Friday 30 May 2014

खेलों में अब सर्बानंद

भारतीय सल्तनत अब नरेन्द्र दामोदर दास मोदी के हाथ है। मोदी की कप्तानी में 46 सदस्यीय टीम इण्डिया अपनी पांच साल की पारी का आगाज कर चुकी है, अंजाम क्या होगा यह भविष्य के गर्भ में है। भारतीय चुनौतियों पर गौर करें तो उस पर फतह पाना उतना आसान नहीं है जितनी उम्मीद देश की आवाम मोदी टीम से लगाए बैठी है। कमल दल के विजय वरण के बाद भरोसा था कि कीर्ति आजाद और ओलम्पिक पदकधारी राज्यवर्धन सिंह राठौर में से ही कोई भारतीय खेलों का तारणहार बनेगा लेकिन प्रयोगधर्मी  मोदी ने पूर्ववर्ती सरकारों का ही अनुसरण करते हुए यह जवाबदेही असम के सर्बानंद सोनोवाल को सौंपकर खेल संघों में काबिज राजनीतिज्ञों को अभयदान दे दिया है। क्रिकेट, फुटबाल और बैडमिंटन के दीवाने सर्बानंद खेल मंत्रालय को महत्वपूर्ण स्थान दिलाने का संकल्प व्यक्त कर चुके हैं लेकिन उनके लिए यह राह आसान नहीं होगी।
खेलना-कूदना तो हर जीव जन्म से ही शुरू कर देता है। खेलों से न केवल शरीर सुगठित होता है बल्कि मानसिक स्फूर्ति भी बढ़ती है। खेलों से भाईचारा प्रगाढ़ होता है लेकिन अफसोस आजादी के 67 साल बाद भी भारत में खेल संस्कृति पल्लवित नहीं हो सकी है। कुछ बड़े खेल आयोजनों की सफलता को छोड़ दें तो सवा अरब की आबादी में एक दर्जन खिलाड़ी भी ऐसे नहीं हैं जिनकी अंतरराष्ट्रीय खेल पटल पर धाक हो। पुश्तैनी खेल हॉकी अर्श से फर्श पर है तो क्रिकेट भ्रष्टाचारियों के हाथ की कठपुतली। देश में राजनीति अन्य व्यवस्थाओं की तरह खेलों को भी चौपट कर रही है। पद और प्रतिष्ठा के चलते जिले से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक खेल संघों पर राजनीतिज्ञों का कब्जा है। सच्चाई यह है कि देश के सम्पूर्ण खेल संघ कांग्रेस और भाजपा के हाथों की कठपुतली हैं। क्रीड़ांगन राजनीति के अखाड़े बन गये हैं तो खिलाड़ियों के हक पर अनाड़ी डाका डाल रहे हैं। खिलाड़ियों को जहां चना-चिरौंजी नसीब नहीं वहीं खेलनहार काजू-बादाम उड़ाते हैं। हर बड़े खेल आयोजन से पूर्व दावे-प्रतिदावे परवान चढ़ते हैं लेकिन उपलब्धि के नाम पर भारत को एकाध पदक से ही संतोष करना पड़ता है। खेलों के अपयश की गाज हमेशा खिलाड़ियों पर गिरती है जबकि किसी खेलनहार ने स्वेच्छा से अपनी आसंदी शायद ही कभी छोड़ी हो। आज हर भारतीय के दिल में क्रिकेट राज कर रहा है। खिलाड़ी अधिकृत तौर पर नीलाम हो रहे हैं तो इनके ईमान की बोली भी खूब लग रही है। देश भर में सट्टेबाजी की जड़ें गहरा गई हैं तो दूसरी तरफ अपना पौरुष बढ़ाने और खेलों में कामयाबी का डंका पीटने के लिए खिलाड़ी शक्तिवर्धक दवाओं का बेजा इस्तेमाल करने से भी बाज नहीं आ रहे।
आजादी के बाद से भारत में खेल संस्कृति का उन्नयन तो नहीं हुआ अलबत्ता यहां सट्टेबाजी और डोपिंग ने अपनी जड़ें इतनी गहरे जमा ली हैं जिनको समूल उखाड़ फेंकना किसी के बूते की बात नहीं रही। मादक पदार्थों के इस्तेमाल के मामले में आज भारत रूस के बाद दूसरे स्थान पर है जबकि प्रदर्शन के मामले में उसका शीर्ष 20 देशों में भी शुमार नहीं है। पिछले पांच साल में देश के पांच सौ से अधिक खिलाड़ियों का डोपिंग में दोषी पाया जाना चिन्ता की बात है। अफसोस डोपिंग का यह कारोबार भारत सरकार की मदद से चल रहे साई सेण्टरों के आसपास धड़ल्ले से हो रहा है। खेलों में जब तब आर्थिक तंगहाली का रोना रोया जाता है जबकि केन्द्र सरकार प्रतिवर्ष 12 सौ करोड़ रुपये से अधिक खेलों पर निसार कर रही है। राज्य सरकारों के खेल बजट को भी यदि इसमें समाहित कर दिया जाए तो यह राशि कई गुना बढ़ जाती है। दरअसल भारत में खेल पैसे के अभाव में नहीं बल्कि लोगों की सोच में खोट के चलते दम तोड़ रहे हैं। सर्बानंद सोनोवाल को खेल मंत्री बनाने के भाजपा के अपने निहितार्थ हैं। दरअसल खेल संघों में सिर्फ कांग्रेसी ही नहीं बल्कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, अमित शाह, विजय कुमार मल्होत्रा, अरुण जेटली, अनुराग ठाकुर, जनार्दन सिंह गहलोत, रमेश बैस, कैलाश विजयवर्गीय, रमन सिंह, सुमित्रा महाजन, अभिषेक मटोरिया, श्रीपद नायक, आमिन पठान आदि भाजपाई आज किसी न किसी खेल संघ में काबिज हैं लिहाजा किसी खिलाड़ी को खेल मंत्री बनाना इनके लिए कतई मुफीद नहीं होता।
भारतीय खेलों में पारदर्शिता लाने और खेल संघों से राजनीतिज्ञों को बेदखल करने के लिए पूर्व खेल मंत्री अजय माकन ने खेल विधेयक की पहल की थी, पर अधिकांश खेल संघों में काबिज कांग्रेस और भाजपा के पदाधिकारियों के दबाव के चलते माकन को अपनी आसंदी से हाथ धोना पड़ा था। खेल मंत्री सर्बानंद सोनोवाल के सामने न केवल खिलाड़ियों का प्रदर्शन सुधारने का दबाव होगा बल्कि खेल संघों में जमे मठाधीशों की कूटनीति से बचने की चुनौती भी होगी। खेल संघों में खिलाड़ियों की जगह पदाधिकारी बने राजनीतिज्ञों के प्रभाव को सिरे से खारिज करना सर्बानंद सोनोवाल के लिए आसान बात नहीं होगी। सोनोवाल को बिरासत में जो गंदगी मिली है उसकी सफाई और खेलों में बेईमानी के समूल नाश के प्रयासों को चुनौती खिलाड़ियों से नहीं बल्कि उन अनाड़ियों से मिलेगी जोकि कई दशक से खेल संघों में गहरी पैठ बनाए बैठे हैं। सच तो यह है कि सर्बानंद का आनंद बिगाड़ने में भाजपाई भी पीछे नहीं रहेंगे।
सोनोवाल के सामने राजनीतिज्ञ ही नहीं खेलों का स्तर बेहतर करना भी बड़ी चुनौती होगी। दुनिया के नम्बर एक खेल फुटबाल, पुश्तैनी खेल हॉकी, तैराकी और एथलेटिक्स में भारतीय खिलाड़ियों का पिद्दी प्रदर्शन हमेशा मुंह चिढ़ाता है। फीफा विश्व कप भारत के लिए सपना बनकर रह गया है। विश्व कप फुटबाल के आगाज से पहले भारतीय फुटबाल की हालत देखकर पूरा मुल्क शर्मसार है। दुनिया की दूसरी बड़ी आबादी वाला देश 32 श्रेष्ठ देशों में भी शुमार नहीं है। फीफा रैंकिंग में 150वां स्थान और अपने ही महाद्वीप में 25वें स्थान के आसपास भी न होना भारतीय खेलों की लचर प्रणाली का ही शर्मनाक उदाहरण है। आने वाले कुछ महीने खेलों में खास हैं। हॉकी और फुटबाल विश्व कप का बिगुल बजने ही वाला है तो एशियाई और राष्ट्रमण्डल खेल भारतीय खिलाड़ियों की धड़कन बढ़ा रहे हैं। भारत खेलों में भी शक्ति सम्पन्न बने इसके लिए सोनोवाल को जमीनी स्तर से पहल करनी होगी। आखिर टके भर का सवाल यह है कि हम दूसरों के लिए कब तक तालियां पीटेंगे?

Tuesday 27 May 2014

राज्यवर्धन सिंह होंगे देश के अगले खेल मंत्री!

अटल की सरकार में उमा भारती रह चुकी हैं खेल मंत्री, कीर्ति आजाद भी हैं दावेदार
आगरा। खण्डित जनादेश पर फतह हासिल करने के बाद भारतीय जनता पार्टी लोकतंत्र की सोलहवीं पारी नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में खेलने जा रही है। जनापेक्षा है कि मोदी न केवल तंगहाल महंगाई और भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाएंगे बल्कि अपने मंत्रिमण्डल में तेली का काम तमोली से नहीं कराएंगे। मोदी विजन का श्रीगणेश होने से पूर्व जहां मंत्रिमण्डल में शामिल होने को लेकर लॉबिंग शुरू हो गई है वहीं खिलाड़ियों और खेलप्रेमियों के बीच मुल्क के भावी खेल मंत्री को लेकर तरह-तरह की बातें हो रही हैं। राजनीतिज्ञों को खेल मंत्रालय कभी रास नहीं आया, इसे देखते हुए खिलाड़ियों और खेलप्रेमियों को भरोसा है कि टीम मोदी का खेल मंत्री कोई और नहीं बल्कि ओलम्पिक पदकधारी राज्यवर्धन सिंह राठौर होंगे।
भारतीय लोकतंत्र के चुनावी महासंग्राम में अब तक दर्जनों खिलाड़ी जीते हैं लेकिन आज तक कोई खिलाड़ी खेल मंत्री नहीं बना है। संसद और सरकार में खिलाड़ियों को खास तवज्जो न मिलने के कारण ही मुल्क में खेल संस्कृति विकसित नहीं हो सकी। दुनिया के छोटे-छोटे देश जहां खेलों में विजय नाद कर रहे हैं वहीं बड़े खेल मंचों पर भारतीय खिलाड़ियों का प्रदर्शन हमेशा थू-थू करने वाला रहा है। मौजूदा साल में कई बड़े खेल आयोजन होने हैं। हॉकी और फुटबाल विश्व कप के बाद इस साल भारत को राष्ट्रमण्डल और एशियाई खेलों में अपने पराक्रम की बानगी पेश करनी है। इन खेलों में भारतीय खिलाड़ी अपना पिछला प्रदर्शन दोहरा पाएंगे इसमें संदेह है। भारतीय खेल प्राधिकरण पहले ही कह चुका है कि इस बार आर्थिक तंगहाली के चलते खिलाड़ियों को वे सुविधाएं मयस्सर नहीं हुर्इं जो होनी थीं। खैर, मोदी के राज में खिलाड़ी जरूर खिलखिलाएंगे ऐसा हर खेलप्रेमी मान रहा है।
देश की सोलहवीं संसद में भारतीय जनता पार्टी की तरफ से दो खिलाड़ी  शूटर राज्यवर्धन सिंह राठौर और क्रिकेटर कीर्ति आजाद पहुंचे हैं। राज्यवर्धन सिंह राठौर ने जयपुर ग्रामीण सीट फतह की है। उन्होंने कांग्रेस के केन्द्रीय मंत्री सीपी जोशी को तीन लाख से अधिक मतों से पराजित किया है। कीर्ति आजाद भी वरिष्ठता के लिहाज से खेल मंत्री पद के दावेदार हैं। पूर्व केन्द्रीय खेल मंत्री उमा भारती के साथ ही अटल बिहारी बाजपेयी के भांजे अनूप मिश्रा भी संसद पहुंचे हैं। अनूप मिश्रा मध्यप्रदेश के खेल मंत्री रह चुके हैं। नरेन्द्र मोदी बेशक खिलाड़ी न हों पर वे आज भी गुजरात क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष हैं। ऐसे में लोगों को यकीन है कि वे खेल मंत्रालय किसी खिलाड़ी को ही देंगे। चूंकि खेल मंत्रालय को लेकर कभी किसी सरकार में कोई नूरा-कुश्ती नहीं हुई लिहाजा खेल मंत्री के रूप में निर्विवाद राज्यवर्धन सिंह राठौर से बेहतर कोई और नहीं हो सकता। अटल राज की तरह इस बार उमा भारती खेल मंत्री नहीं बनना चाहेंगी ऐसे में मोदी को नजीर पेश करते हुए किसी अनाड़ी की जगह खिलाड़ी को ही खेल मंत्री बनाना खेलहित में होगा।
पायका का बिगड़ेगा जायका
कांग्रेस के 10 साल के शासन में खेल नजरिये से देखें तो पंचायत युवा क्रीड़ा और खेल अभियान (पायका) में अरबों रुपये पानी की तरह बहाया गया। पायलट प्रोजेक्ट के तहत 2009 से शुरू हुई यह योजना थी तो बेहतर पर सतत मानीटरिंग के अभाव में बागड़ ही खेत चर गये। इस योजना के तहत 2017 तक देश की सभी पंचायतों और चार हजार से अधिक आबादी वाले सभी गांवों में खेल मैदान और खेल सामग्री मुहैया हो जानी थी लेकिन यह योजना जमीनी स्तर पर मूर्तरूप लेने की जगह कागजों में ही दफन हो रही है ऐसे में भाजपा शासन में पायका पर ग्रहण लग सकता है।

Friday 16 May 2014

चमका हीरा का हीरा

किस्मत की फटी चादर का कोई रफूगर नहीं होता यह बात लोकतंत्र के सोलहवें आम चुनाव में मुल्क की आवाम ने यूपीए के खिलाफ अपने जनादेश से सिद्ध कर दिखाया है। भारतीय लोकतंत्र में हीरा बेन का हीरा नरेन्द्र मोदी ऐतिहासिक पटकथा लिखेगा इस बात को लेकर तरह-तरह की आशंकाएं थीं। सल्तनत की जंग में मोदी को सिर्फ विरोधियों ने ही नहीं अपनों ने भी खूब ललकारा लेकिन लोकतंत्र के चक्रव्यूह में फंसे मोदी ने कभी आपा नहीं खोया बल्कि अपनी आदत के विपरीत सौम्य, शांतचित अपने लक्ष्य की तरफ बढ़ते रहे। उनके खिलाफ वह कुछ बोला गया जोकि न केवल अमर्यादित था बल्कि मानवीय दृष्टि से भी दिल दुखाने वाला रहा। संकट की इस घड़ी में मोदी का सारथी कोई और नहीं बल्कि मुल्क की आवाम बनी।
चुनावी महासमर में प्रतिद्वन्द्वी राजनीतिज्ञों ने मोदी विजन की जमकर खिल्ली उड़ाई पर मोदी के कहे हर अल्फाज पर देश की आवाम को यकीन था। देश का यही यकीन आज हकीकत में बदल चुका है। मोदी तो जीते ही मुल्क का खण्डित जनादेश भी हार गया। इस बार मतदाताओं ने अपनी समझदारी से कई छोटे दलों को सबक सिखाते हुए उन्हें चेताया है कि अब मुल्क में जाति-धर्म की राजनीति नहीं चलने वाली। लोकतंत्र के सोलहवें महाकुम्भ में अकेले मोदी ही नहीं देश की चुनावी प्रक्रिया भी कसौटी पर रही। इसके लिए मतदाताओं को न केवल जागरूक किया गया बल्कि इसके लिए करोड़ों रुपये भी खर्च हुए। चुनाव आयोग को इसमें काफी हद तक सफलता भी मिली। वर्ष 2009 के पिछले लोकसभा चुनाव के मुकाबले इस बार जहां मतदान का प्रतिशत बढ़ा वहीं नये मतदाताओं ने इन चुनावों को उत्सव या यूं कहें एक अभियान सा बना दिया। इन युवाओं ने खुद तो बढ़-चढ़कर मतदान किया ही, सोशल मीडिया के जरिये अन्य मतदाताओं को भी प्रेरित किया।
युवाओं को मोदी का विकास एजेण्डा इतना भाया कि उसने जाति-धर्म से परे अपना फैसला सुनाकर कमल दल की बांछें खिला दीं। कहते हैं कि सफलता के कई बाप होते हैं लेकिन नरेन्द्र मोदी की इस ऐतिहासिक सफलता का सारा श्रेय युवाओें को जाता है। हर-हर मोदी, घर-घर मोदी के अल्फाजों से युवा ही नहीं, गरीबी और भुखमरी का दंश झेल रहे लोग भी खासे प्रभावित हुए। यही वजह रही कि इस बार जो लोग मतदान के महत्व से बेखबर थे उन्होंने भी उत्साह से मताधिकार का प्रयोग किया। नौ चरणों में हुए लोकतंत्र के इस पुनीत कार्य में प्रतिद्वन्द्वी राजनीतिज्ञों में मोदी के नाम का डर था तो देश की आवाम में मोदी को एक अवसर देने का जुनून साफ देखा गया। कहना नहीं होगा कि चुनाव आयोग और मतदाताओं के शानदार प्रदर्शन पर ग्रहण लगाने का काम राजनीतिक दलों और नेताओं ने भी अपने कदाचरण से खूब किया। उनकी बेलगाम बयानबाजी ने जहां राजनीतिक बहस के स्तर को गिराया वहीं जाति-सम्प्रदाय के आधार पर मतों के धु्रवीकरण की कोशिश से लोकतंत्र की साख भी संदेह के दायरे में आई बावजूद इसके मतदाताओं ने न सिर्फ संयम बरता, बल्कि अपने मताधिकार का उपयोग कर लोकतंत्र की मजबूती और स्थिर सरकार के चयन की प्रक्रिया में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाई। एक माह से भी अधिक समय तक चली इस कवायद और प्रचार अभियान में भाजपा और उसके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी हमेशा दूसरों पर भारी नजर आये। समय दिन-तारीख देखकर आगे नहीं बढ़ता। जनता ने कांग्रेस के कुशासन और मोदी के सुशासन पर जो अटूट भरोसा दिखाया है उसके बदले में उसे रामराज्य नहीं बल्कि रोटी, कपड़ा और मकान चाहिए। मुल्क की आम आवाम ने यही भरोसा 2004 और 2009 में मनमोहन सिंह से भी किया था। लोगों को उम्मीद थी कि एक विश्वस्तरीय अर्थशास्त्री भारत को सुपर पॉवर बनाएगा, कोई भूखा नहीं सोयेगा पर अफसोस 10 साल के यूपीए के कार्यकाल में राजनीतिज्ञ तो मालामाल हुए पर गरीब भुखमरी का शिकार हो गया।
अपने 10 साल के कार्यकाल में मनमोहन सिंह निरंकुश महंगाई पर अंकुश लगाने में सफल नहीं हुए। इसी का नतीजा है कि जनता ने यूपीए को पूरी तरह से खारिज कर दिया। कहते हैं कि गेहूं के साथ घुन भी पिस जाता है और कभी-कभी अच्छाई को एक दाग खण्डित कर देता है। कांग्रेस के साथ भी यही हुआ। यूपीए-दो के कार्यकाल में लगातार संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा का हृास होने के साथ संसदीय समितियों का जमकर राजनीतिकरण किया गया। घोटालों की जहां बाढ़ सी आई वहीं लोकपाल जैसे आंदोलन में आम आवाम की आवाज को दबाने की भी पुरजोर कोशिश हुई। यूपीए सरकार को 2009 के बाद भ्रष्टाचार खत्म करने के साथ ही नौकरशाही में बदलाव लाने और उनकी जिम्मेदारी निर्धारण के उपाय के साथ नक्सल समस्या की धार को निस्तेज करना था। असफल योजनाएं कैसे सफल हों, उसकी रणनीति बनानी थी लेकिन ऐसा नहीं किया गया।
किसी भी सरकार के काम के आकलन के लिए लम्बे वक्त की आवश्यकता होती है। 21 मई को मुल्क की बागडोर सम्हालने जा रहे नरेन्द्र मोदी को बिरासत में समस्याओं का अम्बार मिला है। मुल्क के अधिसंख्य लोग महंगाई से त्राहिमाम-त्राहिमाम कर रहे हैं। उन्हें उस मोदी से भरोसा है जिसने अपनी तीन लाख किलोमीटर की थकाऊ यात्रा और हजारों जनसभाओं में लोगों को खुशहाली का सब्जबाग दिखाया था। नरेन्द्र मोदी से लोगों को उम्मीद है कि वे किसी को भूखा नहीं सोने देंगे। उनके शासनकाल में न केवल गुनहगार को सजा मिलेगी बल्कि कोई बेवजह जुल्मो-सितम का सामना नहीं करेगा। देश की जनता ने उस मोदी को अपना भाग्यविधाता चुना है जोकि बिना किसी दबाव के अपने काम को अंजाम देने की क्षमता रखता है। यह मोदी ही नहीं बल्कि भारत की जीत है लिहाजा हिन्दुत्व के इस अलम्बरदार को यह साबित करना चाहिए कि वह जो कहता है सिर्फ वही करता है।

Wednesday 14 May 2014

प्रतिभाओं की खान, नहीं हैं खेल मैदान

उत्तर प्रदेश की प्रतिभाएं चमका रहीं दूसरे राज्यों का नाम
आगरा की उपासना, गोरखपुर की दीक्षा और प्रीति का जलवा
आगरा, इलाहाबाद, झांसी, गोरखपुर, कानपुर, मऊ, गाजीपुर में है हॉकी का भविष्य
आगरा। पुश्तैनी खेल हॉकी का गौरवमयी इतिहास अपने अंतस में समेटे देश का सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश प्रतिभाओं के लिहाज से कभी भी कमतर नहीं रहा। आज भी यहां एक से बढ़कर एक प्रतिभाएं हैं लेकिन मुकम्मल मैदानों और उचित परवरिश के अभाव में वे न केवल पलायन कर रही हैं बल्कि दूसरे राज्यों का गौरव भी बढ़ा रही हैं। खिलाड़ियों के इस पलायन पर प्रदेश के खेल विभाग का जरा भी ध्यान नहीं है।
प्रतिभाओं के पलायन को रोकने के लिए प्रदेश सरकार को न केवल उनके पेट की तरफ ध्यान देना चाहिए बल्कि जहां प्रतिभाएं हैं वहां खेल मैदानों की भी व्यवस्था जरूरी है। हॉकी को अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पण करने वाले खिलाड़ियों का मानना है कि प्रदेश में खेल सुविधाएं नाकाफी हैं तो खेल बजट भी खिलाड़ियों को मुंह चिढ़ा रहा है। जहां प्रतिभाएं हैं वहां मैदान नहीं हैं और जहां कुछ नहीं है वहां आंख मूंदकर पैसा जाया किया जा रहा है। अतीत के नायाब हॉकी खिलाड़ियों का मानना है कि प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव चाहें तो हॉकी की दिशा और दशा दोनों बदल सकती है। इतने बड़े प्रदेश में सिर्फ सात कृत्रिम हॉकी मैदानों से काम नहीं चलने वाला। फिलवक्त उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में दो, वाराणसी, सैफई, रामपुर, बरेली तथा रायबरेली में एक-एक हॉकी मैदान है। इनमें भी दो हॉकी मैदान भारतीय खेल प्राधिकरण के हैं।
प्रदेश में आगरा, इलाहाबाद, झांसी, गोरखपुर, कानपुर, मऊ, गाजीपुर (अजगांवा) आदि में हॉकी का भविष्य तो है लेकिन मुकम्मल मैदान नहीं हैं। पूर्व खिलाड़ियों का कहना है कि प्रदेश सरकार यदि इन जिलों में कृत्रिम हॉकी मैदानों की व्यवस्था कर दे तो एक बार फिर दुनिया में उत्तर प्रदेश और भारतीय हॉकी की तूती बोल सकती है। मैदानों के अभाव में जिस तरह प्रदेश की प्रतिभाएं पलायन कर रही हैं वह खेलों के लिहाज से बेहद दु:खद बात है। ये हॉकी प्रतिभाएं न केवल खेल के लिए अपने मां-बाप से दूर हो रही हैं बल्कि दूसरे राज्यों का नाम भी रोशन कर रही हैं। देखा जाए तो प्रदेश में सिर्फ हॉकी ही नहीं दूसरे खेलों में भी प्रतिभा पलायनवाद जारी है।
क्या करें पलायन हमारी मजबूरी है
अपने प्रदेश के लिए भला कौन नहीं खेलना चाहता, पर क्या करें उत्तर प्रदेश में खेल संस्कृति दम तोड़ रही है। खेलने को मैदान नहीं हैं तो डाइट के रूप में भी सिर्फ 100 रुपये मिलते हैं। खेलना है तो मां-बाप और अपने परिजनों से दूर रहने की पीड़ा तो सहन ही करनी होगी। पुष्प सवेरा से यह पीड़ा गोरखपुर की दीक्षा तिवारी, प्रीति दुबे और आगरा की उपासना सिंह ने व्यक्त की। भारतीय जूनियर हॉकी शिविर के लिए चयनित हॉकी बेटियों ने कहा कि यदि वे ग्वालियर में स्थापित मध्यप्रदेश राज्य महिला हॉकी एकेडमी से नहीं जुड़तीं तो शायद उनकी किस्मत कभी नहीं बदलती। करमपुर (गाजीपुर) की जमीला बानो, नुसरत जहां आदि एक दर्जन यूपी की प्रतिभाएं भी एमपी एकेडमी में अपना खेल निखार चुकी हैं।
एमपी में हैं नौ कृत्रिम हॉकी मैदान
आबादी के लिहाज से छोटे से राज्य मध्यप्रदेश में नौ कृत्रिम हॉकी मैदान हैं, जिनमें चार भोपाल तो तीन मैदान ग्वालियर में हैं। बैतूल और सिवनी में एक-एक मैदान है। प्रदेश सरकार ने 15 और आधुनिक मैदानों की अधोसंरचना को हरी झण्डी दिखा दी है। इस तरह मध्यप्रदेश में अब 24 कृत्रिम हॉकी मैदान हो जाएंगे, जोकि एक कीर्तिमान होगा।
हॉकी में इनकी भी बोली तूती
कालजयी मेजर ध्यानचंद, केडी सिंह बाबू, ए.डब्ल्यू. कैलब, मोहम्मद शाहिद, जगबीर सिंह, सैयद अली, रविन्द्र पाल, सुरजीत कुमार, दानिश मुज्तबा आदि ने जहां पुरुष हॉकी में अपने खेल-कौशल की धूम मचाई वहीं महिला हॉकी में गोरखपुर की प्रेममाया (पहली अर्जुन अवॉर्डी), मेरठ की सुधा चौधरी, उपाक्षी पाली, रजिया जैदी, रंजना गुप्ता, मंजू विष्ट, पुष्पा श्रीवास्तव, रजनी जोशी आदि का लोहा दुनिया ने माना। 

Thursday 8 May 2014

क्रिकेट में रसूख का नंगनाच

एक तरफ भारतीय लोकतंत्र के महापर्व में राजनीतिज्ञ सत्ता की खातिर अपनी जुबान खराब कर रहे हैं तो दूसरी तरफ मुल्क के सबसे लोकप्रिय खेल क्रिकेट में रसूख का नंगनाच हो रहा है। भारतीय राजनीति और क्रिकेट बेशक विरोधाभासी लगते हों पर इनके मूल में जनता और क्रिकेटरों की वेदना समाहित है। चुनाव से पूर्व राजनीतिज्ञ मुल्क की आवाम को रामराज्य का सपना दिखा रहे हैं तो दूसरी तरफ दुनिया की सबसे समृद्ध खेल संस्था भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड पर काबिज होने के लिए दोस्त दुश्मन, तो दुश्मन दोस्त बन रहे हैं। लंदन में चार साल से निर्वासित जीवन बसर कर रहे आईपीएल के दागी ललित मोदी का राजस्थान क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष पद पर जीतकर आना और भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड द्वारा आरसीए की सदस्यता भंग करना लोगों के गले नहीं उतर रहा। टके भर का सवाल यह है कि बीसीसीआई एक दागी व्यक्ति विशेष की खातिर समूचे राज्य की क्रिकेट को प्रतिबंधित कैसे कर सकता है?
क्रिकेट को भद्रजनों का खेल माना जाता है लेकिन जब से इसमें बेशुमार दौलत का समावेश हुआ तभी से इसमें कदाचरण ने अपनी पैठ बना ली है। यही वजह है कि पिछले डेढ़ दशक में क्रिकेट को शर्मसार करने वाली करतूतों में बेइंतहा इजाफा हुआ है। 1983 में कपिल देव के नेतृत्व में क्रिकेट का मदमाता विश्व खिताब जीतने वाली टीम को बतौर प्रोत्साहन देने के लिए भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड के पास जहां पैसा नहीं था वहीं आज सिर्फ पैसे का खेल हो रहा है। अतीत की गरीब क्रिकेट को मालामाल करने में स्वर्गीय माधव राव सिंधिया का बड़ा योगदान है। 1990 से 1993 तक भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष रहे श्री सिंधिया ने क्रिकेट के समुन्नत विकास के लिए जहां कई नीतियां बनार्इं वहीं खिलाड़ियों की माली हालत सुधारने के लिए उन्हें रोजगार के अवसर भी मुहैया कराये। श्री सिंधिया के प्रयासों का ही नतीजा है कि आज देश भर में सैकड़ों खिलाड़ी रोजगार से लगे हुए हैं। विश्व विकलांग क्रिकेट और महिला क्रिकेट के प्रोत्साहन की दिशा में भी श्री सिंधिया ने अतुलनीय कार्य किये थे।
क्रिकेट की बेहतरी के लिए वैसे तो आईएस बिन्द्रा और राजसिंह डूंगरपुर ने भी नेक प्रयास किए लेकिन  माधव राव सिंधिया की विकासोन्मुखी नीतियों को अमलीजामा पहनाने का असल काम जगमोहन डालमिया के कार्यकाल में ही हुआ। जगमोहन डालमिया 2001 से 2004 तक भारतीय क्रिकेट के प्रमुख रहे और उनके कार्यकाल में ही क्रिकेट में कारपोरेट जगत को प्रवेश मिला। डालमिया ने गरीब क्रिकेट को जहां मालामाल किया वहीं खिलाड़ियों को नकद प्रोत्साहन की दिशा में भी सराहनीय कार्य किए। सच्चाई यह है कि वर्ष 2001 के बाद भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड एक कमाऊ कारखाना बन गया। बस यहीं से क्रिकेट में विद्रूपता ने अपने पैर जमाने शुरू कर दिए। भारतीय क्रिकेट में आये आशातीत बदलाव के बाद जगमोहन डालमिया सिर्फ भारत ही नहीं विश्व क्रिकेट बिरादरी में भी जाना-पहचाना नाम हो गये। क्रिकेट में डालमिया के इसी रसूख ने उनके कई विरोधी पैदा कर दिए और उनके क्रिकेट में बढ़ते प्रभुत्व के खिलाफ एन. श्रीनिवासन, ललित मोदी और शशांक मनोहर जैसे लोग सक्रिय हो गये। कहते हैं कुर्सी के लिए कभी कोई किसी का स्थायी शत्रु या मित्र नहीं होता। यदि यह सच न होता तो कल तक गलबहियां करने वाले ललित मोदी और एन. श्रीनिवासन आज एक-दूसरे के जानी दुश्मन नहीं होते। भारतीय क्रिकेट में रसूख की जंग 21वीं सदी की ही देन है। जगमोहन डालमिया को भारतीय क्रिकेट से दूर करने के बाद इण्डियन प्रीमियर लीग को ऊंचाइयों तक ले जाने वाले पूर्व आयुक्त ललित मोदी इस कदर सक्रिय हुए कि एन. श्रीनिवासन उनके दुश्मन बन गये। ललित मोदी को ठिकाने लगाने के लिए ही एन. श्रीनिवासन, शशांक मनोहर और जगमोहन डालमिया का गठजोड़ हुआ। ललित मोदी को बीते साल सितम्बर में बीसीसीआई ने भ्रष्टाचार और अनुशासनहीनता के गम्भीर आरोपों के चलते आजीवन निष्कासित कर दिया था। भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड की परवाह किए बिना मोदी ने निष्कासन के बावजूद राजस्थान क्रिकेट एसोसिएशन के चुनावों में खड़े होने का फैसला किया और लंदन में रहते हुए भी वे 33 में से 24 मत लेकर विजयी रहे। मोदी के प्रतिद्वंद्वी रामपाल शर्मा को सिर्फ पांच मत ही मिले।
मोदी की विजय बीसीसीआई को नागवार गुजरी और उसने न केवल मोदी के चुनाव को खारिज कर दिया बल्कि आरसीए पर भी प्रतिबंध लगा दिया। इस प्रतिबंध के बाद राजस्थान क्रिकेट पर संकट के बादल छा गये। मोदी के चुनाव लड़ने पर तर्क दिया जा रहा है कि उन्हें इन चुनावों में खड़ा होने का हक राजस्थान क्रिकेट संघ के संविधान ने दिया था, जिसमें स्पष्ट लिखा है कि यह क्रिकेट संघ बीसीसीआई के नहीं बल्कि राजस्थान स्पोर्ट्स एक्ट के अधीन संचालित होता है। मोदी के सहयोगियों ने आरसीए चुनावों के सभी अहम पदों पर कब्जा जमाया। मोदी के वकील मोहम्मद एम. नबी सहयोगी अध्यक्ष, सोमेन्द्र तिवारी महासचिव तो पवन गोयल को कोषाध्यक्ष चुना गया। क्रिकेट की इस नूरा-कुश्ती का हश्र क्या होगा यह तो भविष्य तय करेगा पर यह प्रकरण अदालती कवायद का हिस्सा जरूर बन गया है। फिलहाल एन. श्रीनिवासन बेशक भारतीय क्रिकेट से दूर हों पर पर्दे के पीछे वे आज भी सक्रिय हैं।
खुन्नस मिजाज श्रीनिवासन का शिकार ललित मोदी तो हुए ही मध्य प्रदेश क्रिकेट ने भी इसकी बड़ी कीमत चुकाई है। दरअसल पिछले साल आईपीएल से निकले फिक्सिंग के जिन्न ने बीसीसीआई में काफी उथल-पुथल मचाई थी। तब क्रिकेट की गंदगी पर जहां मध्यप्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष और बीसीसीआई की अनुशासन समिति के प्रमुख के साथ इसकी वित्त समिति में रह चुके ज्योतिरादित्य सिंधिया ने श्रीनिवासन की आलोचना की थी वहीं बीसीसीआई के महासचिव संजय जगदाले ने इस्तीफा दे दिया था। सिंधिया और जग्गू दादा की नसीहत को स्वीकारने की बजाय श्रीनिवासन बदले की भावना में बह गए और एमपीसीए को हर तरह की मदद से हाथ खींच लिए। दरअसल इसी को कहते हैं खिसियाई बिल्ली खम्भा नोचे। जो भी हो पाप का घड़ा एक न एक दिन फूटता ही है सो फूटा भी। उच्चतम न्यायालय के निर्णय से न केवल श्रीनिवासन का आसन हिला बल्कि दामाद मोह के फेर में आज वे खून के आंसू रो रहे हैं।    

Sunday 4 May 2014



हॉकी थामी, जीत की ठानी

मध्यप्रदेश महिला हॉकी: प्रतिभाओं की खान, हर राज्य परेशान
परिवर्तन प्रकृति का नियम ही नहीं मनुष्य के लिए एक चुनौती भी है। जो चुनौतियों से पार पाता है वही सिकंदर कहलाता है। मध्यप्रदेश ने खेलों के समुन्नत विकास की चुनौती स्वीकारी है तो उसके मुखिया शिवराज सिंह और खेल मंत्री यशोधरा राजे सिंधिया पुश्तैनी खेल हॉकी के गौरवशाली अतीत को पुन: जीना चाहते हैं। मध्यप्रदेश खेलों में आज कहां है, यह सवाल करने से पहले 10 साल पूर्व हम कहां थे, पर नजर डालना जरूरी है। बीमारू मध्यप्रदेश को एक दशक में कुछ क्षेत्रों में कायाकल्प का श्रेय मिलना उसके जुनून का प्रतिफल है। खेलों खासकर महिला हॉकी के उत्थान की दिशा में शिवराज सिंह और कर्मठ यशोधरा राजे सिंधिया ने एक मील का पत्थर स्थापित किया है।
आठ साल पहले दूसरे राज्यों की प्रतिभाशाली खिलाड़ियों के सहारे मध्यप्रदेश में चला हॉकी का कारवां आहिस्ते-आहिस्ते ही सही अपनी मंजिल की ओर अग्रसर है। ग्वालियर के जिला खेल परिसर कम्पू में स्थापित देश की सर्वश्रेष्ठ महिला हॉकी एकेडमी खिलाड़ियों की प्रथम पाठशाला ही नहीं ऐसी वर्णमाला है जिसके बिना महिला हॉकी की बात पूरी नहीं होती। सच कहें तो यह खेलों की ऐसी कम्पनी है जहां खिलाड़ी का खेल-कौशल ही नहीं निखरता बल्कि उनका जीवन भी संवरता है। आठ साल में खेलों के इस संस्थान ने मुल्क को जहां दर्जनों नायाब खिलाड़ी दिए हैं तो 31 बेटियों को रेलवे में रोजगार भी मिला है, इनमें पांच बेटियां मध्यप्रदेश की भी हैं।
खेलों से वास्ता या यूं कहें नजदीकी नजर न रखने वाले प्राय: यह सवाल करते हैं कि प्रदेश में स्थापित विभिन्न खेल एकेडमियों से मध्यप्रदेश को क्या मिला? यह सच है कि शुरूआती दौर में विभिन्न एकेडमियों में दीगर राज्यों के खिलाड़ियों को निर्धारित 50 फीसदी कोटे से अधिक अवसर मिले पर आज यह बात नहीं है। प्रतिद्वंद्विता सफलता का मूलमंत्र है। दूसरे राज्यों के खिलाड़ियों के प्रवेश को अपने हकों के खिलाफ मानना नासमझी भरी बात है। दूसरे राज्यों के खिलाड़ियों से मध्यप्रदेश के खिलाड़ियों को प्रतिद्वंद्विता ही नहीं सफलता का मंत्र भी मिला, जोकि जरूरी था। महिला हॉकी की बात करें तो आज मध्यप्रदेश की प्रतिभाशाली जूनियर और सब जूनियर बेटियां राष्टÑीय क्षितिज पर अपने गौरवशाली भविष्य की आहट दे रही हैं।
कल तक मध्यप्रदेश महिला हॉकी पर बात न करने वाले राज्य आज मध्यप्रदेश की तरफ ताक रहे हैं। उन्हें मध्यप्रदेश से ईर्ष्या हो रही है। आज मध्यप्रदेश की 1-2 बेटियां नहीं बल्कि लगभग तीन दर्जन प्रतिभाशाली लाड़लियां मादरेवतन को ललकार रही हैं।  इनकी इस ललकार में दम न होता तो वे राष्ट्रीय स्तर पर कभी चैम्पियन न बनतीं। मध्यप्रदेश की ये बेटियां अपने राज्य के साथ हिन्दुस्तान का भी स्वर्णिम भविष्य हैं। कुछ बेटियां टीम इण्डिया के दरवाजे पर दस्तक दे चुकी हैं तो कुछ के पदचाप सुनाई देने लगे हैं। मध्यप्रदेश में खेलों के प्रति आई जागृति सुखद लम्हा है। कामयाबी के इस सिलसिले को जारी रखने के लिए प्रदेश की आवाम को नकारात्मक सोच से परे इन बेटियों का करतल ध्वनि से इस्तकबाल करना चाहिए क्योंकि इन्होंने खेलों को अपना करियर बनाने की जो ठानी है। अभी जश्न मनाने का समय नहीं आया, मंजिल अभी कुछ दूर है। मंजिल मिलेगी और जरूर मिलेगी क्योंकि अपनी बेटियों ने न केवल हॉकी थामी है बल्कि जीत का संकल्प भी लिया है।
ये हैं अपनी हॉकी शहजादियां....
जुलाई, 2006 में ग्वालियर में खुली राज्य महिला हॉकी एकेडमी के शुरूआती दो साल तक मध्यप्रदेश में प्रतिभाओं का अकाल सा था। तब लग रहा था कि आखिर प्रदेश किराये की कोख से कब तक काम चलाएगा। अब यह बात नहीं है। शिवराज सिंह की महत्वाकांक्षी हॉकी फीडर सेण्टर योजना का लाभ पुरुष हॉकी एकेडमी को बेशक न मिला हो पर महिला हॉकी एकेडमी की पौ बारह हो गई है। इस एकेडमी में अब अपनी बेटियां न सिर्फ प्रवेश पा रही हैं बल्कि दूसरे राज्यों की खिल्ली भी उड़ा रही हैं। इस सफलता में ग्वालियर के दर्पण मिनी स्टेडियम का जहां सर्वाधिक योगदान है वहीं प्रदेश के दूसरे जिलों से भी प्रतिभाएं अपनी एकेडमी में प्रवेश पा रही हैं। मध्यप्रदेश की इस आशातीत सफलता से हरियाणा, उड़ीसा, झारखण्ड, उत्तर प्रदेश आदि को रश्क हो रहा है। इन राज्यों की समझ में नहीं आ रहा कि अनायास मध्यप्रदेश महिला हॉकी का गढ़ कैसे बन गया। इन आठ वर्षों में मध्यप्रदेश की हॉकी बेहतरी में कुछ ऐसे लोगों का योगदान है जोकि राष्ट्रीय स्तर पर बेशक बड़े गुरुज्ञानी न माने जाते हों पर उन्होंने दिन-रात एक कर साबित किया कि-
मुसाफिर वह है जिसका हर कदम मंजिल की चाहत हो,
मुसाफिर वह नहीं जो दो कदम चल करके थक जाए।
महिला हॉकी एकेडमी के मुख्य प्रशिक्षक परमजीत सिंह वह मुसाफिर हैं जिन्होंने मुश्किल हालातों में भी हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने स्थानीय खिलाड़ियों के महत्व को न केवल स्वीकारा है बल्कि उन्होंने चाहा कि मध्यप्रदेश की बेटियां हर वय की राष्ट्रीय चैम्पियन बनें। उन्हें भरोसा है कि वह दिन दूर नहीं जब यहां की बेटियां अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मध्यप्रदेश का नाम रोशन करेंगी। टीम इण्डिया के दरवाजे पर दस्तक देने वाली ग्वालियर की करिश्मा यादव और नेहा सिंह के साथ ही साथ भोपाल की डिफेण्डर सीमा वर्मा आज देश की उदीयमान खिलाड़ियों में शुमार है।
कौन कहां की बेटी...
करिश्मा यादव, नेहा सिंह-स्नेहा सिंह (दोनों बहनें), राखी प्रजापति, प्रतिभा आर्य, इशिका चौधरी, कृतिका चंद्रा, नंदनी कुशवाह, दिव्या थेटे, निशा रजक, योगिता वर्मा उर्फ मुस्कान, अनुजा सिंह, (सभी ग्वालियर)। अंजली मुड़ैया (शिवपुरी), उपासना सिंह (मुरैना). प्रियंका वानखेड़े, श्यामा तिड़गम (सिवनी), निहारिका सक्सेना, प्रियंका चन्द्रावत, नीलू डोडिया (मंदसौर), रीना राठौर, आकांक्षा परमार, बृजनंदनी धूरिया उर्फ खुशबू, विनीता रायकवार, प्रतीक्षा, सोनम तिवारी (सभी छतरपुर), साधना सेंगर (होशंगाबाद), सीमा वर्मा (भोपाल) आदि।
मध्यप्रदेश की इन बेटियों को मिली रेलवे में नौकरी
रैना यादव, जहान आरा बानो, निहारिका सक्सेना, रीना राठौर, प्रीति पटेल।
इस बार इनका भाग्य चमका:- लिली चानू, मनमीत कौर, रेनुका यादव, रमगईज्वाली उर्फ नूते, रीना राठौर, निहारिका सक्सेना, प्रीति पटेल।  
   

Thursday 1 May 2014

लोकतांत्रिक मर्यादा का चीरहरण

भारतीय लोकतंत्र ने बेशक दुनिया की नजर में एक नायाब उदाहरण पेश किया हो पर उसका सोलहवां पड़ाव न बिसरने वाले जख्म दे रहा है। लम्बे समय से खण्डित जनादेश का दंश झेल रहे मुल्क के सामने अब माननीय शब्द भी पीड़ा पहुंचाने लगे हैं। देश की सल्तनत पर कोई भी क्यों न काबिज हो पर इस बार जिस तरह गैरवाजिब शब्दबाण चले, उससे मुल्क की आवाम हतप्रभ जरूर है। मौजूदा चुनावी घमासान में न सिर्फ मर्यादा का चीरहरण हुआ बल्कि लोकतंत्र की लक्ष्मण रेखा भी कई बार लांघी गई। सत्ता की खातिर जिस तरह राजनीतिज्ञ हथकण्डे अपना रहे हैं उसके दूरगामी परिणाम कदाचित सुखद नहीं होंगे। भारतीय लोकतंत्र का यह नंगनाच भावी पीढ़ी के लिए आदर्श नहीं कहा जा सकता। इस नंगनाच में कोई भी राजनीतिक दल दूध का धुला नहीं रहा। बतफन्नूस दिग्विजय प्रकरण ने तो सामाजिक संस्कृति को ही तार-तार कर दिया है।
लोकतंत्र के मौजूदा महाकुम्भ में कांग्रेस सहित अधिकांश दलों के निशाने पर जहां नरेन्द्र मोदी हैं वहीं भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस व गांधी-वाड्रा परिवार ही नहीं, ममता बनर्जी, फारुख अब्दुल्ला और जयललिता जैसे राजनीतिज्ञों पर शब्दबाण चलाने का कोई मौका जाया नहीं कर रही। नरेन्द्र मोदी न केवल उनकी सरकारों के खिलाफ गम्भीर आरोप लगा रहे हैं बल्कि व्यक्तिगत टीका-टिप्पणियों के जरिए एक साथ कई मोर्चे खोल दिए हैं। कुछ दिन पहले तक जो दल भाजपा के सम्भावित सहयोगी समझे जाते थे, आज वही उसके शत्रु बन गए हैं। क्षेत्रीय छत्रपों पर भाजपा के हमले से नए संकेत मिलते हैं। भाजपा की रणनीति में आए इस बदलाव के कई कारण हैं। पहला यह कि कमल दल को पता चल चुका है कि तृणमूल कांग्रेस, एआईडीएमके जैसे दलों से चुनाव के बाद भी सहयोग या समर्थन मिलने की कोई गुंजाइश नहीं है। इसलिए कमजोर नस दबाकर उन्हें बदनाम करने और अपने लिए ज्यादा से ज्यादा जन समर्थन जुटाने का प्रयास उसके लिए लाभदायी हो सकता है। नरेन्द्र मोदी की जहां तक बात है वह नहीं चाहेंगे कि उनका समय गठबंधन की गांठ सुलझाने में जाया हो। यही वजह है कि वे जिन राज्यों में भाजपा कमजोर है वहां खाता खोलने या फिर सीट बढ़ाकर दूसरे दलों पर निर्भरता कम करने की कोशिश कर रहे हैं।
मौजूदा चुनावों में राजनीतिक शिष्टाचार की सीमाएं लांघकर जिस तरह व्यक्तिगत हमले बोले गये या बोले जा रहे हैं, वह राजनीतिक निरंकुशता की पराकाष्ठा है। लगभग हर राजनीतिक दल में कुछ नेता और प्रचारक ऐसे हैं जिनका काम सिर्फ और सिर्फ आग में घी डालना है। विकास के मुद्दों से बेखबर व्यक्तिगत हमले, महिलाओं के खिलाफ अनर्गल प्रलाप, पिछड़ी जातियों या धर्म विशेष के अपमान की ओछी और खोटी हरकतें अमन की राह का कांटा तो बनेंगी ही इससे भारतीय सम्प्रभुता भी खतरे में पड़ सकती है। माना कि जनभावनाओं के इस खिलवाड़ से राजनीतिज्ञों को वोटों की फसल काटने में सहजता होती है लेकिन इसके दूरगामी परिणाम सुखद नहीं हो सकते। यह सच है कि चुनाव आयोग ने कुछ निरंकुश नेताओं पर अंकुश लगाने के सराहनीय कार्य के साथ कुछ को नोटिस थमाया है, पर यह नाकाफी है। बेहतर होता ऐसे लोगों को चुनाव के अयोग्य ठहराने की पहल की जाती। नेताओं के बड़बोलेपन से आज तक समाज का कितना भला हुआ है या भविष्य में होगा यह बताने की जरूरत नहीं है। ताजा प्रकरण योग गुरु रामदेव का है, जो बहती गंगा में हाथ धोना खूब जानते हैं। ज्यादा वक्त नहीं बीता जब वे कालेधन की समस्या दूर करने का दावा करते-करते भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में अन्ना हजारे के साथ एक मंच पर आ गये थे। उन्होंने खुद का आंदोलन चलाने की भी कोशिश की और जब बात नहीं बनी तो महिलाओं के कपड़े पहन कर भाग निकलने से भी परहेज नहीं किया। पिछले एक दशक में उन्होंने पहले योग शिविरों और बाद में भिन्न-भिन्न खेमों के राजनीतिक शिविरों के जरिए राजनीतिक धुनी रमाने की कोशिश की पर उनके ढोंग और पाखण्ड का लोगों में वह असर नहीं हुआ जो होना चाहिए। आज योगगुरु की महत्वाकांक्षा कमल दल के साथ परवान चढ़ती दिख रही है। रामदेव ने 2010 में अपनी पार्टी भारत स्वाभिमान भी बनाई थी और लोकसभा चुनाव में सभी सीटों पर लड़ने का दम ठोका था पर उसका स्वाभिमान तो बचा नहीं सके अलबत्ता वे दूसरों के सम्मान पर कीचड़ उछालने के कसूरवार जरूर  हैं।
योगगुरु रामदेव की राहुल गांधी के खिलाफ की गई ताजा टिप्पणी से हर समझदार आहत है। उनके ये अल्फाज सरासर दलितों का अपमान करने वाले हैं। राहुल गांधी के दलित प्रेम, दलित के घर रुकने, साथ भोजन करने पर राजनीतिक कटाक्ष खूब हुए हैं, लेकिन रामदेव के शब्दों ने शालीनता की सारी सीमाएं पार कर दी हैं। रामदेव कहते हैं कि दलितों और राहुल का अपमान करना हमारा लक्ष्य नहीं है। अगर ऐसा है तो अब तक राहुल गांधी पर निजी प्रहार क्यों किए गए? रामदेव के इस बयान से राहुल गांधी का जो अपमान हुआ सो हुआ, यह दलितों और महिलाओं का भी तो अपमान है। मौजूदा दौर में राजनीतिज्ञ सत्ता की खातिर हर किसी पर उंगली उठा रहे हैं, उन्हें इस बात का भी भान नहीं रहा कि वे तो एक उंगली उठा रहे हैं लेकिन उनके खिलाफ तीन उंगलियां खुद-ब-खुद उठ रही हैं। लोकतंत्र के सोलहवें महाकुम्भ में नरेन्द्र मोदी को लेकर भी विरोधी राजनीतिज्ञों द्वारा बहुत कुछ कहा गया है। उनके खिलाफ कुछ ऐसी टिप्पणियां की गर्इं जोकि कदाचार की श्रेणी में आती हैं। मोदी को लोगों ने राक्षस, हिटलर और न जाने क्या-क्या कहा है। पूरे चुनावी परिदृश्य पर नजर डालें तो मोदी सभी के निशाने पर रहे हैं। उन पर बार-बार साम्प्रदायिक होने की तोहमत लगाई गई, पर उकसावे के शब्दबाणों से बेखबर मोदी अपने राजनीतिक मिशन को अंजाम तक ले जाने के प्रति गम्भीर दिखे। बड़बोले दिग्विजय सिंह मोदी की धर्मपत्नी को लेकर भी फब्तियां कसने से नहीं चूके। दिग्गी ने यह भी नहीं सोचा कि जो शीशे के घरों में रहते हैं उन्हें दूसरों पर पत्थर नहीं फेंकना चाहिए। आज दिग्विजय अपने कृत्य से शर्मिन्दा हों या नहीं भारतीय लोकतंत्र जरूर आहत और मर्माहत है।
(लेखक पुष्प सवेरा से जुड़े हैं।)