Saturday 21 September 2013

भाजपा नहीं, मोदी का सबको डर

कमल दल ने जब से देश की सल्तनत को हासिल करने के लिए नरेन्द्र मोदी की खोज की है राजनीतिक हलकों में भूचाल आ गया है। मोदी को लेकर सिर्फ छोटे दल ही नहीं कांग्रेस भी बगलें झांकने लगी है। दिल्ली अभी दूर है पर मोदी को लेकर देश का युवा मतदाता जिस तरह अपनी प्रतिक्रिया दे रहा है, उससे राजनीतिक दलों में एक अनचाहा डर समा गया है। राजनीतिक दलों की बेचैनी का आलम यह है कि सभी गोधरा-गोधरा चिल्ला रहे हैं तो देश का यंगिस्तान सिर्फ और सिर्फ नमो-नमो की रट लगा रहा है।
लोकसभा चुनाव की दुंदुभी बजना शेष है बावजूद राजनीतिक दल अपने-अपने रणबांकुरों की पीठ थपथपा विपक्षी दलों के गुण-दोष गिनाने लगे हैं। दोस्त दुश्मन बन रहे हैं तो सत्तालोलुप तिकड़मबाजी का कोई मौका नहीं छोड़ रहे। मोदी पर दांव खेलकर भाजपा ने जहां अपने कई दोस्त दलों को नाराज कर दिया है वहीं अब 272 का जादुई आंकड़ा उसका मुंह चिढ़ा रहा है। भाजपा के अस्तित्व को देखें तो देश के लगभग आधे हिस्से में भी उसकी पैठ नहीं है। दक्षिण भारत के केरल, तमिलनाडु और आंध्रप्रदेश जैसे सूबों के साथ देश के उत्तर-पूर्वी राज्यों में कमल दल का अस्तित्व सतह पर है तो दूसरी तरफ महिला सांसदों के गणित में भी वह कांग्रेस से बहुत पीछे है। पिछले लोकसभा चुनाव में जहां कांग्रेस की 25 महिला सांसदों ने संसद की सौंध में कदम रखा था वहीं भाजपा की 14 सांसद ही कमल खिला सकी थीं। बीते लोकसभा चुनावों में बेशक 62 महिला सांसद संसद तक पहुंची हों पर आगत लोकसभा चुनावों में महिलाओं की बड़ी भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। देखा जाए तो 14वीं लोकसभा में जो दल यंगिस्तान और देश की आधी आबादी के मर्म को समझ सका उसे ही देश की सल्तनत पर राज करने का मौका मिलेगा। भाजपा ने मोदी को चुनावी मझदार का खेवनहार तो बना दिया है पर उसके सामने हिन्दीभाषी राज्यों में कमल खिलाने का दुरूह दायित्व है। अतीत में कमल दल पश्चिम बंगाल, ओडिशा, जम्मू कश्मीर, महाराष्ट्र और बिहार जैसे राज्यों में गठजोड़ के साथ अपना अस्तित्व कायम रखने में तो सफल रहा पर मौजूदा समय में इन राज्यों में केवल महाराष्ट्र में शिवसेना को छोड़कर कोई उसके साथ नहीं है। भाजपा कुल 543 में से कोई 350 लोकसभा सीटों पर ही अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है। मुल्क के तख्तोताज पर कब्जे के लिए उसे 250 सीटें तो जीतनी ही होंगी।
देखा जाए तो कमल दल में नरेन्द्र मोदी के समकक्ष शिवराज सिंह और डॉ. रमन सिंह जैसे कामयाब मुख्यमंत्री भी हैं पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिन्दुत्व के प्रखर पहरुआ को ही देश की कमान सौंपना चाहता है। प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में मोदी को बेशक कमल दल का सर्वमान्य शख्स निरूपित किया जा रहा हो पर पार्टी के पितामह लालकृष्ण आडवाणी का बार-बार कोपभवन में जाना और मुंह लटकाये वापस आना पार्टी में सब कुछ ठीकठाक होने का संकेत नहीं देता। जो भी हो तीर कमान से निकल चुका है, अब वह लक्ष्य तभी भेद पाएगा जब कमल दल एक होगा। नरेन्द्र मोदी करिश्माई नेता हैं। उनकी साफ-सुथरी छवि और हिन्दुत्व की अलम्बरदारी उन्हें देश के अन्य नेताओं से बिल्कुल अलग ठहराती है। मोदी ने रेवाड़ी (हरियाणा) में पूर्व सैनिकों की एक रैली में कांग्रेस पर निशाना साधकर इस बात के संकेत दिए हैं कि वह आसानी से हार नहीं मानने वाले। इस रैली में पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल विजय कुमार सिंह की मौजूदगी जहां मोदी को मजबूत बनाती है वहीं इस बात के संकेत भी मिल रहे हैं कि भविष्य में जोड़-तोड़ के कुछ और नायाब उदाहरण देखने को मिल सकते हैं। 2004 में चुनावी पराजय के बाद भारतीय जनता पार्टी केन्द्रीय सल्तनत पर काबिज होने के लिए लालायित है, उसकी लालसा 2009 के चुनावों में भी पूरी नहीं हुई थी। पर इस बार कमल दल को लग रहा है कि वह कांग्रेस-नीत यूपीए पर भ्रष्टाचार और महंगाई बढ़ाने की तोहमत लगाकर देश की बागडोर सम्हाल सकती है। यूं पार्टी में मोदी को छोड़कर कोई ऐसा करिश्माई नेतृत्व नहीं है, जो पार्टी को अपने बलबूते 200 से ज्यादा सीटें दिला सके।
भाजपा और आरएसएस को लग रहा है कि चुनावी वैतरणी को मोदी की छवि और चेहरा पार लगा सकता है, लेकिन वह अकेले किस प्रकार यह काम कर पाएंगे, यह बड़ा सवाल है? देखा जाए तो देश के मतदाता का चरित्र एक जैसा कभी नहीं रहा। 1975 में आपातकाल लगने के बाद जब 1977 का चुनाव हुआ, तब लगा कांग्रेस जनता पार्टी की आंधी में उड़ जाएगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसी तरह 1987 में रक्षा मंत्री के पद से इस्तीफा देने के बाद बोफोर्स दलाली के मुद्दे पर विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कांग्रेस विरोधी लहर बनायी, तब भी लगा था कि राष्ट्रीय मोर्चा रिकार्ड बहुमत से जीतकर सरकार बनाएगा। लेकिन तब भी तमाम आरोपों से घिरी कांग्रेस सबसे ज्यादा सीटें जीतने में सफल रही। भाजपा के साथ अभी सबसे बड़ी समस्या यह है कि कोई क्षेत्रीय दल उसके साथ खड़े होने को तैयार नहीं है। 1998 में एनडीए का गठन 24 क्षेत्रीय दलों को साथ में लेकर किया गया था। 2004 के आते-आते घटक दल केवल 12 रह गए और नरेन्द्र मोदी को कमान सौंपने के बाद अब गिने-चुने दल ही भाजपा के साथ हैं। भारतीय जनता पार्टी को यदि मोदी की उम्मीदों को पर लगाने हैं तो उसे देश में पहली बार मत डालने जा रहे 15 करोड़ युवा मतदाताओं और महिलाओं पर नजर रखनी होगी। देखा जाये तो 2009 के लोकसभा चुनाव में निर्दलीय नौ सांसदों सहित देश के 38 राजनीतिक दलों में से केवल दस दल ही 10 या उससे अधिक सीटें जीत पाए थे। तब कांग्रेस ने 206 तो भाजपा ने 116 सीटें जीती थीं और समाजवादी पार्टी 22 सीटों के साथ तीसरे तथा बसपा 21 सीटों के साथ चौथे स्थान पर रही थी। जनता दल यूनाइटेड से भी 20 सांसद दिल्ली पहुंचे थे। अब भाजपा से इनकी अनबन के बाद मोदी पर जवाबदेही होगी कि वह हिन्दीभाषी राज्यों में कुछ करिश्मा दिखाएं। राह आसान नहीं है पर कमल दल के लिए खुशखबर यह है कि वह देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में अधिक से अधिक सीटें जीतने का मंत्र फूंक सकती है। मुजफ्फर नगर दंगों ने यूपी के मुस्लिम मतों का ध्रुवीकरण कर दिया है जिसका लाभ भाजपा को मिल सकता है। लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा और मोदी को पांच हिन्दीभाषी राज्यों में अपनी सरकारें बनानी होंगी। भाजपा को दिल्ली के तख्तोताज के लिए देश की अधिकांश लोकसभा सीटों पर न केवल प्रत्याशी खड़े करने होंगे बल्कि टिकट वितरण में देश की आधी आबादी और ग्रामीण मतदाताओं का विशेष ध्यान रखना होगा।

Friday 13 September 2013

महिला होने की गर्वोक्ति आखिर कब?

आज महिलावाद या महिला विमर्श एक फैशन बन गया है। महिलाओं के मुद्दों पर चिन्तित समाज आंदोलन की राह चल निकला है। महिलाओं के लिए हो रहे आन्दोलन कोई नई बात नहीं हैं।  नारी अस्मिता और उससे जुड़े तमाम सवालों का हल हमारा समाज बीते दो सौ साल से खोज रहा है तथापि समस्याएं यथावत हैं। अठारहवीं शताब्दी के मध्य से ही दुनिया भर की तमाम महिलाओं को बराबरी का हक दिलाने की पुरजोर कोशिशें हो रही हैं। भारत में महिलाओं की गरिमा को सनातन समय से गौरवशाली मुकाम हासिल है बावजूद आज सब कुछ ठीक नहीं कहा जा सकता।
भारत में सरोजिनी नायडू पहली ऐसी महिला थीं जिन्होंने एनी बेसेण्ट और अन्य लोगों के साथ मिलकर भारतीय महिला संघ की स्थापना की थी। उन्नीसवीं शताब्दी की महिला आन्दोलनकारियों में फ्रांस की सिमोन द बोउवा का नाम सर्वोपरि है। उनकी पुस्तक द सेकेण्ड सेक्स स्त्री विमर्श की चर्चित कृति है। सिमोन मानती थीं कि स्त्री का जन्म भी पुरुष की तरह ही होता है मगर परिवार व समाज द्वारा उसमें स्त्रियोचित गुण भर दिए जाते हैं। 1970 में फ्रांस के नारी मुक्ति आंदोलन में भाग लेने वाली सिमोन स्त्री के लिए पुरुष के समान स्वतंत्रता की पक्षधर थीं। महिलाएं चाहे जिस भी नस्ल, वर्ण, जाति, धर्म, संस्कृति या देश की हों, उनका संघर्ष लगभग एक समान है। आश्चर्यजनक तो यह है कि स्त्रीवादियों के आन्दोलन की जो लहर अठारहवीं शताब्दी के मध्य में उठी थी, अब तक अपनी मंजिल नहीं पा सकी है। धार्मिक नेता और समाज के ठेकेदार युवतियों के रहन-सहन, परिधान, संचार साधनों के उपयोग और जीवनसाथी के चयन जैसे सर्वथा निजी मामलों में भी अपनी राय थोपकर उनकी स्वतंत्रता का हनन करते हैं। वस्तुत: महिलाओं के संदर्भ में रोजगार, शिक्षा और कानून को लेकर समानता की मांग बेमानी नहीं है क्योंकि वे हर जगह भेदभाव से पीड़ित हैं। पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं की उन्नति के मार्ग में हर कदम पर अवरोध दिखाई देते हैं।
महिलाएं अपने परिवार के लिए अथक परिश्रम करती हैं पर उनके श्रम को कोई सामाजिक मान्यता प्राप्त नहीं है। भारत में तो कर्तव्य और प्रेम की ओट में उसके श्रम की अनदेखी कर दी जाती है। मगर दु:ख की बात यह है कि भारतीय महिलाओं की स्थिति सरकार के समस्त प्रयासों के बावजूद दयनीय होती जा रही है। आज सबसे बड़ी समस्या महिलाओं की स्वतंत्रता नहीं, सुरक्षा की है। संसद की महिलाओं के पोषण से सम्बन्धित कामकाज देखने वाली केन्द्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की लोकसभा प्राक्कलन समिति ने सरकार को इस बात के लिए फटकारा है कि देश में आज भी 70 प्रतिशत बच्चे और 60 प्रतिशत महिलाएं कुपोषण का शिकार हैं। देश तमाम प्रौद्योगिक क्षेत्रों में विकास कर रहा है, संचार और तकनीकी युग में इतना कुपोषण शर्म की ही बात है। कुपोषण रोकने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन के नए ग्रोथ चार्ट के बाद भी देश में बच्चों एवं महिलाओं की स्थिति जस की तस है। महिलाओं और बच्चों के कुपोषण पर हमारी सरकारों और उनके विभागों के बीच समन्वय का बेहद अभाव है।
सरकार कुपोषण खत्म करने के लिए जो भी योजनाएं लागू की कर रही है, वे जमीनी स्तर पर प्रभावी नहीं हो पा रही हैं। आंगनबाड़ियों और स्वास्थ्य विभाग में व्यापक समन्वय की कमी है। अधिकांश बच्चों का वजन नहीं लिया जाता। इससे वास्तविकता का पता नहीं चलता। एक समय प्रधानमंत्री ने भी कुपोषण को देश के लिए राष्ट्रीय शर्म बताया था। पर सरकार और समाज दोनों के बीच कोई चेतना और समस्याओं के प्रति जुझारूपन देखने को नहीं मिलता। इसी समिति ने यह भी बताया है कि देश में बच्चों में कुपोषण 1998-99 में 74 प्रतिशत के मुकाबले 2005-06 में 80 प्रतिशत हो गया यानी कुपोषण की दर घटने की बजाय बढ़ गई है।
यह गम्भीर मामला है। हम जिस स्तर को स्थिर नहीं रख सके, कम से कम उसे दुर्गति की ओर जाने से तो रोक ही सकते थे। आज ग्रामीण क्षेत्रों में सुदृढ़ होती स्वास्थ्य व्यवस्थाएं, जैसा वाक्य सरकारी विज्ञापन का हिस्सा तो हो सकता है लेकिन वास्तविकता से इसका बहुत वास्ता नहीं हो सकता। देश में हर बार बजट बढ़ता है और हर बार कुपोषण भी सामने आता है। हर बार कुपोषण, रक्त अल्पता, निरक्षरता की शिकार महिलाओं की संख्या करोड़ों में हो जाती है। देश में बाल विवाह को लेकर लाख सजगता का दम्भ भरा जाता हो पर प्रतिवर्ष लाखों की तादाद में जवाबदेह लोगों के सामने क्रूर मजाक होता है। आज देश में करीब 40 प्रतिशत लड़कियों का बाल विवाह राष्ट्रीय शर्म की बात नहीं तो क्या है?
दुर्भाग्य की बात है जिस समय समय संयुक्त राष्ट्र बाल विवाह रोकने की बात कर रहा था ठीक उसी समय हरियाणा में एक राजनैतिक पार्टी के नेता 15 वर्ष में लड़कियों के विवाह की सलाह दे रहे थे। भारतीय समाज, यहां का शासक वर्ग अपने हितों को बनाये रखने व राजनैतिक पार्टियां अपने चुनावी गणित की दृष्टि से पिछड़े सामंती मूल्यों को बनाये रखे हुए हैं। यही कारण है कि भ्रूण हत्या, बाल विवाह, दहेज प्रथा जैसी तमाम स्त्री विरोधी प्रथाएं और परम्पराएं आज भी बदस्तूर जारी हंै। शासक वर्ग इन समस्याओं के समाधान में कोई दिलचस्पी नहीं रखता। वह मात्र चुनावी रस्म अदायगी करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है। आज आवश्यकता इस बात की है कि जड़ में चोट करने वाले व्यापक आंदोलन की शुरुआत हो।

Sunday 8 September 2013

हॉकी के महायोद्धा कैप्टन रूप सिंह

भारतीय खेलों का इतिहास जांबाज खिलाड़ियों के हैरतअंगेज कारनामों से भरा पड़ा है। इतिहास में महान खिलाड़ियों की अमरगाथा भी है और जीवंतता भरा उनका प्रदर्शन भी। मुकाबला चाहे खेल के मैदान पर हो या फिर जंग में, जीत के लिए जो सब कुछ दांव पर लगाता है वही सिकंदर कहलाता है। रिंग मास्टर-अचूक स्कोरर कैप्टन रूप सिंह आज ही के दिन आठ सितम्बर, 1908  को मध्यप्रदेश के जबलपुर में सोमेश्वर सिंह के घर जन्मे थे। इनकी शिक्षा-दीक्षा उत्तर प्रदेश के झांसी शहर में हुई और यहीं उन्होंने हीरोज मैदान में अपने बड़े भाई ध्यानचंद के साथ हॉकी की वर्णमाला सीखी थी। बिना गुरु के इस अप्रतिम हॉकी खिलाड़ी ने इस खेल को न केवल दिल से खेला बल्कि गुलाम भारत को दो बार (1932 और 1936 में) ओलम्पिक का स्वर्ण मुकुट भी पहनाया। इन दोनों ही अवसरों पर हॉकी के जादूगर अपने अग्रज ध्यानचंद के होते हुए भी वह ओलम्पिक के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी रहे।
हॉकी मैदान का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं था जहां रूप सिंह खेल नहीं सकते थे। यह खूबी तो इस खेल के जादूगर कहे जाने वाले ध्यानचंद में भी नहीं थी।  गाहे-बगाहे दद्दा स्वयं कहते भी थे कि रूप सिंह हमसे बड़ा खिलाड़ी है। कैप्टन रूप सिंह 1930 में ग्वालियर आ गये और इनकी काबिलियत व उम्दा खेल ने इन्हें सिंधिया परिवार की आंखों का नूर बना दिया। सोमेश्वर के परिवार ने खेल को धर्म और विजय को प्रसाद माना यही कारण है कि इस परिवार में जो भी जन्मा खिलाड़ी के रूप में ही जन्मा। एक समय तो ऐसा भी आया जब इस परिवार के पास हॉकी की मुकम्मल टीम थी। हॉकी में संसारपुर गांव और सोमेश्वर सिंह का परिवार एक-दूसरे के पूरक हैं। सच कहें तो हॉकी की धर्म संसद दद्दा ध्यानचंद और रूप सिंह के बिना पूरी नहीं होती। दद्दा जहां उच्चकोटि के हमलावर थे वहीं कैप्टन रूप सिंह इस खेल के महान योद्धा। ओलम्पिक के आंकड़े रूप सिंह को जहां सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शनकारी साबित करते हैं वहीं दीगर प्रतियोगिताओं में जादूगर की ही जादूगरी चली।
हॉकी की जब भी बात होती है दद्दा ध्यानचंद ही लोगों को याद आते हैं। न जाने लोग क्यों उस महायोद्धा को भूल जाते हैं जिसने 15 अगस्त, 1936 को आततायी हिटलर का भी दिल जीत लिया था। उस दिन दद्दा ध्यानचंद को नहीं बल्कि रूप सिंह को हिटलर ने बधाई और जर्मनी में नौकरी का प्रलोभन दिया था। जर्मनी का 8-1 से मानमर्दन करने के बाद लोगों को उम्मीद थी कि तानाशाही का प्रतिमान हिटलर विजय समारोह में शायद ही हिस्सा ले। लोग परेशान थे कि कहीं हिटलर भारतीय टीम को सोने के तमगे पहनाने से इंकार न कर दे। वह कुछ भी कर सकता था लेकिन उस दिन उसने अपनी देशभक्ति को ताक पर रख हिन्दुस्तान को सलाम किया। बर्लिन की उस शाम को हिटलर जहां ध्यानचंद को सोने का तमगा पहना रहा था वहीं दूसरी तरफ वह रूप सिंह की वाहवाही करता यह भी कह रहा था कि रूप सिंह तुम विलक्षण हो, तुम सा हॉकी महायोद्धा नहीं देखा। उस दिन एक तरफ भारतीय पलटन मुस्करा रही थी तो दूसरी तरफ असहाय जर्मन टीम पराजय के आंसू बहाती दिखी। जर्मनी पर 8-1 की विजय में रूप सिंह ने चार तो ध्यानचंद ने तीन गोल किये थे। उस ओलम्पिक में ध्यान और रूप की जोड़ी ने 11-11 गोल किये थे पर सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी का सम्मान रूप सिंह को ही मिला था।
1932 के ओलम्पिक में भी ध्यान और रूप की जोड़ी जमकर खेली थी और भारत को स्वर्ण मुकुट पहनाया था पर प्रतियोगिता में 13 गोल करने वाले रूप सिंह ही सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी रहे। उस ओलम्पिक में अमेरिका पर 24-1 की ऐतिहासिक जीत में कैप्टन रूप सिंह ने 12, ध्यानचंद ने सात तो गुरमीत सिंह ने तीन गोल किए थे। अफसोस इस मुकाबले की जब भी बात होती है रूप सिंह के एक दर्जन गोलों को नजरअंदाज कर दिया जाता है। हॉकी के महायोद्धा कैप्टन रूप सिंह को देश में जो सम्मान मिलना चाहिए वह आज तक नहीं मिला। इसकी वजह पर गौर करें तो ध्यानचंद के पुत्र अशोक कुमार पितृमोह में अपने चाचा के खेल के साथ नाइंसाफी के कुसूरवार हैं। वह आज अपने पिता मेजर ध्यानचंद को भारत रत्न दिलाने के लिए जहां लॉबिंग कर रहे हैं वहीं लोगों को गलत आंकड़े बताकर अपने चाचा के चमत्कारिक खेल पर पानी फेर रहे हैं।
कैप्टन रूप सिंह सिर्फ हॉकी ही नहीं बल्कि क्रिकेट और लॉन टेनिस के भी अच्छे खिलाड़ी रहे हैं। 1946 में उन्होंने ग्वालियर स्टेट की तरफ से दिल्ली के खिलाफ रणजी ट्राफी मैच भी खेला है। देश के खेलनहार बेशक कैप्टन रूप सिंह को भूल चुके हों पर जर्मनी के म्यूनिख शहर में कैप्टन रूप सिंह मार्ग इस विलक्षण हॉकी खिलाड़ी की आज भी याद दिलाता है। कैप्टन रूप सिंह दुनिया के पहले ऐसे खिलाड़ी हैं जिनके नाम ग्वालियर में फ्लड लाइटयुक्त क्रिकेट का मैदान है। हॉकी में ध्यान और रूप दोनों बेजोड़ थे। ध्यानचंद दिमाग तो रूप सिंह दिल से हॉकी खेलते थे। एक कोख के इन सपूतों ने हॉकी में बेशक देश को अपना सर्वस्व दिया हो पर ओलम्पिक के हीरो रूप सिंह को कुछ भी नहीं मिला। गुरबत में जीते आखिर रूप सिंह ने 16 दिसम्बर, 1977 को आंखें मूद लीं। हे कालजयी तुम्हें सलाम।

Friday 6 September 2013

उत्तम राह पर उत्तर प्रदेश

बीते साल विधानसभा चुनाव के समय जब देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश की आम जनता को समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश बनाने का भरोसा दे रही थी, उस समय किसी को यकीन नहीं हो रहा था कि ऐसा हो भी सकता है। इसकी वजह सूबे की 22 करोड़ की आबादी और उसके सीमित संसाधनों को जाता है। प्रदेश की जनता ही नहीं किसी राजनीतिक दल को भी भरोसा नहीं था कि समाजवादी पार्टी पूर्ण बहुमत की सरकार बनाएगी। लेकिन उत्तर प्रदेश की जनता ने गठबंधन की गांठ खोलते हुए न केवल युवा अखिलेश यादव पर पूरा भरोसा जताया बल्कि सपा की झोली में एक ऐतिहासिक जीत डाल दी। खुशी यह है कि सरकार प्रदेश के ढेरों युवा वोटरों को संतुष्ट करने में सफल सिद्ध हुई है।
15 मार्च, 2012 को उत्तर प्रदेश की सल्तनत का सरताज बनने के बाद अखिलेश यादव ने प्रदेश की जनता, खासकर युवाओं से किये गये वायदे एक-एक कर पूरे करने शुरू किए। युवाओं को बेरोजगारी भत्ता, तो मेधावी बेटियों को कन्या विद्या धन और प्रतिभाशाली छात्रों को लैपटॉप देने को सरकार ने पहली वरीयता में रखा। आज प्रदेश भर में बांटे गये लैपटॉपों को पाकर मेधावी छात्र-छात्राएं जहां पुलकित हैं वहीं गांव-गांव तक पहुंची सूचना क्रांति का किसान भी लाभ उठाने को तैयार हैं। देखा जाये तो आजादी के बाद से ही देश के नागरिकों को शिक्षा और चिकित्सा का मौलिक अधिकार प्राप्त है लेकिन इसके उलट, आजादी के 66 बरस बाद स्वतंत्र भारतीय गणतंत्र में निवास करने वाले आम जनमानस को मौलिक और संवैधानिक दोनों ही अधिकार अर्थ के बदले ही मयस्सर हो रहे हैं। यह विडम्बना देश के नीति-नियंताओं की देन है, जिन्होंने नागरिकों को बेबसी में जीने को विवश किया है। हर क्षेत्र के घटनाक्रमों पर दृष्टिपात का कुल जमा फलसफा बहुत सुखद नहीं कहा जा सकता। उत्तर प्रदेश की बात करें तो आजादी के बाद से ही इस सूबे को राजनीतिक संत्रास का सामना करना पड़ा है। राजनीतिक दलों ने प्रदेश को देश की सल्तनत का रास्ता तो हमेशा माना पर दिल्ली पहुंचते ही यहां की गरीब आवाम को भूल गये। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव प्रदेश के जनमानस को राजनीतिक भूल-भुलैया से दूर निकालने की न केवल हर मुमकिन कोशिश कर रहे हैं बल्कि सूबे पर जब भी कोई संकट आता है तो मुख्यमंत्री को नसीहत देने से नहीं चूकते। जिस तरह से उसका असर होता है, उससे लगता है कि अखिलेश यादव को उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश बनाने की जवाबदेही सौंपना एक अच्छा फैसला है। अखिलेश युवा भले हों पर उनकी दूरदृष्टि मंझे हुए राजनीतिज्ञों से कहीं बेहतर कही जा सकती है।
एक तरफ देश के नीति-नियंता आम आदमी के जीवनयापन को जहां अपनी ही तूलिका से तौल रहे हैं, वहीं समाजवादी पार्टी जमीनी हकीकत को समझते हुए गरीब परवरदिगारों की आवाज दिल्ली तक बुलंद कर रही है। आज देश के लोकतंत्र और गणतंत्र के सामने गंभीर चुनौती आ खड़ी हुई है। बढ़ती महंगाई से देश का हर आदमी आशा-निराशा भरे चौराहे पर खड़ा है। बात शिक्षा की हो, स्वास्थ्य अथवा कृषि की,आजादी के साढ़े छह दशक बाद भी राज्यों से लेकर केन्द्र तक की सरकारें प्रयोगधर्मिता के आगोश से मुक्त नहीं हो पाई हैं। तथाकथित जवाबदेह नेतृत्व और प्रतिनिधित्व करने वाले राजनैतिक दलों के नुमाइंदे आज दोहरे चरित्र और मानदण्डों का शिकार हैं। एक तरफ जहां शिक्षा के क्षेत्र में राष्ट्रीय विद्वानों-चिन्तकों और शिक्षाशास्त्रियों के सवाल सत्ता के गलियारों से बिना जवाब पाए लौट रहे हैं, वहीं अखिलेश सरकार ने शिक्षा क्षेत्र में शिक्षक भर्ती को प्राथमिकता देकर युवाओं के लिए रोजगार सृजन की भी पहल की है। एक समय प्रदेश की ग्रामीण प्रतिभाएं उच्च शिक्षा और उच्च तकनीक से वंचित थीं पर समाजवादी पार्टी सरकार सीमित संसाधनों के बाद भी युवाओं को लैपटॉप की सौगात देकर उनकी मुट्ठी में दुनिया सौंप रही है। एक बीमारू राज्य को भला-चंगा करने में वक्त तो लगेगा पर उम्मीद है कि सपा सरकार इसमें सफल होगी। शिक्षा के क्षेत्र में सरकार जो आमूलचूल परिवर्तन कर रही है उससे निरक्षरों की संख्या घटेगी, इस पर संदेह नहीं किया जा सकता।  इसके साथ ही मुख्यमंत्री आम जनता के लिए सुलभ भी हुए। उनके जनता दर्शन कार्यक्रम से 26 प्रतिशत लोग लाभान्वित हुए। सपा सरकार ने सिर्फ शिक्षा के क्षेत्र में ही नहीं बल्कि महिलाओं और किसानों के लिए भी कई लाभकारी योजनाओं को अमलीजामा पहनाने की कोशिश की है। प्रदेश में वूमेंस पॉवर लाइन, समाजवादी एम्बुलेंस सेवा, कन्या विद्या धन, पढ़ें बेटियां-बढ़ें बेटियां, रानी लक्ष्मीबाई पेंशन योजना, हमारी बेटी-उसका कल योजनाएं गरीब महिलाओं और बेटियों के लिए खुशियों की सौगात साबित हो रही हैं। इन योजनाओं से गरीबों में विश्वास जागा है। जो गरीब शिक्षा को दूर की कौड़ी मानते रहे हैं, उनके बच्चे आज न केवल स्कूलों की तरफ रुख कर रहे हैं बल्कि सरकार उन्हें मुफ्त गणवेश और पुस्तकें भी मुहैया करा रही है। महिला-बेटियों के साथ ही सरकार ने धरती पुत्रों के लिए क्रेडिट कार्ड योजना, कर्जमाफी योजना के साथ-साथ उन्हें ग्राम उद्योग योजना की सौगात देकर आत्मनिर्भर बनाने का प्रयास किया है। सपा सरकार के अब तक के 18 माह के कार्यकाल पर लोग लाख नुक्ताचीनी करें पर प्रदेश की गरीब जनता और युवाओं को राहत जरूर मिली है। उम्मीद है कि 2017 तक अखिलेश सरकार न केवल अपने सभी वायदे पूरे करेगी बल्कि उसका कार्यकाल प्रदेश में तरक्की की नई पटकथा भी लिखेगा।