Wednesday 30 November 2016

60 साल में किया हजारों दिव्यांगों का उद्धार

अपंग कल्याणकारी शिक्षण संस्था और संशोधन केन्द्र
पढ़ाना और आगे बढ़ाना ही है संस्था का मुख्य उद्देश्य
भारत में दो करोड़ 70 लाख दिव्यांगों की मदद को वैसे तो बहुत सारी संस्थाएं काम कर रही हैं लेकिन कुछ संस्थाएं ऐसी भी हैं जिनका कामकाज दिव्यांगों के लिए मील का पत्थर साबित हुआ है। 60 साल पहले पुणे में खुले अपंग कल्याणकारी शिक्षण संस्था और संशोधन केन्द्र से अब तक हजारों दिव्यांग लाभान्वित हो चुके हैं। पुणे की यह संस्था विकलांगों के लिए न केवल श्रेष्ठ कार्य कर रही है बल्कि दूसरों के लिए एक नजीर भी है। इस संस्था के अब तक के सफर पर संस्था के कार्याध्यक्ष तथा पुणे के एडवोकेट मुरलीधर कचरे ने जो कुछ बताया वह वाकई सराहनीय है।
प्रश्न- अपंग कल्याणकारी शिक्षण संस्था व संशोधन केन्द्र की स्थापना किस प्रकार हुई।
उत्तर- छह नवम्बर, 1956 को संस्था की स्थापना का निर्णय लिया गया। उद्धरेदात-तिमनात्मानम हमारी संस्था का नारा है। दरअसल जिस समय इस संस्था की स्थापना हुई उस समय देश में पोलियो अपना रौद्र रूप दिखा रही थी। साक्षरता के अभाव में लोग अपने नौनिहालों को पोलियो ड्राप पिलाने से डरते थे। इन स्थितियों को देखते हुए समाजसेवक रघुनाथ काकड़े जी ने विकलांग छात्रों के लिए इस संस्था का श्रीगणेश किया। कोथरुड के भालेराव बंगले में यह संस्था खोली गई। इसके बाद 1959 में वानवड़ी परिसर में संस्था का काम शुरू हुआ। संस्था ने विकलांग विद्यार्थियों के लिए काम करना तय किया और 1985 में छात्रों के लिए छात्रावास तथा 1991 में छात्राओं के लिए छात्रावास शुरू हुआ। इससे पहले जिला परिषद के स्कूल में छात्र पढ़ने जाते थे। अब यहीं पहली से सातवीं कक्षा तक बच्चों को पढ़ाया जाता है। आठवीं से लेकर दसवीं तक के छात्र अन्य हाईस्कूल में जाते हैं। पाठशाला के लिए इमारत, लड़के-लड़कियों का छात्रावास, चिकित्सालय, सांस्कृतिक सभागृह, ग्रंथालय, बच्चों को खेलने के लिए मैदान जैसी अनेक सुविधाएं साढ़े तीन एकड़ जमीन पर की गई हैं। विद्यार्थी स्वावलम्बी बनें इसलिए यहां उन्हें विविध कलाएं सिखाई जाती हैं। इनमें हस्तकला, सिलाई, ई-लर्निंग, बढ़ई का काम, कम्प्यूटर प्रशिक्षण जैसे विविध विषय शामिल हैं। यहां अध्ययनरत छात्रों को भोजन, निवास, इलाज, शिक्षा जैसी सुविधाएं निःशुल्क दी जाती हैं। यहां 85 लड़कियां और 165 लड़के अध्ययन करते हैं जिनमें दूसरे राज्य के विद्यार्थियों का भी समावेश है। विकलांग छात्रों के लिए निवास, भोजन, चिकित्सा, शल्यक्रिया, शिक्षा जैसी सारी सुविधाएं यहां निःशुल्क उपलब्ध हैं। छह विद्यार्थियों से शुरू हुई इस संस्था में आज 250 विद्यार्थी हैं।
प्रश्न- आप इस संस्था से कैसे जुड़े।

उत्तर- हम लोग पुणे से ही हैं। पुणे के पास वानवड़ी में मेरा जन्म हुआ। मेरा बचपन यहीं पर गुजरा। मेरे पिताजी किसान थे और मां गृहिणी थीं। हमारी किराने की दुकान थी। पहली से लेकर सातवीं तक की मेरी शिक्षा वानवड़ी के महापालिका स्कूल में हुई। उसके बाद आठवीं से लेकर ग्यारहवीं तक मैं कैम्प एज्यूकेशन में पढ़ा। उसके बाद गरवारे कॉलेज में प्रवेश लिया और 1977 में कॉमर्स शाखा से स्नातक हुआ। मुझे वकील बनना था इसलिए मैंने बी.काम के बाद आईएलएस विधि महाविद्यालय में प्रवेश लिया। 1981 में वकालत की शिक्षा पूरी की। उसके बाद वकालत करना शुरू किया। अनेक मुकदमे लड़े। ग्वालियर की राजमाता विजयाराजे सिंधिया के परिवार का मैं पारिवारिक वकील नियुक्त किया गया। इसके कारण सारी पार्टियों के राजनीतिज्ञों के साथ नजदीकी सम्बन्ध बने। इसी समय यानी 1986 में मैं इस संस्था से जुड़ा। संस्था की जानकारी मुझे पहले से ही थी। जिला परिषद के स्कूल में पढ़ते समय इस संस्था के छात्र मेरे साथ पढ़ते थे। तब संस्था की अपनी स्वयं की पाठशाला नहीं थी। उस वक्त मैं अपने विकलांग मित्रों को त्योहारों पर घर बुलाता था। बचपन से वही संस्कार मिले, उसी प्रकार मैं संघ-संस्कारों में पला-बढ़ा। कुछ साल प्रचारक के रूप में काम किया। संघ के संस्कार हैं कि हमें समाज के लिए कुछ करना चाहिए। इसी संस्कार के कारण मैं इस संस्था में काम करने हेतु प्रेरित हुआ। मैं पिछले तीस साल से यहां कार्यरत हूं।
प्रश्न- यह संस्था चलाने के पीछे आपका उद्देश्य क्या है।
उत्तर- दिव्यांग विद्यार्थियों के मन में उत्साह निर्माण करना, उनको स्वावलम्बी बनाना, जो छात्र बचपन से घुटनों के बल हमारे पास आया है, उसे चलना सिखाना, हम भी सामान्य हैं, अलग नहीं यह भावना उनके मन में उत्पन्न करना हमारा प्रमुख उद्देश्य है। इस उद्देश्यपूर्ति के लिए हम विविध सांस्कृतिक कार्यक्रम करते हैं। गणेशोत्सव, दीवाली जैसे त्योहार मनाते हैं। लम्बी सैर करते हैं। कई छात्रों को लेकर जब हमने कश्मीर के सफर का आयोजन किया था तब कइयों को आश्‍चर्य हुआ कि विकलांग व्यक्ति इतने ठंडे वातावरण में कैसे रह पाएंगे, उन्हें तकलीफ हुई तो- जैसे सवाल खड़े हुए, पर किसी भी तकलीफ के बगैर उन विद्यार्थियों ने उस सैर के मजे लूटे। यात्रा काफी आनंददायी रही।
प्रश्न- इन विद्यार्थियों का खर्च, कर्मचारियों का वेतन जैसा आर्थिक नियोजन आप किस प्रकार करते हैं।
उत्तर- हमारी संस्था का पूरा भार हमारे दानदाताओं पर है। अनेक दाताओं ने हमें धनराशि दी, उसी से सारा कामकाज चल रहा है। हमारा काम, पारदर्शिता, निर्मल व्यवहार, पैसे का यथोचित खर्च देखकर लोग स्वप्रेरणा से धन देते हैं। रोटरी क्लब जैसी संस्थाएं भी मदद देती हैं। हमें दान तो चाहिए पर दया या सहानुभूति की भावना से नहीं। शासन की ओर से हमें अनुदान प्राप्त होता है। एक छात्र के लिए प्रति महीना 900 रुपये अनुदान मिलता है। एक छात्र का महीने का खर्च 3500 से 4000 रुपये तक है। यह खर्च संस्था करती है। संस्था में अध्यापक, चपरासी, चौकीदार, मददगार जैसे कुल 65 कर्मचारी हैं, उनमें से 35 लोगों का वेतन शासन देता है। शेष कर्मचारियों को संस्था पारिश्रामिक देती है। हमारे विश्‍वस्तमंडल का एक भी व्यक्ति वेतन या परिश्रामिक नहीं लेता। हम समाजसेवा के तौर पर यह काम करते हैं।
प्रश्न- आपने कहा की इन छात्रों पर शल्यक्रियाएं की जाती हैं, वे किस प्रकार की होती हैं।
उत्तर- कई छात्र शल्यक्रिया के बाद चलने लगते हैं। बैसाखी, ह्वीलचेयर, कृत्रिम हाथ-पैर जैसे साधन हम छात्रों को बिना मूल्य देते हैं। डॉ. विलास जोग, डॉ. सतीश जैन जैसे हमारे डॉक्टर एक रुपया भी न लेते हुए छात्रों की शल्यक्रिया करते हैं। केवल दवा और बाहर के डॉक्टरों का खर्च हम करते हैं। उन्होंने आज तक हमारे 3000 छात्रों की मुफ्त शल्यक्रिया की होगी। उसी प्रकार हमने छात्रों के लिए फिजियोथेरेपी कक्ष भी शुरू किया है।
प्रश्न- महाराष्ट्र में ऐसी कितनी संस्थाएं कार्यरत हैं, उनके आज के हालात कैसे हैं।
उत्तर- राज्य में तकरीबन छह सौ संस्थाएं कार्यरत हैं। पुणे में इसके अलावा और भी एक-दो हैं। अनेक संस्थाओं के हालात आज की स्थिति में अच्छे नहीं हैं। संस्थाओं में विद्यार्थी नहीं टिक पाते। जरूरी निधि उपलब्ध नहीं होने से कर्मचारियों की पारश्रमिक नहीं मिल पाता। अनेक संथाओं में भ्रष्टाचार का बोलबाला है तो कुछ स्थानों पर संस्था के प्रमुख अपने रिश्तेदारों को संस्था में नौकरी पर रख लेते हैं परिणामस्वरुप हमारी संस्था में हर साल प्रवेश पाने के लिए लम्बी कतारें लगती हैं। अभिभावक अनुरोध करते हैं, पर हमारी मर्यादाएं सीमित हैं।
प्रश्न- संस्था की प्रवेश प्रक्रिया किस प्रकार होती है।
उत्तर- प्रतिवर्ष सामान्यतः फरवरी में प्रवेश सम्बन्धी विज्ञापन स्थानीय समाचार पत्रों में दिया जाता है। अप्रैल के अंत तक प्रवेश अर्जी का वितरण होता है। प्रवेश अर्जी की छानबीन कर छात्र और अभिभावकों से मिलना जुलना होता है। मुलाकात और चिकित्सक समिति के मार्गदर्शन के अनुसार प्रवेश दिया जाता है।
प्रश्न- अपना बच्चा यहां छोड़ कर जाने वाले अभिभावकों की मानसिक स्थिति कैसी होती है।
उत्तर- माता-पिता अपने बच्चों के प्रवेश के लिए बहुत विनती करते हैं। विकलांग विद्यार्थियों की शल्यक्रिया, उनकी दवाइयों या शिक्षा का खर्च आम आदमी नहीं उठा सकता। बच्चों का भला हो इसलिए माता-पिता उन्हें यहां छोड़ते हैं। कुछ अभिभावकों ने मुझसे कहा भी था कि सर आपने 250 बच्चों का नहीं अपितु 250 अभिभावकों का टेंशन अपने सिर पर लिया है। उनका विश्‍वास हमें प्रेरणा देता है।
प्रश्न- सारे अपंग विद्यार्थियों को आप क्या संदेश देना चाहेंगे।
उत्तर- स्वावलम्बी बनें। आप दूसरों के जैसे ही हो अलग नहीं यह भावना मन में पालें, आत्मसम्मान के साथ जिएं, किसी के सामने हाथ न फैलाएं, आप स्वयं अपना आधार बनें।
प्रश्न- आपकी संस्था को आज तक कौन-कौन से पुरस्कार प्राप्त हुए हैं।
उत्तर- विकलांग व्यक्तियों को सक्षम बनाने वाली संस्थाओं को राष्ट्रपति के हाथों दिया जाने वाला राष्ट्रीय पुरस्कार और डॉ. बाबा साहेब अम्बेडकर समाजभूषण पुरस्कार जैसे दो बड़े पुरस्कार संस्था को प्राप्त हैं। सन 2006 से 2007 में संस्था का सुवर्ण महोत्सव सम्पन्न हुआ, उस समय पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम आए थे। उन्होंने संस्था को एक लाख रुपये की राशि प्रदान की। इसी प्रकार पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल, लालकृष्ण आडवाणी, स्वर्गीय विलासराव देशमुख, स्वर्गीय गोपीनाथ मुंडे जैसे कई लोग संस्था में आकर विद्यार्थियों से बातचीत कर चुके हैं।
प्रश्न- आपके परिजनों ने कभी इस कार्य का विरोध किया।
उत्तर- बिल्कुल भी नहीं। मेरी पत्नी और बच्चों ने मुझे हमेशा सम्हाला है और मेरा समर्थन किया है। मेरी पत्नी साधना, मेरे बड़े बेटे निखिल और छोटे बेटे अखिल ने इस सफर में हमेशा मेरा साथ दिया है।
प्रश्न- आपकी आगामी योजनाएं क्या हैं।

उत्तर- हमें अब 11वीं और 12वीं की कक्षाएं शुरू करनी हैं, इसलिए नए छात्रावास का निर्माण करना है। कृत्रिम साधनों का आधुनिक वर्कशॉप, ग्रंथालय के महत्वपूर्ण दुर्लभ संदर्भ ग्रंथ का संग्रह करने जैसे कुछ उपक्रमों की शुरुआत करनी है।

Tuesday 29 November 2016


दिव्यांग ही बदल सकते हैं दिव्यांगों की दशा और दिशाः निशा गुप्ता
सबको उदाहरण की जरूरत, मेरे पिता ही मेरे रोल माडल
                            श्रीप्रकाश शुक्ला

मैदान चाहे जो भी हो, वहां जज्बा, हिम्मत और लगन ही किसी व्यक्ति को सफलता के शिखर तक पहुंचा सकती है। मैं जब अपनी जिन्दगी से निराश थी उस समय लोग ढांढस तो बंधाते थे लेकिन मानसिक चिड़चिड़ेपन की शिकार होने की वजह से मेरे लिए यह निर्णय लेना कठिन था कि आखिरकार मुझे क्या करना चाहिए। मैं शुक्रगुजार हूं ओलिवर डिसूजा का जिन्होंने मेरे अंदर न केवल उत्साह का संचार किया बल्कि आगे बढ़ने के लिए भी प्रोत्साहित किया। आज दिव्यांगों के समुन्नत भले की बातें तो बहुत होती हैं लेकिन उसका जो लाभ दिव्यांगों को मिलना चाहिए वह नहीं मिलता। मुझे लगता है कि दिव्यांगों का रोल माडल कोई सक्षम व्यक्ति नहीं बल्कि एक दिव्यांग ही हो सकता। सबको उदाहरण की जरूरत होती है, ऐसे में एक सफल दिव्यांग चाहे तो हजारों हजार दिव्यांगों का भला कर सकता है। पुरुषों की अपेक्षा आज देश में महिला दिव्यांगों की स्थिति काफी दयनीय होती है। महिलाओं को दया की दृष्टि से तो देखा जाता है लेकिन उनकी मदद को कोई सामने नहीं आता। यह कहना है मुम्बई निवासी सफल आर्टिस्ट और कामयाब खिलाड़ी निशा गुप्ता का।
22 मार्च, 1986 को गांव गोपालापुरा, जिला जौनपुर में काली प्रसाद गुप्ता और सितारा गुप्ता के घर जन्मीं निशा गुप्ता बताती हैं कि मुसीबत के क्षणों में मेरी मदद करने वालों में मेरे कजिन सुशांत, अंकित, सीमा, रवीना, आकाश का अहम योगदान है लेकिन जो प्रोत्साहन ओलिवर डिसूजा से मिला, उसे मैं कभी नहीं भूल सकती। मुम्बई जैसे महानगर में अपने जमीर को जिन्दा रखते हुए मंजिल हासिल करना बहुत कठिन काम था लेकिन मैंने ओलिवर डिसूजा को देखकर यह निश्चय किया कि यदि वह कठिनाइयों पर फतह हासिल कर सकता है, तो मैं क्यों नहीं। मेरा यही आत्मविश्वास आज मेरी सफलता का राज है। मेरे पिताजी ही मेरे रोल माडल हैं क्योंकि उन्होंने मेरे लिए बहुत कष्ट सहे हैं। मैंने उनके हर संघर्ष को करीब से देखा है। वह पल-पल मेरे सफल जीवन के लिए संघर्ष करते रहे। शादी के बाद मैंने जो कुछ करने का मन बनाया उसमें पति चेतन राठौर का पूरा सहयोग मिला। मेरे पति को पता है कि जो मैं ठान लेती हूं वह कर दिखाती हूं इसलिए वह हमेशा प्रोत्साहित करते हैं।
राष्ट्रीय स्वीमर, ह्वीलचेयर डांसर, आर्टिस्ट मुम्बई निवासी निशा गुप्ता को दिव्यांगता से जूझते कोई 12 साल हो गये हैं। निशा के लिए एक मई, 2004 न बिसरने वाली तारीख है। वह बताती हैं कि मैं मुम्बई में 12वीं कक्षा में पढ़ रही थी। गर्मी की छुट्टियों में हमेशा घर जाना होता था लिहाजा अपने गांव गोपालापुर (जौनपुर) गई। वहां दीवार के सहारे पेड़ से आम तोड़ने के प्रयास में संतुलन बिगड़ा और मैं पीठ के बल धड़ाम से गिर गई। मेरी रीढ़ की हड्डी टूट गई और कोई चार साल तक मैं चारपाई में ही पड़ी रही। मेरे कमर के नीचे के हिस्से ने काम करना बंद कर दिया। मैं अवसाद में रहने लगी। मैं चिड़चिड़ी हो गई। लगने लगा कि अब मैं शायद ही कुछ कर पाऊं। ऐसे नाजुक क्षणों में मैंने ओलिवर डिसूजा को देखा जोकि मेरी ही तरह दिव्यांगता का शिकार हैं। मैं उनसे मिली और यह जानने का प्रयास किया कि क्या मैं कुछ कर सकती हूं। ओलिवर डिसूजा ने मुझे विश्वास दिलाया कि मैं हर वह काम कर सकती हूं जोकि असम्भव लगता है। आखिरकार मैंने संकल्प लिया और अपने कुछ लक्ष्य तय किए। मेरा खेलों की तरफ रुझान बढ़ा और मैंने तैराकी तथा बास्केटबाल में हाथ आजमाने शुरू कर दिए।
मैं मनमौजी स्वभाव की हूं, जो भी ठान लेती हूं, उसे कर दिखाती हूं। मुझे अपने कामकाज में किसी का दखल पसंद नहीं, इस बात को हमारे अपने सभी जानते हैं। हमारे परिजनों को भी पता है कि निशा जो ठान लेगी उसे किए बिना नहीं मानने वाली। निशा बताती हैं कि जब मैंने तैराकी में हिस्सा लेने का मन बनाया तब मन में सफलता को लेकर किसी तरह का दबाव नहीं था, लेकिन अब मैं देश के लिए खेलना चाहती हूं। मैं तैराकी, बास्केटबाल के साथ एथलेटिक्स में भी हाथ आजमा रही हूं। इसके लिए मैंने जिम जाना शुरू कर दिया है। मैंने टोकियो पैरालम्पिक में देश का प्रतिनिधित्व करने का लक्ष्य तय किया है। अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए ही, मैं अभी मां नहीं बनना चाहती। पिछले साल की ही बात है जब मैंने राष्ट्रीय स्तर पर तरणताल में अपने लाजवाब प्रदर्शन से तीन कांस्य पदक जीते तो बास्केटबाल में अपनी टीम को कांस्य पदक दिलाया था।
निशा सिर्फ खेल ही नहीं अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों में भी खासा दखल रखती हैं। वह शानदार आर्टिस्ट के साथ ही बेहतरीन ह्वीलचेयर डांसर भी हैं। टैटू बनाने का इन्हें काफी शौक है। निशा 2010 से लोगों के शरीर पर टैटू बना रही हैं। निशा ने 2013 में मिस ह्वीलचेयर इंडिया प्रतियोगिता में सहभागिता कर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया था। सच कहें तो 30 साल की निशा हरफनमौला शख्सियत हैं। निशा के हर क्षेत्र में दखल को देखते हुए डांसर सुधा चंद्रन उन्हें महिला सम्मान से भी नवाज चुकी हैं। निशा कहती हैं कि यदि वह दिव्यांग नहीं होतीं तो शायद जिस मुकाम पर आज वह हैं, वहां नहीं पहुंच पातीं। निशा को पढ़ाई-लिखाई से गहरा लगाव है। वह दिव्यांगों के बीच जाकर हमेशा उनकी हौसलाअफजाई करती हैं। उन्होंने एक बार फिर पढ़ाई पर ध्यान देना शुरू कर दिया है। निशा कहती हैं कि दिव्यांगता ही मेरी ताकत है। मैं चाहती हूं कि हर दिव्यांग के चेहरे पर कामयाबी की मुस्कान हो। वह कहती हैं कि दिव्यांगता को अभिशाप मानने की बजाय लोगों को निःशक्तजनों को बेहतरीन तालीम देने के प्रयास करने चाहिए ताकि ये पढ़-लिखकर देश को सुशिक्षित कर सकें।        



दिव्यांग ही बदल सकते हैं दिव्यांगों की दशा और दिशाः निशा गुप्ता

 सबको उदाहरण की जरूरत, मेरे पिता ही मेरे रोल माडल
श्रीप्रकाश शुक्ला
मैदान चाहे जो भी हो, वहां जज्बा, हिम्मत और लगन ही किसी व्यक्ति को सफलता के शिखर तक पहुंचा सकती है। मैं जब अपनी जिन्दगी से निराश थी उस समय लोग ढांढस तो बंधाते थे लेकिन मानसिक चिड़चिड़ेपन की शिकार होने की वजह से मेरे लिए यह निर्णय लेना कठिन था कि आखिरकार मुझे क्या करना चाहिए। मैं शुक्रगुजार हूं ओलिवर डिसूजा का जिन्होंने मेरे अंदर न केवल उत्साह का संचार किया बल्कि आगे बढ़ने के लिए भी प्रोत्साहित किया। आज दिव्यांगों के समुन्नत भले की बातें तो बहुत होती हैं लेकिन उसका जो लाभ दिव्यांगों को मिलना चाहिए वह नहीं मिलता। मुझे लगता है कि दिव्यांगों का रोल माडल कोई सक्षम व्यक्ति नहीं बल्कि एक दिव्यांग ही हो सकता। सबको उदाहरण की जरूरत होती है, ऐसे में एक सफल दिव्यांग चाहे तो हजारों हजार दिव्यांगों का भला कर सकता है। पुरुषों की अपेक्षा आज देश में महिला दिव्यांगों की स्थिति काफी दयनीय होती है। महिलाओं को दया की दृष्टि से तो देखा जाता है लेकिन उनकी मदद को कोई सामने नहीं आता। यह कहना है मुम्बई निवासी सफल आर्टिस्ट और कामयाब खिलाड़ी निशा गुप्ता का।
22 मार्च, 1986 को गांव गोपालापुरा, जिला जौनपुर में काली प्रसाद गुप्ता और सितारा गुप्ता के घर जन्मीं निशा गुप्ता बताती हैं कि मुसीबत के क्षणों में मेरी मदद करने वालों में मेरे कजिन सुशांत, अंकित, सीमा, रवीना, आकाश का अहम योगदान है लेकिन जो प्रोत्साहन ओलिवर डिसूजा से मिला, उसे मैं कभी नहीं भूल सकती। मुम्बई जैसे महानगर में अपने जमीर को जिन्दा रखते हुए मंजिल हासिल करना बहुत कठिन काम था लेकिन मैंने ओलिवर डिसूजा को देखकर यह निश्चय किया कि यदि वह कठिनाइयों पर फतह हासिल कर सकता है, तो मैं क्यों नहीं। मेरा यही आत्मविश्वास आज मेरी सफलता का राज है। मेरे पिताजी ही मेरे रोल माडल हैं क्योंकि उन्होंने मेरे लिए बहुत कष्ट सहे हैं। मैंने उनके हर संघर्ष को करीब से देखा है। वह पल-पल मेरे सफल जीवन के लिए संघर्ष करते रहे। शादी के बाद मैंने जो कुछ करने का मन बनाया उसमें पति चेतन राठौर का पूरा सहयोग मिला। मेरे पति को पता है कि जो मैं ठान लेती हूं वह कर दिखाती हूं इसलिए वह हमेशा प्रोत्साहित करते हैं।
राष्ट्रीय स्वीमर, ह्वीलचेयर डांसर, आर्टिस्ट मुम्बई निवासी निशा गुप्ता को दिव्यांगता से जूझते कोई 12 साल हो गये हैं। निशा के लिए एक मई, 2004 न बिसरने वाली तारीख है। वह बताती हैं कि मैं मुम्बई में 12वीं कक्षा में पढ़ रही थी। गर्मी की छुट्टियों में हमेशा घर जाना होता था लिहाजा अपने गांव गोपालापुर (जौनपुर) गई। वहां दीवार के सहारे पेड़ से आम तोड़ने के प्रयास में संतुलन बिगड़ा और मैं पीठ के बल धड़ाम से गिर गई। मेरी रीढ़ की हड्डी टूट गई और कोई चार साल तक मैं चारपाई में ही पड़ी रही। मेरे कमर के नीचे के हिस्से ने काम करना बंद कर दिया। मैं अवसाद में रहने लगी। मैं चिड़चिड़ी हो गई। लगने लगा कि अब मैं शायद ही कुछ कर पाऊं। ऐसे नाजुक क्षणों में मैंने ओलिवर डिसूजा को देखा जोकि मेरी ही तरह दिव्यांगता का शिकार हैं। मैं उनसे मिली और यह जानने का प्रयास किया कि क्या मैं कुछ कर सकती हूं। ओलिवर डिसूजा ने मुझे विश्वास दिलाया कि मैं हर वह काम कर सकती हूं जोकि असम्भव लगता है। आखिरकार मैंने संकल्प लिया और अपने कुछ लक्ष्य तय किए। मेरा खेलों की तरफ रुझान बढ़ा और मैंने तैराकी तथा बास्केटबाल में हाथ आजमाने शुरू कर दिए।
मैं मनमौजी स्वभाव की हूं, जो भी ठान लेती हूं, उसे कर दिखाती हूं। मुझे अपने कामकाज में किसी का दखल पसंद नहीं, इस बात को हमारे अपने सभी जानते हैं। हमारे परिजनों को भी पता है कि निशा जो ठान लेगी उसे किए बिना नहीं मानने वाली। निशा बताती हैं कि जब मैंने तैराकी में हिस्सा लेने का मन बनाया तब मन में सफलता को लेकर किसी तरह का दबाव नहीं था, लेकिन अब मैं देश के लिए खेलना चाहती हूं। मैं तैराकी, बास्केटबाल के साथ एथलेटिक्स में भी हाथ आजमा रही हूं। इसके लिए मैंने जिम जाना शुरू कर दिया है। मैंने टोकियो पैरालम्पिक में देश का प्रतिनिधित्व करने का लक्ष्य तय किया है। अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए ही, मैं अभी मां नहीं बनना चाहती। पिछले साल की ही बात है जब मैंने राष्ट्रीय स्तर पर तरणताल में अपने लाजवाब प्रदर्शन से तीन कांस्य पदक जीते तो बास्केटबाल में अपनी टीम को कांस्य पदक दिलाया था।
निशा सिर्फ खेल ही नहीं अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों में भी खासा दखल रखती हैं। वह शानदार आर्टिस्ट के साथ ही बेहतरीन ह्वीलचेयर डांसर भी हैं। टैटू बनाने का इन्हें काफी शौक है। निशा 2010 से लोगों के शरीर पर टैटू बना रही हैं। निशा ने 2013 में मिस ह्वीलचेयर इंडिया प्रतियोगिता में सहभागिता कर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया था। सच कहें तो 30 साल की निशा हरफनमौला शख्सियत हैं। निशा के हर क्षेत्र में दखल को देखते हुए डांसर सुधा चंद्रन उन्हें महिला सम्मान से भी नवाज चुकी हैं। निशा कहती हैं कि यदि वह दिव्यांग नहीं होतीं तो शायद जिस मुकाम पर आज वह हैं, वहां नहीं पहुंच पातीं। निशा को पढ़ाई-लिखाई से गहरा लगाव है। वह दिव्यांगों के बीच जाकर हमेशा उनकी हौसलाअफजाई करती हैं। उन्होंने एक बार फिर पढ़ाई पर ध्यान देना शुरू कर दिया है। निशा कहती हैं कि दिव्यांगता ही मेरी ताकत है। मैं चाहती हूं कि हर दिव्यांग के चेहरे पर कामयाबी की मुस्कान हो। वह कहती हैं कि दिव्यांगता को अभिशाप मानने की बजाय लोगों को निःशक्तजनों को बेहतरीन तालीम देने के प्रयास करने चाहिए ताकि ये पढ़-लिखकर देश को सुशिक्षित कर सकें।        



हाकी में मध्य प्रदेश का करिश्मा


मध्य प्रदेश की तरफ से देश का मान बढ़ाने वाली सातवीं खिलाड़ी
                           जैसा नाम वैसा काम
                            श्रीप्रकाश शुक्ला
मध्य प्रदेश सरकार ने महिला हाकी के उत्थान में वाकई गजब का काम किया है। अब हमारे प्रदेश की बेटियां भी हाकी उठा चुकी हैं। उनकी प्रतिभा भी परवान चढ़ने लगी है। प्रदेश की हाकी बेटियों का कारवां आहिस्ते-आहिस्ते टीम इण्डिया की तरफ बढ़ रहा है। हाल ही ग्वालियर की एक बेटी आस्ट्रेलियाई टीम से दो-दो हाथ कर लौटी है। नाम है करिश्मा यादव। जैसा नाम वैसा काम। जी हां ग्वालियर की करिश्मा यादव अपने नाम को ही मैदानों में अपने लाजवाब प्रदर्शन से चरितार्थ कर रही है। आस्ट्रेलिया से तीन मैचों की हाकी सीरीज खेलकर लौटी ग्वालियर की यह बिटिया मध्य प्रदेश की तरफ से देश का मान बढ़ाने वाली सातवीं खिलाड़ी है। हाकी खिलाड़ी करिश्मा यादव और नेहा सिंह की प्रतिभा का ही कमाल है कि प्रदेश में पहली बार उन्हें एकलव्य अवार्ड हासिल करने का मौका मिला। इससे पहले किसी महिला हाकी खिलाड़ी को एकलव्य अवार्ड नहीं मिला था। नेहा सिंह भी ग्वालियर की ही हाकी बेटी है।
खेलों में महाकौशल के कौशल को कभी नकारा नहीं जा सकता। जब यहां सुविधाएं नहीं थीं तब भी एक से बढ़कर एक बेजोड़ खिलाड़ियों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने शानदार प्रदर्शन से मध्य प्रदेश को गौरवान्वित किया। आज प्रदेश सरकार खिलाड़ियों को सुविधाएं मुहैया करा रही है तो उसके अच्छे परिणाम भी मिलने लगे हैं। 10 साल पहले शून्य से शुरू हुआ महिला हाकी के उत्थान का सफर अब प्रदेश की बेटियों की सफलता का पैगाम साबित हो रहा है। 10 साल पहले देश की 23 प्रतिभाशाली खिलाड़ियों से ग्वालियर में खुली महिला हाकी एकेडमी आज मुल्क की सर्वश्रेष्ठ हाकी पाठशाला बन चुकी है। ग्वालियर में जब यह एकेडमी खुली थी उस समय हमारे प्रदेश में हाकी खिलाड़ियों का अकाल सा था, लेकिन अब ऐसी बात नहीं है। आज ग्वालियर में ही इतनी प्रतिभाएं हैं जिनसे कम से कम एक जूनियर टीम तैयार हो सकती है।
सफलता के कई बाप होते हैं। आज देश में सफल खिलाड़ियों का नाम भुनाने का अजीबोगरीब खेल चल रहा है। जैसे ही खिलाड़ी पर टीम इण्डिया का ठप्पा लगता है, उसके कई बाप हो जाते हैं और उस खिलाड़ी को तराशने वाले असली प्रशिक्षक गुमनामी के अंधेरे में खो जाते हैं। इसके लिए खिलाड़ी भी कसूरवार होते हैं लेकिन उतना नहीं जितना राज्य, रेलवे, एकेडमियां और खिलाड़ी को नौकरी देने वाले अन्य संस्थान। सवाल यह भी उठता है कि एक खिलाड़ी किसको-किसको बाप कहे। मध्य प्रदेश में खुली एकेडमियों में भी ऐसा ही अजीब खेल कोई एक दशक से चल रहा है। उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, मणिपुर, मिजोरम, दिल्ली, झारखण्ड आदि राज्यों के खिलाड़ी जैसे ही मध्य प्रदेश की एकेडमियों से हटते हैं, वे अपने-अपने राज्यों या संस्थानों का मंगल गीत गाने लगते हैं। मध्य प्रदेश की एकेडमियों में कार्यरत प्रशिक्षक भी ऐसा ही कर रहे हैं।
खैर, हम बात करते हैं उस करिश्मा यादव की जिसके माता-पिता नहीं चाहते थे कि वह हाकी खेले। यद्यपि उसके घर के पास ही दर्पण मिनी स्टेडिटम में एक ऐसा शख्स खिलाड़ियों को निखार रहा था जिसके हाकी जुनून को प्रदेश में कभी तवज्जो नहीं मिली। लेकिन अपनी धुन के पक्के एनआईएस अविनाश भटनागर अपने काम को अंजाम देना ही अपना कर्तव्य मानते रहे। करिश्मा यादव को भी हाकी का ककहरा इसी शख्स ने सिखाया। वैसे तो मध्य प्रदेश में दर्जनों संविदा हाकी प्रशिक्षक कार्यरत हैं लेकिन जो काम हाकी की बेहतरी के लिए अविनाश भटनागर ने किया उसका एकांश भी दूसरे प्रशिक्षक नहीं कर सके। मध्य प्रदेश की प्रतिभाओं की खोज-खबर के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की पहल पर दर्जनों फीडर सेण्टर खोले गये लेकिन खेल विभाग की अनिच्छा के चलते इस महत्वाकांक्षी योजना का जो लाभ मिलना चाहिए वह नहीं मिला। ग्वालियर का दर्पण मिनी स्टेडियम इसका अपवाद है। यहां से मध्य प्रदेश की महिला और पुरुष एकेडमियों को दो दर्जन से अधिक खिलाड़ी मिल चुके हैं। यह सब अविनाश भटनागर की अथक मेहनत और लगन का ही कमाल है। करिश्मा यादव को भारतीय टीम का सदस्य बनाने में एकेडमी की सुविधा और तालीम के साथ-साथ अविनाश भटनागर के योगदान को कमतर नहीं माना जा सकता। करिश्मा यादव ने पहली बार जूनियर स्तर पर न्यूजीलैण्ड के खिलाफ भारतीय टीम का प्रतिनिधित्व किया तो सीनियर स्तर पर उसे आस्ट्रेलिया के खिलाफ खेलने का मौका मिला।
करिश्मा का भारतीय टीम में प्रवेश कोई तुक्का नहीं है। इस मिडफील्डर ने इसके लिए कड़ी मेहनत की है। करिश्मा की कड़ी मेहनत और निरंतर अभ्यास का ही परिणाम है कि हाकी इण्डिया ने उसकी प्रतिभा को न केवल पहचाना बल्कि पहले जूनियर और फिर सीनियर स्तर पर उसे भारतीय टीम का प्रतिनिधित्व करने का मौका दिया। करिश्मा को 2014 में जहां भारतीय जूनियर टीम से न्यूजीलैण्ड का दौरा करने का मौका मिला वहीं नवम्बर 2016 में सीनियर टीम से आस्ट्रेलिया के खिलाफ खेलने का मौका मिला। तीन मैचों की यह सीरीज आस्ट्रेलिया ने 2-1 से जीती है। इस दौरे में करिश्मा का खेल लाजवाब रहा। ग्वालियर के भीकम सिंह-सुषमा यादव की इस प्रतिभाशाली बेटी ने लगातार राज्य एवं राष्ट्रीय स्तर पर दमदार प्रदर्शन करते हुए अपनी टीम को विजेता और उपविजेता होते देखा। सब-जूनियर, जूनियर और सीनियर चैम्पियनशिप की बात करें तो करिश्मा राष्ट्रीय स्तर पर बीस से अधिक बार खेल चुकी है। करिश्मा जूनियर नेहरू हाकी प्रतियोगिता में लगातार चार साल खेली। 2011 और 2012 में उसकी टीम ने स्वर्णिम सफलता हासिल की तो 2013 में रजत और 2014 में कांस्य पदक जीता। हाकी की यह बिटिया कहती है कि लड़कियों में खेल प्रतिभा की कोई कमी नहीं है, जरूरत है उन्हें सही दिशा एवं अवसर प्रदान करने की। वह कहती है कि ग्वालियर अब हॉकी का हब बन रहा है, जिसमें महिला हॉकी के लिए अपार सम्भावनाएं हैं। इसलिए लड़कियों को हॉकी में बढ़ावा देने के लिए विशेष प्रयास किये जाने चाहिए।    
हाकी में भारतीय बेटियों की जहां तक बात है वे दो बार ओलम्पिक हाकी में हिस्सा ले चुकी हैं। 1980 मास्को ओलम्पिक के बाद भारतीय बेटियां हाकी में दूसरी बार रियो ओलम्पिक खेलीं। इसे दुर्भाग्य कहें या कुछ और अब तक मध्य प्रदेश की कोई बेटी हाकी में ओलम्पिक नहीं खेली है। महिला हाकी के उत्थान से शिवराज सरकार प्रफुल्लित है, उसे होना भी चाहिए। आखिर इसी साल हुए रियो ओलम्पिक में ग्वालियर में संचालित राज्य महिला हाकी एकेडमी की आधा दर्जन बेटियों की सहभागिता यही सिद्ध करती है कि इस एकेडमी का लाभ मध्य प्रदेश के साथ ही देश की महिला हाकी को मिल रहा है। भारतीय महिला हाकी को छह अंतरराष्ट्रीय महिला खिलाड़ी देने वाले जबलपुर की भी कोई बेटी अभी तक ओलम्पिक नहीं खेली है। जबलपुर की एक दो नहीं आधा दर्जन बेटियों ने भारतीय हाकी टीम का प्रतिनिधित्व किया है। इनमें अविनाश कौर सिद्धू, गीता पण्डित, कमलेश नागरत, आशा परांजपे, मधु यादव, विधु यादव के साथ अब ग्वालियर की करिश्मा यादव का नाम भी जुड़ गया है। मधु यादव हाकी में एकमात्र प्रदेश की महिला अर्जुन अवार्डी हैं। स्वर्गीय एस.आर. यादव की बेटी मधु ने लम्बे समय तक मुल्क की महिला हाकी का गौरव बढ़ाया। वह 1982 एशियन गेम्स की स्वर्ण पदक विजेता टीम का सदस्य भी रहीं लेकिन ओलम्पिक वह भी नहीं खेलीं। मधु यादव के परिवार की जहां तक बात है इस यदुवंशी परिवार की रग-रग में हाकी समाई हुई है। मधु और विधु ने भारत का प्रतिनिधित्व किया तो इसी घर की बेटी वंदना यादव ने भारतीय विश्वविद्यालयीन हाकी में अपना कौशल दिखाया।
छह अंतरराष्ट्रीय महिला हाकी खिलाड़ी देने वाले जबलपुर की गीता पंडित, कमलेश नागरत तथा आशा परांजपे भारत छोड़ विदेश जा बसी हैं लेकिन अविनाश कौर सिद्धू, मधु और विधु यादव आज भी गाहे-बगाहे ही सही हाकी की जरूर चिन्ता करती हैं। महिला हाकी में जबलपुर की एक और प्रतिभा रैना यादव भी मेरे जेहन में है। इस बेटी में भी भारतीय टीम का प्रतिनिधित्व करने की काबिलियत थी लेकिन बेचारी जबलपुर की ही गंदी राजनीति का शिकार हो गई। इस बेटी की राह में किसी और ने नहीं जबलपुर के ही खेलनहारों ने कांटे बिछा दिए। रैना के खेल को मैंने देखा है। मैदान में हिरण सी कुलांचे भरती इस बेटी पर हम भरोसा करते थे। यह बेटी अपने तमाशाई खेल से जीवाजी विश्वविद्यालय को राष्ट्रीय स्तर पर खिताबी जश्न मनाने का मौका दे चुकी है। मध्य प्रदेश की यह बिटिया अब रेलवे में है। राजनीति का शिकार न होती तो यह बेटी रियो ओलम्पिक खेलने जरूर जाती।

महिला हाकी का गढ़ बन चुका ग्वालियर अब तक तीन बार राष्ट्रीय जूनियर महिला हाकी प्रतियोगिता की मेजबानी कर चुका है। ग्वालियर में पहली बार 1969-70 में राष्ट्रीय जूनियर महिला हाकी प्रतियोगिता हुई थी। तब खिताबी मुकाबले में पेप्सू ने पंजाब को पराजित किया था। ग्वालियर में 1976-77 में दूसरी बार हुई राष्ट्रीय जूनियर महिला हाकी प्रतियोगिता में केरल ने कर्नाटक को हराकर खिताब जीता था। तीसरी और अंतिम बार यहां 1982-83 में राष्ट्रीय जूनियर महिला हाकी प्रतियोगिता हुई। इस वर्ष खिताबी मुकाबले में पंजाब ने बाम्बे का मानमर्दन किया था। ग्वालियर में हाकी की मेजबानी का पुराना इतिहास है। यहां लम्बे समय से चल रही सिंधिया गोल्ड कप हाकी प्रतियोगिता को भला कौन नहीं जानता। यह बात अलग है कि 1958-59 को छोड़कर ग्वालियर कभी विजेता तो क्या फाइनल तक भी नहीं पहुंच सका। उम्मीद है कि महिला हाकी के गढ़ ग्वालियर की करिश्मा यादव के बाद अब दूसरी बेटियां भी मादरेवतन का मान बढ़ाएंगी। 

Tuesday 15 November 2016

मोदी जी शब्द नहीं दिव्यांगों का जीवन बदले


लगभग दो करोड़ दिव्यांग समाज की मुख्यधारा से वंचित
दिव्य चिंतन में डूबे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 27 दिसम्बर, 2015 को आकाशवाणी से प्रसारित अपने लोकप्रिय कार्यक्रम मन की बात में विकलांगजनों का उल्लेख करते हुए कहा कि देशवासियों विकलांगों को अब दिव्यांग नाम से जाना जाए क्योंकि इनके अंदर ऐसी प्रतिभा होती है जो आम आदमी में नहीं होती। दिव्यांगता कोई अभिशाप नहीं बल्कि यह शारीरिक अंगों में कमी के कारण होती है। कुछ कमियों का प्रभाव समझ में नहीं आता जबकि कुछ कमियां हमारे जीवन को प्रभावित कर देती हैं। एक अंग बेकार होने पर व्यक्ति निशक्त नहीं हो जाता। भारत वह देश है जहां अंधे, गूंगे-बहरे और लंगड़े लोगों के साथ हकलाने वालों पर चुटकुले बनाने जाते हैं। एक तरह से यह दिव्यांगों का उपहास है। एक तो तकदीर की बेरहम मार और ऊपर से समाज के तिरस्कार का दंश शायद ही किसी को भला लगे। इन लोगों की बदनसीबी का आलम यह कि इनके नाम पर खरीदी गई बैशाखी तक घोटाले की चादर में लिपटकर कहीं गुम हो जाती है। समाज से सम्मानजनक व्यवहार और बराबरी के मौके हासिल करने की इन लोगों की लड़ाई आजादी के बाद से चली आ रही है, लेकिन आज तक इसमें कोई बड़ा बदलाव देखने को नहीं मिला।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बधाई के पात्र हैं कि उनके मन में मुल्क के लगभग दो करोड़ दिव्यांग लोगों के प्रति असीम वेदना है। मोदीजी दिव्यांगों को समाज की मुख्य धारा में वह स्थान दिलाना चाहते हैं जोकि आज तक उन्हें नहीं मिला। प्रधानमंत्री जी ने सही कहा कि विकलांगों के पास भौतिक अंग भले न हों लेकिन उनके पास दिव्य अंग होते हैं। इसे दुर्भाग्य कहें या कुछ और हमारा हिन्दी समाज शारीरिक अक्षम लोगों के लिए अभी तक कोई कायदे का शब्द नहीं ढूंढ पाया है। विकलांग बहुत उपयुक्त शब्द नहीं है फिर भी उसमें एक तरह की करुणा है, लेकिन दिव्यांग। एक कटे हुए टांग वाले आदमी को दिव्यांग पुकारा जाना कैसा लगेगा। मुझे आशंका है कहीं ये नया नाम क्रूर समाज के लिए मनोविनोद का जरिया न बन जाये। मुमकिन है, फिजिकली चैलेंज्ड लोगों का समाज इस नाम पर उसी तरह रियेक्ट करे, जिस तरह कभी दलित लोगों ने हरिजन नाम पर किया था। यह लोग कह सकते हैं कि हमें चने की झाड़ पर मत चढ़ाओ, पहले हमें व्हील-चेयर दिलाओ, पब्लिक ट्रांसपोर्ट और शौचालयों को हमारे लायक बनाओ, हमें नौकरियां दो। फोकट में एक और नया नाम लेकर हम क्या करेंगे।
दिव्यांग शब्द पर अब तक जो कुछ भी कहा गया उसका मकसद नमो की नेक मंशा पर सवाल उठाना ही है। प्रधानमंत्री मोदी की जहां तक बात है वह युगदृष्टा होने के साथ बहुत बड़े दार्शनिक भी हैं। विकलांगों के पास एक दिव्य अंग होता है, कितनी गहरी बात कही है नमो ने। इंसान के पास जो चीज ना हो, उसकी चिन्ता कभी नहीं करनी चाहिए क्योंकि जो नहीं है, वह असल में उसके पास दिव्य रूप में मौजूद होती है। आज प्रधानमंत्री जी के दिव्यांग शब्द में छिपे गहरे अर्थ को समझना चाहिए। मोदी जी को यकीन है कि नाम बदलने से सब कुछ बदल जाता है। वायलेंट गुजरात को वाइब्रेंट गुजरात में बदलते ही गुजरात फिर से सचमुच वाइब्रेंट हो गया। योजना आयोग के नीति आयोग बनने से यह बात साबित हो गई, देश में नीति आ चुकी है। अब से पहले तो सिर्फ अनीति ही अनीति थी। औरंगजेब मार्ग बदलकर कलाम मार्ग हुआ तो औरंगजेब के नाम का कलंक इतिहास के पन्नों से हमेशा के लिए धुल गया। नया नाम कई समस्याओं के लिए रामबाण है। नमो की नामकरण क्रांति अभी बहुत आगे जाएगी। कुतात्माओं को हुतात्मा बनाने का रिवाज इस देश में पुराना है।
निशक्त व्यक्ति अधिनियम 1995 के मुताबिक जब शारीरिक कमी का प्रतिशत 40 से अधिक होता है तो वह दिव्यांगता की श्रेणी में आता है। दिव्यांगता ऐसा विषय है जिसके बारे में समाज और व्यक्ति कभी गम्भीरता से नहीं सोचते। क्या आप ने कभी सोचा है कि कोई छात्र या छात्रा अपने पिता के कंधे पर बैठकर, भाई के साथ साइकिल पर बैठकर या मां की पीठ पर लदकर या फिर ज्यादा स्वाभिमानी हुआ तो खुद ट्राईसाइकिल चलाकर ज्ञान लेने स्कूल जाता है, किंतु सीढ़ियों पर ही रुक जाता है क्योंकि वहां रैंप नहीं है और ऐसे में वह अपनी व्हीलचेयर को सीढ़ियों पर कैसे चढ़ाए। उसके मन में एक कसक उठती है, क्या उसके लिए ज्ञान के दरवाजे बंद हैं, क्या शिक्षण संस्थाओं में उसको कोई सुविधा नहीं मिल सकती। शौचालय तो दूर उस के लिए एक रैंप वाला शिक्षण कक्ष भी नहीं है जहां वह स्वाभिमान के साथ अपनी व्हीलचेयर चलाकर ले जा सके एवं ज्ञान प्राप्त कर सके। अफसोस की बात है कि आजादी के बाद से ही दिव्यांगों की बेहतरी के लिए ढेर सारी योजनाएं बनीं लेकिन कोई दफ्तर, बैंक, एटीएम, पोस्ट आफिस, पुलिस थाना, कचहरी ऐसी नहीं है जहां दिव्यांगों के लिए अलग से सुविधाएं मौजूद हों। सामान्य दिव्यांगों की तो छोड़िये यहां के दिव्यांग कर्मचारियों के लिए भी कोई सुविधा नहीं है। अगर दिव्यांगों को बराबर का अधिकार है तो वह नजर क्यों नहीं आता।
ट्रेनों की ही बात करें तो क्या ट्रेन में दिव्यांग अकेले यात्रा कर सकते हैं। प्लेटफार्म, अंडरब्रिज यहां तक कि ट्रेन तक पहुंचने के लिए भी दिव्यांगों को दूसरों की सहायता चाहिए। उनके लिए कोई मूलभूत सुविधाएं नहीं हैं, किसी तरह अगर वे डिब्बे में चढ़ भी जाएं तो ट्रेन में उनके लिए अलग से शौचालय की कोई व्यवस्था नहीं है। यहां तक कि मतदान केंद्रों पर भी दिव्यांगों को कोई अलग से सुविधा नहीं दी जाती। अधिकांश मतदान केंद्रों पर रैंप न होने के कारण वे मताधिकार से वंचित रह जाते हैं। यह सरकारी तंत्र एवं समाज के लिए सोचनीय और शर्मनाक बात है। हर साल बजट में दिव्यांगों के लिए भारी सहायता राशि की घोषणा की जाती है, कागज पर योजनाएं एवं सुविधाएं उकेरी जाती हैं लेकिन अभी तक कोई भी तंत्र उन्हें मौलिक अधिकार एवं सुविधाएं नहीं दे सका है।
देखा जाए तो हमारे समाज में दिव्यांगता थोथी संवेदनाओं का केंद्र बनकर रह गई है। दिव्यांगों से तो सभी सहानुभूति रखते हैं लेकिन उन्हें दोयम-दर्जे का व्यक्तित्व मानते हैं। बेचारे, पंगु, निर्बल, निशक्त न जाने कितने संवेदनासूचक शब्दों से हम उन्हें पुकारते हैं। कितनी सरकारी योजनाएं, विभाग बन गए लेकिन क्या दिव्यांगों को हम सबल बना पाए, क्या उनको राष्ट्र की मुख्य धारा से जोड़कर राष्ट्र निर्माण में उनका योगदान ले पाए हैं। इसके लिए सिर्फ सरकार ही नहीं हम सभी जिम्मेदार हैं। दरअसल, दिव्यांगों के अधिकारों को आवाज देता संयुक्त राष्ट्र दिव्यांगता समझौता, विश्वव्यापी मानवाधिकार समझौता है। यह समझौता स्पष्ट रूप से दिव्यांगों के अधिकारों एवं विभिन्न देशों की सरकारों द्वारा निर्बाध रूप से दिव्यांगों के पुनर्वास एवं उन्हें बेहतर सुविधाएं प्रदान करने की पैरवी करता है।
देश की संसद ने दिव्यांगों के पुनर्वास एवं उन्हें देश की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए दिव्यांग व्यक्ति (समान अवसर, अधिकारों का संरक्षण, पूर्ण भागीदारी) अधिनियम-1995 दिव्यांगता अधिनियम पारित किया। स्वाभाविक तौर पर अशक्त लोगों के अधिकारों को प्रतिपादित करते हुए भारत ने संयुक्त राष्ट्रसंघ के शाइट्स आफ पर्सन्स विद डिस्एबिलिटीज कन्वेंशन में कही गई बातों को 2007 में स्वीकार किया और दिव्यांगों के लिए बने अधिनियम 1995 को संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा पारित कन्वेंशन जिस पर 2008 में अमल शुरू हुआ, के आधार पर बदलने की बात कही। फिलहाल देश भर में करीब 40 कम्पनियां दिव्यांगों को नौकरियां दे रही हैं। गैर सरकारी संस्थानों की यह पहल निश्चित रूप से दिव्यांगों के जीवन में नए रंग भर सकती है। आज आवश्यकता है दिव्यांगों को समान अधिकार देने की व सम्मानपूर्वक जीवन की मुख्यधारा से जोड़ने की ताकि वे देश निर्माण में अपना योगदान दे सकें। मोदीजी आपको इन दिव्यांगों के लिए कुछ नया करना होगा वरना इस शब्द पर उपहास उड़ेंगे और दिव्यांगों को भी अच्छा नहीं लगेगा।


Monday 14 November 2016

अमित खेलों में छोड़ रहे अमिट छाप

 किसान के बेटे अमित सरोहा ने दिव्यांगता को चुनौती
सोनीपत से सटे गांव बैंयापुर में 12 जनवरी, 1985 को एक किसान के घर जन्मे अमित सरोहा को क्या पता था कि उनकी हंसती-खेलती जिन्दगी ही उनके लिए चुनौती बन जाएगी। वर्ष 2007 में एक सड़क हादसे में वह दिव्यांग हो गए, जिसके बाद उन्होंने अपने जीवन को नए सिरे से शुरू किया और वर्ष 2009 में पैरा एथलीट बने। दिव्यांगत का दंश झेलने के बाद अमित ने निश्चय किया कि वह खेलों में ही शिखर छुएंगे और वह आज खेलों में न केवल शिरकत कर रहे हैं बल्कि अपनी कामयाबी से हिन्दुस्तान का नाम रोशन कर रहे हैं।
इंचियोन एशियाड में स्वर्ण व रजत तथा अब फ्रांस ओपन और आईपीसी इंटरनेशनल एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में नए एशियाई रिकार्ड सहित दो स्वर्ण दिलाने वाले सोनीपत के गांव बैंयापुर के लाड़ले अमित सरोहा को रियो पैरालम्पिक में बेशक कोई पदक नहीं मिला लेनिक उनके इरादे बुलंद हैं। अमित को उम्मीद है कि वह अगले ओलम्पिक में जरूर पदक जीतेंगे। अमित ने खेलों में कामयाबी की जो छाप छोड़ी है वह अन्य खिलाड़ियों को उनसे प्रेरणा लेने के लिए प्रेरित करती है। विश्व रैंकिंग में दूसरे स्थान पर काबिज अमित क्लब थ्रो व डिस्कस थ्रो की एफ-51 कैटेगरी में प्राप्त उपलब्धियों की बदौलत अब तक खेलों में भीम और अर्जुन अवार्ड जीत चुके हैं।
अमित को अब तक जो कामयाबी मिली है उसके लिए वह सुबह-शाम तीन-तीन घंटे जमकर अभ्यास करते हैं। अमित कहते हैं कि अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में भारतीय एथलीटों को चेक रिपब्लिक, सर्बिया, स्लोवाकिया और चीन के खिलाड़ियों से ही कड़ी टक्कर मिलती है। अमित का कहना है कि भारत में अभी दिव्यांग खिलाड़ियों को वह सुविधाएं नहीं मिल रहीं यहां कई बार तो प्रशिक्षण शिविर भी समय से नहीं लगते। अमित का कहना है कि भारतीय खिलाड़ी तिरंगा फहराने को हर समय लालायित रहते हैं। बस आवश्यकता है उन्हें अधिक से अधिक प्रोत्साहन की। यदि खिलाड़ियों को बेहतर सुविधाएं मिलें तो वह देश की झोली पदकों से भर सकते हैं। अमित को मलाल है कि यहां पैरा खिलाड़ियों को उम्मीद के मुताबिक सुविधाएं नहीं मिल पातीं, जिससे वह पिछड़ जाते हैं।
अमित खेलों में अब तक फ्रांस ओपन व आईपीसी इंटरनेशनल एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में शानदार प्रदर्शन कर चुके हैं। वह एशियाई रिकार्ड बनाने में भी सफल रहे हैं। अमित का कहना है कि पैरा एथलीट संघ को मान्यता मिलने से खेलों को काफी बढ़ावा मिलेगा। खासकर अब राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं के आयोजन के द्वार खुल सकेंगे और इसमें कोई दो राय नहीं कि टोक्यो ओलम्पिक में अधिक से अधिक पैरा खिलाड़ी तिरंगा फहराने को तैयार हो सकेंगे। अमित सरोहा की उपलब्धियों की जहां तक बात है उन्होंने पहली बार पंचकूला में हुए नेशनल गेम्स में डिस्कस थ्रो व शाटपुट में गोल्ड मेडल जीता था, जिसके आधार पर राष्ट्रमंडल खेलों में उनका चयन हुआ। हालांकि वह दिल्ली राष्ट्रमंडल खेलों में पदक नहीं दिला सके, लेकिन उसके एक माह बाद ही चाइना के ग्वांग्झू में हुए एशियन खेलों में रजत पदक जीतकर अपनी प्रतिभा दिखाई। उसके बाद उन्होंने वर्ष 2012 में लंदन पैरा ओलम्पिक में भाग लिया। वर्ष 2013 में फ्रांस में विश्व चैम्पियनशिप में भाग लिया। इतना ही नहीं अमित सरोहा को वर्ष 2013 में अर्जुन अवार्ड व वर्ष 2014 में भीम अवार्ड मिल चुका है। उन्होंने वर्ष 2015 में इंचियोन में हुए पैरा एशियाड में डिस्कस थ्रो में रजत व क्लब थ्रो में स्वर्ण पदक जीता था।


Monday 7 November 2016

हरफनमौला सोफिया का जवाब नहीं

फ्रांसिस को नाज है अपनी बेटी की उपलब्धियों पर
आठ बार स्टेट और तीन बार की नेशनल चैम्पियन
24 साल की सोफिया आज उस मुकाम पर है जिसे हासिल करना सक्षम लोगों के लिए भी मुश्किल कहा जा सकता है। वह आज मुल्क ही नहीं मुल्क से बाहर भी अपनी प्रतिभा से लोगों को कायल कर रही है। हर मां-बाप की इच्छा होती है कि उसके बच्चे स्वस्थ रहें और अपनी कामयाबी से परिवार का नाम रोशन करें। मूक-बधिर सोफिया आज खेलकूद ही नहीं सांस्कृतिक प्रतियोगिताओं में भी अपने फन का जलवा दिखा रही है। मां-बाप को अपनी बेटी पर गर्व है तो जो समाज कभी उसे तिरस्कृत नजर से देखता था, वह भी उसकी कामयाबी से आश्चर्यचकित है।
सोफिया जन्म से ही सुन नहीं पाती थी। उसके भाई रिचर्ड का जन्म भी इसी अक्षमता के साथ हुआ। दोनों बच्चों में ये कमी देख माता-पिता से रहा नहीं गया। पिता फ्रांसिस कहते हैं कि एक बार हमने यह भी सोचा कि ऐसे जीने से अच्छा है कि पूरा परिवार सुसाइड कर ले। लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पाए। आखिर यह तय किया कि जो भी स्थिति है उसका मुकाबला करेंगे। सोफिया जन्मजात मूक-बधिर है। इस बात का पता उसके मां-बाप को उस समय लगा जब वह 10 माह की थी। दरअसल एक दिन फ्रांसिस के घर के बाहर एक जुलूस निकल रहा था। लोग पटाखे फोड़ रहे थे लेकिन 10 माह की सोफिया को इससे कोई फर्क पड़ता न देख फ्रांसिस के पैरों तले से जमीन खिसक गई। तेजी से फूटते पटाखों की आवाज बड़े-बड़े लोगों के कानों में चुभ रही थी। लोग चौंक रहे थे लेकिन 10 माह की बच्ची को कोई असर नहीं हो रहा था। पहले तो फ्रांसिस कोई फैसला नहीं ले पाए लेकिन पत्नी के साथ चर्चा करने के बाद उन्होंने डॉक्टरों से सम्पर्क किया तो उन्हें पता चला कि उनकी बेटी बोल और सुन नहीं सकती। सोफिया के एक भाई भी है, वह भी मूक-बधिर है।
समय बदला सोफिया बड़ी हुई तो पता चला कि उसके साथी उससे किनारा करते हैं। साथ रहना नहीं चाहते। ऐसे में हमने उसे खेलों में आगे आने को प्रोत्साहित किया। उसे ताकतवर होने का अहसास हो, इसके लिए उसे शॉटपुट और डिस्कस थ्रो में आगे किया। सोफिया की खूबी यह है कि वह प्रैक्टिस को कभी हलके में नहीं लेती। नतीजा यह हुआ कि उसने आठ बार स्टेट चैम्पियनशिप और तीन नेशनल चैम्पियनशिप जीती हैं। फ्रांसिस कहते हैं कि सोफिया में आत्मविश्वास लाने के लिए उसे ब्यूटी काम्पटीशन में जाने को कहा गया और वह इसकी तैयारी में जुट गई। पिछले साल वह मिस मलयाली वर्ल्ड वाइड स्पर्धा में सेकेण्ड रनर अप रही। कई मॉडलिंग असाइनमेंट के अलावा दो फिल्मों और कुछ टेलीविजन सीरियल में भी सोफिया अभिनय कर चुकी है। सोफिया पेंटिंग और ज्वैलरी डिजाइनिंग भी कर लेती है। ड्राइविंग उसका पैशन है। वह भविष्य में बाइक रेसर बनना चाहती है। सोफिया आज एथलेटिक्स, पेंटिंग, मॉडलिंग और फैशन डिजाइनिंग में बड़ा नाम बन गई है। कोच्चि की रहने वाली सोफिया चेक रिपब्लिक में हुए मिस वर्ल्ड डेफ एण्ड डम्ब प्रतियोगिता में भी देश का प्रतिनिधित्व कर चुकी है। यही नहीं वह मिस डेफ इण्डिया 2014 में भी फर्स्ट रनरअप रही है। सोफिया को एक्टिंग और मॉडलिंग का भी शौक है। वह बेस्ट विशेज नाम की फिल्म में काम कर चुकी है। वह एक सुपर मॉडल रियल्टी टीवी शो की विजेता भी है।
बातचीत में फ्रांसिस कहते हैं कि सोफिया के लिए यह सब आसान नहीं था। उसने यह मुकाम पाने के लिए बहुत संघर्ष किया है। मेरा बेटा रिचर्ड भी सुन और बोल नहीं सकता। मेरे दोनों बच्चे ऐसे ही जन्मे लेकिन इसमें न उनकी गलती है और न ही मेरी। जबकि लोग हमें हमेशा ऐसे ताने मारते हैं कि जैसे हमने कोई पाप किया हो और हमें इसकी सजा मिल रही हो। फ्रांसिस बताते हैं कि सोफिया जब स्कूल जाने लायक हुई तो एक बार फिर संघर्ष शुरू हुआ। वह बताते हैं कि उस समय मेरी बेटी को कोई भी स्कूल एडमीशन देने के लिए तैयार नहीं था। हमने कोशिश की कि मद्रास के एक स्पेशल स्कूल में दाखिला करवा दें लेकिन वहां भी यह कहते हुए मना कर दिया गया कि हम दो वर्ष की उम्र में ही बच्चों का एडमीशन लेते हैं जबकि सोफिया चार साल की हो गई थी। मेरी पत्नी गोरेटी को यह बात बहुत बुरी लगी। सोफिया की मां भवन्स स्कूल में टीचर हैं। बेटी की शिक्षा के लिए उन्होंने लम्बी छुट्‌टी के लिए आवेदन दिया। वहां के प्रिंसिपल ने कारण पूछा तो गोरेटी ने उन्हें अपनी बेटी के बारे में बताया। ऐसे में स्कूल के डायरेक्टर गोविंदन ने उनका साथ दिया और सोफिया को स्कूल में एडमीशन मिल गया।
गोविंदन मेट्रोमैन श्रीधरन के भाई हैं। सोफिया ने यहां पर आठवीं कक्षा तक सामान्य बच्चों के साथ पढ़ाई की। इसके बाद सोफिया को सामान्य बच्चों के सिलेबस को समझने और पढ़ने में परेशानी आना शुरू हो गई। बाद में सोफिया ने आगे की पढ़ाई नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओपन स्कूल से की। सोफिया अब 24 साल की हो चुकी है और उसका फोकस टीवी मॉडलिंग और स्पोर्ट्स पर है। वह इस समय एक अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता की तैयारी में लगी हुई है। सोफिया जब छोटी थी तो स्कूल में पढ़ते समय उनके पिता ने टीचर्स से विशेष रूप से कहा था कि उन्हें यह ध्यान देना चाहिए कि सोफिया किस क्षेत्र में बेहतर कर सकती है। फ्रांसिस खुद सोफिया की गतिविधि पर बारीकी से ध्यान रखते थे। उसी समय उन्होंने गौर से देखा तो पाया कि सोफिया चीजों को काफी दूर तक फेंक लेती है। यहीं से सोफिया ने शॉटपुट में अपना कॅरियर बनाने की शुरुआत की और बाद में चैम्पियन बनी।

सोफिया चार-पांच वर्ष की आयु से ही साइकिल से स्कूल जाने लगी थी। स्कूल के दूसरे बच्चों के माता-पिता नहीं चाहते थे कि इतने छोटे बच्चे साइकिल से स्कूल आएं। इसलिए उन्होंने स्कूल प्रबंधन से इसकी शिकायत भी कर दी। स्कूल के प्रिंसिपल ने सर्कुलर जारी कर इस पर पाबंदी लगवा दी लेकिन फ्रांसिस को लगा यह ठीक नहीं है। इसलिए उन्होंने इस निर्णय का कड़ा विरोध किया और प्रबंधन को अपना सर्कुलर वापस लेना पड़ा। उन्होंने कहा किसी को हो या न हो लेकिन मुझे अपनी बेटी पर पूरा विश्वास है। फ्रांसिस अपनी बुलेट पर सोफिया को आगे बिठाकर घूमते थे और उसने धीरे-धीरे मूक-बधिर होते हुए भी बहुत अच्छे से कार और बाइक ड्राइव करना सीख ली। लोगों ने इसका भी विरोध किया और कहा कि यह ठीक नहीं है। इससे एक्सीडेंट हो सकता है क्योंकि सोफिया सुन नहीं सकती। उसे ड्राइविंग लाइसेंस भी नहीं मिल रहा था। फ्रांसिस यहां फिर दिल्ली हाईकोर्ट के एक ऐसे निर्णय के साथ परिवहन विभाग पहुंचे जिसमें कोर्ट ने आंशिक रूप से मूक-बधिर व्यक्ति को ड्राइविंग लाइसेंस जारी करने का आदेश दिया था। इसके बाद उसे मेडिकल सर्टिफिकेट भी चाहिए था जिसके लिए सोफिया को तकरीबन हर डॉक्टर से मना कर दिया। लम्बे संघर्ष के बाद सोफिया को ड्राइविंग लाइसेंस के लिए मेडिकल सर्टिफिकेट तिरुवनंतपुरम के मेडिकल कॉलेज ने दिया। इसके बाद सोफिया लाइसेंस हासिल करने वाली केरल की पहली मूक महिला बनी। इसके बावजूद उसे लोगों ने खूब परेशान किया। फ्रांसिस बताते हैं कि जब वह बुलेट चलाती थी तो लोग उसके सामने लाकर गाड़ी रोक देते थे। जानबूझकर उसे परेशान करते थे। जो भी हो आज सोफिया उन लोगों के लिए नसीहत है जोकि दिव्यांगता को जीवन भर का अभिशाप मान लेते हैं। आज सोफिया जैसी बेटियों को प्रोत्साहित करने की जरूरत ताकि ये दिव्यांगों का मार्गदर्शन कर सकें।

Saturday 5 November 2016

नर नहीं नारायण

जगदगुरू श्री रामानन्दाचार्य स्वामी रामभद्राचार्य महाराज

भारतीय धरा पर वैसे तो हर युग और हर काल में एक से बढ़कर एक महापुरुषों ने जन्म लेकर मानवता की सेवा की है लेकिन कलयुग में दिव्यांगों की सेवा का जो पुनीत कार्य चित्रकूट में जगदगुरू श्री रामानन्दाचार्य स्वामी रामभद्राचार्य महाराज द्वारा किया जा रहा है, वह अतुलनीय है। चित्रकूट की जहां तक बात है दीनदयाल शोध संस्थान और नानाजी देशमुख के ग्राम विकास के प्रकल्पों के नाते इसकी ख्याति चहुंओर गूंजी है लेकिन जगदगुरू श्री रामानन्दाचार्य स्वामी रामभद्राचार्य महाराज ने अपनी प्रतिभा और प्रयत्नों की पराकाष्ठा से चित्रकूट की पावन धरा को मानव सेवा का अभिनव-तीर्थ बना दिया है। इस तीर्थस्थली में देश भर के लगभग दो हजार दिव्यांग बालक-बालिकाओं की न केवल परवरिश हो रही है बल्कि उन्हें अपने पैरों पर भी खड़ा किया जा रहा है। सिर्फ 15 साल में ही यहां संचालित जगदगुरू रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय दिव्यांगों का तीर्थस्थल सा बन गया है। यहां अध्ययनरत सैकड़ों छात्र-छात्राओं के चेहरे की मुस्कान और उनका कुछ कर गुजरने का जुनून यही सिद्ध करता है कि उन्होंने वाकई दिव्यांगता पर फतह हासिल कर ली है।  
हमारे समाज से हमेशा से यही आवाज मुखरित होती रहती है कि संत-महात्माओं को मठों-मन्दिरों से निकल कर पीड़ित मानवता की सेवा को ही राघव सेवा मानकर अपना सर्वस्व अर्पित करना चाहिए। समाज की इस जरूरत को जगदगुरू स्वामी रामभद्राचार्य ने न केवल आत्मसात किया बल्कि मानवता यानि दिव्यांगों की सेवा के महती कार्य को उन्होंने चरितार्थ भी कर दिखाया है। चित्रकूट में देश का पहला विकलांग विश्वविद्यालय जगदगुरू स्वामी रामभद्राचार्य की साधना का प्रतिबिम्ब ही नहीं उनकी सेवाभावना का अतुलनीय मंदिर है। 26 जुलाई, 2001 को उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने इसका विधिवत उद्घाटन किया था। तत्समय वहां दिव्यांगों के साथ ही सामान्य छात्र-छात्राओं को भी अध्ययन का मौका दिया गया। समय बीता और स्वामी जी ने महसूस किया कि हम अपने उद्देश्य से कहीं न कहीं भटक तो नहीं गए। दिव्यांगों में हीनभावना का विकार जन्म ना ले इस बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने इस विश्वविद्यालय में सिर्फ दिव्यांगों को ही तालीम देने का निश्चय किया।
जगदगुरू श्री रामानन्दाचार्य स्वामी रामभद्राचार्य महाराज इस विश्वविद्यालय के आजीवन कुलाधिपति हैं। आज इस विश्वविद्यालय में अध्ययनरत विद्यार्थियों की संख्या लगभग 1400 है जिसमें लगभग दो सैकड़ा छात्राएं भी अपना जीवन संवार रही हैं। यहां अध्ययनरत छात्र-छात्राओं को विश्वविद्यालय की ओर से छात्रावास सुविधा के साथ ही खेलने-कूदने की भी सभी सुविधाएं मयस्सर हैं। यहां अध्ययनरत बच्चे जिम में जाकर अपने आपको फौलादी बना सकते हैं। विश्वविद्यालय में दिव्यांग विद्यार्थियों के लिए अधिकांश सुविधाएं निःशुल्क या फिर नाममात्र के शुल्क पर उपलब्ध हैं। फिलहाल यहां उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, हरियाणा, उत्तरांचल के विद्यार्थी ही ज्यादा हैं। कुछ विद्यार्थी असम, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के भी तालीम हासिल कर रहे हैं। जगदगुरू के तुलसी-पीठ आश्रम में छात्राओं को छात्रावास सुविधा मिली हुई है। इसके अतिरिक्त आश्रम परिसर में ही प्रज्ञाचक्षु (नेत्रहीन) मूक-बधिर एवं अस्थि विकलांग बच्चों के लिए प्राथमिक पाठशाला से लेकर उच्चतर माध्यमिक स्तर तक विद्यालय भी चलता है। यहां अध्ययनरत सभी बच्चों को आवास, भोजन, वस्त्र आदि सुविधाएं भी निःशुल्क प्राप्त हैं। स्वामी रामभद्राचार्य दिव्यांगों को अपना भगवान मानते हैं। स्वामी जी की अनूठी भगवद्साधना का ही प्रतिफल है कि आज यहां अध्ययन के लिए देश भर से छात्र-छात्राएं आ रहे हैं।
14 जनवरी, 1950 को जौनपुर जिले के गांव सांडी खुर्द, सराय भोगी में एक सरयूपारीय कृषक ब्राह्मण परिवार (स्वर्गीय राजदेव मिश्र-सची मिश्र) में उनका जन्म हुआ। चार भाई और छह बहनों में तीसरे नम्बर के गिरधर मिश्र के जन्म के ठीक दो महीने बाद आंखों में दाने पड़ गए। पास के ही एक गांव की दाई को उनकी मां ने उपचार के लिए दिखाया। दाई ने दाने फोड़ दिए किन्तु दुर्भाग्य से रोहुआ के दाने फूटने की जगह उनकी आंखें ही फूट गईं। बचपन में ही आंखें खो देने का आज स्वामी रामभद्राचार्य को कतई मलाल नहीं है। वह कहते हैं जो भगवान की इच्छा थी सो हुआ, मेरी आंखों का रोग तो गया नहीं किन्तु मेरे भव रोगों का निदान जरूर हो गया। स्वामी जी के बचपन का नाम गिरिधर था। बचपन में अपने बाबा पंडित सूर्यबली मिश्र के सान्निध्य में रहकर बालक गिरिधर ने रामचरित मानस, श्रीमद्भगवदगीता को खेल-खेल में कंठस्थ कर लिया। स्वामी जी को पठन-पाठन से रुचि थी सो आगे चलकर उन्होंने सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय (वाराणसी) से अपना शोध कार्य पूर्ण किया। पढ़ाई में सदैव सिरमौर रहने के चलते उन्हें पारितोषिक बतौर दर्जनों स्वर्ण पदकों से नवाजा जा चुका है।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा इनकी अनोखी प्रतिभा से प्रभावित होकर इन्हें संस्कृत विश्वविद्यालय में संस्कृत विभागाध्यक्ष पद पर नियुक्त कर दिया गया लेकिन गिरिधर के जीवन का उद्देश्य तो और ही था। 19 नवम्बर, 1983 को तपोमूर्ति श्री रामचरण दास जी महाराज फलाहारी से उन्होंने संन्यास की दीक्षा ली और आगे चलकर उन्होंने 1987 में तुलसी जयंती के दिन चित्रकूट में तुलसी पीठ की स्थापना की। बचपन और युवावस्था में शारीरिक न्यूनता ने उनके सहज जीवन में कदम-कदम पर विपदाएं-बाधाएं पैदा कीं लेकिन इससे वह निराश नहीं हुए। स्वामी जी ने हर विपदा को न केवल हंसते हुए सहन किया बल्कि इन कष्टों की अनुभूति ने उन्हें दिव्यांगों के लिए कुछ करने की प्रेरणा दी। दिव्यांगों के प्रति असीम करुणा भावना से ओतप्रोत उन्होंने संकल्प लिया कि अपनी शिक्षा के लिए जो कष्ट उन्हें सहने पड़े, वे अब किसी अन्य दिव्यांग विद्यार्थी को सहन नहीं करने पड़ें। दिव्यांगों की शिक्षा-दीक्षा के लिए स्वामीजी ने न केवल सपना देखा बल्कि पहले प्राथमिक पाठशाला फिर उच्चतर माध्यमिक विद्यालय और अब विश्वविद्यालय के रूप में उसे साकार कर दिखाया।
स्वामी जी ने बातचीत में बताया कि मानवता ही मेरा मंदिर है और मैं इसका एक पुजारी हूं। सच कहें तो यह दिव्यांग ही मेरे महेश्वर हैं और मैं इनका कृपाभिखारी हूं। जगदगुरू रामभद्राचार्य जी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से काफी प्रभावित हैं। स्वामीजी कहते हैं कि इस विश्वविद्यालय को केन्द्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा दिलाना ही मेरा मकसद है। यदि ऐसा हुआ तो मैं इसका नाम जगदगुरू रामभद्राचार्य दिव्यांग विश्वविद्यालय कर दूंगा। वर्ष 2001 में स्थापित जगदगुरू रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय विश्व का एकमात्र ऐसा विश्वविद्यालय है जो केवल दिव्यांगों के लिए है। इस विश्वविद्यालय में दिव्यांग बच्चे उच्च तालीम के साथ-साथ कला ही जीवन है, को मूलमंत्र मान चुके हैं। जगदगुरू रामभद्राचार्य विकलांग विश्वविद्यालय चित्रकूट (उत्तरप्रदेश) के छात्र-छात्राएं आज खेल और ललित कला के क्षेत्र में देश भर में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रहे हैं। इन दिव्यांग छात्र-छात्राओं में मूक-बधिरों की संख्या अधिक है। श्रवण शक्ति से क्षीण ये प्रतिभाएं अपनी अतीन्द्रिय से सब कुछ अपने चित्रों में रूपायित कर उन्हें मुखरित कर रही हैं। अस्थि दिव्यांग छात्रों के हाथ भले ही टेढ़े-मेढ़े और कमजोर हों लेकिन तूलिका पकड़ने, चित्रों और मुर्तियों को आकार देने में पूर्ण समर्थ हैं। कुछ छात्र-छात्राएं जिनके हाथ भी नहीं हैं वे अपने पैरों को तूलिका और लेखनी बनाकर जो चित्र या मूर्तियां गढ़ रहे हैं, वे अप्रतिम हैं।
कितने प्रज्ञाचक्षु बालक-बालिकाओं को यहां संगीत की शिक्षा लेते, विभिन्न वाद्ययंत्रों को बजाते, कम्प्यूटर चलाते देखा जा सकता है। इस विश्वविद्यालय का उद्देश्य विद्यार्थियों को मात्र साक्षर करना ही नहीं बल्कि उनमें जीवन संग्राम में जूझने के लिए हौसला पैदा करना भी है। यहां दिव्यांगों को रोजगारपरक पाठ्यक्रमों से भी जोड़ा जाता है ताकि पढ़ाई पूरी करने के बाद वह किसी पर निर्भर न रहें। यहां पढ़ने वाले सभी छात्रों के लिए कम्प्यूटर अनिवार्य है। इस पूरे गुरुकुल परिवार की एक और श्रद्धा केन्द्र हैं डा. गीता मिश्र, जो स्वामीजी की बड़ी बहन हैं। स्वामी रामभद्राचार्य के सपनों को साकार करने में उनका त्याग भी अवर्णनीय है। स्वामी जी की छत्रछाया में रहने वाले सैकड़ों बालक-बालिकाएं अनुसूचित जाति-जनजाति से सम्बन्ध रखते हैं तो कुछ मुसलिम भी हैं। जाति-पात के भेद से परे विकलांग देव की सेवा में लगे स्वामी रामभद्राचार्य कहते हैं भगवान की कोई जाति नहीं होती। विकलांग मेरे भगवान हैं तो इनमें जाति कैसे हो सकती है।
जगदगुरू रामभद्राचार्य जी प्रज्ञाचक्षु हैं और केवल अपनी स्मरण शक्ति के आधार पर ही सबकुछ याद रखते हैं। इनकी स्मरण शक्ति इतनी अद्भुत है की मात्र पांच साल की आयु में ही इन्होंने गीता के सम्पूर्ण 700 श्लोक और सात वर्ष की आयु में सम्पूर्ण रामचरितमानस कंठस्थ कर ली थी। यही नहीं बिना ब्रेल का उपयोग किये, इन्होंने पीएचडी तथा डीलिट तक की अपनी शिक्षा सम्पूर्ण की। स्वामी जी अब तक 152 पुस्तकें लिख चुके हैं। इन्हें साहित्य अकादमी, कविकुलरत्न, महामहोपाध्याय आदि जैसे उच्चकोटि के अनेक पुरस्कार और उपाधियों से नवाजा जा चुका है। अमेरिकी वैज्ञानिकों ने अपने शोध में रामभद्राचार्यजी की स्मरण शक्ति को सात कम्प्यूटरों के बराबर पाया है।
स्वामीजी के अग्रज और विश्वविद्यालय के फाइनेंशियल अधिकारी रमापति मिश्र बताते हैं कि हम लोगों का जन्म मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ। मां-बाप के पास इतना पैसा नहीं था कि हम कुछ लीक से हटकर करते। स्वामीजी की अदम्य इच्छाशक्ति और कड़ी मेहनत का ही प्रतिफल है यह विश्वविद्यालय। रिजर्व बैंक में प्रबंधक की नौकरी से सेवानिवृत्ति के बाद स्वामी जी के कहने पर मेरे मन में भी दिव्यांगों की सेवा का बोध हुआ। मैं इस विश्वविद्यालय से पिछले 11 साल से जुड़ा हुआ हूं। स्वामीजी की दिन-रात की अथक मेहनत से कभी-कभी मैं हैरान रह जाता हूं। सच कहें तो इन दिव्यांग बच्चों की परवरिश और इनके अध्ययन के लिए ही स्वामीजी देशभर में कथा सुनाते हैं। सच कहें स्वामीजी नर नहीं नारायण हैं। ऐसी विलक्षण तथा अद्वितीय प्रतिभा के धनी जगदगुरू रामभद्राचार्य जी को मेरा शत-शत नमन।





Thursday 3 November 2016

बिना हाथों खींची उम्मीदों की किरण


चित्रकूट में निखरी पानीपत हरियाणा की रुचि ग्रोवर की मेधा

 देश ही नहीं विदेशियों को भी भा रही रुचि की कलाकारी
10-11 साल की उम्र में ही जब बच्चे खेल-खेल में सपने देखना शुरू करते हैं, ऐसे समय में ही यदि उन पर वज्राघात हो जाए तो उनका भविष्य निःसंदेह अंधकारमय हो जाता है। 16 अप्रैल, 1982 को पानीपत (हरियाणा) में एंशी लाल ग्रोवर-अनिता ग्रोवर के घर एक बिटिया ने जन्म लिया। बचपन से ही शांत-सौम्य इस बेटी को क्या पता था कि 11 साल की उम्र में ही वह किसी हादसे का शिकार हो जाएगी, मां का साया उसके सर से उठ जाएगा और सारे अरमान चूर-चूर हो जाएंगे। जगत गुरु स्वामी भद्राचार्य विश्वविद्यालय चित्रकूट में अध्ययनरत लगभग डेढ़ हजार दिव्यांग छात्र-छात्राएं अपने अरमानों को पर लगाने की कोशिश में जुटे हैं। इन पर किसी न किसी रूप में कुदरत का कहर बरपा है लेकिन इनका हौसला देखने के बाद नहीं लगता कि यह अपनी जिन्दगी से निराश हैं। अलसुबह आँख खोलते ही दर्द की सांवली परछाइयां इन दिव्यांगों को कुछ कर गुजरने का हौसला देती हैं। इन सब में कुछ न कुछ नया करने का जुनून है लेकिन इनमें रुचि ग्रोवर सबसे अलग है। वह कला साधना में लीन पैरों से उम्मीदों की किरणें खींच रही है। उसके बनाए चित्र बताते हैं कि दिव्यांगता शरीर की पीड़ा हो सकती है, मन की कदाचित नहीं।
रुचि ग्रोवर चार सितम्बर, 1993 के उस भयावह हादसे को याद करते ही सहम सी जाती है। उस दिन एंटीना सही करते वक्त गिरे 22 हजार वोल्टेज के बिजली के तार ने उसके दोनों कान और हाथ ही नहीं छीने बल्कि उसकी मां तथा भाई को भी उससे जुदा कर दिया। उस हादसे ने रुचि की मुस्कान ही छीन ली। समय बदला लेकिन उसे सुकून महसूस नहीं हुआ। वह तन्हाइयों के किले में कैद हो गई। आखिरकार रुचि के पिता ने दूसरी शादी कर ली। बस फिर क्या रुचि के ख्यालों और जज्बातों ने उसे कुछ कर गुजरने के सपने दिखाए और वह तन्हाइयों के किले से बाहर निकल पड़ी। हाथों की जगह उसने पैरों को अपना सम्बल बनाया। वह कहती है कि वक्त और उम्र के साथ कुछ ख्वाब आते-जाते मेरी आँखों के रोशनदान में चुपके से झांक गये। जिन्दगी में कहने को बहुत से अपने हैं, मगर कोई अपना नहीं। रिश्ते रिसते घावों की तरह तकलीफदेह हैं। बस एक दर्द, एक तन्हाई है। और है एक बेमौत मरती-सी जिंदगी, जो मेरी साँसों के साथ-साथ अपना सफर तय कर रही है। अनचाहे-अनबोले।

मैंने स्वामी भद्राचार्य को अपना आदर्श मानते हुए संकल्प लिया कि अब मैं अपने पैरों से कुछ ऐसा करूंगी जिसे देश ही नहीं दुनिया सराहेगी। रुचि पिछले तीन साल से विकलांग विश्वविद्यालय चित्रकूट में अपनी कला साधना को मूर्तरूप देने में प्राणपण से जुटी है। उसके द्वारा बनाए चित्र आंखों को भाने के बाद कुछ बोलते से नजर आते हैं। रुचि अपने सारे कार्य स्वयं करती है, यहां तक कि वह पैरों से ही अपने मोबाइल को आपरेट करने के साथ ही देश-दुनिया को करीब से देख और समझ पा रही है। रुचि कला को ही अपनी अंतिम सांस और जीवन मानने लगी है। उसके चित्रों को भारत ही नहीं विदेशी कलाप्रेमियों द्वारा भी खूब सराहा जा रहा है। उसे जगह-जगह से नौकरी के आफर भी मिल रहे हैं लेकिन रुचि अपनी तालीम को मुकम्मल स्थान देना चाहती है। वह कला के क्षेत्र में एक ऐसी इबारत लिखना चाहती है जो हर निःशक्त की ताकत बने। रुचि का जुनून देखते हुए उम्मीद की जानी चाहिए कि यह बेटी अपने मकसद में न केवल सफल होगी बल्कि एक नया कीर्तिमान भी स्थापित करेगी।     

Wednesday 2 November 2016

निर्मला वैष्णव की अंधत्व को चुनौती


10 साल की उम्र में ही कंठस्थ कर लिए भगवत गीता के 18 अध्याय
45 मिनट में सुना देती हैं सात सौ श्लोक
सोते-जगते सिर्फ ईश आराधना ही है इनकी दिनचर्या
कुदरत की नाइंसाफी से 55 साल की निर्मला वैष्णव दुनिया-जहान को भले ही न देख सकती हों पर उनके हृदय की आंखें खुली हुई हैं। इनका आत्मविश्वास खुद को ही नहीं औरों को भी जीने की प्रेरणा दे रहा है। निर्मला बहन अपने जैसे ही ब्लाइंड बच्चों को शिक्षित कर उन्हें हौसला और नई उम्मीद दे रही हैं। मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। यही मूलमंत्र है तुलसी प्रज्ञाचक्षु एवं बधिर उच्चतर माध्यमिक विद्यालय चित्रकूट (म.प्र.) की प्राचार्य बहन निर्मला वैष्णव का। जगत गुरु स्वामी भद्राचार्य को देवतुल्य मानने वाली संगीत कोकिला बहन निर्मला को अब अपने अंधत्व पर कोई मलाल नहीं है।
28 मार्च, 1961 को जिला बाड़ोदर, राजकोट (गुजरात) में नाथालाल भाई और रणियात के घर जन्मीं निर्मला वैष्णव की छह माह में ही दोनों आंखों की ज्योति चली गई। मां-बाप ने अपनी बेटी की नेत्र-ज्योति को वापस लाने के अथक प्रयास किए लेकिन भगवान को शायद यह मंजूर नहीं था। बचपन में ही अपनी आंखें खो देने के बावजूद इस बेटी ने हार नहीं मानी। आठ साल बीत जाने के बाद निर्मला बहन के मन में कुछ विशेष करने का विचार आया। बाल मन का यह संकल्प बड़ा था लेकिन इस बेटी के हौसले भी कम बुलंद न थे। वह अपने संकल्प को हकीकत में बदलने के लिए अंध महिला विकास गृह नामक संस्था की शरण में गईं। दो साल की अथक मेहनत के बाद निर्मला ने न केवल संगीत के क्षेत्र में दक्षता हासिल की बल्कि इसी दरमियान उन्होंने भगवत गीता के सम्पूर्ण 18 अध्याय कंठस्थ कर लिए।
भगवत गीता कंठस्थ करने के बाद बहन निर्मला की ज्ञान पिपासा और बढ़ गई। अपनी मेधा को निखारने और ज्ञानचक्षु में इजाफा करने को उन्होंने जगत गुरु स्वामी भद्राचार्य की शरण ली। स्वामी भद्राचार्य की शरण में आने के बाद इस संगीत कोकिला के सपनों को मानों पर लग गये हों। उन्होंने चित्रकूट में आकर न केवल अपनी तालीम पूरी की बल्कि दिव्यांगों की दुनिया को खुशनुमा बनाने का संकल्प भी लिया। लगभग 18 साल में चित्रकूट की पावन धरा पर उन्होंने हनुमान बाहुक, राम रक्षा स्त्रोतः, नारायण कवच, पंचाक्षर स्त्रोत, ज्योतिर्लिंग स्त्रोत, अनसुइया स्तुति, रुद्राष्टक, कृण्णाष्टक, मधुराष्टक, यमुनाष्टक (गुजराती और संस्कृत), गायत्री चालीसा, हनुमान चालीसा, सुन्दरकाण्ड सहित दर्जनों पुस्तकों को अपने अंदर समाहित कर लिया है।
जगत गुरु स्वामी भद्राचार्य को अपना आदर्श मानते हुए बहन निर्मला वैष्णव कहती हैं कि वह साक्षात् देव हैं। स्वामी जी इस धरा पर मनुष्य के रूप में लीला करने आए हैं। वह नारायण के रूप में नर लीला कर रहे हैं। बहन निर्मला कहती हैं कि दिव्यांगों के लिए जो टीस और पीड़ा स्वामी जी के अंतःकरण में है, वैसी शायद ही किसी के जेहन में हो। संगीत कोकिला निर्मला बहन की दिनचर्या की शुरुआत ईश वंदना से ही होती है। वह सुबह 9.30 से अपराह्न चार बजे तक तुलसी प्रज्ञाचक्षु एवं बधिर उच्चतर माध्यमिक विद्यालय चित्रकूट (म.प्र.) में अध्ययनरत सवा दो सौ बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के साथ शेष समय को ईश आराधना को ही समर्पित कर देती हैं।
वह प्रतिदिन एक दर्जन से अधिक धार्मिक पुस्तकों का सस्वर पाठ करती हैं। निर्मला जी संगीत में पारंगत होने के साथ ही जहां 45 मिनट में सात सौ श्लोक सुना देती हैं वहीं सिर्फ 25 मिनट में सुन्दरकाण्ड का पाठ करते उन्हें देखा और सुना जा सकता है। निर्मला बहन 1978 से जगत गुरु स्वामी भद्राचार्य की शरण में रहते हुए अब तक देशभर में सैकड़ों जगह अपनी संगीत की सुरलहरियों से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर चुकी हैं। आज निर्मला बहन किसी पर आश्रित नहीं हैं। वह कहती हैं कि चित्रकूट मेरे लिए किसी जन्नत से कम नहीं है। जगत गुरु स्वामी भद्राचार्य ने दिव्यांगों के लिए जो अलख जगाई है वह अतुलनीय है। वह सही मायने में दिव्यांगों के मसीहा हैं। निर्मला बहन कहती हैं कि हम अब चित्रकूट की धरा पर ही जीना और मरना चाहेंगे।