Saturday 25 February 2017

आंख का अंधा नाम नयनसुख


भारतीय खेल प्राधिकरण
श्रीप्रकाश शुक्ला
आंख का अंधा नाम नयनसुख। जी हां, मुल्क में खेलों के अलम्बरदार भारतीय खेल प्राधिकरण की तथा-कथा, कामकाज का तरीका तथा सिफर परिणाममूलक उपलब्धियों पर नजर डालें तो यह कहावत पूरी तरह से सही चरितार्थ होती है। भारतीय खेल प्राधिकरण के देशभर में संचालित सेण्टर खेल प्रतिभाओं की पाठशाला नहीं बल्कि आलाधिकारियों के आरामगाह हैं। भ्रष्टाचार-कदाचार, भाई-भतीजावाद और खेल-खिलाड़ियों से खेलवाड़ के अनगिनत मामलों के बाद भी इस मूक हाथी पर कोई असर नहीं होता। यह निरंकुश गजधर आर्थिक रूप से कमजोर देश के लिए खेलों में पैसे की फिजूलखर्ची का भी जिम्मेदार है। आज हमारे प्रशिक्षक अल्पवेतन और भूखे पेट खिलाड़ी निखार रहे हैं वहीं साई की कृपा से विदेशी प्रशिक्षक अरबों रुपये पाकर भारतीय खिलाड़ियों को बिगाड़ रहे हैं। भारतीय खिलाड़ियों में डोपिंग का डंक लगना विदेशी प्रशिक्षकों की ही नापाक कारगुजारी है। हाल ही कुछ खिलाड़ियों ने भारतीय खेल प्राधिकरण पर जो आरोप लगाए हैं उन्हें मिथ्या नहीं कहा जा सकता।
खेलों के खैरख्वाह भारतीय खेल प्राधिकरण की स्थापना भारत सरकार ने जनवरी, 1984 में एक पंजीकृत सोसाइटी के रूप में की थी। प्रारम्भ में इसका उद्देश्य 1982 में एशियाड के दौरान दिल्ली में निर्मित खेलकूद की बुनियादी सुविधाओं के कारगर रख-रखाव तथा उनके अधिकतम उपयोग को सुनिश्चित करना था। अब यह देश में खेलों के विस्तार तथा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलों में विशेष उपलब्धि के लिए खिलाड़ियों के प्रशिक्षण की भी नोडल एजेंसी बन गई है। खेलों को प्रोत्साहन देने के लिए शीर्ष पर एक ही एजेंसी स्थापित करने के उद्देश्य से एक मई, 1987 को राष्ट्रीय शारीरिक शिक्षा और खेलकूद सोसाइटी (एस.एन.आई.पी.ई.एस.) का भारतीय खेल प्राधिकरण में विलय कर दिया गया। इसके बाद नेताजी सुभाष चंद बोस राष्ट्रीय खेलकूद संस्थान (एन.एस.एन.आई.एस.) पटियाला और बेंगलूरु, कोलकाता तथा गांधीनगर में इसके केन्द्र तथा तिरुअनंतपुरम का लक्ष्मीबाई राष्ट्रीय शारीरिक व्यायाम शिक्षा विद्यालय भी भारतीय खेल प्राधिकरण के अंतर्गत आ गए। अब इसके छह क्षेत्रीय केन्द्र बेंगलूरु, गांधीनगर, कोलकाता, चंडीगढ़, भोपाल और इम्फाल में हैं और दो उप-केन्द्र गुवाहाटी (असम) और लखनऊ (उत्तर प्रदेश) में हैं। इनकी बुनियादी खेल सुविधाएँ अब सोनीपत में जुटाई जा रही हैं। भारतीय खेल प्राधिकरण शिलारू (हिमाचल प्रदेश) में एक हाई एल्टीट्यूड ट्रेनिंग सेण्टर भी संचालित करता है।
भारतीय खेल प्राधिकरण राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उत्कृष्टता प्राप्ति के लिए राष्ट्रीय खेल प्रतिभा (एन.एस.टी.सी.), आर्मी ब्वायज स्पोर्ट्स कम्पनी (ए.बी.एस.सी.), भारतीय खेल प्राधिकरण प्रशिक्षण केन्द्र (एस.टी.सी.) तथा विशेष क्षेत्रीय खेल (एस.ए.जी.) जैसी योजनाओं का संचालन करता है। भारतीय खेल प्राधिकरण ने विशेष प्रतिभा सम्पन्न खिलाड़ियों के लिए अपने सभी क्षेत्रीय केन्द्रों तथा राष्ट्रीय खेलकूद संस्थान पटियाला में उत्कृष्टता केंद्र (सी.ओ.ई.) स्थापित किए हैं। एक नजर में देखा जाए तो इस मतवाले हाथी का काम खिलाड़ियों को उत्कृष्टता के उस पायदान तक ले जाना है, जहां से वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मादरेवतन का मान बढ़ाए लेकिन अफसोस यह हाथी खिलाड़ियों की रसद खाने के साथ ही उनके अरमान चूर-चूर कर रहा है। हाल ही कई खिलाड़ियों ने साई सेण्टरों के आलाधिकारियों पर कई गम्भीर आरोप लगाए हैं। खिलाड़ियों ने यह आरोप किसी की शह पर नहीं लगाए बल्कि भारतीय खेल प्राधिकरण के सेण्टरों में हालात इससे भी ज्यादा बदतर हैं।
भारतीय खेल प्राधिकरण पर आरोप-प्रत्यारोपों की लम्बी फेहरिश्त है। इन आरोप-प्रत्यारोपों की जांच को स्वांग भी रचे जाते हैं लेकिन परिणाम हमेशा खिलाड़ियों के खिलाफ ही गए हैं। साई सेण्टरों में क्या-क्या होता है, यह किसी से छिपा नहीं है। लगभग तीन साल पहले की ही बात है जब केरल के अलप्पुझा साई सेण्टर में चार खिलाड़ी बेटियों ने एक साथ जीवनलीला समाप्त करने की कोशिश की थी। भारतीय खेल प्राधिकरण के जल क्रीड़ा केन्द्र में प्रशिक्षु चार खिलाड़ियों ने सीनियरों द्वारा कथित तौर पर उत्पीड़न के चलते एक जहरीला फल (ओथालांगा) खाकर आत्महत्या करने की कोशिश की जिनमें से एक अपर्णा रामचंद्रन की मौत हो गई। मृतक अपर्णा रामचंद्रन के रिश्तेदार का कहना था कि साई छात्रावास के प्रशिक्षुओं को शारीरिक यातनाएं दी जा रही थीं। यहां तक कहा गया था कि एक लड़की को दो दिन पहले कोच ने चप्पू से मारा था जिसकी वजह से वह न खड़ी हो पा रही थी और न ही बैठ पा रही थी। इस गम्भीर मामले पर तब भारतीय खेल प्राधिकरण के तत्कालीन महानिदेशक श्रीनिवास और खेलमंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई का दम्भ भरा था। अफसोस प्रतिभाशाली खिलाड़ी अपर्णा तो मर गई लेकिन खेलनहार अब भी जिन्दा हैं।
2012 में साई की हिटलरशाही के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाले भारतीय महिला कुश्ती प्रशिक्षक और भारतीय कुश्ती की पहचान, अर्जुन अवॉर्डी, कृपाशंकर बिशनोई को 2014 के ग्लास्गो राष्ट्रमण्डल खेलों में मुश्किल हालातों का सामना करना पड़ा, उन्हें भारतीय खेल प्राधिकरण की नादरशाही के चलते खेलगांव में प्रवेश नहीं मिला और पुलिस भी बेवजह परेशान करती रही। कृपाशंकर को खेलगांव में प्रवेश से क्यों रोका गया इसकी कोई ठोस वजह नहीं थी बावजूद इसके वे महिला पहलवानों के पास नहीं जा सके। यह सब तब हुआ जब खिलाड़ियों को प्रोत्साहन की दरकार थी। कोच कृपाशंकर का दोष सिर्फ इतना था कि उन्होंने खिलाड़ियों के हक यानि डाइट की बात साई से की थी। यह मामला 2012 का है। सवाल यह उठता है कि यदि महिला कुश्ती प्रशिक्षक से कोई गिला-शिकवा थी तो उसे ग्लास्गो क्यों भेजा गया। कोच की नियुक्ति कुश्ती संघ का मामला था। इस मामले में भारतीय खेल प्राधिकरण को दखल देने का कोई अधिकार नहीं था फिर भी उसने कुश्ती प्रशिक्षक पर आपराधिक होने के आरोप लगाए। कृपाशंकर बिशनोई इससे पूर्व भी साई के षड्यंत्र का शिकार हो चुके थे। साई की बेवजह की दखलंदाजी के चलते पूर्व में कृपाशंकर को अमेरिका और इटली जाने से रोका गया था। मध्य प्रदेश ही नहीं समूचा देश इस बात को जानता है कि पहलवान और कोच कृपाशंकर बिशनोई एक भद्र शख्सियत हैं, वे किसी को बंदूक तो क्या उंगली भी नहीं दिखा सकते। कुश्ती प्रशिक्षक कृपाशंकर पर 2013 में साई की रीजनल डायरेक्टर राधिका सामंत की शह पर एक कर्मचारी ने बंदूक दिखाकर धमकाने का आरोप लगाया था, जबकि कृपाशंकर के पास कोई लाइसेंसी हथियार ही नहीं था। खैर, पुलिस जांच के बाद कृपाशंकर निर्दोष साबित हुए और खिलाड़ियों के हक की बात पुनः उठाते हुए मामला अदालत तक ले गये। इस बीच साई ने उन्हें तरह-तरह के प्रलोभन भी दिए लेकिन इस पहलवान ने साफ कह दिया कि बेटियों के हक पर वह कतई डाका नहीं डालने देंगे।
18 दिसम्बर, 2015 को बॉक्सिंग के खेल में दस्तावेजों के फर्जीवाड़े का मामला उजागर होने के बाद देशभर में बड़ा विवाद खड़ा हुआ। भिवानी, हिसार और सोनीपत साई सेण्टर्स से लेकर नई दिल्ली स्थित भारतीय खेल प्राधिकरण के मुख्यालय और केंद्रीय खेल मंत्रालय तक खलबली मच गई। आरटीआई कार्यकर्ता चरण सिंह को सूचना के अधिकार से मिली जानकारी से, देशभर के 10 स्पोर्ट्स अथॉरिटी ऑफ इण्डिया सेंटर्स के 260 महिला और पुरुष बॉक्सरों पर फर्जी स्कूल सर्टिफिकेट, बर्थ सर्टिफिकेट के सहारे पदक बटोरने और सरकारी नौकरी हासिल करने का सच उजागर हुआ, इनमें 76 हरियाणा से हैं। मामले की गम्भीरता को देखते हुए खेलमंत्री अनिल विज ने आनन-फानन में जांच के आदेश दिए तो साई ने खिलाड़ियों के प्रवेश के वक्त दस्तावेजों के वेरीफिकेशन को अनिवार्य करने का आदेश दिया। 19 दिसम्बर, 2015 को बॉक्सरों के फर्जीवाड़े मामले की सच्चाई जानने और दस्तावेजों की सत्यता पता करने के लिए खेलमंत्री अनिल विज ने जांच के आदेश दिए लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात निकला। भिवानी बोर्ड के खुलासे के बाद कई अंतरराष्ट्रीय स्तर के बॉक्सरों पर तलवार लटकी है। साई के दस्तावेजों में वर्ष 2006 से 2008 के बीच प्रवेश लेने वाले खिलाड़ियों में से कई की मार्कशीट पर 8वीं और 10वीं में अलग-अलग इनरोलमेंट नम्बर हैं। इन्हीं दस्तावेजों के आधार पर वर्तमान में ये खिलाड़ी भारतीय रेलवे, सेना और पुलिस विभाग में बड़े पदों पर कार्यरत हैं। इन सारे हालातों को देखकर अफसोस तो होता ही है, साथ ही खिलाड़ियों एवं खेल कमेटी पर भी प्रश्नचिह्न उठते हैं।  
भारतीय खेल प्राधिकरण से इतर देश में खेलों की गंगोत्री को नापाक करने वालों की भी कमी नहीं है। समय समय पर खिलाड़ी बेटियां अपने प्रशिक्षकों पर कुदृष्टि की बातें सार्वजनिक करती रही हैं लेकिन किसी भी मामले में उन्हें इंसाफ नहीं मिला। 2008 में कबड्डी कोच जे. उदय कुमार पर महिला टीम खिलाड़ी के साथ अभद्र व्यवहार करने का आरोप लगा था। खिलाड़ी शर्मी उलाहनन ने ट्रेन यात्रा के दौरान कोच पर अभद्रता का आरोप लगाया था। जिसके बाद कोच को हटना पड़ा था, हालांकि बाद में वह दोबारा टीम में आ गए। 2009 में लंदन में टी-20 विश्व कप के समय महिला क्रिकेट टीम के मैनेजर वी. चामुंडेश्वरनाथ के खिलाफ महिला क्रिकेटरों को टीम में शामिल करने के बदले यौन शोषण का आरोप लगा था। चांमुडेश्वरनाथ उस समय आंध्र प्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन के सचिव थे। आंध्र प्रदेश महिला क्रिकेट टीम की कप्तान सविता कुमारी ने तो यहां तक कहा था कि चामुंडेश्वरनाथ ट्रेनिंग कैम्पों में महिला खिलाड़ियों के साथ अभ्रद व्यवहार करते थे। आखिर न्याय न मिलने से आहत चामुंडेश्वरनाथ के खिलाफ केस करने वाली पूर्व रणजी क्रिकेटर दुर्गा भवानी ने आत्महत्या कर ली थी। इसी साल राष्ट्रीय स्तर की युवा बॉक्सर एस. अमरावती ने कथित तौर पर अपने कोच ओमकार यादव के साथ झगड़े के चलते आत्महत्या का रास्ता चुना था।
जुलाई, 2010 में भारतीय हॉकी में उस समय भूचाल आ गया जब सीनियर महिला खिलाड़ी टी.एस. रंजिता ने प्रशिक्षक एम.के. कौशिक पर शारीरिक शोषण का आरोप लगाया। महिला टीम के कोच रहे कौशिक ने उस समय इस्तीफा दे दिया और बाद में आरोप से बरी हो गए। 2014 की बात है जब पांच बार की वर्ल्ड चैम्पियन मुक्केबाज एमसी मैरीकॉम ने बताया था कि जब वह 18 साल की थीं, चर्च के बाहर एक रिक्शा चालक ने उनसे छेड़छाड़ की, बाद में उन्होंने उसे वहीं गिरा दिया। सितम्बर, 2014 में दक्षिण कोरिया के इंचियोन शहर में एशियन खेलों के दो दिन पहले भारतीय जिम्नास्ट टीम विवादों के घेरे में आ गई थी। 29 वर्षीय एक महिला जिम्नास्ट ने टीम के कोच मनोज राणा और एक खिलाड़ी चंदन पाठक पर यौन शोषण का आरोप लगाया था। इसके बाद पुलिस ने राणा और पाठक को यौन उत्पीड़न के आरोप में गिरफ्तार कर प्रकरण दर्ज किया था।
भारतीय महिला फुटबॉल टीम की पूर्व कप्तान सोना चौधरी की किताब गेम इन गेम में कई सनसनीखेज और चौंकाने वाले खुलासे हुए। सोना चौधरी ने दावा किया कि महिला टीम के कोच और सेक्रेटरी खिलाड़ियों को समझौता करने के लिए मजबूर करते थे। विदेशी टूर पर कोच रात को सोने के लिए खुद का बिस्तर हमारे कमरे में लगवा देते, यदि कोई महिला खिलाड़ी इसका विरोध करती तो उसे अनहक परेशान किया जाता था। चौधरी के अनुसार राज्य की टीम हो या फिर राष्ट्रीय टीम कई लड़कियों को कई स्तर पर समझौता करने के लिए मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है। हरियाणा की रहने वाली सोना चौधरी ने 1995 में राष्ट्रीय टीम में जगह बनाई थी। राइट बैक पोजीशन पर खेलने वाली सोना ने 1996-97 तक मुल्क की कप्तानी भी सम्भाली। हम दावे से कह सकते हैं कि मुल्क में खेलों का माहौल तब तक नहीं सुधरेगा जब तक कि हर साख पर उल्लू बैठे रहेंगे। सवा अरब की आबादी वाले भारत को यदि खेलों में सिरमौर बनना है तो उसे अपने सिस्टम को सुधारने के साथ ही उन भेड़ियों को दण्ड देना होगा जोकि खेलों से खेलवाड़ के दोषी हैं। अब देखना यह है कि बिल्ली के गले में घण्टी कौन बांधता है।


Monday 6 February 2017

कला का धवल



मत कर यकीन अपने हाथों की लकीरों पर,

 नसीब उनके भी होते है जिनके हाथ नहीं होते
यह पंक्तियां कला को समर्पित धवल खत्री पर सही चरितार्थ होती हैं। जो लोग कभी उसको बेचारा कहते थे वे आज उसका सम्मान करते नहीं थकते। जिन लोगों ने कभी उसकी बनाई पेंटिंग को दोयमदर्जे का बताया वे आज अपने ड्राइंग रूम में उसकी पेंटिंग लगाने में गर्व महसूस करते हैं। जिन लोगों ने उसको लाचार बताया था, वे आज उसकी हिम्मत की दाद देते नहीं थकते। यह है कला साधक धवल खत्री का करिश्मा।
गुजरात के अहमदाबाद में रहने वाले युवा धवल खत्री की बनाई पेंटिंग्स की आज देश ही नहीं दुनिया भर में काफी डिमांड है। धवल मिसाल हैं उन लोगों के लिये जो किसी हादसे के बाद टूट जाते हैं। धवल खत्री ने साबित किया है कि हादसा रुकने का नाम नहीं बल्कि आगे बढ़ने का जरिया भी हो सकता है। कॉमर्स से ग्रेजुएट धवल खत्री आज एक कामयाब पेंटर हैं। उनकी इस कामयाबी के पीछे है उनका जिन्दगी जीने का नजरिया और कठिन मेहनत। जिस मुकाम पर आज वह हैं वहां तक पहुंचना आम इंसान के बस की बात नहीं। खास बात यह है कि धवल ने यह सफलता दोनों हाथों के बगैर पाई है। वह आज बड़ी कुशलता से बिना हाथों के ही काफी खूबसूरत पेंटिंग्स बनाते हैं। धवल पैदाइशी दिव्यांग नहीं थे। धवल बताते हैं कि वह सुबह का वक्त था और लोग उस समय सैर कर रहे थे। सैर करने वालों में एक डॉक्टर भी थे और जब धवल के साथ यह घटना हुई तो उनके दिल ने धड़कना बंद कर दिया, लेकिन उन डॉक्टर की मदद से धवल की धड़कनें वापस तो आ गईं परंतु उनकी हालत नाजुक थी। इसलिये उनको तुरंत पास के एक अस्पताल ले जाया गया।
इस हादसे की वजह से धवल के दोनों हाथ काफी जल चुके थे। इस कारण उनके दोनों हाथ काटने पड़े। ऐसे वक्त में उनके माता-पिता और बहन ने उनको काफी सहारा दिया और जीने की हिम्मत दी। अस्पताल में धवल करीब ढाई महीने तक रहे। इस दौरान धवल की मां उनको पेंसिल, पेन और ब्रश पकड़ने की ट्रेनिंग देती थीं और उनकी यह ट्रेनिंग अस्पताल से घर वापस आने के बाद भी जारी रही। इस तरह धीरे-धीरे धवल दोनों हाथों की मदद से पेंसिल और ब्रश पकड़ना सीख गये। यह सब सीखने में उन्हें करीब एक साल लग गया। इस कारण उनकी स्कूली पढ़ाई भी साल भर के लिए छूट गई।
साल भर बाद जब वह अपने स्कूल गये तो वहां के प्रिंसिपल ने उनको स्कूल आने से मना कर दिया। तब उन्होंने दूसरे स्कूल में दाखिला लिया और यहां पर उनके प्रिंसिपल ने उनकी पढ़ाई में काफी मदद की। धवल बताते हैं कि मैं इत्तफाक से पेंटिंग की फील्ड में आया। मैं बचपन में पेंटिंग में बहुत अच्छा नहीं था लेकिन अपने क्लास के दूसरे बच्चों से अच्छी पेंटिंग बना लेता था। धीरे-धीरे मेरी बनाई पेंटिंग कई जगह प्रदर्शित की गईं। इससे मेरा रुझान इस ओर बढ़ा। ग्रेजुएशन के बाद उन्होंने गंभीरता से पेंटिंग की फील्ड में आने के बारे में सोचा लेकिन उनको ऐसा कोई गुरू नहीं मिला जो उनकी कला को और निखार सकता था क्योंकि ज्यादातर लोगों का मानना था कि बिना हाथों के वह पेंटिंग नहीं कर सकते। बावजूद उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और अपना सारा ध्यान पेंटिंग सीखने में लगा दिया। इसके लिए उन्होंने अपने घर पर ही कड़ी मेहनत की और अपने अंदर पेंटिंग स्किल को निखारने का काम किया।

धवल की जिन्दगी में सबसे बड़ा बदलाव साल 2011 में तब आया जब वह पहली बार एक रियलिटी शो एंटरटेनमेंट के लिए कुछ भी करेगा में दिखाई दिये। यहां पर उनको टीवी पर अपना हुनर दिखाने का मौका मिला। उनके इस हुनर से काफी लोग प्रभावित हुए। तब उन्होंने तय किया कि अब पढ़ाई बहुत कर ली अब उन्हें पेंटिंग के क्षेत्र में ही अपना करियर बनाना है। इसके बाद कई दूसरे टेलीविजन शो में भी दिखाई देने लगे। इसके बाद लोग उनके काम को पहले के मुकाबले ज्यादा इज्जत की नजर से देखने लगे। इतना ही नहीं उनको देश-विदेश से पेंटिंग बनाने के लिये कई आर्डर भी मिलने लगे। धवल की पेंटिंग्स के अमेरिका, ब्रिटेन, आयरलैंड, ऑस्ट्रेलिया और ऑस्ट्रिया भी मुरीद हैं। अपने काम को विस्तार देने के लिए उन्होंने सोशल मीडिया के अलावा अपनी वेबसाइट भी बनाई है। इसके अलावा वह समय-समय पर लाइव पेंटिंग शो भी करते हैं। इस दौरान आम लोग उनका काफी सपोर्ट करते हैं। धवल अब तक तीन सौ से ज्यादा पेंटिंग बना चुके हैं। उनकी बनाई पेंटिंग की तारीफ पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम, मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर और अभिनेत्री किरण खैर जैसी शख्सियतें भी कर चुकी हैं। धवल अब अपने इस हुनर को दूसरे लोगों को भी सिखाना चाहते हैं। कुछ समय पहले तक वह काफी बच्चों को पेंटिंग की ट्रेनिंग देते थे लेकिन अब व्यस्तता के कारण कुछ ही बच्चों को अपनी कला की बारीकी सिखा पाते हैं। धवल कहते हैं कि पेंटिंग मुझे भगवान की दी हुई सौगात है और सौगात को जितना बांटो उतनी बढ़ती है। अगर इंसान दिल से किसी काम को करे तो वह उसी काम में सफलता पा सकता है। आज के दौर में काफी लोग पेंटिंग में भी अपना करियर बना रहे हैं। यह देखकर धवल को बहुत खुशी होती है कि लोगों की सोच बदली है क्योंकि पहले ज्यादातर लोग पढ़ाई-लिखाई के अलावा दूसरी चीजों की ओर ध्यान नहीं देते थे। अपने शुरुआती दौर की परेशानियों के बारे में धवल बताते हैं कि लोग पहले उन्हें लाचारी की नजर से देखते थे। जबकि धवल का मानना है कि लोगों को ऐसा करने की बजाय दिव्यांग लोगों को अपने पैरों पर खड़े होने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए क्योंकि दिव्यांग जानते हैं कि उनमें क्या कमी है। उस कमी को बार-बार दोहराने से कोई फायदा नहीं। हालांकि आज धवल की सफलता को देखते हुए वही लोग उनको काफी सम्मान की नजर से देखते हैं। धवल चाहते हैं कि वह पेंटिंग के क्षेत्र में अपना अलग मुकाम हासिल करें जहां तक उनके जैसा कोई नहीं पहुंच पाया और भविष्य में लोग उनको एक मशहूर पेंटर के तौर पर याद करें।

महिला ब्लेड रनर बनी उम्मीद की किरण

दर्द के बाद ही खुशी मिलती हैः किरण कनौजिया
हमारा समाज बेटियों को लेकर कैसी भी सोच रखता हो लेकिन मुल्क के पास कई ऐसी जांबाज बेटियां हैं जो अपने पराक्रम से हर किन्तु-परंतु को मिथ्या साबित कर रही हैं। इन्हीं जांबाज बेटियों में एक हैं ब्लेड रनर के नाम से मशहूर हो चुकी किरण कनौजिया। एक पैर नहीं तो क्या हुआ। यह बेटी आज उन लोगों के लिए नसीहत है जोकि थोड़ी सी परेशानी में हिम्मत हार बैठते हैं।
किरण को पांच साल पहले की त्रासदीपूर्ण घटना ज्यों-की-त्यों याद हैजब डॉक्टरों ने मेरे परिजनों से कहा था कि इस बेटी की नर्व क्रैश हो गई है और टांग काटनी पड़ेगी। यह घटना 24 दिसम्बर, 2011 में शाम के वक्त हुई और 25 दिसम्बर को उसका जन्मदिन था। वह हैदराबाद से फरीदाबाद आने के लिए ट्रेन में सफर कर रही थी तभी कुछ लड़कों ने उसका सामान छीनना चाहा और खींचतान में वह ट्रेन से गिर गई और उसका पैर रेलवे ट्रैक की पटरियों में फंस गया। किरण की जान बचाने की खातिर उसका एक पैर काटना पड़ा। एक पैर कट जाने के बाद किरण निराश जरूर हुई लेकिन उसने उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा। पैर कटने के बाद किरण की प्रतिक्रिया थी, मुझे लगा कि जन्मदिन पर फिर नया जन्म मिला है।
हिम्मती किरण ने आर्टिफिशियल यानी कृत्रिम पैर के सहारे फिर से जिन्दगी के साथ कदम से कदम से मिलाकर चलने की कोशिश शुरू कर दी और जिन्दगी को नई दिशा देने की ठान ली। जिस लड़की को चलने में परेशानी थी उसी लड़की ने मैराथन में दौड़ना शुरू कर दिया और आज वह भारत की महिला बलेड रनर के नाम से शोहरत बटोर रही है। किरण बताती हैं कि डॉक्टर कहते थे कि मैं दौड़ नहीं पाऊंगी, जिन्दगी नॉर्मल नहीं रहेगी। सब कहते थे कि अब तो घर पर ही रहना होगा। वह कहती है कि इलाज दौरान वह ऐसे लोगों से मिली जिन लोगों की टांगें ही नहीं थीं, हाथ नहीं थे। हम सब लोगों ने मिलकर मैराथन में भाग लेने की सोची। किरण ने धीरे-धीरे दौड़ना शुरू किया। पहले पांच किलोमीटर, फिर 10 किलोमीटर दौड़ में हिस्सा लिया। किरण ने बताया कि मुझे लगा कि अगर मैं पांच या 10 किलोमीटर दौड़ सकती हूं तो इससे ज्यादा दौड़ने की चुनौती भी स्वीकार कर सकती हूँ।
आखिरकार मैंने अपने आपको हाफ मैराथन के लिए चैलेंज किया यानी 21 किलोमीटर दौड़ने का निश्चय किया। मुझे इससे कोई मतलब नहीं था कि मैं कितने समय में मैराथन खत्म करती हूं। बस मुझे रेस पूरी करनी थी। हैदराबाद हाफ मैराथन मैंने साढ़े तीन घंटे में पूरी की, दिल्ली की रेस दो घण्टे 58 मिनट में और मुंबई मैराथन दो घण्टे 44 मिनट में। किरण बताती हैं कि हर किसी का कोई न कोई प्रेरणादायी होता है। मैंने विवादों में घिरे दक्षिण अफ्रीकी धावक ऑस्कर पिस्टोरियस से प्रेरणा ली। किरण बताती हैं, आर्टिफिशियल पैर लगने से इंसान शुरू में एकदम बच्चा बन जाता है। दिमाग को शुरू में पता नहीं होता कि हमारे पास कृत्रिम पैर है। सच कहें तो कृत्रिम पैर की आदत डालने में वक्त लगता है। किरण बताती हैं कि शुरू शुरू में मुझे हमेशा डर रहता कि हम गिर जाएंगे। एक-एक कदम रखना बिल्कुल बच्चों की तरह सिखाया जाता है। यह एकदम एक नई जिन्दगी की तरह हो जाता है। किरण कहती हैं कि अब वह भूल गई हैं कि उनके पास आर्टिफिशियल पैर है क्योंकि अब दिमाग ने इसे अपना लिया है।
अपनी मुश्किलों के बारे में किरण बताती हैं कि शुरू-शुरू में दौड़ना मुश्किल था। दौड़ने के लिए एक अलग क़िस्म का ब्लेड होता है। यह ब्लेड हमें सपोर्ट देता है, शरीर को आगे की ओर धकेलने में। आगे की ओर धकेलने की वजह से हम शरीर को और उठा सकते हैं। इस सब के कारण टांग पर काफी दबाव पड़ता है और ये थोड़ा दर्दनाक होता है मगर बिना दर्द के कुछ मिलता भी नहीं है। समय के साथ-साथ हमें सब कुछ सहना पड़ता है लेकिन सच कहें तो दर्द के बाद ही खुशी भी मिलती है। अब किरण लगातार मैराथन दौड़ती हैं। वह कहती हैं कि उन्हें अपने पिता और अपनी कम्पनी इंफोसिस का काफी साथ मिला। किरण बताती हैं कि कृत्रिम पैर उन्हें कम्पनी की ओर से ही मिली है।

दुर्घटना के बाद जब किरण पहली बार दफ़्तर लौटीं तो किरण के शब्दों में उनके दोस्तों की प्रतिक्रिया कुछ यूँ थी,  जब मैं ऑफिस गई तो लोगों ने कहा कि तुम तो बिल्कुल नॉर्मल लग रही हो। हमें लगा कि तुम छड़ी के सहारे गिरती-लटकती आओगी, तुम्हें देखकर हमारी इच्छाशक्ति और दृढ़ हो गई है। किरण बताती हैं कि मैं जिन्दगी में शायद भूल गई थी कि मैंने जन्म क्यों लिया है और जिन्दगी का क्या मकसद है लेकिन अब मुझे जिन्दगी जीने का जज्बा मिल गया है। मैं अपने काम के साथ-साथ समाज के लिए भी कुछ कर रही हूँ। किरण से बात करने से पहले मन में कुछ झिझक थी। जिन्दगी के बुरे दौर के बारे में सवाल पूछना कभी-कभी जख्म को हरा कर देने का काम करता है। लेकिन बातचीत के क्रम में किरण ने इन सारी शंकाओं को बेबुनियाद साबित कर दिया। किरण ने एक टांग जरूर गंवाई है लेकिन जिन्दगी जीने का हौसला नहीं। अपने नाम के अनुरूप वह अपने जैसे कई लोगों के लिए उम्मीद की किरण बनी हैं जो बतौर महिला ब्लेड रनर खूब नाम कमा रही हैं।

बेटियां अपने कौशल से जीतें सबका दिलः कृष्णा पूनिया



जी.एल. बजाज में अदम्य-2017 का रंगारंग शुभारम्भ
मथुरा। लाख बंदिशों के बावजूद बेटियां अपने कौशल और कामयाबी से न केवल अपने परिवार तथा समाज का दिल जीत सकती हैं बल्कि वे किसी से कम नहीं हैं, इसका संदेश भी दे सकती हैं। एक बेटी पर दो परिवारों के सुसंस्कार की जवाबदेही होती है। किसी भी क्षेत्र को लें आज बेटियां भारत की आन-बान-शान हैं। बीते साल रियो ओलम्पिक पर सबकी नजरें थीं लेकिन पहलवान साक्षी मलिक और शटलर पी.वी. सिन्धु ने ही अपने बेमिसाल प्रदर्शन से भारत को गौरवान्वित किया। बेटियां कुछ भी कर सकती हैं, यह भरोसा उनमें होना चाहिए। उक्त उद्गार मुख्य अतिथि पद्मश्री कृष्णा पूनिया ने जनपद के प्रख्यात इंजीनियरिंग संस्थान जी.एल. बजाज में सोमवार को अदम्य-2017 के रंगारंग शुभारम्भ अवसर पर लगभग 50 से अधिक स्कूल-कालेज के खिलाड़ी छात्र-छात्राओं को सम्बोधित करते हुए व्यक्त किए।
राष्ट्रमण्डल खेलों की पहली स्वर्ण पदकधारी एथलीट कृष्णा पूनिया ने अफसोस जताते हुए कहा कि हमारे देश में हर ओलम्पिक से पहले खेल और खिलाड़ियों की फिक्र की जाती है जबकि खेलों में यदि हमें अमेरिका, रूस, चीन आदि देशों की बराबरी करनी है तो इसके लिए 365 दिन मेहनत करनी होगी। मैं चाहती हूं कि जिस तरह हमारे समाज में शिक्षा को लेकर अवेयरनेस आई है उसी तरह खेलों का भी माहौल बने। आज अभिभावक खेलने की उम्र में ही अपने छोटे-छोटे बच्चों पर शिक्षा का दबाव बनाते हैं, यह उचित नहीं है। हम अपने बच्चों को खेलों की तरफ प्रेरित कर स्वस्थ भारत के संकल्प को साकार कर सकते हैं। आज खेलों में भी करियर है। यदि हर अभिभावक अपने बच्चों को प्रोत्साहित करने का संकल्प ले तो उनके बच्चे भी खेलों में मिल्खा सिंह, मैरीकाम, पी.टी. ऊषा जैसी कामयाबियां हासिल कर सकते हैं, उनसे भी आगे निकल सकते हैं। खेलों से न केवल शरीर स्वस्थ रहता है बल्कि मन में भी किसी प्रकार के विकार अपना स्थान नहीं बना पाते। पूनिया ने कहा कि जी.एल. बजाज ने खेलों का जो प्लेटफार्म दिया है छात्र-छात्राएं उसका अनुशासन और खेलभावना के साथ लाभ उठाएं।

खेलों के शुभारम्भ से पूर्व पद्मश्री कृष्णा पूनिया ने आर.के. एजूकेशन हब के चेयरमैन डा. रामकिशोर अग्रवाल, वाइस चेयरमैन पंकज अग्रवाल, प्रबंध निदेशक मनोज अग्रवाल, जी.एल. बजाज कालेज के निदेशक डा. एस.आर. चौधरी, अरुण अग्रवाल आदि की मुक्तकंठ से तारीफ करते हुए कहा कि मैंने यहां खेलों का जो माहौल देखा है वह वाकई काबिलेगौर है। कृष्णा पूनिया ने कपोत और रंग-बिरंगे गुब्बारे उड़ाकर तीन दिवसीय प्रतियोगिता का शुभारम्भ किया। जी.एल. बजाज कालेज के निदेशक डा. एस.आर. चौधरी ने कृष्णा पूनिया को स्मृति स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण और राधा की मूर्ति भेंट करते हुए उनका आभार माना। इस अवसर पर डीन आर्क अश्वनी शिरोमणि, अनुराग बंसल, इंजीनियर अजीत झा, विमल गुप्ता, डा. अमित पाराशर, शिवकुमार शर्मा, जीतेन्द्र सिंह, अशोक शर्मा, इंजीनियर विनीता माथुर, संजीव अग्रवाल, प्रशासनिक अधिकारी विवेक श्रीवास्तव, लव अग्रवाल, अंकित, रविन्द्र जायसवाल, खेल अधिकारी सोनू शर्मा आदि सहित लगभग 50 स्कूल-कालेजों के छात्र-छात्राएं उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन मोनिका शर्मा ने किया।