Monday 18 March 2019

हौसला हो तो भारुलता जैसा


भारुलता ने उत्तरी ध्रुव में फहराया तिरंगा

यह दुनिया बहुरंगी है। सबके अपने अलग-अलग शौक और महत्वाकांक्षाएं होती हैं। हर किसी व्यक्ति का सपना होता है कि वह अपने शौक को पूरा करे। मगर यदि उस शौक के जरिये प्रेरणा व बदलाव की मुहिम चलाई जाये तो शौक सार्थक सिद्ध हो जाता है। दुनिया की महिलाओं को यह बताने के लिये कि ब्रेस्ट कैंसर होने से दुनिया खत्म नहीं हो जाती बल्कि दुनिया फतह की जा सकती है, भारतीय मूल की ब्रिटिश नागरिक भारुलता ने कार से उत्तरी ध्रुव तक की दूरी नापकर यह जता दिया कि इंसान में यदि कुछ कर गुजरने का जुनून हो तो कोई काम असम्भव नहीं है। उत्तरी ध्रुव के सफर में भारुलता के साथ उनके दो किशोर बच्चे भी थे। देशभक्ति का जज्बा देखिये कि ब्रिटिश नागरिक होने के बावजूद भारुलता ने उत्तरी ध्रुव पहुंचकर भारतीय तिरंगा फहराया। ऐसा नायाब सफर तय करने वाली भारुलता पहली भारतीय महिला हैं। इस उपलब्धि के लिये ब्रिटिश संसद में भारुलता और उनके दोनों बेटों का सम्मान होना हर भारतीय के लिए गौरव की बात है।

बचपन में पिता के निधन के बाद भारुलता के सामने भविष्य का संकट पैदा हो गया। चाचा ने साथ रखने से न केवल मना किया बल्कि बोले-  लड़कियां तो रास्ते का पत्थर होती हैं, जिन्हें कोई भी ठोकर मार जाता है। चाचा की इस बात ने भारुलता के मर्म पर इतनी गहरी चोट की कि उसने संकल्प लिया कि वह दुनिया को बताएंगी कि बेटियां क्या कुछ नहीं कर सकतीं। भारुलता ननिहाल में पढ़ी-बढ़ीं और उन्होंने दुनिया को चौंकाने का संकल्प लिया। भारुलता ने उत्तरी ध्रुव यानी नार्डकैप की बीस दिन की यात्रा तमाम जोखिम उठाते हुए पूरी की। ब्रिटेन के ल्यूटन से शुरू हुआ दस हजार किलोमीटर का सफर बच्चों के साथ पूरा करना निश्चिय ही दुस्साहस भरा कदम कहा जायेगा।

भारुलता ने अपनी यात्रा इंग्लैंड, फ्रांस, बेल्जियम, डेनमार्क, पोलैण्ड, स्वीडन आदि 14 देशों से गुजरते हुए पूरी की। पूरे सफर में उनके दस व तेरह साल के बेटे आरुष व प्रियम भी साथ थे। एक बार वे स्वीडन में आये तूफान में फंसकर मुश्किल हालातों में जा पहुंचे। उन्हें रेस्क्यू टीम ने चार घंटे की मदद के बाद बचाया। फिर एक घर में चार दिन के लिये पनाह ली। संयोग देखिये कि यह घर केरल मूल के भारतीय का था, जिसने निर्जन इलाके में भारतीय आतिथ्य का एहसास करा दिया। भारुलता जब दुनिया के अंतिम छोर कहे जाने वाले उत्तरी ध्रुव पहुंचीं तो वहां का तापमान माइनस पंद्रह था। इसके बावजूद उन्होंने वहां तिरंगा फहराकर उद्दात राष्ट्रीय भावना का परिचय दिया।

इस अभियान का रोचक पक्ष यह है कि भारुलता की इस यात्रा का मार्गदर्शन घर बैठे उनके पति करते रहे। पेशे से महाराष्ट्र मूल के डॉक्टर सुबोध कांबले घर से ही अभियान को नेविगेट करते रहे। ऐसी स्थिति में जब बेहद विषम परिस्थितियों में यात्रा कर रही भारुलता के पास वैकल्पिक कार और बैकअप क्रू नहीं था तो पति का मार्गदर्शन ही काम आया। उनके पास भारुलता की कार का ट्रैकिंग पासवर्ड था। जिसके जरिये वे रास्ते बताते रहे कि कहां वे अपनी यात्रा में सुरक्षित विश्राम कर सकती हैं और कहां कार में ईंधन डलवा सकती हैं।

दरअसल, विवाह से पहले भारुलता को कार ड्राइविंग का बेहद शौक था, जिसे उन्होंने अपने वकालत के पेशे और पारिवारिक जिम्मेदारियों को पूरा करते हुए परवान चढ़ाया। मगर उनकी कोशिश थी कि उनका शौक दूसरे लोगों के जीवन में बदलाव का वाहक बने। जब उन्हें ब्रेस्ट कैंसर हुआ तो वह गहरे अवसाद में थीं। उन्होंने अपने ऊंचे मनोबल से किसी हद तक इस जानलेवा रोग को टाला भी। इसी बीच दोनों बेटों ने सलाह दी कि क्यों न वह अपने कार ड्राइविंग शौक को पूरा करते हुए कुछ ऐसा करें कि दुनिया के लिये प्रेरणा की मिसाल बन जाएं। बच्चों ने अपनी उम्र के हिसाब से समाधान रखा कि फिर हम सेंटाक्लॉज से कहेंगे कि वह आपका कैंसर ठीक कर दे। भारुलता को यह सुझाव रोचक लगा और फिर वह बच्चों को लेकर निकल पड़ीं दुनिया फतह करने।

इससे पहले भारुलता अपनी ड्राइविंग के जरिये कई रचनात्मक अभियान चला चुकी थीं। मसलन बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ, कैंसर मुक्त महिलाएं, प्लास्टिक मुक्त दुनिया के लिये लोगों को प्रेरित करती रही हैं। जिसके लिये उन्हें भारत के राष्ट्रपति ने सम्मानित भी किया। इसकी वजह यह है कि गुजरात मूल की भारुलता परदेस में रहते हुए भी भारतीय सरोकारों से गहरे तक जुड़ी हैं। भारुलता का विश्वास रहा है कि उद्देश्यपूर्ण ढंग से किया गया कोई भी कार्य समाज के लोगों को प्रेरणा देता है। यही वजह है कि मैंने अपने शौक को मकसद देकर सोच बदलने की मुहिम शुरू की है। इसी कड़ी में मैंने अब पचास देशों की यात्रा कार से पूरा करने का मन बनाया है।

ब्रिटिश सरकार की पूर्व नौकरशाह रहीं भारुलता जीवन के रंगमंच में तमाम तरह की भूमिका निभा रही हैं। वह वकील हैं, मां हैं, पत्नी हैं, संगीत-कला में दखल है, डॉक्यूमेंट्री बनाती हैं और हर कसौटी पर खरी उतरती हैं। कार चलाने का जुनून इस हद तक है कि रास्ते में मैकेनिक न मिले तो क्या होगा, यह सोचकर कार की गूढ़ तकनीकी जानकारियां भी हासिल कीं। इतना ही नहीं, भारत में अपने पैतृक गांव से जुड़े सैकड़ों गांवों में वह बदलाव की रचनात्मक मुहिम चलाती रही हैं। भारुलता का ऊंचा मनोबल इस बात का संदेश देता है कि ईश्वर भी बहादुरों का ही साथ देते हैं।

उच्च शिक्षा का नायाब प्रकल्पः संस्कृति यूनिवर्सिटी



शिक्षा मानव के व्यक्तित्व निर्माण के साथ ही किसी भी राष्ट्र के विकास की आधारशिला है. शिक्षा सामाजिक चिन्तन की बुनियाद, सांस्कृतिक समझ और राजनीतिक प्रतिष्ठा का भी परिचायक है. सूचना प्रौद्योगिकी के युग में जहां तीव्रता से परिस्थितियां बदल रही हैं वहीं चुनौतियां भी कम नहीं हैं. भूमण्डलीकरण के वर्तमान परिदृश्य में हमारे सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मूल्यों और मान्यताओं में अभूतपूर्व परिवर्तन हो रहा है. परम्परागत मूल्यों एवं मान्यताओं में परिवर्तन का प्रभाव शिक्षा, विशेष रूप से उच्च शिक्षा पर पड़ा है. संस्कृति यूनिवर्सिटी शैशवकाल में होने के बावजूद यंगस्टर्स को शिक्षण-प्रशिक्षण के साथ उच्च आदर्शों की पूर्ति के लिये प्रतिबद्ध शैक्षणिक संस्थान है. संस्कृति यूनिवर्सिटी का नाम सुनते ही यंगस्टर्स के मन में गर्व और गौरव का अहसास होने लगता है. उसके मन में यहां के एनवायरमेंट, पठन-पाठन की व्यवस्थाओं को देखने की इच्छा प्रबल हो जाती है. मथुरा की छाता तहसील के सन्निकट स्थित संस्कृति यूनिविर्सिटी में प्रवेश करते ही हवा में लहराते फव्वारे, यहां का मनमोहक वातावरण और यहां का बेहतरीन एज्यूकेशन सिस्टम स्टूडेंट्स में नई ऊर्जा का संचार करता है. हायर एज्यूकेशन के क्षेत्र में संस्कृति यूनिविर्सिटी देश में प्रमुख स्थान रखती है. इनोवेशन और क्रिएटिविटी में अग्रणी यूनिवर्सिटी का विजन ड्रीमर्स, अचीवर्स और विनर्स का निर्माण करना है. हाईटेक फैसिलिटीज के साथ ही यूनिवर्सिटी एडवांस्ड लैब, न्यू टेक्नोलाजी, लर्निंग टूल्स से लैस है. यूनिवर्सिटी के संस्थापक, संचालक राजेश गुप्ता और सचिन गुप्ता ने दैनिक जागरण-आईनेक्स्ट से खास बातचीत में बताया कि हम राष्ट्र को टेकर्स नहीं गिवर्स यंगस्टर्स देने को प्रतिबद्ध हैं. 

दिल्ली से उच्च तालीम हासिल कुलाधिपति सचिन गुप्ता और उप-कुलाधिपति राजेश गुप्ता का कहना है कि यह 21वीं सदी है, जहां हर समय कुछ न कुछ नया सीखना ही सफलता का मानदण्ड है. भारत युवाओं का देश होने के फलस्वरूप बेरोजगारी यहां की सबसे बड़ी समस्या है. यंगस्टर्स की इसी समस्या को ध्यान में रखते हुए संस्कृति यूनिवर्सिटी ने अपनी परिकल्पना और उद्देश्य न केवल तय किए हैं बल्कि वैश्विक व्यवसाय के मानकों को अपने पाठ्यक्रम में संजीदगी से समाहित किया है. यहां अध्ययनरत छात्र-छात्राएं टेक्निकल एज्यूकेशन के मूल तत्वों का अध्ययन-मनन कर न केवल इंडस्ट्रियल रिक्वायरमेंट को पूरा करते हैं बल्कि नौकरी के पीछे भागने की बजाय स्वरोजगार को प्राथमिकता देते हैं. राष्ट्र के शैक्षिक विकास में युवा कुलाधिपति सचिन गुप्ता और उप-कुलाधिपति राजेश गुप्ता ने जो दूरदर्शिता दिखाई है, उसी का नतीजा है कि यहां यंगस्टर्स नित नए प्रतिमान स्थापित कर रहे हैं.

क्वालिटीपरक एज्यूकेशन, मिशन और विजन

शांत वातावरण, सर्वसुविधायुक्त सेमिनार हाल, सुयोग्य प्राध्यापक, आधुनिक लैब, डिजिटल लाइब्रेरी, सेण्टर आफ एक्सीलेंस, स्कूल आफ लाइफ स्किल, मनमोहक क्रीड़ांगन और प्लेसमेंट विभाग संस्कृति यूनिवर्सिटी की ऐसी खूबियां हैं जोकि हर युवा मन को अपनी ओर आकर्षित करती हैं। बदलते परिवेश में जहां हर यंगस्टर्स को रोजगारमूलक शिक्षा प्रदान करना चुनौती माना जा रहा है वहीं संस्कृति यूनिवर्सिटी कौशलपरक शिक्षा के माध्यम से आज की युवा पीढ़ी को स्वावलम्बी बना रही है। टेक्निकल एज्यूकेशन संस्कृति यूनिवर्सिटी का सबसे मजबूत पक्ष है। यहां खुले सेण्टर आफ एक्सीलेंस की लैबों में संचालित लेटेस्ट टेक्निकल मशीनें यंगस्टर्स के टैलेण्ट को विश्व प्रतिस्पर्धी बना रही हैं।

इंडस्ट्रियल रोबोटिक्स की शिक्षा

इंडस्ट्रियल रोबोटिक्स, मैन्यूफैक्चरिंग एण्ड आटोमेशन (एम.टैक) और फोरेंसिक साइंस एज्यूकेशन की सुविधा ब्रज मण्डल में सिर्फ संस्कृति यूनिवर्सिटी में ही उपलब्ध है। रोबोटिक्स इंजीनियरिंग एज्यूकेशन में दक्षता हासिल कर यंगस्टर्स नासा, प्राइवेट इंडस्ट्रीज, ऑटोमोबाइल्स सेक्टर, इंडस्ट्रियल टूल्स, रोबोटिक टेक्नोलॉजी, कम्प्यूटर कंट्रोल्ड मशीन प्रोग्रामिंग, रोबोटिक सेल्स में अच्छे पैकेज पर जॉब हासिल कर रहे हैं। आज की इंडस्ट्रियल डिमांड को देखते हुए संस्कृति यूनिवर्सिटी में यंगस्टर्स को आटोकैड,  एंसिस और मैन्यूफैक्चरिंग में सीएनसी की ट्रेनिंग भी प्रदान की जाती है।

शिक्षा ही नहीं संस्कार भी

संस्कृति यूनिवर्सिटी में टेक्निकल एज्यूकेशन ही नहीं हर ऐसा पाठ्यक्रम संचालित है जोकि युवा पीढ़ी को शिक्षा पूरी करने से पहले ही इस योग्य बना देता है कि वह कहीं भी किसी से भी प्रतिस्पर्धा कर सके। संस्कृति यूनिवर्सिटी तकनीकी शिक्षा ही नहीं भारतीय चिकित्सा पद्धति को भी नया आयाम प्रदान करने को संकल्पित है। यहां आयुर्वेदिक, होम्योपैथी और यूनानी चिकित्सा की तरफ भी प्रमुखता से ध्यान दिया गया है। यहां लाइफ स्किल्स की शिक्षा ग्रहण करना प्रत्येक छात्र-छात्रा के लिए अनिवार्य है। सच्चाई यह है कि संस्कृति यूनिवर्सिटी में शिक्षा ही नहीं संस्कार भी प्रदान किए जाते हैं।

वसुधैव कुटुम्बकम की मिसाल

संस्कृति यूनिवर्सिटी वसुधैव कुटुम्बकम की मिसाल है। यहां भारत ही नहीं विदेशी छात्र-छात्राएं भी अपना करियर संवारते हैं। यहां यंगस्टर्स को समय-समय पर विशेषज्ञों द्वारा गेस्ट लेक्चर, शैक्षिक भ्रमण तथा सेमिनारों का भी लाभ मिलता रहता है। डिजिटल लाइब्रेरी, सर्वसुविधायुक्त जिम, आधुनिक खेल मैदान, समस्त विभागों और संकायों में जीवन जीने की कला पाठ्यक्रम, शांत वातावरण यंगस्टर्स में नई ऊर्जा का संचार करता है। संस्कृति यूनिवर्सिटी में यंगस्टर्स के व्यक्तिगत एवं जीवनोपयोगी कौशल विकास पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। इससे छात्र-छात्राएं स्वयं ही चुनौतियों से निपटने में सक्षम हो रहे हैं। हम कह सकते हैं कि संस्कृति यूनिवर्सिटी एक शिक्षण संस्थान ही नहीं बल्कि दुनिया के बदलते परिदृश्य का आईना है।                   

अनुसंधान को विशेष तरजीह

आजकल वैश्विक अर्थव्यवस्था, विकास, धन उत्पत्ति और सम्पन्नता की संचालक शक्ति सिर्फ शिक्षा को ही कहा जा सकता है। भारतीय यंगस्टर्स के विदेशी पलायन को रोकने के लिए संस्कृति यूनिवर्सिटी निरंतर प्रयास कर रही है। यहां शोध पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। एक अच्छा शोध ऐसे परिवेश की माँग करता है, जहाँ शिक्षकों का स्तर अनुसंधान और अन्वेषण को ईमानदार सोच के साथ बढ़ावा देने वाला हो, छात्र निरंतर विषय को आगे बढ़ाने, उसका विस्तार करने और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में नये आयाम जोड़ने के प्रयास में लगे हों। संस्कृति यूनिवर्सिटी में शोध के लिए जरूरी अन्वेषणपरक बुनियादी ढांचे पर विशेष ध्यान दिया गया है। यहां उच्च शिक्षा का विकास वर्तमान में विद्यमान आवश्यकताओं एवं भविष्य की सम्भावनाओं तथा सामाजिक अपेक्षाओं के आलोक में किया जा रहा है।

अपग्रेडेशन पर निरंतर ध्यान

सचिन गुप्ता और राजेश गुप्ता हायर एज्यूकेशन के क्षेत्र में नई इबारत लिखने को प्रतिबद्ध हैं। इन दोनों भाइयों का कहना है कि क्रिएटिंग ड्रीमर्स, अचीवर्स एण्ड विनर्स यूनिवर्सिटी की गाइड लाइन हैं. स्टूडेंट्स हों या फैकल्टी मेम्बर्स इनके अपग्रेडेशन पर निरंतर ध्यान दिया जाता है, ताकि ये ग्लोबल मार्केट के लिए एक बेहतरीन एसेट के रूप में तैयार रहें।

राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय अवार्ड

बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी राजेश गुप्ता और सचिन गुप्ता की काबिलियत को राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा भी संजीदगी से सराहा जा रहा है। शिक्षा के क्षेत्र में किए गए अप्रतिम योगदान के लिए गुप्ता बंधुओं को अब तक दर्जनों नेशनल और इंटरनेशनल अवार्ड मिल चुके हैं। इन्हें भारत विद्या शिरोमणि अवार्ड, वर्ल्ड एज्यूकेशन कांग्रेस ग्लोबल अवार्ड, यंग एंटरप्रिन्योर अवार्ड के साथ ही अमेरिका में भारत गौरव सम्मान, रि-थिंक इंडिया का दूरदर्शी उद्यमी बंधु अवार्ड, यूनेस्को, भारतीय पुनर्वास परिषद, विजन इंस्टीट्यूट और विजन दिव्यांग संगठनों द्वारा समावेशी शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्यों के लिए विजन यूएन-एसडीजी एम्बेसडर सम्मान से नवाजा जा चुका है। कौशल विकास के क्षेत्र में नए आयाम स्थापित कर रहे श्री सचिन गुप्ता को एसोचैम द्वारा गठित परिषद में भी विशेषज्ञ के रूप में शामिल किया गया है। श्री गुप्ता संस्कृति विश्वविद्यालय के चेयरमैन पद की जवाबदेही संभालने के साथ ही सोसायटी फार एज्यूकेशन डेवलपमेंट एण्ड रिसर्च के महासचिव, रामेश्वर दयाल चेरिटेबल एज्यूकेशन सोसायटी के अध्यक्ष, श्री महाराज अग्रसेन नार्थ-ईस्ट वेलफेयर सोसायटी के ट्रस्टी के रूप में भी अपनी सेवाएं दे रहे हैं।

अर्जेण्टीना के उच्चायुक्त सर्जियो ने खिलाड़ियों का बढ़ाया हौसला

युवा खेलों में सफलता के लिए नियमित करें अभ्यासः ओमप्रकाश तोमर

संस्कृति यूनिवर्सिटीः स्पोर्ट्स फेस्टा-2019 दिन भर हुए रोमांचक मुकाबले

मथुरा। विद्यार्थी जीवन में शिक्षा के साथ खेलों का भी विशेष महत्व है। आज युवा पीढ़ी खेलों में भी करियर बना सकती है लेकिन इसके लिए उसे नियमित अभ्यास करना होगा। संस्कृति यूनिवर्सिटी के छात्र-छात्राओं के जोश और जज्बे को देखते हुए ऐसा लगता है कि इनमें कई स्टार छिपे हुए हैं जोकि खेलों में देश का नाम रोशन कर सकते हैं। मैं यूनिवर्सिटी के खेल परिसरों से काफी प्रभावित हूं। छात्र-छात्राओं को इनका लाभ उठाना चाहिए उक्त उद्गार संस्कृति यूनिवर्सिटी के स्पोर्ट्स फेस्टा-2019 के विधिवत शुभारम्भ अवसर पर अंतरराष्ट्रीय एथलीट ओमप्रकाश सिंह तोमर ने छात्र-छात्राओं को सम्बोधित करते हुए व्यक्त किए।

संस्कृति यूनिवर्सिटी के कुलाधिपति सचिन गुप्ता ने कहा कि जीत-हार खेल का हिस्सा है, इससे निराश होने की बजाय युवा पीढ़ी को खेलभावना का परिचय देते हुए अपनी प्रतिभा की बानगी पेश करनी चाहिए। जो कुछ करेगा, अवश्य आगे बढ़ेगा और वह अपने परिवार, यूनिवर्सिटी तथा देश का नाम रोशन करेगा। खेल तन और मन की ताजगी के लिए बेहद जरूरी हैं लिहाजा प्रतिदिन खेलों को समय देना बेहद जरूरी है।

इस अवसर पर भारत में अर्जेण्टीना के उच्चायुक्त सर्जियो ने खिलाड़ियों का उत्साहवर्धन करते हुए कहा कि हार से ही जीत का रास्ता प्रशस्त होता है। पराजय से ही खिलाड़ी को अपनी कमियां पता चलती हैं। श्री सर्जियों ने बैडमिंटन खिलाड़ियों से परिचय प्राप्त करने के साथ ही कुछ देर स्वयं भी खेले। स्वागत उद्बोधन कुलपति डा. राणा सिंह ने दिया। इस अवसर पर ओ.एस.डी. मीनाक्षी शर्मा, डायरेक्टर जनरल विवेक अग्रवाल, प्राध्यापकगण, सभी दलों के कप्तान तथा बड़ी संख्या में छात्र-छात्राएं उपस्थित थे।

आज खेले गए बैडमिंटन के सिंगल्स फाइनल मुकाबलों में शिवालिक के प्रकुल और नीलगिरी की अनुष्का चैम्पियन बने। प्रकुल ने नीलगिरी के प्रवीण तथा अनुष्का ने विंध्याचल की जया को पराजित किया। शिवालिक टीम ने क्रिकेट और बालिका खो-खो में खिताबी जीत हासिल की। टेबल टेनिस बालिका वर्ग में नीलगिरी तथा बालक वर्ग में विंध्याचल चैम्पियन बना।  

रचनाधर्मिता का जीवंत दस्तावेज कृष्णा सोबती

अपनी शर्तों, मान्यताओं और सिद्धांतों पर जीने वाली साहित्य साधक

मृत्यु शाश्वत सत्य है। जिसका जन्म हुआ है उसकी मौत भी होगी लेकिन इंसान का कृतित्व हमेशा जीवंत रहता है। पच्चीस जनवरी, 2019 को जैसे ही दुखद खबर मिली कि कृष्णा सोबती नहीं रहीं, साहित्य जगत शोक में डूब गया। कृष्णा सोबती जितनी अच्छी साहित्यकार थीं, उतना ही शानदार व्यक्तित्व भी। अत्यंत स्वाभिमानी। कृष्णा सोबती ने लगभग सात दशक तक अपने लेखन से भारतीय साहित्य को समृद्ध किया। खूब लिखा, लेकिन अपनी शर्तों पर। इनका पहला उपन्यास था चन्ना। चन्ना की पूरी पांडुलिपि कम्पोज हो गई तो प्रकाशक ने भाषा में कुछ रद्दोबदल के लिए कहा। वे सहमत नहीं हुईं और पुस्तक की छपाई पर आई पूरी लागत देकर पुस्तक तथा पांडुलिपि वापस ले ली। कृष्णा सोबती जी ने इसी आन को पुरस्कारों और सम्मानों के मामले में भी कायम रखा। के.के. बिरला फाउंडेशन का व्यास सम्मान उनको दिए जाने का निर्णय हुआ, परंतु उसे स्वीकार नहीं किया। इसी प्रकार दिल्ली अकादमी का शलाका सम्मान भी लौटा दिया।

कृष्णा सोबती की अपनी कोई राजनीति नहीं थी, परंतु जब-जब देश की राजनीति में कोई विचलन आया, उन्होंने असहमति में अपनी आवाज बुलंद की। ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ गांधी के असहयोग और अहिंसक प्रतिरोध की समर्थक रहीं। उन्होंने आजादी के बाद कांग्रेस के शासनकाल में लगी सेंसरशिप और सिखों के नृशंस संहार का मुखर विरोध किया तो भाजपा सरकार की कुछ नीतियों पर भी अपनी नाराजगी दर्ज की। लेखकों को उनकी सलाह थी, कभी धीमे मत बोलो। ये शब्द ही हैं जो मरने के बाद भी जीवित रहते हैं। हमारी आवाज में ठसक, धमक होनी चाहिए। कृष्णा सोबती जी की कथनी और करनी में कभी कोई फर्क नहीं रहा। साफगोई और खुलापन उनके लेखन में हर तरफ मिलता है।

कृष्णा जी ने 94 वर्षों का लम्बा जीवन अपनी शर्तों, मान्यताओं और सिद्धांतों पर जिया। उनसे कभी कोई समझौता नहीं किया। उन्होंने बड़ी बेबाकी से कहा था,  मुझे इस्टैबलिशमेंट या सिस्टम की हां में हां मिलानी नहीं आती। इसलिए मैंने कई बड़े पुरस्कारों को लेने से मना कर दिया। एक दिन मेरे पास फोन आया कि आपको पद्मभूषण देना चाहते हैं। मैंने विनम्रता से मना कर दिया। मेरा मानना है कि हिन्दी बहुत बड़ी भाषा है। इन पुरस्कारों को लेकर अब सोच बदलने की जरूरत है। जब तक किसी हिन्दी के लेखक को पद्म पुरस्कार दिए जाने का नम्बर आता है, वह 70 पार कर चुका होता है। पुरस्कार देना ही है, तो 40 की उम्र में दीजिए। 50 में दीजिए, हद से हद 60 में दे दीजिए। यह क्या कि जब अस्पताल में जाने का समय हो गया, तब आप किसी को पुरस्कार दे रहे हैं? हिन्दी के साथ अब बड़ी भाषा जैसा बर्ताव होना चाहिए। मेरे सामने लेखकों की तीन-चार पीढ़ियां लिख रही हैं। उनकी सोच अलग है। वे आजाद हिन्दुस्तान में पैदा हुए हैं। उनमें जो काबिल हैं, उनको दीजिए सम्मान। कृष्णा सोबती जी का मानना था कि हिन्दी को सम्मान दिलाने की लड़ाई हिन्दी वालों को लड़नी चाहिए।

अपने जीवन में कृष्णा सोबती ने सम्मानपूर्वक दिए गए पुरस्कार ही स्वीकार किए। 1980 में उन्हें जिन्दगीनामा के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। उसकी वृहत्तर सदस्यता भी स्वीकार की। 2017 में भारतीय साहित्य जगत का प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। इसी वर्ष उनका अंतिम उपन्यास गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिन्दुस्तान प्रकाशित हुआ। इस आत्मकथात्मक उपन्यास में कृष्णा सोबती जी ने विभाजन की भुक्तभोगी त्रासदी को पूरी शिद्दत से रचनाबद्ध किया है। उपन्यास के सारे पात्र और घटनाएं सच्ची हैं। विभाजन भारतीय उपमहाद्वीप की इतनी विकराल घटना थी कि उस पर गत सात दशकों में अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकें हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू और पंजाबी सहित अनेक भाषाओं में लिखी गई हैं।

18 फरवरी, 1925 को पश्चिमी पंजाब के गुजरात में जन्मी कृष्णा सोबती इस ऐतिहासिक शहर को शायद ही कभी भुला पाई होंगी। सन‍् 1585 में मुगल शासक अकबर द्वारा गूजरों के सहयोग से बनवाए गए एक किले के इर्द-गिर्द यह नगर फैलता हुआ एक बड़े जिले का विस्तार पा गया। कालांतर में इन्हीं गूजरों की बसाहट से गुजरात राज्य विकसित हुआ। आज के पाकिस्तान में यदि रावलपिंडी डिवीजन के तहत आने वाला गुजरात जिला विद्यमान है तो भारत का गुजरात भी एक महत्वपूर्ण राज्य है। कृष्णा सोबती के दिलों-दिमाग में विभाजन के 70 वर्षों के बाद भी किस तरह सारी स्मृतियां ताजा हैं उनका एहसास राजकमल द्वारा प्रकाशित उनके अंतिम महत्वपूर्ण उपन्यास (गुजरात पाकिस्तान से लेकर गुजरात हिन्दुस्तान) के कुछ महत्वपूर्ण अंशों से गुजरते हुए महसूस किया जा सकता है। जेहन में लगातार कौंधते विभाजन के दंशों से मुक्ति पाने के लिए वे लिखती हैं, हिन्दुस्तान जिन्दाबाद! पाकिस्तान पायंदाबाद। यह आवाजें गुम क्यों नहीं होतीं। शीशा पिघलता रहता है कानों में। आगे की ओर देखो। छोड़ दो सपने का पीछा जो पराए मुल्क में ओझल हो गया है।

94 साल की उम्र में कृष्णा सोबती का चले जाना एक युग के खत्म होने जैसा है। बहुत कम लोग जानते हैं कि कृष्णा सोबती ने कुछ कविताएं भी लिखी हैं। कुछ ऐसी कविताएं जिनसे उनके सत्ता और सरकारों के प्रति नाराजगी भी झलकती है और उनके भीतर छिपी बेचैनी भी दिखती है। उनके उपन्यास, उनकी कहानियां और संस्मरण खूब चर्चा में रहे हैं। सियासतदानों और सत्तानशीनों से उनकी हमेशा से सख्त नाराजगी रही। अपने देश के हालात उन्हें हमेशा परेशान करते। हिन्दू-मुस्लिम के बीच दरार पैदा करने की कोशिशें, देश को बांटने की सियासी साजिश और वोटबैंक की राजनीति में इंसानों को बांटने की हरकतें ये सब कृष्णा सोबती को दिल से तकलीफ देती रहीं। वो अक्सर कहती थीं क्या वजह है कि एक संविधान के होते हुए भी, हमने इसे अपनाया नहीं, इससे सीखा नहीं। यह हमारे लिए बहुत खतरनाक चीज है। इतनी मशक्कत के बाद तो आपने एक संविधान बनाया है तो कम से कम इसे मानिए तो सही।

हिन्दी और उर्दू के साथ ही तमाम भाषाओं और संस्कृतियों की खूबियों का जिक्र वे हमेशा करती थीं। जब भी आप उनसे इस बारे में चर्चा करें तो वह हिन्दुस्तान की तमाम संस्कृतियों और भाषाओं की बहुलता और विविधता के बारे में डूब कर बताती थीं। लेकिन उन्हें इस बात की तकलीफ रही कि अपने देश में सियासत अपनी इसी खूबी को दांव पर लगाकर खेली जाती है जो बेहद खतरनाक है।

वह कहती थीं- हर चीज को पॉलिटिकली देखना और इंसानी चीज को अलग करके उसके लिए दबाव डालना मुनासिब नहीं है। हर भाषा की अपनी एक संस्कृति है। हिन्दुस्तान ही ऐसा है जहां इतना कल्चर है। बंगाल अलग है, तमिल अलग है, तेलुगू अलग है। एक हिन्दुस्तानी होने के नाते हमारे अंदर ये जिज्ञासा होनी चाहिए कि आखिर वह भाषा और संस्कृति कैसी है। कृष्णा सोबती का गुजर जाना साहित्य, अपने देश के लिए एक पूरे दौर और इतिहास के गुजर जाने जैसा है। कृष्णा सोबती अब हमारे बीच नहीं हैं लेकिन वह अपने रचना संसार में कई पीढ़ियों तक जीवित रहेंगी। 1950 में अपनी पहली कहानी लामा से शुरू करके उन्होंने सात दशक तक निरंतर विपुल लेखन किया है। उनमें उल्लेखनीय हैं- डार से बिछुड़ी, मित्रों मरजानी, यारों के यार, तिन पहाड़, बादलों के घेरे, सूरजमुखी अंधेरे के, जिन्दगीनामा, ऐ लड़की, दिलों दानिश, हम हशमत, समय सरगम, शब्दों के आलोक में, जैनी मेहरबान सिंह, सोबती-वैद संवाद और लद्दाख: बुद्ध का कमंडल।

राजनीतिक पगडंडी पर अप्सरा की तेज चाल

ट्रांसजेंडर समुदाय का प्रतिनिधि चेहरा
कहते हैं कि इंसान में यदि कुछ करने का जुनून सवार हो तो उसे सफलता हासिल करने से कोई नहीं रोक सकता। जिस राजनीति को सबसे कठिन चुनौती माना जाता है उसी राजनीति के सहारे ट्रांसजेंडर समुदाय का प्रतिनिधि चेहरा अप्सरा रेड्डी समाज को बदलने का सबसे अचूक हथियार मान चुकी हैं। यह भारतीय राजनीति के इतिहास में पहली बार हुआ है कि कोई ट्रांसजेंडर किसी शीर्ष राजनीतिक पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव बना है। गहरे सामाजिक सरोकारों व प्रतिभा के बूते अप्सरा रेड्डी कांग्रेस के महिला मोर्चे की राष्ट्रीय महासचिव बनी हैं।

दक्षिण भारत में दबंग पत्रकार और मुखर सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में पहचान बनाने वाली अप्सरा रेड्डी मूलत: आंध्र प्रदेश के नेल्लोर जिले की रहने वाली हैं मगर उनकी स्कूली पढ़ाई चेन्नई में हुई। फिर उन्होंने अपनी प्रतिभा के दम पर स्कूल में टॉप किया और स्कॉलरशिप के बूते आस्ट्रेलिया और  ब्रिटेन में पत्रकारिता की पढ़ाई की। इसके बाद देश-विदेश में महत्वपूर्ण मीडिया संस्थानों में अपनी विशिष्ट छाप छोड़ी। अजय नाम से एक सामान्य लड़के के रूप में जीवन की शुरुआत करने वाली अप्सरा को बाद में महसूस होने लगा कि उसका शरीर तो पुरुष का है मगर मन स्त्री का है। उसने गूगल पर काफी तलाश की और पाया कि दुनिया में तमाम लोग उस जैसे ही हैं। उसे वे तमाम चीजें व पहनावा लुभाता था जो किसी स्त्री का आकर्षण होता है। मगर सख्त व शराब के लती पिता ने उसकी भावनाओं को कभी नहीं समझा। घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। एक बार तो फीस न भरने पर स्कूल तक छोड़ना पड़ा। मगर मां एक सम्बल के रूप में उनके साथ रहीं। जब वह स्कॉलरशिप के जरिये पत्रकारिता की पढ़ाई के लिये आस्ट्रेलिया की मोनाश यूनिवर्सिटी गईं तो अपने जैसे लोगों के सम्पर्क में आईं। फिर उन्हें अहसास हुआ है कि उसका व्यवहार प्राकृतिक कारणों से है और विदेशों में इसे गरिमा के साथ स्वीकार किया जाता है। उसकी आस्ट्रेलिया व ब्रिटेन में काउंसलिंग हुई। कालांतर पिता के विरोध के बावजूद मां के सहयोग से थाईलैंड में लिंग परिवर्तन कराया जो उसके जीवन का सुखद अहसास था।

अब अजय अप्सरा बन चुकी थी। सामाजिक अन्याय के विरुद्ध मुखर अभिव्यक्ति लिये उसने पत्रकारिता को करियर के रूप में चुना। विभिन्न मीडिया संस्थानों में काम करने का उसे यह फायदा हुआ कि वह अब अपने विचारों को खुलकर सबसे सामने रखने लगी। बीबीसी लंदन में काम करने के बाद जब अप्सरा भारत आई तो न्यू इंडियन एक्सप्रेस, डेक्कन क्रानिकल व हिन्दू में काम किया। यह बात अलग थी कि शीर्ष सम्पादकों के सहयोग के बावजूद सहयोगी उसे अजीब निगाहों से देखते थे। वह स्वीकारती है कि भले ही सामाजिक रूप से उसे सहज रूप में नहीं लिया जाता था मगर धीरे-धीरे पत्रकारिता के माध्यम से उसे पहचान मिलने लगी।

बाद में अप्सरा रेड्डी को लगा कि वह राजनीतिक मंच से ही समाज के लिये बेहतर ढंग से काम कर सकती है। वर्ष 2016 में उसने भाजपा  अध्यक्ष अमित शाह के सामने पार्टी ज्वाइन की। लेकिन उसे लगा कि उसके खुले विचारों को पार्टी में तरजीह नहीं दी जा रही है, लिहाजा उसने पार्टी छोड़ दी। फिर तमिलनाडु में जयललिता के साथ अन्नाद्रमुक ज्वाइन कर ली। उसे पार्टी का राष्ट्रीय प्रवक्ता बनाया गया। जयललिता के जीवित रहने तक वह पार्टी में रही। मगर जब पार्टी में कलहबाजी शुरू हुई तो उसने कुछ दिन शशिकला के साथ रहने के बाद पार्टी से नाता तोड़ लिया।

अप्सरा रेड्डी मानती हैं कि उसे जीवन में अक्सर कहा जाता रहा कि तुम भारत में अपनी जिन्दगी में कुछ नहीं बन पाओगी, तुम विदेश चली जाओ। ऐसे में भारत की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी ने जिस तरह मुझे महिला कांग्रेस का राष्ट्रीय महासचिव बनाया है, वह मेरे लिये भावुक पल था। काफी लम्बे अर्से से राजनीतिक व सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में पहचान बनाने वाली अप्सरा का मानना है कि ट्रांसजेंडर समुदाय को तभी न्याय मिलेगा जब राजनीतिक तौर पर उन्हें आवाज मिलेगी। इस समुदाय को उन क्षेत्रों में अपना भविष्य तलाशना चाहिए, जो अब तक उनसे अछूते रहे हैं। अब जब देश का कानून उनके साथ है तो वर्षों से ओढ़ी दरिद्रता उन्हें फेंकनी होगी।

अप्सरा रेड्डी को इस बात का दुख है कि भारतीय समाज ट्रांसजेंडर समुदाय के दर्द को नहीं समझता। वे आज भी नाच-गाकर अपना जीवनयापन करते हैं। कुछ न मिले तो यौन व्यवहार के जरिये जीविका चलाते हैं। वह अपने साथ हुई कई घटनाओं का जिक्र करती हैं कि सड़क पर  ऑडी कार में सफर करते वक्त स्कूटर पर चलने वाले  एक पुलिस वाले ने उनकी एक रात की कीमत पूछी थी। वहीं चुनाव के दौरान एक राजनेता ने उन्हें उनके निजी फॉर्म हाउस पहुंचने का निमंत्रण दिया था। वह दुख जताती हैं कि भारत में तो ट्रांसजेंडर को एक आदमी के रूप में भी स्वीकार नहीं किया जाता। सरकार तो ट्रांसजेंडर को सही रूप में परिभाषित भी नहीं कर पाई है तो उसके कल्याण के कायदे-कानून कैसे बनेंगे। सरकार उनके साथ होने वाली यौन हिंसा को गंभीरता से नहीं लेती। वह मानती है कि राजनीति में पुरुष के विरुद्ध मुद्दे निशाने पर होते हैं परंतु औरत की अस्मिता निशाने पर होती है। वह राहुल गांधी की बड़ी प्रशंसक हैं और मानती हैं कि उनकी मदद से मैं जेंडर जस्टिस के लिये काम कर पाऊंगी। अप्सरा मानती हैं कि अब उसका दायित्व समाज के हर वर्ग की महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई लड़ना है। वह ट्रांसजेंडर हैं तो इसका मतलब यह कतई नहीं है कि वह सिर्फ उन्हीं के लिये काम करेंगी। यह जरूर है कि मैं उनकी समस्याओं को करीब से महसूस करती हूं तो संवेदनशील ढंग से उन्हें उठाऊंगी।

बैडमिंटन का अनमोल रत्न


साइना नेहवाल और पी.वी. सिंधु

भारतीय बैडमिंटन में साल भर दो बेटियों की ही चर्चा होती है। दुनिया में कोई भी प्रतियोगिता हो ओलम्पिक पदकधारी साइना नेहवाल और पी.वी. सिंधु से हम पदक की जब-जब अपेक्षा करते हैं ये दोनों शटलर अपने मुरीदों को निराश नहीं करतीं। बैडमिंटन के क्षेत्र में देश को शोहरत दिला रही इन बेटियों की अदम्य इच्छाशक्ति और इनके माता-पिता के समर्पण की जितनी तारीफ की जाए कम है। पी.वी. सिंधु और साइना नेहवाल को खेल विरासत में मिले। इन दोनों के माता-पिता खिलाड़ी रहे हैं, तथापि इनकी निगरानी और प्रोत्साहन की बदौलत ही आज देश गौरवान्वित है। साइना नेहवाल और पी.वी. सिंधु की उपलब्धियां भारतीय बैडमिंटन ही नहीं समूचे खेलों के लिए किसी सौगात से कम नहीं हैं। सच्चाई यह है कि आज खेल के क्षेत्र में यह दोनों बेटियां देश का गौरव हैं।

पहली बार साइना का नाम सुर्ख़ियों में वर्ष 2006 में आया था जब उन्होंने फोर स्टार फिलीपिंस ओपन में ख़िताबी जीत हासिल की थी। साइना यह उपलब्धि हासिल करने वाली भारत की पहली महिला खिलाड़ी बनी थीं। साइना ने 2006 में ही विश्व जूनियर बैडमिंटन चैम्पियनशिप जीतकर समूची दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा था। 17 मार्च, 1990 को जन्मी साइना ओलम्पिक का कांस्य पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला खिलाड़ी हैं। साइना को बैडमिंटन कोर्ट पर उतारने में उनके पिता डॉक्टर हरवीर सिंह और माँ ऊषा नेहवाल की अहम भूमिका है। दोनों बैडमिंटन खिलाड़ी रह चुके हैं।

साइना नेहवाल के पदचिह्नों पर चलने का संकल्प लेकर बैडमिंटन कोर्ट पर कदम रखने वाली पी.वी. सिंधु आज शिखर से कुछ फासले पर हैं। इस शटलर ने अपने हैरतअंगेज प्रदर्शन से उन प्रतिमानों को छुआ है जोकि साइना नेहवाल से छूट गए थे। पी.वी. सिंधु ने अपने नायाब प्रदर्शन से हमेशा चौंकाया है तो साइना नेहवाल समय-समय पर खिताबी जश्न मनाकर हर भारतवासी को पुलकित कर देती हैं। सबसे बड़ी बात यह कि सिंधु दुनिया के चोटी के खिलाड़ियों के लिए खतरा पैदा करती हैं तो साइना नेहवाल समझदारी भरे खेल से प्रतिद्वंद्वी को मात देती हैं। सिंधु हमेशा शीर्ष वरीयता प्राप्त खिलाड़ियों को हराकर चौंकाती हैं लेकिन जब उनका मुकाबला कम रैंकिंग वाली खिलाड़ियों से होता है तो उनका खेल धीमा पड़ जाता है।

किसी टिप्पणी से बचने वाले कोच और अपने समय के मशहूर बैडमिंटन खिलाड़ी पुलेला गोपीचंद कहते हैं कि सिंधु छुपी रुस्तम साबित होती है। ऐसे ही रियो ओलम्पिक में अपने से ऊंची रैंकिंग वाली खिलाड़ियों को हराकर वह फाइनल में पहुंची थी। वह फाइनल भी जीत सकती थी मगर वहां उसका मुकाबला दुनिया में नम्बर वन रैंकिंग वाली खिलाड़ी स्पेन की कैरोलिना मारिन से था। सिंधु ओलम्पिक में रजत पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला बैडमिंटन खिलाड़ी बनी थीं। भारत के लिए बैडमिंटन में पहला ओलम्पिक पदक साइना नेहवाल ने 2012 के लंदन ओलम्पिक में जीता था। साइना नेहवाल का यही कांस्य पदक महिला एकल बैडमिंटन में भारत के दमखम का परिचायक बना। उस कांसे के तमगे ने बैडमिंटन प्रेमियों में यह विश्वास जगाया कि हमारे खिलाड़ी भी अब चीन, इंडोनेशिया, जापान जैसी शक्तियों का मुंहतोड़ जवाब देने में सक्षम हैं। 

सिंधु के कामयाब सफर का अंदाजा इस बात से भी मिलता है कि वह महज 23 साल की उम्र में ही राजीव गांधी खेल रत्न और पद्मश्री हासिल कर चुकी हैं। रियो ओलम्पिक में रजत जीतने के बाद तेलंगाना सरकार ने उन्हें पांच करोड़ का  ईनाम और सरकारी नौकरी दी। पांच जुलाई 1995 को तेलंगाना में जन्मी पी.वी. सिंधु की पांच फुट दस इंच की ऊंचाई बैडमिंटन कोर्ट में ताकत बनती है। एक मायने में कह सकते हैं कि खेल के संस्कार उसे विरासत में मिले हैं। पिता पी.वी. रमन्ना और मां पी. विजय वॉलीबाल के राष्ट्रीय खिलाड़ी रहे हैं और पिता अर्जुन पुरस्कार विजेता हैं। घर में खेलों के अनुरूप वातावरण उन्हें बैडमिंटन की दुनिया में ले आया। उनकी प्रतिभा को निखारने का काम ऑल इंग्लैंड बैडमिंटन चैंपियन रहे पुलेला गोपीचंद ने पूरा किया। जिनकी बैडमिंटन एकेडमी हैदराबाद में ही स्थित है।

एक के बाद एक सफलता ने सिंधु को सुर्खियों का सरताज बना दिया। उनकी झोली में कई खिताब हैं। जिनमें 2013 में जीता मलेशिया ओपन और मकाऊ ओपन का खिताब, 2017 में कोरिया ओपन सुपर सीरिज का खिताब, वर्ष 2016 में चाइना ओपन का खिताब अपने नाम कर चुकी हैं। सिंधु ने धीरे-धीरे बड़े खिताब जीतने की क्षमताओं को विस्तार दिया है। सिंधु ने एशियन गेम्स-2018 में भारत को रजत पदक दिलाया था। पी.वी. सिंधु के शानदार कौशल से ही भारत को एशियन गेम्स में 36 साल बाद कोई पदक हासिल हुआ। लगातार दुनिया के चोटी के खिलाड़ियों को हराकर खिताब जीतने वाली सिंधु का खेल लगातार निखार पर है। सिंधु की गिनती भारत के सम्पन्न खिलाड़ियों में होती है। वह दुनिया की सबसे ज्यादा कमाई करने वाली महिला खिलाड़ियों की सूची में शीर्ष 10 में हैं।  सिंधु से भारत को बड़ी उम्मीदें हैं। उसकी उम्र के लिहाज से उसमें बहुत खेल बाकी है। वह पूरे दमखम के साथ दुनिया की चोटी की खिलाड़ियों को चुनौती दे रही हैं। जो भविष्य की सुखद उम्मीद जगाती हैं।

साइना नेहवाल और पी.वी. सिंधु में श्रेष्ठता की जब भी बात होती है, पुलेला गोपीचंद कहते हैं कि दोनों का खेलने का तरीका अलग है। इन दोनों खिलाड़ियों में दुनिया की किसी भी खिलाड़ी को हरा देने की क्षमता है। इन दोनों के बीच जब-जब मुकाबले हुए हैं अधिकतर बार साइना नेहवाल ही जीती हैं। साइना नेहवाल ने 21वें कॉमनवेल्थ गेम्स में बैडमिंटन के महिला एकल फाइनल मुकाबले में स्टार शटलर पीवी सिंधु को बेहद कड़े मुकाबले में 21-18 और 23-21 से पराजित किया था। दोनों ही खिलाड़ियों के बीच एक-एक पॉइंट के लिए जबरदस्त टक्कर देखने को मिली थी। कॉमनवेल्थ गेम्स में साइना नेहवाल दो गोल्ड मेडल जीतने वाली भारत की पहली महिला शटलर हैं। इससे पहले उन्होंने दिल्ली कॉमनवेल्थ गेम्स-2010 में भी गोल्ड मेडल जीता था। 21वें कॉमनवेल्थ गेम्स में भारत को पहली बार महिला एकल का गोल्ड और सिल्वर दोनों मेडल मिले। अगर बात करें साइना बनाम सिंधु की तो नवम्बर 2017 में सीनियर नेशनल चैम्पियनशिप में आमने-सामने थीं, जिसमें भी साइना ने जीत दर्ज की थी। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर साइना और सिंधु इससे पहले दो बार भिड़ी हैं जिसमें से दोनों ने 1-1 बार जीत दर्ज की है। 2014 में सैयद मोदी ग्रांप्री में साइना ने सिंधु को हराया था तो 2017 में इंडिया ओपन सुपर सीरीज में सिंधु ने साइना को शिकस्त दी थी। जो भी हो यह दोनों बेटियां भारत का अनमोल रत्न हैं।

आत्मविश्वास का दूसरा नाम वेदांगी कुलकर्णी


29 हजार किलोमीटर साइकिल चलाने का कीर्तिमान

खेल कई नियम-कायदों द्वारा संचालित ऐसी गतिविधि है, जो हमारे शरीर को फिट रखने में मदद करती है। आज की भागदौड़ भरी जिन्दगी में अक्सर हम खेल के महत्व को दरकिनार कर देते हैं। आज के समय में जितना पढ़ना-लिखना जरूरी है, उतना ही खेलकूद भी जरूरी है। एक अच्छे जीवन के लिए जितना ज्ञानी होना जरूरी है, उतना ही स्वस्थ होना भी जरूरी है। ज्ञान जहां हमें पढ़ने-लिखने से मिलता है वहीं अच्छे स्वस्थ शरीर के लिए खेलकूद जरूरी है। दुनिया में खिलाड़ियों और खेलप्रेमियों की कमी नहीं है। जरा सी प्रसिद्धि खिलाड़ी को सातवें आसमान पर पहुंचा देती है। देश के लिए खुशी की बात है कि आज बेटियां हर क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रही हैं। बहादुर बिटिया वेदांगी कुलकर्णी ने अपनी अदम्य इच्छाशक्ति की जो मिसाल कायम की है उससे देश की और बेटियां प्रोत्साहित होंगी।

जिस देश में आमतौर पर बेटी को रात-बेरात अकेले घर से बाहर न निकलने की नसीहत दी जाती हो, उस देश की बिटिया का साइकिल से दुनिया का चक्कर लगाना हैरत भरी बात है। इस जांबाज बेटी की उम्र साइकिल यात्रा के दौरान ही बीस की हुई। साइकिल से किसी मिशन को साकार करने की सोचना आसान नहीं था लेकिन वेदांगी के साहस और जीवट ने असम्भव को भी सम्भव कर दिखाया। धन्य हैं वेदांगी के माता-पिता जिन्होंने बिटिया को न केवल ऐसा करने का मौका दिया बल्कि गर्व के साथ उसका मनोबल भी बढ़ाया। मिशन में निकलने से पहले वेदांगी ने दो साल तक खूब तैयारी की। अभ्यास बतौर उसने मुंबई से दिल्ली तक का चौदह सौ किलोमीटर का सफर तय किया। अधिकारियों से मिली ताकि दुनिया के दूसरे देशों में जाने पर वीजा व अन्य कागजातों की दिक्कत न आये। फिर निकल पड़ी दुनिया की परिक्रमा करने।

देश की इस बहादुर बेटी वेदांगी कुलकर्णी ने कोलकाता से साइकिल चलाकर न केवल यात्रा का 29 हजार किलोमीटर का मानक पूरा किया बल्कि सबसे कम समय में इस यात्रा को पूरी करने वाली एशिया की पहली महिला साइकिलिस्ट भी बन गई। वेदांगी की उपलब्धि पर समूचा देश गौरवान्वित है। एशियाई रिकॉर्ड बनाकर वेदांगी प्रफुल्लित तो है लेकिन वह आगे के अभियानों की तैयारी में भी जुट गई है। पुणे की वेदांगी कुलकर्णी दुनिया के उन चंद लोगों में है, जिन्होंने ऐसी चुनौतीभरी यात्रा को अंजाम देने में सफलता पाई। उसके आगे ब्रिटेन के 38 वर्षीय जेनी ग्राहम हैं, जिन्होंने यह यात्रा वेदांगी से चार हफ्ते से कम समय में पूरी की। ब्रिटेन के ब्रॉवर्नेमाउथ विश्वविद्यालय से खेल प्रबंधन की पढ़ाई कर रही वेदांगी ने सत्रह साल की उम्र में साइकिलिंग शुरू की और उन्नीस साल की उम्र में दुनिया नापने निकल पड़ी। उसके साथ आत्मविश्वास था और एक अदद साइकिल, टूल, कैंपिंग और अन्य जरूरत का सामान। निश्चित रूप से खेलों के जुनून वाले देश ब्रिटेन के वातावरण ने उसे अपने जुनून को पूरा करने के लिये प्रेरित किया होगा। भारत में तमाम प्रतिभाएं ऐसे सपने देखती हैं लेकिन प्रतिकूल वातावरण व प्रोत्साहन न मिलने के चलते उनके सपने बिखर कर रह जाते हैं। इतना तो तय है कि किसी भी खेल में प्रतिभाएं अपने प्रयासों व संसाधनों से कुछ कर गुजरने निकलती हैं। यह बात अलग है कि बाद में सरकारें उनकी उपलब्धियों पर ताल ठोकने और पुरस्कार बांटने की होड़ में शामिल हो जाती हैं।

वेदांगी का यह सफर आसान नहीं था। उसकी हिम्मत तो देखिये कि उसने अस्सी फीसदी सफर खुद तय किया। कहीं चालीस डिग्री का तापमान तो कहीं माइनस बीस डिग्री का रक्त जमाने वाला तापमान। रूस के कई बर्फीले इलाकों में कैंपिंग करके वह अकेले अपने मिशन की तरफ बढ़ चली। कनाडा में जंगली भालू उसके पीछे दौड़ा तो वह किसी तरह जान बचाकर निकली। स्पेन में तो लुटेरों ने उस पर हमला बोलकर लूटपाट की। कई देशों में सीमा पर कागजात संबंधी दिक्कतें वेदांगी के सामने आईं। मगर वह इन मुसीबतों के सामने डिगी नहीं। उसने अपने लक्ष्य को अधिक ऊर्जा और आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ाया और आखिर मंजिल पर पहुंच कर ही दम लिया।

बकौल वेदांगी अब मैं कह सकती हूं कि 29 हजार किलोमीटर की साइकिलिंग करना मेरे बायें हाथ का खेल है। वेदांगी ने 159 दिन में 14 देशों में यह उन्नतीस हजार किलोमीटर का सफर तय किया है।  इस दौरान उसने आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, कनाडा, आइसलैंड, पुर्तगाल, स्पेन, फ्रांस, बेल्जियम, जर्मनी, डेनमार्क, स्वीडन, फिनलैंड और रूस होकर अपना सफर पूरा किया। रूस से वह भारत आई और देश में इसने चार हजार किलोमीटर का सफर तय किया। वेदांगी कुलकर्णी भारत में सबसे कठिन रास्ते मनाली से खरदुंगला तक की साइकिलिंग भी कर चुकी हैं। कुछ अच्छे तो कुछ बुरे अनुभव उसके जहन में हैं मगर सुकून है कि उसने अपना लक्ष्य पूरा कर लिया है। उसने रोजाना तीन सौ किलोमीटर का सफर तय करने का लक्ष्य पूरा किया। अब चाहे झुलसाती गर्मी हो या रूस में बर्फीले तूफान हों।

अब भारत से वेदांगी कुलकर्णी आस्ट्रेलिया के पर्थ शहर जाएंगी। जहां पहुंचकर उसकी आधिकारिक रूप से यात्रा पूरी होगी। दरअसल, यहीं से वेदांगी ने विश्व का चक्कर लगाने वाली यात्रा की शुरुआत की थी। यात्रा के समापन पर वेदांगी के मस्तिष्क में तमाम खट्टी-मीठी यादें ताजा हैं। वेदांगी ने सारी यात्रा को अपने कैमरे में कैद किया। अब वह इस यात्रा पर लिविंग एडवेंचर, शेयरिंग द एडवेंचर शीर्षक से एक डॉक्यूमेंट्री बनाने की तैयारी में हैं। वर्ष 2017 में उसने साइकिल से दुनिया नापने का जो सपना देखा था, वह पूरा हुआ। अब वह और कठिन रास्तों पर आगे बढ़ना चाहती है। निश्चय ही वेदांगी नई पीढ़ी के युवाओं के लिये प्रेरणास्रोत है। आओ ऐसी बेटियों का हौसला बढ़ाएं।

नादिया के संघर्ष और जज्बे को सलाम


नरक से नोबेल तक का मर्मांतक सफर
संघर्ष और सहनशक्ति के मामले में महिलाएं पुरुषों से कहीं आगे होती हैं। वात्सल्य की प्रतिमूर्ति महिलाएं किसी भी चुनौती को न केवल हंसकर सहने की क्षमता रखती हैं बल्कि समय की शिला पर नए प्रतिमान स्थापित करने का हुनर और कौशल भी उनमें होता है। छह भाईयों व माता-पिता का कत्ल करके इंसानी भेड़ियों की यौन दासी बनने का दुख कितना भयावह होता है, इसे नादिया मुराद के अलावा कौन महसूस कर सकता है। रात-दिन खूंखार आईएस लड़ाकों द्वारा महीनों लगातार नोचे जाने, बार-बार मालिक के बदलने, कोड़े खाने के बावजूद नादिया ने साक्षात‍ नरक से निकलने का सपना नहीं छोड़ा। आधा दर्जन बार भागी, फिर जिस्म के शिकारियों के आगे फेंक दी गईं, मगर मुक्ति की छटपटाहट इतनी प्रबल थी कि वह एक भले परिवार की मदद से मोसूल से निकलकर तुर्किस्तान की सीमा तक जा पहुंचीं। बिना नागरिकता प्रमाणों के खुद को साबित करना कितना मुश्किल होता है, यह नादिया ही जानती हैं। फिर इराक से जर्मनी पहुंचकर उन्होंने सारी दुनिया को आईएस के अमानवीय अत्याचारों के बारे में बताया। नादिया ने बताया कि उस जैसी हजारों महिलाएं और बच्चियां आज भी आईएस लड़ाकुओं की यौन गुलाम बनी हुई हैं तथा हर दिन एक नई मौत मरती हैं।

यौन हिंसा को युद्ध का हथियार बनाने के खिलाफ मुहिम चला चलाने वाले कांगो गणराज्य के डेनिस मुकवेगे को जहां पिछले साल बलात्कार पीड़िताओं की मदद के लिए नोबेल शांति पुरस्कार मिला वहीं नादिया मुराद को उस असाधारण साहस के लिए यह सम्मान मिला, जो उन्होंने बलात्कार के खिलाफ जागरूकता फैलाने के लिए दिखाया। नादिया मुराद को वर्ष 2014 में इस्लामिक स्टेट के लड़ाकों ने अगवा कर लिया था और उन्हें बंधक बनाकर महीनों तक यौन हिंसा का शिकार बनाया। उसने न केवल पूरी दुनिया को अपनी आपबीती सुनाई बल्कि अन्य बंधकों को मुक्त कराने की मुहिम भी चलाई।

दरअसल, दुनिया के सबसे पुराने मजहबों में से एक यजीदी समुदाय हमेशा से सुन्नी लड़ाकों के निशाने पर रहा है। इस अल्पसंख्यक समुदाय को नेस्तनाबूद करने के लिए हजारों यजीदियों को गोलियों से भूनने के साथ लड़कियों और महिलाओं को यौन गुलाम बना दिया गया। उन्हें इस्लाम कबूलने के लिए आतंकित किया गया और फिर मारकर सामूहिक कब्रों में दफन कर दिया गया। इराक के शिंजा पर्वत के पास बसे कोचू गांव में सत्रह सौ लोगों के समूह में नादिया ने आंखें खोलीं। तीन अगस्त, 2014 को इनके गांव को आईएस लड़ाकों ने चारों तरफ से घेर लिया। हथियार, सम्पत्ति-जेवर आदि लूटकर एक दो मंजिला इमारत में सबको बंधक बना लिया गया। तीन हजार लोगों की हत्या और पांच हजार महिलाओं-बच्चियों को बंधक बनाने की खबर ने गांव का मनोबल तोड़ दिया। स्कूल की एक मंजिल में महिलाओं व बच्चियों को तथा दूसरी में पुरुषों व लड़कों को रखा गया। जिसने इस्लाम दबाव में कबूला, उसे भी इस धारणा के तहत मारा गया कि हर यजीदी को इस्लाम कबूल करके मर जाना चाहिए। सभी मर्दों को गोली मार दी गई। उन महिलाओं को भी जो शादी लायक नहीं थीं। इस मर्मांतक पीड़ा का वर्णन नादिया ने द लास्ट गर्ल: माई स्टोरी ऑफ कैप्टिविटी एण्ड माई फाइट अगेंस्ट द इस्लामिक स्टेट पुस्तक में किया है।

यजीदियों के साथ हुए अत्याचार दिल दहला देने वाले हैं। साक्षात‍ नरक भोगने वाली नादिया बताती हैं कि सेक्स स्लेव की जिंदगी से मुक्ति की छटपटाहट में उन्होंने छह बार भागने का प्रयास किया। लेकिन उन लोगों ने फिर आईएस लड़ाकों को सौंप दिया। फिर अत्याचारों का सिलसिला और भयानक हो गया। मोसूल से भागने का सातवां प्रयास कामयाब रहा और वह किसी तरह जुल्मो-सितम से निकलकर शरणार्थी शिविर तक जा पहुंचीं। जर्मनी पहुंचकर नादिया ने सारी दुनिया को यजीदी समाज, खासकर उनकी महिलाओं के साथ हुए अमानवीय अत्याचारों के बारे में बताया। नादिया ने संयुक्त राष्ट्र के कई कार्यक्रमों में अपनी दर्दनाक दास्तान बयां कीं। हालांकि नादिया का मानना था कि हर बार उन घटनाओं का जिक्र मुझे उसी भयावह माहौल की याद ताजा करा देता है, मगर मैं यजीदी समाज की टीस को दुनिया को बताना चाहती हूं कि कैसे यौन हिंसा को युद्ध के हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। उस अकल्पनीय खौफ को बयां करने का मकसद अभी भी कब्जे में फंसी हजारों महिलाओं को मुक्त कराना है।

हर क्षण को यातनादायक व धीमी मौत को करीब से महसूस करने वाली नादिया आज यजीदी समुदाय की बुलंद आवाज बन गई हैं। हालांकि, इन यातनाओं से गुजर कर इसे एक स्त्री के रूप में बार-बार बयां करना भी खासा मुश्किल था, लेकिन वह एक भयावह सच्चाई से दुनिया को रूबरू कराना चाहती हैं। वह बताना चाहती हैं कि शांतिप्रिय कौम को कैसे नेस्तनाबूद करने की कोशिश हुई। आज नादिया ने अपने साथ हुए अमानवीय अत्याचारों को अपनी ताकत बना लिया है। उसने पूरी दुनिया के सामने आईएस के शर्मनाक कारनामों का खुलासा किया है। उसे विश्वास है कि एक न एक दिन यजीदी समाज की काली रात का अंत जरूर होगा। तब एक नई सुबह उनके खोये मनोबल को लौटाएगी। नादिया को इसी असाधारण साहस के लिए शांति के सर्वोच्च नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया, जिसकी वह वाकई हकदार भी थीं। नादिया मुराद के संघर्ष और जज्बे को सलाम। 

खेती-किसानी में महिलाओं की प्रेरणास्रोत

किसान चाची राजकुमारी
भारतीय महिलाएं आज हर क्षेत्र में अपनी सफलता की कहानी लिख रही हैं। एक बंद समाज की दहलीज लांघकर अपना नया मुकाम तय करना किसी भी महिला के लिये आसान नहीं होता। फिर पुरुष के वर्चस्व वाले क्षेत्र में पहचान बनाना और परिवार को आत्मनिर्भर बनाने के साथ हजारों चूल्हों को जलाना आसान नहीं है। बिहार के मुजफ्फरपुर के सरैया प्रखंड के गांव आनंदपुर की किसान चाची राजकुमारी ने जो कुछ किया वह महिलाओं के लिए ही नहीं पुरुष समाज के लिए भी एक सबक है। खेती-किसानी के क्षेत्र में नजीर स्थापित करने वाली राजकुमारी को हाल ही भारत सरकार ने पद्मश्री से सम्मानित किया है। किसान चाची का यह सम्मान  उनके मार्गदर्शन में चलने वाले चालीस स्वयं सहायता समूहों के लिये किसी उत्सव से कम नहीं है।

आज देश राजकुमारी को किसान चाची के नाम से जानता है। मैट्रिक करके पंद्रह साल में ब्याह दी गई राजकुमारी जब ससुराल पहुंचीं तो घूंघट की बंदिशों के समाज में खुद को पाया। शिक्षक पिता ने उन्हें लाड़-प्यार से पाला था। राजकुमारी ने टीचर की ट्रेनिंग लेकर पढ़ाना चाहा तो परिवार ने मना कर दिया। परिवार में जमीन का बंटवारा हुआ तो बेरोजगार पति के हिस्से में सिर्फ ढाई एकड़ जमीन आई, जिसमें तम्बाकू आदि की खेती होती थी, जिससे घर चलाना मुश्किल था। ऐसे में दृढ़ संकल्प के साथ राजकुमारी घर चलाने को निकल पड़ीं। परिवार-समाज के तानों से बेपरवाह उन्होंने ऐसी राह चुनी जो रूढ़िवादी समाज में सम्भव नहीं थी।

राजकुमारी ने पाया कि खेती में सबसे ज्यादा महिलाएं ही मेहनत करती हैं मगर उनके श्रम को न तो पहचान मिलती है और न ही कुछ नया करने का अवसर। यहीं से राजकुमारी की किसान चाची बनने की कहानी शुरू होती है। उन्होंने सबसे पहले अपने खेतों में फसल चक्र में बदलाव किया। राजकुमारी ने वर्ष 1990 में ओल, हल्दी और पपीते की फसल उगानी शुरू की। नजदीक के कृषि विश्वविद्यालय से सम्पर्क कर मिट्टी परीक्षण व आधुनिक तकनीक से नकदी व जैविक फसलों के उत्पादन का प्रशिक्षण लिया।

किसान चाची ने महसूस किया कि यदि हम उत्पादित अनाज व सब्जी तथा फल बाजार में बेचते हैं तो औने-पौने दाम में खरीद लिया जाता है। यदि खाद्य प्रस्संकरण के जरिये अचार-मुरब्बा आदि बनाकर बेचा जाये तो ज्यादा आमदनी हो सकती है। समस्या यह थी कि अपना उत्पाद गांव से बाहर कैसे बेचा जाये। इसके लिए उन्होंने कमर कसी और खुद ही साइकिल से हाट-बाजारों में अपने उत्पाद बेचने का मन बना लिया। पहले तो पति व परिवार ने विरोध किया मगर बाद में किसान चाची का संकल्प देखकर सबने हामी भर दी। साठ साल की उम्र पार करने पर भी किसान चाची रोज तीस-चालीस किलोमीटर साइकिल चलाकर अपने उत्पाद बेचती हैं। उनके हाथ से बनाए जाने वाले अचार व मुरब्बे आज विश्वसनीय ब्रांड बन गये हैं। राजकुमारी के उत्पादों की महक किसान मेले के दौरान तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने महसूस की और किसान चाची को पुरस्कार दिया। फिर वर्ष 2007 में किसान चाची को किसान श्री सम्मान से नवाजा गया। वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार उनकी कामयाबी से इतने मुग्ध हुए कि महिला उद्यमशीलता को नमस्कार करने किसान चाची के घर जा पहुंचे।

चाची की कामयाबी इस मायने में महत्वपूर्ण है कि उन्होंने हजारों महिलाओं को उन्नत खेती करने के लिये प्रेरित किया। उन्हें बताया कि कैसे खेती को लाभकारी बनाकर ज्यादा मुनाफा कमाकर स्वावलम्बी बना जाये। महिलाओं को राह दिखाती उन पर बनी डॉक्यूमेंट्री खासी चर्चित हुई। कालांतर में वह कई कृषि विश्वविद्यालयों की समितियों तथा राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन की सदस्य भी बनीं। किसान चाची ने समाज को यह संदेश दिया कि मजबूत इरादों और प्रगतिशील सोच से मुश्किल लक्ष्य भी हासिल किये जा सकते हैं।

किसान चाची के प्रशंसकों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तथा बिहार के राज्यपाल रहे और वर्तमान राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद भी हैं। पद्मश्री देते वक्त राष्ट्रपति ने उन्हें नाम से सम्बोधित कर हालचाल पूछा। किसान चाची के अचार और मुरब्बे की महक को सुपर स्टार अमिताभ बच्चन ने भी महसूस किया और केबीसी के सेट पर बुलाया। इसी दौरान उन्हें पांच लाख रुपये और आटे की चक्की स्वरोजगार समूहों की मदद के लिये दी। किसान चाची दिल्ली के प्रगति मैदान से लेकर देश के दूसरे राज्यों में लगने वाले कृषि मेलों में स्वयं सहायता समूहों द्वारा बनाये गये  उत्पादों को लेकर पहुंचती हैं। उनके स्टॉल पर लाइन लगकर भरोसे का सामान बिकता है।

नि:संदेह गांव की पगडंडियों पर रोज मीलों साइकिल चलाकर किसानों को आधुनिक तकनीक के प्रति जागरूक करने वाली किसान चाची आज अपने काम को पद्मश्री मिलने से खासी  उत्साहित हैं। वह मानती हैं कि खेती में महिलाएं हाड़तोड़ मेहनत करती हैं मगर उनके काम का सही मूल्यांकन कभी नहीं हो पाता। उनके नाम जमीन न होने से उनको सरकारी योजनाओं का लाभ भी नहीं मिल पाता। इस दिशा में सरकार रचनात्मक भूमिका निभाये तो महिलाएं भी घर की चौखट से निकलकर कृषि उत्पादों को बाजार तक पहुंचाकर आत्मनिर्भर बन सकती हैं। किसान चाची हमें विश्वास दिलाती हैं कि हमारे आसपास रहने वाले साधारण लोग भी दुनिया बदलने की कूबत रखते हैं।

कमाल की कृति भारती


बाल विवाह के खिलाफ जगाई अलख
भारत परम्पराओं का देश है। इन परम्पराओं की आड़ में कुछ कार्य ऐसे भी हुए या होते हैं जिनसे हमारे समाज में असंतुलन की बयार सी बहने लगती है। हमारे देश आखातीज भी एक ऐसी परम्परा है, जिसमें आमजन को अपने बेटे-बेटियों की शादी के लिए किसी तरह का शुभ मुहूर्त निकलवाने की जरूरत नहीं पड़ती। सदियों से ग्रामीण और उपनगरों में इस अवसर का दुरुपयोग बाल विवाह कराने में किया जाता रहा है। कानून और पुलिस अपना काम करती रह जाती है और जो बाल विवाह अटक जाते हैं वो बाद में हो जाते हैं। वर्ष 2012 तक किसी स्वैच्छिक संगठन या सरकार ने नहीं सोचा था कि बाल विवाह अगर हो भी गया है तो उसे कानून के दायरे में निरस्त भी कराया जा सकता है। बाल विवाह कैसे रुकें इस दिशा में जानलेवा हमले व धमकियों से निडर कृति भारती ने जो किया वह भारत ही नहीं आज दुनिया के लिए एक नजीर है।
हमारे देश में एक कहावत प्रचलित है- वो क्या जाने पीर पराई जाके पैर न फटे बिवाईं। किसी महिला की वेदना को न केवल कृति ने समझा बल्कि देश को एक ऐसी सशक्त राह दी, जिसको कोई भी चाहे तो अपना सकता है। हौसलों की उड़नपरी नाम से मशहूर कृति भारती का बचपन संघर्षों से गुजरा मगर उसका जीवन और कर्म भारत ही नहीं दुनिया में आज एक मिसाल बन गया है। सम्भ्रांत जैन परिवार से ताल्लुक रखने वाली कृति के दुनिया में आंखें खोलने से पहले ही डॉक्टर पिता ने मां और बेटी (भ्रूण) का परित्याग कर दिया था। उसकी मां पर नाते-रिश्तेदारों ने गर्भ गिराने तक की सलाह दी, जिसे नकार दिया गया। अस्वस्थता की वजह से गर्भ के भीतर ही भ्रूण चिपक गया, जिससे मासूम बच्ची के जन्म से पहले ही सिर पर गहरे जख्म हो गए। बहुत मुश्किल से बच्ची का सातवें माह में ही जन्म हुआ।
सामाजिक शोषण और दुर्भावना के चलते जब दस साल की उम्र में जब कृति चौथी कक्षा में अध्ययनरत थी तो किसी रिश्तेदार ने उसे कोई धीमा जहर खिला दिया। ईश्वर ने फिर चमत्कार दिखाया। धीमे जहर के असर के कारण उसके अंग लाचार हो गए। उसके सिर और एक हाथ को छोड़कर बाकी शरीर बेजान हो गया। रैकी चिकित्सा से नन्हीं कृति के अंगों में धीरे-धीरे जान लौटने लगी। 11 साल की उम्र में दुबारा से काफी असहनीय पीड़ाओं से गुजर कर उसने घुटनों के बल चलना सीखा। बाल योगिनी की पहचान वाली कृति ने गुरु सरस्वती के सान्निध्य में क्रिस्टल के प्रयोगों से रैकी चिकित्सा पद्धति प्राप्त कर दुर्बल महिलाओं को सफल रैकी चिकित्सा देनी शुरू कर दी।
उसने जोधपुर से मनोविज्ञान विषय में स्नातकोत्तर की परीक्षा में टॉप किया और इसी विषय पर पी.-एचडी. की उपाधि हासिल की। समाज के निम्न और शोषित तबके के लिए कार्य करने के जज्बे के कारण कृति ने उच्च वेतन के जॉब को भी ठुकरा दिया। जब वह बाल दुराचार और शोषण को होता देखती तो बहुत व्याकुल हो जाती। पीड़ित बच्चों और महिलाओं को राहत दिलाने और बेहतर पुनर्वासित करने को ही जीवन का उद्देश्य बनाकर उसने दृढ़ संकल्प के साथ एक मशाल उठाई। मंदबुद्धि बच्चों के लिए पुनरुत्थान व पुनर्वास के लिए कार्य किया।
अन्य स्वयंसेवी संगठनों के साथ कार्य करने में कुछ बाधाएं सामने आती देख उसने वर्ष 2012 में सारथी ट्रस्ट स्थापित किया। बाल विवाह की सामाजिक रूढ़िवादी परम्परा को मिटाने के लिये सारथी ने एक के बाद एक बाल विवाह पीड़िताओं को सम्बल प्रदान किया। पश्चिम राजस्थान में लक्ष्मी एक साल की थी जब उसे उसके मां-बाप ने जोधपुर में दो साल के लड़के के साथ बाल विवाह में बांध दिया। लक्ष्मी जब 2012 में 18 साल की हुई और उसे  ससुराल भेजने का समय आया तो उसने इसका डटकर विरोध किया और कृति से सम्पर्क किया। काफी जद्दोजहद के बाद फेमली कोर्टसे लक्ष्मी को बाल विवाह से मुक्त करा दिया गया। 10 साल की पिंकी कंवर हो या 18 साल की पपली जैसी तीन दर्जन बाल विवाहिताएं, उन सभी ने गौने की त्रासदी से बचने के लिये सारथी का दामन थामा। विवाह निरस्त कराने की कोशिश में इन सभी के परिवारों को लड़के वालों द्वारा मारने की धमकी दी गयी, पुलिस की ताकत दिखाई, गुंडे दौड़ाये गये। मगर सारे खतरों और कानूनी चुनौतियों से संघर्ष करते हुए कृति ने युवा अवस्था में वो कर दिखाया जो बड़े-बड़े स्वयंसेवी संगठन विदेशी फण्ड से भी नहीं कर पाते।
वर्ष 2012 में जब कृति ने फेमिली कोर्ट में प्रोहिबिशन ऑफ चाइल्ड मेरिज एक्ट, 2006 की धारा 3 में पहला बाल विवाह निरस्त कराया तो लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स और वर्ल्ड रिकॉर्ड्स ऑफ इंडिया में प्रसिद्धि प्राप्त की। उसके बाद कृति अब तक तीन दर्जन से अधिक बाल विवाह निरस्त कराने का एक विश्व रिकार्ड बना चुकी हैं। साथ ही सीबीएसई के ग्यारहवीं और बारहवीं स्तर के पाठ्यक्रम में भी कृति के बाल विवाह निरस्त की मुहिम को शामिल किया गया। वर्ष 2016 में महज तीन दिन में दो जोड़ों के बाल विवाह को निरस्त करवाने के कारण उसे वर्ल्ड रिकॉर्ड इंडिया, इंडिया बुक ऑफ रिकॉर्ड्स व यूनिक वर्ल्ड रेकार्ड्स में शामिल किया गया। इस पर चीफ जस्टिस ऑफ राजस्थान ने भी कृति को सम्मानित किया। नेशनल कमीशन फॉर प्रोटक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स (एनसीपीसीआर) बाल विवाह दर कम होने के कितने ही आंकड़े दर्शाये मगर जब परिवार में मौसर’ (मृत्युभोज) होता है तो रुके हुए बाल विवाह इसलिये हो जाते हैं कि वो पुण्य आत्मा का एक नेक दिन होता है। कृति कहती हैं कि भले ही गांव निरंतर हाईटेक हो रहे हों मगर जातिगत और संकीर्ण मानसिकता से पुरुष समाज अभी उबरा नहीं है। जो भी हो कृति के कृतित्व ने समाज को एक नई दिशा जरूर दिखाई है।

नारी अस्मिता सर्वोपरि


महिलाओं की स्थिति भले ही स्थानिक प्रभाव व काल प्रवाह में बदलती रही हो, उसकी छवि भी भले ही समय-समय पर दबती-उभरती रही हो, परन्तु हर युग के निर्माण में उसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। उसकी अस्मिता को लेकर साहित्य में हमेशा ही समय-सापेक्ष अनेकानेक प्रश्न उठाए जाते रहे हैं। उनका समाधान हुआ है या नहीं, यह सब कुछ निरुत्तरित ही है जब तक वह मानवीय रूप में उभरकर सबके सामने न आए। सब नाते-रिश्तों के बावजूद वह स्वतंत्र इकाई भी है और स्वतंत्र अस्तित्व वाली भी है। साहित्य दिशा-बोधक एवं दिशा-स्तम्भ है। आज हमारा युग-बोध बदल गया है, जीवन-पद्धतियां बदल गई हैं। इसीलिए स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में समीकरण की तलाश है। नये मूल्यों का निर्माण करने से ही नये युग की नई नारी की प्रतिमा उभरेगी।
आज स्त्रीवाद या स्त्री विमर्श एक फैशन बन गया है। आधी आबादी की अस्मिता को लेकर आज आन्दोलन भी हो रहे हैं, परन्तु यह कोई नई बात नहीं है। देखा जाए तो नारी अस्मिता और उससे जुड़े तमाम सवालों के हल पिछले दो सौ से भी अधिक वर्षों से ढूंढ़े जा रहे हैं तथापि समस्याएं यथावत हैं। अठारहवी शताब्दी के मध्य में ही दुनिया की तमाम महिलाओं को बराबरी का हक़ दिलवाने की ज़रूरत महसूस की गई और पहली बार राइट्स ऑफ वूमेन के माध्यम से स्त्री-अधिकारों के लिए आवाज मुखर हुई। इंग्लैण्ड की मैरी वोलस्टोन पहली महिलावादी थीं जिन्होंने महिला शिक्षा और अधिकारों को लेकर महिला आंदोलन की शुरुआत की। उन्होंने शोषण से स्त्री की मुक्ति हेतु पुरुषों में बदलाव की आवश्यकता पर बल दिया है।
स्वीडन की फ्रेडरिका बेमर ने भी 1849 में स्त्री जीवन की विडम्बनाओं को स्वयं अनुभव किया। उन्होंने अमेरिका जाकर वहां की स्त्रियों की स्थिति का अध्ययन किया। फिर स्वीडन लौटकर अपना उपन्यास हेर्था लिखा, जिसमें उन्होंने स्त्री को परम्परागत भूमिका से मुक्त रूप में चित्रित किया। यही उपन्यास स्वीडन की संसद में स्त्रियों के हित में बनाये जाने वाले क़ानूनों का आधार बना। 1791 में फ्रांस में ओलिम्पी दे गाज द्वारा महिलाओें के नागरिक अधिकारों पर घोषणा-पत्र प्रस्तुत किया गया। इसमें महिलाओं के लिए पुरुषों के समान अधिकारों की घोषणा की गई। भारत में सरोजिनी नायडू पहली ऐसी महिला थीं जिन्होंने एनी बेसेण्ट और अन्य लोगों के साथ मिलकर भारतीय महिला संघ की स्थापना की।
उन्नीसवीं शताब्दी की महिला आन्दोलनकारियों में फ्रांस की सिमोन द बोउवा का नाम सर्वोपरि है। उनकी पुस्तक द सेकेण्ड सेक्स स्त्री विमर्श की चर्चित कृति है। सिमोन मानती थीं कि स्त्री का जन्म भी पुरुष की तरह ही होता है मगर परिवार व समाज द्वारा उसमें स्त्रियोचित गुण भर दिए जाते हैं। 1970 में फ्रांस के नारी मुक्ति आंदोलन में भाग लेने वाली सिमोन स्त्री के लिए पुरुष के समान स्वतंत्रता की पक्षधर थीं।
प्रसंगवश यहां अमेरिका की रॉबिन मोर्गन, बैटी फ्रीदां, एंड्रिया ड्वार्किन, सुजेन फलूदी और ग्लोरिया स्टीनेम जैसी प्रसिद्ध महिलावादियों का नामोल्लेख उचित है। रॉबिन ने महिला आन्दोलन पर सिस्टरहुड इज पावरफुल जैसी चर्चित पुस्तक लिखी। 1960 के दशक में वे लेस्बियन के रूप में जानी गईं और महिला मुक्ति आन्दोलन में भी सक्रिय रहीं। बैटी फ्रीदां अमेरिका में राष्ट्रीय महिला संघ की संस्थापक और अध्यक्ष रहीं। उन्होंने अपनी पुस्तक द फेमिनिन मिस्टीक में गृहिणी शिक्षा पर प्रश्न उठाया। वे गर्भपात-क़ानून की विरोधी और समान अधिकारों की समर्थक थीं। इस विवेचना का आशय यही है कि समान अधिकारों के लिए महिलाओं का संघर्ष नया नहीं है। यह सर्वकालिक और सार्वदेशिक है। महिलाएं चाहे जिस भी नस्ल, वर्ण, जाति, धर्म, संस्कृति या देश की हों, उनके संघर्ष लगभग एक समान हैं।
आश्चर्यजनक तो यह है कि स्त्रीवादियों के आन्दोलन की जो लहर पहले पहल अठारहवी शताब्दी के मध्य में उठी थी, अब तक अपनी मंजिल नहीं पा सकी है। यद्यपि स्त्री की एक नयी छवि अवश्य उभर रही है। सदियों से बंधनों में जकड़ी स्त्री अब स्वावलम्बी और सबला बनने हेतु सचेष्ट है। अतएव विश्व के अधिकतर देशों में सकल घरेलू उत्पाद में उनकी सक्रिय भागीदारी बढ़ रही है। अमेरिका, कनाडा, चीन, ब्राजील, मेक्सिको, युगांडा, भारत और बांग्लादेश जैसे तमाम विकसित व विकासशील देशों में जहां रोजगार सृजन का कार्य व्यापक पैमाने पर हो रहा है, वहां की समृद्धि का आधार स्तम्भ महिलाएं हैं। सभी क्षेत्रों में अपनी क्षमता साबित कर देने के बावजूद समूची दुनिया में आज भी महिलाएं हाशिए पर हैं।
मध्य एशिया के सबसे बड़े देश ईरान में 36 विश्वविद्यालयों ने 80 अलग-अलग पाठ्यक्रमों में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया है। ऐसे पाठ्यक्रमों में इंजीनियरिंग, कम्प्यूटर साइंस, नाभिकीय भौतिकी, अंग्रेजी साहित्य और पुरातत्व जैसे विषय शामिल हैं। आर्यों की धरती माने जाने वाले ईरान में स्त्रियों की ज़ुबान पर ताले जड़े हैं। उन्हें सिर्फ चेहरा खुला रखने की आजादी है। वहां कोई महिला संगठन नहीं है, जो महिला अधिकारों की बात करे। कोई महिला राजनेता नहीं हैं। तीन वर्ष पूर्व विरोधी प्रदर्शन के दौरान एक युवती नेहा आगा सुल्तान मारी गई थी तदुपरान्त किसी महिला ने आगे आने की हिम्मत नहीं दिखाई। ईरान की नोबेल शांति पुरस्कार विजेता शीरीन इबादी ईरान से बाहर रहकर स्त्रियों की आजादी की लड़ाई लड़ रही हैं। वैश्विक स्तर पर स्त्री की स्थितियों में अधिक अन्तर नहीं है। हम चाहे सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक या पारिवारिक परिदृश्य की बात करें, हर कहीं स्त्री का शोषण बदस्तूर जारी है। धार्मिक नेता और समाज के ठेकेदार युवतियों के रहन-सहन, परिधान, संचार साधनों के उपयोग और जीवनसाथी के चयन जैसे सर्वथा निजी मामलों में भी अपनी राय थोपकर उनकी स्वतंत्रता का हनन करते हैं।
महिलाओं के संदर्भ में रोजगार, शिक्षा और क़ानून को लेकर समानता की मांग बेमानी नहीं है, क्योंकि वे हर जगह भेदभाव से पीड़ित हैं। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम के दस्तावेज़ मानव विकास रपट से ज्ञात होता है कि समूचे विश्व में महिलाएं शोषण का शिकार हैं। पुरुष प्रधान समाज में उसकी उन्नति के मार्ग में हर कदम पर अवरोध दिखाई देते हैं। जनसंख्या व विकास पर जब काहिरा में विश्व सम्मेलन हुआ तो धार्मिक पुरोहितों ने गर्भपात और अनचाहे गर्भ को रोकने के लिए सम्मेलन के प्रस्ताव का विरोध किया। फलतः एक स्त्री-हितैषी निर्णय खटाई में पड़ गया। यह भी कटु सत्य है कि संसार के दो तिहाई कठिन परिश्रम वाले कार्य महिलाएं ही करती हैं परन्तु इसके बदले उन्हें बहुत कम पारिश्रमिक मिलता है। उन्हें पुरुषों की आय के दसवें भाग के बराबर मिल पाता है और सम्पत्ति तो बमुश्किल सौ में से एक महिला के नाम पर होती है। दरअसल प्रत्येक महिला अपने परिवार के लिए अथक परिश्रम करती है पर उसके श्रम की कोई सामाजिक मान्यता नहीं हैं। भारत में तो कर्तव्य और प्रेम की ओट में उसके श्रम की अनदेखी कर दी जाती है।
आज नारी का अस्तित्व खतरे में है। यदि हम भारत की बात करें, तो यहां परिवार की व्यवस्था के लिए एक सौभाग्यवती ब्याहता की मांग होती है। मगर कम्पनियों और बाजारवादी व्यवस्था को स्वयं निर्णय लेने में सक्षम, स्वावलम्बी और सौन्दर्यचेता स्त्री चाहिए। इन दोनों बातों को ध्यान में रखते हुए मीडिया स्त्री की जो छवि रच रहा है वह नकारात्मक अधिक है। नारी मुक्ति आन्दोलन स्त्री की स्वतंत्रता पर बल देता है, जबकि असल मुद्दा यह है कि उसे इंसान के रूप में मान्यता मिले। तब उसे पुरुष के समान अधिकारों की मांग अलग से करने की आवश्यकता नहीं रहेगी। देश और समाज के प्रति उसकी भूमिका और उत्तरदायित्व इंसान के रूप में ही सुनिश्चत हो जाएंगे। मगर दु:ख की बात यह है कि भारतीय महिलाओं की स्थिति सरकार के समस्त प्रयासों के बावजूद बेपटरी है।
आज सबसे बड़ी समस्या स्त्री की स्वतंत्रता की नहीं, सुरक्षा की है। दुधमुंही बच्ची से लेकर वृद्धा तक के साथ बलात्कार हो रहे हैं। समूचे विश्व में स्त्री यौन उत्पीड़न और हिंसा से जूझ रही है। उसकी महत्वाकांक्षाओं के लिए समाज में कोई स्थान नहीं है। उसे इसके लिए बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है। आखिर कब तक महिला की योग्यता और क्षमता की अवहेलना होती रहेगी? कब तक उसका शोषण जारी रहेगा? औपचारिक तौर पर किसी एक दिन महिला दिवस मनाने से उनकी समस्याओं का हल नहीं निकलेगा। अब विश्व महिला दिवस एक विशेष दिन के रूप में मनाने की बजाय ऐसी पहल की जानी चाहिए जिसमें हर दिन महिला अपने को सुरक्षित और सम्मानित महसूस कर सके। अपने देश की उन्नति में एक इन्सान और मज़बूत नागरिक के रूप में योगदान कर सके। अपने स्त्री होने पर गर्व कर सके।
कभी बेटियों को अभिशाप मानने वाला हमारा पुरुष प्रधान समाज आज बेटियों के कारनामों से न केवल हतप्रभ है बल्कि उनका गुणगान करते नहीं थक रहा। यह वही बेटियां है जिन्हें आज से कुछ दशक पहले पर्दे में रखा जाता था और घर की इज्जत-आबरू बताकर उन्हें चौखट के बाहर कदम रखने की इजाजत नहीं दी जाती थी। बड़ी मुश्किल से कोई कोई माता-पिता हिम्मत जुटाकर अपनी बेटियों को स्कूली शिक्षा के लिए घर से बाहर भेजा करते थे और समाज की मान्यता के विपरीत अपनी बेटियों को पढ़ाया करते थे। ऐसे अभिभावकों को इसके लिए कभी-कभी परिवारीजनों और बाहरी लोगों से विरोध तथा उलाहना का सामना भी करना पड़ता था। ऐसे हिम्मती अभिभावकों के चलते ही बेटियों को घर से बाहर निकलने का मौका मिला।
आज परिस्थितियां बिल्कुल बदल चुकी हैं। आज हमारा समाज बेटियों की शिक्षा को लेकर न केवल सजग और जागरूक है बल्कि प्रायः प्रत्येक व्यक्ति अपनी बेटी को उच्च से उच्चतम शिक्षा देने की लालसा रखता है। बेटियों को नील गगन में स्वच्छंद उड़ान भरने की इजाजत मिल रही है। देश के गाँव हों या शहर जहां देखो वहीं लड़कियाँ समूह में स्कूल-कालेज जाती हुई आपको दिख जाएंगी। कुछ अलग परन्तु श्रेष्ठ करने की दृढ़ इच्छा लिए ये बेटियां अपने आत्मबल और आत्मविश्वास से कठिन परिश्रम के सहारे सफलता की ऊंची उड़ान उड़ रही हैं। आज कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है जहां बेटियों की दखल उनकी कामयाबी के हस्ताक्षर न हों।
नारी अस्मिता के संदर्भ में बात करें तो शुरू से ही स्त्री को मनुष्य का दर्जा नहीं दिया गया। उसे अनुगामिनी व आज्ञाकारिणी ही बनाकर रखा गया। यह सब पितृ सत्तात्मक समाज की देन थी और है। भूमंडलीकरण से नारी अस्मिता के सवाल उभरे। स्त्री जागी। महिलाओं के जागरण मात्र से ही पितृ सत्तात्मक समाज की नींद उड़ गई। स्त्री जब तक सोई हुई थी तब तक पितृ सत्तात्मक समाज चैन से था। उसका जगना उन्हें बेचैन कर गया। देखा जाए तो आज नारी अस्मिता की रक्षा के लिए संघर्ष आवश्यक है। वह संघर्ष पुरुषों से नहीं पुरुष सत्ता से होना चाहिए। वैसे अब चीजें बदलने लगी हैं। मगर, एक सतत व लम्बे संघर्ष के बाद ही नारी अस्मिता पूरी तरह स्थापित हो पाएगी। नारी व पुरुष में अंतर है। इस नैसर्गिक सच को हमें स्वीकार करना होगा। नारी व पुरुष समान नहीं हैं। इसलिए दोनों में तुलना नहीं की जा सकती। दोनों अपने आप में बेमिसाल हैं। दोनों की अपनी अलग-अलग विशेषताएं हैं। नारी अस्मिता या नारी स्वतंत्रता का यह मतलब नहीं है कि नारी समय व समाज के नियमों से ऊपर है। इसका मतलब है कि किसी और के अधीन न होकर नारी स्वाधीन हो।