Tuesday 30 June 2015

ताजनगरी आये दिग्गज क्रिकेटर

आगरा। पूर्व अंतरराष्ट्रीय क्रिकेटर और मौजूदा बीसीसीआई रेफरी एवं कोच केके शर्मा द्वारा शहर के प्रतिष्ठित होटल में आयोजित निजी कार्यक्रम में देश के कई नामी-गिरामी क्रिकेटरों ने शिरकत की। ताजनगरी आए क्रिकेटरों में कपिल देव के साथ गेंदबाजी कर चुके संजीव शर्मा, पूर्व क्रिकेटर और रणजी टीम के पूर्व कप्तान एवं चयनकर्ता शशिकांत खांडेकर शामिल थे। उनके अलावा कार्यक्रम में 1983 में वर्ल्ड कप विजेता टीम के सदस्य यशपाल शर्मा, तेज गेंदबाज विवेक राजदान और आॅलराउंडर प्रवीण कुमार भी शामिल हुए। कार्यक्रम में शामिल होने के बाद शशिकांत खांडेकर और सर्वेश मल्होत्रा के परिवार ने ताजमहल के दीदार किए। उन्होंने यहां दो घंटे से अधिक का समय व्यतीत किया और गाइड से इस ऐतिहासिक इमारत के बारे में विस्तार से जानकारी ली। 

शिक्षा से खिलवाड़

मुल्क में शिक्षा की बिगड़ती स्थिति पर चिन्ता जताना राजनीतिज्ञों का शगल बन गया है। मध्यप्रदेश के व्यावसायिक परीक्षा मण्डल में हुए भ्रष्टाचार में 42 लोगों की असमय मौत के बाद भी भारत सरकार और विभिन्न राज्य सरकारें कोई नसीहत लेने को तैयार नहीं हैं। आज एक जुलाई से देश भर में फिर बेहतर शिक्षा की अलख जगाने की झूठी परम्परा परवान चढ़ेगी। मुल्क में शिक्षा की बेहतरी कब और कैसे परवान चढ़ेगी, इसका जवाब शायद किसी भी हुकूमत के पास नहीं है। मोदी सरकार से बेहतरी की उम्मीद थी लेकिन उसने भी मौका जाया कर दिया है। स्मृति इरानी के फर्जी दस्तावेजों पर मौन धारण किये कमल दल को शायद यह भी भान नहीं होगा कि आम लोगों के लिए लागू की गई प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना के लक्ष्यों को प्राप्त करने की जिम्मेदारी अघोषित रूप से उन शिक्षकों को सौंपी जा रही है, जिनका काम सिर्फ और सिर्फ छात्र-छात्राओं को सुयोग्य बनाना होना चाहिए। मरता क्या न करता, शिक्षकों को लक्ष्य पूरा न करने की स्थिति में वेतन कटौती का डर है। यह गम्भीर और विचारणीय मुद्दा है। एक ओर तो सरकार शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू कर नौनिहालों को शिक्षा उपलब्ध करवाना चाहती है, स्कूलों में अधिकाधिक बच्चों को लाने के लिए स्कूल चलें हम जैसे अभियान चलाती है वहीं दूसरी ओर जब भी मौका मिलता है, वह शिक्षकों को गैर शैक्षणिक कार्यों में बगैर सोचे समझे लगा देती है। विरोध के स्वर उठने पर सरकार हर बार यह वादा करती है और आश्वासन देती है कि शिक्षकों से गैर शैक्षणिक कार्य नहीं कराया जायेगा। समय बीतते ही सारे के सारे आश्वासन धरे के धरे रह जाते हैं। जनगणना हो, पशुगणना हो, संसद से लेकर स्थानीय निकाय तक के चुनाव हों या फिर इस तरह के और भी काम। लगता है सरकार को शिक्षक ही ऐसा सरकारी कर्मचारी नजर आता है, जिनका वास्तविक कार्य महत्वहीन या गैरजरूरी है। सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर कैसा है, यह बात किसी से छिपी नहीं है। इन स्कूलों में शिक्षा के गिरते स्तर के चलते ही पालक अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में दाखिला दिलवाने से परहेज करता है। आज आवश्यकता इस बात की है कि सरकार शिक्षकों की महत्ता को न केवल समझे बल्कि उन्हें गैरजरूरी कार्यों में न लगाकर सरकारी स्कूलों और उसकी शिक्षा के स्तर में सुधार के उपाय करे। आमजन से सरोकार रखने वाली योजनाओं से किसी को गुरेज नहीं है, पर हमारी हुकूमतों को योजनाएं लागू करने से पहले यह देखना जरूरी है कि उसे अमल में लाने के लिए पर्याप्त संसाधन और अमला मौजूद है या नहीं? योजना की उपयोगिता कितनी है और क्या वे अपने उद्देश्यों में सफल हो पाएंगी। प्रधानमंत्री जनधन योजना, प्रधानमंत्री जीवन ज्योति योजना, प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना और अटल पेंशन योजना की शुरुआत मोदी सरकार का सराहनीय प्रयास है, पर क्या यह सच नहीं कि इनमें से कुछ योजनाएं केवल आंकड़ों की बाजीगरी साबित हो रही हैं। मोदी सरकार को शिक्षा के महत्व को स्वीकारते हुए शिक्षकों से गैरजरूरी कार्य कराने की बजाय उनका शिक्षण कार्य में ही सदुपयोग करना चाहिये।

उत्तर प्रदेश: खेलें खिलाड़ी, मजे में अनाड़ी


प्रशिक्षकों के साथ होता है हद दर्जे का भेदभाव
लखनऊ। जनसंख्या के हिसाब से देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में भी खेलों का बुरा हाल है। युवा अखिलेश यादव सरकार से उम्मीद थी कि वे खेलों का समुन्नत विकास करेंगे लेकिन उन्हें भी सैफई से इतर सोचने की फुर्सत नहीं मिली है। कहने को वे अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैदान के लिये भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड से यारी निभा रहे हैं लेकिन उन्हें सोचना चाहिए कि क्रिकेट के अलावा भी खेलों में बहुत कुछ है। उत्तर प्रदेश का खेलों में खास मुकाम रहा है। महिला हॉकी की कभी तूती बोलती थी लेकिन आज यहां की प्रतिभाएं पलायन को मजबूर हैं।
अगर हर विभाग में भ्रष्टाचार परवान चढ़ रहा हो तो खेल उससे कैसे अछूते रह सकते हैं। खेलों का तो वैसे भी कोई माई-बाप नहीं होता। उत्तर प्रदेश में मैदान के भीतर और बाहर दोनों तरह के खेल खेले जा रहे हैं। राजनीतिक सभाओं में खेलों का ढिंढोरा पीटने वाली यूपी सरकार उच्चकोटि के खिलाड़ी तैयार करने के मामले में फिसड्डी साबित हो रही है। खेल महकमा मैन पॉवर की कमी से दोचार है जिनमें प्रशिक्षकों का मामला सबसे चिन्ताजनक है। उत्तर प्रदेश में कई ऐसे जिले भी हैं जहां स्टाफ नाम की कोई बात ही नहीं है। औरैया, संत कबीर नगर, संभल, हापुड़, श्रावस्ती, चंदौली जैसे जिलों में न खेल अधिकारी हैं और न ही बाबू तथा कोई चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी। ऐसे में खेलों का समुन्नत विकास कैसे हो सकता है, सोचने वाली बात है।
प्रशिक्षकों की कमी
कोई भी खेल हो, बेहतरीन खिलाड़ी पैदा करने के लिए अच्छे प्रशिक्षक पहली वरीयता होनी चाहिए। हर सफल खिलाड़ी के पीछे उसके प्रशिक्षक की सोच होती है जिसकी देख-रेख में खिलाड़ी अपनी प्रतिभा निखारता है। उत्तर प्रदेश में प्रशिक्षकों की जहां कमी है, वहीं जो हैं भी उनके साथ सही सलूक नहीं हो रहा। विभागीय सूत्रों की कही सच मानें तो प्रदेश में खेलों की गंगोत्री बहाने के लिए लगभग सात सैकड़ा प्रशिक्षकों की दरकार है लेकिन मौजूदा समय में लगभग इसके आधे ही कार्यरत हैं। इनमें भी अधिकांश मानदेय पर अपनी सेवाएं दे रहे हैं। आमधारणा यही है कि एक स्थायी प्रशिक्षक खिलाड़ी की जो प्रतिभा निखारने के मामले में नतीजे दे सकता है वह मानदेय पर कार्यरत प्रशिक्षक नहीं दे सकता क्योंकि दोनों के तौर-तरीकों, मनोदशा और प्राथमिकता में काफी फर्क होता है। यह बात अलग है कि नियमित प्रशिक्षक सरकारी दामाद बनकर खेलों का बंटाढार कर रहे हैं और बेचारे मानदेय प्रशिक्षक हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी गुरबत में जी रहे हैं।
हालात -ए- तरणताल
उत्तर प्रदेश में खेल विभाग के कोई 35 तरणताल हैं लेकिन ये खिलाड़ियों के काम नहीं आ रहे हैं। 10 तरणतालों में जहां प्रशिक्षक नहीं हैं, वहीं कई में भैंसे तैराकी सीख रही हैं। प्रशिक्षक के अलावा तरणतालों में लाइफ सेवर की भी सुविधा नहीं है। लाइफ सेवर से तात्पर्य गोताखोर से है जो हर स्वीमिंग पूल पर तैनात किया जाता है ताकि आवश्यकता पड़ने पर वह किसी को डूबने से बचा सके। विभिन्न हॉस्टलों और कॉलेजों का भी यही हाल है। प्रदेश के 18 जिलों में 36 हॉस्टल हैं जबकि लखनऊ, गोरखपुर व सैफई में स्पोर्ट्स कॉलेज भी हैं। इनमें भी मानदेय प्रशिक्षकों से ही खिलाड़ी तैयार किये जा रहे हैं।
खेल अधिकारियों की कमी
सम्भागीय खेल अधिकारी (आरएसओ) मंडल स्तर पर महकमे का सर्वोच्च अधिकारी होता है। प्रदेश में 18 सम्भागीय खेल अधिकारियों की जगह सिर्फ नौ से काम चल रहा है। नौ पद लम्बे समय से खाली हैं। आरएसओ का प्रभार स्पोर्ट्स अफसरों के पास है। डिप्टी स्पोर्ट्स अफसर के एक सौ पदों में से 35 खाली हैं जबकि स्पोर्ट्स अफसर के 12 पद रिक्त हैं।
मैदानों के निर्माण कार्यों पर ग्रहण
विभागीय सूत्र कहते हैं कि बहुधा योजना बनाते समय उस पर सम्यक विचार नहीं होता और बाद में दिक्कतें आती हैं। फतेहपुर में निर्माणाधीन स्टेडियम का काम जमीन को लेकर आई परेशानी के कारण रुका हुआ है। फैजाबाद में वित्तीय बाधाओं के चलते स्टेडियम का निर्माण बाधित है।
बदला नहीं जा सका एस्टोटर्फ
राजधानी के मेजर ध्यानचंद हॉकी स्टेडियम में एस्टोटर्फ की गुणवत्ता को लेकर लगातार सवाल उठते रहे हैं। शिकायतें होती रही हैं। बताते हैं कि इस एस्टोटर्फ को बिछाने में भी खेल हुआ था और गुणवत्ता के साथ समझौता किया गया था। बहरहाल कारण जो भी हों अभी तक एस्टोटर्फ बदला नहीं गया है और कहने की जरूरत नहीं कि इससे हॉकी खिलाड़ियों को बेहद असुविधा का सामना करना पड़ रहा है।
नहीं बनी खेल नीति
 सरकारों का फोकस जिन क्षेत्रों पर होता है उनके लिए विशेष तौर पर नीति बनाई जाती है। प्रदेश की हुकूमतों ने समय-समय पर उद्योग, अवस्थापना, पर्यटन, निर्यात, सड़क, सड़क सुरक्षा व अन्य क्षेत्रों के लिए नीतियां तो बनाई हैं लेकिन ऐसा लगता है कि चूंकि खेल सरकारों की प्राथमिकता में रहा ही नहीं इसलिए प्रदेश की कोई खेल नीति नहीं है। प्रदेश में कोई खेल नीति न होना सरकारी मंशा का ही विद्रूप चेहरा है।  अखिलेश सरकार खिलाड़िÞयों के प्रोत्साहन की दिशा में भी जो कहती वह करती नहीं है।

विजेंदर बने पेशेवर मुक्केबाज

नई दिल्ली !भारतीय मुक्केबाजी जगत के सबसे बड़े सितारों में से एक ओलम्पिक कांस्य पदक विजेता विजेंदर सिंह अब पेशेवर मुक्केबाज बन गए हैं। आईओएस स्पोर्ट्स एंड इंटरटेनमेंट कम्पनी से जुड़े विजेंदर ने सोमवार को लंदन में क्वींसबरी प्रोमोशंस नाम की प्रोमोशन कम्पनी के साथ पेशेवर करार किया।
इस करार के तहत विजेंदर को पहले साल कम से कम छह मुकाबले लड़ने होंगे। क्वींसबरी प्रोमोशंस के साथ विजेंदर का करार बहुवर्षीय है।
आईओएस स्पोर्ट्स एंड इंटरटेनमेंट कम्पनी के सीईओ और एमडी नीरव तोमर ने कहा कि वह क्वींसबरी प्रोमोशंस के फ्रांसिस वारेन को सालों से जानते हैं और काफी समय से विजेंदर जैसे चैम्पियन मुक्केबाज के साथ पेशेवर करार को लेकर उनकी वारेन के साथ बातचीत चल रही थी।
विजेंदर सिंह ने कहा, "पेशेवर मुक्केबाजी अपनाने को लेकर मैं बेहद रोमांचित हूं और जीवन के नए दौर को लेकर तैयार हूं। मैं कठिन अभ्यास कर वैश्विक स्तर पर देश के लिए प्रदर्शन करना चाहता हूं।"
विजेंदर राष्ट्रमंडल खेलों (2006, 2014) में दो बार रजत पदक, एशियाई खेलों (2006), बीजिंग ओलम्पिक (2008), विश्व एमैच्योर चैम्पियनशिप (2009) और राष्ट्रमंडल खेल (2010) में कांस्य पदक जीत चुके हैं।
एशियाई खेलों (2010) में विजेंदर ने देश को स्वर्ण पदक दिलाया और 2009 में मिडिलवेट कैटेगरी में दुनिया के सर्वोच्च रैंकिंग वाले मुक्केबाज चुने गए।
हरियाणा में भिवानी के रहने वाले 29 वर्षीय विजेंदर मैनचेस्टर में प्रख्यात प्रशिक्षक ली बियर्ड के मार्गदर्शन में प्रशिक्षण हासिल करेंगे।
क्वींसबरी के पास 40 से अधिक पेशेवर मुक्केबाजों के प्रमोशन का अनुभव है। इनमें हामेद, ब्रूनो, टायसन, कालघेज, बेन, कोलिंस, आमिर खान और हाटन प्रमुख हैं। वॉरेन एक इंटनेशनल हाल आॅफ फेम प्रमोटर के पुत्र हैं।

क्रिकेट में नई नहीं कलह और गुटबाजी

मतभेद, विवाद और गुटबाजी भारतीय क्रिकेट के लिए कोई नई बात नहीं है। अक्सर इस तरह की बातें भारतीय क्रिकेट के ड्रेसिंग रूम से बाहर आती रही हैं। एक जमाना था जब भारतीय क्रिकेट टीम नई बनी थी और 1932 में उसने इंग्लैंड का दौरा किया था, तभी से टीम में विवाद और कलह ने घर बनाना शुरू कर दिया था। तब क्रिकेट महाराजाओं के संरक्षण में फल-फूल रही थी लिहाजा टीम के अच्छे खिलाड़ियों पर राजे-महाराजा हावी रहते थे। टीम की कप्तानी पर उनकी बपौती होती थी। यह स्थिति काफी समय तक बनी रही। इसी के चलते जब एक बार महाराजा कुमार विजयनगरम से लाला अमरनाथ जैसे प्रतिभाशाली खिलाड़ी का विवाद हुआ तो उन्हें इंग्लैंड के बीच दौरे से वापस भेज दिया गया।
टीम और भारतीय क्रिकेट कप्तानों के संबंधों के बीच उतार-चढा़व अक्सर खबरें बनते रहे हैं। इसी स्थिति से मौजूदा भारतीय टीम फिर गुजरती हुई नजर आ रही है। ऐसा लगता है कि भारत के सबसे सफल और कूल कप्तान कहे जाने वाले महेंद्र सिंह धौनी इसी हालात से दो चार हो रहे हैं। कुछ समय पहले टीम में टेस्ट और वन-डे के लिए अलग कप्तान नियुक्त किए जाने के बाद स्थिति ज्यादा विवादित हो गई है। वैसे अगर दो तीन दशकों के इतिहास पर गौर करें तो हमारे सभी कप्तानों की विदाई में टीम के असंतोष और कलह का ज्यादा योगदान रहा है।
सुनील गावस्कर से लेकर कपिलदेव और अजहरुद्दीन, सौरव गांगुली व राहुल द्रविड़ इसी हालात से दो चार हुए हैं। जब सुनील गावस्कर कप्तान थे तब बाद के बरसों में उबर क्षेत्र के क्रिकेटरों की लॉबी उनके खिलाफ आवाज बुलंद करने लगी थी। कपिल और सुनील गावस्कर के संबंध खासे कटु हो गए थे। फिर कपिलदेव को तब कप्तानी गंवानी पड़ी जब वो अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पा रहे थे और गावस्कर के साथ उनकी तनातनी बनी हुई थी, लिहाजा टीम बंटी हुई थी। अजहर भारत के सफल कप्तानों में थे। शायद उनके सरीखा ताकतवर कप्तान भारतीय फिकेट ने कम देखे होंगे। उन्हें धौनी और सौरव गांगुली के बाद भारत का तीसरा सबसे सफल कप्तान कहा जाता है। उनकी कप्तानी के आंकड़े भी इस बात की तस्दीक करते हैं कि भारतीय टीम को वह अपनी कप्तानी में एक स्तर पर ले गए।
हालांकि कहा जाता है कि बाद के बरसों में उनकी कप्तानी के दौरान सचिन तेंदुलकर और सौरव गांगुली के साथ युवा खिलाड़ियों का भरोसा उन पर से उठ गया था। वह खुद फिक्सिंग में फंसने के बाद खासे विवादित हो चुके थे। लिहाजा उन्हें हटना पड़ा था। उनकी जगह सौरव गांगुली को कप्तान बनाया गया। गांगुली ने टीम को एक नई पहचान दी और नए तेवर भी। वर्ष 2005 के बाद कोच के रूप में कोच ग्रेग चैपल के आने के बाद उनकी और कोच की जो ठनी तो सबकुछ बदलने लगा। टीम में दो गुट बन गए। गांगुली खुद अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पा रहे थे और चैपल से विवाद इस कदर बढ़ चुका था कि उन्हें कप्तानी गंवानी पड़ी। हालांकि यह कहने में कोई हिचक नहीं कि वह भारतीय टीम को सर्वोच्च शिखर तक ले गए।
राहुल द्रविड़ को जब कप्तान बनाया गया तो वह खुद बहुत सहज स्थिति में नहीं रहे। टीम में एक ओर वे सीनियर प्लेयर थे, जो उनके साथ क्रिकेट खेल चुके थे तो दूसरी ओर नए फिकेटर। सीनियर क्रिकेटर्स से भी उन्हें जो समर्थन मिलना चाहिए था, वह नहीं मिल सका। उसी दौरान महेंद्र सिंह धौनी कप्तान के तौर पर भारतीय टीम को वर्ष 2007 में टी20 वर्ल्ड कप में चैंपियन बनवा चुके थे। हालात कुछ ऐसे बने कि टीम पर नियंत्रण रख पाना और गुटबाजी के साथ कलह को बर्दाश्त कर पाना उनके लिए बर्दाश्त के बाहर हो गया। अब कुछ ऐसी ही स्थितियां भारत के सबसे सफल कप्तान धौनी के साथ भी बनती दीख रही हैं। भारतीय फिकेट में अक्सर सफल कप्तानों का अवसान गुटबाजी के चलते ही हुआ है।
इसमें सौरव गांगुली से लेकर राहुल द्रविड़ तक का नाम लिया जा सकता है। एक जमाने में जब कप्तान धौनी को टीम के अगुवाई की बागडोर सौंपी गई थी, तब भी टीम में गुटबाजी काफी हावी थी। धौनी को तब सीनियर खिलाड़ियों से खासा जूझना पड़ा था। तब विराट कोहली उनके साथ खड़े दीखते थे। कोहली तब उस माहौल में अपने ही दिल्ली के ही कुछ सीनियर क्रिकेटरों के खिलाफ जाकर धौनी के साथ खड़े नजर आए थे। तब कोहली अपने कप्तान धौनी की कप्तानी की तारीफ करते नहींथकते थे। तब ऐसा लगता था कि वह धौनी का मजबूत कंधा बन चुके हैं। लेकिन अब समय और महत्वाकांक्षाओं ने हालात बदल दिए हैं।
(लेखिका रत्ना स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

Monday 29 June 2015

मोदी का मौन

अपनी वक्तव्य कला से दुनिया को सम्मोहित करने वाले भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इन दिनों मौन धारण किये हुए हैं। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का मौनी बाबा कहकर उपहास उड़ाने वाले भाजपाई न केवल नंगनाच कर रहे हैं बल्कि चार देवियों ने पार्टी के सामने संकट खड़ा कर रखा है। मोदी के मौन पर न केवल विपक्ष मुखर है बल्कि आम जनमानस भी चुटकी ले रहा है कि क्या वह सिर्फ मन की ही बात सुनायेंगे? सवाल यह भी कि जिस व्यक्ति को वक्तव्य कला में महारत हासिल हो वह बार-बार गहरी खामोशी क्यों ओढ़ लेता है? देखा जाये तो इस साल के शुरू में जब कुछ गिरजाघरों पर हमले होने लगे और मुसलमानों की कथित घर वापसी की कोशिशों पर बखेड़ा मचा था तब भी मोदी खामोश रहे। जब पानी सिर से ऊपर जाने लगा तब 17 फरवरी को उन्होंने न केवल अपनी खामोशी तोड़ी बल्कि करोड़ों भारतीयों को दिलासा दिलाया कि हर किसी को अपने मजहब पर चलने की स्वतंत्रता है। उनकी सरकार किसी को एक-दूसरे के धर्म के खिलाफ नफरत फैलाने की इजाजत नहीं देगी। इन दिनों कमल दल क्रिकेट को लेकर असहज है। पूर्व आईपीएल प्रमुख ललित मोदी ने बेशक नरेन्द्र मोदी की तारीफ की हो लेकिन भाजपा की दिग्गज नेत्रियों की करतूत ने उनकी बोलती बंद कर रखी है। वैसे तो क्रिकेट की कालिख दीगर दलों के नेताओं पर भी लगी हुई है लेकिन सत्ताधारी पार्टी पर उंगली उठने की खास वजह है। मोदी ने मुल्क की सल्तनत सम्हालने से पहले आवाम से भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन देने का वादा किया था। मोदी को उम्मीद थी कि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे सिंधिया ललित मोदी की मदद के मामले में स्वेच्छा से कुर्सी छोड़ देंगी, पर इन देवियों ने नैतिकता दिखाने की बजाय कुर्सी को अहमियत देकर पार्टी को ही मुश्किल में डाल दिया है। विपक्ष चिल्ला रहा है कि प्रधानमंत्री मोदी आखिर चुप क्यों हैं? इस चुप्पी की वजह भाजपा की देवियां नहीं बल्कि गुजरात क्रिकेट एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष नरेन्द्र मोदी स्वयं हैं। अतीत में नरेन्द्र मोदी और ललित मोदी के सम्बन्ध न केवल प्रगाढ़ थे बल्कि मोदी चाहते थे कि ललित मोदी के सहारे अडाणी आईपीएल में अहमदाबाद की टीम उतारें। नरेन्द्र मोदी सोशल मीडिया पर हमेशा सक्रिय रहते हैं। वह दुनिया भर के नेताओं को बधाई संदेश देना कभी नहीं भूलते, लेकिन देश के अंदर उठे तूफान पर उनकी उंगलियां के क्यों नहीं चल रहीं, यह सबसे बड़ा आश्चर्य है। मोदी की खामोशी नादानी हो या रणनीति का हिस्सा, लेकिन मुल्क चाहता है कि वह अपनी चुप्पी तोड़ें। अतीत में इंदिरा गांधी को गूंगी गुड़िया तो डॉक्टर मनमोहन सिंह को गूंगा सरदार कहा गया था लेकिन उनकी खामोशी भी रणनीति का ही एक हिस्सा थी। मोदी भी मौन कला में महारत रखते हैं। 2002 के गुजरात दंगों पर मुख्यमंत्री की हैसियत से उन्होंने जो लम्बी खामोशी ओढ़ी थी, वह उनके लिए काफी मददगार साबित हुई थी। मोदी की चुप्पी क्या रंग लायेगी यह तो समय बतायेगा लेकिन फिलवक्त का मौन उनकी छवि पर बट्टा जरूर लगा रहा है।

Saturday 27 June 2015

भाजपा को अपनों का डर

बिहार विधानसभा चुनाव की रणभेरी बज चुकी है, लेकिन लम्बे समय से बिहार फतह करने का सपना देख रही भारतीय जनता पार्टी के माथे पर अभी से परेशानी की लकीरें साफ दिखने लगी हैं। लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार की एका और खुद के संगी-साथियों की सौदेबाजी को लेकर कमल दल दुविधा में है। भाजपा को उम्मीद थी कि नीतीश और लालू एक नहीं होंगे और वह पिछड़ों-अल्पसंख्यकों के वोटों का विभाजन कर आसानी से मैदान फतह कर लेगी। बदले हालातों को देखें तो जो राजनीतिक दल लोकसभा चुनाव में भाजपा से हाथ मिलाने को लालायित थे, वे अब गठबंधन में बने रहने की कीमत मांग रहे हैं। आज की राजनीति में यह आम बात हो गई है। गठबंधन में सीटों के बंटवारे को लेकर थोड़ी-बहुत तकरार तो चलती है, पर जिस तरह राष्ट्रीय लोक समता पार्टी, लोक जनशक्ति पार्टी और हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा सीटों को लेकर मोल-भाव कर रहे हैं, वह इस बात का ही संकेत है कि लोकसभा चुनाव की तरह अब मोदी लोकप्रिय नहीं रहे।
बिहार को लेकर मोदी के सिपहसालार कुछ भी सोच रहे हों पर विधानसभा चुनाव में लोकसभा चुनाव जैसी स्थिति तो नहीं रहने वाली। कुछ महीने पहले तक भाजपा मानती थी कि बिहार में उसके सहयोगी दलों की नैया मोदी लहर के सहारे ही पार लगी थी, पर अब इन दलों को लगता है कि विधानसभा चुनाव में उनसे तालमेल के बगैर भाजपा जीत की बात भी नहीं सोच सकती। वक्त का तकाजा कहें या बदले समीकरण राजग में शामिल छोटे-छोटे दल सीटों को लेकर बढ़-चढ़कर मोल-भाव कर रहे हैं। बिहार में विधानसभा की कुल 243 सीटें हैं। उपेन्द्र कुशवाह की अगुआई वाली राष्ट्रीय लोक समता पार्टी न केवल 67 विधानसभा सीटों पर दावा ठोंक रही है बल्कि वह चाहती है कि कुशवाह को ही मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश किया जाए। राष्ट्रीय लोक समता पार्टी की इस महत्वाकांक्षा के पीछे का मकसद सिर्फ ज्यादा से ज्यादा सीटों के लिए दबाव बनाना है।
 राष्ट्रीय लोक समता पार्टी की मुख्यमंत्री पद की लालसा ने भाजपा के अंत:पुर में भी बेचैनी बढ़ा दी है। भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सीपी ठाकुर ने जिस तरह मुख्यमंत्री पद की दावेदारी के लिए अपना नाम आगे बढ़ाया उसकी देखा-देखी अन्य नाम भी सामने आ जाएं तो हैरत की बात नहीं होगी। महादलित वोटों को रिझाने के लिए भाजपा ने जीतनराम मांझी की तरफ दोस्ती का हाथ तो बढ़ाया है, पर वह चाहते हैं कि उन्हें करीब पचास सीटें दी जाएं। भाजपा के लिए मुख्यमंत्री पद को लेकर न मांझी की तरफ से कोई अड़चन है न रामविलास पासवान की तरफ से लेकिन इन सबके साथ सीटों के बंटवारे का मसला सुलझाना भाजपा के लिए टेढ़ी खीर साबित हो सकता है। भाजपा लालू और नीतीश की जुगलबंदी के बाद अकेले दम ठोकने का भी जोखिम नहीं उठा सकती। लालू और नीतीश की सामूहिक शक्ति का अंदाजा कमल दल दस विधानसभा सीटों के उपचुनावों में भलीभांति देख चुका है, जब उसे केवल चार सीटें मिली थीं, जबकि ये उपचुनाव लोकसभा चुनाव के कुछ ही महीने बाद हुए थे। भाजपा भले ही यह कहती हो कि वह मोदी को आगे कर विधानसभा चुनाव लड़ेगी, पर वह जानती है कि उपेन्द्र कुशवाह, रामविलास पासवान और जीतनराम मांझी के साथ न रहने पर चुनाव का उसका सामाजिक समीकरण गड़बड़ा जाएगा। भाजपा सीटों के बंटवारे को लेकर अपने संगी-साथियों से गलबहियां कर भी ले तो उसे अपनों के बागी होने का डर भी कम नहीं है।
बिहार विधानसभा चुनावों में युवा मतदाताओं के साथ ही जातिगत समीकरण भी अहम होगा। मोदी जिन युवाओं के बल पर मुल्क की सल्तनत पर काबिज हुए हैं वही बिहारी युवा नीतीश कुमार पर एक बार फिर दांव लगाने को बेताब हैं। मोदी की कथनी और करनी के अंतर से उपजी निराशा का लाभ नीतीश कुमार को मिल जाये तो हैरत नहीं होनी चाहिए। नीतीश कुमार को जहां अपने काम पर भरोसा है वहीं लालू प्रसाद यादव का यादव और मुस्लिम जनाधार काफी मजबूत माना जा रहा है। बिहार में यदुवंशियों का संख्या बल भी भाजपा के लिए एक डरावना सच है। यादव, मुस्लिम जनमत को देखते हुए फिलवक्त नीतीश कुमार भाजपा पर भारी पड़ते दिख रहे हैं। बिहार में भाजपा की मुख्य ताकत सवर्ण वोट होगा पर ब्राह्मणों के मत में कांग्रेस सेंधमारी कर केसरिया रंग फीका कर सकती है। देखा जाये तो बिहार में कांग्रेस की अपने पारम्परिक ब्राह्मण, दलित और मुस्लिम मतों पर पकड़ तो कमजोर हुई है लेकिन ब्राह्मण जाति के एक बड़े हिस्से की सहानुभूति आज भी उसके साथ है।
बिहार में वामपंथी दल बेशक बड़ी ताकत न हों पर वे चुनावी समीकरण बदलने का माद्दा जरूर रखते हैं। लालू-नीतीश चाहेंगे कि वामदल महागठबंधन में शामिल हों, अगर ऐसा होता है तो न केवल उनकी प्रासंगिकता बढ़ेगी बल्कि भाजपा का काम भी कठिन हो जायेगा। देखा जाये तो बिहार के हर विधान सभा क्षेत्र में इनके पारम्परिक मत हैं। यह रोचक है कि विकास केन्द्रित जनतंत्र में जनतंत्र रचने की शक्ति आज भी जातीय शक्ति से जुड़ी है, जिसके दीदार बिहार में हो सकते हैं। दरअसल विकास दोधारी तलवार है। एक तरफ वह जन आकांक्षाओं को पूरा करती है तो दूसरी तरफ नई उम्मीदें परवान चढ़ने लगती हैं। नीतीश  कुमार की जहां तक बात है उन्होंने बिहार के विकास को गति देने की पुरजोर कोशिश की है। जहां तक मतदाताओं के रुझान की बात है, वह जातिभाव से अपने आपको जुदा नहीं कर सकता। बिहार में टिकट वितरण सबसे अहम होगा। जो दल समझदारी दिखाएगा, उसकी बल्ले-बल्ले जरूर होगी। भारतीय जनता पार्टी का जहां तक सवाल है, उसके सामने एक तरफ कुंआ है तो दूसरी तरफ खाई। उस पर बिहार फतह करने के लिए न केवल अपने कुनबे को संगठित रखने की चुनौती है बल्कि आस्तीनों में पल रहे सपोलों से सावधान रहना भी जरूरी है।

Friday 26 June 2015

गुरूर का ऊंट पहाड़ के नीचे

बांग्लादेश से एकदिनी सीरीज गंवाने पर खेमेबाजी
क्रिकेट अनिश्चितताओं का खेल है, इस बात को जानते हुए भी भारत ने बांग्लादेश से एकदिनी सीरीज क्या गंवाई टीम में बखेड़ा खड़ा हो गया। भला हो टीम इण्डिया का जिसने तीसरा मैच जीतकर नाक कटने से बचा ली। अब भारतीय क्रिकेट प्रेमियों को यह तसल्ली रहेगी कि 3-0 की जगह 2-1 से भारत ने शृंखला गंवाई। लेकिन जिस बांग्लादेशी टीम को सहज हरा देने का भाव लेकर भारतीय टीम बांग्लादेश पहुंची थी, वह स्वयं इतनी बुरी तरह क्यों मात खा गई? क्यों उसके नामी-गिरामी चर्चित, विज्ञापित बल्लेबाज और गेंदबाज अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाए?
पराजय की समीक्षा का दौर पहली हार से ही प्रारम्भ हो गया था। कुछ प्रमुख बातें उभर कर सामने आई हैं जैसे- हमेशा शांतचित्त रहने वाले कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी की झल्लाहट कि अगर टीम के खराब प्रदर्शन के लिए वे जिम्मेदार हैं तो वे कप्तानी छोड़ने को तैयार हैं। विराट कोहली का बयान कि टीम के फैसलों में संदेह और असमंजस की स्थिति साफ नजर आई, नतीजतन टीम अपनी क्षमता के हिसाब से नहीं खेल सकी। जिन तेज गेंदबाजों पर भरोसा किया गया उनमें से कोई कसौटी पर खरा नहीं उतरा। यही स्थिति बल्लेबाजों की रही, टीम के निर्णय पर सवाल उठाने वाले विराट कोहली भी पूरी सीरीज में अच्छा खेल नहीं दिखा पाए। भारतीय टीम की यह हार केवल खिलाड़िय़ों की नहीं, टीम प्रबंधन, कोच, चयनकर्ताओं की भी नाकामी है। समीक्षा उनकी कार्यप्रणाली की भी होनी चाहिए। खेल में हार-जीत लगी रहती है। लेकिन भारतीय टीम की हार पर इतना हंगामा इसलिए बरपा है क्योंकि यह दुनिया के सबसे धनी क्रिकेट बोर्ड बीसीसीआई की टीम है। इसके कर्ता-धर्ता विशुद्ध व्यापारी हैं, जो केवल फायदे का खेल चाहते हैं, नुकसान का नहीं। यह अनायास नहीं है कि भारत में क्रिकेट धर्म की तरह उन्माद जगाने वाला खेल बन गया। इस धर्म के लिए एक भगवान भी गढ़ लिया गया। उसे भारत-रत्न का सर्वोच्च सम्मान दे दिया गया, फिर चाहे वह भारत रत्न पानी साफ करने की मशीन बेचे या ट्यूबलाइट वाला पंखा। एक प्रमुख भगवान के अलावा कई सहायक या उप भगवान भी बना लिए गए, जिन्हें मौके के हिसाब से पूजा गया और जरूरत न होने पर मूर्ति हटा दी गई। एक वक्त था जब मोहम्मद अजहरुद्दीन की कप्तानी की धूम थी, फिर सौरव गांगुली को क्रिकेट में नयी लहर बहाने का श्रेय दिया गया, जब धोनी आए तो हर ओर कैप्टन कूल की ही चर्चा रही। मोहम्मद अजहरुद्दीन और सौरव गांगुली ने अपमान का दंश भी झेला और ऐसा लग रहा है अब बारी धोनी की है।
महेन्द्र सिंह धोनी की कप्तानी में भारत ने टी-20 और एक दिवसीय क्रिकेट का विश्व कप जीता, टेस्ट रैंकिंग में भारत को शीर्ष स्थान पर पहुंचाया। लेकिन वे भारतीय टीम की स्थायी सफलता की गारंटी नहीं हो सकते। बहरहाल, इन सफल कप्तानों के अलावा भी कई क्रिकेट खिलाड़िय़ों को खूब नाम और सम्मान मिला और उसके साथ-साथ धन की वर्षा भी खूब हुई। बीसीसीआई ने इन लोकप्रिय खिलाड़िय़ों को अक्सर अपने फायदे के लिए मोहरे की तरह इस्तेमाल किया। कुछ सालों पहले जब आईपीएल का आगाज हुआ तो खेल की तमाम नैतिकता, खेलभावना, उद्देश्य किनारे कर दिए गए, साध्य और साधन जरूरत के हिसाब से तोड़े-मरोड़े जाने लगे। आईपीएल की चकाचौंध में बीसीसीआई और क्रिकेट की राजनीति करने वालों को भी चमकने का अवसर मिल गया। आज जब उस चमक की कुछ परतें उधड़ रही हैं तो नजर आ रहा है कि इसके नीचे कितनी कालिख जमा है। मानो क्रिकेट नहीं काजल की कोठरी हो, जिसमें हाथ डालने पर हाथ का काला होना जरूरी है। अब सवाल उठाया जा रहा है कि राजनेताओं  या व्यापारियों को जिन्हें क्रिकेट खेल का ज्ञान नहीं, उन्हें क्रिकेट संघों में रहने का क्या औचित्य? ऐसे सवाल पहले भी उठते रहे हैं, लेकिन उनके जवाब नहीं मिले, न ही क्रिकेट संघों की राजनीति खत्म हुई। भारतीय टीम की सफलता या असफलता से अधिक चिन्ता बीसीसीआई को अपने मुनाफे की रहती है, यही कारण है कि वह भी क्रिकेट के बहाने चल रहे खेल को पूरा प्रश्रय देती है। बांग्लादेश में भारतीय टीम ने मात इसलिए खाई क्योंकि खिलाड़िय़ों ने खराब खेला, शायद अधिकतर खिलाड़ी आईपीएल की थकान से उबर नहीं पाए थे। भारतीय टीम इसलिए हारी क्योंकि बांग्लादेशी टीम ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया और उसके पास मुस्तफिजुर रहमान जैसे सम्भावनाएं बांधने वाले खिलाड़ी हैं। उम्मीद है भारतीय टीम की हार का विश्लेषण करने वाले इस सीधे गणित को पेंचीदा नहीं बनाएंगे। सुरेश रैना को बधाई जिन्होंने अपने हरफनमौला खेल से भारत को क्लीन स्वीप से बचा लिया वरना धोनी न घर के रहते न घाट के।

ललित मोदी की दुनिया


ग्लैमर, क्रिकेट, पैसा, सत्ता
नई दिल्ली। ललित मोदी का मामला ठंडा होने का नाम नहीं ले रहा है। 26 जून को उन्होंने ट्विट करके कांग्रेस को परेशानी में डाल दिया है। ललित मोदी ने ट्वीट किया कि वह कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की बेटी प्रियंका गांधी और दामाद रॉबर्ट वाड्रा से भी मुलाकात कर चुके हैं। ये मुलाकात लंदन में हुई थी। उनके इस ट्वीट के बाद राजनीति गर्म हो गई है। ललित मोदी के ट्वीट से कांग्रेस सकते में आ गई है। बचाव में कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कहा कि ललित मोदी की बातें बचकानी हैं। अगर वे रेस्तरां में अचानक प्रियंका गांधी और रॉबर्ट वाड्रा से मिले थे, तो यह कोई अपराध नहीं है। भाजपा नेताओं के ललितगेट में नाम आने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सवाल पूछा जा रहा है कि उनके मंत्री भारत से भागे मोदी की मदद क्यों कर रहे हैं? ललित मोदी की कहानी एक धंधेबाज और बिंदास जीवन जीने वाले व्यक्ति की कथा भर नहीं है, बल्कि भारतीय राजनीति और सरकारों के मुनाफाखोरों और सट्टेबाजों के चंगुल में फंसने की त्रासदी भी है। मोदी पर लगे आरोपों के नतीजों को लेकर भी संशय है। बहरहाल, एक नजर क्रोनी कैपिटलिज्म के इस पोस्टर ब्वॉय की कारगुजारियों पर...
 मोदी को अमेरिका में सजा
 - करीब तीन दशक पहले ललित मोदी को अमेरिका में गिरफ्तार किया गया था। तब वे उत्तरी कैरोलाइना के ड्यूक विश्वविद्यालय में छात्र थे। उन पर नशीले पदार्थ रखने और एक 16-वर्षीय किशोर एलेक्जेंडर वान डाइन को अपहृत करने तथा चोट पहुंचाने का आरोप लगा था। अदालत में ललित मोदी ने अपने ऊपर लगाये गये आरोपों को स्वीकार किया था।
 -अपहरण की वारदात को गंभीरता से लेते हुए अदालत ने 24 फरवरी, 1985 को मोदी को दोषी माना और दो साल कैद की स्थगित सजा सुनायी। नशीले पदार्थ रखने के आरोप पर उन्हें पांच वर्ष के प्रोबेशन पर रखा गया था। इसके अलावा उन्हें 300 घंटे समाज सेवा करने तथा 50 हजार डॉलर की जमानत भरने का निर्देश भी दिया गया था।
 -स्नातक की शिक्षा पूरी करने के बाद मोदी ने अदालत का दरवाजा खटखटाया और स्वास्थ्य का हवाला देकर वापस भारत जाने की अनुमति मांगी। उन्हें सामुदायिक सेवा के आदेश का पूरा पालन किये बगैर भारत आने की अनुमति मिल गयी। तब उनकी उम्र 23 वर्ष भी नहीं थी।
 - माना जाता है कि अदालती सुनवाई और भारत आने की अनुमति मिलने के दोनों ही मामलों में मोदी परिवार के रुपये और प्रभावशाली अमेरिकी मित्रों की पहुंच काम आयी थी। इन मित्रों में बड़े व्यवसायी जेंस होवाल्ट और वीएल ग्रेगरी, एलेक्जेंडर डिपार्टमेंटल स्टोर के मालिक रॉबिन फरकास और खरबपति लियोनार्ड लाउडर जैसे नाम शामिल थे।
 दिल्ली से मुंबई का रुख
दिल्ली के धनाढ्य सामाजिक परिवेश में तल्खी का रवैया देख कर नवविवाहित जोड़े ने मुंबई में रहने का फैसला किया। पहले वे केके मोदी के एक फ्लैट में रहे और फिर मीनल के पिता का मकान खरीद कर उसमें रहने लगे। अब ललित मोदी के परिवार में सौतेली बेटी करीमा सगरानी के अलावा बेटा रुचिर और बेटी आलिया भी आ गये थे। 2009 के दिसम्बर महीने में इस बंगले में आग लग गयी थी। कुछ रिपोर्टों में कहा गया था कि यह घटना बीमा की राशि पाने के लिए की गयी थी, पर इस संबंध में कोई आधार सामने नहीं आ पाया है।
 मोदी पर किस्मत हुई मेहरबान
 मुंबई में विभिन्न कारोबारों में ललित मोदी ने हाथ डाला, पर उन्हें कोई कामयाबी मिलती नहीं दिख रही थी। उनका सबसे बड़ा आसरा परिवार से मिलने वाली राशि ही थी। तभी उनकी नजदीकी मित्र वसुंधरा राजे सिंधिया राजस्थान की मुख्यमंत्री बन गयीं। सिंधिया से मोदी की जान-पहचान बचपन की दोस्त बीना किलाचंद के माध्यम से हुई थी, जो वसुंधरा के साथ ही जयपुर में रहने लगी थीं। कुछ समय के बाद मोदी भी जयपुर चले आये। उन्हें उम्मीद थी कि वे उनका कारोबार जमाने में मददगार होंगी। इसी बीच किलाचंद और वसुंधरा राजे की दूरियां बढ़ने लगी थीं और मोदी लगातार मुख्यमंत्री के करीबी होते जा रहे थे। धीरे-धीरे वे उनके बहुत नजदीक हो गये और उनकी छवि कथित बिचौलिये की बनने लगी। वसुंधरा सरकार द्वारा कानून में बदलाव के जरिये मोदी ने राजस्थान क्रिकेट एसोसिएशन पर कब्जा किया और अपनी पैठ भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड में बनानी शुरू कर दी। इसके अलावा पुरानी हवेलियों की खरीद में भी वे संलग्न रहे और बाद में उन पर कुछ हवेलियों पर जबरन कब्जे के आरोप भी लगे। इस प्रकरण में कांग्रेस सरकार ने जांच के आदेश दिये थे। गौरतलब है कि यह जांच अब भी जारी है।
जानिए किन-किन आरोपों से घिरे हैं ललित मोदी
आईपीएल की शुरुआत और देश छोड़ने के तीन साल में ललित मोदी के रहन-सहन में भारी बदलाव आया। वे दुनिया की सबसे शानदार जगहों पर छुट्टियां मनाने जाने लगे। सार्डिनिया के इटालियन रिवियेरा में उन्होंने कथित रूप से एक नाव भाड़े पर लिया था और उस पर पार्टी मनाने के लिए अनेक लोगों को भारत से आमंत्रित किया। कहा जाता है कि इनमें कुछ वरिष्ठ राजनेता भी थे। परिवार और दोस्तों के साथ क्रिसमस मनाने का उनका ठिकाना थाईलैंड के फुकेट का अमन रिसॉर्ट रहा था। वर्ष 2008-09 में मोदी परिवार मैक्सिको गया था, जहां उसने जिमी गोल्डस्मिथ का बंगला किराये पर लिया था। खरबपति जिमी गोल्डस्मिथ क्रिकेट खिलाड़ी इमरान खान की पूर्व पत्नी जेमिमा के पिता थे। उन्हीं दिनों मीनल मोदी को स्तन कैंसर होने की जानकारी आयी। खबरों के मुताबिक अमेरिका में उनके इलाज के दौरान मोदी ने लॉस एंजिलिस के सबसे पॉश इलाके में मकान लिया था। विलासिता के अलावा मोदी का निजी जहाज खूब चर्चा में रहा था। कहा जाता था कि बड़े-बड़े उद्योगपति भी अपने निजी विमानों का बहुत कम उपयोग करते हैं, जबकि मोदी उसे किसी टैक्सी की तरह काम में लाते हैं। पर्यवेक्षकों का कहना था कि विलासिता के द्वारा ललित मोदी उन दिनों की भरपाई कर रहे हैं, जब परिवार उन्हें कम पैसा देता था और बाद में उनके कारोबारी जीवन में असफलताएं हाथ लगी थीं। हालिया तसवीरों से पता चलता है कि परेशानियों से घिरे होने के बावजूद उनके आलीशान रहन-सहन में कोई कमी नहीं आयी है।
 आईपीएल के दौरान मोदी की मेहनत और उनके उत्साह की चर्चाएं आज भी होती हैं। मैच के दौरान कम खाना, लगातार सिगरेट पीना, पूरी ऊर्जा के साथ मैच का आनंद लेना, और फिर रात की पार्टी में पूरे समय तक रहना। पार्टी के बाद सीधे या कुछ घंटों की नींद लेकर अगले मैच की जगह चले जाते थे। उनके बदलते महंगे अरमानी सूटों को देख कर कहा जाता था कि मानो अरमानी के दर्जी उनके साथ ही चलते हों।
 ललित मोदी पर आरोप टीवी राइट्स में धांधली
 आईपीएल के ग्लोबल राइट्स का अधिकार वर्ल्ड स्पोर्ट्स ग्रुप को दिया गया, जबकि सिंगापुर स्थिति मल्टी स्क्रीन मीडिया (एमएसएम) भारत में मैच के प्रसारण का अधिकार दिया गया। लेकिन इसमें धांधली के कारण बीसीसीआई ने एमएसएम के साथ हुए समझौते को रद्द कर दिया। इसके तत्काल बाद वर्ल्ड स्पोर्ट्स ग्रुप मॉरीशस जिसका स्वामित्व भी भारत स्थित वर्ल्ड स्पोर्ट्स ग्रुप की तरह था उसे भारत में प्रसारण का अधिकार दे दिया गया। इस कम्पनी को साइनिंग अमाउंट के तौर पर बीसीसीआई को 112 करोड़ रुपये देने थे। बीसीसीआई को यह पैसा कभी नहीं मिला। मोदी की जानकारी में यह सब हुआ।
 2010 आईपीएल के दौरान नीलामी प्रक्रिया में गड़बड़ी
 बीसीसीआई ने 2010 में दो और टीमों को आईपीएल में शामिल करने का फैसला लिया। ललित मोदी ने नीलामी प्रक्रिया में तत्काल कुछ शर्तें जोड़ दीं और कहा कि नीलामी प्रक्रिया में एक बिलियन डॉलर की कम्पनी ही हिस्सा ले सकती है और बैंक गारंटी के तौर पर उसे 100 मिलियन डॉलर देना होगा। बीसीसीआई ने तर्क दिया है कि नीलामी प्रक्रिया में ये शर्तें शामिल नहीं थीं, कुछ प्रतियोगी कंपनियों को इससे बाहर करने के लिए ऐसा किया गया।
 फ्रेंचाइजी पर दबाव बनाना
 2011 आईपीएल में शामिल होने के लिए पुणे वारियर्स और कोच्चि टस्कर नीलामी प्रक्रिया के तहत चुन ली गयीं। मोदी इससे खुश नहीं थे और उन्होंने दूसरी फ्रेंचाइजी का पक्ष लेना शुरू कर दिया। कोच्चि फ्रेंचाइजी के कुछ सदस्यों को उन्होंने दबाव डालकर अपनी हिस्सेदारी वापस लेने को कहा। जब वे नहीं माने तो ललित मोदी ने शेयरहोल्डिंग पैटर्न को सार्वजनिक करने और कुछ बीसीसीआई अधिकारियों का खुलासा करने की धमकी दी। उनके खुलासे से केंद्रीय मंत्री शशि थरूर को इस्तीफा देना पड़ा।
 फ्रेंचाइजी के शेयरहोल्डर से नजदीकी रिश्ता
 राजस्थान रॉयल्स में हिस्सेदारी रखने वाले सुरेश चेलारमन के साले हैं ललित मोदी। उन्होंने यह जानकारी क्रिकेट बोर्ड को नहीं दी। उन्होंने अपने करीबियों को नीलामी से जुड़ी जानकारी देकर फ्रेंचाइजी खरीदने में मदद पहुंचायी।
 ललित मोदी पर अन्य आरोप
 - इंग्लैंड में रहते हुए उन्होंने इंग्लिश लीग के साथ मिलकर एक विरोधी लीग तैयार करने की कोशिश की। कई समझौते उन्होंने बोर्ड को बताये बिना किये। वेबराइट देने के लिए उन्होंने ऐसी एजेंसी को चुना जिसका उनसे करीबी रिश्ता था।
- प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) फेसीलेशन फीस के तौर पर वर्ल्ड स्पोर्ट्स ग्रुप को मल्टी स्क्रीन मीडिया द्वारा प्रसारण अधिकार के लिए 80 मिलियन डॉलर के भुगतान की जांच कर रहा है।
- ईडी इसकी भी जांच कर रहा है कि इस 80 मिलियन डॉलर में से 25 मिलियन डॉलर ललित मोदी, उनके सहयोगी और राजनीतिक लोगों के अवैध खाते में तो नहीं पहुंचाये गये।
- ईडी 2008 की आईपीएल की नीलामी प्रक्रिया में भाग लेने वाले कुछ फ्रेंचाइजी को नीलामी की गोपनीय जानकारी देने के मामले की जांच कर रहा है। राजस्थान रॉयल्स की फ्रेंचाइजी लेने वाले और दूसरे स्थान पर रहने वाले के बीच नीलामी की राशि में 3 लाख डॉलर का अंतर पाया गया।
- ईडी मोदी द्वारा केमन आइलैंड की कम्पनी से काले धन का प्रयोग कर कॉरपोरेट जेट खरीदने के मामले की जांच भी कर रहा है।
- मुंबई के फोर सीजंस होटल के मालिक रमेश गोवानी की भी ईडी जांच कर रहा है। ललित मोदी अकसर इस होटल में रुकते रहे हैं।
- ललित मोदी की पत्नी की कंपनी इंडियन हेरिटेल होटल में मॉरीशस की कंपनी द्वारा 10 करोड़ रुपये निवेश की जांच भी ईडी कर रहा है।
- फेमा के तहत भी मामले दर्ज हैं, जिसमें फ्रेंचाइजी का स्वामित्व, विदेश निवेश का तरीका, शेयरों की कीमत और फिर उसका ट्रांसफर जांच के दायरे में हैं।
- वित्त मंत्रालय की संसदीय स्थायी समिति के समक्ष दिसंबर 2014 में पेश एक्शन टेकन रिपोर्ट में कहा गया है कि ईडी ने ललित मोदी, बीसीसीआई के कुछ अधिकारी और निजी कंपनियों को 2148.3 करोड़ की हेराफेरी के मामले में फेमा कानून का उल्लंघन करने के लिए नोटिस भेजा है।
- आयकर विभाग ने 16 सितम्बर, 2010 को बिना पैन नम्बर दिये वित्तीय वर्ष 2008-09 के दौरान बड़े पैमाने पर लेन-देन करने के लिए नोटिस भेजा था। नियम के मुताबिक पैन नम्बर देना अनिवार्य है।
- मुंबई जोन डायरेक्टोरेट आॅफ रिवेन्यू इंटेलीजेंस ने एयरक्राफ्ट का गोल्डन विंग्स कंपनी से आयात के संबंध में कागजात देने के लिए 4 नवम्बर, 2011 को नोटिस भेजा।

छोरियों की पहलवानी देख छोरे दंग

कन्या भ्रूण हत्याओं के लिए कुख्यात हरियाणा जैसे प्रदेश में लड़कियां निरंतर विभिन्न क्षेत्रों में अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन कर लोगों को अपनी भेदभाव वाली सोच बदलने के लिए विवश कर रही हैं। करनाल जिले के गांव बड़ौता की बेटियां अपनी बहादुरी से इस घिसी-पिटी सोच को ललकार रही हैं। बड़ौता की बेटियां कुश्ती जैसे लड़कों के लिए आरक्षित माने जाने वाले खेल में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उपलब्धियां हासिल करके देश का नाम रोशन कर चुकी हैं। कुछ लड़कियां राष्ट्रीय स्तर पर पदक जीत कर हरियाणा और अपने गांव को देश के नक्शे में चमका चुकी हैं। गांव की लड़कियों को अखाड़े व मैट पर जोर आजमाइश करते देख पूरे हरियाणा में लड़कियों की बराबरी और बहादुरी के बेहतर भविष्य की उम्मीद बंधती है।
एक समय था, जब कुश्ती को पुरुष प्रधान खेल कहा जाता था, लेकिन यहां धारा के विपरीत करनाल का गांव बड़ौता लड़कियों की कुश्ती का हब बनता जा रहा है। गांव में लड़कियों को पहलवानी करते देख लड़कों के हौसले भी पस्त हो जाते हैं। गांव की पहलवान सुजाता, सृष्टि व अन्नू खेलते हुए अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक पहुंच गई हैं। इन पहलवानों का सपना ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व करना और पदक जीतकर देश का नाम रोशन करना है। बेहद कम सुविधाओं में गांव की लड़कियां कोच पहलवान सुरेन्द्र व हरीश पूनिया के मार्गदर्शन में दिन में छह-छह घंटे पसीना बहाती हैं। मंजीत व रवि सहायक कोच हैं।
सुजाता ने विदेशों में भी जमाई धाक
जुलाई 2014 में स्लोवाकिया में विश्व कुश्ती चैंपियनशिप में कांस्य पदक जीत चुकी सुजाता बहुत कम उम्र में कुश्ती से जुड़ी। खेलों में उसकी पहली बड़ी उपलब्धि प्ले फॉर इंडिया योजना के तहत स्पैट क्वालीफाई करके पूरे साल स्कॉलरशिप लेना था। इससे सुजाता का आत्मविश्वास भी बढ़ा और स्कॉलरशिप के रूप में आर्थिक मदद भी मिली। कन्याकुमारी में 2013 में आयोजित राष्ट्रीय 16वीं फ्री स्टाइल सब-जूनियर केडेट प्रतियोगिता में 38 किलोग्राम भार वर्ग में प्रथम स्थान प्राप्त किया। श्रीनगर में 2014 में 17वीं राष्ट्रीय गर्ल सब जूनियर चैंपियनशिप में वह पहले स्थान पर आई। स्लोवाकिया में विश्व कुश्ती चैंपियनशिप में सुजाता ने कजाकिस्तान और रूस के प्रतिद्वंद्वियों को कड़े मुकाबले में पटखनी दी। इसके बाद जापान की पहलवान से हारने पर उसे कांस्य पदक मिला। 11वीं कक्षा में पढ़ रही सुजाता ने बताया कि उनके पिता रणधीर और माता दर्शना का उन्हें पूरा सहयोग मिलता है। उनका भाई मंदीप तो उसे हर समय मदद करता है। उससे भी अधिक कोच का मार्गदर्शन है। उसने बताया कि लंबे समय तक खेल खेलते हुए पढ़ाई नहीं हो पाती है लेकिन इसके बावजूद उसने दसवीं कक्षा प्रथम श्रेणी में पास की।
तीन बहनें बनीं प्रेरणा
बजिन्द्र सिंह व सुदेश देवी की तीनों बेटियां कुश्ती में अपने मां-बाप ही नहीं बल्कि गांव का नाम रोशन कर रही हैं। गांव की दूसरी होनहार पहलवान सृष्टि है। मई, 2014 में थाईलैण्ड के चोनबूरी में एशियन चैंपियनशिप में सृष्टि ने कांस्य पदक प्राप्त किया। वह बैंकाक में भी अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता में कांस्य पदक जीत चुकी है। वह राष्ट्रीय स्तर पर 4 बार हरियाणा एवं अपने गांव का नाम रोशन कर चुकी है। सृष्टि ने बताया कि वह 12 साल की उम्र से ही कुश्ती के दांव-पेंच लगाना सीख रही है। 2013 में फरीदाबाद में आयोजित स्वामी विवेकानन्द हरियाणा राज्य ग्रामीण अंडर-16 प्रतियोगिता में कुश्ती स्पर्धा में पहले स्थान पर कब्जा किया। सोनीपत (हरियाणा) व औरंगाबाद (महाराष्ट्र) में आयोजित पांचवीं व छठी राष्ट्रीय ग्रामीण खेल स्पर्धा में उसने पहला स्थान लिया और स्वर्ण पदक जीते। श्रीनगर में जुलाई 2014 में 17वीं लड़कियों की सब जूनियर राष्ट्रीय खेल स्पर्धा में भी उसने स्वर्ण पदक प्राप्त किया है। वह खेलों में ही नहीं बल्कि पढ़ाई में भी अव्वल है। गांव के ही राजकीय स्कूल में 12वीं कक्षा में उसने 90 प्रतिशत अंक प्राप्त किए हैं।
सृष्टि की बड़ी बहन प्रियेता भी कुश्ती में दमखम आजमाती है। बीए प्रथम में पढ़ रही प्रियेता ने 2015 में रोहतक में आयोजित हरियाणा राज्य कुश्ती चैंपियनशिप में 46 कि.ग्रा. वर्ग में द्वितीय स्थान प्राप्त किया। हाल ही में झारखण्ड राज्य के रांची में आयोजित लड़कियों की 18वीं राष्ट्रीय कुश्ती स्पर्धा में तीसरा स्थान प्राप्त किया। वहीं 17वीं राष्ट्रीय कुश्ती स्पर्धा में द्वितीय स्थान पर रही। महाराष्ट्र के औरंगाबाद में 2014 में हुई राष्ट्रीय छठी स्वामी विवेकानन्द पायका स्पर्धा में उसने पहला स्थान अर्जित किया था। सृष्टि और प्रियता की नौवीं कक्षा में पढ़ने वाली छोटी बहन संजू भी अपने बड़ी बहनों के नक्शेकदम पर तेजी से आगे बढ़ रही है। हाल ही में हिसार में आयोजित राज्य स्तरीय कुश्ती प्रतियोगिता में उसने स्वर्ण पदक जीत कर गांव का नाम रोशन किया।
हम भी नहीं किसी से कम
गांव में ही अन्नू ने विपक्षियों को 2 बार धूल चटाकर राज्य व राष्ट्रीय स्तरीय कुश्ती स्पर्धा में स्वर्ण पदक हासिल किया है। कोच सुरेन्द्र पूनिया का दावा है कि 40 वर्ग किलोग्राम भार वर्ग में उसका मुकाबला देश में कोई नहीं कर सकता। औरंगाबाद में आयोजित प्रतियोगिता में भी उसने स्वर्ण पदक जीता था। आजकल अन्नू दिल्ली में होने वाली अंतर्राष्ट्रीय कुश्ती प्रतियोगिता की तैयारी के लिए लखनऊ में आयोजित कैम्प में पसीना बहा रही है। गांव की शिवानी भी लखनऊ कैंप में थी, लेकिन उसके हाथ में चोट लग जाने के कारण उसे वापस लौटना पड़ा। गांव में दसवीं कक्षा में पढ़ने वाली अजमेर और रईसा की बेटी शबनम ने रोहतक में राज्य स्तरीय स्पर्धा में तीसरा स्थान लिया है। शिवानी भी राज्य स्तरीय कुश्ती में अपना दमखम दिखा चुकी है।
कैसे बढ़ा काफिला
गांव बड़ौता में कुश्ती का काफिला आगे बढ़ने की कहानी सामाजिक-आर्थिक समस्याओं से जुड़ी हुई है। पहलवान लड़कियों के कोच पहलवान सुरेन्द्र पूनिया और हरीश पूनिया के मन में टीस थी कि सुविधाओं और प्रशिक्षण के अभाव में वे आगे नहीं बढ़ सके। राष्ट्रीय स्तर पर खेल चुके सुरेन्द्र पूनिया और हरीश पूनिया ने ठान लिया कि वे अपने गांव में पहलवानों की नर्सरी तैयार करेंगे। उन्हें लड़कों से अधिक लड़कियों में संभावनाएं ज्यादा दिखीं। उन्होंने बताया कि हालांकि लड़कियों के लिए माहौल अधिक अनुकूल नहीं है, लेकिन इसके बावजूद लड़कियां अपने लक्ष्य के लिए जीजान झोंक देती हैं। उन्होंने बताया कि पहलवानों के आगे बढ़ने से ही उन्हें संतुष्टि मिलती है और यही उनका लक्ष्य है।
कोच के प्रयासों से मिली कुछ सुविधा
कोच हरीश व सुरेन्द्र का कहना है कि लड़कियां गांव के राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय में बनाए गए अखाड़े में अभ्यास करती थीं, लेकिन राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें मैट पर खेलना होता था, जिससे उन्हें काफी परेशानी होती थी। पंचायत के सहयोग से स्कूल में अभ्यास के लिए हॉल बनवाया गया। उसके बाद खेल विभाग ने मैट का सहयोग किया।
सरकार दे खिलाड़ियों को आर्थिक सहायता
कोच सुरेन्द्र, हरीश व मंजीत ने बताया कि कुश्ती करने वाली लड़कियों के परिवारों की आर्थिक हालत कोई ज्यादा अच्छी नहीं है। कुछ लड़कियां तो अपने परिवार के साथ मजदूरी करती हैं। गेहूं व धान की कटाई करने के साथ ही लड़कियां हाड़तोड़ अभ्यास करती हैं। सुबह और शाम तीन-तीन घंटे कड़ा अभ्यास करते हुए उन्हें अतिरिक्त पोषाहार की जरूरत है। बाहर खेलने के लिए जाते हुए भी उन्हें आर्थिक मदद की जरूरत होती है। उन्होंने कहा कि सरकार को इन लड़कियों की आर्थिक मदद करनी चाहिए।
आॅस्ट्रेलिया से भिजवाये एक क्विंटल बादाम
पहलवान बेटियों के पोषाहार की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए आस्ट्रेलिया में रह रहे जितेन्द्र पाल ने एक क्विंटल बादाम भेजे हैं। जितेन्द्र खुद भी पहलवान रहे हैं। उन्होंने कुश्ती में करनाल केसरी का खिताब जीता है। वे जानते हैं कि पहलवानों के लिए बादाम कितना जरूरी है। कोच हरीश ने बताया कि बादाम खिलाड़ी में पानी की कमी को पूरा करता है। प्यास नहीं लगने देता।

Sunday 21 June 2015

योग की स्वीकार्यता



समय दिन-तारीख देखकर आगे नहीं बढ़ता। इस अनवरत यात्रा में कई सुखद और दु:खद पड़ाव आते हैं। रविवार 21 जून का दिन भारतीय जीवन शैली की पवित्रता के रूप में दुनिया भर के दिलों में अपनी पैठ बना चुका है। अब हर साल एक दिन ही सही समूची दुनिया जाति-धर्म से परे कोई पांच हजार साल पुरानी यौगिक क्रियाओं से अपने तन-मन को स्वस्थ रखने का माध्यम जरूर बनाएगी। योग: कर्मसु कौशलम् की स्वीकार्यता आसानी से युगांतकारी नहीं बनी। स्वस्थ जीवन समस्त मानव जाति का अधिकार है, इस बात को दुनिया भर के 198 मुल्कों की लगभग दो अरब आवाम ने रविवार को अपनी स्वीकार्यता देकर उन कुछेक धर्मबीमार तथा संकीर्ण विचारधारा के लोगों को नसीहत जरूर दी है, जोकि योग को लेकर अनर्गल प्रलाप करते हैं। योग का अंतरराष्ट्रीय फलक पर उभरना और उसको स्वीकारना सिर्फ भारत ही नहीं समूची मानवता के लिए गौरव की बात है। समय का संकेत भारत के पक्ष में है, यह आज सबने न केवल देखा बल्कि महसूस भी किया है। दुनिया शांति चाहती है लेकिन उसके पास इसे प्राप्ति के संसाधन नहीं हैं। योग में शांति का ऐसा रहस्य समाहित है, जो दिखता तो नहीं पर इससे सात्विक, दिव्य, शाश्वत और परम शांति जरूर मिलती है। योग के बहाने दुनिया ने शांति का जो संकल्प लिया है, उससे एक ऐसा आत्मविश्व बनेगा जिसमें कोई विभेद नहीं होगा। जहां तक योग के विश्वव्यापी पहचान की बात है, यह दशकों से लोगों के मन-मानस में दर्ज थी लेकिन हाल के कुछ वर्षों में इसकी लोकप्रियता में जबरदस्त इजाफा हुआ है। वर्षों पहले स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि कुछ तो ऐसा हो जिसे समूची दुनिया का समर्थन मिले, जिसमें जाति, धर्म, भाषा या राजनीति आडे न आये। सच कहें तो विवेकानंद जी के सपने को भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने न केवल साकार रूप देने की नायाब कोशिश की बल्कि दुनिया ने उसे फलीभूत भी कर दिखाया। अंतरराष्ट्रीय योग दिवस पर मुल्क की आवाम ने एक साथ योगासन करविश्व को यह संदेश दिया कि भारत एक है। उसकी राष्ट्रीय एकता अखण्ड है। योग ईश्वरवाद और अनीश्वरवाद की तार्किक बहस में नहीं पड़ता। वह इसे विकल्प ज्ञान मानता है। योग को ईश्वर के होने या नहीं होने से कोई मतलब नहीं, किंतु यदि किसी काल्पनिक या यथार्थ ईश्वर की प्रार्थना करने मात्र से ही मन और शरीर को शांति मिलती है तो उसे सिर्फ एक दिन ही क्यों हर दिन क्यों न अमल में लाया जाये।   सच तो यह है कि योग एक ऐसा मार्ग है, जो विज्ञान और धर्म के बीच से निकलता है। वह दोनों में ही संतुलन बनाकर चलता है। योग के लिए महत्वपूर्ण है मनुष्य और मोक्ष। मनुष्य को शारीरिक-मानसिक रूप से स्वस्थ रखना विज्ञान और मनोविज्ञान का कार्य है तथा मनुष्य के लिए मोक्ष का मार्ग बताना धर्म का कार्य है। योग में दोनों ही बातें समाहित हैं। योग की सार्थकता तभी है जब इसे हर दिन, हर पल अमल में लाया जाये।

Saturday 20 June 2015

प्रमोद कटारा की जांबाजी को सलाम





कटारा ने किया स्विस बॉल पर धनुरासन
लिम्का बुक आॅफ वर्ल्ड रिकार्ड्स और इंडिया बुक आॅफ रिकार्ड्स करेगा प्रमाणित


आगरा। कहते हैं जब नीयत नेक हो और मन में कुछ कर दिखाने का जज्बा हो तो भगवान भी साथ देता है। ऐसा ही कुछ हुआ आगरा के प्रमोद कुमार कटारा के साथ। शारीरिक अक्षमता के बावजूद जांबाज कटारा ने हार नहीं मानी। नित नये रिकॉर्ड बनाना और तोड़ना तो कटारा का शगल बन गया है।
अंतरराष्ट्रीय योग दिवस से एक दिन पहले प्रमोद कुमार कटारा ने  आगरा के मेहताब बाग में 120 सेंटीमीटर की स्विस बॉल पर संतुलन बनाकर धनुरासन का ऐसा प्रदर्शन किया कि लोग दांतों तले उंगली दबाने को मजबूर हो गये। प्रमोद कटारा के एक मिनट 30 सेकेण्ड के इस जांबाज प्रदर्शन को लिम्का बुक आॅफ वर्ल्ड रिकार्ड्स और इण्डिया बुक आॅफ रिकार्ड्स द्वारा प्रमाणित किया जायेगा।
जो लोग प्रमोद कुमार कटारा को जानते हैं, उन्हें सहज विश्वास ही नहीं होता कि यह ऐसे हैरतअंगेज प्रदर्शन भी कर सकते हैं। दरअसल यदि इंसान में हिम्मत और दृढ़ संकल्प हो तो वह अकेले दम हर मुश्किलों पर फतह पा सकता है। प्रमोद कटारा न केवल हिम्मती हैं बल्कि मंजिल को पाने का जुनून उन्हें हर इंसान से अलग साबित कर देता है। आगरा में 15 जनवरी, 1965 को जन्मे प्रमोद कटारा क्रोनिक रूमेटोइड आर्थराइटिस (गठिया) से लम्बे समय से संघर्ष कर रहे हैं बावजूद इसके उनके हौंसले में कोई कमी नजर नहीं आती। कटारा की मंद-मंद मुस्कान इस बात का द्योतक है कि उन्हें अब तो संघर्ष में ही आनंद मिलता है।
बकौल प्रमोद कुमार कटारा 2005 में क्रोनिक रूमेटोइड आर्थराइटिस (गठिया) के कारण मैं कुछ महीने तक अपाहिज हो गया। गठिया से निजात के लिए मैंने लम्बे समय तक दवाओं का सहारा लिया। दवा ही जैसे मेरी जिन्दगी हो गई। लाख जतन के बाद भी मेरी हालत में लेशमात्र भी सुधार नहीं आ रहा था। मैं टूट सा गया, पर हिम्मत हारने से काम नहीं बनने वाला था सो मैंने फैसला लिया की मुझे इस बीमारी से हार नहीं माननी। सच कहूं मैंने हार नहीं मानी और अपने आपको चुस्त-दुरुस्त रखने के लिए ध्यान और योग गुरुओं की मदद ली। मैंने क्रोनिक रूमेटोइड आर्थराइटिस (गठिया) के दर्द पर काबू पाने की तकनीक सीखी और फिर क्या था मैंने ठान लिया कि मुझे उस मंजिल तक पहुंचना है, जोकि मेरा संकल्प और जुनून है।
प्रमोद कटारा ने न केवल विकलांगता पर फतह हासिल की बल्कि आज उनका फौलादी शरीर रिकॉर्ड मशीन बन चुका है। फिलवक्त 50 साल के प्रमोद कटारा पांच नेशनल और 11 अपने ही पुराने रिकॉर्ड तोड़ने  की कोशिश में लगे हुए हैं। कटारा का यह प्रयास 25 मई, 2015 से अनवरत जारी है जोकि 25 जून तक चलेगा।
प्रमोद कटारा की उपलब्धियां और रिकॉर्ड
1.   ट्रेड मिल पर उल्टा दौड़ना (पांच घण्टे 15 मिनट) 27 मई 2015
2.   बिना किसी सहारे से पैर की उंगलियों पर क्रॉस ट्रेनर चलना (दो घण्टे 05 मिनट) 12 जून, 2015
3. पीठ पर अधिकतम वजन उठाना (दो सौ किलोग्राम) 13 जून, 2015
4. गरदन से अधिकतम वजन उठाना (120 किलोग्राम) 13 जून, 2015
अभी तक- नेशनल रिकॉर्ड एटेम्प्ड का वर्णन (पुराने रिकॉर्ड्स)
1.  120 सेंटीमीटर स्विस बॉल पर संतुलन बनाए रखना (आठ घण्टे 40 मिनट) 31 मई, 2015
2.  दो सेंटीमीटर स्विस बॉल पर पेट के बल लेटकर संतुलन बनाए रखना (एक घण्टा 20 मिनट) 10 जून, 2015
3.  दो सेंटीमीटर स्विस बॉल पर पीठ के बल लेटकर संतुलन बनाए रखना (तीन घण्टे 05 मिनट) 14 जून, 2015
4. एक किलोग्राम वजनी मेडिसिन बॉल को पकड़कर दो सेंटीमीटर स्विस बॉल पर पीठ के बल लेटकर संतुलन बनाए रखना (दो घण्टे 05 मिनट) 16 जून, 2015

Friday 19 June 2015

वसुन्धरा पर रहम!

पूर्व आईपीएल प्रमुख ललित मोदी प्रकरण बेशक हनुमान की पूंछ की मानिन्द लगातार बढ़ रहा हो पर भारतीय जनता पार्टी ने शुक्रवार को राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे सिंधिया पर रहम दिखाकर न केवल उनकी कुर्सी के खतरे को टाल दिया बल्कि कांग्रेस की हसरतों पर भी पानी फेर दिया है। भाजपा ने विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को पहले ही क्लीन चिट दे रखी है। ललित मोदी को लेकर हमलावर कांग्रेस को भी पता है कि क्रिकेट के काले खेल में कमल दल ही नहीं बल्कि कई कांग्रेसियों के भी व्यावसायिक हित जुड़े हुए हैं। ललित मोदी प्रकरण में सबसे पहले सुषमा स्वराज का नाम आया। बहस उठी कि धनशोधन और फेमा उल्लंघन के आरोपी को मानवीय आधार पर मदद दी जा सकती है या नहीं? बहस ने तूल पकड़ा ही था कि बात ललित मोदी और सुषमा स्वराज के वकील पति के बीसियों साल पुराने रिश्ते तक पहुंच गई। बहस परवान चढ़ती, तभी वसुन्धरा राजे और उनके बेटे का नाम भी लपेटे में आ गया। ललित मोदी का क्रिकेट से व्यावसायिक-प्रशासनिक याराना राजस्थान क्रिकेट बोर्ड के जरिये ही परवान चढ़ा था। वसुन्धरा के बारे में कहा जा रहा है कि उन्होंने भी आव्रजन मामले में ललित मोदी की मदद की और उनके बेटे की कम्पनी में ललित मोदी ने करोड़ों रुपये लगाये। विपक्ष हमलावर हो रहा था, तभी कुछ नाम और आ जुड़े। ललित मोदी ने खुद कहा कि आव्रजन मामले में उन्हें राकांपा नेता शरद पवार, प्रफुल्ल पटेल और कांग्रेस के राजीव शुक्ला से भी मदद मिली है। पवार और शुक्ला भी भारतीय क्रिकेट बोर्ड के प्रशासक रह चुके हैं। बचाव के तर्क सबके पास हैं। सुषमा के पास मानवीय आधार का कवच है तो वसुन्धरा के पास जानकारी न होने की ढाल। पवार कह रहे हैं कि वे लंदन गये ही थे मोदी को यह बताने कि भारत आकर अदालत का सामना करो, जबकि राजीव शुक्ला कह रहे हैं कि तीन साल से उनका मोदी से सम्पर्क ही नहीं है। आरोप और बचाव की इस लुका-छिपी में बस एक बात नहीं पूछी जा रही कि धन की गंगोत्री जहां से फूटती है, वहां बाघ और बकरी अपना स्वभावगत बैर भूलकर आखिर एक साथ पानी क्यों पीते हैं? भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड की जहां तक बात है, उसका दुनिया की सबसे धनी खेल संस्थाओं में शुमार है और ललित मोदी प्रकरण ने साबित किया है कि बात धन की ऐसी सदानीरा नदी की हो तो नेता,अभिनेता, व्यापारी, नौकरशाह सब अपनी स्वभावगत दूरी को परे कर पारस्परिक लाभ की ऐसी पारिवारिकता विकसित कर लेते हैं, जिसे भेद पाना सवा अरब लोगों के लोकतंत्र के लिए अकसर बहुत मुश्किल होता है। राजनीति में नैतिकता का जिस कदर क्षरण हो रहा है, उसे देखते हुए जो उम्मीद थी वही हुआ। सुषमा और वसुन्धरा न केवल बच गर्इं बल्कि ललित मोदी को भी एक न एक दिन दूध का धुला साबित कर दिया जाये तो अचरज नहीं होना चाहिए।

सप्रे संग्रहालय यानी इतिहास का रोमांच


कहते हैं गुजरा हुआ जमाना वापस नहीं आता, परंतु बीते वक्त के रोमांच का एहसास किया जा सकता है। जी हां! भोपाल के माधवराव सप्रे स्मृति समाचार-पत्र संग्रहालय एवं शोध संस्थान में संग्रहित अलग-अलग कालखंडों के समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं की इबारत पढ़ते हुए ऐसा ही एहसास होता है, मानों इतिहास के रूबरू खड़े हो गए हों। देश में अपनी तरह के इस अनूठे संग्रहालय में 25 हजार शीर्षक से अधिक समाचार पत्र-पत्रिकाएं संजोए जा चुके हैं। भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी के सन 1780 से लेकर 2015 तक प्रकाशित होने वाले इन पत्र-पत्रिकाओं में भारतीय नवजागरण (स्वतंत्रता संग्राम समाज सुधार आंदोलन और आर्थिक स्वावलंबन की चेतना), विम्बलडन टेनिस कोर्ट का निर्माण, विनाशकारी प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध, भारत की आजादी, महात्मा गांधी की हत्या, प्रेसीडेंट कैनेडी की हत्या, चंद्रमा पर मानव के कदमों का पड़ना, चंबल की घाटी के बागियों का आत्मसमर्पण, भारत के सेनापति के सम्मुख नब्बे हजार पाकिस्तानी फौज का हथियार डालना और भोपाल गैस कांड जैसी तमाम ऐतिहासिक घटनाओं पर तत्काल जो प्रतिक्रियाएं उभरीं और सुर्खियां बनीं... इन इबारतों को पढ़ते समय पाठक कहीं इतिहास के उन क्षणों के रोमांच में खो जाते हैं तो कहीं अचंभित होकर निहारते रहते हैं।
19 जून, 1984 को भारतीय पत्रकारिता इतिहास के अध्येता वरिष्ठ पत्रकार विजयदत्त श्रीधर द्वारा स्थापित माधवराव सप्रे स्मृति समाचार-पत्र संग्रहालय एवं शोध संस्थान में दो करोड़ पृष्ठों से अधिक शोध संदर्भ सामग्री संग्रहित है। इसमें समाचार पत्र-पत्रिकाओं के साथ-साथ 734 पाण्डुलिपियां, एक लाख से अधिक पुस्तकें, विश्वकोष, 274 अभिनंदन ग्रंथ, 144 गजेटियर, 327 शोध प्रबंध, 863 जांच रिपोर्ट एवं प्रतिवेदन, 4190 संपादकों, साहित्यकारों और अन्य महत्वपूर्ण व्यक्तियों का पत्राचार तथा विषय केन्द्रित पांच हजार से अधिक संदर्भ फाइलें सम्मिलित हैं। सप्रे संग्रहालय की मासिक शोध पत्रिका आंचलिक पत्रकार पत्रकारिता, जनसंचार और विज्ञान संचार पर विमर्श और संवाद का नियमित माध्यम है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के चार विश्वविद्यालयों ने सप्रे संग्रहालय को शोध केन्द्र के रूप में मान्यता प्रदान की है।
900 शोध छात्र यहां से अब तक लाभान्वित हो चुके हैं। देश-विदेश से भी शोधकर्ता और लेखक इस विपुल संदर्भ सामग्री का लाभ उठाने के लिए निरंतर आ रहे हैं। मनीषी संपादकों, साहित्यकारों, शिक्षाविदों ने इस संस्थान को ह्यपत्रकारिता का तीर्थह्ण निरूपित किया है। सप्रे संग्रहालय में चित्रदीर्घा भी है, जिसमें भारत के मूर्द्धन्य संपादकों तथा प्रतिनिधि समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं के 500 चित्र प्रदर्शित किए गए हैं। प्रदर्शनी पटल पर सन् 1511 से लेकर उन्नीसवीं सदी तक की पाण्डुलिपियों को भी देखा जा सकता है, जिसमें गोस्वामी तुलसीदास कृत तीन दुर्लभ पाण्डुलिपियां भी हैं। लब्ध-प्रतिष्ठ संपादकों की स्मृति को अक्षुण्ण बनाने के उद्देश्य से परिसर में स्मृति वाटिका विकसित की गई है। सप्रे संग्रहालय राष्ट्र की बौद्धिक धरोहर को भावी पीढ़ियों के लिए एक छत के नीचे संकलित और संरक्षित करने का सारस्वत अनुष्ठान है, जिसमें विद्या- व्यसनी परिवारों की धरोहर संजोते जाने का सिलसिला एक प्रतिष्ठित और प्रामाणिक परंपरा बन गई है। स्वनामधन्य सर्वश्री दादा माखनलाल चतुवेर्दी, पं. रामेश्वर गुरु, सेठ गोविन्ददास, देवीदयाल चतुवेर्दी ह्यमस्तह्ण, हुक्मचंद नारद, भवानीप्रसाद मिश्र, रायबहादुर हीरालाल, रामानुजलाल श्रीवास्तव, डॉ. धर्मवीर भारती, यशवंत नारायण मोघे, जगदीशप्रसाद चतुवेर्दी, डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव, व्यौहार राजेन्द्र सिंह, अमृतलाल वेगड़, राजा गंगासिंह पाड़ौन, आचार्य हरिहर निवास द्विवेदी, डॉ. जगदीशप्रसाद व्यास, आचार्य वासुदेव शरण गोस्वामी, राजेन्द्रशंकर भट्ट, मनीषी संपादक नारायण दत्त, एचवाय शारदाप्रसाद, वीरेन्द्र त्रिपाठी, गोविन्द मिश्र, डॉ. विजय बहादुर सिंह, डॉ. धनंजय वर्मा, हनुमानप्रसाद वर्मा, भाई रतन कुमार, पं. झाबरमल्ल शर्मा, अयोध्याप्रसाद गुप्त ह्यकुमुदह्ण, नितिन मेहता, अवधबिहारी गुप्ता, प्रो. आफाक अहमद, ईशनारायण जोशी, रतनलाल जोशी, सूर्यनारायण शर्मा, नईम कौशल, मुस्तफा ताज, नजमुद्दीन हकीमुद्दीन, अनंत मराल शास्त्री, आरिफ अजीज, शंकरभाई ठक्कर, प्रो. लक्ष्मीनारायण अग्रवाल, प्रताप ठाकुर प्रभृति संपादकोंसाहित् यकारों-शिक्षाविदों ने सप्रे संग्रहालय के ज्ञानकोश को भरने में चिरस्मरणीय अवदान दिया है। अन्य सहस्राधिक सामग्रीदाताओं का भी योगदान कम नहीं है। मई-2015 में माधवराव सप्रे स्मृति समाचार-पत्र संग्रहालय एवं शोध संस्थान की ज्ञान संपदा में असाधारण अभिवृद्धि आगरा के सन् 1916 में स्थापित चिरंजीव पुस्तकालय की अपार संदर्भ सामग्री उपलब्ध होने से हुई। श्री चिरंजीवलाल पालीवाल की इस कालजयी विरासत को उनके सुपौत्र श्री विजयदत्त पालीवाल ने भावी पीढ़ियों के शोध संदर्भ और ज्ञान लाभ के लिए सप्रे संग्रहालय को उदारतापूर्वक सौंप दिया। यह सामग्री 25 हजार पुस्तकों और पत्रिकाओं की फाइलों के रूप में संचित है। इसका सप्रे संग्रहालय के लिए इस रूप में भी महत्व है कि देशभर के विद्या- अनुरागी परिवार इस संस्था पर पूरा भरोसा करते हैं। शिक्षा और शोध संदर्भ के क्षेत्र में उल्लेखनीय अवदान को रेखांकित करते हुए मध्यप्रदेश शासन के संस्कृति विभाग ने मार्च-2015 में माधवराव सप्रे स्मृति समाचार-पत्र संग्रहालय एवं शोध संस्थान को ह्यमहर्षि वेदव्यास राष्ट्रीय सम्मानह्ण से सम्मानित करने की घोषणा की है। यह प्रकारांतर से लोक मान्यता का प्रमाण है। सप्रे संग्रहालय ने भारतीय पत्रकारिता कोश, पहला संपादकीय, भारतीय पत्रकारिता: नींव के पत्थर, माधवराव सप्रे: व्यक्तित्व और कृतित्व, शब्द सत्ता, छत्तीसगढ़: पत्रकारिता की संस्कार भूमि, समय से साक्षात्कार: पं. झाबरमल्ल शर्मा की संपादकीय टिप्पणियां और अग्रलेख, तेवर: पं. द्वारकाप्रसाद मिश्र के अग्रलेख, स्मृति बिम्ब, खबरपालिका की आचार संहिता, चौथा पड़ाव, शह और मात, मध्यप्रदेशातील मराठी पत्रकारिता, मध्यप्रदेश की उर्दू सहाफत: इब्दता और इरतिका, हस्ताक्षर, नारायण दत्त मनीषी संपादक, स्वामी श्रद्धानंद और उनका पत्रकार कुल आदि प्रामाणिक ग्रंथों का प्रकाशन किया है। समाज में विज्ञान चेतना के प्रसार के लिए सप्रे संग्रहालय एक दशक से विज्ञान पत्रकारिता और लोकप्रिय विज्ञान लेखन तथा विज्ञान संचार कार्यशालाओं, संगोष्ठियों तथा समूह संवादों की शृंखला चला रहा है। समाज में समय-सिद्ध लोकविज्ञान को पुन: व्यवहार में प्रचलित करने के लिए चलाया गया अभियान गति पा रहा है। सप्रे संग्रहालय इन अनुभवों को सुरुचिपूर्ण और बोधगम्य प्रकाशनों में ढालकर सर्वसुलभ बना रहा है। विज्ञान संचार और पत्रकारिता, पानी की बात विज्ञान के साथ, पानी, समाज और सरकार, जल चौपाल- लोक संस्कृति में जल विज्ञान और प्रकृति, जनजातीय संस्कृति में जल विज्ञान और प्रकृति, पानी की कहानी, पेड़ों की दुनिया में सप्रे संग्रहालय के लोक विज्ञान और विज्ञान जगत में चर्चित प्रकाशन हैं।
-विजयदत्त श्रीधर
                                                                                                                                                                                           

Thursday 18 June 2015

आडवाणी की चिन्ता

इन दिनों कमल दल का समय ठीक नहीं चल रहा है। उसकी मुश्किलें एक के बाद एक बढ़ती ही जा रही हैं। पार्टी अभी क्रिकेट की किरकिरी से सम्हली भी नहीं कि उसके वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने यह कहकर राजनीतिक गलियारे में सनसनी पैदा कर दी है कि मौजूदा दौर में लोकतंत्र को दबाने वाली ताकतें सक्रिय हो गयी हैंं जिसके कारण आपातकाल की वापसी की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता। हालांकि आडवाणी ने साफ कर दिया है कि उनका इशारा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तरफ नहीं है बावजूद इसके विपक्षी दलों ने आडवाणी के बयान को तूल देकर मोदी की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के शासनकाल के दौरान लागू किये गये आपातकाल में 19 महीने तक जेल में बंद रहने वाले आडवाणी ने कहा कि मैं नहीं सोचता कि 1975 -1977 से ऐसा कुछ किया गया हो जिससे यह आश्वासन मिले कि नागरिक अधिकारों को दोबारा निलम्बित नहीं किया जायेगा या उनका दमन नहीं किया जायेगा। हां, ऐसा आसानी से नहीं किया जा सकता लेकिन मैं यह नहीं कह सकता है कि ऐसा दोबारा नहीं हो सकता है। मैं यह नहीं कहता कि राजनीतिक नेतृत्व परिपक्व नहीं है लेकिन इसकी कमजोरी की वजह से हमें इस पर भरोसा नहीं है। 25 जून,1975 को लागू किये गये आपातकाल के 40 वर्ष पूरे होने के पहले आडवाणी ने अपने साक्षात्कार में जो कहा उसके निहितार्थ हैं। आडवाणी की भारतीय लोकतंत्र को लेकर जताई गई चिन्ता से दिल्ली सरकार को न केवल बल मिला है बल्कि भाजपा पर हमला बोलने का एक अवसर भी। केन्द्र और दिल्ली सरकार के बीच चल रही नूरा-कुश्ती का पटाक्षेप भी नहीं हुआ था कि कमल दल को विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और राजस्थान की  मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे की चालबाज-भगोड़े ललित मोदी की सन्निकटता के चलते असहज हालातों का सामना करना पड़ रहा है। मोदी की स्थिति भी सांप-छछूंदर सी हो गई है। उनकी लगातार चुप्पी पार्टी के लिए नुकसानदेह साबित हो रही है। भारतीय लोकतंत्र फिलवक्त जिस राह पर चल रहा है, उसे देखते हुए आडवाणी की चिन्ता जायज भी है। दिल्ली के मामले में मोदी सरकार ने यदि बड़े भाई का फर्ज निभाया होता तो शायद अरविन्द केजरीवाल को भाजपा पर तंज कसने का मौका नहीं मिलता। सिर्फ आम आदमी पार्टी ही नहीं कांग्रेस और दीगर दल भी प्रधानमंत्री मोदी की कार्यशैली से असहज महसूस कर रहे हैं। आडवाणी ने लोकतंत्र को लेकर जो चिन्ता जाहिर की है, उसे सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता। राजनीतिक दलों को भाजपा पर तंज कसने की बजाय आडवाणी की चिन्ता और नसीहत पर गम्भीरता से मनन करने की जरूरत है। यह बात सही है कि मोदी सरकार सबका साथ, सबका विकास मामले में आशानुरूप प्रदर्शन नहीं कर पाई है, पर उसने कुछ अच्छे प्रयास जरूर किये हैं।

काली करतूतों की क्रिकेट

‘काजल की कोठरी में कितनोें सयानों जाये, एक लीक लागिहै पै लागिहै।’ जी हां भारत में क्रिकेट काजल की कोठरी ही है, इसके सम्पर्क में जो आयेगा, वह दागी कहलायेगा। क्रिकेट ने भारत को पहचान दी तो उसके मुरीदों ने भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड को दुनिया की सबसे समृद्ध खेल संस्था बनाने का विलक्षण कार्य किया। जहां पैसा होगा वहां रंजोगम तो होना ही है। भारत ने इण्डियन प्रीमियर लीग के बहाने जहां दुनिया भर में अपने मुरीद पैदा किये वहीं हर क्रिकेटर की इस मंच पर खेलने की ख्वाहिश इसे विशेष दर्जा प्रदान करती है। आईपीएल के आठ संस्करणों के संस्मरण बहुत अच्छे नहीं कहे जा सकते। इस आयोजन से जुड़ी तमाम तरह की विसंगतियों ने क्रिकेटप्रेमियों को खासा निराश किया है। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुन्धरा राजे सिंधिया की ललित मोदी से सन्निकटता को लेकर जो हायतौबा मची है उसे हम पारिवारिक दोस्ती या सामान्य शिष्टाचार कहें तो ज्यादा उचित होगा। सच्चाई तो यह है कि भारतीय क्रिकेट के महासागर में कमोबेश हर राजनीतिज्ञ ने किसी न किसी रूप में गोता जरूर लगाया है।
अनैतिक परम्पराओं, महत्वाकांक्षाओं, राजनीतिक जोड़-तोड़ और आनन-फानन में धन जुटाने की लालसा से क्रिकेट तो जरूर बदनाम हुई लेकिन राजनीतिज्ञों का इससे लगाव कम होने की बजाय लगातार बढ़ता ही जा रहा है। राजनीतिक गलियारों में इस बात की चर्चा है कि प्रधानमंत्री मोदी सुषमा स्वराज और वसुन्धरा राजे को लेकर आखिर चुप क्यों हैं? इसकी वजह भी मोदी का क्रिकेट से जुड़ाव ही है। प्रधानमंत्री बनने से पूर्व मोदी भी गुजरात क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष रहे हैं। अब यह दायित्व भाजपा के राष्टÑीय अध्यक्ष अमित शाह के पास है। आज जिस ललित मोदी को लेकर राजनीति हो रही है कालांतर में मुल्क के सैकड़ों राजनीतिज्ञ उनसे दोस्ती को अपना सौभाग्य समझते थे। मोदी ही हैं जिन्होंने इण्डियन प्रीमियर लीग के बहाने बीसीसीआई को धन्नासेठ बनाया। आज ललित मोदी की छवि एक चालबाज और भगोड़े के रूप में की जा रही है। एक उद्योगपति घराने से ताल्लुक रखने वाले इस शख्स ने यदि क्रिकेट को पैसे की मशीन बनाने में रुचि न ली होती तो सच मानिए आज भी हमारे क्रिकेटर दोयमदर्जे का जीवन बसर कर रहे होते। क्रिकेट में भ्रष्टाचार की जड़ें कितनी गहरी पैठ बना चुकी हैं, यह बात किसी से छिपी नहीं है। सिर्फ आयोजक ही नहीं भ्रष्टाचार के मोहपाश में अनगिनत खिलाड़ी और खेलनहार भी फंसे हुए हैं। सुषमा स्वराज और वसुन्धरा राजे को लेकर राजनीतिज्ञों की अलग-अलग राय इसी बात का  प्रमाण है कि क्रिकेट में और भी दागी हैं, जिन्हें अपने नाम उजागर होने का डर है। आज सुषमा स्वराज पर उन कसौटियों पर खरा उतरने की जवाबदेही है जिनके सहारे वह और उनकी पार्टी पिछली सरकार को निशाने पर रखती रही है। ललित मोदी की विदेशी मुद्रा कानून उल्लंघन मामले में प्रवर्तन निदेशालय को तलाश है, उनके नाम ब्लू कॉर्नर नोटिस जारी हो चुका है और वह लंदन में एक तरह से निर्वासित जीवन बिता रहे हैं। ऐसा व्यक्ति अगर मानवीय आधार पर कोई अपील करता है, तो सुषमा स्वराज जैसे वरिष्ठ एवं अनुभवी राजनेता से इतनी उम्मीद तो की ही जानी चाहिए कि उसकी कोई भी मदद करते समय वे सम्बन्धित पक्षों को इसकी जानकारी देतीं और उन्हें विश्वास में लेतीं। सवाल यह भी कि ललित मोदी को यदि अपनी कैंसर पीड़ित पत्नी के उपचार के लिए इंग्लैण्ड से पुर्तगाल जाना ही था, तो उन्होंने मानवीय आधार पर इसकी अनुमति देश-विदेश की किसी अदालत से मांगने की बजाय सीधे विदेश मंत्री से ही क्यों मांगी? दरअसल, सुषमा के पति, सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील स्वराज कौशल की ललित मोदी से 20 साल पुरानी दोस्ती है और वे ललित मोदी को पिछले कई सालों से कानूनी सलाह दे रहे हैं। इतना ही नहीं, सुषमा स्वराज की वकील बेटी बांसुरी कौशल भी पिछले सात साल में कई बार अदालत में ललित मोदी की पैरवी कर चुकी हैं। ललित मोदी और वसुन्धरा राजे की नजदीकियों की जहां तक बात है वसुंधरा राजे की मां राजमाता विजया राजे सिंधिया और ललित मोदी के पिता कृष्ण कुमार मोदी दोस्त थे। इसलिए अगली पीढ़ी में दोस्ती होना अचरज की बात नहीं थी। मुख्यमंत्री वसुंधरा न केवल तेज-तर्रार हैं बल्कि उनकी राजस्थान में तूती बोलती है। ललित मोदी ने इसी का लाभ उठाते हुए राजस्थान को अपना आशियाना बनाने की कोशिश की। वह न केवल राजस्थान क्रिकेट के अध्यक्ष बने बल्कि उन्होंने 2005-06 में जयपुर के प्रतिष्ठित और बेहद महंगे रामबाग पैलेस होटल को ही एक तरह से अपना घर बना लिया। समय बदला, रुतबा बढ़ा और ललित मोदी ने इण्डियन प्रीमियर लीग प्रतियोगिता के प्रयास तेज कर दिए। वर्ष 2008 में आईपीएल का आगाज हुआ और तब तक वसुन्धरा राजे की सरकार राजस्थान में रही। एक समय ऐसा भी आया जब ललित मोदी और राजे के बीच दूरियां बढ़ती दिखीं। राजस्थान में 2013 के विधान सभा चुनाव से पूर्व ललित मोदी ने भाजपा टिकट वितरण प्रणाली पर न केवल सवाल उठाए बल्कि वसुन्धरा का नाम लिए ही अरुण जेटली और सांसद भूपेन यादव जैसों से सम्हल कर रहने को कहा। दिसम्बर 2013 में वसुन्धरा के पुन: राजस्थान की सल्तनत सम्हालते ही मोदी के सुर बदल गये और उन्होंने कुछ ट्वीटों के जरिए वसुन्धरा की तो तारीफ की पर उनके इर्द-गिर्द रहने वालों की निष्ठा पर लगातार सवाल उठाए। ललित मोदी को लेकर हायतौबा मचाने वाली कांग्रेस को पता है कि क्रिकेट की काली कोठरी में कब-कब और कौन-कौन गया है। आज सुषमा और वसुन्धरा को लेकर जो नौटंकी हो रही है, उसकी मुख्य वजह कमल दल में फूट डालना और प्रधानमंत्री मोदी को असहज करना है। ललित मोदी के भ्रष्टाचार को लेकर सफेदपोश वाकई संजीदा होते तो इसका पटाक्षेप कब का हो गया होता। भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड ने मोदी की जांच के लिए चिरायु अमीन के नेतृत्व में ज्योतिरादित्य सिंधिया और अरुण जेटली की तीन सदस्यीय कमेटी बनायी थी, मगर उसका क्या हुआ? आज जिस ललित मोदी को लेकर कांग्रेस हल्ला बोल रही है, उससे पूछना चाहिए कि 2012 के बाद उसके नेता कहां सोये थे। 2012 में ललित मोदी का पता करने के वास्ते एक औपचारिक परवाना ब्रिटिश फॉरेन आॅफिस भेजा गया था। यह नौटंकी नहीं तो क्या है कि एक तरफ ब्रिटेन और भारत की हुकूमतें कागजों में ललित मोदी की खोज में जुटी थीं तो दूसरी तरफ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया लगातार ललित मोदी के साक्षात्कार दिखा रहा था। सवाल यह भी कि भारत-ब्रिटेन के बीच 1993 में प्रत्यर्पण संधि किसलिए की गयी थी? यह सच है कि ललित मोदी मामले में संप्रग सरकार ने अपने दायित्वों का ईमानदारी से निर्वहन नहीं किया लेकिन कालाधन वापस लाने का बेसुरा राग अलापने वाली भ्रष्टाचार मुक्त मोदी सरकार आखिर क्यों नहीं चाहती कि ललित मोदी को भारत लाया जाये?
(लेखक पुष्प सवेरा के समाचार संपादक हैं)

Wednesday 17 June 2015

घोटालेबाज क्रिकेट बोर्ड का नया पैंतरा






हाल में संन्यास लिये तीन महान बल्लेबाजों को भारतीय क्रिकेट बोर्ड द्वारा नौकरी की पेशकश किये जाने का क्या अर्थ लगाया जाये? सचिन तेंदुलकर, सौरव गांगुली और वीवीएस लक्ष्मण से दुनिया की सबसे धनी और ताकतवर क्रिकेट संस्था का सलाहकार बनने के लिए अनुरोध किया गया है। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के प्रारंभिक बयान में कहा गया है कि इन तीन खिलाड़ियों की तात्कालिक जिम्मेदारी हमारी राष्ट्रीय टीम को दिशा-निर्देश करना होगा, क्योंकि हम अंतरराष्ट्रीय मैचों में अपना प्रदर्शन सुधारना चाहते हैं, हमारी प्रतिभा की आमद को बेहतर करने के लिए मार्गदर्शन करना होगा तथा घरेलू क्रिकेट में सुधार के लिए कदम उठाना होगा ताकि हमारे खिलाड़ी अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट के दबाव का सामना कर सकें।
यह बहुत ही अस्पष्ट बयान है। आश्चर्यजनक रूप से इस घोषणा के बाद गांगुली ने कहा कि उन्हें कोई अनुमान नहीं है कि उनकी भूमिका क्या होगी। इसका मतलब यह हुआ कि खिलाड़ियों से इस बारे में कोई विचार-विमर्श नहीं किया गया था और इस पूरे मामले में किसी तरह की समझदारी नहीं बनायी गयी थी। इस प्रयास के पीछे बस यही इच्छा थी कि ये तीनों क्रिकेट बोर्ड से सम्बद्ध हो जायें। तो फिर यह पूरा मामला क्या है? और राहुल द्रविड़ द्वारा इस सलाहकार समिति में शामिल होने से इनकार की खबरों का क्या मतलब निकाला जाये? अनाम सूत्रों के हवाले से छपी एक खबर में अनुमान लगाया गया था कि द्रविड़ ऐसी किसी भी पहल में शामिल नहीं होना चाहते हैं, जिसमें सौरव गांगुली भी हों, क्योंकि उन दोनों में बहुत पुरानी प्रतिद्वंद्विता है। मुझे इस बात पर भरोसा नहीं है।
बड़बोले बिशन सिंह बेदी ने कहा कि वे इस नयी समिति के स्वरूप को नहीं समझ सके हैं। अगर उनके जैसे लोग भी समझने में नाकाम रहे हैं, तो फिर यह मामला किसे समझ में आयेगा। तथ्य यह है कि क्रिकेट बोर्ड भ्रष्टाचार को छिपाने के लिए ही पुराने खिलाड़ियों को अपने पक्ष में रखना चाहता है। सुनील गावस्कर और रवि शास्त्री ने बेमतलब के कामों के लिए चुपके से कई करोड़ रुपये के करार बोर्ड के साथ किये हैं, जबकि ये दोनों कमेंटेटर भी हैं। जब यह बात अखबारों में छपी, तो उन्होंने कुछ अस्पष्ट-सा स्पष्टीकरण दिया जो बहुतों के गले नहीं उतर सका। शास्त्री इन दिनों क्रिकेट बोर्ड के अनधिकृत, लेकिन वेतनभोगी प्रवक्ता हैं, कथित रूप से निरपेक्ष कमेंटेटर हैं और अब टीम निदेशक भी बन गये हैं (यह नया मनमोहक पद पहले अस्तित्व में नहीं था)
 क्रिकेट बोर्ड इन मामलों में पूरी तरह आपसी लेन-देन वाली संस्था है। लोगों का एक छोटा समूह हर चीज को नियंत्रित करता है, जिनमें कुछ व्यापारी और राजनेता हैं तथा कुछ पुराने खिलाड़ी हैं। आखिर यह समूह इतना छोटा क्यों है और अपना काम इस गोपनीयता से क्यों करता है? इसका कारण यह है कि यह घोटालों से भरा पड़ा है। इंडियन प्रीमियर लीग के संस्थापक फरार हैं, इंटरनेशनल क्रिकेट कौंसिल के अध्यक्ष का दामाद सट्टेबाजी के आरोप में जेल में है, आईपीएल की अनेक टीमों पर मालिकाना और अन्य मामलों को लेकर गंभीर आरोप हैं तथा मैच फिक्सिंग के आरोप में खिलाड़ी गिरफ्तार किये जा रहे हैं और उन पर प्रतिबंध लगाया जा रहा है। इस अव्यवस्था को कौन ठीक करने की कोशिश में है? कोई नहीं। जब भी क्रिकेट बोर्ड, जो अपने को नियमित करने का दावा करता है, यह कहता है कि वह खेल की बेहतरी के लिए कुछ करने जा रहा है, तो मुझे बहुत संदेह होता है। यह एक पैसा बनाने की मशीन है तथा सभी राजनेता इसमें अपना हिस्सा चाहते हैं।
 कांग्रेस के राजीव शुक्ला से लेकर राष्ट्रवादी कांग्रेस के शरद पवार और भाजपा के अरुण जेटली तक, जो देश के सबसे ताकतवर और जाने-माने नेता हैं, भारत के क्रिकेट बोर्ड में जगह बनाने की चाहत रखते हैं। नियमन और पारदर्शिता में क्रिकेट बोर्ड का रिकॉर्ड खराब रहा है, खासकर जब मामला आईपीएल का आता है, जो दुधारू गाय है। एक अखबार ने रिपोर्ट किया कि इस नये पैनल से आईपीएल के बारे में सलाह लिये जाने की सम्भावना नहीं है। तो फिर इसका तात्पर्य क्या है और सचिन, सौरव और लक्ष्मण को क्यों बुलाया गया है तथा क्यों द्रविड़ ने इससे अलग रहने का निर्णय लिया है?
मेरा अनुमान है कि क्रिकेट बोर्ड को लगता है कि अंदर के ऐसे भरोसेमंद लोगों का उसके प्रभाव क्षेत्र से बाहर रहना खतरनाक है। इन तीन पूर्व खिलाड़ियों जैसे लोगों को बोर्ड अपने तम्बू के भीतर रखना चाहता है। इस पूरे प्रकरण में क्रिकेट बोर्ड वरिष्ठ और कनिष्ठ टीम की बेहतरी की किसी इच्छा से कतई प्रेरित नहीं है। इसकी पूरी कोशिश खुद को बचाये रखने की है। अगर इसकी चाहत खेल की जानकारी रखने वाले पूर्व खिलाड़ियों को अधिक जिम्मेदारी देने की होती, तो फिर सैयद किरमानी को यह शिकायत क्यों होती कि उन्हें नजरअंदाज किया जा रहा है? सम्भवत: ऐसा इसलिए है कि बहुत कम लोग ही आज उन्हें याद करते हैं। सचिन जैसे पूर्व खिलाड़ियों के विचारों से क्रिकेट बोर्ड को डर लगता है।
 अगर वे भारतीय बोर्ड के भीतर चल रहे भ्रष्टाचार और परिवारवाद के खिलाफ बोल दें, तो बोर्ड का दर्शकों के साथ भारी झमेला खड़ा हो सकता है। इसलिए उन्हें अंदर रखने की कोशिश बोर्ड कर रहा है। मेरे विचार में द्रविड़ ने बोर्ड के प्रस्ताव को इसलिए ठुकरा दिया, क्योंकि उन्हें इस जिम्मेदारी के असली चरित्र की समझ है। और यह चरित्र है बोर्ड का आखिरकार बचाव करना, भले ही वे कुछ भी हरकत करते रहें। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड का यह सलाहकार बोर्ड इसी नजरिये से देखा जाना चाहिए, क्योंकि उसके इतिहास को देखते हुए अच्छे भरोसे के प्रदर्शन की जिम्मेदारी पूरी तरह उन्हीं के ऊपर है।
आकार पटेल

हर दो दिन में औसतन तीन लोगों की मौत

नक्सली हिंसा: पिछले 35 वर्षों में देश में 20 हजार से अधिक लोग मारे गए
देश में नक्सली हिंसा की घटनाओं में पिछले 35 वर्षों के दौरान हर दो दिन में औसतन तीन लोग मारे जा रहे हैं । पिछले 35 वर्षों में नक्सली हिंसा में देश में 20 हजार से अधिक लोग मारे गए जिसमें तीन हजार से अधिक सुरक्षा बल के जवान शामिल हैं।
सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत गृह मंत्रालय के वामपंथ अतिवाद विभाग से प्राप्त जानकारी के अनुसार, 1980 से 31 मई 2015 तक देशभर में वामपंथी चरमपंथ से जुड़ी घटनाओं में 3125 सुरक्षा बल शहीद हुए तथा 12177 नागरिक एवं 4768 नक्सली मारे गए। इस तरह से पिछले 35 वर्षों के दौरान नक्सली हिंसा की घटनाओं में कुल 20,060 लोग मारे गए। इसके तहत औसतन हर दो दिन में तीन लोग मारे जा रहे हैं। विभाग से प्राप्त जानकारी के अनुसार, इसमें वर्ष 1986 में 146 नागरिक एवं सुरक्षा बल मारे गए, लेकिन इनकी अलग-अलग संख्या उपलब्ध नहीं है। एक अन्य आरटीआई के तहत गृह मंत्रालय से मिली जानकारी के अनुसार, पिछले तीन वर्षाें में नक्सली घटनओंं एवं कानून व्यवस्था की चुनौतियों का सामना करने के लिए पुलिस बलों के आधुनिकीकरण की योजना के तहत राज्यों को 3038.86 करोड़ रुपये आवंटित किये गए।
इस योजना के तहत वित्त वर्ष 2012-13 में राज्यों को 300 करोड़ रुपये आवंटित किये गए जबकि वर्ष 2013-14 में प्रदेशों को पुलिस बल आधुनिकीकरण योजना के तहत 1341.62 करोड़ रुपये और वित्तवर्ष 2014-15 में राज्यों को 1397.24 करोड़ रुपये आवंटित किये गए। आरटीआई के तहत प्राप्त जानकारी के अनुसार, वित्त वर्ष 2012-13 से 2014-15 के बीच आंध ्रप्रदेश को पुलिस बल के आधुनिकीकरण की योजना के तहत 161 करोड़ रुपये जारी किये गए जबकि असम को 116 करोड़, बिहार को 120 करोड़ और छत्तीसगढ़ को 73 करोड़ रुपये जारी किये गए। आंध्र प्रदेश से अलग होकर तेलंगाना राज्य बनने के बाद 2014-15 के लिए इस योजना के तहत राज्य को 68.13 करोड़ रुपये जारी किये गए। पुलिस बल के आधुनिकीकरण की योजना के तहत उत्तर प्रदेश को पिछले तीन वर्षों के दौरान 377 करोड़ रुपये जारी किये गए जबकि गुजरात को 164 करोड़ रुपये, जम्मू-कश्मीर को 228 करोड़, झारखंड को 69 करोड़, कर्नाटक को 200 करोड़, मध्यप्रदेश को 133 करोड़, महाराष्ट्र को 199 करोड़, ओडिशा को 100 करोड़, राजस्थान को 181 करोड़ और तमिलनाडु को 173 करोड़ रुपये जारी किये गए। आरटीआई के तहत प्राप्त जानकारी के अनुसार, वामपंथ उग्रवाद प्रभावित 10 राज्यों में सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत बनाने की कवायद के तहत केंद्र सरकार ने 400 पुलिस थानों एवं चौकियोंं को मंजूरी दी है जिसमें से प्रत्येक थाने के लिए 2 करोड़ रुपये आवंटित किये जा रहे हैं। गृह मंत्रालय मिली जानकारी के अनुसार, मंत्रालय वामपंथ उग्रवाद प्रभावित राज्यों में किलेबंद पुलिस थानों के निर्माण एवं उन्हें मजबूत बनाने की योजना को लागू कर रहा है। वामपंथ उग्रवाद प्रभावित इन 10 राज्यों में सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत बनाने की कवायद के तहत केंद्र सरकार ने 400 पुलिस थानों एवं चौकियोंं को मंजूरी दी है जिसमें से प्रत्येक थाने के लिए 2 करोड़ रुपये आवंटित किये जा रहे हैं। इसमें केंद्र और राज्य की हिस्सेदारी 80:20 है। 

खानपान की चिन्ता

सांप निकलने के बाद लकीर पीटना हमारी आदत में शुमार हो चुका है। इन दिनों मैगी नूडल्स के खिलाफ हम जो रंज दिखा रहे हैं, वह भी कुछ ऐसा ही प्रयास है। यह सही है कि मैगी नूडल्स में तय मानकों से अधिक सीसा की मात्रा स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, पर सवाल यह उठता है कि हम दैनंदिन जिस खानपान पर जीवन यापन कर रहे हैं, वह कितना शुद्ध है। मैगी नूडल्स के खिलाफ भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण ने जो तत्परता दिखाई है, ऐसी तत्परता भारत में बन रही खाद्य वस्तुओं की जांच में कब अमल में लाई जाएगी। डिब्बाबंद आहार से सेहत पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभाव को लेकर पहले भी कई अध्ययन आए और इनकी गुणवत्ता पर कड़ाई से नजर रखने की जरूरत रेखांकित की गई, पर तब इस मामले में कोई संजीदगी नहीं दिखाई दी थी। आज घर-घर की रसोई पर उस बाजार का कब्जा हो चुका है, जहां मिलावटखोरी दस्तूर बन गई है। आज शायद ही ऐसा कोई परम्परागत भोजन हो, जिसे पैकेटों में बंद करके बेचने की तरकीब न निकाल ली गई हो। डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों का कारोबार निरंतर फैल रहा है। नामी देशी-विदेशी कम्पनियां सेहत और स्वाद के दावे के साथ लोगों के खानपान की आदतों को बदलने और बिक्री बढ़ाने की नई-नई कोशिशें अमल में ला रही हैं। अपने उत्पाद की बिक्री और विश्वसनीयता को बढ़ाने की खातिर विज्ञापनों में फिल्म, खेल आदि क्षेत्रों की नामचीन हस्तियों का सहारा लिया जा रहा है। नामी-गिरामी कम्पनियों के उत्पादों पर पहली बार उंगली नहीं उठी है। कम्पनियों के प्रचार और बिक्री-तंत्र को लेकर पहले भी संदेह जताए गए, पर इनके प्रभाव को ध्यान में रखने की भूल के चलते कभी जांच पर आंच नहीं आई। नामचीन कम्पनियों की आड़ में बहुत सारे नकली उत्पाद आज बाजार में अपनी पैठ बना चुके हैं। ये उत्पाद छोटी-मोटी दुकानों सहित ढाबे और रेस्तरां आदि में खूब खप रहे हैं। इतना ही नहीं दूरदराज के इलाकों में नामी कम्पनियों के उत्पाद से मिलते-जुलते नामों वाले नकली उत्पाद भी इस्तेमाल में लाये जा रहे हैं। यह सब खाद्य पदार्थों में मिलावट का ही एक रूप है। कहने को इन पर नजर रखने के लिए हर शहर में खाद्य निरीक्षक तैनात हैं, पर वे इसे रोक नहीं पा रहे। जब भी कोई तीज-त्योहार आता है, उसके पहले यह खाद्य निरीक्षक सजगता का ढोंग कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। अफसोस की बात है कि गुणवत्ता-जांच के यह प्रयास कुछेक उत्पादों तक ही सीमित होते हैं। सच्चाई तो यह है कि हमारे उपभोक्ता के पास खानपान सामग्री की गुणवत्ता परखने का कोई आसान और प्रमाणिक जरिया भी तो नहीं है। बेहतर होगा हमारा भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण सांप निकलने के बाद लकीर पीटने की आदत से बाज आये।

भरोसे का जोखिम

बिहार विधान सभा चुनावों की दुंदुभी बजने में अभी वक्त है लेकिन लालू प्रसाद यादव हर रोज कमल दल पर चुटकी ले रहे हैं। लालू की चुटकी को आम आदमी बेशक मसखरा मान रहा हो पर मुख्यमंत्री पद को लेकर कमल दल वाकई पशोपेश में है। बिहार विधानसभा की 243 सीटों के होने वाले चुनावों में जनता किस दल को सिर-आंखों पर बिठायेगी, ये तो अभी दूर की कौड़ी है, पर मुख्यमंत्री की ख्वाहिश हर मन में है। लालू ने तो जहर का घूंट पीकर नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री मान लिया, लेकिन भाजपा ने अभी तक इस बात के संकेत नहीं दिये हैं कि बिहार में उसका चुनावी चेहरा कौन होगा? यदि भाजपा के वरिष्ठ नेता और बिहार के सांगठनिक प्रभारी अनंत कुमार के बयान को सच मान लें तो बिहार विधानसभा चुनाव में पार्टी मुख्यमंत्री पद के लिये किसी भी बिहारी नेता का चेहरा आगे नहीं करना चाहती। इसकी वजह दिल्ली विधानसभा चुनावों में कमल दल की फजीहत को माना जा रहा है। दिल्ली विधानसभा चुनावों में किरण बेदी को बतौर मुख्यमंत्री पेश करना भाजपा में भितरघात का कारण बना था। कई नेताओं की दावेदारी के विवाद से निपटने का पार्टी का यह राजनीतिक प्रयोग बुरी तरह पिट गया था। कहते हैं दूध का जला छांछ भी फंूक-फूंक कर पीता है। भाजपा भी दिल्ली से सबक लेते हुए बिहार में किसी पिटे-पिटाए प्रयोग को आजमाना नहीं चाहती। अब सवाल यह उठता है कि भाजपा आखिर किस फार्मूले से बिहार फतह करेगी? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक साल पहले आम आवाम से जो वादे किये थे, वे तो पूरे हुए नहीं ऐसे में मोदी बनाम नीतीश के खेल में कमल दल के फेल होने की ही सम्भावना अधिक है। भाजपा को लोकसभा चुनावों की सफलता विधानसभा से जोड़कर देखने की गलती भारी पड़ सकती है। बिहार भाजपा में इस वक्त सुशील कुमार मोदी के अलावा जिन नेताओं को पार्टी की तरफ से मुख्यमंत्री पद का दावेदार समझा जाता है, उनमें डॉ. सीपी ठाकुर, नंदकिशोर यादव, रविशंकर प्रसाद, राजीव प्रताप रूड़ी, मंगल पाण्डेय और चन्द्रमोहन राय सहित कई नाम शामिल हैं। भाजपा की मुश्किल यही है कि इनमें से यदि किसी को आगे किया गया तो बाकी पीछे टांग खींचने से बाज नहीं आएंगे। बिहार चुनाव में अगड़ों और पिछड़ों की स्वीकार्यता भी मायने रखती है। सच्चाई यह है कि सुशील मोदी, सीपी ठाकुर और नंद किशोर यादव हर किसी को स्वीकार्य नहीं हैं। सुशील मोदी समर्थक तो चाहते हैं कि मुख्यमंत्री के तौर पर उनके नाम को हरी झण्डी मिल जाये और ऐसा ही कुछ नंदकिशोर यादव, रवि शंकर प्रसाद, राजीव प्रताप रूड़ी समर्थक भी चाहते हैं। बिहार चुनाव कांटे का है। भाजपा जीतनराम मांझी को अपने पाले में करने की खुशफहमी में है बावजूद इसके यहां कमल दल की थोड़ी सी चूक उसे भारी पड़ सकती है। चुनावी आंकड़ों की रोशनी में देखें तो लोकसभा चुनाव के दौरान बिहार में राजद-जद (यू)-कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन को 45 फीसदी से भी ज्यादा वोट मिले थे, जबकि भाजपा 29.41 फीसदी वोट मिलने के बाद भी 40 में 22 सीटें जीतने में सफल रही। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह जो जोड़-तोड़ के घाघ हैं, उनकी बात एक हद तक सही है कि सियासत में दो और दो मिलकर हमेशा चार नहीं होते। जो भी हो बिहार चुनाव के नतीजे बहुत हद तक दोनों गठबंधनों की रणनीति, प्रचारतंत्र की दक्षता और उम्मीदवारों के चयन पर निर्भर होंगे। 

Tuesday 16 June 2015

क्षेत्रीय पत्रकारिता की चुनौतियां

65 साल पहले इंदौर से शुरू होने वाले अखबार, नई दुनिया के बिकने की खबर इन दिनों चर्चा में है। कुछेक पत्रकारों में (शेष अन्य को मतलब भी नहीं) चिंता और सरोकार है। एक मित्र ने वेबसाइट पर लिखा है, नई दुनिया केवल एक अखबार नहीं रहा है बल्कि यह एक संस्कार की तरह पुष्पित और पल्लवित हुआ।
 हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में नई दुनिया  ने वह मुकाम पाया, जो देश के नंबर एक और नंबर दो अखबार कभी सपने में भी नहीं सोच सकते। इस अखबार ने देश को सर्वाधिक संपादक और योग्य पत्रकार दिये हैं। यह बिलकुल सटीक आकलन व निष्कर्ष है, पर इसमें जोड़ा जाना चाहिए कि नई दुनिया सिर्फ अच्छे पत्रकारों को देने के लिए ही नहीं जाना जायेगा। सबसे प्रमुख और महत्वपूर्ण बात यह है कि नई दुनिया ने अपने दौर, काल या युग के जलते-सुलगते सवालों को जिस बेचैनी और शिद्दत से उठाया, वह इस अखबार की पहचान और साख है. इसने हिंदी पत्रकारिता को एक संस्कृति दी (जो आज की दुनिया के नंबर एक और नंबर दो बन जानेवाले हिंदी अखबार सपने में भी नहीं कर पायेंगे).
 बहुत पहले स्वर्गीय राजेंद्र माथुर ने (1983-84 के आसपास) राहुल बारपुते पर एक लेख लिखा था. उसमें उन्होंने मालवा की संस्कृति, पुणे के प्रभाव और गंगा किनारे की उत्तर प्रदेश-बिहार की भिन्न संस्कृति की चर्चा की थी. उनकी बातों का आशय था, अपने को हिंदी की मुख्यधारा माननेवाली पट्टी और उसके बौद्धिक, मालवा की संस्कृति और उसमें नई दुनिया  का योगदान और राहुल बारपुते के व्यक्तित्व का आकलन नहीं कर पायेंगे.
 यह सही है. एक शिष्टता, संस्कार और मर्यादा से राहुल बारपुते, राजेंद्र माथुर, अभय छजलानी जैसे लोगों ने नई दुनिया को शीर्ष पर पहुंचाया. क्या इतने बड़े अखबार को सिर्फ चापलूसों की फौज डुबा सकती है? नहीं, साम्राज्यों या संस्थाओं के पतन में षड्यंत्रकारी या दरबारी चापलूसों की एक सीमा तक ही भूमिका रहती है. क्या सफलता से चल रहे बड़े या छोटे घरानों में ये चापलूस या षड्यंत्रकारी नहीं होते. दरअसल, साम्राज्यों या संस्थाओं के पतन के मूल में अन्य निर्णायक व मारक कारण होते हैं. समय की धार को न पहचानना और उसके अनुरूप कदम न उठाना, पतन का मूल कारण होता है। फिर सबसे बड़ा मारक कारक तो आर्थिक व्यवस्था है. इस तरह की किसी चीज के पतन के मूल में, ऐसी चीजों के प्रभाव जरूर होते हैं. पर इससे अधिक विध्वंसकारी तत्व अलग होते हैं.
 नई दुनिया  का अवसान, इस युग के धाराप्रवाह का प्रतिफल है. यह बड़ा और व्यापक सवाल है. यह सिर्फ नई दुनिया तक सीमित नहीं है. देश की अर्थनीति और राजनीति से जुड़ा यह प्रसंग है. मार्क्स-एंगेल्स की अवधारणा सही थी. आर्थिक कारण और हालात ही भविष्य तय करते हैं. डार्विन का सिद्धांत ही बाजारों की दुनिया में चलता है. मार्केट इकोनॉमी का भी सूत्र है, बड़ी मछली, छोटी मछली को खा जाती है. निगल जाती है. आगे भी खायेगी या निगलेगी. बाजार खुला होगा, अनियंत्रित होगा, तो यही होगा. जिसके पास पूंजी की ताकत होगी, वह अन्य पूंजीविहीन प्रतिस्पर्द्धियों को मार डालेगा.
1983-85 के बीच, राजेंद्र माथुर का राहुल बारपुते पर एक लेख पढ़ा था. लेख का शीर्षक था- हिंदी पत्रकारिता संदर्भ राहुल बारपुते. माथुर जी से मुलाकात तो धर्मयुग में काम करते दिनों में हुई थी. 1980 के आसपास. गणेश मंत्री के साथ. तब से उनकी प्रतिभा से परिचित था.
 नयी दुनिया की श्रेष्ठ परंपरा से भी. उस लेख में माथुर जी ने लिखा था, पांच साल दिल्ली में नवभारत टाइम्स की संपादकीय के बारे में कह सकता हूं कि नयी-पुरानी और दुर्लभ किताबों की दृष्टि से, बीसियों किस्म की पत्र-पत्रिकाओं की दृष्टि से, पत्रकारिता की ताजा पेशेवर सूचनाओं की दृष्टि से और संसार में जो ताना-बाना प्रतिक्षण बुना जा रहा है, उसे छूकर देखे जाने के सुख की दृष्टि से, जो 27 अखबारी वर्ष मैंने नयी दुनिया में गुजारे, वे दिल्ली की तुलना में कतई दरिद्र नहीं थे. एक माने में बेहतर ही थे, क्योंकि तब सार्थक पढ़ाई-लिखाई की फुरसत ज्यादा मिलती थी. यह थी नई दुनिया की परंपरा. नयी दुनिया महज एक अखबार नहीं रहा है. वह हिंदी के बौद्धिक जगत का सांस्कृतिक आलोड़न कर रहा है. हिंदी क्षेत्र में संस्कार और संस्कृति गढ़ने-बताने-समझने और विकसित करने का मंच भी. आज अखबारों में बाइलाइन या के्रडिट पाने की छीना-झपटी होती है. उस अखबार ने कुछ मूल्य और प्रतिमान गढ़े.
 गंभीर और मर्यादित पत्रकारिता के लिए. माथुर साहब ने लिखा था कि 'राहुल बारपुते हर रोज मेरे कॉलम के साथ, मेरा नाम छापने को तैयार थे. मुझे यह अश्लील लगा. मैंने आग्रह किया कि मैं प्रतिदिन अहस्ताक्षरित ही लिखूंगाह्ण. क्योंकि माथुर साहब को प्रेरणा मिली थी उन दिनों के चोटी के स्तंभकारों से, जो अपना नाम नहीं छापते थे. तब ए. डी. गोरवाला जी, विवेक नाम से लिखते थे. शामलाल जी, अदिव के नाम से लिखते थे. दुगार्दास जी, इंसाफ के नाम से लिखते थे. तब शरद जोशी जी भी नई दुनिया में ब्रह्मपुत्र नाम से लिखते थे. यह संस्कार, और परिपाटी-मयार्दा विकसित करने का पालना रहा है, नई दुनिया. आज देख लीजिए, संपादक, अपने ही अखबार में अपनी तसवीर, अपने लोगों की फोटो, अपने परिवार का गुणगान कर किस मयार्दा और अनुशासन का पालन करते हैं? यह दरअसल धाराओं की लड़ाई है. एक सामाजिक धारा है, जिसका प्रतिबिंब नई दुनिया का पुराना अतीत रहा है. मूल्यों से गढ़ा गया. तब नई दुनिया ने वैदेशिक कालम की शुरूआत की. जब इसकी कोई खास जरूरत नहीं थी, पाठकों के बीच इसकी मांग नहीं थी.
पर अपने पाठकों का संसार समृद्ध करना उसने अपना फर्ज समझा. आज बड़ी पूंजी से निकलने वाले अखबारों का फर्ज क्या है? वे पाठकों को उनकी रुचि का सर्वे करा कर फूहड़ और अश्लील चीजें भी देने को तैयार हैं. पाठकों की इच्छा के विपरीत, उनके संस्कार गढ़ने, ज्ञान संसार समृद्ध करने का जोखिम लेने को तैयार नहीं. पर नई दुनिया ने यह किया. आज पहला मकसद है, अखबारों का, प्राफिट मैक्सीमाइजेशन. यह नयी पत्रकारिता बाजार को साथ लेकर चलती है. हर वर्ग को खुश रखना चाहती है. उपभोक्तावादी संसार उसे ताकत देते हैं, इसलिए यह धारा आज ज्यादा प्रबल है.
यह तामसिक है. पहली धारा (जिससे नई दुनिया का अतीत जुड़ा है) वह सात्विक रही है. आज सात्विक और तामसिक धाराओं के बीच संघर्ष है. फिलहाल तामसिक धारा का जोर है. सात्विक, कमजोर और उपहास के पात्र. पर अंतत: जय सात्विक धारा की होगी. इसमें भी किसी को शंका नहीं होनी चाहिए? उस दौर में हिंदी का सबसे अच्छा अखबार, नई दुनिया कहा गया. क्यों? क्योंकि माथुर साहब के शब्दों में, नातों-रिश्?तों, ठेका और फायदों का जमाना शुरू ही नहीं हुआ था. पत्रकारिता का पैमाना क्या था? माथुर साहब के ही शब्दों में ही पढ़िए-
 'नई दुनिया में रह कर आप कह सकते हैं कि जो मैं लिखता हूं, वह मैं हूं. लेखन से जो सराहना की गूंज लौट कर आती है, वही मेरा पद है, और समाज निर्मित तथा समाज प्रदत्त होने के कारण यही सचमुच प्रमाणिक है.
 अखबारों का अर्थशास्त्र समझना जरूरी
 नई दुनिया '67 में, भारत का शायद पहला अखबार था, जिसने आॅफसेट प्रिंटिग पर अपनी छपाई शुरू की. तकनीक में भी यह औरों से आगे था. इन सबके पीछे एक पवित्र संकल्प और उद्देश्य था, क्योंकि उसके कर्ता-धर्ता लोगों में से एक राहुल बारपुते 'क्षमता के अनुसार काम और आवयश्कता के अनुसार पारिश्रमिक सूत्र पर चलते थे. यह एक जीवन दर्शन या समाज दर्शन, जिसका वैचारिक प्रस्फुटन था, नई दुनिया. इसे भी पढ़िए माथुर जी के शब्दों में -
 'राहुल जी ने आठ साल से अपना वेतन डेढ़ सौ रुपए प्रतिमाह तय कर रखा था, और उनका कहना था कि इससे ज्यादा मैं लूंगा नहीं, क्योंकि यह मेरी जरूरत के लिए पर्याप्त है. स्वैच्छिक गरीबी को वे संपादकीय प्रमाणिकता के लिए जरूरी मानते थे. पांच सौ रुपये से ज्यादा पानेवाले को वे चोरों की श्रेणी में गिनते थे. इस अर्थशास्त्र और सोच के तहत नई दुनिया आगे बढ़ा. जब राजेंद्र माथुर से पूछा गया, आपको क्या तनख्वाह चाहिए, तो उनका उत्तर भी उन्हीं के शब्दों में -'मैंने कहा कि पांच साल पहले जब मैं हास्टल में रहता था और फर्स्ट इयर में था, तब मुझे खर्च के लिए 75 रुपये महीना मिलते थे, और मेरी आवश्यताएं इन पांच सालों में ज्?यों की त्?यों है. इसलिए आप मुझे 75 रुपये दे दीजिएगा, और वे राजी हो गये.ह्ण बारपुते जी का जीवन कैसा था? वर्षों तक वे लीपे हुए दलान में जमीन पर सोते थे और चटाई के पत्तों पर खाते और खिलाते थे.
 यह सब पत्रकारिता के सतयुग की बातें हैं. जब-जब पत्रकारिता में ऐसे चरित्र थे, तब ऐसे अविष्कार जिंदा रहे. मैं खुद गणेश मंत्री, नारायण दत्त जी जैसे लोगों की सोहबत में रहा हूं. गणेश मंत्री धर्मयुग के स्टार पत्रकार थे, तब चिंतक, लेखक व विचारक भी. ईमानदारी, सात्विकता और साधन-साध्य की शुचिता के प्रतिमान. पिता, जनता पार्टी शासन में राजस्थान में राजस्व मंत्री रहे. अत्यंत सम्मानित व प्रतिष्ठित. पर गणेश मंत्री कभी उनकी गाड़ी पर नहीं चढ़े, क्योंकि वह सरकारी होती थी. नारायण दत्त जी नवनीत के संपादक रहे. हिंदी के सर्वश्रेष्ठ वैचारिक-सांस्कृतिक-साहित्यिक-आध्यात्मिक पत्रकार.
 इंदिरा जी के लंबे समय तक प्रेस सलाहकार रहे, अद्वितीय और अनोखे गांधीवादी विद्वान. एचवाइ शारदा प्रसाद के छोटे भाई. श्री दत्त आज भी मौजूद हैं, बेंगलुरू में रहते हैं. अकेले. कई भाषाओं के जानकार. सच्चे गांधीवादी. इन दोनों के घर, सत्ता के ताकतवर केंद्र रहे, दोनों अपने-अपने क्षेत्र में अपने कार्यकाल में, देश के चोटी के पत्रकार-संपादक रहे, पर इन दोनों का जीवन, नितांत गांधीवादी, सामान्य और सरल रहा. अपने जीवन के दो मेंटर (पथ प्रदर्शक) इन दोनों को पाता हूं.

नजदीक से इन्हें देखा कि कैसे ये सभी 24 कैरेट का सोना रहे. ताउम्र. आज इस पत्रकारिता में पैसे की हवस है. रातोंरात धनकुबेर बनने की भूख है. जायज-नाजायज कोई प्रतिमान नहीं रह गया. न आदर्श, न मूल्य. इस धारा का जोर इन दिनों ज्यादा सशक्त और प्रबल है. हर शहर से लेकर दिल्ली तक देख लीजिए, जो स्वनाम-धन्य पत्रकार खुद को समाज का सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति मानने लगे हैं, उनकी योग्यता क्या है? आमद क्या है? उनकी कुल संपत्ति क्या है? ठाठ-बाट कैसे हैं? क्या समाज में कोई मूल्य रह गया है या नहीं? क्या कोई उसूल बचा है? जब लड़ाई, सिद्धांत और सिद्धांतविहीनता के बीच हो, साधु और गैर साधु के बीच हो, नीति और अनीति के बीच हो, तो अनीति-षडयंत्र को ही कामयाबी मिलेगी. आज के संसार में. यही हो रहा है.

टाइम्स आॅफ इंडिया में 750 रुपये, ट्रेनी के रूप में प्रतिमाह हमें मिलता था. 1977-78 के दौर में. तब कई लोगों ने इससे अधिक की नौकरी छोड़ कर पत्रकारिता को चुना और पत्रकारिता को ही कैरियर अपनाया. रिजर्व बैंक व अन्य संस्थाओं की नौकरी (अधिक तनख्वाह) छोड़ कर हमने भी यही पेशा चुना. आज खुद मैं लाखों पाता हूं, जो कभी सोचा नहीं था. वह भी क्षेत्रीय अखबार में (इससे कई गुना अधिक के आॅफर मिले, यह अलग बात है कि यही रहा), पर अपने काम से जोड़ कर देखता हूं, तो तब (धर्मयुग, रविवार या प्रभात खबर के आरंभिक दिनों में) जितना परिश्रम कर पाता था.

पूरा डट कर. जुट कर. डूब कर. उतना ही आज भी करता हूं. पर तनख्वाह कई गुना अधिक. राहुल बारपुते और राजेंद्र माथुर के प्रतिमान से खुद को सोचता हूं, तो अपराध बोध होता है. कई बार खुद से पूछा, क्यों गलत मानते हुए इतनी तनख्वाह लेता हूं. कारण, सुरक्षा का सवाल है. पहले समाज में 'सेफ्टीनेटह्ण (सुरक्षाजाल) था. संयुक्त परिवार, उदार परिवार, एक दूसरे की देखभाल करनेवाला. आज एकल परिवार (न्यूक्लीयर परिवार) हैं, स्वास्थ्य पर बढ़ता खर्च और इस पेशे में नौकरी की असुरक्षा, शाश्वत चुनौतियां हैं. इसलिए भविष्य में स्वाभिमान रहे, हाथ न पसारना पड़े, इसलिए आज यह तनख्वाह और उसमें से लगातार बचत जरूरी है.

फिर भी, जब पूरे भारतीय समाज के बारे में सोचता हूं, तो लगता है, यह चोरी है. पहले संयुक्त परिवार और खेतिहर परिवेश का भरोसा था कि कोई निर्णय लेने के बाद, सड़क पर नहीं रहना होगा. समाज, गांव और परिवार पीछे है. आज ये संस्थाएं टूट गयी हैं. आज भविष्य के प्रति डर है. ऐसा समाज हमने बना लिया है. इसलिए अधिक तनख्वाह का सवाल हमें बहुत कुरेदता नहीं.

पूरे मीडिया उद्योग की तनख्वाह में बेशुमार इजाफे को अगर देश की अर्थव्यवस्था से जोड़ कर देखें, तो उत्पादन लागत और आय के आधार पर आंकें, तो यह कृत्रिम अर्थप्रणाली है. यह किसी भी दिन भहरायेगी. धवस्त होगी. भारत की पेट्रोलियम कंपनियों को देख लीजिए. उनके यहां मैनपावर कॉस्ट से लेकर स्टेब्लिशमेंट कॉस्ट इतने अधिक हैं कि हम पाकिस्तान, बांग्लादेश से भी प्रति लीटर 30 रुपये अधिक पर पेट्रोल बेचते हैं. ओएनजीसी जैसी महारत्न कंपनियों में चपरासी की भी तनख्वाह 60 हजार से अधिक है.

यह आपको मालूम होगा कि भारत की पेट्रोलियम कंपनियां दो लाख करोड़ के घाटे में चल रही हैं. आमद चवन्नी और खर्च अठन्नी का मामला है. यही स्थिति आज नयी दुनिया और छोटे अखबारों के साथ है. अगर नई दुनिया को बाजार में रहना है, तो उसे अपने पत्रकारों को भी हिंदी के बड़े अखबारों के पत्रकारों के समकक्ष वेतन देना होगा. पर नई दुनिया की आमदनी तो बड़े अखबारों जैसी है नहीं. न उसके पास विदेशी पूंजी (एफडीआइ) है.

न शेयर बाजार का पैसा है. न इक्विटी है. उधर हिंदी के कुछेक बड़े अखबारों को देख लीजिए. उनकी बैलेंस शीट देख लीजिए. किसी के पास पांच सौ से छह सौ करोड़ जमा है. किसी के पास चार सौ से पांच सौ करोड़ जमा है. बड़े अखबार भी मैनपावर कॉस्ट इतना बढ़ा चुके है कि इन्हें भी प्राफिट मैक्सिमाइजेशन के लिए पेड न्यूज का सहारा लेना पड़ता है.

उपभोक्ता बाजार के फैलाव में सशक्त मंच के रूप में ये बड़े अखबार काम करते हैं. बाजार को फैलाना-बढ़ाना इनका पहला ध्येय है, क्योंकि बाजार बढ़ेगा, तो आमद बढ़ेगी. पाठकों के बौद्धिक संसार और समाज को बेहतर बनाने से इनका क्या संबंध रह गया है? यह बदले अर्थयुग (उदारीकरण) का प्रभाव है.

हिंदी इलाकों में यह कुछ गंभीर समस्याएं हैं. हम हीन मानस के झगड़ालू लोग हैं. उसमें भी यदि राजेंद्र माथुर के शब्दों में कहें, 'क्योंकि बलिया और पुणे में एक फर्क है, जो गंगा-यमुना के बीच रहनेवाले उत्तर भारतीयों को कभी समझ में नहीं आयेगा.ह्ण वैसे तो हिंदुस्तान में ही समस्या है, पर हिंदी इलाकों में खासतौर से. इस बीमारी का लक्षण भी माथुर साहब के शब्दों में ही- 'समाज के नाते अथवा संस्था के नाते हम हिंदुस्तानी आकृष्ट होना जानते ही नहीं. हिंदीभाषियों में यह खासियत दूसरों से कुछ ज्यादा ही है. नौ कनौजिए यहां नौ सौ चूल्हे जलाते हैं. सारे संस्कार ही हिंदी में हीनता, विपन्नता और ईर्ष्या में हैं.ह्ण

राजेंद्र माथुर ने हिंदी इलाके के इस मानस पर कब टिप्पणी की थी, तब से आज के 25 वर्षों बाद, यह और अधिक विकृत हुई है. पर उससे क्या? नई दुनिया का अपना रोल रहा. देश, काल और परिस्थितियों के अनुसार उसने अपने प्रयास से हिंदी समाज को संवारा. उसकी बौद्धिक क्षमता बढ़ायी. अपने समय-दौर में देश, काल और परिस्थितियों के अनुरूप श्रेष्ठ रोल प्ले (भूमिका अदा की) किया. अब वह नई दुनिया, नयी परिस्थितियों में अपना पुराना चोला उतार रहा है. राजेंद्र जी राहुल जी नई दुनिया के अतीत बन रहे हैं. भविष्य के साथ उनके रिश्ते क्षीण होते जायेंगे. यही काल है.

पुरानी कहावत है, 'समय होत बलवान !ह्ण वहीं अर्जुन, वही गांडीव, पर भील उनकी औरत को हर ले गये. ऐसा तो होना ही है. दर्शन में कहें, तो यह काल की गति है. इस असार-संसार में ना तो हम अपने परिवेश या अस्तित्व के स्थायी होने का ठेका ले सकते हैं और न उसके भविष्य का, क्योंकि दोनों ही चीजें समय के साथ खिसक जाती हैं. तानपुरे ढीले पड़ जाते हैं, या महफिलें बदल जाती हैं. सफेद पर्दे मैले हो जाते हैं. परेशानियां अपनी पहचान के लिए अलग पृष्ठभूमि खोजती हैं.

नई दुनिया के साथ उत्पन्न स्थिति को समझने के लिए नई दुनिया के अर्थशास्त्र को समझना जरूरी है. एक औसत बीस पेज का अखबार रोज निकालने के लिए सिर्फ स्याही और प्लेट पर खर्च लगभग चार रुपये है. अन्य ओवरहेड खर्च जोड़ दें, तो एक प्रति की कीमत लगभग सात रुपये होगी. यह खर्च तब, जब अखबार मामूली या औसत न्यूजप्रिंट पर निकलता है.

यह एक अखबार निकालने का खर्चा है. अब आमद का पक्ष समझ लीजिए. फर्ज कीजिए आपका अखबार, एक सप्ताह में तीन दिन दो रुपये, और चार दिन तीन रुपये में बिकता है. तब आमद गणित समझिए. अखबार बिकता है, दो या तीन रुपये में. सप्ताह की कुल कीमत जोड़ दें, तो औसत कीमत 2.5 रुपये होगी रोज. इस 2.5 रुपये में हॉकर और एजेंटों का कमीशन है, लगभग 1.40 रुपये. आपके पास बचा (2.5-1.40) 1.10 रुपये प्रति कॉपी.

एक अखबार का उत्पादन लागत यानी एक अखबार निकालने में खर्च हुए सात रुपये. इस तरह, हर एक कापी में खर्च हुए (7-1.10) 5.90 रुपये. इस तरह, एक दिन में एक कापी पर घाटा हुआ लगभग 6 रुपये. अगर किसी अखबार की दस लाख प्रतियां रोज बिकती हैं, तो एक दिन में लॉस (घाट) हुआ लगभग 60 लाख रुपये. महीने में यह घाटा हुआ (60 गुणा 30) 18 करोड़ रुपये. साल में यह घाटा हुआ (18 गुणा 12) 216 करोड़. अब इस 216 करोड़ का लॉस फाइनेंसिंग सिर्फ और सिर्फ विज्ञापन से होना है.

एक स्वाभाविक सवाल उठता है कि जब उत्पादन लागत सात रुपये है, तो दो रुपये में क्यों बेचते हैं. घाटा उठा कर. बड़े अखबार, जो पूंजी संपन्न हैं, वे कीमत घटा देते हैं, ताकि कमजोर को मार सकें या जो जमेजमाये अखबार हैं, उनके बीच बाजार बनाने के लिए आपको कीमत कम करनी पड़ती है, ताकि पाठक अखबार खरीद-देख सकें. अंतत: प्रसार होगा (सरकुलेशन बढ़ेगा), तभी विज्ञापन भी मिलेंगे. इसलिए अखबार प्रसार बढ़ाने के लिए कीमत कम करने को विवश हैं.

अगर अंबानी समूह से 200 करोड़ का लोन नई दुनिया ने लिया भी होगा, तो उसका हश्र यही हुआ होगा. इसके ऊपर दफ्तर में बढ़ती बेशुमार तनख्वाह, जिसका कोई वास्ता प्रोडक्टीविटी (उत्पादकता) से नहीं है. उत्पादकता और तनख्वाह के बीच कोई अनुपात नहीं है. एक मामूली अखबार में कुल आमद (रिवेन्यू) कितने  फीसदी है? हिंदी के जो तीन बड़े अखबार है, उनमें 12 फीसदी, 11 फीसदी और 14 फीसदी हैं. क्योंकि इनके अनेक संस्करण हैं, तो कुछ खर्चे कामन निकल जाते हैं.

छोटे अखबार जिनके पास अनेक राज्यों के संस्करण नहीं हैं. न शेयर बाजार का पैसा है, न एफडीआइ है, न इक्विटी है, उनका वेज बिल (स्टाफ कास्ट, यानी तनख्वाह वगैरह पर खर्च) वर्ष 2009-10 में कुल आमद का 15 फीसदी था. इसी तरह वर्ष 2010-11 में, हिंदी के तीन बड़े अखबारों का स्टाफ कास्ट टोटल रेवेन्यू का 14 फीसदी, 14 फीसदी और 12 फीसदी था.

पर जो छोटे अखबार इनसे कंपीट करना चाहते हैं, उनका स्टाफ कास्ट 20 फीसदी. इसी तरह वर्ष 2011-12 में हिंदी के तीन बड़े अखबारों का स्टाफ कास्ट (परसेंटेज आफ टोटल रेवेन्यू) था, 12 फीसदी, 16 फीसदी और 12 फीसदी. पर अन्य छोटे अखबरों का लगभग 19-20 फीसदी. यानी नई दुनिया जैसे मंझोले या छोटे अखबार का स्टाफ कास्ट भी बड़े अखबारों के मुकाबले अधिक और आमद भी कम, तो अर्थशास्त्र के किस नियम के तहत ऐसे संस्थान चल सकेंगे?

बढ़ती लागत-महंगा कर्ज तोड़ रहे कमर

नयी अर्थव्यवस्था ने छोटे अखबारों के लिए संकट पैदा किया है. यह शुद्ध अर्थशास्त्र का मामला है. ऊपर से पिछले एक साल में आये अन्य आर्थिक परिवर्तनों को जान लीजिए, जिन्होंने छोटे अखबारों की कमर तोड़ दी है. पिछले तीन सालों में रंगीन स्याही पर कितना खर्च बढ़ा है, लगभग नौ लाख प्रतिदिन बिकनेवाले अखबारों का? अगर कीमत वृद्धि की यही रफ्तार रही, तो आगामी दो वर्षों में यह कितना बढ़ेगा? यह आकलन भी चार्ट में हैं.

2009-10 2010-11 2011-12 2012-13 2013-14
कीमत
रंगीन स्याही/किग्रा 139.55 146.84 166.86 183.00 195.00
वृद्धि (प्रतिशत में) 5 फीसदी 14 फीसदी 10 फीसदी 7 फीसदी

काली स्याही/ किग्रा 54.55 60.54 70.52 77.50 83.00
वृद्धि (प्रतिशत में) 11 फीसदी 16 फीसदी 10 फीसदी 7 फीसदी

सीटीपी प्लेट / प्लेट 153.78 152.98 150.25 159.00 165.00
वृद्धि (प्रतिशत में)- 1 फीसदी -1 फीसदी 6 फीसदी 4 फीसदी

कच्चे माल और स्याही के खर्च को प्रभावित करनेवाले कारक -

1. डॉलर का बढ़ता भाव बनाम भारतीय रुपये का घटता भाव.
2. पेट्रोलियम पदार्थों के बढ़ते भाव.
3. कमोडिटी प्राइस परिवर्तन और बाजार का अनुमान.

(नोट : 2012-13 एंड 2013-14 के भाव, अनुमान पर निकाले गये हैं. )

सूद का बढ़ा दर या कर्ज की कीमत

इस दौर में जो अखबार बाजार से या बैंक से लोन लेकर चल रहे हैं, उन पर क्या असर पड़ा है? यह जानना जरूरी है. ब्याज की कीमत आज क्या है? पिछले  एक-डेढ़ साल में लगातार खबरें आयीं कि रिजर्व बैंक ने रिवर्स रेपो रेट बढ़ाया. यह वह दर है, जिसके तहत आरबीआइ दूसरे बैंक से उधार लेता है और इससे एक फीसदी अधिक दर पर अन्य बैंकों को पैसा देता है. जनवरी 2004 से जनवरी 2012 के बीच का चार्ट देख लीजिए.

वर्तमान रेपो रेट 8.5 फीसदी है. जनवरी 2010 में यह 4.25 फीसदी था. वाणिज्यिक बैंक, इस रेट से छह से सात फीसदी अधिक सूद पर अच्छी साखवाले संगठनों को ॠण देते थे. आज सूद की दर है, 18-20 फीसदी. फर्ज कीजिए जिस अखबार की कंपनी ने 75 करोड़ का लोन 2010 में लिया था. तब उसे 8.4 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष सूद देना पड़ता. अब वह बढ़ कर 12.5 करोड़ से अधिक होगा. यानी चार करोड़ सूद अदायगी में, भारत सरकार की नीतियों के कारण, एक वर्ष में वृद्धि.

अगर 75 करोड़ से अधिक ॠण है, तो और अधिक सूद. इसका क्या असर होता है? अन्य प्रतिस्पर्द्धी कंपनियों के मुकाबले बाजार में सूद की देनदारी बढ़ जाना. उदाहरण के तौर पर वित्तीय वर्ष 2009-10 में हिंदी के तीन बड़े अखबारों का सूद और वित्तीय चार्ज ऐसे ॠणों पर था, एक फीसदी, तीन फीसदी और दो फीसदी. छोटे अखबारों का भी तब दो फीसदी था. इस बीच ॠण लेकर नई दुनिया की तरह, जिन छोटे या मंझोले अखबारों ने अपने संस्करण बढ़ाये और खर्च बढ़ाया, यह बढ़ कर चार फीसदी हो गया. वर्ष 2010-11 में.

जबकि हिंदी के तीन बड़े अखबारों (जिनके पास एफडीआइ है, इक्विटी और शेयर बाजार का पैसा है) उनके लिए यह घट कर एक फीसदी हो गया. 2011-12 में तीन बड़े घरानों का यह इंट्रेस्ट और फाइनेंस चार्ज (परसेंटेज आॅफ  टोटल रेवेन्यू) रहा- पहले का एक फीसदी, दूसरे का दो फीसदी और तीसरे का जीरो फीसदी.

यानी उसने अपना ॠण चुकता कर दिया. जिस छोटे अखबार ने अपने संस्करण फैलाये, उनके लिए अब खर्च हो गया, 6 फीसदी. अब आप बतायें, कौन सा आर्थिक गणित छोटे अखबारों के पक्ष में है? यानी सामान्य भाषा में कहें, तो सूद मद में बड़े अखबारों की देनदारी शून्य और छोटे अखबारों पर 10-20 करोड़ का सालाना कहर. ये और ऐसे अन्य खर्चे तो छोटे और मंझोले अखबारों को मार ही रहे हैं. पर सर्वाधिक असर डालने वाली चीज है, न्यूज प्रिंट की कीमत. औसत दर से न्यूज प्रिंट की कीमत में क्या बढ़ोतरी हुई है, और आनेवाले वर्षों का क्या अनुमान है, यह जान लीजिए -

वर्ष 2009-10 2010-11 2011-12 2012-13 2013-14
न्यूज प्रिंट / किग्रा 26 रु 29 रु 32 रु 34.50 रु 35.50 रु
वृद्धि (प्रतिशत) 11 फीसदी 12 फीसदी 7.5 फीसदी 3.5 फीसदी

दरअसल, कागज की बढ़ती कीमतों ने अखबारों की कमर तोड़ दी है. दुनिया में लगातार बड़ी अखबारी कागज मिलें बंद हो रही हैं. कच्चा माल न मिलने की वजह से. मिलों के बंद होने से बाजार में कम माल आ रहा है. भारत में उतनी मिलें नहीं हैं. किसी भी अखबार का सर्वाधिक खर्च न्यूजप्रिंट पर ही है. लगभग 80 से 90 फीसदी. पिछले एक साल में पांच कारणों से न्यूजप्रिंट की कीमत में भारी बढ़ोतरी हुई है-

1. अमेरिकी डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपये का कमजोर होना.
2. पूरी दुनिया में कई कागज मिलों का बंद होना.
3. भारतीय कागज मिलों की खराब आर्थिक स्थिति.
4. असंगठित बाजार में रद्दी कागज की कीमत.
5. बाजार में पालीथीन बैगों का घटता इस्तेमाल

इस तरह से गुजरे एक साल में न्यूजप्रिंट, अखबारी कागज की कीमतों में भारी वृद्धि. रंगीन स्याही, प्लेट और अन्य आवश्यक उपकरणों के भाव में वृद्धि. तनख्वाहों में बेशुमार वृद्धि. सूद और ब्याज की दरों में भारी वृद्धि. इन सबको मिला कर कुल असर एक अखबार के अर्थशास्त्र पर क्या पड़ेगा? क्या इसका अनुमान लगाये बगैर आप नई दुनिया के साथ हुए इस प्रकरण को समझ पायेंगे?
विज्ञापन बाजार भी बड़ों के साथ है!
 अखबारों की आमद का एकमात्र स्रोत, विज्ञापन का गणित या संसार भी समझ लीजिए. आज 2011-12 में कुल विज्ञापन बाजार है, 25594 करोड़ का. इसमें से 10791 करोड़ प्रिंट मीडिया के पास है. कुल विज्ञापन का लगभग 46 फीसदी हिस्सा, अंगरेजी अखबारों पर खर्च होता है. अब देश में कुल अंगरेजी अखबार कितने हैं, यह जोड़ लीजिए, तो पता चलेगा कि हिंदी या क्षेत्रीय भाषाओं की संख्या से कम हैं. पर उनके लिए विज्ञापन का बाजार ज्यादा बड़ा है.
 यानी 46 फीसदी. लगभग 4.5-4.6 हजार करोड़. प्रिंट मीडिया का लगभग 30 फीसदी हिंदी अखबारों पर खर्च होता है. हिंदी के कितने पत्र-पत्रिकाएं हैं, यह जोड़ लीजिए, तो साफ हो जायेगा कि प्रति अखबार कितना कम विज्ञापन उपलब्ध है. हिंदी के जो तीन-चार बड़े अखबार हैं, वो इसका लगभग 70-80 फीसदी (यानी 3-3.5 हजार करोड़) अकेले ले जाते हैं. अपना रेट घटा कर.

अधिक संस्करण होने की बारगेनिंग कर. आक्रामक मार्केटिंग कर. बड़े होने का लाभ लेकर. कई राज्यों में होने और अनेक संस्करण निकालने के बल. अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के लिए स्थिति है कि लगभग 10800 करोड़ के प्रिंट विज्ञापन बाजार में से अकेले मराठी को सात फीसदी मिलता है. तेलुगु को चार फीसदी. तमिल को तीन फीसदी. बंगाली, गुजराती, मलयालम और कन्नड़ को 2-2 फीसदी. ओड़िया को एक फीसदी.

इसके और अंदर जायें, तो पता चलेगा, मध्य प्रदेश या राजस्थान जैसे हिंदी राज्य, जो बीमारू हिंदी राज्यों के दुष्चक्र से बाहर आ गये हैं, उनके यहां विज्ञापन बाजार की स्थिति क्या है? झारखंड-बिहार जैसे बीमारू माने जानेवाले, कम विकसित राज्यों में क्या स्थिति है? मध्य प्रदेश में लगभग 770 करोड़ का विज्ञापन बाजार है, जिसमें अकेले भोपाल और इंदौर में 460 करोड़ का व्यवसाय है.

इसी तरह राजस्थान में भी लगभग 650 करोड़ का विज्ञापन बाजार है. अकेले जयपुर 350 करोड़ का विज्ञापन बाजार है. इसके उलट बिहार में लगभग 350 करोड़ का बाजार है, जिसका 60 फीसदी यानी लगभग 200 करोड़ पटना का बाजार होगा. झारखंड का बाजार लगभग 170-200 करोड़ का होगा. इसमें से 50 फीसदी का विज्ञापन बाजार रांची से होगा.

अब आप गौर करें कि मध्य प्रदेश, राजस्थान, बिहार और झारखंड का फर्क क्या है? मध्य प्रदेश और राजस्थान में शहरीकरण अधिक है. बाजार अधिक विकसित है. तुलनात्मक रूप से संपन्नता अधिक है. इसलिए वहां विज्ञापन अधिक हैं. विज्ञापन बाजार का बजट बड़ा है. बिहार और झारखंड़ पिछड़े हैं, इसलिए यहां विज्ञापन बाजार कम है. यहां पर सरकार ही सबसे बड़ी विज्ञापनदाता है. क्योंकि बाजार विकसित ही नहीं हुआ है या कम विकसित हुआ है. अब बड़े अखबार क्या कर रहे हैं? वे मध्य प्रदेश से भी कई संस्करण निकाल रहे हैं.

राजस्थान से भी निकालते हैं. पंजाब हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड सब जगह से निकालते हैं. उनका सारे बाजारों पर कब्जा है. नई दुनिया जैसे अखबार या अन्य मंझोले अखबार, जो सिर्फ अपने प्रदेश में ही रह गये और जिन्हें अपने राज्य के बाजार या सरकार से विशेष मदद नहीं मिली, वे तो बंद होंगे ही. यह तो वैसी ही स्थिति है कि शेर के सामने मेमने को खड़ा कर दीजिए या एक व्यक्ति को 25-30 वर्ष तक खूब खिलाइए-पिलाइए और एक को 25-30 वर्षों तक कुपोषण का शिकार रखिए, ताकि वह सिर्फ नरकंकाल भर रह जाये और दोनों के बीच अखाड़े में कुश्ती-मुकाबला कराइए. तब अगर नरकंकाल हार जाता है, तो आप सवाल पूछिए कि आप हार क्यों गये?
 दरअसल, ऐसी जगहों पर सरकारी हस्तक्षेप की जरूरत पड़ती है. क्यों सरकारें छोटे अखबारों को, अपने राज्य से निकलने वाले अखबारों को, कम प्रसार वाले अखबारों को प्राथमिकता के आधार पर विज्ञापन देकर नहीं बचातीं? जब ऐसे अखबार बिक या बंद हो जायेंगे, तब वे सवाल उठायेंगे कि ऐसा कैसे हो गया? इंदिराजी अपने जमाने में, बड़ी कंपनियां छोटी कंपनियों को न खायें या बड़ी मछली, छोटी मछली को न निगले, इसके लिए एमआरटीपी एक्ट लायी थीं.
 किसी राजनेता या दल द्वारा, आज आप इस तरह की बात सुनते हैं? क्या आपको याद है कि 1990-2000 के दशक के बीच हिंदी के कितने अखबार बंद हो गये? या अपने दम पर घिस-घिस कर चल रहे हैं. गौर करिए, दिनमान, दिनमान टाइम्स, धर्मयुग, माधुरी, हिंदुस्तान साप्ताहिक, नवभारत टाइम्स (जयपुर, लखनऊ, पटना), आवाज, आर्यावर्त्त, प्रदीप, संडे मेल (जेवीजी ग्रुप का अखबार), स्वतंत्र भारत. वगैरह-वगैरह. दलों द्वारा संचालित मुखपत्रों को भी याद कर लीजिए. नेशनल हेरल्ड (कांग्रेस), नवजीवन (कांग्रेस), गणशक्ति (माकपा), मदरलैंड (भाजपा). पता नहीं, नवज्योति और वीर अर्जुन जैसे अखबार कहां और किस हाल में हैं? यह सूची और बड़ी हो सकती है. नई दुनिया जैसे अखबार भी इसी द्वंद्व और हालात से गुजरे होंगे.
 ब्रिटेन के राज्य में, क्यों सूर्यास्त नहीं होता था? उसने नयी तकनीक खोज कर आर्थिक साम्राज्य कायम किया. वह आधुनिक राष्ट्र बना. उसके पास पूंजी थी, नयी तकनीक थी. सबसे तेज चलनेवाले समुद्री जहाज थे. इसलिए उन्हें कई इतिहासकारों ने माडर्न राबर्स (आधुनिक लुटेरा) कहा है, जो नये हथियारों से, पूंजी से लैश थे. बाबर या मुगल, भारत के खिलाफ हमलों में क्यों कामयाब हुए? क्योंकि उनकी सेना में, तोप चलाने की ताकत थी. भारतीय सेना बिदकते हाथियों-घोड़ों और जंग लगी तलवारों तक सीमित थी. यही स्थिति मीडिया की दुनिया में भी है. जिसके पास साधन है