनी और उप कप्तान विराट कोहली को छोड़कर टीम के बाकी अन्य बल्लेबाजों को मेहमान देशों आॅस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में सीमित ओवरों की क्रिकेट में भी रन बनाने के लिये जूझना पड़ा है।
भारत के लिए अभी शिखर धवन और रोहित शर्मा वनडे में पारी का आगाज कर रहे हैं। इन दोनों ने आस्ट्रेलिया के खिलाफ हाल में समाप्त हुई टेस्ट शृंखला में निराशजनक प्रदर्शन किया था तथा डाउन अंडर यानि आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में उनका ओवरआल रिकार्ड भी प्रभावशाली नहीं है। आस्ट्रेलिया के खिलाफ टेस्ट शृंखला की छह पारियों में केवल 167 रन बनाने वाले धवन ने विश्व कप के मेजबान देशों में से अब तक केवल कीवियों की धरती पर चार वनडे खेले हैं जिनमें वह बुरी तरह नाकाम रहे। इन चार मैचों में उन्होंने 20. 25 की औसत से 81 रन बनाये जिसमें उनका उच्चतम स्कोर 32 रहा।
उनके साथी बल्लेबाज रोहित शर्मा को इन दोनों देशों में जरूर 22 वनडे खेलने का मौका मिला हैं जिनमें उन्होंने 29.52 की औसत से 502 रन बनाये हैं। वनडे में दोहरे शतक लगाने वाले रोहित को वहां अब भी पहले शतक का इंतजार है। भारत को लीग चरण में आस्ट्रेलिया में चार और न्यूजीलैंड में दो मैच खेलने हैं। रोहित ने आस्ट्रेलिया में जो 15 वनडे खेले हैं उनमें वह केवल 26.15 की औसत से ही रन बना पाये हैं।
भारत के वनडे में तीसरे नंबर के बल्लेबाज कोहली ने आस्ट्रेलिया के खिलाफ चार टेस्ट मैचों में 692 रन बनाकर साबित कर दिया कि उन पर परिस्थितियों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता और वह दुनिया के किसी भी तरह की पिच पर रन बनाने में सक्षम हैं। कोहली किसी भी तरह के प्रारूप में आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में भी उतने ही सफल रहे हैं जितने भारत में। भारत की टेस्ट टीम के नये कप्तान ने आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में तीनों प्रारूपों में मिलकर 1923 रन बनाये हैं और उनका औसत 58.27 हैं। वनडे में उन्होंने दोनों देशों में अब तक जो 13 मैच खेले हैं उनमें 55.33 की औसत से 664 रन बनाये हैं। कोहली इन दोनों देशों की सरजमीं पर अब तक वनडे में एक एक शतक लगाया है। कोहली यदि नंबर तीन पर उतरेंगे तो संभवत: नंबर चार की जिम्मेदारी अजिंक्य रहाणे संभालेंगे जो अच्छी फार्म में चल रहं है। वह अच्छे तकनीक वाले बल्लेबाज हैं और आस्ट्रेलिया के खिलाफ टेस्ट शृंखला में 399 रन बनाकर उन्होंने इसे साबित भी कर दिया है।
 रहाणे ने अब तक आस्ट्रेलिया में कोई वनडे नहीं खेला है। उन्होंने पांच मैंच न्यूजीलैंड की सरजमीं पर खेले जिसकी पांच पारियों में वह केवल 51 रन बना पाये। इनमें से चार पारियों में वह दोहरे अंक में भी नहीं पहुंच पाये थे जबकि एक बार उन्होंने 36 रन की पारी खेली थी। बल्लेबाजी क्रम में नंबर पांच सुरेश रैना के लिए सुरक्षित है जिन्हें हाल ही में सिडनी में पहली बार डाउन अंडर में पहला टेस्ट मैच खेलने का मौका मिला और वह दोनों पारियों में कुल चार गेंद का सामना कर पाए और खाता खेलने में भी नाकाम रहे। रैना ने इन दोनों मेजबान देशों में अब तक कुल 16 वनडे मैच खेले हैं जिनमें 32.58 की औसत से 391 रन बनाये है। वह इन 16 मैंचों की 15 पारियों में केवल एक बार 50 रन के पार पहुंच पाये। आस्ट्रेलिया की सरजमीं पर तो वह आठ पारियों में केवल 182 रन ही बना पाये हैं और उनका उच्चतम स्कोर नाबाद 40 रन है।

Friday 9 January 2015

हे भगवान कैसा सम्मान

जिन्दा न दें कौरा, मरे उठावैं चौरा। यह सिर्फ लोकोक्ति नहीं बल्कि हम भारतीयों की हकीकत है। सम्मान सबको अच्छा लगता है। खिलाड़ियों को जहां पसीना सूखने से पहले सम्मानित किया जाना चाहिए वहीं महापुरुषों को जीते जी सम्मानित करने से दीगर लोगों को अच्छा करने की प्रेरणा मिलती है। अफसोस देश में सम्मान व्यापार बन चुका है। सम्मान के लिए लोग कुछ भी कर सकते हैं यहां तक कि अपने जमीर का सौदा भी। उम्मीद थी कि मोदी सरकार के आने के बाद स्थितियों में सुधार होगा, खिलाड़ी खिलखिलाएंगे पर अब भी अड़चनें कम नहीं हैं। हाल ही पद्म भूषण सम्मान को लेकर साइना नेहवाल मुंह फुला बैठीं। भला हो खेल मंत्री सर्बानन्द सोनोवाल का जिन्होंने बात बिगड़ने से पहले ही सम्हाल ली।
देश में खेल और खिलाड़ी बेशक एक-दूसरे के पूरक हों पर खिलाड़ी राजनीतिज्ञों के हाथ की ही कठपुतली है। आजादी से आज तक खेलों के समुन्नत विकास पर किसी सरकार ने पर्याप्त ध्यान देने की जहमत नहीं उठाई। समय बदल रहा है। अब फिल्मी सितारे और नामचीन खिलाड़ी खेलों के उत्थान को आगे आ रहे हैं। एक समय था जब भारत में क्रिकेट को छोड़ अन्य खेल और खिलाड़ियों की कोई हैसियत नहीं थी। अब ऐसी बात नहीं है। खिलाड़ी जहां अपने हक के लिए मुंह खोल रहा है वहीं उद्योगपति, पूर्व खिलाड़ी और फिल्मी सितारे खिलाड़ियों को खेलमंच मुहैया करा रहे हैं। खेल मंचों के आबाद होने से खेल बाजार विस्तार पा रहा है। किस खेल को कितना आगे बढ़ाना है और उससे कैसे मुनाफा कमाना है यह बाजार बखूबी जानता है। राजनेता तो अर्से से खेलों में मलाई छान ही रहे थे अब इसमें फिल्मी हस्तियों के कूद जाने से उद्योगपतियों की अनिवार्यता भी बढ़ गई है। भारत में क्रिकेट के धंधे को आबाद हुए लम्बा समय हो चुका है। इस खेल में धन लगाने वालों को अब लगने लगा है कि अकेले घोड़े से अधिक लाभ नहीं कमाया जा सकता इसी वजह से अब वे हॉकी, कबड्डी, टेनिस, फुटबाल आदि खेलों में भी पैसा लगा रहे हैं।
खेलों का यह बदलाव कुछ सवालों को भी जन्म दे रहा है। हर धंधा लाभ की बुनियाद पर टिका होता है। खेलों का बाजार भी इससे अछूता नहीं रह सकता। खेल और लाभ के इस बाजारी चक्र में सरकार की भूमिका शून्य है। खेलों में सरकारी भूमिका की जहां तक बात है वह खेल मंत्रालय बनाने और चलाने तक ही सीमित है। भारत सरकार प्रतिवर्ष कुछ खिलाड़ियों को सम्मानित करने की औपचारिकता तो निभा रही है लेकिन उसकी पारदर्शिता पर बार-बार उठती उंगली खेलों में होते गड़बड़झाले का ही संकेत है। आजादी के बाद से भारत सरकार यदि खेल के क्षेत्र में सक्रिय भूमिका निभाती तो आज अंतरराष्ट्रीय खेल परिदृश्य में हमारी स्थिति कुछ और ही होती। खेल मंत्रालय द्वारा की गई सिफारिशों के आधार पर मिलने वाले पुरस्कारों और सम्मानों की बात करें, तो यह किसी से छिपा नहीं है कि इसमें किस तरह पक्षपात होता है। बात ज्यादा पुरानी नहीं है, जब मुक्केबाज मनोज कुमार को कानूनी लड़ाई के बाद अर्जुन पुरस्कार हासिल हुआ। किसी खिलाड़ी का पुरस्कार या सम्मान के लिए कानून का सहारा लेना, अपनी सिफारिश करना या करवाना भारतीय खेलतंत्र के निकम्मेपन का ही सूचक है। लड़कर सम्मान हासिल करने से आत्मसम्मान को ठेस पहुंचती है। आत्मसम्मान से ऊपर कोई भी सम्मान नहीं हो सकता, यह बात हमारी हुकूमतों को समझनी चाहिए।
शटलर साइना नेहवाल भारत की श्रेष्ठतम खेल प्रतिभाओं में शुमार हैं। उन्होंने प्रकाश पादुकोण और पुलेला गोपीचंद की परम्परा को आगे बढ़ाते हुए बैडमिंटन में कई राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय खिताब जीते हैं। यही वजह है कि साइना की उपलब्धियों पर आज हर भारतीय को गर्व है। वे पद्म भूषण सम्मान के योग्य भी हैं, इसीलिए उन्हें पांच साल पहले ही पद्मश्री दे दिया गया था। बीते पांच बरस में उनके खेल में कई उतार-चढ़ाव, सफलताएं-असफलताएं दर्ज हुईं, किन्तु इससे उनका सम्मान कम नहीं हुआ। पुरस्कार और सम्मान की चाह मानवीय स्वभाव है। अफसोस हमारे यहां हर सम्मान पर राजनीति आड़े आ जाती है। आज शासकीय सम्मान राजनीतिक हित तो स्वैच्छिक सम्मान चापलूसी की इंतहा पार कर रहे हैं। राष्ट्र सम्मान, किसी पार्टी या सरकार की बपौती नहीं कि जिसे चाहा उसे दे दिया। ऐसे सम्मानों का आधार राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य ही होना चाहिए।
गलती होना जुल्म नहीं है। उसे सुधारा भी जा सकता है। यदि पिछली हुकूमतों से राष्ट्र सम्मान के मामलों में चूक हुई है तो हमारी वर्तमान या आने वाली सरकारें उसमें सुधार कर सकती हैं। मोदी सरकार को भी पिछली सरकार की गलतियों को ठीक करने का अधिकार है। बेहतर तो यह है कि राष्ट्रीय सम्मान के लिए व्यक्तियों के चयन में सरकारों को बीच में नहीं पड़ना चाहिए। सर्वोच्च सम्मान पर बेवजह की राजनीतिक दखलंदाजी से इनकी पवित्रता और महत्ता दोनों पर आंच आती है। आत्मसम्मान की खातिर राष्ट्रीय सम्मान लेने से मना करने में मिल्खा सिंह से बेहतर कोई दूसरा उदाहरण नहीं हो सकता। अफसोस साइना नेहवाल इस बिरली जमात में शामिल होने से चूक गर्इं। अभी साइना के सामने बैडमिंटन का लम्बा करियर है, मुमकिन है वे आने वाले समय में कई खिताब जीतें, रिकॉर्ड बनाएं और बड़े से बड़े पुरस्कार प्राप्त करें। पद्म भूषण के लिए अपनी लालसा न जताकर अगर साइना नेहवाल होनहार खिलाड़ियों के साथ होने वाली नाइंसाफी के खिलाफ नाराजगी जतातीं या गुरबत में जीती प्रतिभाओं को आगे लाने की मुहिम छेड़तीं और मुल्क में खेलों की स्थिति सुधारने के लिए अपनी लोकप्रियता का इस्तेमाल करतीं तो उनकी समूचे मुल्क में जय-जयकार होती। 

Wednesday 7 January 2015

हे भगवान कैसा सम्मान

जिन्दा न दें कौरा, मरे उठावैं चौरा। यह सिर्फ लोकोक्ति नहीं बल्कि हम भारतीयों की हकीकत है। सम्मान सबको अच्छा लगता है। खिलाड़ियों को जहां पसीना सूखने से पहले सम्मानित किया जाना चाहिए वहीं महापुरुषों को जीते जी सम्मानित करने से दीगर लोगों को अच्छा करने की प्रेरणा मिलती है। अफसोस हमारे देश में सम्मान व्यापार बन चुका है। सम्मान के लिए लोग कुछ भी कर सकते हैं यहां तक कि अपने जमीर का सौदा भी।
मोदी सरकार जब से आई है सम्मान विवादों की जद में हैं। खेल दिवस पर मिलने वाले सम्मान विवादों की भेंट चढ़े तो भारत रत्न को लेकर भी मुल्क एक राय नहीं दिखा। हाल ही पद्म भूषण सम्मान को लेकर साइना नेहवाल मुंह फुला बैठीं। भला हो खेल मंत्री सर्बानन्द सोनोवाल का जिन्होंने बात बिगड़ने से पहले ही पद्म भूषण के लिए साइना पर सहमति दे दी। बात इन्हीं सम्मानों तक सीमित नहीं है। मुल्क में दिए जाने वाले हर सम्मान के पीछे का सच बहुत दु:खदाई है। साहित्य जगत का हाल तो और भी बुरा है। लोग सम्मानित होने के लिए पैसा पानी की तरह बहा रहे हैं। चयन समिति ही नहीं यहां जिस्म भी बिकता है।
मुल्क के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न के क्या मायने हैं? यह बात मैं आज तक नहीं समझ सका। देश में मरणोपरान्त बहुत से लोग सम्मानित हो चुके हैं तो कई नाम प्राय: लिए जाते हैं। सवाल यह कि आखिर हम इतिहास पुरुषों को उनके जीते जी क्यों सम्मानित नहीं कर सके, हमारी क्या मजबूरियां थीं?  जहां तक परम्परा और प्रचलन की बात है, यह सनातम समय से जीवंत है। भारतीय परम्परा और भारत का इतिहास राम और कृष्ण तक जाता है। इनकी पूजा तो हम अवतार के रूप में करते हैं। सम्मान से किसी को गुरेज नहीं पर मरणोपरांत सम्मान सिर्फ उन सैनिकों को होना चाहिए जो मुल्क के लिए शहीद होते हैं। सर्वोच्च बलिदान देकर ही वह सर्वोच्च सम्मान के हकदार बनते हैं। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में महान कार्यों को अंजाम देने वाली विभूतियों का सम्मान आने वाली पीढ़ी की प्रेरणा होना चाहिए।
अफसोस मुल्क में सम्मानों का विद्रूप चेहरा सच को चिढ़ा रहा है। हर सम्मान पर राजनीति आड़े आ जाती है। हर सम्मान स्वहित की भेंट चढ़ जाता है। शासकीय सम्मान राजनीतिक हित तो स्वैच्छिक सम्मान चापलूसी की इंतहा पार कर रहे हैं। 24 दिसम्बर को अटल बिहारी वाजपेयी और महामना मदनमोहन मालवीय को भारत रत्न देने की संस्तुति से जो खुशी होनी चाहिए वह नहीं हुई।  यह तो सब मानते हैं कि मालवीयजी इस सम्मान के असल हकदार हैं लेकिन सवाल यह कि सम्मान अब क्यों? कहने वाले कह रहे हैं कि कांग्रेस-नीत सरकारों में देश के कुछ नायकों की जान-बूझकर उपेक्षा की गयी। राष्ट्र सम्मान, किसी पार्टी या सरकार की बपौती तो नहीं होते कि जिसे चाहा उसे दे दिया। ऐसे सम्मानों का आधार राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य ही होना चाहिए। दलगत राजनीति की आवश्यकता और विवशताओं  के चलते ही मुल्क के हर सम्मान की गरिमा पर आंच आई है।
गलती होना जुल्म नहीं है। उसे सुधारा भी जा सकता है। यदि पिछली हकूमतों से राष्ट्र सम्मान के मामलों में चूक हुई है तो हमारी वर्तमान या आने वाली सरकारें उसमें सुधार कर सकती हैं। वैसे पिछली सरकार की गलतियों को ठीक करने का काम नई सरकार को ही करना होता है। राष्ट्रीय सम्मान के लिए व्यक्तियों के चयन की जहां तक बात है इस पचड़े में सरकारों को नहीं पड़ना चाहिए। पद्म सम्मान और भारत रत्न जैसे सर्वोच्च सम्मानों पर  बेवजह की राजनातिक दखलंदाजी से इनकी पवित्रता और महत्ता दोनों पर आंच आ रही है। कितना दु:खद है कि समाज का एक वर्ग महामना के नाम में भी राजनीतिक स्वार्थ की गंध सूंघ रहा है। कहा जा रहा है कि भारतीय जनता पार्टी सोची-समझी नीति के तहत राष्ट्रनायकों को अपनी ओर खींच रही है। सरदार वल्लभ भाई पटेल की मूर्ति की बात हो या फिर छत्रपति शिवाजी की विरासत की, भाजपा जिस तरह से ऐसे नायकों से स्वयं को जोड़ रही है, उसे राजनीतिक स्वार्थों से प्रेरित तो कहा ही जा सकता है। आखिर सरदार वल्लभ भाई पटेल, महात्मा गांधीजी या मालवीयजी जैसे व्यक्तित्व अचानक भाजपा को अपने से क्यों लगने लगे?
सम्मानों की मुल्क में लम्बी फेहरिस्त है। यहां हर कोई सम्मानित होना चाहता है। सम्मान की इस विषबेल ने समाज के हर उस पहलू को छू लिया है जहां उसकी जरूरत भी नहीं थी। राष्ट्र सम्मान से इतर गली-कूचों में होने वाले सम्मानों का स्याह सच बहुत हृदयविदारक है। हम समझ भी नहीं सकते कि हमारे सभ्य समाज का कितना पतन हो चुका है। सम्मानों की अंधी दौड़ बेशक मुफीद न हो पर दौड़ना हर कोई चाहता है। सम्मान के सारे मानक मजाक बन चुके हैं। हमारा सोशल समाज तय ही नहीं कर पा रहा कि उसे किस दिशा में जाना है। राष्ट्रनायक किसी दल विशेष की जागीर न होते हुए सबके अपने हैं। कोई भी राजनीतिक दल यदि उन पर अपना अधिकार जताता है तो यह उसकी संकुचित मानसिकता ही है। महानायक न केवल सारे राष्ट्र की बल्कि समूची मानवता की साझी धरोहर हैं लिहाजा धर्म, जाति अथवा राजनीतिक विचारधारा के आधार पर इनका बंटवारा नहीं किया जा सकता। हमारे महापुरुष ज्योति-पुंज हैं। उनके आलोक से ही सारा संसार प्रकाशमान है। उस प्रकाश में हम अपने आपको देखें और अपने आगे के रास्ते को भी।

Sunday 4 January 2015

‘धोनी के नि:स्वार्थ फैसले का सम्मान करें, कोहली को समय दें ’

सिडनी। भारतीय क्रिकेट टीम के निदेशक रवि शास्त्री का मानना है कि नये कप्तान विराट कोहली को अपनी आक्रामकता सही दिशा में लगानी चाहिये। उन्होंने यह भी कहा कि टेस्ट क्रिकेट से सही समय पर संन्यास के महेंद्र सिंह धोनी के निस्वार्थ फैसले का सम्मान किया जाना चाहिये।
शास्त्री ने प्रेस ट्रस्ट को दिये इंटरव्यू में कहा कि कोहली की आक्रामकता में कोई खराब नहीं है लेकिन इसे भविष्य में युवा टीम को एक खतरनाक टीम के रूप में ढालने के लिये इस्तेमाल किया जाना चाहिये। उन्होंने कहा कि कोहली युवा कप्तान है जो समय के साथ बेहतर क्रिकेटर और कप्तान बनेंगे। उन्होंने इन अटकलों को भी खारिज किया कि कोहली और उनकी बढ़ती नजदीकियों की वजह से धोनी ने टेस्ट क्रिकेट से तुरंत प्रभाव से विदा ली। उन्होंने हालांकि स्वीकार किया कि आस्ट्रेलिया के खिलाफ टेस्ट शृंखला के बीच में अचानक संन्यास का धोनी का फैसला उनके और टीम के लिये हैरानी भरा था। शास्त्री ने हालांकि कहा कि उनके इस फैसले की टाइमिंग को लेकर सवाल उठाने वालों को इल्म नहीं है कि धोनी ने भारतीय क्रिकेट को क्या दिया है। उन्होंने अगले महीने वनडे विश्व कप में भारतीय टीम के साथ पूर्णकालिक भूमिका निभाने के भी संकेत दिये।
सवाल : विराट कोहली अगले कप्तान हैं। क्या आपको लगता है कि उन्हें अपनी आक्रामकता पर थोड़ा अंकुश लगाना चाहिये?
जवाब : उसकी आक्रामकता में क्या गलत है? यदि वह तीन टेस्ट में सिर्फ पांच रन बनाता तो मैं उससे बात करता। लेकिन वह शृंखला में 500 रन पूरे करने से सिर्फ एक रन पीछे है लिहाजा वह सही रास्ते पर है जो टीम के और उसके लिये उपयोगी साबित हो रहा है। वह आक्रामक क्रिकेटर है और इन तेवरों के साथ सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर रहा है।
मेलबर्न में सर विवियन रिचर्ड्स ने उसके तेवरों की तारीफ की थी। पूरा आस्ट्रेलिया उसका मुरीद हो गया है क्योंकि उन्होंने अर्से से ऐसा कोई क्रिकेटर नहीं देखा जो उनके देश में उनके खिलाफ इतना आक्रामक रहा हो। विराट युवा है और युवा कप्तान है लिहाजा वह समय के साथ सीखेगा। वह बेहतर क्रिकेटर के रूप में परिपक्व होगा।
सवाल : उस पल के बारे में बताइये जब एमएस धोनी ने टीम के सामने अपने संन्यास का ऐलान किया? ड्रेसिंग रूम की प्रतिक्रिया क्या थी?
जवाब : सभी हैरान थे। मैच खत्म हो चुका था और वह मैच के बाद की गतिविधियां पूरी करके आया था। वह ड्रेसिंग रूम में आया और कहा कि टेस्ट क्रिकेट में उसका समय पूरा हो चुका है। हम सभी स्तब्ध रह गए। जिस तरीके से उसने कहा, उससे जाहिर था कि यह सोच समझकर लिया गया फैसला है। उसने अपने परिवार से भी पहले साथी खिलाड़ियों को बताया। वह हमारे साथ ईमानदार रहा और मेरी नजर में उसकी इज्जत कई गुना बढ़ गई।
 हम सभी के लिये यह हैरानी भरी खबर थी। उसे पता था कि क्या कहना है और वह इसके प्रति ईमानदार था । धोनी भारत के महानतम क्रिकेटरों में से हैं। उसने कभी आंकड़ों का पीछा नहीं किया। वह खुद के साथ ईमानदार रहा और टीम इसके लिये उसका सम्मान करती है। उसने इस युवा टीम के सामने मिसाल कायम की है।
सवाल : आपने कमेंट्री बाक्स से धोनी को देखा और फिर टीम निदेशक के तौर पर भी। आप टेस्ट कप्तान के रूप में उसे कैसे देखते हैं , खासकर 2011-12 में 8.0 से मिली हार और विदेश में टेस्ट क्रिकेट में रिकार्ड को ध्यान में रखते हुए?
जवाब : उसके लिये यह कठिन काम था। विदेश में टेस्ट क्रिकेट में 20 विकेट लेना सबसे अहम है। हाल ही में भारत जीत के करीब पहुंचा लेकिन जीत नहीं सका। दक्षिण अफ्रीका और न्यूजीलैंड में भी जीत सकते थे। यहां भी तीनों मैचों में अच्छा ख्ोला और कोई भी जीत सकते थे। यह युवा टीम है जो अभी सीख रही है।
 धोनी को हम जानते हैं और वह जीतना चाहता था लेकिन उसे लगा कि टेस्ट क्रिकेट में उसका समय पूरा हो गया है। उसे लगा कि खेलते रहकर वह टीम के साथ इंसाफ नहीं करेगा। उसने देखा कि कोहली कमान संभालने को तैयार है और रिधिमान साहा विकेट के पीछे उसकी जगह ले सकता है। उसने देखा कि भविष्य सुरक्षित हाथों में है।  धोनी ने अपना सब कुछ भारतीय क्रिकेट को दिया, हर प्रारूप में। मुझे यकीन है कि वह कुछ साल और राजा की तरह वनडे क्रिकेट खेलेगा और विरोधी टीमों को नाकों चने चबवा देगा।
सवाल : दिसंबर 2012 में नागपुर में इंग्लैंड से हारने के बाद धोनी ने 2013 के आखिर में टेस्ट क्रिकेट से संन्यास के संकेत दिये थे लेकिन उन्होंने पूरे एक साल इसका इंतजार किया । आपको इसके पीछे क्या कारण नजर आता है ?
जवाब : मुझे लगता है कि उसने काफी सोच समझकर यह फैसला किया। पिछले एक साल में इस टीम पर काफी मेहनत की गई है और उसे लगा कि यह समय एक युवा कप्तान को कमान सौंपने का है। उसने यह सुनिश्चित किया कि उसके जाने के बाद कप्तानी को लेकर अटकलबाजी ना हो। वह बिना कारण नहीं जा रहा है और ना ही टाइमिंग खराब है। यह धोनी का निस्वार्थ फैसला है।
 देश के लिये 25 साल खेलने के बाद सचिन तेंदुलकर अपवाद थे और सही भी है लेकिन अतीत में कई ऐसे खिलाड़ी हुए हैं जो आंकड़ों के लिये खेले या भव्य विदाई समारोह की ख्वाहिश में खेलते रहे। लेकिन कुछ ऐसे भी थे जिन्हें इसकी चाह नहीं थी और धोनी उन्हीं में से एक है।लोग उसके इरादों को लेकर अटकलें लगा रहे हैं और कह रहे हैं कि उसने डूबते जहाज को छोड़ दिया। खेलने की बात तो छोड़ दीजिये, क्या इन लोगों ने उसका पांच प्रतिशत क्रिकेट देखा भी है जितना धोनी ने खेला है।
सवाल : विश्व कप 2015 के बाद डंकन फ्लेचर का कार्यकाल पूरा हो जायेगा। क्या आप टीम के साथ पूर्णकालिक भूमिका निभाने को तैयार हैं?
जवाब : टीम निदेशक के तौर पर मेरा काम बीसीसीआई के सामने टीम के हित में सुझाव रखना है। विश्व कप के बाद भी मैं बीसीसीआई को यही बताऊंगा कि भारतीय क्रिकेट टीम से सर्वश्रेष्ठ नतीजे लेने के लिये क्या और करना होगा। उसके बाद बोर्ड तय करेगा कि भारतीय टीम के सर्वश्रेष्ठ हित में क्या है और वह मुझे भी स्वीकार्य होगा। अभी उसमें काफी समय है और हमें अगले तीन महीने काफी महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खेलना है।
सवाल : पिछले छह महीने में भारतीय खिलाड़ियों ने ड्रेसिंग रूम और अभ्यास सत्रों में आपके योगदान की तारीफ की है। आपने उनसे क्या कहा?
जवाब : मेरा काम ड्रेसिंग रूम में उन्हें अनुकूल माहौल देना है। हम सभी इसी कोशिश में लगे हैं, चाहे डंकन फ्लेचर हो, आर श्रीधर, बी अरुण या संजय बांगड। हम उनसे क्रिकेट की भाषा में बात करते हैं। क्रिकेट में अनुभव ना बेचा जा सकता है और ना ही खरीदा जा सकता है। आप खेलकर ही हासिल कर सकते हैं लिहाजा हम चाहते हैं कि सब कुछ भुलाकर वे जीतने के लिये खेलें। जब मैं सबसे पहले टीम से जुड़ा तो मुझे लगा कि वे खेल का मजा नहीं ले रहे हैं तो मेरा निजी लक्ष्य उनके खेल में उसे लौटाना था। 

भिवानी का नहीं कोई सानी

मंदिरों के शहर भिवानी को छोटी काशी व मिनी क्यूबा का नाम दिए जाने के बाद अब अगर खिलाड़ियों की नगरी कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह अर्जुन, भीम व द्रोणाचार्य अवार्डियां की नगरी बन चुकी है। यहां के खिलाड़ी बॉक्सिंग, एथलेटिक्स, कुश्ती, कबड्डी व बैडमिंटन में भी दम-खम दिखा चुके हैं, बल्िक यूं कहें की दम-खम दिखा रहे हैं और खिलाडिय़ों का जज्बा भी ऐसा कि प्रदेश में कोई उनका सानी नहीं।
भिवानी ने देश को अनेक खिलाड़ी दिए। गत 7-8 साल से तो यहां के खिलाड़ियों ने देश का परचम लहराया है। भिवानी के मुक्केबाजों ने तो विरोधियों को धूल चटाई ही, साथ ही यहां की पहलवान छोरियों ने भी देश का नाम विश्व मानचित्र पर चमकाया है। भिवानी के गांव बलाली की 5 पहलवान बहनों ने एक साधारण परिवार से उठकर देश का नाम पूरी दुनिया में रोशन किया। वहीं इस साल मुक्केबाजी जगत में स्वीटी बूरा के रूप में एक नया सितारा उभरकर सामने आया, जिसने सीनियर नेशनल में अपने मुक्के की धाक जमाई तो दक्षिण कोरिया के जेजू में विश्व महिला मुक्केबाजी में चांदी का पदक लाकर सबको हैरत में डाला व देश का नाम चमकाया। अंतर्राष्ट्रीय महिला मुक्केबाज कविता चहल व पूजा बोहरा ने भी अपने मुक्के का लोहा मनवाया है। वहीं स्पेट खेलों में भी यहां के नौनिहालों ने नाम रोशन किया है मंदिरों के शहर भिवानी को छोटी काशी व मिनी क्यूबा का नाम दिए जाने के बाद अब अगर ह्यअर्जुनों की हस्तिनापुरह्ण कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। प्रदेश के अकेले 13 अर्जुन अवार्डी भिवानी ने दिए हैं। यहां तक कि छोटी काशी ने 2 द्रोणाचार्य अवार्डी भी दिए हैं। जो कि अब देश के किसी भी प्रांत के इतने अवार्डी नहीं हैं। यहां अर्जुन अवार्डी के साथ-साथ भीम अवार्डी भी हैं, जिनकी संख्या 2 दर्जन है और अंतर्राष्ट्रीय व राष्ट्रीय स्तर पर पदक झटकने वाले ह्कुलह्ण व ह्यसहदेवोंह्ण की बात की जाए तो ऐसे खिलाड़ी भी यहां बहुतायत में हैं। शिक्षा के साथ-साथ भिवानी ने खेल जगत में 70 के दशक से अपना रुतबा दिखाना शुरू किया था। उसी दशक में हवासिंह सांगवान को बाक्सिंग के क्षेत्र में अर्जुन अवार्ड दिया गया था। अब तक सबसे ज्यादा बॉक्सिंग खेल में अर्जुन अवार्डी हैं। इनके अलावा 3 एथलेटिक्स, कबड्डी और एक बैडमिंटन खेल में महायोद्धा अर्जुन अवार्ड जीत चुके हैं।
24 अर्जुन अवार्डी
जिले में ह्यअर्जुनोंह्ण के बाद 24 खिलाड़ी भीम अवार्ड हासिल कर चुके हैं जिनमें विश्व प्रसिद्ध मुक्केबाज संजय कुमार, मीना कुमारी, दिनेश और विजेंद्र, वीरेंद्र, मनोज, राममेहर के नाम शामिल हैं। ये बात तो थी अर्जुन व भीम अवार्डियों की।  अब बात करते हैं द्रोणाचार्य अवार्ड धारकों की तो चेलों को तराशकर अंतर्राष्ट्रीय और ओलंपिक गेम्स तक भेजने वाले बॉक्सिंग कोच जगदीश सिंह को वर्ष 2010 में द्रोणाचार्य अवार्ड और कैप्टन हवा सिंह को 70 के दशक में अर्जुन अवार्ड दिया गया था। यह अवार्ड उस खेल प्रशिक्षक को दिया जाता है जिस कोच के कई खिलाड़ी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गोल्ड व अन्य पदक जीत चुके हों।
ये दिखा चुके हैं जौहर
अब तक बाक्सिंग में हवा सिंह, राजकुमार, महताब सिंह, विजेंद्र सिंह, अखिल कुमार, जितेंद्र और दिनेश कुमार अर्जुन अवार्ड जीत चुके हैं। इनके अलावा अन्य खेलों में अनिल कुमार, शक्ति सिंह, भीम सिंह, राममेहर और रोहित भाकर को भी महायोद्धा के अवार्ड से नवाजा जा चुका है। उक्त अवार्ड हर साल केंद्र सरकार देश के केवल 15 खिलाडिय़ों को ही देती है, जिनके राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्पर्धाओं में पदक होते हैं।
300 खिलाड़ी जीत चुके हैं राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय मेडल
यहां के साई हॉस्टल के प्रभारी वृषभान से जब बातचीत की गई तो उन्होंने बताया कि यहां के खिलाड़ियों में से 13 अर्जुन अवार्डी हैं। 4 खिलाड़ियों को गत वर्ष भीम अवार्ड से नवाजा गया। नकुल और सहदेवों, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर के पदक विजेताओं की भी कमी नहीं है। भिवानी के विभिन्न खेलों में 300 खिलाड़ी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गोल्ड मेडल जीत चुके हैं। इनके अलावा कॉमनवेल्थ गेम्स और राष्ट्रमंडल गेम्स में करीब 10 से ज्यादा खिलाड़ी गोल्ड और रजत पदक जीत चुके हैं। प्रदेश स्तर पर करीब 500 से ज्यादा खिलाड़ी गोल्ड मेडल जीत चुके हैं। पदक विजेताओं के इतने नाम हैं कि साई हॉस्टल के कमरे में लगे रोल ऑफ ऑनर के बोर्ड भी छोटे पड़ गए हैं। हॉस्टल के कमरे में अब तक पदक विजेताओं के नामों के लिए 8 रोल ऑफ ऑनर के बोर्ड लगाए जा चुके हैं।
इनका मुकाबला नहीं
भीम अवार्डी संजय कुमार का कहना है कि खिलाड़ियों की मंडी में भिवानी का स्थान सबसे आगे है।  अगर भिवानी के खिलाड़ियों को सुविधाएं अधिक दी जाएं तो इन खिलाड़ियों का कहीं कोई मुकाबला नहीं है।
बेमिसाल हैं खिलाड़ी
भिवानी के जिला खेल अिधकारी छाजू राम गोयल ने कहा कि यहां के खिलाड़ी बेमिसाल हैं। इनका कोई मुकाबला नहीं है। ऐसे में अगर भिवानी को हस्तिनापुर की वाकई में संज्ञा दी जाए तो शायद कोई बड़ी बात नहीं होगी।
सबसे ज्यादा अवार्ड मिले
साई होस्टल के मुक्केबाजी कोच, विजेन्द्र व अखिल सरीखे खिलाड़ियों के गुरु व भिवानी बॉक्सिंग क्लब के प्रबंधक द्रोणाचार्य अवार्डी जगदीश सिंह ने माना कि भिवानी को छोटी काशी और अब मिनी क्यूबा के नाम से जाना जाता है। उन्होंने बताया कि भिवानी के खिलाड़ियों ने सबसे ज्यादा अवार्ड अर्जित किए हैं। उन्होंने भी माना कि अब भिवानी को अर्जुनों की हस्तिनापुर कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
खिलाड़ियों को नयी सरकार से उम्मीदें
भिवानी की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अभूतपूर्व उपलब्धियों के बावजूद क्षेत्र को अब तक खेल विश्वविद्यालय नहीं मिल पाया है। खेल विश्वविद्यालय को लेकर समय-समय पर राजनीति जरूर हुई है। कांग्रेस सरकार के समय भिवानी में खेल विश्वविद्यालय तो दूर यहां तो कोई रिजनल सेंटर तक नहीं खोला गया। अब देखना यह है कि भाजपा सरकार यहां के खिलाड़ियों की कितनी सुध लेती है। खेलमंत्री अनिल विज से अब खिलाड़ियों का उम्मीद जगी है कि वह उनके लिये और अधिक सुविधायें उपलब्ध करायेंगे ताकि वे खेल में और सुधार कर सकें।
अजय मल्होत्रा

Saturday 3 January 2015

कुमार संगकारा 12000 टेस्ट रन के एलीट क्लब में शामिल

वेलिंगटन : श्रीलंका के क्रिकेट कुमार संगकारा आज यहां बल्लेबाजों के एलीट क्लब का हिस्सा बने जब उन्होंने अपने करियर में 12000 टेस्ट रन पूरे किए। संगकारा यह उपलब्धि हासिल करने वाले दुनिया के सिर्फ पांचवें बल्लेबाज हैं।
बायें हाथ के 37 वर्षीय बल्लेबाज संगकारा ने न्यूजीलैंड के खिलाफ वेलिंगटन में पहले टेस्ट की पहली पारी में पांच रन बनाते ही यह उपलब्धि हासिल की। संगकारा ने न्यूजीलैंड के खिलाफ दो टेस्ट की सीरीज की शुरुआत 11988 रन के साथ की थी। क्राइस्टचर्च में पहले टेस्ट में वह छह और एक रन की पारियां ही खेल पाए थे और उन्हें 12000 रन पूरे करने के लिए पांच रन की दरकार थी।
वर्ष 2000 में टेस्ट करियर की शुरुआत करने वाले संगकारा ने 130 टेस्ट 37 शतक की मदद से 58 से अधिक की औसत से रन बनाए हैं। उनका उच्चतम स्कोर बांग्लादेश के खिलाफ 319 रन है।
वह टेस्ट क्रिकेट में सर्वाधिक रन बनाने वालों की सूची में पांचवें स्थान हैं। भारत के महान बल्लेबाज सचिन तेंदुलकर 200 टेस्ट में 53.78 की औसत से 15921 रन के साथ सर्वाधिक रन बनाने वालों की सूची में शीर्ष पर हैं।
तेंदुलकर के बाद आस्ट्रेलिया के रिकी पोंटिंग (13378), दक्षिण अफ्रीका के जैक कैलिस (13289) और भारत के राहुल द्रविड़ (13288) का नंबर आता है। पिछले महीने संगकारा वनडे क्रिकेट में 13000 रन पूरे करने वाले दुनिया के चौथे बल्लेबाज बने थे।

सम्मान पर फिर बखेड़ा

साइना की पद्म पुरस्कार की अर्जी खारिज
नई दिल्ली। ओलंपिक कांस्य पदक विजेता साइना नेहवाल खेल मंत्रालय के नियमों का हवाला देकर इस साल प्रतिष्ठित पद्म भूषण पुरस्कार के लिए उनका आवेदन खारिज किए जाने से निराश है।
भारतीय बैडमिंटन संघ (बाई) ने पिछले साल अगस्त में खेल मंत्रालय को साइना के नाम की सिफारिश की थी लेकिन मंत्रालय ने दो बार के ओलम्पिक पदक विजेता पहलवान सुशील कुमार को इस पुरस्कार के लिए चुना है क्योंकि उन्हें लगता है कि वह इससे अधिक पात्र उम्मीदवार हैं। वर्ष 2010 में पद्मश्री से सम्मानित साइना ने कहा, मैंने सुना है कि विशेष मामले के तौर पर सुशील कुमार का नाम पुरस्कारों के लिए भेजा गया है जबकि खेल मंत्रालय ने गृह मंत्रालय को मेरा नाम नहीं भेजा है। मंत्रालय के दिशानिर्देश कहते हैं कि दो पद्म पुरस्कारों के बीच में पांच साल का अंतर होना चाहिए। इसलिए अगर वे उसका नाम भेज सकते हैं तो उन्होंने मेरे नाम की सिफारिश क्यों नहीं की, मैंने पांच साल का समय पूरा कर लिया है। मुझे बुरा लग रहा है। 24 वर्षीय साइना ने दावा किया कि पिछले साल इसी आधार पर उनका आवेदन खारिज कर दिया गया था लेकिन इस साल मंत्रालय ने सुशील के नाम की सिफारिश करने का फैसला किया जबकि उसने पांच साल के अंतर का नियम पूरा नहीं किया है। सुशील को 2011 में पद्मश्री मिला था।
साइना ने पूछा, पिछले साल जब मैंने पद्मभूषण के लिए अपनी फाइल भेजी थी तो मंत्रालय ने कहा था, नहीं साइना तुम इस साल आवेदन नहीं कर सकती क्योंकि तुमने इसके लिए पांच साल पूरे नहीं किए हैं। इसलिए मैंने इस बार पुरस्कारों के लिए दोबारा आवेदन दिया। तो फिर इस बाद मेरे नाम की सिफारिश क्यों नहीं की गई। उन्होंने कहा, 2010 के बाद मैंने राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण पदक, बैडमिंटन में पहला ओलंपिक पदक, करियर की सर्वश्रेष्ठ दूसरी रैंकिंग और काफी सारे सुपर सीरीज खिताब जीते इसलिए मुझे लगता है कि मैं भी हकदार थी। लेकिन अगर ऐसे में भी नाम नहीं भेजा जाता को बुरा लगता है।
साइना ने कहा, मैं उच्चाधिकारियों के साथ कल बात की। उन्होंने कहा कि सुशील का नाम पहले ही भेजा जा चुका है। मैं सिर्फ उनसे इस मामले पर गौर करने का आग्रह कर सकती हूं। अगर हम दोनों को पुरस्कार मिल सकता है तो अच्छा रहेगा। अगर उसका नाम विशेष मामले के तौर पर भेजा जा सकता है तो मेरा नाम क्योंकि नहीं भेजा गया क्योंकि अगर वे नियमों के मुताबिक भी चलते तो मेरा नाम भेजा जाना चाहिए था।
साइना ने कहा कि अगर उन्हें और सुशील दोनों को पुरस्कार मिलता है तो उन्हें खुशी होगी। उन्होंने कहा, सुशील महान खिलाड़ी हैं लेकिन पदक तो पदक होता है। हम दोनों ने ओलम्पिक में पदक जीते हैं। अगर उन्हें उस विशेष मामले के तौर पर पुरस्कार देना था तो वे 2012 ओलम्पिक के बाद ऐसा कर सकते थे। वे अब ऐसा क्यों कर रहे हैं। मैं निराश हूं।

स्वस्थ रहना है तो कुश्ती लड़ें: मुलायम सिंह

अपनी पहलवानी के साथ-साथ सेहत का भी ध्यान रखें: मुख्यमंत्री अखिलेश यादव
सैफई (इटावा)। स्वस्थ रहना है तो कुश्ती लड़ें। पहलवानी करने से शरीर एकदम स्वस्थ और फु र्तीला रहता है। पहलवानी करने से कोई भी बीमारी पास नहीं आती। इसलिये लोग अपने शरीर को स्वस्थ रखने के लिये पहलवानी जरूर करें यह बात  समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने रणवीर सिंह स्मृति सैफई महोत्सव में आयोजित नत्थू सिंह स्मृति अखिल भारतीय दंगल में खेलप्रेमियों से कही।
 इस अवसर पर मुलायम सिंह यादव ने कहा कि प्रदेश सरकार खिलाड़ियों को हर मुमकिन मदद देगी। सरकार खेलों की दिशा में सकारात्मक सोच से काम कर रही है। सपा प्रमुख ने कहा कि देश को आगे बढ़ाने के लिये सबसे पहले हमें महिलाओं का पिछड़ापन दूर करना पड़ेगा। एक महिला के साक्षर होने से दो परिवारों का सम्मान बढ़ता है। एक परिवार वो है जिसमे महिला रहती है और एक परिवार वो है जिसमें महिला जाती है। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने प्रतियोगिता में भाग लेने आये बड़ी संख्या में उपस्थित पहलवानों से कहा कि वह अपनी पहलवानी के साथ-साथ सेहत का भी ध्यान रखें। उन्होंने सभी पहलवानों को बधाई दी और उत्साहवर्धन किया। लोक निर्माण मंत्री शिवपाल सिंह यादव ने कुश्ती प्रतियोगिताओं को प्रोत्साहन दिये जाने पर बल देते हुए कहा कि कुश्ती हमारा परम्परागत प्राचीन खेल है। उन्होंने पहलवानों के बीच जाकर उनका उत्साहवर्धन किया। इस अवसर पर सांसद प्रो़ रामगोपाल यादव, सांसद, अध्यक्ष सैफई महोत्सव समिति धर्मेंन्द्र यादव, सांसद तेजप्रताप यादव उपस्थित जनप्रतिनिधियों, गणमान्य नागरिकों ने पहलवानों का उत्साहवर्धन किया। खेलमंत्री रामकरन आर्य ने पहलवानों से हाथ मिलाया और विजेता पहलवानों को नकद पुरस्कार देकर सम्मानित किया।

जिजि ने दागे मोदी सरकार पर सवाल

थामसन ने भारतीय खेल प्राधिकरण का महानिदेशक पद छोड़ा
भारतीय खेल परिदृश्य में नियोजन का अभाव है। उन्होंने कहा , भारत में समस्या बुनियादी ढांचे की कमी नहीं है। यहां पर्याप्त बुनियादी ढांचा है लेकिन उसका इस्तेमाल नहीं होता।

भारतीय खेल प्राधिकरण के महानिदेशक जिजि थामसन ने सरकार द्वारा उनकी पदोन्नति में नाइंसाफी करने का हवाला देकर तुरंत प्रभाव से पद से इस्तीफा दे दिया है। थामसन ने कहा, मैंने छह महीने तक इंतजार किया और अब अधिक इंतजार नहीं करने का फैसला किया है। सरकार से बार-बार आश्वासन के बावजूद कुछ नहीं हुआ। शायद मेरा सरकार में कोई सरपरस्त नहीं है, यही कारण है। वह गलत समय पर पद छोड़ने का मलाल है, चूंकि रियो ओलम्पिक 2016 में होना है।
1980 की बैच के आईएएस अधिकारी थामसन ने मार्च 2013 में साइ का प्रभार लिया था। उन्होंने कहा कि खेल सचिव बनाने के वायदे के बावजूद केन्द्र सरकार ने उनकी पदोन्नति अभी तक नहीं की है। उन्होंने मंगलवार को अपने मूल कैडर में वापस लौटने का अनुरोध किया था। वह 31 जनवरी तक केरल के मुख्य सचिव का पद संभाल सकते हैं। थामसन ने कहा, मैंने छह महीने तक इंतजार किया और अब अधिक इंतजार नहीं करने का फैसला किया है। सरकार से बार-बार आश्वासन के बावजूद कुछ नहीं हुआ। शायद मेरा सरकार में कोई सरपरस्त नहीं है, यही कारण है। मुझे कम से कम ओलंपिक तक पद पर बने रहने की जरूरत थी। थामसन ने कहा, ओलंपिक में डेढ़ साल रह गया है और ऐसे समय में साइ महानिदेशक के तौर पर नये व्यक्ति का आना नुकसानदेह होगा। चाहे वह मैं हूं या कोई और। उन्होंने कहा कि खेलमंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने उनकी पदोन्नति की पूरी कोशिश की लेकिन वह ऐसा नहीं कर सके। ऐसा समझा जाता है कि केरल में उनके खिलाफ लंबित एक अदालती मामला उनकी पदोन्नति की राह में बाधा बन गया है। वह 1991 के पामोलिन तेल आयात घोटाले के आरोपियों में से एक थे जब वह केरल राज्य नागरिक आपूर्ति निगम के निदेशक थे। थामसन ने कहा, मुझे जुलाई में केरल उच्च न्यायालय से आदेश मिला है जिसमें साफ तौर पर कहा है कि यदि कोई आईएएस अधिकारी पदोन्नति का हकदार है तो यह उसके मार्ग में बाधा नहीं होना चाहिये। 25 बरस बीत चुके हैं और राज्य सरकार ने भी पिछले साल मुझे आरोपियों की सूची से बाहर कर दिया है। साइ के साथ अपने कार्यकाल के बारे में उन्होंने कहा कि भारतीय खेल परिदृश्य में नियोजन का अभाव है। उन्होंने कहा , भारत में समस्या बुनियादी ढांचे की कमी नहीं है। यहां पर्याप्त बुनियादी ढांचा है लेकिन उसका इस्तेमाल नहीं होता। 

Friday 2 January 2015

अधकचरे संकल्पों का दर्द

हम हर नये साल कुछ संकल्प लेते हैं। कुछ पूरे होते हैं तो बहुत से इच्छाभाव में कमी के चलते एक कदम भी आगे नहीं बढ़ पाते। जनता जनार्दन को बेहतर जीवन देने की जवाबदेही हर सरकार की होती है। नरेंद्र मोदी सरकार तो सबका साथ, सबका विकास की कसम लेकर सत्तारूढ़ हुई है वह भी अपने लाव-लश्कर के साथ। जनता सरकार चुनती है, इस गरज से कि उसकी अपेक्षाओं का ख्याल रखा जाएगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से जनता जनार्दन को बड़ी उम्मीदें हैं। अब उन्हें सोचना है कि आम आदमी को रोटी, कपड़ा और मकान कैसे मिले। सीमित संसाधनों के बीच मोदी सरकार के सामने जहां मुल्क का पेट भरना कठिन चुनौती है वहीं शांति, सुरक्षा, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि की लचर व्यवस्था कोढ़ में खाज का काम कर रही है।
तीन दशक बाद मुल्क की जनता ने गैर कांग्रेस सरकार पर भरोसा जताया है। लोकतंत्र की विसंगतियों से आजिज जनता अब मोदी से सुशासन, पारदर्शिता व जवाबदेही चाहती है। भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में नरेन्द्र मोदी के उदय की वजह उनमें भरा अपार उत्साह है। मोदी ने अपने अब तक के कार्यकाल में जनता की उम्मीदों को जिन्दा रखा है। चालू साल में उन्हें जनता की उम्मीदों को पर लगाने होंगे। मुल्क का विकास ऐसा हो जिसमें गरीब राहत महसूस करे। चालू साल यह तय करेगा कि मोदी सरकार का एजेण्डा वाकई सबका साथ, सबका विकास है या फिर घर वापसी का सिर्फ एक चोचला। मोदी सरकार ने अब तक विकास की जो प्राथमिकताएं तय की हैं उनमें उनकी स्वच्छता की मुहिम को सबने सराहा है। अब जनता जनार्दन की इच्छा है कि मोदी व्यवस्था की सफाई और पारदर्शी सुशासन पर चाबुक चलाएं। मोदी सरकार ने जंग खा रहे कुछ नियम-कायदों की पोटली बंधवाने के साथ योजना आयोग का नाम तो बदलवा दिया पर परिवर्तन की उनकी मंशा तभी लोगों को भाएगी जब उसका लाभ गरीब तबके को मिलेगा। सरकार के सामने समस्याएं आगे भी आएंगी इस पर नजर रखते हुए मोदी को कुछ कड़े फैसले लेने होंगे ताकि सत्ताधीशों के भेजे में यह बात पहुंचे कि मुल्क की आवाम अब जागरूक है और उसका मोहभंग होते देर नहीं लगेगी। देश में विकास की रफ्तार बढ़ना जरूरी है लेकिन विकास की अंधी दौड़ में समाज के सरोकारों पर आंच नहीं आनी चाहिए। विकास का मतलब कारपोरेट व औद्योगिक घरानों की समृद्धि नहीं हो सकती। सरकार के क्रिया-कलापों में पारदर्शिता के साथ-साथ समाज के समग्र विकास का मॉडल हो। 2014 में भारत ने मंगल अभियान व स्वदेशी तकनीक से निर्मित प्रक्षेपण का दुनिया में जो बिगुल बजाया है उसके लाभ में सबकी भागीदारी होनी चाहिए। मेक इन इण्डिया का नारा तभी फलीभूत हो सकता है जब समाज में लैंगिक भेद की समाप्ति के साथ आधी दुनिया को सम्मान के साथ जीने का अवसर तो हर हाथ को काम मिले। आज मुल्क का किसान परेशान है। प्राकृतिक आपदाओं से त्रस्त किसान को उसकी उपज का सही दाम नहीं मिल रहा तो शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति भी संतोषजनक नहीं है।
भारत ने वर्ष 2000 में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा निर्धारित सहस्राब्दी लक्ष्य के अनुबंध पर हस्ताक्षर किए थे। भारत ने तब संकल्प लिया था कि 2015 तक देश  में सभी साक्षर और निरोग होंगे। 14 साल पहले भारत ने देश के सकल घरेलू उत्पाद का छह प्रतिशत शिक्षा और तीन प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च किए जाने का भरोसा जताया था। सरकार की मंशा थी कि मुल्क में प्राथमिक शिक्षा और बुनियादी चिकित्सा सुविधा का लाभ अंतिम व्यक्ति तक पहुंचे। सरकारी संकल्प के 14 साल बीत गये लेकिन न देश साक्षर हुआ और न ही हम निरोग हो पाए। सहस्राब्दी लक्ष्य की मंशा के मुताबिक जनता को स्वास्थ्य का अधिकार तो पहले से ही है, किन्तु जो नीतियां आज बन रही हैं उनमें मरीज से कहीं अधिक दवा कम्पनियों और निजी अस्पतालों को ही लाभ है। एक तरफ सरकार विदेशी बीमा कम्पनियों के माध्यम से स्वास्थ्य बीमा को बड़े पैमाने पर प्रोत्साहित कर रही है तो दूसरी तरफ हमारे सरकारी अस्पताल बदहाली का शिकार हो रहे हैं। डॉक्टरों की दिलचस्पी निजी अस्पताल खोलने में है। इलाज महंगा है तो दवाईयों की कीमतें आसमान छू रही हैं। ऐसे में मोदी सरकार को सोचना चाहिए कि एक गरीब भारतीय को बेहतर स्वास्थ्य लाभ कैसे मिले?
शिक्षा के क्षेत्र में भी देश की स्थिति संतोषजनक नहीं है। मुल्क में प्राथमिक स्तर पर लाखों शिक्षकों की कमी है तो उच्च शिक्षा के क्षेत्र में फर्जीवाड़ा चरम पर है। शिक्षकों की कमी को दूर करने के लिए सभी राज्यों में ठेके पर शिक्षक नियुक्त किए जा रहे हैं भले ही उनका पदनाम कुछ भी हो। अफसोस इन शिक्षकों के प्रशिक्षण की भी कोई समुचित व्यवस्था नहीं है। आज सरकारी स्कूलों से लोगों का भरोसा लगभग उठ चुका है। वहां वही बच्चे पढ़ते हैं जो सब तरह से मजबूर हैं। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी स्थिति बेहद खराब है। मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी से अपेक्षा थी कि वे कल्पनाशीलता के साथ व्यवस्था में सुधार करेंगी पर उनका पूरा समय अनावश्यक विवादों में ही जाया हो रहा है। पण्डित जवाहर लाल नेहरू के समय में स्थापित जिन आदर्श शिक्षण संस्थाओं से निकलकर अनेकानेक भारतीयों ने दूर देशों में जाकर शोहरत हासिल की आज उन्हीं श्रेष्ठ संस्थाओं की स्वायत्तता खतरे में है। मोदी सरकार को तेली का काम तमोली से कराने की बजाय देशहित के मसलों को अपने योग्य सिपहसालारों के हाथ सौंपना चाहिए। कमल दल में योग्य लोगों की कमी नहीं है। मोदी सरकार अपने पारदर्शी कामकाज से अधकचरे संकल्पों का दर्द दूर कर सकती है।