Friday 27 December 2013

...रहम को तरसती जिन्दगी


सियासत बुरी बला है, यदि यह न होती तो शायद मुल्क के अमन को कभी कोई राजनीतिक दल आग न लगा पाता। मुजफ्फरनगर दंगों को हुए तीन माह से अधिक समय बीत चुका है लेकिन वहां की आवाम आज भी खून के आंसू रो रही है। जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव करीब आते जा रहे हैं, राजनीतिक दल मुजफ्फरनगर को लेकर घड़ियाली आंसू बहाने का कोई मौका जाया नहीं करना चाहते। हर दल पीड़ितों का मसीहा बनने की कोशिश तो कर रहा है पर लोगों की पीड़ा कम होने की बजाय बढ़ती ही जा रही है। अब भी वहां दुर्दशा ऐसे पसरी हुई है, मानो इन पीड़ितो की कोई सरकार नहीं है। तीन माह पहले भी राजनीतिक दलों ने पीड़ितों की पीड़ा हरने की खूब बातें की थीं और आज भी खूब तमाशा हो रहा है। राजनीतिक दल एक-दूसरे पर जहां आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं वहीं पीड़ित शिविरों को छोड़कर घर जाने को तैयार नहीं हैं।
शिविरों में रह रहे लोग सरकार और प्रशासन की अनदेखी, संवेदनहीनता, लापरवाही का बखान करते नहीं थक रहे जबकि राजनीतिक दल ऐसी बातें कर रहे हैं मानों वहां सब कुछ भला-चंगा हो। इन दंगों ने उस समाज का क्रूर चेहरा एक बार फिर उजागर कर दिया, जिसे हम सभ्य समझने की खुशफहमी लम्बे समय से पाले हुए हैं। राजनीतिक दलों ने मुजफ्फरनगर साम्प्रदायिक हिंसा की नाजुक घड़ी में संयम और समझदारी दिखाने के बजाय समाज का ध्रुवीकरण करने का उतावलापन अधिक दिखाया है। राजनीतिक दलों के इसी नतीजे का परिणाम है कि तीन महीने बाद भी पीड़ित आवाम किसी पर भी विश्वास करने की स्थिति में नहीं है। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी दंगा पीड़ितों के शिविरों में जाकर उनका हालचाल लेकर उन्हें अपने घर वापस लौटने की सलाह देते हैं तो समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव इसे सियासत की नजर से देख रहे हैं। बकौल मुलायम सिंह मुजफ्फरनगर दंगा पीड़ितों के लिये बनाये गये राहत शिविरों में अब कोई पीड़ित नहीं रह रहा है। जो लोग वहां हैं वे षड्यंत्रकारी हैं। यह भाजपा और कांग्रेस का षड्यंत्र है। भाजपा और कांग्रेस के लोग रात में जाकर पीड़ितों से कहते हैं कि बैठे रहो, धरना दो और लोकसभा चुनाव तक इसे मुद्दा बनाए रखो। हो सकता है मुलायम जो कह रहे हों वही सच हो पर उन्होंने यदि पीड़ितों के आंसू पोछने में उदारता दिखाई होती तो आज शिविरों में कोई शरणार्थी नहीं होता।
शिविरों में शरणार्र्थी खुद को सुरक्षित महसूस कर रहे हैं। उन्हें डर है कि अगर वे अपने गांव गए तो वापस उन्हें साम्प्रदायिक हिंसा का शिकार होना पड़ेगा। उनका यह डर दरअसल केन्द्र और प्रदेश सरकार की नाकामी का ही परिचायक है। यह सच है कि दंगों के बाद मृतकों के परिजनों और पीड़ितों को उत्तर प्रदेश सरकार तथा प्रधानमंत्री सहायता कोष से इमदाद के रूप में करोड़ों रुपए की सहायता राशि दी गई है, पर टके भर का सवाल यह है कि जो लोग अपने घर नहीं लौटना चाहते, उन्हें मुआवजा राशि देकर दूसरी जगह बसाने की व्यवस्था क्यों नहीं की गई? हालात बद से बदतर आखिर क्यों हैं? इन शिविरों में आज भी लगभग नौ सौ से अधिक बच्चे घुटनभरी जिन्दगी जी रहे हैं और 34 बच्चे ठण्ड के आगोश में समा चुके हैं। तीन माह पहले मुजफ्फरनगर में जो करुण क्रंदन हुआ उस पर राजनीतिक दल सियासत तो कर रहे हैं पर पीड़ितों के आंसू पोछने की जहमत उठाने को कोई तैयार नहीं है। किसी पर तोहमत लगाने से पहले प्रदेश सरकार ने यदि स्वविवेक से पीड़ितों की मदद की होती तो शायद सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप न करना पड़ता। देखा जाये तो सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद ही प्रदेश सरकार नींद से जागी और उसने अस्थायी अस्पताल बनाने से लेकर दूध, दवा व अन्य आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति करवाई। उत्तर प्रदेश में कितनी भीषण ठण्ड पड़ती है, यह सभी जानते हैं। हर वर्ष शीतलहर से कितने ही लोगों की मौत हो जाती है। दंगों के कारण अपनी जमीन से बेदखल लोग शिविरों में किन परिस्थितियों में रह रहे हैं, इससे सरकार का अनजान रहना चिन्ता की ही बात है।  ठण्ड के पहले एहतियात बरती गई होती तो मासूम बच्चे ठण्ड में ठिठुर-ठिठुर कर नहीं मरते। प्रदेश सरकार कह रही है कि बच्चे ठण्ड से नहीं बल्कि बीमारी से मरे हैं, पर बच्चे मरे तो हैं। दरअसल इन नौनिहालों का नाम भी दंगों के कारण मृत हुए लोगों की सूची में जोड़ा जाना चाहिए क्योंकि ये बच्चे संवेदनहीनता की परोक्ष हिंसा का शिकार हुए हैं। आश्चर्य की ही बात है कि तीन दर्जन से अधिक बच्चे मौत के आगोश में समा गये लेकिन किसी राजनीतिक दल ने इसे संज्ञान में नहीं लिया। मुल्क में इस बात को लेकर कोई हंगामा नहीं मचा कि आखिर क्यों मासूमों को साम्प्रदायिक ताकतों और सरकार की अनदेखी का खामियाजा अपनी जान देकर चुकाना पड़ा? जो भी हो, फिलहाल राजनीतिक दलों की निगाहें मुजफ्फरनगर पीड़ितों की तरफ कम आगामी आम चुनाव पर अधिक टिकी हुई हैं। राजनीतिक दल गठबंधन के सम्भावित स्वरूप को लेकर एक-दूसरे से मंत्रणा कर रहे हैं। देखा जाये तो फिलवक्त देश में बहुत कुछ हो रहा है, पर साम्प्रदायिकता का शिकार लोग पुन: सम्मान का जीवन बसर करें, उनके दिलों से दोबारा पीड़ित होने का खौफ खत्म हो, वे अपने रोजगार में फिर से लगें और किसी की दया पर गुजारा न करें, इसके लिए कोई ठोस प्रयास   होते नहीं दिख रहे। इसे विडम्बना ही कहेंगे कि केन्द्र तथा राज्य सरकार वोटों के ध्रुवीकरण में तो लगी हैं लेकिन फिलवक्त मुजफ्फरनगर के लोई, शामली के मदरसा तैमुल शाह, मलकपुर, बरनवी तथा ईदगाह शिविरों में घुट-घुट कर जी रहे 4783 लोगों के लिए किसी राजनीतिज्ञ के दिल में कोई जगह नहीं है। मुजफ्फरनगर को लेकर ये अल्फाज बरबस याद आते हैं:-
ये कैसी तौहीन-ए-शग्ले मस्ती है,
रहने वालों ये कैसी बस्ती है?
मौत को तो लोग देते हैं कांधा,
जिन्दगी रहम को तरसती है।

Saturday 21 December 2013

एथलेटिक्स: नाकामी भरे साल में डोपिंग का डंक

एथलेटिक्स में भारत के लिये इस साल एकमात्र उपलब्धि दूसरी बार एशियाई चैम्पियनशिप की मेजबानी रही जबकि डोपिंग प्रकरण और प्रशासनिक अनियमितताओं ने एक बार फिर खेल को शर्मसार किया।
राष्ट्रीय डोपिंग निरोधक एजेंसी द्वारा कराये गए टेस्ट में एथलेटिक्स में सबसे ज्यादा 23 खिलाड़ी पाजीटिव पाये गए। भारत को पुणे में तीन से सात जुलाई तक हुई एशियाई चैम्पियनशिप की शुरुआत से एक दिन पहले शर्मिंदगी झेलनी पड़ी जब शाटपुटर पी. उदय लक्ष्मी को डोप टेस्ट में पाजीटिव पाये जाने के कारण पीछे हटना पड़ा। एएफआई को फिर शर्मसार होना पड़ा जब उसने रिले धाविका अश्विनी अकुंजी को महिलाओं की चार गुणा 400 मीटर टीम में शामिल करने की कोशिश की। डोपिंग मामले में उसका दो साल का प्रतिबंध खत्म होने के कुछ दिन बाद ही यह प्रयास किया गया जिसे चैम्पियनशिप की तकनीकी टीम ने खारिज कर दिया। राष्ट्रीय रिकार्डधारी त्रिकूद खिलाड़ी रंजीत माहेश्वरी पांच साल पुराने डोप मामले के कारण विवाद में फंस गए। इसकी वजह से उन्हें अर्जुन पुरस्कार से वंचित रहना पड़ा और वह भी पुरस्कार समारोह से चंद घंटे पहले।  खेल मंत्रालय ने पाया कि वह 2008 में कोच्चि में राष्ट्रीय चैम्पियनशिप में डोप टेस्ट में नाकाम रहे थे। खेल मंत्रालय ने माहेश्वरी के बारे में यह अहम सूचना नहीं देने के लिये एएफआई को लताड़ा। एएफआई ने पहले तो पाजीटिव टेस्ट के बारे में इनकार किया लेकिन बाद में मंत्रालय को बताया कि कोच्चि में हुई राष्ट्रीय चैम्पियनशिप में वह डोप टेस्ट में पाजीटिव पाये गए थे लेकिन उसे वह फाइल नहीं मिल रही।
एएफआई ने जनवरी 2009 में माहेश्वरी के नियोक्ता रेलवे खेल संवर्धन बोर्ड को लिखे पत्र में उसके निलंबन की जानकारी दी थी जो इस मामले में अहम सबूत साबित हुआ। इससे पहले एएफआई ने चीन के नानजिंग में 16 से 28 अगस्त तक हुए एशियाई युवा खेलों में अधिक उम्र के खिलाड़ी भेज दिये जिससे 17 ट्रैक और फील्ड खिलाड़ियों को लौटना पड़ा। एथलेटिक्स और भारोत्तोलन में एक जनवरी 1997 को या उसके बाद पैदा हुए खिलाड़ी ही भाग ले सकते थे जबकि बाकी खेलों में उम्र संबंधी योग्यता शर्तें अलग थीं।       एएफआई अधिकारियों ने 1996 में जन्में 17 खिलाड़ियों को भेज दिया जिन्हें आयोजकों ने अयोग्य करार दिया। भारतीय खेल प्राधिकरण ने इस पर सफाई मांगी और अयोग्य खिलाड़ियों की यात्रा पर खर्च हुए 10 लाख रुपये का मुआवजा भी मांगा। भारत ने पुणे में 20वीं एशियाई चैम्पियनशिप की मेजबानी की। इससे पहले दिल्ली ने 1989 में इस टूर्नामेंट की मेजबानी की थी। भारत को इसमें सिर्फ दो स्वर्ण पदक मिले और टीम छठे स्थान पर रही। चीन ने इसमें अपने कई शीर्ष खिलाड़ी नहीं भेजे थे। लंदन ओलंपिक के कांस्य पदक विजेता कतर के हाईजम्पर मुताज इस्सा बारशिम और लंदन ओलंपिक के रजत पदक विजेता डिस्कस थ्रोवर ईरान के एहसान हदादी ने भी इसमें भाग नहीं लिया।
चीन ने 16 स्वर्ण, छह रजत और पांच कांस्य जीते जबकि बहरीन दूसरे और जापान तीसरे स्थान पर रहा। भारत के लिये डिस्कस थ्रो खिलाड़ी विकास गौड़ा और महिलाओं की चार गुणा 400 मीटर रिले टीम (एमआर पूवम्मा, टिंटु लुका, अनु मरियम जोस और निर्मला) ने स्वर्ण पदक जीते। जबकि कृष्णा पूनिया महिला डिस्कस थ्रो और सुधा सिंह दौड़ में फ्लाप रही। अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में साल भर भारत का प्रदर्शन उल्लेखनीय नहीं रहा। गौड़ा पेरिस में डायमंड लीग के नौवें चरण में चौथे स्थान पर रहे। एशियाई चैम्पियनशिप से ठीक पहले आईओए के पूर्व प्रमुख और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे सुरेश कलमाडी एशियाई एथलेटिक्स संघ के अध्यक्ष का चुनाव कतर के अहमद दहलान से हार गए।

Thursday 19 December 2013

भारतीय हाकी में इस साल लड़कियों का रहा जलवा, पुरुषों ने कटाई नाक

भारतीय हाकी में जहां इस साल पुरुष टीम बड़ी जीत के लिये तरसती रही, वहीं लड़कियों ने इतिहास रचते हुए जूनियर विश्व कप में पहले कांस्य पदक समेत तीन तमगे भारत की झोली में डाले। आईपीएल की तर्ज पर हाकी इंडिया लीग के जरिये खिलाड़ियों की जेबें भरीं तो भारत को एफआईएच के कई अहम टूर्नामेंटों की मेजबानी मिली।
महिला टीम ने जुलाई-अगस्त में जर्मनी के मोंशेंग्लाबाख में हुए जूनियर विश्व कप में इंग्लैंड को पेनल्टी शूटआउट में 3-2 से हराकर पहली बार कांस्य पदक जीता। इसके अलावा सितम्बर में कुआलालम्पुर में जूनियर एशिया कप में भी कांसा अपने नाम किया और नवम्बर में जापान में सम्पन्न एशियाई चैम्पियंस ट्राफी में रजत पदक जीतकर वर्ष 2013 को भारतीय महिला हाकी के लिये यादगार बनाया। वहीं पुरुष टीम ने एकमात्र खिताबी जीत सितंबर में मलेशिया में हुए जोहोर कप में दर्ज की। दिल्ली में फरवरी में विश्व हाकी लीग में शीर्ष रही महिला टीम सेमीफाइनल में हार गई। वहीं पुरुष टीम भी हालैण्ड के रोटरडम में हुए सेमीफाइनल में बुरी तरह हारकर अगले साल हालैंड में होने वाले विश्व कप में सीधे जगह नहीं बना सकी। इसके कारण कोच माइकल नोब्स की भी रवानगी हुई। भारत को बाद में ओशियाना क्षेत्र से उसे विश्व कप 2014 में बैकडोर प्रवेश मिल गया। मार्च में हुए अजलन शाह कप और नवंबर में जापान में एशियाई चैम्पियंस ट्राफी में भारत छह टीमों में पांचवें स्थान पर रहा। वहीं इपोह में सितंबर में हुए एशिया कप में फाइनल में कोरिया से हारकर रजत पदक जीता। दिल्ली में दिसंबर में हुए जूनियर विश्व कप में मेजबान भारत शर्मनाक दसवें स्थान पर रहा। इस साल की शुरूआत में फ्रेंचाइजी आधारित हाकी इंडिया लीग के जरिये खेल में एक नये युग का आगाज हुआ।  इंडियन प्रीमियर लीग की तर्ज पर शुरू हुई इस लीग का पहला सत्र पांच टीमों के बीच जनवरी-फरवरी में खेला गया जिसमें जैमी ड्वायेर, टान डे नूयरे, मौरित्ज फुर्त्से जैसे दुनिया के शीर्ष खिलाड़ियों ने हिस्सा लिया। नूयरे जहां सबसे महंगे विदेशी खिलाड़ी रहे तो सरदार सिंह सबसे महंगे भारतीय। पहले सत्र में रांची राइनोस ने दिल्ली वेवराइडर्स को 2-1 से हराकर खिताब जीता। लीग विवाद से अछूती नहीं रही जब सीमा पर जारी तनाव के कारण पाकिस्तान के नौ खिलाड़ियों को एक भी मैच खेले बगैर स्वदेश लौटना पड़ा। दूसरे सत्र में भी पाकिस्तानी खिलाड़ी इस लीग का हिस्सा नहीं होंगे। भारत और पाकिस्तान के बीच बहुप्रतीक्षित द्विपक्षीय श्रृंखला इस साल भी बहाल नहीं हो सकी। मेजर ध्यानचंद नेशनल स्टेडियम पर विश्व हाकी लीग के दूसरे दौर में भारतीय पुरुष और महिला दोनों टीमों ने शानदार प्रदर्शन किया। पुरुष टीम ने फीजी (16 -0), ओमान (9-1), आयरलैंड (3-2), चीन (4-0) और बांग्लादेश को 5-1 से हराया जबकि महिला टीम ने कजाखस्तान (8-0), मलेशिया (3-0), फीजी (10-0), जापान (3-2) और रूस को  1-0 से मात दी।
मार्च में अजलन शाह कप में पांच बार की चैम्पियन भारतीय टीम छह टीमों में पांचवें स्थान पर रही। प्लेआफ में भारत ने पाकिस्तान को 4-2 से हराया। इसके बाद जून में रोटरडम में विश्व लीग के तीसरे दौर में भारत का प्रदर्शन निराशाजनक रहा। पूल चरण में न्यूजीलैंड और आयरलैंड से ड्रा खेलने के बाद टीम मेजबान हालैंड से हार गई वहीं क्वार्टर फाइनल में आस्ट्रेलिया से हारी और अंतत: छठे स्थान पर रही। इस टूर्नामेंट में विफलता के बाद आस्ट्रेलियाई कोच माइकल नोब्स की भी दो साल के कार्यकाल के बाद रवानगी हो गई। उनकी जगह आस्ट्रेलिया के ही टैरी वाल्श को नया कोच बनाया गया जबकि हालैंड के रोलैंट ओल्टमेंस हाई परफार्मेंस निदेशक हैं।
विश्व लीग का फाइनल दिल्ली में अगले साल जनवरी में खेला जायेगा जिसमें बतौर मेजबान भारत को जगह मिल गई है। इपोह में सितंबर में हुए एशिया कप में भारत पूल चरण में शीर्ष पर रहा और सेमीफाइनल में मलेशिया को 2-0 से हराया। फाइनल में हालांकि टीम कोरिया से 3-4 से हार गई। सितंबर में मलेशिया में ही हुए जोहोर कप में भारत ने मलेशिया को 3-0 से हराकर खिताब जीता।  वहीं जूनियर विश्व कप की तैयारी के लिये जापान के काकामिगाहारा में नवंबर में हुई तीसरी एशियाई चैम्पियंस ट्राफी में मनप्रीत सिंह की अगुवाई में युवा टीम भेजी गई। पहले सत्र 2011 की चैम्पियन भारतीय टीम छह टीमों में पांचवें स्थान पर रही। साल के आखिर में दिल्ली में जूनियर विश्व कप में पूल चरण से ही बाहर होकर मेजबान ने घरेलू दर्शकों को फिर निराश किया। पूल चरण में हालैंड से हारने के बाद भारत ने कनाडा को हराया और अहम मैच में कोरिया से 3-3 से ड्रा खेला। क्लासीफिकेशन मुकाबले में पाकिस्तान से पेनल्टी शूट आउट पर 2-4 से मिली हार ने रही सही कसर भी पूरी कर दी।
महिला टीम ने हालांकि भारतीय हाकी के इतिहास के कुछ सुनहरे पन्ने लिखे। जर्मनी में 27 जुलाई से चार अगस्त तक हुए जूनियर विश्व कप में भारत ने इंग्लैंड को पेनल्टी शूटआउट पर 3-2 से हराकर पहला कांस्य जीता। पूल चरण में आस्ट्रेलिया से  6-1 से हारने के बाद भारत ने न्यूजीलैंड  को 2-0 और रूस  को 10-1 से   हराया था। क्वार्टर फाइनल में स्पेन  को 4-2 से हराने के बाद टीम सेमीफाइनल में हालैंड  से 3-0 से हारी।
सितंबर में कुआलालम्पुर में महिला एशिया कप में सेमीफाइनल में कोरिया से हारने के बाद भारतीय टीम ने कांस्य पदक के मुकाबले में चीन को पेनल्टी शूटआउट पर 3-2 से हराया। भारतीय टीम हालांकि विश्व कप में जगह बनाने से चूक गई। एशियाई चैम्पियंस ट्राफी फाइनल में जापान से एक गोल से हारने के बाद टीम को रजत पदक से ही संतोष करना पड़ा। भारतीय कप्तान सरदार सिंह और महिला कप्तान रितु रानी को इस साल एशिया का सर्वश्रेष्ठ पुरूष और महिला खिलाड़ी चुना गया। भारतीय हाकी टीम को अगले साल राष्ट्रमंडल खेल, एशियाई खेल, विश्व कप के अलावा अपनी मेजबानी में विश्व लीग फाइनल और चैम्पियंस ट्राफी में भाग लेना है जो ओड़िशा के भुवनेश्वर में खेली जायेगी। इसके अलावा 2018 विश्व कप भी भारत में होगा। एफआईएच अध्यक्ष लिएंड्रो नेग्रे ने भारत को हाकी के लिये अहम बताते हुए कहा, भारत विश्व हाकी में अहम स्थान रखता है और यहां खेल काफी लोकप्रिय है। भारतीय हाकी का गौरवमयी इतिहास रहा है लिहाजा लोग टीम से सिर्फ पदक की अपेक्षा करते हैं जो मुमकिन नहीं है। हाकीप्रेमियों को संयम से काम लेना होगा और मुझे यकीन है कि टीम 2018 विश्व कप में अच्छा प्रदर्शन करेगी ।

सपा की जमीनी सियासत

हाल के पांच राज्यों के चुनाव नतीजों ने यह दिखा दिया कि देश में हवा और युवाओं का रुख किस ओर है। यह कहना अभी मुश्किल है कि यह हवा आने वाले महीनों में तूफान की शक्ल लेगी या नहीं लेकिन भाजपा के पक्ष में बह रहे हवा के इस प्रवाह को रोकने के लिए उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने जमीनी प्रयास तेज कर दिये हैं। सपा जानती है कि यदि आगामी लोकसभा भी अंग-भंग हुई तो देश की सियासत में उसकी क्या अहमियत होगी। समाजवादी पार्टी यह भी जानती है कि मुल्क के तख्तोताज में उत्तर प्रदेश कितना मायने रखता है। खुशखबर है कि सपा उत्तर प्रदेश की सरताज है।
देखा जाए तो मुल्क के प्रत्येक राज्य की राजनीतिक परिस्थितियां भिन्न-भिन्न हैं और आगामी लोकसभा चुनाव में समीकरण अलग-अलग ढंग से काम करेंगे। केन्द्र सरकार से जुड़कर 10 साल मजे करने वाले राजनीतिक दलों को अब अहसास हो रहा है कि गलाकाट महंगाई के चलते कांग्रेस के पैरों के नीचे से जमीन बहुत तेजी से खिसक रही है। कांग्रेस से मोहभंग होते मतदाता भाजपा की गोदी में न बैठें इसके लिए छोटे-छोटे राजनीतिक दलों ने अपने-अपने सूबों में युवाओं को लोकलुभावन सौगातों का प्रलोभन देना प्रारम्भ कर दिया है। आगत लोकसभा चुनानों में कांग्रेस की मतदाताओं पर कमजोर होती पकड़ का असर कई तरह से पड़ने वाला है, इस बात के मद्देनजर उसकी सहयोगी पार्टियां कांग्रेस की सरपरस्ती में चुनाव लड़ने से जरूर परहेज करेंगी। सबको डर है कि कहीं उनके लिए कांग्रेस की यारी आत्मघाती न साबित हो जाए। एक माह पहले तक जो दल कांग्रेस का हाथ थामकर कमल दल के खिलाफ चुनाव लड़ने का मन बना रहे थे, उन्हें अब सांप सूंघ गया है और वे अब एकला चलकर ही दिल्ली पहुंचने में भलाई समझ रहे हैं।  सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव, मायावती, ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव हवा देखकर रुख बदलने में माहिर हैं और वे सिद्धांतों या आदर्शों की परवाह किए बिना सफलता की जहां गारण्टी मिलेगी उसी के साथ चल पड़ेंगे। कांग्रेस के सहयोगी दलों की चिन्ताएं दो तरह की हैं। सबसे पहली चिन्ता यह कि क्या कांग्रेस ऐसा नेतृत्व दे सकती है जो चुनाव में विजय दिलाने की क्षमता रखता हो। पिछले कुछ समय से कांग्रेस घोषित तौर पर न सही, लेकिन साफ संकेत दे रही है कि आगत लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी ही उसके तारणहार होंगे। कांगेस के अब तक के प्रदर्शन को देखें तो राहुल गांधी यह भरोसा नहीं जगा पाए हैं कि वे कारगर नेतृत्व देने की क्षमता रखते हैं। जबकि उसके उलट कमल दल ने अनुभवी और वाक्पटु नरेन्द्र मोदी को जब से आगे किया है, देश का युवा मतदाता केसरिया रंग में रंगता दिख रहा है।
समय कम है और सामने चुनौती बड़ी है इस बात को ध्यान में रखते हुए समाजवादी पार्टी ने चार राज्यों की असफलता पर विधवा विलाप करने की बजाय उत्तर प्रदेश में ही अपनी सारी शक्ति झोंक देने का मन बना लिया है। सपा जानती है कि यूपी में उसके पास न केवल मुस्लिमों का बड़ा जनाधार है बल्कि अखिलेश सरकार ने युवाओं के हाथ कम्प्यूटर सौंपकर अन्य दलों को उलझन में डाल दिया है। उत्तर प्रदेश में चार राजनीतिक दलों का जनाधार है और हर दल यहां की 80 लोकसभा सीटों में अधिक से अधिक पर विजय हासिल करने को उतावला है। कांग्रेस ने  खाद्य सुरक्षा कानून और लोकपाल के जरिये आमजन का दिल जीतने की कोशिश तो जरूर की है पर महंगाई की धार इतनी तेज है कि उसका असर शायद ही लोगों के दिलोदिमाग पर असर दिखाए।
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस, भाजपा, बसपा और सपा की शक्ति का अंदाजा लगाएं तो सपा का वजूद ज्यादा मजबूत दिखाई दे रहा है। लोकपाल विधेयक पर कांग्रेस का साथ न देकर सपा ने जता दिया है कि वह लोकसभा चुनाव से पहले सूबे के प्रशासनिक अधिकारियों के जेहन में किसी प्रकार का कोई डर पैदा नहीं करना चाहती। सपा जानती है कि युवा शक्ति और प्रशासनिक मशीनरी ही उसे अधिक से अधिक सीटें दिला सकती है। कुछ दिन पहले मुलायम सिंह ने आधी आबादी को तरजीह देने की मंशा जताकर भाजपा को बैकफुट पर ला दिया है। सूबे के मुखिया अखिलेश यादव की मंशा है कि प्रदेश में चहुंओर विकास की बयार बहे। इसी गरज से उन्होंने वित्त वर्ष शुरू होने से पहले ही महत्वपूर्ण विकास कार्यों का विभागवार एजेण्डा बनाकर इसे लागू करने का काम तेज गति से प्रारम्भ कर दिया है। प्रदेश के विकास को गति देने को सरकार ने लोक निर्माण, ऊर्जा, अवस्थापना, औद्योगिक विकास और चिकित्सा शिक्षा के क्षेत्र में जान फंूक दी है। अखिलेश सरकार ने चिकित्सकों की कमी को दूर करने और लोगों को अच्छी चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने के लिए न केवल एमबीबीएस की 500 सीटों में बढ़ोत्तरी कराई बल्कि नए मेडिकल कॉलेजों के संचालन की भी नेक पहल प्रारम्भ कर दी है। राज्य में अच्छी सड़कों एवं पुलों का जाल बिछने लगा है तो सरकार ने लगभग दो लाख किलोमीटर ग्रामीण सड़कों के अनुरक्षण के लिए ग्राम सम्पर्क मार्ग अनुरक्षण नीति बनाकर लागू करने का फैसला भी ले लिया है। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने प्रदेश की बिजली समस्या के समाधान के लिए कमर कस ली है तो खेल-खिलाड़ियों के प्रोत्साहन और मदद के लिए अपना पिटारा खोल दिया है। सूबे के मुखिया का मानना है कि जब तक उत्तर प्रदेश का विकास नहीं होगा, तब तक देश   का विकास नहीं होगा, इसी गरज से राज्य सरकार कृषि के साथ-साथ औद्योगीकरण पर भी खास ध्यान दे रही है। सपा उत्तर प्रदेश में अधिक से अधिक सीटें जीतकर अपने सुप्रीमो मुलायम को मुल्क का तख्तोताज सौंपना चाहती है लेकिन यह तभी सम्भव होगा जब कमल दल सूबे में उससे आगे न निकले।

Wednesday 18 December 2013

सीईओ की नियुक्ति करेगा साई

भारतीय खेल प्राधिकरण ने राष्ट्रीय खेल महासंघों के प्रबंधन को पेशेवर बनाने के लिये प्रशिक्षित सीईओ की नियुक्ति का फैसला किया है ।
यह फैसला खेलमंत्री जितेंद्र सिंह की अध्यक्षता में साइ की 42वीं बैठक में लिया गया। सीईओ के पारिश्रमिक का खर्च साई उठायेगा । बैठक में यह भी फैसला लिया गया कि सरकार इन चुनिंदा पेशेवरों की नियुक्ति में दखल नहीं देगी। खेल मंत्रालय ने अक्तूबर में शीर्ष खेल महासंघों को पत्र भेजकर सीईओ की नियुक्ति के बारे में उनकी राय मांगी थी। ये पत्र 13 महासंघों तीरंदाजी, एथलेटिक्स, बैडमिंटन, मुक्केबाजी, फुटबाल, केनोइंग कयाकिंग, जिम्नास्टिक, हाकी, नौकायन, निशानेबाजी, तैराकी, कुश्ती और वुशू के साथ भारतीय स्कूली खेल महासंघ को भेजे गए । सिर्फ बैडमिंटन, केनोइंग कयाकिंग, कुश्ती और एजीएफआई ने जवाब भेजे। खेल महासंघों ने मंत्रालय का प्रस्ताव यह कहकर ठुकरा दिया कि महासंघों का कामकाज पेशेवर तरीके से चल रहा है और उन्हें सीईओ की जरूरत नहीं है। फिलहाल सिर्फ हाकी और बास्केटबाल में प्रशासनिक प्रमुख के तौर पर सीईओ हैं। आस्ट्रेलिया की एलेना नार्मन हाकी इंडिया की सीईओ है जिसके पास खेल प्रबंधन का अपार अनुभव है। देश में 54 एनएसएफ हैं और सीईओ के जरिये इनका कामकाज पेशेवर तरीके से चलाने की कोशिश है। बैठक में पेशेवर एजेंसियों की तकनीकी सहायता और कारपोरेट संगठनों के सहयोग से मेजर ध्यानचंद नेशनल स्टेडियम पर विश्व स्तरीय खेल संग्रहालय बनाने का फैसला भी लिया गया है। इसके अलावा आदिवासी इलाकों, जम्मू कश्मीर, पूर्वोत्तर और नक्सल प्रभावित इलाकों में विशेष खेल क्षेत्र (एसएजी) बनाकर देशी खेलों को बढ़ावा देने का फैसला भी लिया गया।
इसके अलावा राजस्व विभाजन के आधार पर देश भर में साइ केंद्रों पर अनुभवी खिलाडियों या एजेंसियों द्वारा निजी अकादमियों के गठन का भी फैसला लिया गया। इसमें यह भी तय किया गया कि साइ से वित्तीय मदद लेने वाले सभी एनएसएफ को घरेलू या अंतरराष्ट्रीय खेल आयोजनों में सभी प्रचार सामग्रियों, आधिकारिक साजो सामान और खेल किटों पर साइ का लोगो दर्शाना चाहिये। 

कपिल देव को लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार

भारत के पहले विश्व कप विजेता कप्तान कपिल देव को बीसीसीआई के वार्षिक पुरस्कार समारोह में वर्ष 2013 के लिए कर्नल सीके नायुडू लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार से सम्मानित किया जाएगा। भारतीय क्रिकेट बोर्ड ने आज इसकी घोषणा की।
पुरस्कार समिति में बीसीसीआई के अध्यक्ष एन. श्रीनिवासन, संजय पटेल (बीसीसीआई के मानद सचिव) और अयाज मेमन (वरिष्ठ पत्रकार) शामिल थे। इस समिति ने आज विजेता को नामित करने के लिए चेन्नई में बैठक की। समिति ने सर्वसम्मति से महान आलराउंडर कपिल को इस पुरस्कार के लिए चुना। बीसीसीआई सचिव पटेल ने कहा, कपिल देव निखंज को बीसीसीआई पुरस्कार समारोह में 2012-13 के लिए कर्नल सीके नायुडू लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार के लिए चुना गया है जिसमें ट्राफी, स्मृति चिन्ह और 25 लाख रूपये का चेक शामिल है। सर्वकालिक महान आलराउंडरों में शुमार कपिल ने भारत के लिए 131 टेस्ट खेले जिसमें उन्होंने 434 विकेट चटकाए जो एक समय रिकार्ड था। वह टेस्ट क्रिकेट में 5000 रन और 400 विकेट का डबल बनाने वाले पहले खिलाड़ी हैं।
      इसके अलावा कपिल ने 225 एकदिवसीय मैच भी खेले जिसमें उन्होंने 253 विकेट चटकाए और 3783 रन बनाए। भारतीय क्रिकेट में उनका सबसे यादगार योगदान 1983 विश्व कप में भारत की जीत है। कप्तान कपिल ने इस टूर्नामेंट में गेंद और बल्ले के अलावा क्षेत्ररक्षण में भी शानदार प्रदर्शन किया। कपिल 2007 में अब भंग हो चुकी इंडियन क्रिकेट लीग (आईसीएल) से भी जुडेÞ और बीसीसीआई ने गैर अधिकृत लीग का हिस्सा बनने पर उन पर प्रतिबंध लगा दिया था। लेकिन पिछले साल कपिल और बीसीसीआई ने अपने मतभेद भुला दिए जब इस क्रिकेटर ने आईसीएल से इस्तीफा दे दिया। बोर्ड ने इसके बाद कपिल को खिलाड़ियों को दी गई एकमुश्त फायदा भुगतान योजना का लाभ देते हुए उन्हें 1.5 करोड़ रूपये दिये। भारत के पहले टेस्ट कप्तान कर्नल सीके नायुडू के नाम पर दिया जाने वाला लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार उन लोगों को मिलता है जिनका भारतीय क्रिकेट में असाधारण योगदान है।
इस पुरस्कार के अब तक के विजेता इस प्रकार हैं:- 1994: लाला अमरनाथ, 1995: सैयद मुश्ताक अली, 1996: विजय हजारे, 1997: केएन प्रभु, 1998: पीआर उमरीगर, 1999: कर्नल हेमचंद्र अधिकारी, 2000: सुभाष गुप्ते, 2001: मंसूर अली खान पटौदी, 2002: भाउसाहेब निंबलकर, 2003: चंद्रकांत बोर्डे, 2004: बिशन सिंह बेदी, बी. चंद्रशेखर, इरापल्ली प्रसन्ना, एस वेंकटराघवन, 2007: नरीमन कांट्रैक्टर, 2008: गुंडप्पा विश्वनाथ, 2009: मोहिंदर अमरनाथ,  2010: सलीम दुर्रानी, 2011: अजित वाडेकर, 2012: सुनील गावस्कर।

Tuesday 17 December 2013

शर्मनाक: पांच साल में 500 भारतीय खिलाड़ी डोप परीक्षण में विफल

राष्ट्रीय डोपिंग रोधी एजेंसी (नाडा) ने पिछले साढ़े चार साल में जो डोप परीक्षण किए हैं उसमें 500 खिलाड़ी विफल रहे हैं जिसमें अधिकतर भारोत्तोलक और ट्रैक एवं फील्ड खिलाड़ी शामिल हैं।
जनवरी 2009 से जुलाई 2013 तक 500 एथलीटों को देश की प्रमुख डोपिंग रोधी एजेंसी ने डोपिंग रोधी नियमों के उल्लंघन का दोषी पाया है और डोपिंग रोधी अनुशासन पैनल ने इनमें से 423 खिलाड़ियों को सजा सुनाई है। नाडा ने सूचना का अधिकार कानून के तहत डाली गली याचिका के जवाब में यह खुलासा किया है। नाडा द्वारा जारी की गई यह आधिकारिक संख्या कुछ स्तब्ध करने वाले आंकड़ों की तरफ इशारा करती है। नाडा ने आरटीआई के जवाब में कहा, नाडा जनवरी 2009 से प्रभावी हुआ। डोप परीक्षण में जुलाई 2013 तक कुल 500 खिलाड़ी डोपिंग रोधी नियमों के उल्लंघन के दोषी पाए गए हैं। डोपिंग रोधी अनुशासन पैनल ने कुल 423 खिलाड़ियों को सजा सुनाई है। डोपिंग के दोषियों की सूची में एथलीट सबसे ऊपर हैं। नाडा ने कहा, जनवरी 2009 में नाडा के प्रभावी होने के बाद से जनवरी 2009 से जुलाई 2013 तक कुल 14684 डोप नमूने एकत्रित किए गए। नाडा ने पिछले तीन साल में एथलीटों पर 9898 डोप परीक्षण किए। एथलीट 113 डोपिंग उल्लंघन के साथ शीर्ष पर हैं जबकि उनके बाद भारोत्तोलन का नंबर आता है जिसके 92 खिलाड़ी डोपिंग में फंसे।
एथलेटिक महासंघों के अंतरराष्ट्रीय संघ (आईएएएफ) की इस साल अगस्त में जारी रिपोर्ट में खुलासा किया गया था कि डोप उल्लंघन के मामले भारत (43) में दूसरे सर्वाधिक हैं। रूस के सर्वाधिक 44 खिलाड़ी निलम्बित सूची में शामिल हैं। भारत जुलाई तक शीर्ष में था लेकिन निलम्बित एथलीटों की संख्या 52 से 43 हो गई जब आईएएएफ ने नौ खिलाड़ियों से निलंबन हटा दिया। एथलेटिक्स और भारोत्तोलन के अलावा डोपिंग दोषियों की सूची में कबड्डी के 58, बाडीबिल्डिंग के 51, पावर लिफ्टिंग के 42, कुश्ती के 41, मुक्केबाजी के 36 और जूडो के छह खिलाड़ी शामिल हैं। नाडा ने कहा कि उसने 2009 से 2012 के बीच विभिन्न खेलों में डोपिंग के खिलाफ कड़े कदम उठाए।

सिंधू के लिये यादगार रहा साल, खिताब के अकाल से जूझती रही साइना

नयी दिल्ली। साइना नेहवाल इस साल एक भी खिताब नहीं जीत सकी लेकिन नये सितारे के रूप में पीवी सिंधू के उभरने और इंडियन बैडमिंटन लीग की शुरूआत के साथ भारतीय बैडमिंटन ने प्रगति की।
पिछले साल लंदन ओलंपिक में कांस्य पदक जीतकर स्टार बनी साइना इस साल फिटनेस समस्याओं और खराब फार्म से जूझती रही। वह इंडोनेशिया, डेनमार्क, स्विट्जरलैंड और थाईलैंड में अपना खिताब बरकरार नहीं रख सकी। इस साल उसकी झोली में एक भी खिताब नहीं आया और वह बीडब्ल्यूएफ रैंकिंग में भी छठे स्थान पर खिसक गई। वह इन टूर्नामेंटों के फाइनल्स में भी नहीं पहुंच सकी। इस साल उसका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन मलेशिया सुपर सीरिज और आल इंग्लैंड सुपर सीरिज प्रीमियर में रहा जहां वह सेमीफाइनल तक पहुंची।  इस बीच सिंधू ने चीन के ग्वांग्झू में विश्व चैम्पियनशिप में एकल वर्ग में पदक जीता और वह इस श्रेय हासिल करने वाली पहली भारतीय महिला हो गई। इसके अलावा उसने दो ग्रांप्री गोल्ड खिताब जीते। अठारह बरस की सिंधू ने अप्रैल में मलेशिया ग्रांप्री गोल्ड और दिसंबर में मकाउ ग्रांप्री गोल्ड जीता।  पुरुष खिलाड़ियों में पी. कश्यप विश्व रैंकिंग में शीर्ष दस में जगह बनाने वाले पुलेला गोपीचंद के बाद दूसरे खिलाड़ी हो गए।  वह जनवरी में दुनिया के नौवें नंबर के खिलाड़ी बने और छठी रैंकिंग तक पहुंचे हालांकि बाद में शीर्ष 10 से बाहर हो गए। उदीयमान खिलाड़ी के. श्रीकांत ने थाईलैंड ओपन ग्रांप्री गोल्ड जीता जबकि उनके भाई नंदगोपाल ने मालदीव अंतरराष्ट्रीय बैडमिंटन चैलेंज में के. मनीषा के साथ मिश्रित युगल खिताब अपने नाम किया। अगस्त में इंडियन बैडमिंटन लीग की शुरूआत हुई जिसमें श्रीकांत, एचएस प्रणय और अजय जयराम जैसे युवा भारतीयों ने तियेन मिन्ह एंगुयेन और जान ओ जोर्गेसेन जैसे शीर्ष खिलाड़ियों को हराया। आईबीए में साइना बेहतरीन फार्म में थी और उसके अपराजेय अभियान से हैदराबाद हाटशाट्स ने लखनऊ की अवध वारियर्स को हराकर खिताब जीता। इस साल आईबीएल के दौरान कई विवाद भी सामने आये। भारतीय खिलाड़ियों ज्वाला गुट्टा और अश्विनी पोनप्पा की बेसप्राइज नीलामी के दिन घटा दी गई। इसके अलावा दिल्ली स्मैशर्स ने हांगकांग के चोटिल हू युन की जगह आखिरी मिनट में डेनमार्क के जान जोर्गेसेन को शामिल किये जाने के खिलज्ञफ बंगा बीट्स के खिलाफ मैच से पीछे हटने की धमकी दे दी थी। भारतीय बैडमिंटन संघ की अनुशासन समिति ने दिल्ली स्मैशर्स टीम के खिलाड़ियों को मैच नहीं खेलने के लिये उकसाने की कोशिश के कारण ज्वाला पर आजीवन प्रतिबंध की सिफारिश की। बाद में दिल्ली उच्च न्यायालय ने मामला सुलझाया।

चौथे नम्बर पर सचिन ने बनाये 13492 रन, लगाये 44 शतक और 58 अर्धशतक

सचिन तेंदुलकर अपने पदार्पण के बाद से लेकर संन्यास लेने तक जिन 17 टेस्ट मैचों में नहीं खेले उनमें भारत ने केवल चार बल्लेबाजों को इस स्टार बल्लेबाज के पसंदीदा चौथे स्थान पर बल्लेबाजी के लिये भेजा।
भारत कल से दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ दो टेस्ट मैचों की श्रृंखला खेलेगा और सबसे बड़ा सवाल यह है कि आखिर जिस चौथे नम्बर पर पिछले दो दशक से भी अधिक समय से तेंदुलकर खेलते रहे, उसकी जिम्मेदारी कौन संभालेगा। भारत की वर्तमान टीम में किसी भी सदस्य को अभी तक टेस्ट मैचों में नंबर चार पर खेलने का अनुभव नहीं है। तेंदुलकर ने अपने पदार्पण के कुछ समय बाद ही भारतीय बल्लेबाजी क्रम में चौथा स्थान अपने नाम पक्का कर दिया था। वह अपने करियर में चोटों या किसी अन्य वजह से केवल 17 टेस्ट मैच नहीं खेल पाये। इन मैचों की 30 पारियों में जो चार बल्लेबाज चौथे नंबर पर खेलने के लिये उतरे उनमें से तीन संन्यास ले चुके हैं जबकि एक अन्य वर्तमान टीम का हिस्सा नहीं है। तेंदुलकर की गैरमौजूदगी में राहुल द्रविड़ सात मैचों की 11 पारियों में चौथे नम्बर पर बल्लेबाजी के लिये आये जिनमें उन्होंने 76.62 की औसत से 613 रन बनाये। सौरव गांगुली ने भी इस तरह के पांच मैचों की आठ पारियों में 75.28 की औसत से 527 रन ठोके। उन्होंने अपने करियर की सर्वोच्च पारी 239 रन भी चौथे नम्बर पर बल्लेबाजी करते हुए खेली।
वीवीएस लक्ष्मण ने तेंदुलकर की अनुपस्थिति में सात मैचों की दस पारियों में चौथे नंबर पर बल्लेबाजी की और 47.60 की औसत से 476 रन बनाये। इन तीनों बल्लेबाजों ने इस दौरान एक एक शतक ठोका। सुरेश रैना वेस्टइंडीज के खिलाफ जुलाई 2011 में रोसेउ में दूसरी पारी में चौथे नंबर पर बल्लेबाजी के लिये उतरे थे जिसमें उन्होंने आठ रन बनाये थे। तेंदुलकर ने अपने करियर में 179 मैचों की 275 पारियां चौथे नम्बर पर बल्लेबाजी करते हुए खेली। इनमें उन्होंने 54.40 की औसत से 13492 रन बनाये जिसमें 44 शतक और 58 शतक दर्ज हैं। तेंदुलकर के पदार्पण के बाद से भारतीय टीम चौथे नंबर पर इस स्टार बल्लेबाज पर कितनी निर्भर रही इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि 15 नवंबर, 1989 (तेंदुलकर के पदार्पण वाला दिन) से लेकर अब तक भारत के जो अन्य खिलाड़ी चौथे नंबर पर बल्लेबाजी के लिये उतरे उन्होंने 89 पारियों में 43.96 की औसत से 3605 रन बनाये। इन बल्लेबाजों ने सात शतक और 19 अर्धशतक भी लगाये। पिछले 20 वर्षों में भारत की तरफ से तेंदुलकर के अलावा केवल गांगुली ही चौथे स्थान पर बल्लेबाजी करते हुए टेस्ट मैचों में 1000 से अधिक रन बना पाये हैं। इस पूर्व भारतीय कप्तान ने इस नंबर पर 16 मैच की 20 पारियों में 66.00 की औसत से 1188 रन बनाये। इनमें से 11 मैच की 12 पारियों में वह तेंदुलकर की मौजूदगी में चौथे नंबर पर बल्लेबाजी के लिये उतरे और इनमें उन्होंने 661 रन बनाये जिसमें दो शतक भी शामिल हैं। तेंदुलकर के पदार्पण के बाद चौथे नंबर पर सर्वाधिक रन बनाने वाले बल्लेबाजों में सचिन और गांगुली के बाद द्रविड (957 रन), लक्ष्मण (500 रन), मोहम्मद अजहरुद्दीन (423 रन) और दिलीप वेंगसरकर (338 रन) का नंबर आता है। अजहर और वेंगसरकर ने अपने सभी रन तेंदुलकर की मौजूदगी में बनाये थे जबकि द्रविड़ ने ऐसे नौ मैच की दस पारियों में 344 रन बनाये थे। तेंदुलकर के रहते हुए लक्ष्मण केवल एक पारी में चौथे नंबर पर बल्लेबाजी के लिये उतरे थे। जिन अन्य खिलाड़ियों ने तेंदुलकर की उपस्थिति में चौथे नंबर पर बल्लेबाजी करने सुख प्राप्त किया उनमें अधिकतर नाइटवाचमैन शामिल हैं। इशांत शर्मा ने तीन पारियों में ऐसी भूमिका निभायी। वेंकटेश प्रसाद, आशीष नेहरा, सुनील जोशी, अनिल कुंबले और अमित मिश्रा भी तेंदुलकर की मौजूदगी में नाइटवाचमैन के रूप में चौथे नंबर पर बल्लेबाजी के लिये उतर चुके हैं। संजय मांजरेकर, नयन मोंगिया, विनोद कांबली, गौतम गंभीर और इरफान पठान को भी तेंदुलकर के टीम में होने के बावजूद एक एक पारी में चौथे नंबर पर बल्लेबाजी का सुख मिला था। हालांकि इनमें से कोई भी बल्लेबाज प्रभावशाली पारी नहीं खेल पाया। भारत की तरफ से यदि चौथे नंबर पर बल्लेबाजी करने वाले बल्लेबाजों के प्रदर्शन पर गौर किया जाए तो तेंदुलकर इस स्थान पर सर्वाधिक रन बनाने वाले बल्लेबाजों में सूची में भारत ही नहीं दुनिया में भी नंबर एक हैं। भारत में उनके बाद गुंडप्पा विश्वनाथ का नंबर आता है जिन्होंने 82 मैचों की 124 पारियों में 43.05 की औसत 5081 रन चौथे नंबर पर बल्लेबाजी करते हुए बनाये। भारत के जिन अन्य बल्लेबाजों ने चौथे नंबर पर बल्लेबाजी करते हुए 1000 से अधिक रन बनाये उनमें वेंगसरकर (2605), विजय मांजरेकर (1714), विजय हजारे (1623) और गांगुली (1188) का नंबर आता है।

Friday 13 December 2013

गुरूर का ऊंट पहाड़ के नीचे

अपनी पट्टियों और अपने पट्ठों के नायाब प्रदर्शन का दम्भ पाले दक्षिण अफ्रीका गये धोनी के धुरंधरों की धड़कनें बढ़ गई हैं। उनके गुरूर का ऊंट पहाड़ के नीचे आ गया है। धोनी कल तक जिनकी बलैयां ले रहे थे वही तेज और उछाल मारती पट्टियों पर नाकाबिल साबित हुए हैं। टेस्ट क्रिकेट से पूर्व खेली गई फटाफट क्रिकेट में टीम इण्डिया के न गेंदबाज चले और न ही बल्ले से उनके त्रिदेवों ने कमाल दिखाया। कुछ दिन पहले तक घरेलू पट्टियों पर बब्बर शेर की तरह दहाड़ रहे भारतीय जांबाज बल्लेबाजों को दक्षिण अफ्रीकी पट्टियों और उनके पट्ठों के सामने सांप सूंघ गया और उनकी घिग्घी बंध गई है।
उम्मीद है कि मरती नहीं। हर बार की तरह इस बार भी प्रत्येक हिन्दुस्तानी को यकीन था कि धोनी ब्रिगेड दक्षिण अफ्रीकी सरजमीं पर अपने फौलादी प्रदर्शन से 22 साल में पहली बार फटाफट क्रिकेट सीरीज जीतने की अपनी हसरत जरूर पूरी करेगी पर अफसोस उसके धाकड़ बल्लेबाज स्टेन एण्ड कम्पनी की आग उगलती गेंदबाजी के सामने असहाय नजर आये तो हमारे गेंदबाज दक्षिण अफ्रीकी बल्लेबाजों क्विंटन डी कॉक और हाशिम अमला के हमलावर अंदाज पर जरा भी नकेल नहीं डाल सके। विश्व चैम्पियन और दुनिया की नम्बर एक भारतीय टीम की फटाफट क्रिकेट में शिकस्त ने कई सवाल खड़े कर दिये हैं। टीम इण्डिया की अब तक की दुर्गति को देखते हुए नहीं लगता कि दक्षिण अफ्रीकी टेस्ट क्रिकेट में कुछ रहम दिखाएंगे। दक्षिण अफ्रीका में धोनी ब्रिगेड का दौरा जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा है, जख्म गहराते ही जा रहे हैं। दक्षिण अफ्रीकी तेज और उछाल भरी पट्टियों पर भारतीय मजबूत बल्लेबाजी की जिस तरह कलई खुली उसकी खूब जगहंसाई हो रही है। तीन मैचों की सीरीज केवांडरर्स पर खेले गये पहले मुकाबले में जहां भारत को 141 रन की करारी शिकस्त मिली वहीं किंग्समीड में उसके जांबाज 136 रन से पस्त हो गये। भला हो बारिश का जिसने सेंचुरियन में भारत को एक और पराजय से बचा लिया। कमजोर गेंदबाजी पर सवालों के साथ शुरू हुए दक्षिण अफ्रीकी दौरे के अधसफर के बाद अब हमारे दबंग बल्लेबाजों पर उंगलियां उठने लगी हैं। अब तक शिखर धवन ने जहां कोई धमाल नहीं मचाया तो विराट कोहली ने भी कोई विराट पारी नहीं खेली है। रोहित शर्मा, सुरेश रैना और युवराज सिंह भी अभी तक अपने बल्लों से इंसाफ नहीं कर पाये हैं। अब तक के भारत के दक्षिण अफ्रीकी दौरे पर नजर डालें तो पहले मुकाबले में हमारे गेंदबाजों के खराब प्रदर्शन का बल्लेबाजों पर दबाव बना लेकिन दूसरे मुकाबले में अपेक्षाकृत धीमी पट्टी पर भारतीय पट्ठे डेल स्टेन के सामने पनाह मांग बैठे और उसके पांच ओवर पूरा होने से पहले ही मैच का नतीजा दीवार पर लिखी इबारत की तरह साफ हो गया। देखा जाए तो दक्षिण अफ्रीकी दौरे से पूर्व टीम इण्डिया के शीर्ष बल्लेबाज पूरे रौ में थे। शिखर धवन, विराट कोहली और रोहित शर्मा ने अपनी पट्टियों पर न केवल खूब चौके-छक्के उड़ाये बल्कि मौजूदा साल में एक हजार रनों का आंकड़ा भी पार कर दिखाया। दुनिया के सर्वश्रेष्ठ दक्षिण अफ्रीकी तेज आक्रमण के सामने हमारे त्रिदेवों को ही नहीं मध्यक्रम के बल्लेबाजों को भी वहां की पट्टियां रास नहीं आर्इं। तेज उछाल वाली पट्टियां भारतीय बल्लेबाजों के लिए हमेशा से ही दु:स्वप्न रही हैं, यही वजह है कि हमारे बल्लेबाजों को हमेशा घरेलू शेर माना गया। टीम इण्डिया जब-जब आस्ट्रेलिया, इंग्लैण्ड या दक्षिण अफ्रीकी दौरे पर जाती है, उसके डरपोक बल्लेबाज एक-एक रन को तरसते हैं।
दक्षिण अफ्रीका में अब तक भारत के पक्ष में शर्मनाक पराजयों के सिवाय कुछ भी हाथ नहीं लगा है। क्विंटन डी कॉक, हाशिम अमला और कप्तान अब्राहम डीविलियर्स ने जहां अपनी धाकड़ बल्लेबाजी से टीम इण्डिया की गेंदबाजी को भोथरा साबित कर दिखाया वहीं 20 साल के नवोदित बल्लेबाज डी कॉक ने लगातार तीन सैकड़े जमाकर 18 दिसम्बर से होनी वाली टेस्ट सीरीज से पहले भारतीय खेमे में खतरे की घण्टी बजा दी है। डी कॉक जहां सैकड़े पर सैकड़े उड़ा रहा है वहीं हमारे कागजी फौलादी बल्लेबाज दक्षिण अफ्रीकी खौफजदा गेंदबाजी के सामने थर-थर कांप रहे हैं। दक्षिण अफ्रीकी तेज गेंदबाजों के डर का आलम यह है कि फटाफट क्रिकेट के दो मुकाबलों में रोहित शर्मा 37, शिखर धवन 12, विराट कोहली 31, सुरेश रैना 50, रविन्द्र जड़ेजा 55 और चतुर चालाक महेन्द्र सिंह धोनी 84 रन ही बना सके। इसे दुर्भाग्य कहें या कुछ और दक्षिण अफ्रीकी युवा बल्लेबाज क्विंटन डी कॉक की ताबड़तोड़ बल्लेबाजी पर हमारे गेंदबाज अंकुश नहीं लगा सके हैं। डी कॉक ने जोहांसबर्ग में 135, डरबन में 106 और सेंचुरियन में 101 रन की शतकीय पारियां खेलकर भारतीय गेंदबाजों को उनकी औकात बता दी। विकेटकीपर बल्लेबाज डी कॉक सीरीज में लगातार तीन शतक और 342 रन बनाकर जहां जहीर अब्बास, सईद अनवर, हर्शल गिब्स और अब्राहम डीविलियर्स की जमात में खड़ा हो गया वहीं टीम इण्डिया के सभी बल्लेबाज फटाफट क्रिकेट के दो मुकाबलों में कुल जमा 363 रन ही बना सके। कुछ दिन पहले की ही बात है जब यही टीम इण्डिया अपनी पट्टियों पर हर मुकाबले में तीन सौ से अधिक रन बना रही थी लेकिन दक्षिण अफ्रीका में वह अकेले डी कॉक से हार गई। शांत चेहरा, सौम्य स्वभाव और तेजतर्रार बल्लेबाजी करने वाले डी कॉक ने न केवल दक्षिण अफ्रीका को फटाफट सीरीज जिता दी बल्कि हर किसी का दिल भी जीत लिया। सीरीज के तीन मैचों में 114 की औसत से 342 रन बनाने वाले क्विंटन डी कॉक ने सीरीज में 36 चौके और पांच छक्के उड़ाये। इस दौरान उसका स्ट्राइक रेट 95.26 रहा। जाहिर तौर पर नम्बर वन टीम के खिलाफ फटाफट सीरीज में इस प्रकार का प्रहार दक्षिण अफ्रीकी चयनकर्ताओं को इतना बताने के लिए काफी है कि डी कॉक लम्बी रेस का घोड़ा है और धोनी सेना को यह संदेश देने के लिए कि अब आंखें खोलने का समय है, क्योंकि गद्दी रुतबे की नहीं, प्रदर्शन की मोहताज होती है जोकि टीम इण्डिया फटाफट क्रिकेट में नहीं कर सकी। दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ टेस्ट क्रिकेट में भी भारत की स्थिति कुछ खास अच्छी नहीं है। इन दोनों देशों के बीच अब तक खेले गये 42 टेस्टों में भारत को नौ में जीत तो 19 में पराजय से दो-चार होना पड़ा है। 14 टेस्ट बराबरी पर छूटे हैं। दक्षिण अफ्रीकी सरजमीं पर तो भारतीय रिकॉर्ड  और भी खराब है। यहां खेले गये 15 टेस्टों में भारत सिर्फ दो टेस्ट जीता है जबकि उसे सात में पराजय स्वीकारनी पड़ी है।

Monday 9 December 2013

रामलला हम आएंगे...!

हर चुनावी महासमर से पहले कमल दल ही नहीं बल्कि मुल्क की आम आवाम के जेहन में रामलला को लेकर उथल-पुथल सी मचने लगती है। भगवान राम सबके हैं यह बात जानते हुए भी भारतीय जनता पार्टी सहित अन्य राजनीतिक दल भी इस मामले पर सियासत करने से बाज नहीं आते। राम नाम जनभावना से जुड़ा मसला है उसे चाहकर भी खारिज नहीं किया जा सकता। जो भाजपा 1986 से 1992 तक रामलला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे का राग अलाप रही थी, वह भी अब सत्ता सुख के लिए राम नाम से परहेज करती दिख रही है। वजह साफ है, जिस देश की 60 फीसदी से अधिक आबादी 40 साल से कम उम्र की हो उसके लिए जाहिरतौर पर रामलला मंदिर से कहीं अधिक शिक्षा मंदिरों की दरकार है। आज मुल्क में बेरोजगारी चरम पर है। ऐसे में युवा वर्ग को नौकरी चाहिए,आगे बढ़ने के मौके चाहिए और एक ऐसा माहौल चाहिए जो मंदिर-मस्जिद की लड़ाई से परे हो।
भाजपा मुल्क के युवाओं का मन भांप चुकी है यही वजह है कि उसके कट्टरपंथियों को छोड़कर अधिकांश लोग राम नाम को अपने एजेण्डे से दूर मानने लगे हैं। भाजपा ने मुल्क में राम नाम की जो आग 1992 में लगाई थी, सत्ता मिलते ही उसे बिसर गई। कमल दल को अपनी वादाखिलाफी की बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है। राम नाम से छल करने के चलते ही उसका जनाधार अर्श से फर्श पर आ गिरा है। जहां तक राम मंदिर की बात है, इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच का फैसला आ चुका है। कोर्ट मान चुका है कि राम लला अयोध्या में ही विराजमान हैं और मंदिर के ऊपर मस्जिद बनाई गयी थी। जन्म स्थान की 2.7 एकड़ जमीन निर्मोही अखाड़ा, सुन्नी वक्फ बोर्ड और रामलला के बीच एक-एक तिहाई करके बांटी गयी है। निर्मोही अखाड़े के हिस्से राम चबूतरा और सीता रसोई आई है। भीतरी हिस्से पर हिन्दू और मुस्लिम दोनों का हक कोर्ट ने बताया है। इस फैसले को सुन्नी बोर्ड और राम जन्म भूमि न्यास ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे रखी है। जाहिर है कि अंतिम फैसला सुप्रीम कोर्ट में होना है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला कब आयेगा कहना मुश्किल है पर जन भावना के इस मुद्दे पर कोर्ट के बाहर दोस्ताना फैसले की जो कोशिशें चल रही हैं, उनमें भी कोई हर्ज नहीं है।
भाजपा के राम मंदिर मसले पर बैकफुट होने के अपने निहितार्थ हैं। उसे पता है कि अब लोगों को राम मंदिर के नाम पर मतदान बूथों तक नहीं लाया जा सकता। राम नाम का जादू हिन्दीभाषी राज्यों में तो कारगर हो सकता है लेकिन अन्य राज्यों में तो उसे कमल खिलाने के लिए विकास की ही अलख जगानी होगी। भाजपा को मालूम है कि राम के बिना उसका काम कभी नहीं पूरा हो सकता। पिछले एक दशक में कमल दल की राम नाम की भूल ने ही उसके बढ़ते जनाधार को जबर्दस्त ठेस पहुंचाई है। पांच राज्यों के चुनाव नतीजे आने में महज कुछ घण्टे शेष बचे हैं। मीडिया रिपोर्टें चार राज्यों में कमल खिला रही हैं। ऐसे में देश की सल्तनत के लिए भाजपा को राम मंदिर मुद्दा संघ और संतों पर छोड़ना ही हितकारी दिख रहा है। देखा जाये तो भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार और कठोर हिन्दुत्व के पहरुआ नरेन्द्र मोदी भी नहीं चाहते कि मुल्क की आवाम को धोखे में रखा जाये। यही वजह है कि वे इलाहाबाद के कुम्भ तक में नहीं गये क्योंकि वहां संतों की धर्म संसद चल रही थी। इतना ही नहीं उन्होंने अयोध्या की यात्रा से भी परहेज किया। मोदी जहां-जहां जा रहे हैं, उनको सुनने लाखों लोग अपना काम-धाम छोड़कर आ रहे हैं। अब तक मोदी ने जितनी भी सभाएं सम्बोधित की हैं उनमें उन्होंने हिन्दुत्व से परे गुजरात मॉडल के विकास को ही फोकस किया है और लोगों को मोदी का विकास एजेण्डा खूब भा रहा है।
भाजपा को यदि लोकसभा 2014 का महासमर फतह करना है तो उसे हिन्दीभाषी राज्यों में अधिक से अधिक सफलता हासिल करनी होगी। देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की बात करें तो फिलहाल कमल दल सपा और बसपा से भी पीछे है। भाजपा आगत लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश में 50 से 60 सीटें जीतने का लक्ष्य सामने रखे है, पर सवाल यह उठता है कि वह मुलायम और माया के वोट बैंक में सेंध लगाएगी भी तो कैसे? उत्तर प्रदेश के चुनाव प्रभारी अमित शाह और विनय कटियार जैसे हिन्दुत्व के पहरुआ यदि राम मंदिर का राग अलाप भी रहे हैं तो उसकी वजह है। दरअसल भाजपा में ऐसे लोगों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से ऊर्जा मिलती है। अटलकाल में जो संघ पर्दे के पीछे अपना खेल खेलता था वही आज सियासत में खुलकर सामने है। भाजपा की आंतरिक मजबूती में संघ के दखल और उसके योगदान को सहजता से नहीं बिसराया जा सकता। यही वजह है कि संघ कुछ समय से भाजपा के अंत:पुर में तेजी से सक्रिय हुआ है। मोदी के उत्थान और आडवाणी के पतन को राजनीतिक वीथिका में लोग किसी भी नजर से देखें पर संघ केलिए यह दोनों ही पुरोधा महत्वपूर्ण हैं। सच तो यह है कि संघ ने अब बाहर से राय देने का अपना चोला उतार दिया है। उसे लगता है कि सत्ता में टिकी कांग्रेस को बेदखल करने का इससे अच्छा मौका अब शायद ही मिले, यही वजह है कि उसने आडवाणी की जगह मोदी को देश की राजगद्दी हासिल करने को आगे किया है। मोदी को आगे करने के बाद भी संघ को आडवाणी की भी जरूरत है। संघ जानता है कि कट्टर हिन्दुत्व के हिमायती यदि नरेन्द्र मोदी को चाहते हैं तो गठबंधन के इस युग में लालकृष्ण आडवाणी भाजपा से इतर दूसरे दलों में सबसे लोकप्रिय हैं। संघ और संत के भरोसे सत्ता वापसी को तैयार भाजपा को पता है कि यदि वह राम लला को याद करती है तो इससे सवर्ण और उदारवादी हिन्दू उससे अलग हो सकते हैं। यह खतरा उत्तर प्रदेश की 80 में से 60 सीटों पर साफ दिखाई देता है। भाजपा की कट्टरता शहरी मध्यम वर्ग को भी बिदका सकती है, जो व्यवस्था बदलने के नाम पर मोदी को अगले प्रधानमंत्री के रूप में देख रहा है। सच्चाई यह है कि रामलला के मसले पर भाजपा नौ दिन चले अढ़ाई कोस की तर्ज पर चल रही है।