Friday 30 September 2016

सारे जहां की रोशनी बनी डॉ. सुनीता कृष्णन


बलात्कार की बर्बरता ने बनाया फौलादी
शायद ही कोई महिला होगी जो अपने साथ हुए बलात्कार के बारे में दुनिया को बताना चाहेगी लेकिन डॉ. सुनीता कृष्णन ने न सिर्फ अपने साथ हुई ज्यादती के बारे में सबको बताया  बल्कि उस लड़ाई को भी नहीं छोड़ा, जिसके कारण उनका गैंगरेप किया गया था। हजारों लड़कियों की जिन्दगी में रोशनी की किरण बनकर आई डॉ. सुनीता कृष्णन को उनके महान कार्य के लिए अनेक पुरस्कार मिल चुके हैं। भारत की यह बेटी अदम्य साहस से भरपूर है,  बिल्कुल निडर। इसी साहस और निडरता की वजह से वह मानव तस्करी जैसे बड़े संगठित अपराध को खत्म करवाने के लिए जी-जान लगाकर लड़ रही है।
बेंगलुरू में जन्मी डॉ. सुनीता कृष्णन की जिन्दगी बहुत जटिलताओं से भरी रही है। समाजसेवा के प्रति उनके जज्बे का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि वे आठ साल की उम्र में ही मानसिक रूप से कमजोर बच्चों को डांस सिखाने लगी थीं। जब वह महज 12 साल की थीं,  तभी से उन्होंने हैदराबाद की झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाली बच्चियों को पढ़ाने का बीड़ा उठाया। 15 साल की उम्र तक आते-आते सुनीता ने दलित बच्चियों के उद्धार के लिए काम करना शुरू कर दिया।
सुनीता का यही काम वेश्यावृत्ति कराने वालों व मानव तस्करी में लिप्त माफियों को नागवार गुजरा। इन माफियों के गुंडों ने सुनीता को गरीब बच्चियों को पढ़ाने का सपना छोड़कर उनसे दूर रहने की धमकी दी। लेकिन धमकियों को नजरअंदाज कर सुनीता कृष्णन अपने मिशन को कामयाब बनाने की कोशिश में जुटी रहीं। एक रात घनघोर अंधेरे में कुछ लोगों ने सुनीता पर माफियों ने हमला बोल दिया और उन्हें अगवा कर किया। फिर आठ लोगों ने उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया। सुनीता कृष्णन पंद्रह साल की उम्र में अत्याचार और बलात्कार का शिकार हुईं। इस बर्बरता ने उसे तोड़कर रख दिया लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी।
सुनीता कृष्णन के लिए वह दौर बहुत ही चुनौतियों भरा था। गैंगरेप के बाद दो साल तक लोगों ने उसे इस तरह दुत्कारा मानो गैंगरेप की दोषी वह खुद ही हो। उस बर्बर घटना से पहले वह अपने माता-पिता की चहेती संतान थी। घटना के बाद मां-बाप, दूसरे रिश्तेदारों को नजर से वह गिर गई। जिन कामों के कारण कभी उसकी तारीफ की जाती थी, वे सभी तरह-तरह से सुनीता को गलत कहने-समझने लगे, लेकिन फौलादी इरादों वाली सुनीता ने कभी भी जीवन में निराशा को पनपने नहीं दिया और खुद को कभी दोषी नहीं माना। दरअसल, इस घटना ने उसे फौलाद का बना दिया। सामूहिक बलात्कार की घटना के कुछ ही दिनों बाद सुनीता कृष्णन ने फैसला किया कि वह बलात्कार की शिकार हुई दूसरी लड़कियों और महिलाओं से मिलेगी और उनका दुःख-दर्द समझेगी। इसी मकसद से वह वेश्यालय जाने लगी। वेश्यालयों में लड़कियों और औरतों की हालत देखकर उसे यह आभास हुआ कि इन लड़कियों और औरतों की पीड़ा के सामने उसकी पीड़ा तो कुछ भी नहीं है। वह तो एक बार बलात्कार का शिकार हुई लेकिन समाज में ऐसी कई सारी लड़कियां हैं, जिनके साथ रोज बलात्कार होता है। उसी दिन एक मानसिक रूप से विकलांग लड़की को वेश्यालय से मुक्ति दिलाने के बाद सुनीता कृष्णन के लिए पीड़िताओं की मुक्ति और उनका पुनर्वास जीवन का सबसे महत्वपूर्ण काम बन गया।
                               जब जाना पड़ा जेल
1996 में बैंगलूरु में मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता के आयोजन की तैयारियां जोरों पर थीं। सुनीता कृष्णन ने इस प्रतियोगिता को रुकवाने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी। सुनीता का मानना था कि कुछ लोग महिलाओं को भोग की वस्तु मानते हैं और ऐसे ही लोग सौंदर्य प्रतियोगिताओं का आयोजन करते हैं। बड़े पैमाने और पूरे जोर-शोर के साथ आयोजित की जा रही इस प्रतियोगिता का विरोध करने पर पुलिस ने सुनीता कृष्णन को गिरफ्तार कर लिया। गिरफ्तारी के बाद उन्हें जेल में बंद कर दिया गया  ताकि वह बाहर आकर फिर उसका विरोध न कर सके। पूरे दो महीने तक सुनीता कृष्णन को जेल में रखा गया। जेल से बाहर आने के बाद सुनीता ने अपने भाई के साथ मिलकर एक संस्था बनाई, जिसका नाम रखा- प्रज्वला।नाम के अनुरूप ही इसका काम था नारी को भोग की चीज समझने वालों को नारी शक्ति का वास्तविक अर्थ समझाना। संस्था का उद्देश्य देह के दलालों, कोठा मालिकों, पोर्न फिल्म बनाने वालों के शिकंजे से मासूम बच्चियों, युवतियों और महिलाओं को आजाद कराना और उन्हें एक नई जिंदगी देना था।
                            हर तीसरे दिन मुक्त कराती हैं एक बच्ची
प्रज्वलाआज इस मुकाम पर है कि अब तक 8,000 से अधिक बच्चियों को दरिंदों के चंगुल से मुक्त करा चुकी है, जिनकी उम्र दस साल से कम थी। सुनीता की बात करें तो औसतन उन्होंने हर साल 128 बच्चियों को आजाद कराया यानी औसतन हर तीन दिन में एक बच्ची। मानव तस्करी और देह व्यापार विरोधी यह संस्था अब तक लगभग 12,000 महिलाओं को भी कोठों, मानव तस्करों और बलात्कारियों के शिकंजे से निकाल चुकी है। मतलब अब तक 20,000 बच्चियों और महिलाओं को सुनीता की संस्था ने नई जिंदगी दी है।
                                   इसी विषय पर की पीएचडी
सुनीता की पढ़ाई बैंगलूरु और भूटान में हुई। ग्रेजुएशन करने के बाद सुनीता ने मंगलौर से एमएसडब्ल्यू यानी मास्टर इन सोशल वर्क में स्नातकोत्तर किया। इसके बाद उन्होंने समाज सेवा और सेक्स वर्कर्स की जिन्दगी को समझने, उनको मुक्त कराने के दौरान आने वाली समस्याओं और कानूनी पेंचीदगियों को समझने के लिए इसी विषय में पीएचडी भी की।
                                     पद्मश्रीसे सम्मानित
सुनीता कृष्णन प्रज्वलाके बैनर तले शोषित और पीड़ित महिलाओं को न्याय दिलाने के लिए संघर्ष कर रही है। जिस्म के कारोबारियों, दलालों, गुंडों-बदमाशों, बलात्कारियों जैसे असामाजिक तत्वों और अपराधियों के चंगुल से लड़कियों और महिलाओं को मुक्ति दिलाकर उनका पुनर्वास करवाने में प्रज्वलासमर्पित है। समाज-सेवा और महिलाओं के उत्थान के लिए किए जा रहे कार्यों की सराहना स्वरूप भारत सरकार ने सुनीता कृष्णन को देश के चौथे सबसे बड़े नागरिक सम्मान पद्मश्रीसे नवाजा है। इसके अलावा सुनीता 14 डॉक्यूमेंट्री बना चुकी हैं, अनेक पुस्तकें लिख चुकी हैं और दो दर्जन से अधिक पुरस्कार पा चुकी हैं। भारत की इस बेटी की जितनी भी सराहना की जाए वह कम है।


संगीत का अप्रतिम साधक स्वर्गीय रवीन्द्र जैन


घुंघरू की तरह बजता ही रहा हूं मैं....
बेहद गुणी संगीतकार रवीन्द्र जैन अब हमारे बीच नहीं रहे। उनके बारे में एक बार स्वर्गीय राज कपूर ने बेहद खास टिप्पणी की थी। मुझे कई बार यकीन नहीं होता कि वह नेत्रहीन होने के बावजूद संगीत को इतने करीब से कैसे देख लेते हैं। मैं इसे एक ईश्वरीय वरदान मानता हूं। सच रवीन्द्र जैन यानी फिल्म इंडस्ट्री के दद्दू बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। किन-किन फिल्मों और उनके किन-किन गानों का जिक्र किया जाए। जब तक फिल्म संगीत है, उन गीतों का सुरीलापन संगीत रसिकों को विभोर करता रहेगा। पहली बार फिल्म कांच और हीरा के एक गाने नजर आती नहीं मंजिल... के जरिए उन्होंने फिल्म संगीत के क्षेत्र में जबरदस्त दस्तक दी थी। इसके गायक रफी साहब ने भी इसे अपना पसंदीदा गाना बताया था। लेकिन उनकी किस्मत खुली एन.एन. सिप्पी की फिल्म चोर मचाए शोर.. से। इस फिल्म का एक गाना घुंघरू की तरह बजता ही रहा हूं... तो हमेशा के लिए अमर बन गया।
असल में उनके फिल्म संगीत में एन.एन. सिप्पी, राजश्री पिक्चर्स और राज कपूर तीन अहम पड़ाव थे। खासतौर से राजश्री पिक्चर्स की लगभग दो दर्जन से ज्यादा फिल्में उनके फिल्म संगीत का नायाब भंडार बन गईं। गीत गाता चल, अंखियों के झरोखों से, सौदागर, नदिया के पार, नैया आदि यह फेहरिस्त बहुत लम्बी है। उनकी हर सुर रचना में उनकी बहुमुखी प्रतिभा छिपी रहती थी। वह न सिर्फ तर्ज बनाते थे बल्कि गीत भी लिखते थे और कई बार कुछ अपने मन मुताबिक गाने वह खुद गा भी देते थे। 71 की उम्र में मृत्यु से कुछ दिनों पहले भी वह सुर रचना को लेकर मशगूल थे। जीवन के अंतिम दिनों में उनके पास फिल्मों के प्रस्ताव कम आने लगे थे लेकिन सुर रचना को लेकर वह लगातार व्यस्त थे। खासतौर से भक्ति संगीत को लेकर उनकी सक्रियता लाजवाब थी। भजन, कीर्तन और दोहों में उनका मन खूब रमता था।
फिल्मी गीतों में शब्दों का जाल बुनना उन्हें बखूबी आता था। इसके लिए फिल्म सौदागर का एक गाना सजना है मुझे सजना के लिए... का उदाहरण देना ही काफी होगा। ऐसे ढेरों गाने हैं जिसमें उन्होंने अलंकार, छंद आदि का बहुत कुशलता के साथ उपयोग किया। राजश्री प्रोडक्शंस की तो कई फिल्मों की सफलता सिर्फ उनके संगीत पर ही आश्रित हो गई थी। इसी तरह से राज कपूर ने कई संगीतकारों को नजरअंदाज करते हुए उन्हें राम तेरी गंगा मैली.. की जिम्मेदारी सौंपी थी। दद्दू ने उन्हें निराश भी नहीं किया था। आज इतने साल बाद भी इस फिल्म के हर गाने की कशिश कायम है। यही वजह है कि राज कपूर ने अपनी अगली महत्वाकांक्षी फिल्म हिना का संगीत भी उन्हें सौंपा। मगर यह फिल्म फ्लोर में जाने से पहले ही राज जी का निधन हो गया। उनके बेटे रणधीर कपूर ने इसे पूरा किया। इस फिल्म का संगीत भी बहुत सराहा गया।
फिल्म संगीत को दी विशेष पहचान
फिल्में चाहें छोटी हों या बड़ी, उनके गीत-संगीत में विविधता और सरलता बनाए रखना रवीन्द्र जैन की सबसे बड़ी खूबी रही। यही वजह है कि उनकी लगभग हर फिल्म का गीत-संगीत सराहा गया। यह अलग बात है कि उनकी उपलब्धियों को ठीक से सम्मानित नहीं किया गया। लेकिन इसकी कभी उन्होंने परवाह नहीं की। परिस्थितियां कैसी भी रही हों, उन्होंने अपने काम में तल्लीनता और गम्भीरता बनाए रखी। 1972 में पहली फिल्म कांच और हीरा में उनका लिखा गीत नजर आती नहीं मंजिल, तड़पने से भी क्या हासिल...तो लोकप्रिय हुआ लेकिन फिल्म नहीं चल पाई। ऐसे में राजश्री की सौदागर एक बड़ी चुनौती के रूप में सामने आई। रवीन्द्र जैन लता मंगेशकर के भक्त थे और चाहते थे कि फिल्म का गीत तेरा मेरा साथ रहे... लता जी गाएं। लता मंगेशकर उन दिनों बेहद व्यस्त थीं। फिर भी उन्होंने समय दे दिया। रिकार्डिंग से पहले पिता के निधन की खबर आई। जाते तो गाना छूट जाता। भारी मन से पहले उन्होंने गाना रिकार्ड कराया और फिर अलीगढ़ गए।
सौदागर का वह गीत ही नहीं सजना है मुझे सजना के लिए... भी काफी लोकप्रिय हुआ। इस फिल्म के साथ राजश्री के साथ रवीन्द्र जैन का ऐसा नाता जुड़ा कि वह करीब एक दर्जन फिल्मों तक चला। चितचोर के सभी गीत हिट हुए। जब दीप जले आना, जब शाम ढले आना.. और गोरी तेरा गांव बड़ा प्यारा.. के अलावा तू जो मेरे सुर में सुर मिला दे.. जैसे गीतों से रवीन्द्र जैन ने यशुदास के रूप में एक नई आवाज से परिचय कराया। धर्म में गहरी रुचि होने की वजह से रवीन्द्र जैन के संगीत में आध्यात्मिकता का अहसास भी होता था। गीत गाता चल.. के शीर्षक गीत के अलावा श्याम तेरी बंसी पुकारे राधा नाम, लोग करें मीरा को यूं ही बदनाम... में इसकी शुरुआती झलक थी।
आरती मंगल भवन अमंगल हारी... का भी उन्होंने फिल्म में खूबसूरती से प्रयोग किया। यही हुनर उन्होंने अंखियों के झरोकों से...दोहों का इस्तेमाल करके दिखाया। तपस्या का गीत जो राह चुनी तूने उसी राह में राही चलते जाना रे... जितना सफल हुआ उसे देखते हुए और कोई संगीतकार होता तो उसी कथानक पर बनी एक विवाह ऐसा भी उसी धुन को किसी न किसी रूप में इस्तेमाल करने का मोह नहीं छोड़ पाता। लेकिन रवीन्द्र जैन ने दोनों फिल्मों के संगीत में जमीन आसमान का फर्क दिखाया। नदिया के पार में उन्होंने आंचलिक संगीत का इस्तेमाल किया। दुल्हन वही जो पिया मन भाए के सुपर हिट होने का एक बड़ा कारण फिल्म के गीतों की कर्णप्रियता और कहानी के साथ उनका सटीक सामंजस्य बैठना रहा। इस फिल्म में रवीन्द्र जैन ने खुद भी एक गीत. रूठ गए विधाता हमार... गाया था।

राजश्री की फिल्मों के अलावा शुरुआती सफर में उन्हें एक बड़ा मौका 1974 में मिला। निर्माता एन.एन. सिप्पी और निर्देशक सी.पी. दीक्षित अपनी फिल्म चोर मचाए शोर के लिए कुछ अलग अंदाज के फड़कते हुए गीत चाहते थे। फिल्म के नायक शशि कपूर भी साथ बैठे। रवीन्द्र जैन ने एक के बाद एक कई धुन सुनाईं लेकिन बात नहीं जमी। तीस धुनों के बाद एन.एन. सिप्पी ने फिर इसरार किया तो दिल वाले दुल्हनियां ले जाएंगे... की धुन उन्होंने सुना दी। बस वहीं सुई अटक गई। फिल्म बनी। सुपरहिट हुई। सिर्फ एक गीत ले जाएंगे ले जाएंगे दिल वाले दुल्हनियां ले जाएंगे.. ही नहीं घुंघरू की तरह बजता ही रहा हूं मैं...व एक डाल पे तोता बोले एक डाल में मैना... जैसे फिल्म के गीत भी काफी सराहे गए। करीब दो दशक बाद तो यश चोपड़ा ने अपने बेटे आदित्य चोपड़ा के निर्देशन में बनी पहली फिल्म का शीर्षक ही गीत दिल वाले दुल्हनियां ले जाएंगे पर रख दिया।
शादियों के दौरान यह गीत आज भी बैंडवालों की पहली पसंद है। बहरहाल, चोर मचाए शोर की सफलता ने शशि कपूर को स्टार बना दिया। इसी टीम ने बाद में फकीरा में भी यही कमाल दिखाया। वी.आर. चोपड़ा की पति-पत्नी और वो व इंसाफ का तराजू या एफ.सी. मेहरा की सलाखें अथवा सुनील दत्त की ये आग कब बुझेगी इन फिल्मों और कई फिल्मों में रवीन्द्र जैन ने विषय के हिसाब से संगीत दिया। रवीन्द्र जैन के करियर का सबसे बड़ा पड़ाव उस समय आया जब राजकपूर ने अपनी फिल्म राम तेरी गंगा मैली में संगीत देने का दायित्व उन्हें सौंपा। यह सिलसिला भी संयोग से जुड़ा। राजेंद्र कुमार के भाई नरेश कुमार की फिल्म दो जासूस का संगीत रवीन्द्र जैन ने ही दिया था। फिल्म में राजकपूर बतौर अभिनेता थे। मुलाकात हुई तो रवीन्द्र जैन ने उनके साथ काम करने की इच्छा जताई। बात आई गई हो गई। कुछ साल बाद दिल्ली में एक समारोह में राज कपूर ने रवीन्द्र जैन को एक राधा एक मीरा गाते सुना। तत्काल उन्होंने रवीन्द्र जैन की हथेली पर सवा रुपया रख दिया और कहा कि यह गीत मेरा हुआ। इस तरह शुरू हुआ राम तेरी गंगा मैली हो गई, पापियों के पाप धोते धोते.. तो लोकप्रिय हुआ ही महफिल में उनके गाए जिस गीत ने राज कपूर को मोहा था वह गीत एक मीरा एक राधा दोनों ने श्याम को चाहा, अंतर क्या दोनों की प्रीत में बोलो... एक प्रेम दीवानी एक दरस दीवानी फिल्म की जान बन गया।

फिल्म के छह गीत रवीन्द्र जैन ने लिखे थे। राज कपूर ने बाद में हिना के लिए भी रवीन्द्र जैन को लिया। राज कपूर की असामयिक मौत की वजह से फिल्म हालांकि उनके बेटे रणधीर कपूर ने निर्देशित की लेकिन फिल्म के संगीत पक्ष में रवींद्र जैन ने राज कपूर की छाप को मिटने नहीं दी। यसुदास के अलावा जसपाल सिंह, हेम लता, आरती मुखर्जी, सुरेश वाडकर, चंद्राणी मुखर्जी आदि नई आवाजों को रवीन्द्र जैन ने मौका दिया और उन्हें उभरने का मंच मुहैया कराया।

हाथों से नहीं पैरों से लिखी सफलता की गाथा


प्रेरणा बनीं सुधा चंद्रन
श्रीप्रकाश शुक्ला
अगर आपको जीवन में थोड़ी प्रेरणा की तलाश है तो ह्यूमंस ऑफ बॉम्बे फेसबुक पेज आपके लिए मददगार साबित हो सकता है। इस पन्ने पर मशहूर भरतनाट्यम डांसर एवं अभिनेत्री सुधा चंद्रन ने अपने जीवन से जुड़ी एक बेहद ही प्रेरणादायी कहानी साझा की है। इसमें उन्होंने बताया है कि एक हादसे में अपने पैर गंवाने के बाद कैसे उन्होंने दोबारा स्टेज पर नाटक और नृत्य करना शुरू किया। अपने पोस्ट में 51 वर्षीय चंद्रन ने नृत्य के प्रति अपने जुनून को बयां किया है और साथ ही बताया कि कैसे एक हादसे ने उनकी जिंदगी और कला को लेकर संजोये उनके सपने को झकझोर कर रख दिया।
सड़क हादसे में अपने पैर गंवाने के बाद के जद्दोजहद को बयां करते हुए चंद्रन लिखती हैं कि वह अक्सर लोगों को यह कहते सुनती थीं, कितने दुख की बात है तुम्हारा सपना पूरा नहीं हो पाएगा या हमारी इच्छा थी कि तुम डांस कर सको। वह लिखती हैं पैर गंवाने के बाद मैंने जयपुर फुट की मदद से दोबारा चलना और फिर उसके बाद डांस करना सीखा, जोकि मैं अपनी पूरी जिंदगी जीना चाहती थी। वह लिखती हैं, मैंने साढ़े तीन साल की उम्र में डांस करना सीखा था। मैं स्कूल के बाद डांस सीखने जाती और वहां से रात साढ़े नौ बजे लौटती थी। यही मेरी जिंदगी थी। इसके साथ ही वह बताती हैं कि त्रिची में बस से सफर के दौरान हुए एक भयानक हादसे ने उनकी जिंदगी ही बदल कर रख दी। हालांकि इसके बाद उन्होंने दोबारा डांस करना सीखा और जब उन्होंने कृत्रिम पैरों के साथ स्टेज पर पहली पर डांस किया तो लोगों की प्रतिक्रिया प्रेरणादायी थी। इसके बाद उन्होंने एक फिल्म नाचे मयूरी में भी काम किया जोकि उनके ही जीवन पर आधारित थी। इस फिल्म के लिए उन्हें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।
जयपुर फुट की जहां तक बात है, इसने भारत ही नहीं दुनिया भर में अपने पैर खो चुके लोगों को सम्बल दिया है। लेकिन सुधा चंद्रन जैसे कुछ लोग हैं, जिन्होंने कृत्रिम पैर के जरिए जिस्मानी कमी को एक काबिलियत में तब्दील कर दिया और ऐसा किरदार खड़ा किया जो औरों के लिए मिसाल बन गया। सुधा ने जयपुर फुट के सहारे नाचे मयूरी फिल्म में अपने नृत्य से सबका मन मोह लिया। सुधा को जयपुर अपना दूसरा घर लगता है क्योंकि यहीं उन्हें जयपुर फुट लगा। एक दिन जब जयपुर में सुधा चंद्रन ने नृत्य पेश किया तो भारी भीड़ उमड़ी। ना ये सावन था, ना घटाएँ और ना आसमान में कोई बादलों का बसेरा। लेकिन सुधा जब मंच पर आईं तो लगा सैकड़ों बिजलियां आसमान में कौंध रही हैं। सभागार में समाया हर जिस्म रोमांचित था और हर हाथ तालियों से ध्वनि कर सुधा की नृत्य प्रस्तुति की दाद दे रहा था। सुधा ऐसे नाचीं जैसे कोई आराधना स्थल पर इबादत कर रहा हो। फिर सुधा लोगों से मुखातिब हुईं और कहा- जन्म मेरा मुंबई में हुआ लेकिन जयपुर ने मुझे दूसरी जिन्दगी दी है। इतने सालों से मैं नृत्य कर रही हूँ लेकिन यह पहला मौका है जब मुझे जयपुर में नृत्य करने का अवसर मिला है। यह बहुत ही खुशगंवार मौका है, मेरे लिए इससे बड़ा कोई सम्मान नहीं हो सकता।
दरअसल, एक हादसे ने सुधा की जिन्दगी में झंझावात ला दिया था। वर्ष 1981 में एक दुर्घटना में सुधा का एक पैर हमेशा के लिए जिस्म से जुदा हो गया। सुधा उन दिनों की याद करते हुए कहती हैं- हादसे ने मेरी जिन्दगी में अँधेरा उतार दिया। मैं भविष्य को लेकर बहुत उदास थी, अपनी माँ के साथ जयपुर आई तो इतनी भर मुराद थी कि मैं चल सकूँ। मैं जयपुर फुट के लोगों से मिली और पूछा क्या मैं कभी चल सकूँगी। सुधा ने पूरे सभागार में अपनी कहानी सुनाई तो हर व्यक्ति ने उन्हें ध्यान से सुना। सुधा कहने लगीं- मैंने पूछा क्या मैं नाच भी सकूँगी, तो डॉक्टरों ने कहा बेशक आप नृत्य कर सकेंगी। ये मेरी जिन्दगी का सबसे अनमोल लम्हा था।
भगवान महावीर विकलांग सहायता समिति ने जयपुर फुट को दुनिया भर में पहुँचाया है। इस समिति के प्रमुख डी.आर. मेहता ने सुधा को पैर खोकर फिर खड़ी होने का प्रयास करते भी देखा है। लेकिन जब उन्होंने सुधा को नृत्य करते देखा तो अभिभूत हो गए। वे आशीर्वाद भाव से बोले सुधा ने तो कमाल कर दिया। जीवन के हादसे को अभिशाप से वरदान में बदल दिया। वह बाकी लोगों के लिए मिसाल बन गई हैं। सुधा ने नाचे मयूरी फिल्म के जरिए जमाने को अपनी काबिलियत से रूबरू कराया है। कोई उन्हें टीवी सीरियल के रामोला सिकंद के रूप में जानता है तो कई लोग उन्हें अपाहिज जिन्दगियों के लिए एक रोशन किरदार के रूप में देखते हैं। सिलीगुड़ी की सुष्मिता चक्रव्रती के एक पैर में कमी है। लेकिन उन्होंने सुधा के किरदार से प्रेरणा ली और अब वह भी मंच पर बखूबी नृत्य करती हैं।
सुष्मिता का कहना है कि जब मैं उदास होती तो मेरी नानी मुझे सुधा का उदाहरण देतीं। बस उनको देखकर मैं नृत्य करना सीख गई। एक वह वक्त था जब सुधा जयपुर फुट के सहारे जिन्दगी गुजार रही थीं तभी रवि देंग ने उनका हाथ थामा और अपनी जीवन-संगिनी बनाया। वे कहते हैं कि उन्हें सुधा पर बहुत गर्व है। सुधा ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। सुधा कहती हैं- मुझे जयपुर फुट से एक पहचान मिली है। हम जैसे लोग इसके सहारे चल रहे हैं। मैं हादसे के वक्त बहुत छोटी थी। मैंने बहुत सपने देखे थे, सहसा यह हादसा हो गया और सपने बिखर गए। मेरी माँ सब्जी लेने रात को जाती थीं क्योंकि लोग मेरी विकलांगता को लेकर अप्रिय सवाल पूछते थे। मेरे माता-पिता ने भी दुख झेला है। तभी मैंने प्रण किया कि मुझे ऐसा करना है कि माँ-बाप गर्व करें और वह मैंने कर दिखाया। सुधा जब बिजली की मानिंद नाचती हैं तो लोग भूल जाते हैं कि उनके कौन से पैर में जयपुर फुट लगा है। दुनिया में लोग अपनी कामयाबी के किस्से हाथों से लिखते हैं लेकिन सुधा चंद्रन ने अपनी सफलता की गाथा पैरों से लिखी है।


Thursday 29 September 2016

सरिता ने खीचीं हाथों बिना उम्मीदों की लकीरें


इलाहाबाद यूनिवर्सिटी की फाइन आर्ट छात्रा रही है यह बेटी
आप अगर सरिता की बनाई पेंटिंग और मूर्तियाँ देखेंगे तो आपका दिल कह उठेगा कि इस कलाकार के हाथों में जादू है। मगर जब आपको यह पता चले कि इन शानदार कलाकृतियों की शिल्पी सरिता के हाथ ही नहीं हैं तो आप क्या सोचेंगे। जी हां, भारत की इस बेटी ने अपनी निःशक्तता को ही अपनी ताकत बनाकर एक मिसाल पेश की है। चार साल की उम्र में बिजली के झटके की वजह से दोनों हाथ और बांया पैर खो देने वाली सरिता द्विवेदी ने समाज के सामने ऐसी मिसाल पेश की है जो बिरली ही देखने को मिलती है। सरिता दाँतों में पेंटिंग ब्रश पकड़ कर कागज पर जो कुछ रंगती और बनाती है वह हम या आप अपने हाथों से भी नहीं बना सकते। सरिता अपने पैरों की उंगलियों से मिट्टी में जिस अद्भुत तरीके से लकीरें उकेर कर जान फूँक देती है वैसा कोई आम इंसान नहीं कर सकता।
  आम इंसानों जैसी नहीं है सरिता
व्हील चेयर ही 24 साल की सरिता की जिन्दगी है। वह शाम को अपने दोस्तों के साथ भीड़ भरे बाजार और रेस्तरां में बैठकर बिल्कुल वैसे ही हँसती है जैसे उसके बाकी दोस्त। दाँतों में पेंटिंग ब्रश दबाकर कोरे कागज पर वह रंग बिखेर देती है। उनमें ऐसे चित्रों और दृश्यों को भरती है जिसे देखकर आप वाह-वाह कहे बिना नहीं रह पाएंगे। जिस तेजी से हम मोबाइल उठाकर हैलो कहते हैं वह भी उतनी ही जल्दी मोबाइल पर हैलो कहती है। घूमने की शौकीन सरिता शरीर से सही सलामत लोगों के जैसे कभी इस शहर तो कभी उस शहर की सैर करती है। तो फिर वह हम सबसे अलग कैसे हो सकती है। यही सवाल तो सरिता भी अपने समाज से पूछती है।
एक पैर और दोनों हाथ दुर्घटना में खो चुकी सरिता को अब तक बहादुरी और सशक्तीकरण के लिए दर्जनों पुरस्कार मिल चुके हैं। पेंटिंग्स और स्कल्पचर मेकिंग के लिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त सरिता की उपलब्धियों पर अब हर कोई नाज कर सकता है। सरिता कहती हैं- मैं खुद को कभी किसी से अलग करके नहीं देखती। जिन्दगी में कभी कुछ तय नहीं किया न ही कभी यह सोचा की कुछ अलग करना है। मेरे पास हाथ और पैर नहीं हैं तो क्या समाज मुझे खुद से अलग कर देगा। समाज ऐसा करने वाला कौन होता है। मैं भी आम बच्चों की तरह इलाहाबाद के ओल्ड कैंट केन्द्रीय विद्यालय में पढ़ती थी। जैसे बाकी बच्चे पढ़ते थे वैसे मैं भी क्लास अटेंड करती। पेंटिंग मुझे पसंद थी इसलिए इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के फाइन आर्ट डिपार्टमेंट में दाखिला लिया और कालेज जाने लगी।
सरिता द्विवेदी का अपना फेसबुक पेज है और पर्सनल प्रोफाइल भी। वह अपनी रोजाना की ज़िंदगी से जुड़ी तस्वीरों को शेयर करती है। तस्वीरों को देखकर कोई भी सहजता से यह समझ सकता है की वह विकलांगता को अभिशाप की तरह नहीं बल्कि उसे भुलाकर आम इंसानों की तरह जिन्दगी जी रही है। सरिता का कहना है कि डिसेबल शब्द का मतलब सहानुभूति हासिल करना नहीं होना चाहिए। जो हर तरह से सही सलामत हैं वे हमें लेकर दया दिखाना शुरू कर देते हैं। यह एक तरह का ह्यूमन नेचर है। मुझे बुरा लगता है और मैं ऐसे लोगों से बात करके उनकी यह सोच बदलने के लिए कहती हूँ। यह सोच बदलनी चाहिए। इसके साथ ही जो डिसेबल लोग हैं वे भी अपनी अपंगता को कमज़ोरी की तरह न लें। मैं स्लीवलेस कपड़े पहनती हूं जबकि अक्सर देखा यह गया है कि जिनके हाथ किसी दुर्घटना में खो गए वे इसे छुपाते हैं। हम खुद भी कुछ हद तक सहानुभूति और दया के पात्र बने रहना चाहते हैं।
सरिता ने बातचीत करते हुए एक उदहारण भी पेश किया। उसने कहा- हम घर में कोई परिंदा लाते हैं तो वह परिवार के हर सदस्य को पसंद नहीं आता लेकिन धीरे-धीरे सब लोग उससे फ्रेंडली हो जाते हैं। जो उसे नापसंद करते थे, वह उनकी भी जरूरत बन जाता है तो हम उसे अपना लेते हैं। समय के साथ परिवर्तन सब जगह होता है, बस कोशिश करते रहना चाहिए। विकलांगता कोई अभिशाप या सजा नहीं होती, यह हमारे साथ अनजाने में हुई दुर्घटना भर है। हमें समाज में विकलांगों के प्रति बनाई गई धारणा बदलने के लिए खुद को बदलना होगा। मैं बहुत मस्ती खोर हूँ।
                                  सरिता की उपलब्धियाँ-
सरिता ने कहती हैं कि अब तक मुझे इतने अवार्ड और पुरस्कार मिल चुके हैं कि मैं खुद भी भूल गई हूँ। स्वर्गीय पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने 2005 में बालश्री, 2007 में उपराष्ट्रपति ने विकलांगता सशक्तीकरण के लिए सरिता को पुरस्कृत किया। गोडफ्रे फिलिप्स नेशनल ब्रेवरी अवार्ड 2010 में दिया गया। इजिप्ट एम्बेसी ने 2007 में पेंटिंग्स के लिए सरिता को पुरस्कृत किया। बाल भवन द्वारा पेंटिंग में सिल्वर अवार्ड प्रदान किया गया।
फतेहपुर की रहने वाली सरिता के पिता आर्मी से रिटायर हो चुके हैं। विजय कान्त द्विवेदी की सबसे छोटी बेटी सरिता का एक भाई और दो बहनें हैं। परिवार ने हमेशा से सरिता का साथ दिया और कभी यह अहसास नहीं होने दिया की वह बगैर हाथ और पैर की बच्ची है। खिर में सरिता कहती हैं मैंने अभी तक जो कुछ किया है उससे संतुष्ट नहीं हूँ और बेहतर करने की भूख हमेशा बनी रहती है। अपनी पेंटिंग्स और कला की प्रदर्शनी लगाने की उसकी ख्वाहिश है। परिवार के लिए अपने पैसे से घर भी लेना है। नौकरी भी करनी है। अभी तो सफर बस शुरू हुआ है।





दवा और दुआ से जीतें दिव्यांगों का दिल

                      
               

जियो तो ऐसे जियो की मौत की ख्वाहिश कदमों पर पड़ी हो,
मरो तो ऐसे मरो कि जिन्दगी तुम्हें वापस ले जाने कब्र पर खड़ी हो।
                                   श्रीप्रकाश शुक्ला
समाज में विकलांगता को अभिशाप मानने वालों की कमी नहीं है। देखा जाए तो दुनिया भर में 15 फीसदी आबादी निःशक्त है बावजूद इसके इन्होंने अपनी अदम्य इच्छाशक्ति से दुनिया को दिखाया है कि हम किसी से कम नहीं। हर साल तीन दिसम्बर को दुनिया भर में विश्व विकलांग दिवस ढेरों आश्वासनों के बीच मनाया जाता है लेकिन जमीनी हकीकत किसी से छिपी नहीं है। वर्ष 1976 में संयुक्त राष्ट्र आमसभा द्वारा विकलांगजनों के लिए एक दिवस तय किया गया, जिसकी घोषणा वर्ष 1981 को की गई। उस समय अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर विकलांगजनों के पुनरुद्धार, रोकथाम, प्रचार और बराबरी के मौकों पर जोर देने के लिये योजना बनायी गयी थी। समाज में उनकी बराबरी के विकास के लिये विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों के बारे में लोगों को जागरूक करने, सामान्य नागरिकों की तरह ही उनकी सेहत पर भी ध्यान देने और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिये पूर्ण सहभागिता और समानता का थीम निर्धारित किया गया था। सरकारी और निजी संगठनों के लिये निर्धारित समय-सीमा प्रस्ताव के लिये संयुक्त राष्ट्र आमसभा द्वारा विकलांग व्यक्तियों के उद्धार को वर्ष 1983 से 1992 को विकलांग राष्ट्र दशक घोषित किया गया था। इसका मकसद विकलांगों के लिए अनुशंसित क्रियाकलापों को ठीक ढंग से लागू करना था। अफसोस इस दिशा में सुधार की बजाय स्थिति और भयावह हुई है।
दरअसल विकलांगता एक ऐसी परिस्थिति है जिससे आप चाहकर भी पीछा नहीं छुड़ा सकते। एक सामान्य व्यक्ति छोटी-छोटी समस्याओं पर झुंझला उठता है तो जरा विचार कीजिए दुनिया की उस 15 फीसदी आबादी की, जिनका खुद का शरीर साथ छोड़ देता है। फिर भी जीना कैसे है, कोई इनसे सीखे। कई लोग ऐसे हैं जिन्होंने विकलांगता जैसी कमज़ोरी को अपनी ताकत बनाया है, तो कई लोग ऐसे भी हैं जो जिन्दगी से निराश होकर इसी कमजोरी पर सिर्फ आंसू बहा रहे हैं। इनके आंसू कैसे थमें, इसके लिए साल में सिर्फ एक दिन बहुत बड़ी-बड़ी बातें होती हैं लेकिन अगले ही दिन से हम विकलांगजनों से मुंह फेर लेते हैं। समाज की यही उपेक्षा इन्हें हीनभावना का शिकार बना देती है। दरअसल, हम उनकी कमजोरी का मजाक उड़ाकर उन्हें और कमजोर बना रहे हैं। हमें इन पर दया दिखाने की बजाय मदद को आगे आना चाहिए। यह भी हमारे समाज का अभिन्न अंग हैं, इन्हें भी जीवन जीने का पूरा हक है। यह तभी मुमकिन है जब हम इन्हें अहसास करने का मौका दें कि वे भी किसी से कम नहीं। यदि हम इनकी उपेक्षा करते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब यही लोग अलग प्रांत जैसी मांग करेंगे जहाँ इन्हें सुकून और शांति की जिन्दगी मिल सके। सरकार की भी कोशिश होनी चाहिए कि वह भी इन्हें अधिकारों से रूबरू कराए, बंदी न बनने दे। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अपंग और विकलांग कोई भी, कभी भी हो सकता है।
जरा सोचिए इनके हालातों पर। आज के समय में जब खून के रिश्ते तक धोखा दे जाते हैं तो इन्हें अपना सहारा स्वयं बनना पड़ता है। सोचिए यदि आपका खुद का शरीर ही साथ न दे तो आप किस उम्मीद पर जिएंगे, किसके सहारे जिएंगे। सामाजिक उपेक्षा के दंश के चलते ही यह अपनी अलग दुनिया बनाकर खुश रहना सीख लेते हैं। लोगों की हीनभावना ही इन्हें आहत करती है। यह रोज जीते और रोज मरते हैं। कहने को केन्द्र और राज्य सरकारों ने इनके लिए कई योजनाएं चला रखी हैं, मगर क्या सिर्फ इतना ही इनके लिए काफी होगा। विकलांग दिवस सुनिश्चित कर देने मात्र से क्या यह खुश रह सकते हैं। इन्हें हर रोज स्नेह की जरूरत है। जब तक समाज का प्यार इन्हें हर रोज नहीं मिलेगा इनका आत्मसम्मान मर्माहत-आहत होता ही रहेगा।
हम विकलांग लोगों को बेसहारा और अछूत मानने का गुनाह हर रोज करते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि भगवान ने इन्हें भी दो आँखें, दो कान, दो हाथ और दो पैर दिए हैं, अगर इनमें से कोई अंग काम नहीं करता तो इसमें इनकी क्या गलती। यह तो नसीब का खेल है, इंसान तो यह तब भी कहलाएंगे ही। हमारा समाज इनकी मदद ना भी करे तब भी उसे इनके साथ जानवरों सा बर्ताव करना तो कदाचित उचित नहीं है। इंसानी दुनिया को देखें तो किसी के पास पैसे की कमी है, किसी के पास खुशियों की, किसी के पास काम की। वैसे ही अगर इनके शारीरिक, मानसिक, ऐन्द्रिक या बौद्धिक विकास में किसी तरह की कमी रह भी गई है तो यह अछूत नहीं हो जाते। जब कमी सब में कुछ न कुछ है तो निःशक्तों को ही हेय-नजर से आखिर क्यों देखा जाए।
अगर हम इनकी मदद की पहल करें तो हर कोई चैन के साथ रह सकता है। अगर किसी की सुनने की शक्ति कमजोर है तो उसे लिप-रीडिंग यानी होठों से पढ़ने में दक्ष किया जा सकता है। इनकी आंखों का इस्तेमाल करके इन्हें सशक्त बनाया जा सकता है। वैसे ही अगर कोई देख नहीं सकता तो उसके सुनने की शक्ति को इतना मजबूत बना दें कि वह कानों से ही देखने लगे और नाक से महसूस कर ले। कोई अंग खराब है तो उसे ऐसा पहनावा दें कि उसका वह अंग छिप जाए और इंसान पूरे आत्मविश्वास के साथ सर उठाकर चल सके। विकलांगता को अभिशाप मानने की गलती करने की बजाय हम इनकी थोड़ी सी मदद और हौसला देकर विकलांगता के दंश पर मरहम लगा सकते हैं। वैसे भी दवा और दुआ ही तो दो ऐसे विकल्प हैं जिन पर यह दुनिया चलती है। हम निःशक्तता की समस्या को इस दुनिया से मिटा तो नहीं सकते पर हाँ इससे लड़कर इसे दुनिया से गायब जरूर कर सकते हैं।


Friday 23 September 2016

खेलों में बेटियों की जयकार


भारत बदल रहा है। हमारे समाज की सोच के साथ उसके सरोकारों में भी अब बदलाव दिखने लगा है। कल तक जो क्षेत्र सिर्फ और सिर्फ पुरुषों के लिए आबाद थे, उनमें बेटियां भी न केवल दखल दे रही हैं बल्कि अपनी कामयाबी से मुल्क के गौरव को चार चांद भी लगा रही हैं। भारत के लम्बे ओलम्पिक इतिहास को देखें तो महिला शक्ति का शानदार आगाज 21वीं सदी में ही हुआ है। 2000 सिडनी ओलम्पिक से रियो ओलम्पिक तक भारत की पांच बेटियां भारोत्तोलक कर्णम मल्लेश्वरी, मुक्केबाज एम.सी. मैरीकाम, शटलर साइना नेहवाल, पी.वी. सिन्धू और पहलवान दीक्षा मलिक मैडल के साथ वतन लौटी हैं। इसमें पैरा एथलीट दीपा मलिक का भी शुमार कर लें तो यह संख्या छह हो जाती है। इसे हम देश में महिला शक्ति का अभ्युदय कहें तो सही होगा। इन छह बेटियों में तीन तो उस राज्य हरियाणा से ताल्लुक रखती हैं जिसे रूढ़िवादी और पुरुष प्रधान समाज के लिए जाना जाता है। हरियाणा में लड़कों के मुकाबले लड़कियों की संख्या काफी कम है। अब इन बेटियों के मैदानों में करिश्माई प्रदर्शन और सफलता के बाद उम्मीद बंधी है कि लोग बेटियों को बेटों से कमतर मानने की भूल नहीं करेंगे।
खेल मैदानों में बेटियों का करामाती प्रदर्शन ओलम्पिक तक ही सीमित नहीं है। यदि हम सैफ खेलों, एशियन खेलों, राष्ट्रमण्डल खेलों और क्रिकेट मैदानों पर नजर डालें तो पी.टी. ऊषा, अंजू बाबी जार्ज, सानिया मिर्जा, डायना एडुलजी, संध्या अग्रवाल, मिताली राज सहित दो सौ से अधिक बेटियां अपने शानदार खेल कौशल से मुल्क को गौरवान्वित कर चुकी हैं। भारतीय बेटियों के लिए खेल मैदान कभी मुफीद नहीं माने गये, वजह एक नहीं अनेक हैं। कभी हमारी रूढ़िवादी परम्पराएं तो कभी लोग क्या कहेंगे जैसी दकियानूसी बातें बेटियों की राह का रोड़ा बन जाती हैं। देखा जाए तो अधिकांश खेलों में गरीब और मध्यम वर्ग की बेटियां ही खेल खेल में खिलाड़ी बनी हैं। एक समय था जब खिलाड़ियों पर धन वर्षा नहीं होती थी तब लोगों का नजरिया था कि बेटियां तो दूसरे की अमानत होती हैं, जिनका जीवन चूल्हे-चौके तक ही सीमित होता है। अब ऐसी बात नहीं है। आज खेलों में हासिल सफलता हर क्षेत्र से बड़ी है। 21वीं सदी में देश ने देखा कि बेटियों ने अपनी शानदार दस्तक से सब कुछ बदल कर रख दिया है।
ओलम्पिक में भारतीय महिलाओं की सहभागिता की जहां तक बात है, मेरी लीला रो भारत की तरफ से ओलम्पिक खेलों में शिरकत करने वाली पहली महिला खिलाड़ी हैं तो पैरालम्पिक में तीरंदाज पूजा ने पहली बार लक्ष्य पर निशाने साधे थे। 1984 के लॉस एंजिल्स ओलम्पिक खेलों में सेकेण्ड के सौवें हिस्से से पदक से चूकी पी.टी. ऊषा के सपने को 2000 सिडनी ओलम्पिक में भारोत्तोलक कर्णम मल्लेश्वरी ने कांस्य पदक जीतकर साकार किया था। ओलम्पिक इतिहास में पहली भारतीय महिला विजेता होने का श्रेय कर्णम मल्लेश्वरी को ही जाता है। जब वर्ष 2000 में कर्णम मल्लेश्वरी सिडनी ओलम्पिक में भाग लेने पहुँचीं तब तक एवरेस्ट के शिखर पर एक नहीं दो-दो भारतीय महिलाएं कदम रख चुकी थीं। तब तक महिलाएं वायुसेना में हेलीकॉप्टर भी उड़ाने लगी थीं और एक महिला भारत की प्रधानमंत्री भी बन चुकी थी लेकिन किसी भारतीय महिला ने ओलम्पिक में पदक नहीं जीता था। सिडनी ओलम्पिक में यह कारनामा कर दिखाया श्रीकाकुलम आंध्रप्रदेश में जन्मी कर्णम मल्लेश्वरी ने। कर्णम मल्लेश्वरी ने महिलाओं के 69 किलो भारवर्ग की भारोत्तोलन प्रतियोगिता में कांस्य पदक से अपना गला सजाया। उस दिन मल्लेश्वरी ने 240 किलो वजन उठाया। स्नैच में 110 किलो और क्लीन और जर्क में 130 किलो। उस दिन मल्लेश्वरी अपने प्रशिक्षक की त्रुटि के चलते स्वर्ण पदक से वंचित रह गई। दरअसल, इस तरह की प्रतियोगिताओं में आखिरी लिफ्ट में अधिक से अधिक ढाई किलो या फिर बहुत हुआ तो पाँच किलो वजन बढ़ाया जाता है लेकिन मल्लेश्वरी के प्रशिक्षक ने उससे 137 किलो वजन उठाने को कहा। अगर वह 132 किलो भी उठा लेती तो स्वर्ण उसी का था। यदि उस दिन मल्लेश्वरी 132 किलो वजन उठाती तो तीनों प्रतिस्पर्धियों के वजन बराबर होते, चूँकि मल्लेश्वरी का शारीरिक वजन उन दोनों से कम था इसलिए स्वर्ण पदक उसे ही मिलता। खैर, मल्लेश्वरी से पहले 1988 में भारत की एथलीट पीटी ऊषा पदक के बेहद करीब पहुंची थीं। 1980 के मास्को ओलम्पिक में ऊषा किसी स्पर्धा के फाइनल में पहुँचने वाली पहली भारतीय महिला बनी थीं। 1984 के लॉस एंजिल्स ओलम्पिक में 400 मीटर हर्डल्स में ऊषा चौथे स्थान पर रहीं।
सिडनी के बाद भारतीय महिलाओं को अपने दूसरे ओलम्पिक पदक के लिए 12 साल का लम्बा इंतजार करना पड़ा। 2012 के लंदन ओलम्पिक में पांच बार की विश्व चैम्पियन मुक्केबाज एम.सी. मैरीकाम और शटलर साइना नेहवाल ने अपने-अपने गले कांसे के पदक से सजाए। मुक्केबाज़ एम.सी. मैरीकॉम रियो ओलम्पिक तो नहीं खेल पाईं लेकिन 2012 में लंदन ओलम्पिक में भारत को मुक्केबाजी में पदक दिलाकर साबित किया कि वह वाकई रिंग मास्टर हैं। मैरीकाम ने एशियन चैम्पियनशिप में चार तो 2014 के एशियन गेम्स में भी स्वर्ण पदक जीता था। मैरीकाम के इस करिश्माई प्रदर्शन को कमतर नहीं माना जा सकता क्योंकि भारत का कोई पुरुष मुक्केबाज आज तक इतनी कामयाबी हासिल नहीं कर सका है।
लंदन ओलम्पिक में मैरीकाम के अलावा भारत की बेटी और बैडमिंटन में चीनी दीवार लांघने वाली साइना नेहवाल ने भी कांस्य पदक जीतकर भारतीय खुशी को दोगुना कर दिया था। बैडमिंडन में ओलम्पिक मैडल जीतने वाली वह पहली भारतीय महिला बैडमिंटन खिलाड़ी हैं। साइना ने 2010 के दिल्ली राष्ट्रमंडल खेलों में भी स्वर्ण पदक जीता था। ओलम्पिक 2012 में कांस्य पदक के लिए साइना का मैच चीनी खिलाड़ी और उस समय की विश्व नम्बर दो जिंग वैंग से था। वैंग के घायल होने की वजह से साइना को विजयी घोषित किया गया और उन्हें कांस्य पदक मिला। साइना उसके बाद से कई बड़े खिताब जीत चुकी हैं। भारत की यह शटलर चोटिल होने के कारण रियो ओलम्पिक में बेशक पदक नहीं जीत पाई लेकिन बैडमिंटन खेल में इसने पूरी दुनिया में भारत को पहचान जरूर दिलाई है।
लंदन में भारतीय बेटियों के दो पदक जीतने के बाद उनसे रियो ओलम्पिक में काफी उम्मीदें बढ़ गई थीं। खुशी की ही बात है कि भारतीय बेटियों साक्षी मलिक और पी.वी. सिन्धू ने यहां भी भारतीय खेलप्रेमियों को निराश नहीं होने दिया। दरअसल जो काम ओलम्पिक इतिहास में कोई भारतीय महिला खिलाड़ी नहीं कर सकी वह काम स्टार शटलर पीवी सिन्धू ने रियो ओलम्पिक में कर दिखाया। सिन्धू ओलम्पिक में चांदी का पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला खिलाड़ी बनीं। राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी प्रतिभा का जलवा दिखा चुकी इस खिलाड़ी से लोगों को काफी उम्मीदें थीं और इसने सवा अरब लोगों को निराश भी नहीं किया। 5 फुट 10 इंच की सिन्धू ने वर्ष 2009 में पहली बार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने दमखम का परिचय दिया था। उसने 2009 में कोलम्बो में आयोजित सब जूनियर एशियाई बैडमिंटन चैम्पियनशिप में कांस्य पदक जीता, इसके बाद 2010 में ईरान फज्र इंटरनेशनल बैडमिंटन चैलेंज के एकल वर्ग में चांदी का तमगा हासिल किया। सिन्धू के जीवन में उल्लेखनीय सफलता सात जुलाई, 2012 को आई जब इसने एशिया यूथ अण्डर-19 चैम्पियनशिप के फाइनल में जापान की खिलाड़ी नोजोमी ओकुहरा को हराया। इसके बाद वर्ष 2013 में सिन्धू ने चीन के ग्वांग्झू में आयोजित 2013 की विश्व बैडमिंटन चैम्पियनशिप में एकल पदक जीतकर इतिहास रचा। ऐसा करने वाली वह पहली भारतीय महिला बैडमिंटन खिलाड़ी बनीं। एक दिसम्बर, 2013 को सिन्धू ने कनाडा की मिशेल ली को हराकर मकाऊ ओपन ग्रांप्री गोल्ड का महिला सिंगल्स खिताब भी जीत दिखाया।
पी.वी. सिन्धू का पूरा नाम पुसरला वेंकट सिन्धू है। पी.वी. सिन्धू के पिता पी.वी. रमण और मां का नाम पी. विजया है। पी.वी. सिन्धू के पिता वालीबाल के राष्ट्रीय खि‍लाड़ी हैं, उन्हें वर्ष 2000 में भारत सरकार का अर्जुन पुरस्कार प्राप्त हो चुका है। सिन्धू की मां भी एक वालीबॉल खि‍लाड़ी हैं और उनकी इच्छा थी कि उनकी बेटी भी इस खेल को अपनाये और उनके सपनों को पूरा करे लेकिन सिन्धू जब छह वर्ष की थी, उस समय देश को एक बड़ी सफलता मिली। उस वर्ष भारत के शीर्ष बैडमिंटन खिलाड़ी पुलेला गोपीचंद ने ऑल इंग्लैण्ड ओपन बैडमिंटन चैम्पियनशिप जीती। इससे सिन्धू इतनी उत्साहित हुई कि उसने भी बैडमिंटन को अपना कैरियर बनाने का निश्चय कर लिया। महबूब अली से बैडमिंटन की एबीसीडी सीखने के बाद सिन्धू ने बाद में पुलेला गोपीचंद की बैडमिंटन अकादमी को ज्वाइन किया और पढ़ाई के साथ-साथ बैडमिंटन में भी महारत हासिल की।
भारत में पहलवानी को बेटियों का खेल नहीं माना जाता बावजूद इसके हरियाणा की साक्षी मलिक ने अपनी लगन और मेहनत से ओलम्पिक में पहलवानी का पहला कांस्य पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला पहलवान बनीं। इससे पहले भारत की इस बेटी ने 2014 के कॉमनवेल्थ गेम्स में चांदी का पदक जीता था। एक समय था जब हरियाणा में लड़कियों को कुश्ती खेलने के लिए ज्यादा प्रोत्साहित नहीं किया जाता था लेकिन पिछले 10 साल में हालात काफी बदल चुके हैं। साक्षी के लिए भी अखाड़े तक पहुंचना आसान बात नहीं थी। उसे और उसके परिवार को इसके लिए कई सामाजिक परम्पराओं से लड़ना पड़ा। साक्षी ने 2002 में अपने कोच ईश्वर दहिया के साथ पहलवानी शुरू की। लाख विरोध के बावजूद आखिरकार उसने रियो में अपना सपना साकार कर दिखाया।
साक्षी कोई 12 साल से एक रूटीन लाइफ जीती आ रही हैं। सुबह चार बजे उठना फिर प्रैक्टिस करना और नौ बजे वापस आना, थोड़ी देर सोना, खाना-पीना और फिर शाम को वापस प्रैक्टिस पर जाना। सच कहें तो साक्षी की यह तपस्या है। लड़कों की अपेक्षा लड़कियों का सफर काफी कठिन होता है लेकिन साक्षी के साथ उसका परिवार हमेशा रहा है। उसके माता-पिता सिर्फ उसे खेल पर ध्यान देने की ही बात करते हैं। हरियाणा की जहां तक बात है कल तक यहां की बेटियों को खेलों की आजादी नहीं थी लेकिन महावीर फोगाट ने इस मिथक को तोड़ा है और आज उनके घर में एक-दो नहीं बल्कि पांच बेटियां अंतरराष्ट्रीय पहलवान हैं। इसी घर से प्रभावित होकर ही सलमान खान ने दंगल फिल्म बनाई है जोकि इन दिनों सिनेमा घरों में धूम मचा रही है। डिस्कस थ्रोवर कृष्णा पूनिया और सीमा पूनिया को भला कौन नहीं जानता, यह दोनों भी हरियाणा की ही देन हैं।
रियो में शटलर पी.वी. सिन्धू और पहलवान दीक्षा मलिक की शानदार कामयाबी ने पैरा एथलीट दीपा मलिक के लिए प्रेरणा का काम किया। स्वीमर से एथलीट बनीं दीपा मलिक ने इतिहास रचते हुए गोला फेंक एफ-53 में चांदी का पदक जीतकर पैरालम्पिक खेलों में पदक हासिल करने वाली देश की पहली महिला खिलाड़ी बनीं। दीपा ने अपने छह प्रयासों में से सर्वश्रेष्ठ 4.61 मीटर गोला फेंका और यह रजत पदक हासिल करने के लिए पर्याप्त था। बहरीन की फातिमा नदीम ने 4.76 मीटर गोला फेंककर स्वर्ण तो यूनान की दिमित्रा कोरोकिडा ने 4.28 मीटर के साथ कांस्य पदक हासिल किया। दीपा की कमर से नीचे का हिस्सा लकवाग्रस्त है। वह सेना के अधिकारी की पत्नी और दो बेटियों की मां हैं। 17 साल पहले रीढ़ में ट्यूमर के कारण उनका चलना असम्भव हो गया था। दीपा के 31 ऑपरेशन किए गये और उनकी कमर तथा पांव के बीच 183 टांके लगे। गोला फेंक के अलावा दीपा ने भाला फेंक, तैराकी में भी भाग लिया था। वह अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में तैराकी में पदक जीत चुकी हैं। भाला फेंक में उनके नाम पर एशियाई रिकॉर्ड है जबकि गोला फेंक और चक्का फेंक में उन्होंने 2011 में विश्व चैम्पियनशिप में रजत पदक जीते थे। दीपा भारत की राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में 33 स्वर्ण तथा चार रजत पदक जीत चुकी हैं। वह भारत की एक ऐसी पहली महिला हैं जिन्हें हिमालयन कार रैली में आमंत्रित किया गया। वर्ष 2008 तथा 2009 में उन्होंने यमुना नदी में तैराकी तथा स्पेशल बाइक सवारी में भाग लेकर दो बार लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में अपना नाम दर्ज कराया। पैरालम्पिक खेलों में दीपा की उल्लेखनीय उपलब्धियों के कारण उन्हें भारत सरकार द्वारा अर्जुन पुरस्कार दिया जा चुका है। भारत की इन बेटियों के अलावा जिम्नास्ट दीपा करमाकर और लम्बी दूरी की धावक ललिता बाबर ने भी रियो में अपने दमदार प्रदर्शन से दुनिया भर में वाहवाही लूटी। यह तो शुरुआत है आने वाले ओलम्पिक खेलों में भारतीय बेटियां और भी दमदार प्रदर्शन का मुल्क का नाम रोशन करेंगी।




Thursday 22 September 2016

रियो पैरालम्पिक खेलः दिव्यांगों ने जमाई धाक

                  
                

देवेन्द्र झाझड़िया ने भाला फेंक में बनाया कीर्तिमान

पैरालम्पिक में दो स्वर्ण जीतने वाले पहले भारतीय एथलीट
दीपा मलिक पैरालम्पिक खेलों में पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला
              श्रीप्रकाश शुक्ला
चैम्पियन चीन तथा ब्रिटेन व अमेरिकी दिव्यांग खिलाड़ियों की अदम्य इच्छाशक्ति से परे भारतीय दिव्यांग खिलाड़ियों ने भी रियो पैरालम्पिक खेलों में दो स्वर्ण, एक रजत और एक कांस्य पदक के साथ भारत को तालिका में 42वां स्थान दिलाने में अहम भूमिका निभाई। भारतीय दिव्यांग खिलाड़ियों की यह उपलब्धि कई मायनों में खास है। हमारे 117 सक्षम खिलाड़ियों ने इसी रियो में दो बेटियों शटलर पी.वी. सिन्धू और पहलवान साक्षी मलिक के पदकों की बदौलत बमुश्किल मुल्क को शर्मसार होने से बचाया था तो पैरालम्पिक खेलों में महज 19 सदस्यीय दल ने दो स्वर्ण सहित चार पदक जीतकर धाक जमाई। ओलम्पिक खेलों में भारतीय बेटियों के नायाब प्रदर्शन की बात करें तो 16 साल में छह महिला खिलाड़ियों ने मादरेवतन का मान बढ़ाया है। भारोत्तोलक कर्णम मल्लेश्वरी ने 2000 के सिडनी ओलम्पिक में भारतीय महिलाओं की तरफ से पहला पदक जीता था। मल्लेश्वरी के बाद 2012 लंदन ओलम्पिक खेलों में शटलर साइना नेहवाल और मुक्केबाज एम.सी. मैरीकाम ने अपने कांस्य पदकों से महिला शक्ति का शानदार आगाज किया तो इसी साल रियो ओलम्पिक में भी दो बेटियों ने ही धमाल मचाया। पैरालम्पिक खेलों में स्वीमर से एथलीट बनी हरियाणा की दीपा मलिक गोला फेंक में चांदी का तमगा जीतने वाली पहली भारतीय महिला खिलाड़ी हैं। मेरी लीला रो भारत की तरफ से ओलम्पिक खेलों में शिरकत करने वाली पहली महिला खिलाड़ी रही हैं। पैरालम्पिक में तीरंदाज पूजा ने पहली बार लक्ष्य पर निशाने साधे थे।
अगस्त में रियो ओलम्पिक में गए अब तक के सबसे बड़े दल के खिलाड़ियों के लिये भारतीयों ने जो दुआएं की थीं वे जाकर पैरालम्पिक खेलों में फलीभूत हुईं। पदकों के तीन रंग स्वर्ण, रजत व कांस्य तिरंगे से जुड़े हैं। हरियाणा इस बात पर गर्व कर सकता है कि इस कामयाबी में उसकी बड़ी हिस्सेदारी है। पहले सामान्य वर्ग में साक्षी मलिक की कामयाबी और अब दीपा मलिक की। दोनों ने इतिहास रचा है। यह दोनों जांबाज अपने खेलों में पदक हासिल करने वाली भारत की पहली महिला खिलाड़ी हैं। यह कहने में जरा भी गुरेज नहीं कि हरियाणा में जो खेल संस्कृति विकसित की गई उसके सार्थक परिणाम सामने आने लगे हैं। पिछली तीन ओलम्पिक प्रतियोगिताएं इस बात का गवाह हैं कि इनमें हरियाणवी खिलाड़ियों ने मुल्क को एक न एक पदक जरूर दिलवाये हैं। हरियाणा में खेलों की इस कामयाबी के बावजूद दिव्यांग दीपा मलिक की कामयाबी का कद और बड़ा हो जाता है। कुदरत द्वारा दी गई अपूर्णता को उन्होंने अपनी अदम्य इच्छाशक्ति से पूर्णता में बदल दिखाया। कितना प्रेरक है कि जिसका धड़ से नीचे का हिस्सा लकवाग्रस्त हो जाये वह मुल्क को पदक दिलाने का संकल्प बना ले। 31 सर्जरी और 183 टांकों की टीस से गुजरने वाली दीपा में जीत का हौसला तब तक कायम रहा, जब तक कि उसने चांदी का पदक गले में नहीं डाल लिया।
हमें सोना जीतने वाले खिलाड़ी मरियप्पन थंगवेलु, देवेन्द्र झाझरिया व कांस्य पदक विजेता वरुण भाटी को भी याद करना चाहिए। वे भी भारतीय सुनहरी कहानी के महानायक हैं। इन्होंने अपने दर्द को लाचारी नहीं बनने दिया। अपने जोश व हौसले को जिन्दा रखा। भारतीयों के सामने मिसाल रखी कि हालात कितने ही विषम हों, जीत का हौसला कायम रखो। विडम्बना है कि खाते-पीते स्वस्थ लोग जरा-सी मुश्किल से घबराकर आत्महत्या जैसा आत्मघाती कदम उठा लेते हैं लेकिन इन पदक विजेताओं को देखिये, इन्हें समाज की उपेक्षा व सम्बल देने वाली नीतियों के अभाव में भी जीतना आया। बेल्जियम की रियो पैरालम्पिक पदक विजेता मेरिएके वेरवूर्ट के जीवन में आये बदलाव को देखिये। बेल्जियम सरकार से इच्छा मृत्यु की गुहार लगाने वाली यह पैरा खिलाड़ी अब कहती है कि फिलहाल मैं जीवन को भरपूर जीना चाहती हूं। रीढ़ की हड्डी की असाध्य बीमारी से जूझ रही वेरवूर्ट कहती हैं कि इच्छा मृत्यु का विकल्प उसके पास है मगर अभी उसकी जरूरत नहीं है।
पैरालम्पिक खेलों का मौजूदा ग्लैमर दूसरे विश्व युद्ध के घायल सैनिकों को फिर से मुख्यधारा में लाने के मकसद से हुआ। स्पाइनल इंज्यूरी के शिकार सैनिकों को ठीक करने के लिए खासतौर से इसे शुरू किया गया था। साल 1948 में दूसरे विश्व युद्ध में घायल हुए सैनिकों की स्पाइनल इंज्यूरी को ठीक करने के लिए स्टोक मानडेविल अस्पताल में काम कर रहे न्यूरोलाजिस्ट सर गुडविंग गुट्टमान ने इस रिहेबिलेशन कार्यक्रम के लिए स्पोर्ट्स को चुना, इन खेलों को तब अंतरराष्ट्रीय व्हीलचेयर गेम्स का नाम दिया गया था। वर्ष 1948 में लंदन में ओलम्पिक खेलों का आयोजन हुआ और इसी के साथ ही डॉक्टर गुट्टमान ने दूसरे अस्पताल के मरीजों के साथ एक खेल प्रतियोगिता की भी शुरुआत की। 1952 में फिर इसका आयोजन हुआ। इस बार इन खेलों में ब्रिटिश सैनिकों के साथ ही डच सैनिकों ने भी हिस्सा लिया। इस तरह इससे पैरालम्पिक खेलों के लिए जमीन तैयार हुई। 1960 रोम में पहले पैरालम्पिक खेल हुए, इसमें 23 देशों के 400 खिलाड़ियों ने हिस्सा लिया। शुरुआती पैरालम्पिक खेलों में तैराकी को छोड़कर खिलाड़ी सिर्फ व्हीलचेयर के साथ ही भाग ले सकते थे लेकिन 1976 में दूसरी तरह के पैरा लोगों को भी पैरालम्पिक में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया।
देखा जाए तो 1980 के दशक में ही इन खेलों में क्रांति आई। 1988 में कोरिया की राजधानी सियोल में हुए ओलम्पिक खेलों के तत्काल बाद वहां पैरालम्पिक खेलों का आयोजन किया गया। सियोल में खेलों को सफल बनाने के लिए पैरालम्पिक कमेटी और अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक महासंघ ने जबरदस्त काम किया नतीजन 1992 बार्सिलोना ओलम्पिक में पैरालम्पिक एथलीटों की तादात एकदम से बढ़ गई। इस बार 82 देशों के 3500 एथलीटों ने अपना दमखम दिखाया तो स्टेडियम खेलप्रेमियों से पूरी तरह से भरे नजर आए। 1996 अटलांटा पैरालम्पिक में रिकॉर्डतोड़ देशों के दिव्यांग खिलाड़ियों ने हिस्सा लिया। इसके बाद सिडनी पैरालम्पिक खेलों में 132 देशों के खिलाड़ियों ने शिरकत की। इन खेलों में पहली बार रग्बी और व्हीलचेयर बॉस्केटबॉल जैसे खेलों को लाया गया। 2004 के एथेंस पैरालम्पिक खेलों में 135 देशों के खिलाड़ियों ने हिस्सा लिया। इसमें 17 नए देश और 19 नए खेलों को शामिल किया गया। 2004 में 304 वर्ल्ड रिकॉर्ड बने।
आमतौर पर पैरालम्पिक खेलों से आम जनता अनजान रहती है। अब तक हुए पैरालम्पिक खेलों में भारत का प्रदर्शन कोई खास नहीं रहा बावजूद इसके कुछ ऐसे भारतीय एथलीट रहे हैं जिन्होंने अपने लाजवाब प्रदर्शन से इन खेलों को भी यादगार बनाया। भारतीय पैरा एथलीटों को व्यक्तिगत पदक लाने में 56 साल लगे। पहला व्यक्तिगत गोल्ड मेडल हासिल करने के लिए भारत को 112 साल का लम्बा इंतजार करना पड़ा। साल 1972 हैडिलवर्ग पैरालम्पिक में भारत के मुरलीकांत पेटकर ने 50 मीटर फ्री स्टाइल-3 तैराकी में गोल्ड मेडल जीतकर इतिहास रचा था। अपने फौलादी हौसले से पेटकर उन लोगों के लिए आदर्श बने जो किन्हीं वजहों से अक्षम हो जाते हैं। पेटकर बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने 1968 पैरालम्पिक खेलों की टेबल टेनिस प्रतियोगिता में भी हिस्सा लिया था और दूसरे दौर तक पहुंचे थे लेकिन उन्हें यह अहसास हुआ कि वे तैराकी में ज्यादा बेहतर कर सकते हैं। पेटकर पैरा एथलीट होने से पहले भारतीय सेना में थे। एक फौजी होने के नाते पेटकर ने कभी हारना तो सीखा नहीं था फिर हुआ भी कुछ ऐसा ही। तैराकी में वे सोने का तमगा जीतकर लौटे। यह भारतीय पैरा खेलों के लिए सबसे बड़ी उपलब्धि थी। 1972 हैडिलवर्ग में ही भारत की ओर से तब सबसे ज्यादा तीन महिलाओं ने भाग लिया था। पैरालम्पिक में शिरकत करने वाली पहली भारतीय महिला तीरंदाज पूजा हैं।
दिव्यांगों का हौसला बढ़ाने की जहां तक बात है, हमारे समाज में अब भी प्रगतिगामी नजरिया नहीं बन पाया है। हम इसे जीवन भर की मुसीबत के रूप में देखते हैं, जिससे मौत के बाद ही मुक्ति मिल सकती है। भारत में दिव्यांगों को दया की नजर से देखा जाता है, बावजूद इसके सारी परेशानियों को ठेंगा दिखाते हुए कुछ भारतीय दिव्यांगों ने इस कमजोरी को ही फौलादी शक्ल में बदल दिखाया। नृत्यांगना अभिनेत्री सुधा चंद्रन, एवरेस्ट फतह करने वाली अरुणिमा सिन्हा, संगीतकार स्वर्गीय रवीन्द्र जैन जैसे दर्जनों उदाहरण देखने के बावजूद हमारे समाज में विकलांगता में छिपी शक्ति को देखने की प्रवृत्ति अभी पल्लवित नहीं हो सकी है। हमारी हुकूमतों ने इनके लिए कई नीतियां बनाई हैं, कई तरह की सुविधाएं देने का दावा किया जाता है लेकिन सार्वजनिक स्थलों, विद्यालयों, अस्पतालों आदि में विकलांगों के लिए अलग व्यवस्था न होने का संताप उन्हें भुगतना पड़ता है। समाज और सरकार की ओर से बहुत ज्यादा सहयोग न मिलने के बावजूद पैरालम्पिक जैसे विश्व स्तरीय खेलों में अगर हमारे चार खिलाड़ी पदक हासिल करते हैं तो यह बड़ी उपलब्धि है।
रियो पैरालम्पिक में कुछ खास बातें भी हुईं जैसे ऊंची कूद में एक स्वर्ण और एक कांस्य लेकर पहली बार दो भारतीय खिलाड़ी एक साथ पोडियम पर चढ़े। मरियप्पन थंगावेलू ने स्वर्ण जीता तो इसी प्रतियोगिता में वरुण भाटी ने कांस्य पदक से अपना गला सजाया। मरियप्पन जब बहुत छोटे थे तभी नशे में धुत एक ट्रक ड्राइवर ने उन पर ट्रक चढ़ा दी थी और उन्हें अपना पैर खोना पड़ा। विकलांगता के कारण उनके पिता ने उन्हें छोड़ दिया और मां ने कठिन परिश्रम कर उन्हें पाला-पोसा। बेहद गरीबी में जीकर भी अपने हौसले से स्वर्ण पदक हासिल करने वाले इस खिलाड़ी पर अब सौगातों की बरसात हो रही है। मरियप्पन की मां आज भी सब्जी बेचकर अपने परिवार का भरण-पोषण करती हैं। मरियप्पन की आर्थिक कठिनाइयां तो दूर होनी ही चाहिए, लेकिन सरकार को यह भी सोचना चाहिए कि उनकी तरह आर्थिक तंगी में जी रहे और भी बहुत से खिलाडिय़ों को अगर सुविधाएं-संसाधन मुहैया कराए जाएं तो पदक तालिका में हम और ऊंचे पहुंच सकते हैं।
ऊंची कूद में कांस्य पदक हासिल करने वाले वरुण प्रारम्भ में बास्केटबाल खिलाड़ी थे और अच्छा खेलते भी थे लेकिन विकलांग होने के कारण उन्हें बाहर होने वाले मैचों में नहीं ले जाया जाता था और कई बार स्कूल में भी खेल से बाहर कर दिया जाता था। इस संवेदनहीनता से वरुण हारे नहीं और बास्केटबाल छोड़कर ऊंची कूद में भी अपना हुनर दिखाया और पदक विजेता बनकर सारे मुल्क का नाम रोशन किया। रियो पैरालम्पिक में दूसरा स्वर्ण पदक जीतने वाले राजस्थान के चुरू जिले के देवेंद्र झाझरिया की जितनी भी तारीफ की जाए वह कम है। इस राजस्थानी एथलीट ने भाला फेंक में न केवल स्वर्णिम सफलता हासिक की बल्कि 63.97 मीटर दूर भाला फेंककर विश्व कीर्तिमान भी रच डाला। इससे पहले 2004 के एथेंस पैरालम्पिक खेलों में भी देवेंद्र को स्वर्ण पदक हासिल हुआ था। तब उन्होंने 62.15 मीटर दूर भाला फेंका था। दुर्घटना में एक हाथ खोने वाले देवेंद्र झाझरिया ने साबित कर दिखाया कि एक ही हाथ से दो बार विश्व रिकार्ड बनाने के लिए मानसिक हौसले की जरूरत होती है। देवेन्द्र पैरालम्पिक खेलों में दो स्वर्ण पदक जीतने वाले भारत के पहले खिलाड़ी हैं। भारत सरकार को इस खिलाड़ी को भी खेल रत्न से नवाजना चाहिए।
पी.वी. सिन्धू और साक्षी मलिक के बाद अब हरियाणा की दिव्यांग दीपा मलिक देश में महिलाओं के लिए नयी प्रेरणा बनकर उभरी हैं। वे पहली भारतीय महिला हैं, जिन्होंने पैरालम्पिक खेलों में चांदी का पदक हासिल किया है। दीपा का कहना है कि हमारे देश में तो जैसे अपंगता को सामाजिक कलंक समझ लिया जाता है। मैं अपनी उपलब्धियों से इस धारणा को बदलना चाहती हूं। वे दस साल से खेल रही हैं और विश्व चैम्पियनशिप, कॉमनवेल्थ और एशियन खेलों में हिस्सा ले चुकी हैं। एक सैन्य अधिकारी की पत्नी दीपा दो लड़कियों की मां हैं। रीढ़ की हड्डी में ट्यूमर के कारण उनका निचला हिस्सा निष्क्रिय है, लेकिन उनकी सक्रियता दो पैरों पर सही सलामत खड़े लोगों से कहीं अधिक है। स्वीमर से एथलीट बनीं दीपा मानती हैं कि हम अपनी ही नकारात्मक धारणाओं के शिकार होकर अपने ख्वाब छोड़ देते हैं। दीपा मलिक का जीवन केवल शारीरिक निःशक्त लोगों के लिए ही नहीं वरन उन लाखों महिलाओं के लिए प्रेरक है, जो समय और परिस्थितियों के आगे हारकर अपने सपनों को कुर्बान कर देती हैं। दीपा खुश हैं कि इस बार पैरालम्पिक खेलों को लेकर भारतीय मीडिया में अच्छी चर्चा हुई और समाज की ओर से भी सहयोगात्मक वातावरण बना। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और केन्द्रीय खेल मंत्री विजय गोयल ने भी इस बार खिलाड़ियों की हौसलाअफजाई कर एक नजीर पेश की है। यह सहयोग बना रहे ताकि हमारे खिलाड़ी अपने करिश्माई प्रदर्शन से दुनिया में मादरेवतन का नाम रोशन करते रहें। अधूरेपन से लड़ाई लड़ते हुए भी पैरालम्पिक में पदक जीतने वाले इन खिलाड़ियों की मानसिक ताकत को हर खेलप्रेमी को सलाम करना चाहिए, जो बताते हैं कि मुश्किल कितनी भी बड़ी क्यों न हो, हमें हिम्मत नहीं हारनी। अगले ओलम्पिक टोकियो में होंगे, रियो के लचर प्रदर्शन पर आंसू बहाने की बजाय हमें इसकी तैयारियां अभी से शुरू कर देनी चाहिए।


Thursday 1 September 2016

सवाल बोल्ट और फेल्प्स के रिकॉर्ड आखिर कब टूटेंगे


सदियों तक मानवीय स्मृतियों 
में दर्ज होने वाले लम्हे
किसी महान स्पर्धा का गवाह बनते हुए आप भले एक विशाल दर्शक समूह का हिस्सा हों, माहौल का जुनून आपको खुद में जज्ब कर लेता है या आप उस जुनूनी माहौल का ही एक हिस्सा बन जाते हैं। चाहे वह उसेन बोल्ट को आदमी से चीता बन जाने का कारनामा करते देखने का अनुभव हो या माइकल फेल्प्स को पानी को चीरते हुए सोने पे सोना निकालते देखने का अनुभव, आप किसी दूसरी ही दुनिया में पहुंच जाते हैं। दोनों ही महान खिलाड़ियों को मानव की शारीरिक क्षमता की सभी सीमाएं पार करते देखना सदियों तक मानवीय स्मृतियों में दर्ज होने वाले लम्हे हैं।
रियो में जमैका के उसेन बोल्ट ने 100 मीटर रेस में वह कर दिखाया जिसके लिए वह बने हैं। बोल्ट अपने पुराने विश्व रिकॉर्ड को तो नहीं तोड़ सके लेकिन उन्होंने दिखा दिया कि मात्र नौ सेकेंड के लिए वह स्टेडियम में हजारों लोगों को बुला सकते हैं और अपना मुरीद बना सकते हैं। बोल्ट का तो नाम भर लोगों में ऊर्जा का संचार कर देता है तो उनका होना स्टेडियम में मौजूद दर्शकों पर क्या असर करता होगा अकल्पनीय है। रियो में बोल्ट का करिश्मा देखने लोग कई-कई घंटों लम्बा सफर तय कर पहुंचे। बोल्ट ने भी उन्हें निराश नहीं किया और लगातार तीन ओलम्पिक में एक ही स्पर्धा का स्वर्ण जीतने वाले दुनिया के पहले खिलाड़ी बने। इससे पूर्व लंदन ओलम्पिक में बोल्ट 100 मीटर स्पर्धा में 9.63 सेकेंड का समय निकालते हुए ओलम्पिक खेलों के सबसे तेज धावक बने थे। इसके बाद उन्होंने 200 मीटर स्पर्धा 19.23 सेकेंड समय के साथ जीत ली और 4 गुणा 100 मीटर रिले रेस तो उन्होंने रिकॉर्ड 36.84 सेकेंड समय में जीती।
दूसरी ओर अमेरिकी तैराक माइकल फेल्प्स ने ओलम्पिक इतिहास के सबसे सफल खिलाड़ियों में अपना नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखवा लिया है। फेल्प्स 23 स्वर्ण सहित ओलम्पिक खेलों में 28 पदक जीतने वाले दुनिया के पहले खिलाड़ी हैं। ऐसा करते हुए उन्होंने खिलाड़ियों को नहीं बल्कि कितने ही देशों को पूरे ओलम्पिक इतिहास में पछाड़ दिया और अब उनकी तुलना एक पूरे देश के रूप में की जाना हैरत की बात नहीं लगती। फेल्प्स किसी एक ओलम्पिक में सर्वाधिक पदक जीतने का रिकॉर्ड पहले ही तोड़ चुके हैं। उन्होंने 1972 में मार्क स्पिट्ज द्वारा बनाए गए सात पदकों के रिकॉर्ड को तोड़ा था।
दोनों ही महानतम खेल हस्तियां अब संन्यास ले चुकी हैं लेकिन इन दोनों ने अपने पौरुष के ऐसे मानक तय कर दिए हैं जिन्हें हासिल कर पाना किसी भी खिलाड़ी के लिए असम्भव तो नहीं पर आसान बात नहीं होगी। निश्चित तौर पर भविष्य में उनके रिकॉर्ड टूटेंगे लेकिन निकट भविष्य में ऐसा होता तो नहीं दिख रहा। मैक्सिको में 1968 में हुए ओलम्पिक के दौरान लम्बीकूद के एथलीट बॉब बीमॉन ने 8.90 मीटर लम्बी छलांग लगाकर नया विश्व कीर्तिमान रचा था और उसे तब सदी की छलांग कहा गया था। बॉब के उस रिकॉर्ड को 23 साल बाद माइक पॉवेल ने विश्व चैम्पियनशिप में तो तोड़ दिया लेकिन ओलम्पिक रिकॉर्ड 48 साल बाद भी जस का तस है। अब लोगों के जेहन में एक ही सवाल गूंजता रहेगा कि बोल्ट और फेल्प्स के रिकॉर्ड कब टूटेंगे।