Tuesday 31 May 2016

फेडरेशन के धोबी पाट में फंसे सुशील और नरसिंह यादव

ढुलमुल कुश्ती- अदालत भी असमंजस में
ओलम्पिक खेल बिल्कुल करीब हैं लेकिन भारतीय खिलाड़ियों की रहनुमाई को लेकर इन दिनों कुश्ती के दो महायोद्धा सुशील कुमार और नरसिंह यादव के बीच अदालत में कांटे की नूरा-कुश्ती चल रही है। इसकी वजह फेडरेशन का ढुलमुल रवैया कहें तो गलत न होगा। इस मामले में जिस तरह की खींचतान चल रही है, उसे देखते हुए यही साबित हो रहा है कि सुनियोजित तैयारी न होने के अलावा भी दूसरे कई तत्त्व अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भारत के शर्मसार होने की वजह हैं। ताजा विवाद ओलम्पिक में पुरुषों की कुश्ती प्रतियोगिता के ७४ किलोग्राम वर्ग में भारत के प्रतिनिधित्व का है।
भारतीय कुश्ती महासंघ जहां लगातार नरसिंह यादव को मिले ओलम्पिक कोटे को प्रमुखता दे रहा है वहीं देश के अधिकांश खेलप्रेमियों का मानना है कि इन दोनों में जो जीते वही ब्राजील में ताल ठोके। नरसिंह पंचम यादव और सुशील कुमार में से किसी एक को चुनने का मामला इतना उलझ गया कि न्यायालय को दखल देना पड़ा है। न्यायालय की भी समझ में नहीं आ रहा कि वह क्या फैसला दे। हालत यह है कि इस मसले पर सुशील कुमार की ओर से दाखिल याचिका पर सुनवाई करते हुए दिल्ली हाईकोर्ट को कहना पड़ा है कि भारतीय कुश्ती महासंघ सुशील के रिकॉर्ड पर गौर करते हुए उसकी सुने और फैसला करे कि रियो ओलम्पिक में कुश्ती प्रतियोगिता के पुरुषों के ७४ किलोग्राम वर्ग में भारत की नुमाइंदगी कौन करेगा।
इस मामले में दोनों खिलाड़ियों के दावों के बीच जिस तरह की मुश्किल खड़ी हो गई है, उससे तो यही लगता है कि यहां देश के बजाय व्यक्तियों का सवाल ज्यादा अहम हो गया है। गौरतलब है कि भारत की ओर से ७४ किलोग्राम वर्ग में नरसिंह पंचम पहले ही रियो ओलम्पिक के लिए चुने जा चुके हैं। लेकिन चूंकि सुशील कुमार ने ज्यादा योग्य उम्मीदवार को ओलम्पिक में भेजने की मांग के साथ उनके और नरसिंह पंचम के बीच मुकाबले का सवाल उठा दिया है, इसलिए मामला और उलझ गया है। मुश्किल यह है कि अगर भारतीय कुश्ती महासंघ इस पर विचार करता है तो बाकी के सात वजन वर्गों में भी अन्य पहलवानों के बीच ऐसे मुकाबले की मांग उसकी नाक में दम कर सकती है। दरअसल, ओलम्पिक में दावेदारी के लिए मौका कुश्ती के सीधे मुकाबलों में नहीं मिलता, बल्कि भारतीय कुश्ती महासंघ पूर्व के प्रदर्शन के आधार पर किसी पहलवान को चुनता है। चूंकि नरसिंह यादव ७४ किलोग्राम वर्ग में कुश्ती खेलते रहे हैं और पिछले साल लॉस वेगास में हुई विश्व कुश्ती प्रतियोगिता में उन्होंने इस वर्ग में कांस्य पदक जीता था, इसीलिए उन्हें ७४ किलोग्राम वर्ग के तहत रियो ओलम्पिक के लिए चुना गया। दूसरी ओर, सुशील कुमार ६६ किलोग्राम वर्ग में खेलते रहे हैं। लेकिन अब ओलम्पिक में इस भारवर्ग की कुश्ती नहीं होगी सो यह बखेड़ा खड़ा हो गया। सुशील कुमार चोट और तैयारियों से जुड़े सवालों से भी जूझ रहे हैं। लेकिन उनकी यह शिकायत वाजिब है कि अगर भारतीय कुश्ती महासंघ ने कोई फैसला कर लिया था तो उन्हें पहले यह संकेत क्यों नहीं दिए गए। नरसिंह यादव और सुशील कुमार के बीच मुकाबले की जहां तक बात है, सुशील २१ हैं। वह नरसिंह को हरा चुके हैं लेकिन उन मुकाबलों के अब कोई मायने नहीं रहे। जाहिर है, अगर यह विवाद इतना तूल पकड़ चुका है तो इसके पीछे भारतीय कुश्ती महासंघ का ढुलमुल रवैया है। कम से कम अब जरूरत है कि ताजा विवाद में भारतीय कुश्ती महासंघ किसी ऐसे निष्कर्ष पर पहुंचे, जिससे उस पर पक्षपात करने का आरोप न लगे। इस संदर्भ में हाईकोर्ट ने बिल्कुल ठीक कहा है कि किसी व्यक्ति को नुकसान उठाना पड़ सकता है, लेकिन देश को सर्वोपरि रखना चाहिए। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में भारत का रिकॉर्ड अगर संतोषजनक नहीं रहा है तो इसका एक बड़ा कारण खिलाड़ियों के चयन की प्रक्रिया, उसमें आपसी खींचतान और कई बार बेहतर खिलाड़ियों को मौका न मिलना भी रहा है। इसमें खेल संगठनों के कर्ताधर्ताओं से लेकर दूसरे सत्ता केंद्रों के बीच टकराव और हित भी काम करते रहते हैं। इसका असर न केवल खिलाड़ियों के प्रदर्शन पर पड़ता है बल्कि देश को भी नुकसान उठाना पड़ता है।
भारतीय कुश्ती महासंघ ने दिल्ली उच्च न्यायालय में दलील दी है कि पहलवान नरसिंह पंचम यादव रियो ओलम्पिक में ७४ किलोग्राम फ्रीस्टाइल वर्ग में सुशील कुमार से बेहतर दांव है। नरसिंह ने विश्व कुश्ती चैम्पियनशिप २०१५ में कांस्य पदक जीतकर भारत के लिए ओलम्पिक कोटा हासिल किया था और वह च्सबसे सुयोग्य पहलवानज् और सुशील की तुलना में बेहतर प्रतिभागी हैं। भारतीय कुश्ती महासंघ ने तो यहां तक कहा कि सुशील पिछले दो वर्षों में चयन ट्रायल के दौरान लगातार नरसिंह का सामना करने से बचता रहा। सुशील ने इन दावों के जवाब में आरोप लगाया कि उन्हें ओलम्पिक में ७४ किलोग्राम भारवर्ग में भारत का प्रतिनिधित्व करने का मौका देने के लिए ट्रायल पर इसलिए विचार नहीं किया जा रहा क्योंकि उसने प्रो कुश्ती लीग में हिस्सा नहीं लिया था। सुशील की तरफ से शामिल हुए सीनियर वकील अमित सिब्बल ने न्यायमूर्ति मनमोहन से कहा कि भारतीय कुश्ती महासंघ इस तरह का मनमाना फैसला नहीं कर सकता। सुशील का प्रो कुश्ती लीग में हिस्सा नहीं लेना कोई कारण नहीं हो सकता। सुशील केवल ट्रायल के लिए कह रहा है।
अदालत में भारतीय कुश्ती महासंघ ने जिस तरह नरसिंह यादव का पक्ष रखा उससे साफ जाहिर है कि सुशील कुमार रियो ओलम्पिक में शायद ही ताल ठोक पाएं। भारतीय कुश्ती महासंघ ने अदालत में पेश हलफनामे में कहा, च्प्रतिवादी संख्या पांच (नरसिंह  को आगामी ओलम्पिक खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए सर्वश्रेष्ठ पहलवान आंका गया है। चयन पूरी तरह से निष्पक्ष और पारदर्शी तरीके से हुआ है। नरसिंह ७४ किलोग्राम फ्रीस्टाइल वर्ग में बेहतर प्रतिभागी है क्योंकि वह २००६ से इस भार वर्ग में पूरे दबदबे के साथ खेल रहा है जबकि सुशील जनवरी २०१४ तक ६६ किलोग्राम भार वर्ग में खेलता रहा है। रियो के लिए अभ्यास शिविर में अपना नाम नहीं होने के बाद ३२ वर्षीय सुशील ने उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल करके भारतीय कुश्ती महासंघ को ट्रायल करवाने का निर्देश देने का आग्रह किया जिससे यह तय हो सके कि रियो खेलों में ७४ किलोग्राम फ्रीस्टाइल में भारत का प्रतिनिधित्व कौन करेगा। भारतीय कुश्ती महासंघ ने अदालत से कहा कि २६ वर्षीय नरसिंह को ७४ किलोग्राम भार वर्ग में रियो ओलम्पिक में भेजने का फैसला पहलवानों के अपने भार वर्ग में उपलब्धियों, वर्तमान प्रदर्शन और अभ्यास शिविरों में मुख्य कोच और ट्रेनरों के आकलन के बाद पूरे विचार विमर्श के बाद किया गया। नरसिंह की तरफ से उपस्थित सीनियर एडवोकेट दिनेश गुप्ता ने कहा कि उनके मुवक्किल का नाम ओलम्पिक के लिए भेजा गया क्योंकि उन्होंने देश के लिए कोटा हासिल किया था। उन्होंने कहा, च्यदि आज ट्रायल कराए जाते हैं तो फिर क्वालीफिकेशन प्रतियोगिता को व्यर्थ माना जाएगा।ज् इसके साथ ही उन्होंने आगे कहा कि राष्ट्रीय प्रतिष्ठा को लेकर कोई विवाद नहीं है। उन्होंने कहा कि निष्पक्ष प्रक्रिया से चयन किया गया है और मनमाना या दुराग्रहपूर्ण जैसा कुछ नहीं हुआ है। सुशील के इस आरोप पर कि उन्हें ट्रायल का मौका इसलिए नहीं दिया गया क्योंकि उन्होंने प्रो कुश्ती लीग में हिस्सा नहीं लिया था। भारतीय कुश्ती महासंघ ने कहा कि सुशील के प्रति पक्षपातपूर्ण रवैया नहीं अपनाया गया। भारतीय कुश्ती महासंघ के वकील ने कहा, च्आज तक भारत में या हमारी जानकारी के हिसाब से यहां तक कि विश्व में भी एक भी वाकया ऐसा नहीं है जबकि देश के लिए कोटा हासिल करने वाले खिलाड़ी को ओलम्पिक में नहीं भेजा गया हो। प्रतियोगिता के लिए पहलवान को भेजना देश का अधिकार है।ज् उन्होंने इसके साथ ही कहा कि ओलम्पिक में जो १८ पहलवान इस भार वर्ग में भाग लेने जा रहे हैं नरसिंह ने उनमें से छह को हराया है।
सुशील के वकील ने कहा कि भारतीय कुश्ती महासंघ को पदक जीतने की सम्भावना बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए और जहां तक अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं की बात है तो उनका मुवक्किल काफी आगे है। उन्होंने कहा, च्निष्पक्ष चयन और राजनीतिक या अन्य तरह के प्रभाव कम करने के लिए ट्रायल का आयोजन सबसे बेहतर तरीका है। ओलम्पिक सबसे बड़ी प्रतियोगिता है और ट्रायल की जरूरत है जोकि निष्पक्ष तरीके से और अग्रिम नोटिस पर किया जाना चाहिए। पारदर्शिता के लिए ऐसा करना चाहिए। याचिकाकर्ता (सुशील) भारत का सबसे सफल खिलाड़ी है और व्यक्तिगत स्पर्धा में दो ओलम्पिक पदक जीत चुका है।ज् सुशील के वकील ने यह भी कहा कि उनका मुवक्किल पदक का प्रबल दावेदार और बेजोड़ खिलाड़ी है और यदि ट्रायल नहीं कराये गए तो इस स्पर्धा में भारत की पदक जीतने की सम्भावना क्षीण हो जाएगी। उन्होंने कहा कि चयन ट्रायल पिछले साल जुलाई में किया गया और सुशील इसलिए भाग नहीं ले पाया क्योंकि तब वह चोटिल था। पूर्व वाकये पर नजर डालें तो ओलम्पिक में ट्रायल को लेकर योगेश्वर दत्त एवं अर्जुन अवार्ड विजेता कृपाशंकर का मामला भी काफी चर्चित रहा है। २००४ में ओलम्पिक क्वालीफाइंग मुकाबलों के दौरान एक क्वालीफाई मुकाबले में जब योगेश्वर दत्त हार गए थे तब दूसरा कृपाशंकर को लड़ना था, लेकिन तब भी राजनीति हावी रही। फेडरेशन में हरियाणा की लाबी थी। महेन्द्र सिंह मलिक डीजीपी हरियाणा पुलिस भारतीय कुश्ती संघ के प्रधान थे। जहां कृपाशंकर का मौका था वहां भी योगेश्वर दत्त लड़े थे और विजयी हुए थे। तब कहा गया कि वजन क्वालीफाई हुआ है। इस बात का शोर मचा तो कहा गया हम ट्रायल लेंगे। लेकिन ट्रायल हुआ नहीं और मामला कोर्ट तक पहुंच गया था। इसके बाद ओलम्पिक में रवानगी का एक अन्य मामला इंदौर के पप्पू यादव का था,जिसमें वाइल्ड कंट्री इंट्री के बाद ट्रायल हुई थी और पप्पू यादव विजयी हुआ था। नियमतः क्वालीफाई करने के बाद विजयी पहलवान को दोबारा कभी ट्रायल नहीं देनी पड़ी। जो भी हो यह मामला भारतीय पहलवानों का दिल तोड़ने वाला ही साबित हो रहा है। फेडरेशन की इस लड़ाई में नुकसान पहलवानों का है, जिसे उचित नहीं कहा जा सकता।

Monday 30 May 2016

और जादूगर पर ही जादू चल गया

मेजर ध्यानचंद निर्विवाद रूप से हॉकी के सर्वश्रेष्ठ सर्वकालिक खिलाड़ी माने जाते हैं। १९३६ के बर्लिन ओलिम्पिक में तो ध्यानचंद के विलक्षण खेल ने हॉकी के चहेतों को असमंजस में डाल दिया था। तभी से लोगों ने उन्हें हॉकी का जादूगर कहना शुरू कर दिया। किन्तु इसके अगले ही वर्ष पचमढ़ी में सतपुड़ा क्लब ने जिस बखूबी से ध्यानचंद की टीम को परास्त किया, वह भी कम चौंकाने वाली बात नहीं थी। गोया उस मैच में जादूगर पर ही जादू चल गया हो।
जबलपुर एवं मध्यप्रदेश के वरिष्ठ क्रीड़ा समीक्षक और खेल पितामह माने जाने वाले बाबूलाल पाराशर ध्यानचंद के समकालीन हॉकी खिलाड़ी रहे हैं। भारतीय पुलिस सेवा के वरिष्ठ अधिकारी रहे बाबूलाल पाराशर लम्बे समय तक मध्यप्रदेश क्रीड़ा परिषद के सदस्य व उपाध्यक्ष भी रहे। वे अपने जमाने के अच्छे सेंटर हॉफ माने जाते थे। बाबूलाल पाराशर का निधन २३ जुलाई, १९९३ को जबलपुर में हुआ। स्मरणीय है कि बाबूलाल पाराशर के नेतृत्व में ही सतपुड़ा क्लब ने ध्यानचंद की टीम पर अभूतपूर्व विजय दर्ज की थी। इस मैच का विवरण स्वर्गीय पाराशर से बातचीत के आधार पर यहां प्रस्तुत किया गया है।
सन्‌ १९३७ में बाबूलाल पाराशर की नियुक्ति पचमढ़ी में हुई थी। यह एक महत्वपूर्ण मिलेट्री स्टेशन था और फिर उन दिनों तो वहां हॉकी का अच्छा खासा प्रचार था। करीब चार प्रथम श्रेणी के हॉकी मैदान थे और ६ पलटन की टीमें थीं। सबसे तगड़ी टीम इंडियन ग्रुप थी। सतपुड़ा क्लब के नाम से जानी जाने वाली सिविलियन टीम एक ही थी। जिसमें ज्यादातर पलटन के कैंप फ्लोअर यानी भिश्ती, मोची, दर्जी आदि थे। इसके अलावा कुछ विद्यार्थी, स्वयं बाबूलाल पाराशर, एक नायाब तहसीलदार और एक पुलिस हेड कांस्टेबल टीम में थे। उन दिनों पचमढ़ी में चार-चार माह के मिलेट्री आर्म्स कोर्स हुआ करते थे। जिसके अंतर्गत पलटन के अंग्रेज तथा हिन्दुस्तानी कमीशंड और नॉन कमीशंड अफसर प्रशिक्षण के लिए भेजे जाते थे। इस तरह नया कोर्स शुरू होते ही चार महीने का कार्यक्रम बन जाता था, जिसमें सब मैच लीग पद्धति के आधार पर खेले जाते थे।
ध्यानचंद तब पलटन में सैनिक थे और इसी कोर्स में शामिल होने के लिए पचमढी आए थे। वे इंडियन ग्रुप टीम की ओर से खेला करते थे। इसके पहले बाबूलाल पाराशर ने ध्यानचंद का खेल सर्वप्रथम १९३१ में ऑल इंडिया रजिया सुल्तान टूर्नामेंट के दौरान कुरबाई में देखा था। इस टूर्नामेंट में भारत की मशहूर टीमें जैसे गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर (जिसमें लालशाह बुखारी, दारा जफर आदि खिलाड़ी थे), मानबदर स्टेट, जहां प्रसिद्ध ओलम्पिक शाहबुद्दीन मसूद और मोहम्मद हुसैन थे, सुविखयात खिलाड़ी ध्यानचंद और रूप सिंह से सुसज्जित झांसी हीरोज की टीमें भाग लिया करती थीं। फाइनल में झांसी हीरोज और मानबदर स्टेट के मध्य एक संघर्षमय मुकाबला हुआ। अभी दर्शक अपनी जगह पर बैठ भी नहीं पाए थे कि ध्यानचंद ने विलक्षण फुर्ती के साथ बुली ऑफ से पहला गोल ठोंक दिया।
मानबदर के जाने माने लेफ्ट इन जॉनी पिंटो मात्र एक गोल ही कर सके, जिनके बारे में ऐसा कहा जाता था कि वे रूप सिंह से भी बेहतर खिलाड़ी थे। ध्यानचंद ने इसके अलावा तीन गोल और किए। टूर्नामेंट के श्रेष्ठ खिलाड़ी को स्वर्ण पदक प्रदान किया जाता था। परन्तु कुरबाई के नवाब ने यह कहकर कि ध्यानचंद जैसे महान्‌ खिलाड़ी के लिए एक स्वर्ण पदक मामूली इनाम है, उनका सम्मान शाही खिल्लत देकर किया। इसके अतिरिक्त स्वर्गीय पाराशर ने ध्यानचंद का खेल भोपाल में ही १९३२ और ओलम्पिक टीम के साथ में भी देखा था।
बाबूलाल पाराशर ने बताया कि ध्यानचंद का अप्रतिम खेल देखकर उनके मन में भी विचार आया कि काश ध्यानचंद के विरूद्ध खेलने का मौका मिले और फिर वे कैसे स्वयं प्रदर्शन कर पाते हैं। अंततः उन्हें १९३७ में पचमढ़ी में मौका मिला। स्वर्गीय पाराशर ने बताया कि ध्यानचंद का खेल सचमुच लाजवाब होता था। उनका खेल खिलाड़ी भावना से ओतप्रोत रहता था। व्यक्तिगत प्रदर्शन का तो उनमें नामोंनिशान तक नहीं था। यही कारण है कि कई बार स्वयं गोल करने में सक्षम होते हुए भी वे गेंद झट आसपास के दूसरे खिलाड़ी को थमाकर गोल करवा देते थे। उनके खेल की यही खूबी थी कि वे या तो खुद गोल कर सकते थे अथवा राइट इन या लेफ्ट इन के खिलाड़ियों को पास देकर गोल करवा लेते थे। गेंद ध्यानचंद को मिली नहीं कि उनमें बिजली की सी फुर्ती आ गई। कभी यदि वे विपक्षी खिलाड़ियों से घिर जाते थे, तो पीछे सेंटर हॉफ को पास देते थे या फिर ऐसे खिलाड़ियों को पास देते जो सुरक्षित स्थान पर खड़ा हो।
बाबूलाल पाराशर के अनुसार उनकी टीम सतपुड़ा क्लब को ध्यानचंद की टीम के विरूद्ध चार या पांच बार खेलने का अवसर आया। यद्यपि पहले मैच में बराबरी की टीम होने के बावजूद भी ध्यानचंद की टीम ने उन्हें ७-० से हराया, तथापि एक दो मैच खेलने के बाद पाराशर की टीम ने उनके खेल का सूक्ष्मता से भली-भांति अध्ययन कर लिया और आगे के मैचों में गोलों का अंतर क्रमशः कम होने लगा। वर्ष १९३७ में नवम्बर माह के अंतिम सप्ताह में अंग्रेज उच्च सेनाधिकारी ध्यानचंद का खेल देखने खासतौर से पचमढ़ी आए। एक प्रदर्शन मैच होने वाला था। मैदान पर अच्छी भीड़ थी। पचमढ़ी के करीब-करीब सभी हॉकी प्रेमी नागरिक उपस्थित थे। पलटन के समर्थकों को पूरा विश्वास था कि उनकी टीम आसानी से विजय दर्ज कर लेगी, मगर उस दिन पाराशर की टीम भी बहुत उत्साह से खेली।
'बुली ऑफ' के साथ ही सतपुड़ा क्लब के सेंटर फॉरवर्ड सल्लू ने आनन-फानन में ध्यानचंद की टीम के विरूद्ध एक गोल दाग दिया। यहां सल्लू के संबंध में बताना उचित होगा कि वह एक भिश्ती था और देखने में वह बिल्कुल हॉकी खिलाड़ी नहीं लगता था। इतना अपढ़ और पिछड़ा था कि जीवन में कभी रेल भी नहीं देखी थी। सल्लू जमीन पर टिप्पा मारकर विरोधी खिलाड़ी को स्टिक के ऊपर से गेंद उचकाते हुए सीधे आगे बढ़ता था। इस गोल के पश्चात्‌ ध्यानचंद के खेल में तेजी आ गई। आर्मी पलटन के अफसर और जवानों में भी जोश आ गया। उन्होंने सतपुड़ा टीम को आमतौर पर और ध्यानचंद की टीम को खासतौर पर चिल्ला-चिल्ला कर गोल करने के लिए उत्साहित करना शुरू कर दिया। पाराशर ने बताया ''उस दिन का मुझे यही याद है कि चारों तरफ बैठे दर्शकों की आवाज से मैदान गूंज उठा था। ध्यानचंद ने गोल करने की भरसक कोशिश की और गोल करने या कराने के हरसंभव हुनर अपनाए, लेकिन हमने सब विफल कर दिए। दस मिनट बाद सल्लू ने फिर दूसरा गोल करके सबको आश्चर्य में डाल दिया।''
मध्यांतर के पश्चात्‌ ध्यानंचद येन-केन प्रकारेण गोल करने के लिए आमादा हो गए। पाराशर कहते हैं कि वैसे तो ध्यानचंद का खेल बहुत साफ-सुथरा रहता था, लेकिन उस मैच में एक-दो बार उन्होंने बाबूलाल पाराशर को गिरा दिया और बाद में सॉरी भी कहते गए, क्योंकि इस दौरान चार माह साथ-साथ रहने और खेलने के कारण दोनों अच्छी तरह से परिचित थे। बड़ी मुश्किल से ध्यानचंद अपनी टीम के लिए एकमात्र गोल बना सके। वैसे तो अंत तक गोल करने की कोशिश करते रहे, पर और गोल करने में सफल नहीं हुए। इस तरह सतपुड़ा टीम ने ध्यानचंद की टीम पर २-१ गोल से विजय प्राप्त की। कुल मिलाकर उस दिन सतपुड़ा टीम के खिलाड़ियों ने बहुत बढ़िया प्रदर्शन किया था। हरेक खिलाड़ी ने अपना दायित्व बखूबी निभाया था। खेल के पश्चात्‌ सेनाधिकारियों ने भी सतपुड़ा टीम के सदस्यों की काफी तारीफ की। ध्यानचंद भी सतपुड़ा टीम से प्रभावित हुए बिना नहीं रहे। जब सल्लू ने अपनी टीम के लिए दूसरा गोल किया तो ध्यानचंद कहने लगे-''वाह साहब! आज तो सतपुड़ा टीम कमाल कर रही है। इस छोटी- सी जगह में इतने अच्छे खिलाड़ी कहां से भर लिए।''
बाबूलाल पाराशर ने बताया कि इस रोमांचकारी विजय से पचमढ़ी में हर्षोल्लास का वातावरण निर्मित हो गया। उस दिन इस विजय की खुशी में एक विशाल जुलूस निकाला गया। आज भी पचमढी के बुजुर्ग हॉकी प्रेमी इस बात की चर्चा करते हैं कि किस तरह इस छोटे से नगर के खिलाड़ियों ने उस महान्‌ खिलाड़ी के खेल का अनुसरण किया और वह गौरवशाली विजय अर्जित की थी, जो नवयुवक खिलाड़ियों के लिए प्रेरणास्पद है। यहां यह स्मरणीय है कि सेंटर हॉफ बाबूलाल पाराशर का खेल काफी प्रभावपूर्ण रहा। स्वयं ध्यानचंद ने उनके खेल से प्रभावित होकर झांसी हीरोज की तरफ से बेटन कप हॉकी प्रतियोगिता (कलकत्ता) में खेलने का प्रस्ताव रखा था, किन्तु पर्याप्त अवकाश न मिलने के कारण यह सम्भव न हो पाया। यहां यह उल्लेखनीय है कि ध्यानचंद की मशहूर पुस्तक 'गोल' के पृष्ठ ८३ के द्वितीय परिच्छेद में भी इस मैच का वर्णन मिलता है।

खेलों की महायोद्धाः अविनाश कौर सिद्धू

खेलों में मध्य प्रदेश की महिला खिलाड़ियों में अविनाश कौर सिद्धू वह नाम है जिसे हम महायोद्धा कहें तो अतिश्योक्ति न होगी। यद्यपि उन्हें वह सम्मान नहीं मिला जिसकी कि वह हकदार हैं। मध्य प्रदेश महिला हाकी एकेडमी की पहली प्रशिक्षक अविनाश कौर सिद्धू रहीं। उनका अनुशासन लोगों को रास नहीं आया और वह खिलाड़ियों को अपना हुनर लम्बे समय तक नहीं सिखा सकीं। शायद बहुत कम लोगों को पता होगा कि वह हाकी के साथ-साथ वालीबाल की भी आला खिलाड़ी रहीं।
कड़ी प्रतिस्पर्धा के कारण जब एक खेल में भारत के लिए प्रतिनिधित्व करना मुश्किल हो, तब दो खेलों में देश का प्रतिनिधित्व करना विशिष्ट उपलब्धि ही कही जाएगी। इस उपलब्धि को जबलपुर की डा. अविनाश कौर सिद्धू ने हासिल किया है। उन्होंने वर्ष १९६७ से वर्ष १९७५ तक भारतीय महिला हॉकी टीम और वर्ष १९७० में भारतीय वालीबाल टीम का प्रतिनिधित्व किया है। डा. सिद्धू का बहुआयामी व्यक्तित्व है। वे पिछले साढ़े तीन दशकों से हॉकी से जुड़ी हुई हैं। डा. सिद्धू ३५ वर्षों से विभिन्न संस्थाओं, विश्वविद्यालयों और प्रदेश की टीमों को हॉकी का प्रशिक्षण दे रही हैं।
डा. सिद्धू ने जर्मन कॉलेज आफ फिजिकल कल्चर से स्पोट्‌र्स साइकोलॉजी में मास्टर आफ स्पोर्ट की डिग्री प्राप्त की और इसी संस्थान से उन्होंने स्पोट्‌र्स साइकोलॉजी में डॉक्टरेट भी की है। उन्होंने सन्‌ १९७२ से वर्ष २००१ तक ग्वालियर के लक्ष्मीबाई नेशनल इंस्टीट्‌यूट आफ फिजिकल इंस्टीट्‌यूट यूनिवर्सिटी में अध्यापन कार्य किया। डा. सिद्धू ने वर्ष २००१ में प्रोफेसर पद से वालियंटरी रिटायरमेंट ले लिया।
डा. सिद्धू ने वर्ष २००१ से वर्ष २००५ तक बांग्लादेश इंस्टीट्‌यूट आफ स्पोर्ट, ढाका में स्पोट्‌र्स साइकोलॉजिस्ट के रूप में कार्य किया है। उन्होंने दस खेलों हॉकी, बॉस्केटबाल, बाक्सिंग, फुटबाल, जिम्नास्टिक, शूटिंग, स्वीमिंग, टेनिस और ट्रैक एंड फील्ड में बांग्लादेश की राष्ट्रीय टीमों को सहायता प्रदान की। मैनचेस्टर कॉमनवेल्थ गेम्स २००४ में बांग्लादेश के स्वर्ण पदक जीतने वाले शूटर मोहम्मद आसिफ को डा. अविनाश सिद्धू ने मनोवैज्ञानिक रूप से तैयार किया था। वर्ष २००४ के इस्लामाबाद सैफ गेम्स में स्वर्ण पदक जीतने वाले मोहम्मद आसिफ और शर्मीन को भी डा. सिद्धू की मनोवैज्ञानिक सहायता मिली थी।
डा. सिद्धू वर्ष १९६८ में आयोजित प्रथम एशियन महिला हॉकी चैम्पियनशिप में भारतीय टीम की कप्तान रही हैं। भारतीय टीम ने इस प्रतियोगिता में तीसरा स्थान प्राप्त किया था। इसी प्रतियोगिता के प्रदर्शन के आधार पर उन्हें 'ऑल स्टार एशियन इलेवन' में चुना गया। इसके पश्चात्‌ डा. अविनाश सिद्धू ने श्रीलंका, आस्ट्रेलिया, जापान, हांगकांग, यूगांडा, सिंगापुर, न्यूजीलैंड, स्पेन,स्कॉटलैंड के विरूद्ध खेली गई टेस्ट सीरिज में भारतीय टीम का प्रतिनिधित्व किया और इन देशों के विरूद्ध टेस्ट सीरिज में विजय दिलवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। डा. सिद्धू ने ऑकलैंड (न्यूजीलैंड), बिलबाओ (स्पेन) और एडिनबर्ग (स्कॉटलैंड) में आयोजित इंटरनेशनल फेडरेशन वूमेन हॉकी एसोसिएशन के टूर्नामेंट, जोकि विश्व कप के समकक्ष माना जाता है, में भी भारतीय महिला हॉकी टीम का प्रतिनिधित्व किया।
डा. सिद्धू ने वर्ष १९६२ से वर्ष १९७४ तक महाकौशल महिला हॉकी टीम का प्रतिनिधित्व किया। उन्होंने वर्ष १९६३, १९६५ और १९६६ में अंतर विश्वविद्यालयीन महिला हॉकी प्रतियोगिता में जबलपुर विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व किया। वर्ष १९६५ में जबलपुर विश्वविद्यालय की टीम उपविजेता रही। इस टीम का नेतृत्व भी अविनाश सिद्धू ने ही किया था। डा. सिद्धू ने वर्ष १९६८ में पंजाबी यूनिवर्सिटी का प्रतिनिधित्व भी किया।
डा. अविनाश सिद्धू ने सक्रिय हॉकी से निवृत्त होने के पश्चात्‌ कई अंतरराष्ट्रीय हॉकी प्रतियोगिताओं में अम्पायरिंग भी की है। जिसमें १०वें एशियन गेम्स सियोल, द्वितीय इंदिरा गांधी इंटरनेशनल वूमेन हॉकी टूर्नामेंट नई दिल्ली, एशियन जूनियर वूमेन हाकी वर्ल्ड कप क्वालीफाइंग टूर्नामेंट, तृतीय इंटरनेशनल कप फार वूमेन हॉकी, ११वें एशियन गेम्स बीजिंग (फाइनल मैच में आफिशियल), चतुर्थ इंदिरा गांधी इंटरनेशनल वूमेन हॉकी टूर्नामेंट जैसी प्रमुख प्रतियोगिताएं हैं। डा. सिद्धू १९९४ हिरोशिमा गेम्स में भी अम्पायर के रूप में चुनी गईं थीं। डा. अविनाश सिद्धू ने भारतीय महिला हॉकी टीम की मैनेजर के रूप में भी अपनी सेवाएं दी हैं। वे १९८३ से १९८५ तक भारतीय टीम की सिलेक्टर रही हैं। उन्होंने भारतीय महिला हॉकी टीम के लिए स्पोट्‌र्स साइकोलॉजिस्ट के रूप में भी अपनी सेवाएं दी हैं। उनकी पहचान एक श्रेष्ठ कोच के रूप में भी है।
सन्‌ १९७० में डा. अविनाश सिद्धू ने भारतीय महिला वालीबाल टीम का नेतृत्व भी किया। इसके अलावा राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में कई बार उन्होंने मध्यप्रदेश की टीम का प्रतिनिधित्व किया। उन्होंने एथलेटिक्स (ट्रैक एंड फील्ड) के अंतर्गत २०वें नेशनल गेम्स में ४ङ्ग१०० रिले और ८०० मीटर दौड़ में भाग लिया और रिले में कांस्य पदक जीता। १९६३-६४ में उन्हें जबलपुर विश्वविद्यालय का सर्वश्रेष्ठ एथलीट घोषित किया गया। १९६४ में नेशनल बास्केटबाल चैम्पियनशिप में मध्यप्रदेश टीम का प्रतिनिधित्व किया। वर्ष १९६३ एवं १९६५ में डा. सिद्धू ने इंटर यूनिवर्सिटी बास्केटबाल टूर्नामेंट में जबलपुर विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व किया। दोनों प्रतियोगिताओं में वे टीम की कप्तान भी रहीं। वर्ष १९७५ में हॉकी में उत्कृष्ट और उल्लेखनीय प्रदर्शन के लिए डा. सिद्धू को मध्यप्रदेश शासन ने विक्रम अवार्ड से सम्मानित किया।

Friday 27 May 2016

शालिनी के जज्बे को सलाम

                         
इंसान का जज्बा और जुनून जब सातवें आसमान पर हो, तब वह कुछ भी कर सकता है। कहा भी गया है हिम्मत बंदे मदद खुदा। बेंगलुरु की शालिनी सरस्वती दोनों हाथ और पैरों से अशक्त हैं, पर उनमें जुनून ऐसा कि हर मुश्किलें पस्त हो जाती हैं। एक कुशल भरतनाट्यम नृत्यांगना रह चुकी भारत की इस बेटी को चार साल पहले एक बीमारी के चलते अपने दोनों हाथ-पांव गंवाने पड़े बावजूद इसके उसकी इच्छाशक्ति और बलवती हो गई। बिना पैरों के दौड़ने का जुनून उन पर ऐसे सवार हुआ कि उन्होंने 10 लाख रुपये का कार्बन फाइबर रनिंग ब्लेड्स लोन पर खरीद डाला। हाल ही में शालिनी ने TCS World 10K मैराथन में 10 किलोमीटर की दौड़ पूरी कर सबको दांतों तले उंगली दबाने को विवश कर दिया। शालिनी का लक्ष्य 2020 के पैरालम्पिक
खेल हैं।

बेंगलुरु की रहने वाली शालिनी सरस्वती के दोनों हाथ-पैर नहीं हैं, लेकिन वे मैराथन में सहभागिता करती हैं। उन्होंने पिछले दिनों TCS World 10K मैराथन में 10 किलोमीटर की रेस पूरी की। शालिनी जन्म से ही अशक्त नहीं थीं। बचपन से भरतनाट्यम नृत्य का शौक रखने वाली भारत की इस बेटी ने पढ़ाई के बाद कॉल सेण्टर की नौकरी फिर उसके बाद विवाह रचाया। इस तरह जिन्दगी में सब कुछ सामान्य ढंग से चल रहा था। शालिनी प्रोफेशनली भी अच्छा कर रही थीं। वर्ष 2012 में वह अपने पति प्रशांत के साथ छुट्टी मनाने कम्बोडिया गई थीं, वहां पहुंच कर पता चला कि वह गर्भवती हैं। पति-पत्नी की खुशी का ठिकाना नहीं था।
भारत लौटने पर शालिनी को हल्का-सा बुखार हो गया। डॉक्टरों को यह डेंगू का संक्रमण लगा और उसका इलाज शुरू हुआ। कुछ हफ्तों में शालिनी को पता चला कि उनके शरीर में रिकेटसियल एटमॉस नाम का बैक्टीरिया घर कर चुका है। इस बैक्टीरिया की वजह से उनका बच्चा गर्भ में ही मर गया। शालिनी को लगा कि यह बीमारी गर्भावस्था से जुड़ी हुई है, ठीक हो जायेगी। लेकिन खतरनाक गैंगरीन ने आक्रमण किया और धीरे-धीरे शालिनी के हाथ-पांव भी सड़ने लगे। उन्हें आईसीयू में शिफ्ट कर दिया गया। वह चार दिन बेहोश रहीं। डॉक्टरों ने उम्मीद छोड़ दी थी लेकिन शालिनी उठीं। ठीक अपने जन्मदिन के दिन यानी पांच अप्रैल को। शालिनी ने अगले एक महीने तक अपने हाथ-पांव सड़ते हुए देखे। उनसे आती हुई बदबू झेली। शालिनी का बायां हाथ 2013 में ही काट कर अलग कर दिया गया था। कुछ ही महीनों बाद एक दिन अस्पताल में दायां हाथ अपने आप कट कर गिर गया।
शालिनी अपने ब्लॉग www.soulsurvivedintact.blogspot.in पर लिखती हैं, छह महीने के बाद एक दिन मेरा दायां हाथ अपने आप कट कर गिर गया। जब शरीर को किसी हिस्से की जरूरत नहीं होती, तो वह उसे छोड़ देता है। मैं समझ गयी थी कि जिंदगी कुछ छोड़कर आगे बढ़ने का संकेत दे रही है। शालिनी की कठिन परीक्षा जैसे अभी शुरू ही हुई थी। डॉक्टरों ने उनकी दोनों टांगें भी काटने का फैसला कर लिया। जिस दिन उनके दोनों पैर काटे जाने थे, उस दिन वह पैरों में चमकती लाल नेल पेंट लगाकर अस्पताल गयीं। इस बारे में उन्होंने अपने ब्लॉग पर लिखा है, अगर मेरे कदम जा रहे हैं तो उन्हें खूबसूरती से विदा करूंगी।

शालिनी न सिर्फ इन भयावह हालात से स्वयं उबरीं, बल्कि हर किसी के लिए एक मिसाल बनकर उभरी हैं। उन्हें यह मालूम नहीं था कि उन्हें अपने बचे हुए शरीर के साथ क्या करना है। फिर एक दोस्त ने उनके कोच बीपी अयप्पा से मुलाकात कराई। 2015 में शालिनी की ट्रेनिंग शुरू हुई। अब उन्होंने अपनी नौकरी भी फिर से पकड़ ली है। उन्होंने दौड़ने के लिए जर्मनी की एक कम्पनी से दस लाख रुपये के कार्बन फाइबर-ब्लेड लोन पर लिये हैं और दौड़ना अब शालिनी का जुनून बन गया है। वह रनिंग ब्लेड पर रोज घंटों पसीना बहाती हैं।
शालिनी ने अपने ब्लॉग में लिखा है, इतना सब होने के बाद मैं कैसे उबर पायी? सचमुच मुझे नहीं पता। हर दिन का एक-एक पल मैंने जिया। छोटे-छोटे पड़ाव पार किये, प्रेरणा देने वाली खूब किताबें पढ़ीं, जिन पर मेरी जिंदगी टिकी थी। शास्त्रीय संगीत सीखा। इससे भी ज्यादा एक उम्मीद की रोशनी में जी रही थी, हर दिन लगता था कि आने वाला दिन इससे बेहतर होगा। मैं जानती थी कि आने वाला कल और खुबसूरत होता जायेगा, क्योंकि जब आप सबसे नीचे होते हैं तो हर रास्ता आपको ऊपर ही ले जाता है। शालिनी के जज्बे को सलाम।

Thursday 26 May 2016

आओ खेलों की नाकामी पर ताली पीटें


खेलना-कूदना तो हर जीव जन्म से ही शुरू कर देता है। खेलों से न केवल शरीर सुगठित होता है बल्कि मानसिक स्फूर्ति भी बढ़ती है। खेलों से भाईचारा प्रगाढ़ होता है लेकिन अफसोस आजादी के 69 साल बाद भी भारत में खेल संस्कृति पल्लवित नहीं हो सकी है। कुछ बड़े खेल आयोजनों की सफलता को छोड़ दें तो सवा अरब की आबादी में एक दर्जन खिलाड़ी भी ऐसे नहीं हैं जिनकी अंतरराष्ट्रीय खेल पटल पर धाक हो। पुश्तैनी खेल हॉकी अर्श से फर्श पर है तो क्रिकेट भ्रष्टाचारियों के हाथ की कठपुतली। देश में राजनीति अन्य व्यवस्थाओं की तरह खेलों को भी चौपट कर रही है। पद और प्रतिष्ठा के चलते जिले से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक खेल संघों पर राजनीतिज्ञों का कब्जा है। सच्चाई यह है कि देश के सम्पूर्ण खेल संघ कांग्रेस और भाजपा के हाथों की कठपुतली हैं।
क्रीड़ांगन राजनीति का अखाड़ा बन गये हैं तो खिलाड़ियों के हक पर अनाड़ी डाका डाल रहे हैं। खिलाड़ियों को जहां चना-चिरौंजी नसीब नहीं वहीं खेलनहार काजू-बादाम उड़ाते हैं। हर बड़े खेल आयोजन से पूर्व दावे-प्रतिदावे परवान चढ़ते हैं लेकिन उपलब्धि के नाम पर भारत को एकाध पदक से ही संतोष करना पड़ता है। खेलों के अपयश की गाज हमेशा खिलाड़ियों पर गिरती है जबकि किसी खेलनहार ने स्वेच्छा से अपनी आसंदी शायद ही कभी छोड़ी हो। आज हर भारतीय के दिल में क्रिकेट राज कर रहा है। खिलाड़ी अधिकृत तौर पर नीलाम हो रहे हैं तो इनके ईमान की बोली भी खूब लग रही है। देश भर में सट्टेबाजी की जड़ें गहरा गई हैं तो दूसरी तरफ अपना पौरुष बढ़ाने और खेलों में कामयाबी का डंका पीटने के लिए खिलाड़ी शक्तिवर्धक दवाओं का बेजा इस्तेमाल करने से भी बाज नहीं आ रहे।
आजादी के बाद से भारत में खेल संस्कृति का उन्नयन तो नहीं हुआ अलबत्ता यहां सट्टेबाजी और डोपिंग ने अपनी जड़ें इतनी गहरे जमा ली हैं जिनको समूल उखाड़ फेंकना किसी के बूते की बात नहीं रही। मादक पदार्थों के इस्तेमाल के मामले में आज भारत रूस के बाद दूसरे स्थान पर है जबकि प्रदर्शन के मामले में उसका शीर्ष 20 देशों में भी शुमार नहीं है। पिछले पांच-छह साल में देश के छह सौ से अधिक खिलाड़ियों का डोपिंग में दोषी पाया जाना चिन्ता की बात है। अफसोस डोपिंग का यह कारोबार भारत सरकार की मदद से चल रहे साई सेण्टरों के आसपास धड़ल्ले से हो रहा है। खेलों में जब तब आर्थिक तंगहाली का रोना रोया जाता है जबकि केन्द्र सरकार प्रतिवर्ष 12 सौ करोड़ रुपये से अधिक खेलों पर निसार कर रही है। राज्य सरकारों के खेल बजट को भी यदि इसमें समाहित कर दिया जाए तो यह राशि कई गुना बढ़ जाती है। दरअसल भारत में खेल पैसे के अभाव में नहीं बल्कि लोगों की सोच में खोट के चलते दम तोड़ रहे हैं।
आजादी के बाद देश का मतदाता केन्द्र में 16 बार सरकार बना चुका है लेकिन इन हुकूमतों ने एक बार भी किसी खिलाड़ी को खेल मंत्री पद देना मुनासिब नहीं समझा, इसके अपने निहितार्थ हैं। दरअसल खेल संघों में सिर्फ कांग्रेसी ही नहीं बल्कि अमित शाह, विजय कुमार मल्होत्रा, अरुण जेटली, अनुराग ठाकुर, जनार्दन सिंह गहलोत, रमेश बैस, कैलाश विजयवर्गीय, रमन सिंह, सुमित्रा महाजन, अभिषेक मटोरिया, श्रीपद नायक, आमिन पठान आदि भाजपाई आज किसी न किसी खेल संघ में काबिज हैं लिहाजा किसी खिलाड़ी को खेल मंत्री बनाना इनके लिए कतई मुफीद नहीं होता।
भारतीय खेलों में पारदर्शिता लाने और खेल संघों से राजनीतिज्ञों को बेदखल करने के लिए पूर्व खेल मंत्री अजय माकन ने खेल विधेयक की पहल की थी, पर अधिकांश खेल संघों में काबिज कांग्रेस और भाजपा के पदाधिकारियों के दबाव के चलते माकन को अपनी आसंदी से हाथ धोना पड़ा था। खेल संघों में खिलाड़ियों की जगह पदाधिकारी बने राजनीतिज्ञों के प्रभाव को सिरे से खारिज करना किसी के लिए आसान बात नहीं होगी। खेलों को चुनौती खिलाड़ियों से नहीं बल्कि हमेशा उन अनाड़ियों से मिलती है जोकि कई दशक से खेल संघों में अपनी गहरी पैठ बनाए हैं।

खेलों का स्तर बेहतर करना बड़ी चुनौती है। दुनिया के नम्बर एक खेल फुटबाल, पुश्तैनी खेल हॉकी, तैराकी और एथलेटिक्स में भारतीय खिलाड़ियों का पिद्दी प्रदर्शन हमेशा मुंह चिढ़ाता है। फीफा विश्व कप भारत के लिए सपना बनकर रह गया है। दुनिया की दूसरी बड़ी आबादी वाला देश 32 श्रेष्ठ देशों की कौन कहे 100 में भी शुमार नहीं है। ओलम्पिक खेल करीब हैं लेकिन हमारे खिलाड़ी प्रतियोगिता में सहभागिता की जद्दोजहद में लगे हैं। भला हो अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक महासंघ का जिसने हर खेल के मानक तय कर रखें हैं वरना हम यहां भी सहभागिता का कीर्तिमान बनाने से नहीं चूकते। सच तो यह है कि दूसरों के लिए तालियां पीटना भारतीयों का शगल बन गया है। तो आओ एक बार फिर खेलों की नाकामी पर ताली पीटें।

क्या अब राज्यवर्धन सिंह राठौर होंगे देश के खेल मंत्री!

तेली का काम तम्बोली से आखिर कब तक
ग्वालियर। खण्डित जनादेश पर फतह हासिल करने के बाद भारतीय जनता पार्टी लोकतंत्र की सोलहवीं पारी नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में खेल रही है। उसके दो साल पूरे हो चुके हैं। यह ओलम्पिक वर्ष है। सर्बानंद सोनोवाल की असम के मुख्यमंत्री पद पर ताजपोशी हो गई है, ऐसे में हर खेलप्रेमी के मन में एक ही सवाल है कि क्या मोदी ओलम्पिक पदकधारी राज्यवर्धन सिंह राठौर को खेलमंत्री पद का दायित्व सौंपेंगे या एक बार फिर तेली का काम तम्बोली ही करेगा।
देखा जाए तो राजनीतिज्ञों को खेल मंत्रालय कभी रास नहीं आया,  इसे देखते हुए खिलाडिय़ों और खेलप्रेमियों के मन में है कि अब मोदी किसी और को नहीं बल्कि ओलम्पिक पदकधारी राज्यवर्धन सिंह राठौर को खेलमंत्री पद का दायित्व सौंपकर रियो ओलम्पिक से पहले अपनी शुचिता का परिचय दें। आजादी के बाद से भारतीय लोकतंत्र के चुनावी महासंग्राम में दर्जनों खिलाड़ी जीते हैं लेकिन आज तक कोई खिलाड़ी खेल मंत्री नहीं बना है। संसद और सरकार में खिलाडिय़ों को खास तवज्जो न मिलने के कारण ही मुल्क में खेल संस्कृति विकसित नहीं हो सकी है।
दुनिया के छोटे-छोटे देश जहां खेलों में विजय नाद कर रहे हैं वहीं बड़े खेल मंचों पर भारतीय खिलाड़ियों का प्रदर्शन हमेशा थू-थू करने वाला रहा है। ब्राजील में पांच से 21 अगस्त तक होने जा रहे 31वें ओलम्पिक खेलों की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है। सर्बानंद सोनोवाल का लक्ष्य इस बार 10 पदकों का रहा है लेकिन खिलाड़ियों के प्रदर्शन को देखते हुए नहीं लगता कि ऐसा हो पाएगा। इन खेलों में भारतीय खिलाड़ी अपना पिछला प्रदर्शन भी दोहरा पाएं तो बड़ी बात होगी।
देश की सोलहवीं संसद में भारतीय जनता पार्टी की तरफ से दो खिलाड़ी शूटर राज्यवर्धन सिंह राठौर और क्रिकेटर कीर्ति आजाद पहुंचे हैं। कीर्ति आजाद की साफगोई पार्टी को रास नहीं आई और वे फिलवक्त लूप-लाइन में हैं। जयपुर ग्रामीण सीट फतह करने वाले राज्यवर्धन सिंह राठौर अपने दायित्व का सलीके से निर्वहन कर रहे हैं बावजूद इसके यदि उन्हें खेलमंत्री का पद मिल जाए तो वह और बेहतर कर सकते हैं। अतीत पर नजर डालें तो उमा भारती भी अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में खेलमंत्री का दायित्व सम्हाल चुकी हैं। अटल बिहारी बाजपेयी के भांजे अनूप मिश्रा भी मुरैना फतह कर संसद पहुंचे हैं। श्री मिश्रा मध्यप्रदेश के खेल मंत्री रह चुके हैं। चूंकि आजाद भारत में खेल मंत्रालय को लेकर कभी किसी सरकार में कोई नूरा-कुश्ती नहीं हुई लिहाजा मौजूदा हालातों को देखते हुए खेल मंत्री के रूप में राज्यवर्धन सिंह राठौर से बेहतर कोई और नहीं हो सकता। प्रधानमंत्री मोदी को नजीर पेश करते हुए अब किसी अनाड़ी की जगह खिलाड़ी को ही खेल मंत्री बनाना चाहिए। यह फैसला देश और खेलहित में होगा।


Wednesday 25 May 2016

बाबू के गुनाह का अंत करीब


मंत्री के पीए ने कहा उसे गिरफ्तार करो
ग्वालियर। दस साल खेल एवं युवा कल्याण विभाग में सेवा का उसे ऐसा प्रतिफल मिलेगा, उसने सपने में भी नहीं सोचा था। एक बाबू की बदनीयती से आजिज वह न्याय की गुहार लगाने किस-किस के पास नहीं गई, लेकिन उस दुखियारी को हर चौखट पर न्याय के नाम पर कहीं साक्ष्य दिखाने तो कहीं नौकरी चले जाने का खौफ दिखाया गया। एक बाबू की बुरी नजर के बाद अब वह शायद ही मुरैना में रुके और खिलाड़ियों की प्रतिभा निखारे। यह किसी उपन्यास का सार नहीं बल्कि मुरैना में पदस्थ एक बाबू का अपने ही विभाग में पदस्थ महिला प्रशिक्षक से बदसलूकी का जीवंत और शर्मनाक उदाहरण है।
मुरैना में 24 साल से पदस्थ इस बाबू को होना तो छत्तीसगढ़ चाहिए लेकिन खेल विभाग की ही एक बड़ी तोप के रहमोकरम से वह लगातार नियम-कायदों का चीरहरण कर रहा है। इस बेखौफ बाबू की शिकायतें लगातार हो रही हैं। मीडिया में भी वह चर्चा में है। कई मीडियाकर्मियों ने जिला अधिकारी से भी इसकी करतूतें उजागर कीं लेकिन अभी तक जांच के नाम पर सिर्फ और सिर्फ लीपा-पोती हुई है। इस बाबू के संगी-साथियों की कही सच मानें तो यह हर किसी पर कुदृष्टि डालने की कुचेष्टा करता है, यहां तक कि उसकी नीयत नाबालिगों पर भी रहम नहीं खाती। पिछले ढाई महीने से एक महिला प्रशिक्षक इस बाबू की कारगुजारियां सुनाते-सुनाते तंग आ गई है। उसे कहीं से न्याय की उम्मीद नजर नहीं आ रही। इस मामले में खेल विभाग के उच्चाधिकारियों का रवैया भी कई सवालों को जन्म देता है।
देखा जाए तो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और खेल मंत्री यशोधरा राजे सिंधिया ने मध्यप्रदेश में खेलों के कायाकल्प की दिशा में सराहनीय कार्य किये हैं लेकिन विभाग के ही कुछ कपूतों ने महिला प्रशिक्षकों का जीना दूभर करने में कोई कोताही नहीं बरती। इसी वजह से अब तक लगभग एक दर्जन महिला प्रशिक्षकों का विभाग से मोहभंग हो चुका है। महिला प्रशिक्षकों ने जब-जब कदाचरण के आरोप लगाए, उन्हें न्याय मिलने के बजाय विभाग से ही विदा होना पड़ा। मुरैना का यह मामला भी कुछ उसी दिशा में जाता दिख रहा है। सोचने वाली बात है कि कोई शादीशुदा महिला किसी पर झूठा आरोप क्यों लगाएगी।

सैयां भये कोतवाल तो डर काहे का। कुछ इसी तर्ज पर यह बाबू भोपाल में बैठे एक उच्च पदाधिकारी के उच्चस्तरीय मैनेजमेंट से न केवल बच रहा है बल्कि हर किसी को ठेंगा दिखाने से भी बाज नहीं आ रहा। कहते हैं कि एक न एक दिन पाप का घड़ा जरूर भरता है लेकिन शायद इस बाबू के पाप के घड़े में अभी कुछ बूंदें खाली हैं। जो भी हो इस प्रकरण की भनक अब मंत्री से संचालक तक होने के बाद पाप का घड़ा किसी दिन भी फूट सकता है। सूत्रों की कही सच मानें तो मंत्री के पी.ए. ने इस बाबू को तत्काल गिरफ्तार करने तो खेल विभाग के ही एक आलाधिकारी ने इसे छत्तीसगढ़ भेजने को कहा है। यह बाबू अपने बचाव के लिए विभागीय कर्मियों सहित अपनी ही बिरादरी के एक विधायक से मिन्नतें कर रहा है। इस प्रकरण में बेहतर होगा बाबू का तबादला कर निष्पक्ष जांच हो ताकि दूध का दूध और पानी का पानी हो सके। इस बाबू के मददगारों की अपनी मजबूरी है। उन्हें पता है कि इसका साथ न दिया तो फर्जी दस्तावेजों से मिली उनकी नौकरी कभी भी जा सकती है।

ग्वालियर-चम्बल का रिंग मास्टर



तरनेश तपन ने जगाई बाक्सिंग की अलख
ग्वालियर। मध्यप्रदेश में बाक्सिंग के वैसे तो बहुत सारे प्रशिक्षक प्रतिभा निखारने का दम्भ भरते हैं लेकिन बिना संसाधनों के ग्वालियर-चम्बल सम्भाग ने यदि किसी ने बाक्सिंग की अलख जगाई है तो वह शख्स है रियल हीरो अवार्डी तरनेश तपन। यह अतिश्योक्ति नहीं हकीकत है। बाक्सिंग के क्षेत्र में जो काम तरनेश तपन ने किया है उसका दूसरा उदाहरण मिलना कठिन है। विद्युत विभाग में कार्यरत इस शख्स ने एक दशक में ही सैकड़ों ऐसी प्रतिभाएं दीं जिन पर मध्यप्रदेश गर्व कर सकता है।
खेलप्रेमियों को यह जानकर हैरानी होगी कि एक समय ग्वालियर-चम्बल सम्भाग में मुक्केबाजी का कोई नाम लेवैया भी नहीं था। लोग जानते भी नहीं थे कि आखिर मुक्केबाजी क्या बला है। ऐसे समय में बाक्सिंग को धरातल देने का सपना तरनेश तपन ने देखा। वह स्वयं भी कोई बाक्सर नहीं थे और न ही उन्हें इस खेल की एबीसी मालूम थी। प्रतिभाओं को हुनरमंद बनाने से पहले इस शख्स ने इस खेल की बारीकियों को स्वयं आत्मसात किया उसके बाद की कहानी सबके सामने है। आज बाक्सिंग के क्षेत्र में ग्वालियर प्रतिभाओं की खान है। यहां की बेटियों ने रिंग में नित नए आयाम स्थापित किये हैं। वे आज मध्यप्रदेश ही नहीं मुल्क में बाक्सिंग की पहचान हैं। प्रियंका और प्रीति सोनी बहनों की शानदार सफलता ने तरनेश जी को न केवल आत्मबल प्रदान किया बल्कि उन्होंने इस खेल को ही अपनी धड़कन मान लिया।
अंचल को बाक्सिंग में अब तक आधा दर्जन एकलव्य देने वाले तरनेश तपन वाकई ग्वालियर अंचल के अनूठे रिंग मास्टर हैं। सोते-जगते उन्हें सिर्फ और सिर्फ बाक्सिंग से वास्ता है। खेल संगठनों की ओपन प्रतियोगिताएं हों या फिर स्कूल नेशनल हर तरफ उनसे प्रशिक्षण प्राप्त प्रतिभाएं अपने दमदार मुक्कों से ग्वालियर का नाम रोशन कर रही हैं। तरनेश जी से गुर सीखने वाले बाक्सर सिर्फ मुल्क ही नहीं मुल्क से बाहर भी अपने मुक्कों की ताकत का अहसास करा रहे हैं। सर्बिया में तरनेश तपन की शिष्या अंजली शर्मा ने भारत का प्रतिनिधित्व कर न केवल रजत पदक जीता बल्कि ग्वालियर के भाल पर गौरव का टीका लगा दिया। मुझे आज भी उदीयमान बाक्सरों की दो लाइनें तरनेश जी की अथक मेहनत का ही प्रतिफल नजर आती हैं। हम तरनेश तपन के चेले हैं, मार-मार कर खेले हैं। इन शब्दों में उस हकीकत का सम्पुट है, जिसे तरनेश तपन जी हर पर जीते हैं। मैं इस शख्स से जब भी मिला उसमें भारतीय मुक्केबाजी को लेकर एक तड़प सी दिखी। भारतीय मुक्केबाजी संघ के अंदरखाने जो भी चल रहा हो यह शख्स बाक्सरों के नुकसान को लेकर काफी व्यथित है। तरनेश जी की मुक्केबाजी को लेकर वेदना वाजिब भी है। आखिर मेहनत का फल तो हर प्रशिक्षक का अधिकार है।
रिंग में की गई तरनेश जी की मेहनत और तपस्या कभी अकारथ न जाए इसी दुआ के साथ उन्हें मेरी हार्दिक शुभकामना, जयहिन्द।

Monday 23 May 2016

मिसाल बनी अरुणिमा

एक कटी टांग से विश्व की पांच पर्वत चोटियों पर फहरा चुकी हैं तिरंगा
महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने चला रही हैं पांच सिलाई-कढ़ाई सेण्टर 
अरुणिमा सिन्हा ने अपने अदम्य साहस और हौसले से दुनिया को जता दिया कि यदि मनुष्य मन में ठान ले तो असम्भव कोई चीज नहीं है। अरुणिमा सिन्हा आज उन लोगों का रोल माडल हैं जोकि मन से हार मान चुके थे। उन्हें अपना जीवन बोझिल सा लगने लगा था। अरुणिमा ने अपनी एक टांग से ही एवरेस्ट पर तिरंगा फहराकर जो मिसाल कायम की है, वह अपने आपको सक्षम मानने वालों के लिए भी किसी चुनौती से कम नहीं है।
कहते हैं हवा के अनुकूल चलने वाला जहाज कभी बन्दरगाह नहीं पहुंचता। प्रतिकूल परिस्थितियों में जो अपने लक्ष्य से विचलित नहीं होता सफलता उसी के कदम चूमती है। कृत्रिम पैर के सहारे हिमालय की सबसे ऊॅंची चोटी 'माउंट एवरेस्ट' फतह कर उत्तर प्रदेश के अम्बेडकर नगर का नाम रोशन करने वाली अरुणिमा सिन्हा कहती हैं, मेरा कटा पांव मेरी कमजोरी था। उसे मैंने अपनी ताकत बनाया।
बास्केटबॉल खिलाड़ी अरुणिमा को ११ अप्रैल, २०११ की वह काली रात आज भी याद आती है, जब पद्मावत एक्सप्रेस से वह दिल्ली जा रही थीं। बरेली के पास कुछ अज्ञात बदमाशों ने उनके डिब्बे में प्रवेश किया। अरुणिमा को अकेला पाकर वे उनकी चेन छीनने लगे। छीना-झपटी के बीच बदमाशों ने उन्हें ट्रेन से नीचे फेंक दिया। जिससे उनका बायां पैर कट गया। लगभग सात घण्टे तक वे बेहोशी की हालत में तड़पती रहीं। इस दौरान दर्जनों ट्रेने गुजर गईं। सुबह टहलने निकले कुछ लोगों ने जब पटरी के किनारे अरुणिमा को बेहोशी की हालत में पाया तो तुरंत अस्पताल पहुंचाया। जब मीडिया सक्रिय हुआ तो अरुणिमा को दिल्लीी के एम्सा में भर्ती कराया गया। एम्स में इलाज के दौरान उनका बायां पैर काट दिया गया। तब लगा बास्के टबॉल की राष्ट्रीय स्तौर की खिलाड़ी अरुणिमा अब जीवन में कुछ नहीं कर पायेगी। लेकिन उसने जि़न्दगी से हार नहीं मानी। अरुणिमा की आंखों से आंसू निकले, लेकिन उन आंसुओं ने उन्हें  कमजोर करने के बजाये साहस प्रदान किया और देखते ही देखते अरुणिमा ने दुनिया के सबसे ऊंचे शिखर माउंट एवरेस्ट  पर चढ़ने की ठान ली।
अरुणिमा ने ट्रेन पकड़ी और सीधे जमशेदपुर पहुंच गईं। वहां उन्हों ने एवरेस्ट फतह कर चुकी बछेंद्री पाल से मुलाकात की। फिर तो मानो उनके पर से लग गये। प्रशिक्षण पूरा करने के बाद ३१ मार्च को उनका मिशन एवरेस्ट शुरू हुआ। ५२ दिनों की इस चढ़ाई में २१ मई को माउंट एवरेस्ट पर तिरंगा फहराकर वे विश्व की पहली विकलांग पर्वतारोही बन गईं। अरुणिमा का कहना है विकलांगता व्यक्ति की सोच में होती है। हर किसी के जीवन में पहाड़ सी ऊंची कठनाइयां आती हैं, जिस दिन वह अपनी कमजोरियों को ताकत बनाना शुरू करेगा हर ऊॅंचाई अपने आप बौनी हो जायेगी।
आज अरुणिमा सिन्हा हिमालय की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट पर तिरंगा लिए नीले आसमान को निहार रही थी। जहां पहुंचने के लिए शारीरिक रूप से सक्षम लोग पचास बार सोचते हैं, अरुणिमा सिन्हा वहीं खड़ी थी- एक पैर के साथ।  अपने अदम्य साहस से उन्होंने वह कर दिखाया है जो बाकी लोगों के लिए सपना भर हो सकता है। विश्व की एकमात्र महिला विकलांग एवरेस्ट विजेता अरुणिमा सिन्हा को राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने तेंजिंग नॉर्गे अवॉर्ड से सम्मानित किया है, वहीं उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने उन्हें यश भारती से सम्मानित किया।
अरुणिमा ने रेल हादसे में अपना एक पैर गंवाने के बाद भी साहस और संघर्ष की वह गाथा लिखी है जोकि हम सभी के लिए प्रेरक और गौरवान्वित करने वाली है। अरुणिमा सिन्हा आज देश ही नहीं विदेश में भी एक जाना-पहचाना चेहरा बन चुकी हैं। अरुणिमा  अब तक एवरेस्ट समेत विश्व की पांच पर्वत चोटियों पर तिरंगा फहरा चुकी हैं। अम्बेडकर नगर के पंडा टोला निवासी अरुणिमा सिन्हा बताती हैं- वह दिन मेरी जिंदगी का सबसे भारी दिन था। बरेली रेलवे स्टेशन पर घटे उस हादसे ने मुझे बेहद लाचार बना दिया था। पिता का साया बचपन से ही उठ चुका था। मां ने बेहद आर्थिक तंगी में रहकर मेरी बड़ी बहन, मुझे और छोटे भाई को पाला था। हालांकि अब लगता है, अगर यह हादसा मेरे साथ नहीं बीता होता तो मैं शायद इतनी ऊंचाई तक नहीं पहुंच पाती। दरअसल, इस हादसे ने मेरे अंदर के हौसले को जगा दिया।
मैंने इसके लिए ट्रेनिंग हासिल की। हिमालय की एक चोटी पर फतह पाने के बाद तो मेरा हौसला बुलंद होता गया।  अरुणिमा बताती हैं, मेरी मां का निधन हो चुका है, लेकिन खुश हूं कि मां ने मेरी सफलता को देखा, हालांकि अफसोस है कि पिता मेरी कामयाबी नहीं देख पाए। विश्व की पांच चोटियों पर अपने अदम्य साहस का परचम लहराकर मिसाल बन चुकी अरुणिमा सिन्हा ने सात चोटियों पर चढ़ने का संकल्प लिया था। इनमें से बीते वर्ष १५ अगस्त को करीब १७ हजार फीट ऊंचाई वाले स्विट्जरलैंड के रोसा पर्वत की चोटी पर वे तिरंगा फहराने के साथ पांच चोटियों पर सफलतापूर्वक चढ़ने का गौरव हासिल कर चुकी हैं। अरुणिमा ९ अगस्त को स्विट्जरलैंड पहुंची थी। अपने गाइड ओलावियर के साथ ट्रेनिंग और स्थलीय जानकारी लेने के बाद १३ अगस्त को उन्होंने चढ़ाई शुरू की। इस दौरान उन्हें अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। मौसम विपरीत रहा लेकिन उन्होंने अपने साहस को नहीं छोड़ा और चलती रहीं।
पद्म श्री सम्मान हासिल करने के बाद बीते वर्ष २९ अगस्त को राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने अरुणिमा को तेंजिंग नॉर्गे अवार्ड से सम्मानित किया।  अरुणिमा के भाई राहुल सिन्हा ने बताया कि उसे अपनी बहन के साहस और सफलता पर नाज है। उसने अपने साधारण परिवार को खास बना दिया है।
आगे और क्या? इस सवाल पर अरुणिमा सिन्हा कहती हैं, मैं महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में पांच सिलाई-कढ़ाई सेण्टर चला रही हूं। पंडाटोला, मिझौड़ा, पहितीपुर, सोनगांव तथा डढ़िया में लड़कियों व महिलाओं को मुफ्त सिलाई कढ़ाई व डिजाइनिंग का प्रशिक्षण दिया जाता है। इसका मकसद महिलाओं का जीवन स्तर सुधारना है। मैं चाहती हूं कि वे सबल बनें, साहसी बनें।
अरुणिमा सिन्हा की कहानी उनकी ही जुबानी
प्रश्न- एवरेस्ट फतह करने का मन आपने कब और क्यों बनाया?
उत्तर- ट्रेन हादसे में हमने अपना पैर गंवा दिया था। अस्पताल में बिस्तर पर बस पड़ी रहती थी। परिवार के सदस्य, मेरे अपने मुझे देखकर पूरा दिन रोते, हमें सहानुभूति की भावना से अबला व बेचारी कहकर सम्बोधित करते। यह मुझे मंजूर न था। पर मुझे जीना था, कुछ करना था। मैंने मन ही मन कुछ अलग करने की ठानी जो औरों के लिए एक मिसाल बने।
प्रश्न- क्या परिस्थितियां थीं उस समय? 
उत्तर- मूलतः हम बिहार के रहने वाले थे। पिताजी फौज में थे जिस कारण हम लोग सुल्तानपुर आ गये। चार वर्ष की उम्र में पिता का स्वर्गवास हो गया। मां के साथ हम अम्बेडकर नगर पहुंचे वहां उन्हें स्वास्थ्य विभाग में नौकरी मिल गई। पर परिवार को चलाना अब भी मुश्किल था। फिर भी इण्टर के बाद एलएलबी की पढ़ाई की। खेलों में रुझान होने के कारण राष्ट्रीय स्तर पर वॉलीबाल व फुटबाल में कई पुरस्कार जीते, लेकिन कुछ खास हाथ न लग सका। पर मेरा एक सपना था कुछ अलग करने का।
प्रश्न- क्या वह भयानक ट्रेन हादसा आज भी याद आता है? 
उत्तर- वह रात मैं सारी उम्र नही भूल सकती। मैं दिल्ली जा रही थी। रात के लगभग दो बजे थे। चारों ओर सन्नाटा था कब मेरी आंख लगी कुछ पता न चला। तभी बरेली के पास कुछ बदमाश गाड़ी पर चढ़े। अकेला जान वे मेरी चेन छीनने लगे, मैंने भी डटकर उनका सामना किया। झपटा-झपटी के बीच उन लोगों ने मुझे ट्रेन से नीचे फेंक दिया। जिससे मेरा बांया पैर कट गया।
प्रश्न- बछेन्द्रीपाल से आपने ट्रेनिंग ली, कैसे पहुंचीं उन तक? 
उत्तर- एम्स में इलाज के दौरान ही मैंने बछेन्द्रीपाल जी का मोबाइल नम्बर इण्टरनेट से प्राप्त किया। उनसे मैंने अपनी पूरी कहानी बतायी और कहा मैं एवरेस्ट पर चढ़ना चाहती हूं। उन्होंने मुझे जमशेदपुर बुलाया। फिर क्या था अगले ही पल मैं वहां थी। दो वर्ष तक मैंने उनसे ट्रेनिंग ली।
प्रश्न- हिमालय की चढ़ाई के दौरान कैसी चुनौतियां थीं? 
उत्तर- ५२ दिनों की यात्रा हर पल रोमांच-खतरों और हौसलों की कहानी से भरी थी सबसे मुश्किल क्षण डेथ जोन एरिया खम्बू आइसलैण्ड का था। बर्फ की चट्टानों पर चढ़ाई करनी थी। सिर पर चमकता सूरज था। कब कौन सी चट्टान पिघल कर गिर जाए, अंदाजा लगाना मुश्किल था।
प्रश्न- माउंट एवरेस्टय पर लाशें देख कैसा लगा? 
उत्तर- जब मैं माउंट एवरेस्ट‍ पर चढ़ रही थी तभी पहले उसे पार करने की कवायद कर चुके आधा दर्जन से ज्यादा पर्वतारोहियों की सामने पड़ी लाशें रोंगटे खड़ी कर देती थीं। कभी बर्फ उन्हें ढंक देती कभी हवा के झोंके उन पर ढंकी बर्फ हटा देते। ऐसे मंजर का सामना मुश्किल था, लेकिन नामुमकिन नहीं।
प्रश्न- सब कह रहे थे वापस आ जाओ, फिर क्याम हुआ? 
उत्तर- पर्वत पर चुनौतियों का सामना करना बहुत मुश्किल था। पर धैर्य नहीं खोया। इसी बीच मेरा आक्सीजन सिलेण्डर खत्म हो गया था। कैम्प से मेरे पास फोन आ रहे थे अरुणिमा तुम वापस आ जाओ जहां तक तुम पहुंची हो वो भी एक रिकार्ड है। पर मैंने तो मन्जिल को पाने की ठानी थी बीच से वापस कैसे आ जाती।
प्रश्न- युवाओं को आप क्या संदेश देना चाहेंगी? 
उत्तर- मैं बस इतना कहना चाहती हूं कि परिस्थितियां बदलती रहती हैं। पर हमें अपने लक्ष्य से भटकता नहीं चाहिये बल्कि उनका सामना करना चाहिये। जब मैं हॉकी स्टिक लेकर खेलने जाती तो मोहल्ले के लोग मुझ पर हंसते थे मेरा मजाक उड़ाते थे। शादी हुई और फिर तलाक पर मैंने हार नहीं मानी। बड़ी बहन व मेरी मां ने मेरा साथ दिया। हादसे के बाद मेरे जख्मों को कुरेदने वाले बहुत थे पर मरहम लगाने वाले बहुत कम। इतना कुछ होने के बाद भी मैंने अपने लक्ष्य को पाने के लिए पूरा जोर लगा दिया। अन्ततः मुझे सफलता मिली।


Saturday 21 May 2016

मोदी जी दिव्यांगों का कल्याण कैसे




कुछ महीने पहले की ही बात है जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने मन की बात में निःशक्तजनों को एक अच्छा नाम दिव्यांग देकर यह जताने की कोशिश की थी कि मुल्क अपनी पांच फीसदी आबादी को लेकर काफी संवेदनशील है। मोदी जी को शायद ही यह बात पता हो कि देश में लगभग सवा छह करोड़ दिव्यांग उचित परवरिश और अपने अधिकारों से वंचित हैं। बावजूद इसके देश के चार राज्यों उत्तर प्रदेशए उड़ीसाए तमिलनाडु और कर्नाटक में ही दिव्यांगों से संबंधित मामलों के लिए अलग से विभाग का सृजन किया गया है। इतना ही नहीं 36 राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों में से 19 राज्यों में ही दिव्यांगों के लिए स्वतंत्र राज्य आयुक्त कार्य कर रहे हैंए जबकि शेष 17 राज्यों में इस पद का प्रभार अलग.अलग हाथों में है या फिर कुर्सी खाली है। समुचित सुविधाओं के अभाव में जी रही सवा छह करोड़ आबादी की पैरोकारी के लिए राजनीतिक दल बेशक बेसुरा राग अलापें लेकिन इनके जीवन.यापन की स्थिति बेहद चिन्तनीय है। देखा जाए तो हर क्षेत्र में इन दिव्यांगों ने सशक्तों के मुकाबले मादरेवतन का मान बढ़ाने में कोई कमी नहीं छोड़ी हैए पर वे अपने उन अधिकारों से वंचित हैं जोकि उन्हें बिना कठिनाई के मिल जाना चाहिए। मोदी जी नाम बदल देने से दिव्यांगों की पीड़ा कम नहीं होगी। यदि आप वाकई दिव्यांगों की भलाई के लिए संजीदा हैं तो प्रत्येक राज्य में इनके लिए अलग से विभाग गठित कर देना चाहिए। जब हर राज्य में इनके लिए अलग से विभाग होगा तो मुमकिन है इन्हें योजनाओं का लाभ कुछ अधिक मिलेगा।
52 दिन में एवरेस्ट पर चढ़ी थी दिव्यांग अरुणिमा
एवरेस्ट के मिथक को तोड़ने वाली अरुणिमा सिन्हा विकलांगता का दंश झेल रही बेटियों के लिए उम्मीद और भरोसे की सुनहरी किरण साबित हुई हैं। दुनिया की सबसे ऊंची चोटी पर फतह हासिल करने वाली अरुणिमा ने यह चढ़ाई एक कृत्रिम पैर के सहारे 52 दिन में पूरी की थी। 12 अप्रैल 2011 को लखनऊ से दिल्ली जाते समय कुछ अपराधियों ने बरेली के निकट पदमवाती एक्सप्रेस से अरुणिमा को बाहर फेंक दिया थाए जिसके कारण वह अपना पैर गंवा बैठी थी। 2013 में अरुणिमा माउंट एवरेस्ट पर तिरंगा फहराकर वे विश्व की पहली विकलांग पर्वतारोही बन गईं।
दीपा मलिक -एथलीट
अर्जुन अवॉर्ड से सम्मानित दीपा तैराकीए शॉटपुटए डिस्क व जैवलिन थ्रो जैसे खेलों में अब तक 42 स्वर्ण पदक जीत चुकी हैं। बचपन से ही उन्हें कमजोर पैरों की शिकायत थी। 36 की उम्र में तीन ट्यूमर सर्जरी और शरीर का निचला हिस्सा सुन्न हो जाने के बावजूद उन्होंने न केवल शॉटपुट एवं जैवलिन थ्रो जैसी विधाओं में राष्ट्रीय.अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुई प्रतियोगिता में पदक जीते हैंए बल्कि तैराकी एवं मोटर रेसलिंग स्पर्धाओं में भी हिस्सा लिया है। वर्ष 2008 तथा 2009 में उन्होंने यमुना नदी में तैराकी तथा स्पेशल बाइक सवारी में भाग लेकर दो बार लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में अपना नाम दर्ज कराया। 2011 में वे पहली ऐसी महिला बनीं जिन्होंने शारीरिक असमर्थता के बावजूद लेह.लद्दाख के सबसे ऊंचाई वाले 3000 किलोमीटर लम्बे रास्तों को 10 दिन में ड्राइव करते हुए पार किया। इसके लिए भी उनका नाम लिम्का बुक में दर्ज किया गया।
साधना ढांड -फोटोग्राफर
छत्तीसगढ़ की ये चित्रकार अब तक 80 फ्रैक्चरों का सामना कर चुकी है और ऑस्ट्रियोपॉरेसिस जैसी गंभीर बीमारी से आज भी जूझ रही हैं। 12 वर्ष की उम्र में इन्होंने सुनने की ताकत खो दी और पैरों से भी निरूशक्त हो गईं। इन सबके साथ जिंदगी की तमाम चुनौतियों से लड़ते हुए उन्होंने पेंटिंगए शिल्पकला तथा फोटोग्राफी के क्षेत्र में सुकून तलाशाए जिसके लिए 2012 में उन्हें रोल मॉडल की श्रेणी में राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1982 से अब तक वे लगभग 20 हजार से भी अधिक छात्रों को प्रशिक्षण दे चुकी हैं।
के. जेनिथा अटू -शतरंज चैम्पियन
तमिलनाडु की केण्जेनिथा अटू ने अक्टूबर 2015 में विकलांगों के वर्ग में विश्व शतरंज चैम्पियनशिप मंए तीसरी बार स्वर्ण पदक के साथ जीत हासिल की। इसके लिए उन्हें आईपीसीए महिला शतरंज खिताब से सम्मानित किया गया। जेनिथा को तीन वर्ष की उम्र में पोलियो हो गया था। 9 वर्ष की उम्र में उनके पिता ने उनका पहली बार शतरंज से परिचय कराया। शरीर का 90 फीसदी हिस्सा असक्रिय है। उनका बायां हाथ ही सही चल पाता हैए जिससे वे खेलती हैं। जेनिथा ने बीकॉम किया है। वो लगातार तीन साल से चैम्पियनशिप जीत रही हैं और आगे वे इसमें ही फोकस करना चाहती हैं।
बेनो जेफीन -विदेश सेवा अधिकारी
शत प्रतिशत रूप से नेत्रहीन होने के बावजूद बेनो जफीन वर्ष 2015 में भारत के विदेश सेवा विभाग में अधिकारी बनी हैं। विदेश मंत्रालय के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि किसी पूर्ण रूप से नेत्रहीन व्यक्ति को अधिकारी पद पर नियुक्ति मिली है। इससे पहले जेफीनए भारतीय स्टेट बैंक में प्रोबेनशरी ऑफिसर के पद पर काम कर रही थीं। वह 2008 में अमेरिका में आयोजित ग्लोबल यंग लीडर्स कांफ्रेंस में हिस्सा ले चुकी हैं। अपनी नियुक्ति पर उन्होंने कहा था कि मेरे पास दृष्टि नहीं थीए लेकिन सिविल सेवा में जाने की दृष्टि मेरे पास थीए जिसने मुझे यहां पहुंचा ही दिया।
इरा सिंघल -यूपीएससी टॉपर
इरा सिंघल 2014 की सिविल सर्विसेज परीक्षा में टॉपर रही हैं। 32 साल की इरा ने स्कॉलोसिस बीमारी को अपनी राह में कभी बाधा नहीं बनने दिया। इरा ने दिल्ली के एफएमएस से एमबीए करने के बाद कैडबरी कम्पनी में मैनेजर के पद पर काम किया। इससे पहले वे 2010 में भारतीय राजस्व सेवा में चयनित हुई थींए लेकिन उनकी विकलांगता को कारण बताते हुए नियुक्ति नहीं दी गई थी। इस फैसले के विरोध में इरा ने ष्सेंट्रल एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनलष् में केस दर्ज कराया और चार साल बाद आखिर इरा को जीत मिलीए जिससे दूसरे विकलांग प्रतियोगियों के लिए भी रास्ते खुले।





Thursday 19 May 2016

मध्यप्रदेश राज्य महिला हाकी एकेडमी के साथ हाकी इण्डिया का भेदभाव



                         
आठ सर्वश्रेष्ठ हाकी बेटियों के चेहरे मायूस
                                   श्रीप्रकाश शुक्ला
ग्वालियर। अंधा बांटे रेवड़ी चीन्ह-चीन्ह कर देय। जी हां, हाकी इण्डिया की कार्यप्रणाली कुछ इसी तरह की है। देश में महिला हाकी के उत्थान को संकल्पित मध्यप्रदेश खेल एवं युवा कल्याण विभाग के साथ हाकी इण्डिया लगातार भेदभाव कर रही है। जिस जूनियर इण्डिया कैम्प में मध्यप्रदेश राज्य महिला हाकी एकेडमी की 18 बेटियां होनी थीं, वहां सिर्फ 10 को मौका मिला है। इसे दुर्भाग्य कहें या षड्यंत्र आठ उन सर्वश्रेष्ठ हाकी बेटियों को शिविर में प्रतिभाग का मौका नहीं मिला जोकि टीम इण्डिया में प्रवेश की काबिलियत रखती हैं।
हाकी इण्डिया द्वारा 20 मई से बेंगलूरु में लगाए जा रहे जूनियर इण्डिया कैम्प में ग्वालियर एकेडमी की 10 बेटियों को जगह मिली है। इस शिविर को लेकर हाकी इण्डिया से चूक हुई है या फिर कोई और बात, देश की आठ सर्वश्रेष्ठ हाकी बेटियों के चेहरे मायूस हैं। हाकी इण्डिया ने एक माह के जूनियर इण्डिया कैम्प में एकेडमी की जिन 10 बेटियों को प्रतिभाग का मौका दिया है, उनमें ग्वालियर की जूनियर अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी करिश्मा यादव के साथ ही मध्यप्रदेश की श्यामा तिड़गम, दिव्या थेपे, अनुजा सिंह, बृजनंदिनी धूरिया, मीना और सोनम तिवारी शामिल हैं। चंचल, सरिता देवी और नूतन टोपनो बेशक अन्य राज्यों की हों लेकिन इनकी हाकी पाठशाला ग्वालियर एकेडमी ही है।
देखा जाए तो इस जूनियर इण्डिया कैम्प को लेकर हाकी इण्डिया द्वारा आनन-फानन में किए गये खिलाड़ी बेटियों के नामों की घोषणा में मध्यप्रदेश एकेडमी की सर्वश्रेष्ठ हाकी बेटियों को ही नजरअंदाज कर दिया गया है। इनमें ग्वालियर की इशिका चौधरी, नेहा सिंह, प्रतिभा आर्य, भोपाल की सीमा वर्मा, नीलू, उपासना सिंह, ज्योति पाल और सुमन देवी शामिल हैं। इन बेटियों की प्रतिभा का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इन्होंने बीते महीने बेंगलूरु में ही खेली गई सीनियर महिला हाकी प्रतियोगिता में उड़ीसा को 2-1 से पराजित कर कांस्य पदक जीता था। ग्वालियर की इशिका चौधरी ने तब विजयी गोल दागा था। इस प्रतियोगिता में ग्वालियर एकेडमी की जूनियर खिलाड़ियों को उतारा गया था। सीनियरों पर जूनियर खिलाड़ियों का पराक्रमी प्रदर्शन कम से कम उन्हें जूनियर इण्डिया कैम्प में प्रवेश के लिए काफी था लेकिन यह हाकी बेटियां हाकी इण्डिया के भेदभाव का शिकार हो गईं। सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी बेटियों को नजरअंदाज करने के पीछे की मंशा, इन्हें टीम इण्डिया में प्रवेश से रोकना है।
हाकी इण्डिया द्वारा मध्यप्रदेश महिला हाकी एकेडमी की बेटियों से की गई उपेक्षा का यह कोई पहला मौका नहीं है। इससे पहले भी जब-जब शिविर लगे प्रतिभाशाली खिलाड़ियों को तवज्जो मिलने की बजाय कोटा सिस्टम से ही काम चलाया गया। 36 साल बाद रियो ओलम्पिक खेलने जा रही भारत की बेटियों के चयन में भी भेदभाव होने से इंकार नहीं किया जा सकता।
अन्याय के खिलाफ चुप्पी क्यों
मध्यप्रदेश महिला हाकी एकेडमी की बेटियों से लगातार हो रहे भेदभाव पर हर कोई चुप्पी साधे है। दरअसल, हाकी इण्डिया के खिलाफ आवाज न उठाने की वजह है उसका हिटलरशाही रवैया। आज तक जिसने भी हाकी इण्डिया के खिलाफ आवाज बुलंद करने का दुस्साहस दिखाया उसे न केवल मुंह की खानी पड़ी बल्कि बत्रा ने उसका पत्रा सदा के लिए बंद कर दिया। सच्चाई तो यह है कि हाकी इण्डिया के पास इस खेल की बेहतरी का कोई फार्मूला नहीं है। राज्यों के किए-धरे पर ही हाकी इण्डिया अपनी हुकूमत चला रही है। बत्रा के कार्यकाल में उन लोगों का ही नुकसान अधिक हुआ है जोकि इस खेल के जानकार हैं। हाकी इण्डिया के नियम-कायदों से तो हर कोई आजिज है लेकिन बिल्ली के गले में घण्टी बांधने से हर कोई डरता है।
यशोधरा राजे सिंधिया ने एक दशक में ही बदल दी तस्वीर
देखा जाए तो एक दशक में ही मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार के खेल एवं युवा कल्याण विभाग ने महिला हाकी के उत्थान की दिशा में जो मील का पत्थर स्थापित किया है, वह काम तो भारतीय हाकी महासंघ से लेकर हाकी इण्डिया तक अपने कार्यकाल में नहीं कर सके। 31 मार्च, 2006 को जिला खेल परिसर कम्पू में ग्वालियर की बेटी और खेल मंत्री यशोधरा राजे सिंधिया ने प्रदेश में महिला तथा पुरुष हाकी एकेडमियां खोलने की न केवल घोषणा की बल्कि उसी साल जुलाई माह में ग्वालियर में महिला हाकी एकेडमी खोल दी गई। देश की कोई 21 प्रतिभाशाली बेटियों से खुली एकेडमी आज मुल्क की शान है। इस एकेडमी ने देश को अब तक तीन दर्जन से अधिक खिलाड़ी बेटियां देकर यही सिद्ध किया है कि मध्यप्रदेश ही भारतीय महिला हाकी का असल पालनहार है।


Wednesday 18 May 2016

हाकी का करिश्मा


ऐसे बनी ग्वालियर-चम्बल सम्भाग की पहली अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी

         पहले परिवार का दिल जीता, फिर किया मैदान फतह
ग्वालियर। मां-बाप नहीं चाहते थे कि उनकी बेटी हाकी को हाथ लगाए। उन्हें डर था उस समाज का जोकि बेटियों के खिलाड़ी बनने के हमेशा खिलाफ रहा है। लेकिन मेहरा गांव की यदुवंशी बेटी तो ऐसा कुछ कर गुजरने को बेताब थी जोकि घर-परिवार ही नहीं कालांतर में अंचल से भी किसी ने न किया हो। हाकी न खेलने की मनाही पर वह बीमार भी हो गई। बेटी की जिद और जुनून के आगे पहले तो सामाजिक परम्पराएं टूटीं उसके बाद वह मिथक भी टूट गया जिसे ग्वालियर-चम्बल सम्भाग में कभी नामुमकिन करार दिया गया था। हम बात कर रहे हैं हाकी के उस करिश्मा की जिसे आज टीम की रीढ़ की हड्डी कहा जाता है।
सेण्टर हाफ करिश्मा यादव ने दर्पण मिनी स्टेडियम से न्यूजीलैण्ड तक का सफर किसी गाड फादर के रहमोकरम से नहीं बल्कि अपनी जीतोड़ मेहनत और काबिलियत से हासिल किया है। वह एक बार फिर जूनियर इण्डिया कैम्प में शिरकत करने बेंगलूरु रवाना हो चुकी है। उसके साथ नौ और हाकी बेटियां भी अपना खेल निखारने गई हैं लेकिन हाकी जानकारों की कही सच मानें तो जो बात करिश्मा में है, वह दूसरी लड़कियों में दूर-दूर तक नजर नहीं आती। करिश्मा के प्रथम हाकी गुरु अविनाश भटनागर का कहना है कि इस लड़की में पहले सीखने फिर उसे मैदान में साकार करने का जो कौशल है, वह वाकई प्रशंसनीय है। बात-बात में एक बार इस लड़की ने कहा था कि वह एकेडमी में प्रवेश चाहती है। उसका सपना देश के लिए खेलना है। करिश्मा जानती थी कि उसे अपना सपना साकार करने के लिए कुछ विशेष करना होगा। करिश्मा मैदान में उस सेण्टर हाफ पोजीशन पर खेलती है, जिस पर सरदारा सिंह खेलते हैं।
करिश्मा की कद-काठी बेशक दूसरी लड़कियों से 19 हो लेकिन मैदान में उसका फौलादी प्रदर्शन सबसे अलग और निराला है। भारतीय टीम से न्यूजीलैण्ड के खिलाफ दमदार प्रदर्शन कर चुकी करिश्मा यादव कहती है कि वह आज जिस मुकाम पर है, उसका सारा श्रेय अविनाश सर को जाता है क्योंकि वही मेरे पहले हाकी गुरु हैं। वह कहती है कि हम खेल मंत्री यशोधरा राजे सिंधिया की भी शुक्रगुजार हैं जिन्होंने ग्वालियर में महिला हाकी एकेडमी खोली। एकेडमी में हमें परमजीत सर से हौसला मिला। उन्होंने हमेशा एक ही बात कही कि करिश्मा तू हाकी का करिश्मा है। मेहनत कर और टीम इण्डिया से खेलकर भारत का मान बढ़ा। करिश्मा कहती है कि यही उसका आखिरी पड़ाव नहीं है। वह सीनियर टीम से देश का प्रतिनिधित्व करना चाहती है।
अविनाश भटनागर ने एकेडमियों को दिए 27 प्रतिभाशाली
प्रशिक्षक अविनाश भटनागर की जहां तक बात है उन्हें ग्वालियर में महिला हाकी का द्रोणाचार्य कहें तो उपयुक्त होगा। दर्पण मिनी स्टेडियम के ग्रासी मैदान से उन्होंने महिला हाकी एकेडमी को जहां 14 प्रतिभाशाली बालिकाएं दीं वहीं भोपाल की पुरुष एकेडमी को 13 प्रतिभाएं देकर प्रदेश की हाकी में अपनी काबिलियत को जो परिचय दिया है, वैसा कोई हाकी प्रशिक्षक नहीं कर सका। एकेडमियों के अलावा अविनाश के सिखाए दर्जनों प्रतिभाशाली खिलाड़ी भारतीय खेल प्राधिकरण के विभिन्न सेण्टरों में प्रवेश पा चुके हैं।
ये हैं हाकी का दर्पण
बालिका- करिश्मा यादव, नेहा सिंह, इशिका चौधरी, नीरज राणा, राखी प्रजापति, श्वेता कुशवाह, प्रियंका परिहार, स्नेहा सिंह, सोनम रजक, प्रतिभा आर्य, याशिका भदौरिया, योगिता वर्मा, निशी यादव और कृतिका चंद्रा।
बालक- निकी कौशल, मोहित पाठक, तरुण प्रताप सिंह, अर्जुन शर्मा, अमित गुर्जर, हिमांशु साहनी, जय राठौर, अभिजीत माहौर, पुष्पेन्द्र शर्मा, मुनेन्द्र सिंह, शिवेन्द्र यादव, लव कुमार और अंकित पाल।



आठ सर्वश्रेष्ठ हाकी बेटियों के चेहरे मायूस

              
जूनियर इण्डिया कैम्प में 18 की जगह 10 को मौका

       मध्यप्रदेश राज्य महिला हाकी एकेडमी के साथ हाकी इण्डिया का पक्षपात
ग्वालियर। देश में महिला हाकी के उत्थान को संकल्पित मध्यप्रदेश खेल एवं युवा कल्याण विभाग के साथ हाकी इण्डिया लगातार पक्षपात कर रहा है। जिस जूनियर इण्डिया कैम्प में मध्यप्रदेश राज्य महिला हाकी एकेडमी की 18 बेटियां होनी थीं, वहां सिर्फ 10 को मौका मिला है। इसे दुर्भाग्य कहें या षड्यंत्र आठ उन सर्वश्रेष्ठ हाकी बेटियों को शिविर में प्रतिभाग का मौका नहीं मिला जोकि टीम इण्डिया में प्रवेश की काबिलियत रखती हैं।
हाकी इण्डिया द्वारा 20 मई से बेंगलूरु में लगाए जा रहे राष्ट्रीय जूनियर बालिका हाकी प्रशिक्षण शिविर में ग्वालियर एकेडमी की 10 बेटियों को जगह मिली है। इस शिविर को लेकर हाकी इण्डिया से चूक हुई है या फिर कोई और बात, आठ सर्वश्रेष्ठ हाकी बेटियों के चेहरे पर मायूसी छाई है। हाकी इण्डिया ने एक माह के जूनियर इण्डिया कैम्प में जिन 10 बेटियों को प्रतिभाग का मौका दिया है, उनमें ग्वालियर की जूनियर अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी करिश्मा यादव के साथ ही मध्यप्रदेश की ही श्यामा तिड़गम, दिव्या थेपे, अनुजा सिंह, बृजनंदिनी धूरिया, मीना और सोनम तिवारी शामिल हैं। चंचल (सोनीपत हरियाणा), सरिता देवी (मणिपुर) और नूतन टोपनो (झारखण्ड) बेशक अन्य राज्यों की हों लेकिन इनकी हाकी पाठशाला ग्वालियर एकेडमी ही है।
देखा जाए तो इस जूनियर इण्डिया कैम्प को लेकर हाकी इण्डिया से एक बड़ी चूक हुई है। दरअसल, आनन-फानन में किए गये खिलाड़ी बेटियों के नामों की घोषणा में मध्यप्रदेश एकेडमी की सर्वश्रेष्ठ हाकी बेटियों को ही नजरअंदाज कर दिया गया है। इनमें ग्वालियर की इशिका चौधरी, नेहा सिंह, प्रतिभा आर्य, भोपाल की सीमा वर्मा, नीलू, उपासना सिंह, ज्योति पाल और सुमन देवी शामिल हैं। इन बेटियों की प्रतिभा का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इन्होंने बीते महीने बेंगलूरु में ही खेली गई सीनियर महिला हाकी में उड़ीसा को 2-1 से पराजित कर कांस्य पदक जीता था। ग्वालियर की इशिका चौधरी ने तब विजयी गोल दागा था। सीनियरों पर जूनियर खिलाड़ियों का यह पराक्रमी प्रदर्शन कम से कम उन्हें जूनियर इण्डिया कैम्प में प्रवेश के लिए काफी था लेकिन यह हाकी बेटियां पक्षपात यानि कोटा सिस्टम का शिकार हो गईं। सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी बेटियों को नजरअंदाज क्यों किया गया, इसकी वजह इन्हें टीम इण्डिया में प्रवेश से रोकना मान सकते हैं।
हाकी इण्डिया द्वारा मध्यप्रदेश महिला हाकी एकेडमी की बेटियों से की गई उपेक्षा का यह कोई पहला मौका नहीं है। इससे पहले भी जब-जब शिविर लगे प्रतिभाशाली खिलाड़ियों को तवज्जो मिलने की बजाय कोटा सिस्टम से ही काम चलाया गया। 36 साल बाद रियो ओलम्पिक खेलने जा रही भारत की बेटियों के चयन में भी यदि कोटा सिस्टम लागू हुआ तो सच मानिए 12 टीमों की ओलम्पिक जंग में भारतीय टीम अंतिम पायदान पर ही नजर आएगी।
अन्याय के खिलाफ आखिर बोले कौन
मध्यप्रदेश महिला हाकी एकेडमी की बेटियों से लगातार हो रहे भेदभाव पर हर कोई चुप्पी साधे है। हाकी इण्डिया के खिलाफ आवाज न उठाने की वजह है उसका हिटलरशाही रवैया। आज तक जिसने भी हाकी इण्डिया के खिलाफ आवाज बुलंद करने का दुस्साहस दिखाया उसे न केवल मुंह की खानी पड़ी बल्कि बत्रा ने उसका पत्रा ही सदा के लिए बंद कर दिया है। सच्चाई यह है कि हाकी इण्डिया के पास इस खेल की बेहतरी का कोई फार्मूला नहीं है। राज्यों के किए-धरे पर ही हाकी इण्डिया अपनी हुकूमत चला रही है। बत्रा के कार्यकाल में उन लोगों का ही नुकसान हुआ है जोकि इस खेल के जानकार हैं। हाकी इण्डिया के नियम-कायदों से तो हर कोई आजिज है लेकिन बिल्ली के गले में आखिर घण्टी बांधे भी तो कौन।
....और शिवराज सरकार ने एक दशक में ही बदल दी तस्वीर
देखा जाए तो एक दशक में ही मध्यप्रदेश की शिवराज सरकार के खेल एवं युवा कल्याण विभाग ने महिला हाकी के उत्थान की दिशा में जो मील का पत्थर स्थापित किया है, वह काम तो भारतीय हाकी महासंघ से लेकर हाकी इण्डिया तक अपने सम्पूर्ण कार्यकाल में भी नहीं कर सके। 31 मार्च, 2006 को जिला खेल परिसर कम्पू में ग्वालियर की बेटी और खेल मंत्री यशोधरा राजे सिंधिया ने प्रदेश में महिला तथा पुरुष हाकी एकेडमियां खोलने की न केवल घोषणा की बल्कि उसी साल जुलाई माह में ग्वालियर में महिला हाकी एकेडमी खोल दी गई। देश की कोई 21 प्रतिभाशाली बेटियों से खुली एकेडमी आज मुल्क की शान है। इस एकेडमी ने देश को अब तक तीन दर्जन से अधिक खिलाड़ी बेटियां देकर यही सिद्ध किया है कि मध्यप्रदेश ही महिला हाकी का असल पालनहार है।


Saturday 14 May 2016

महिला फुटबाल कोच चान यून टिंग ने रचा इतिहास



पुरुष फुटबॉल टीम को चैम्पियन बना गिनीज बुक में बनाई जगह
चान यून टिंग डेविड बेकहम का खेल देख कर बड़ी हुई हैं। उनके मन में भी फुटबॉल खेलने की लालसा जगी, पर रूढ़िवादी चीनी परिवार की इस लड़की को इजाजत नहीं मिली। लेकिन अपने हौसले के दम पर उन्होंने अपने मार्गदर्शन में पुरुषों की फुटबॉल टीम को हांगकांग फुटबॉल लीग का चैम्पियन बना डाला़ और इस उपलब्धि के साथ चान टिंग किसी भी देश में क्लब स्तर के शीर्ष फुटबॉल टूर्नामेंट में पुरुष टीम को चैम्पियन बनाने वाली पहली महिला कोच बन गयीं, जिसके लिए गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में उनका नाम दर्ज हो चुका है।
२७ वर्षीय चान यून टिंग पिछले साल दिसम्बर में जब ईस्टर्न स्पोर्ट्स क्लब की कोच बनीं थीं, तो उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती यही थी कि उन्हें उन पुरुषों को फुटबॉल के खेल की बारीकियों के साथ जीत का मंत्र सिखाना था, जो उम्र में उनसे काफी बड़े थे  लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और हौसले के साथ इस चुनौती का सामना किया  और इसका नतीजा तब आया, जब उनके दिशा-निर्देशन में ईस्टर्न स्पोर्ट्स क्लब ने चार महीने से भी कम समय के अंदर हांगकांग फुटबॉल लीग २०१६ का खिताब अपने नाम कर लिया। अपने अंतिम मुकाबले में चान टिंग की टीम ने हांगकांग के तेंग कान ओ स्पोर्ट्स ग्राउंड पर दक्षिण चीन की टीम को एक के मुकाबले दो गोलों से हराया। 
यहां यह जानना जरूरी है कि अपने २१ वर्षों के इतिहास में इस टीम के लिए यह पहला मौका था, जब उसने चैम्पियन की ट्रॉफी पर कब्जा जमाया और इस उपलब्धि के साथ चान टिंग किसी भी देश में क्लब स्तर के शीर्ष फुटबॉल टूर्नामेंट में पुरुष टीम को चैम्पियन बनाने वाली पहली महिला कोच बन गयीं, जिसके लिए गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में उनका नाम दर्ज हो चुका है।
अंग्रेजी अखबार न्यूयॉर्क टाइम्स को दिये एक इंटरव्यू में चान टिंग कहती हैं कि बीते दिसम्बर में जब हमारी टीम के मुख्य कोच येग चिंग कोंग ने चीन के मीझाऊ क्लब से जुड़ने का फैसला किया, तो सहायक कोच होने के नाते मुझे उनकी जिम्मेवारी निभाने की पेशकश की गयी और मैंने इसे स्वीकार कर लिया।  तब इस फैसले पर कई सवाल उठे थे। कहा गया कि टीम को कोचिंग देने की जिम्मेवारी एक ऐसी महिला कैसे निभा पायेगी, जिसने कभी कोई पेशेवर फुटबॉल नहीं खेला है। 
लेकिन मेरी कोचिंग में ईस्टर्न स्पोर्ट्स क्लब ने हांगकांग फुटबॉल लीग २०१६ जीत कर सभी आलोचकों का मुंह बंद कर दिया है। यही नहीं, चैम्पियन बनने के इस सफर में चान टिंग की टीम को १५ मैचों में सिर्फ एक हार का सामना करना पड़ा।
खेल लड़कियों के लिए नहीं 
चान टिंग कहती हैं कि मैं डेविड बेकहम के खेल की दीवानी हूं और उनसे मुझे फुटबॉल खेलने की प्रेरणा मिली।  लेकिन पड़ोसी देश जापान की टीम ने वर्ष २०११ में जब महिला फुटबॉल वर्ल्ड कप का खिताब जीता, तो इस खेल के प्रति मेरा जुनून और पक्का हो गया। चान टिंग बताती हैं कि वह एक रूढ़िवादी परिवार से ताल्लुक रखती हैं, जो लड़कियों के बाहर जाकर काम करने के विरुद्ध था। वह कहती हैं, जब मैं १३ साल की थी, तब मैंने अपने परिजनों से फुटबॉल खेलने की इजाजत मांगी थी, लेकिन उन्होंने साफ मना कर दिया था, क्योंकि चीन की संस्कृति के अनुसार फुटबॉल का खेल लड़कियों के लिए नहीं है। 
मेरे परिजनों ने मुझसे कहा कि मुझे डांस या चित्रकारी सीखना चाहिए, फुटबॉल तो हरगिज नहीं। लेकिन चान टिंग तब भी अपने इरादों की उतनी ही पक्की थीं, जितनी आज वह हैं। वह कहती हैं, १५ साल की उम्र में मैंने समर ट्रेनिंग प्रोग्राम के फॉर्म पर मां के नकली हस्ताक्षर कर फुटबॉल क्लब में दाखिला ले लिया।  चान टिंग कहती हैं, क्लब में जब हमने फुटबॉल खेलना शुरू किया, तब हम सभी लड़कियां डेविड की दीवानी थीं। मैं हमेशा बेकहम के बारे में जानना चाहती थी, इसके लिए मैं उनके वीडियो देखा करती और वैसे ही खेलने की कोशिश करती। 
चुनौतियों का सामना 
अपनी जिंदगी से फुटबॉल को जोड़ चुकीं चान टिंग ने फैसला कर लिया था कि उनका करियर फुटबॉल के ही इर्द-गिर्द घूमेगा। लेकिन इस खेल के साथ चान टिंग का अब तक का सफर आसान नहीं रहा है़ फुटबॉल में पहला काम उन्हें पेगेसस एफसी टीम में डेटा एनालिस्ट का मिला। लेकिन कुछ ही दिनों बाद स्पांसर्स ने टीम का साथ छोड़ दिया और चान टिंग की नौकरी चली गयी। तब उन्हें लगा कि फुटबॉल के साथ उनका रिश्ता बस यहीं तक था। वह कहती हैं, मैं उस समय टीचर, पुलिसकर्मी कुछ भी बनने के लिए तैयार थी लेकिन दोस्तों के समझाने पर मैंने फुटबॉल के साथ ही संघर्ष करने का फैसला किया। 
ईस्टर्न टीम की मुख्य कोच बनाये जाने के बाद प्रीमियर लीग में अच्छा खेल दिखाने के बावजूद अन्य टूर्नामेंट्स के महत्वपूर्ण मैचों में उसे हार झेलनी पड़ी। वह कहती हैं, तब मुझे खुद पर संदेह होने लगा था कि मैं इस काम के लायक हूं भी या नहीं। लेकिन खिलाड़ियों और अन्य कोचिंग स्टाफ के सहयोग से मैं इस मुश्किल से भी उबर गयी़।
बातें भविष्य की
अपने कॉलेज के दिनों में भूगोल की छात्रा रहीं चान टिंग, भविष्य में बतौर सहायक कोच, यूरोपियन टीमों के साथ काम करना चाहती हैं। वह कहती हैं, मैं जापान, कोरिया या ब्रिटेन और अमेरिका जाकर अपने स्किल्स को और निखारना चाहती हूं। मैं तकनीकी बारीकियां सीख कर हांगकांग में फुटबॉल के खेल को और बेहतर बनाना चाहती हूं। इसके लिए मुझे बाहर किसी बड़े क्लब के साथ काम करना ही होगा। दुनिया भर में क्लब स्तर के शीर्ष फुटबॉल टूर्नामेंट में पुरुष टीम को चैम्पियन बनाने वाली पहली महिला कोच बनने की खास उपलब्धि के लिए गिनीज बुक में अपना नाम दर्ज करा चुकीं चान टिंग कहती हैं, इस खिताब से नवाजा जाना मेरे लिए सम्मान की बात है़ इसके लिए उन सब का शुक्रिया अदा करना चाहती हूं, जिन्होंने इस सफर में मेरा साथ दिया।  वहीं, गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड्स ग्रेटर चाइना के अध्यक्ष रोवान साइमन्स ने चान टिंग को बधाई देते हुए कहा है कि उन्होंने फुटबॉल के खेल में एक नया अध्याय लिख डाला है और हमें उम्मीद है कि उनकी इस सफलता से उत्साहित होकर दुनिया भर की महिलाएं हर मोर्चे पर अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराएंगी।