Wednesday 25 July 2018

भारतीय उम्मीदों की किरण नीरज और हिमा दास




एशियाड ही नहीं ओलम्पिक के भी पदक दावेदार
 श्रीप्रकाश शुक्ला                                                   
इंडोनेशिया में होने वाले एशियाई खेलों की उलटी गिनती शुरू हो चुकी है। भारतीय उम्मीदों का दिया भी अनायास ही सही टिमटिमाने लगा है। खिलाड़ी और खेल महासंघ भारतीय खेलप्रेमियों को नायाब प्रदर्शन की सौगात देने को जहां प्रतिबद्ध हैं वहीं पिछले कुछ दिनों में हमारे दो खिलाड़ियों ने विश्व एथलेटिक मंच पर अपने करिश्माई प्रदर्शन से सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। यह दो खिलाड़ी हैं असम की नई उड़नपरी हिमा दास और पानीपत (हरियाणा) का सदाबहार भालाफेंक खिलाड़ी नीरज चोपड़ा। यह दोनों एथलीट न केवल प्रतिभाशाली हैं बल्कि भारतीय उम्मीदों के चमकते सितारे भी हैं। एथलेटिक्स की बात करें तो भारत ओलम्पिक खेलों में 100 साल से भी अधिक समय से सहभागिता कर रहा है लेकिन आज तक इस विधा में उसे कोई पदक नहीं मिला है। हिमा और नीरज ने जूनियर स्तर पर जो कमाल दिखाया है, उससे लगने लगा है कि देर-सबेर ये दोनों जांबाज एथलेटिक्स की रीती झोली में पदकों की खुशफहमी डाल सकते हैं। ओलम्पिक खेल अभी दूर हैं ऐसे में इन दोनों ही खिलाड़ी को इंडोनेशिया में होने जा रहे एशियाई खेलों में पदक का प्रमुख दावेदार माना जा सकता है।   
देशभर में धींग एक्सप्रेस के नाम से मशहूर हो चुकी हिमा दास ने फिनलैंड के टेम्पेरे में वर्ल्ड अंडर-20 एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में 400 मीटर दौड़ में जो स्वर्णिम सफलता हासिल की है, उसे संयोग नहीं कहा जा सकता। इसके लिए इस भारतीय बेटी ने अथक परिश्रम किया है। फिनलैंड में हिमा की हिमालयीन सफलता के बाद राष्ट्रगान की अनुगूंज के बीच उसकी आंखों से बहे खुशी के आंसू उद्दात राष्ट्रप्रेम का सूचक है। हिमा की इस सफलता के निहितार्थ भी हैं। जिस देश में खेल-संस्कृति का नितांत अभाव हो वहां की बेटी का दुनिया जीतना छोटी बात नहीं हो सकती। अभावों की तपिश में तपकर कुंदन बनी हिमा दास हों या नीरज चोपड़ा, इनकी कामयाबी इसी बात का संकेत है कि हमारे देश में प्रतिभाओं की कमी नहीं है। हिमा और नीरज की चर्चा देश-दुनिया में होना सुकून की बात है। खुशी के इस अवसर पर हर भारतीय को इन खिलाड़ियों के श्रमसाध्य प्रयासों और उन विषम परिस्थितियों को भी याद करना चाहिए, जिससे गुजरकर इन दोनों ने यह मुकाम हासिल किया है। हिमा और नीरज महिला और पुरुष वर्ग के एथलीटों में विश्व स्पर्धा में सुनहरी सफलता हासिल करने वाले पहले भारतीय खिलाड़ी हैं। हिमा और नीरज से पहले भारतीय खेलप्रेमियों को चौथे-पांचवें स्थान में पहुंचे खिलाड़ियों का ही गुणगान करने का सौभाग्य मिला था।
धान के खेतों में दौड़ लगाकर फिनलैंड तक सुनहरा सफर हासिल करने वाली हिमा की कामयाबी सही मायने में किसी बॉयोपिक फिल्म सरीखी है। एक संयुक्त किसान परिवार में जन्मी हिमा की सफलता मुश्किलों के रास्तों से होकर गुजरती है। एक लड़की होकर लड़कों के बीच खेलने वाली यह जांबाज कम उम्र में ही सब कुछ देख चुकी है। भारत में खेलों का रास्ता काफी कंटीला है, बेटियों के लिए तो और भी अधिक। असम के नौगांव जिले के कांदुलीमारी गांव में जन्मी हिमा में बचपन से ही खिलाड़ी बनने के गुण थे। पिता रंजीत दास ने इन गुणों को समझा और उसे प्रोत्साहन भी दिया। हिमा धान के खेतों में काम करती और मौका मिलने पर खेलने भी जाती। मगर दिक्कत यह थी एक लड़की किसके साथ खेले, कौन-सा खेल खेले। वहां तो कोई स्टेडियम भी नहीं था और न ही दौड़ने का ट्रैक। वह धान के खेतों में दौड़ती थी। मगर उसके गांव का इलाका ऐसा था कि बरसात के दो-तीन महीने खेतों में पानी भर जाता था। फिर वह कहां दौड़े? कभी-कभी तो वह सड़क पर दौड़ती कारों के पीछे ही दौड़ पड़ती थी। कई मौके ऐसे आए कि उसने तेज गति की कार तक को पीछे छोड़ दिया। हिमा को न कोई सिखाने वाला था और न उसके साथ खेलने वाला।
आखिरकार हिमा ने सोचा क्यों न फुटबाल खेली जाए। मगर उसे लड़के खेलाने को तैयार नहीं थे। महिला फुटबालरों की कोई टीम नहीं थी। एक बार उसकी फुटबाल टीम के लड़कों के साथ खूब लड़ाई भी हुई। लड़के कहते- इस लड़की को नहीं खेलाएंगे। मगर हिमा के हृदय का खिलाड़ी हमेशा उफान मारता रहता। उसने जब फुटबाल टीम में खेलना शुरू किया तो दनादन गोल दागे। फिर तो वह फुटबाल टीम का हिस्सा ही बन गई। वह आसपास के जिलों में फुटबाल खेलने जाती। जीतकर आती तो जो दो-चार सौ रुपये मिलते, मां के हाथ पर रख देती। हिमा की मां जोनाली दास इस बात को बड़े गर्व से बताते हुए कहती हैं कि जब उसे पैसे की जरूरत होती तो वह सिर्फ पिता से मांगती। उसके घर वालों को मलाल इस बात का है कि जब उसे फिनलैंड में मेडल दिया गया तो लाइट न होने से उस कार्यक्रम को नहीं देख पाये।
दरअसल, हिमा के जीवन में टर्निंग प्वाइंट तब आया जब वह कोच निपुण दास की नजर में आई। जनवरी 2017 में हिमा गुवाहाटी में एक प्रशिक्षण शिविर में हिस्सा लेने आई थी। निपुण दास ने ट्रैक पर दौड़ते हुए हिमा को देखा तो उन्हें लगा कि यह तो लम्बी रेस की खिलाड़ी है। इसके बाद निपुण दास ने उसे ट्रैक पर निपुण बनाने का संकल्प लिया। वे उसके गांव पहुंचे और माता-पिता से कहा कि उसे बेहतर ट्रेनिंग के लिये गुवाहाटी भेजें। माता-पिता बेटी को आगे बढ़ते तो देखना चाहते थे मगर उनकी ऐसी स्थिति नहीं थी कि वे हिमा का गुवाहाटी में रहने का खर्चा उठा सकें। निपुण दास ने कहा-आप इसे बाहर भेजिए, खर्चा मैं उठाऊंगा। कहते हैं कि एक जौहरी ही हीरे की पहचान कर सकता है, निपुण दास की निपुणता और हिमा की मेहनत से ही भारत को एक नई उड़नपरी मिल सकी।
फिनलैंड में सम्पन्न हुई अंतरराष्ट्रीय ट्रैक एण्ड फील्ड चैम्पियनशिप की चार सौ मीटर दौड़ के मुकाबले में 35 सेकेण्ड तक हिमा शीर्ष तीन धावकों में भी नहीं थी। आखिरी 100 मीटर में चौथे स्थान पर चल रही हिमा की दौड़ को देखकर कोच निपुणदास ने अंदाजा लगा लिया कि वह आज मेडल लेकर लौटेगी। उन्हें पता था कि वह पहले तीन सौ मीटर में धीमी रहती है और फिर आखिरी सौ मीटर में पूरी जान लगा देती है। दरअसल, अंतरराष्ट्रीय प्रशिक्षण के अभाव में हिमा ट्रैक के कर्व पर अच्छी तरह नहीं दौड़ पाती, मगर जब आखिरी 100 मीटर में ट्रैक सीधा हो जाता है तो पिछली कसर पूरी करते हुए सबसे आगे निकल जाती है। हिमा आज लाखों अभावग्रस्त उदीयमान खिलाड़ियों की प्रेरणापुंज बन गई है। उम्मीद करनी चाहिए कि हिमा पहले इंडोनेशिया में होने वाले एशियाई खेलों, फिर टोक्यो ओलम्पिक में भारत के लिये कुछ खास जरूर करेगी।
भारत के स्टार भाला फेंक खिलाड़ी नीरज चोपड़ा की बात करें तो इस 20 वर्षीय खिलाड़ी ने भी कम उम्र में ही अनेकों झंझावातों का सामना किया है। सोतेविले एथलेटिक्स मीट (फ्रांस) में नीरज चोपड़ा ने 85.17 मीटर की दूरी तक भाला फेंक कर स्वर्णिम सफलता हासिल की। इस स्पर्धा में चोपड़ा ने 2012 लंदन ओलम्पिक के स्वर्ण पदक विजेता केशोर्न वालकोट को भी पीछे छोड़ा। त्रिनिदाद एण्ड टोबैगो के वालकोट 78.26 मीटर के प्रयास के साथ पांचवें स्थान पर रहे। एंड्रियन मारडेयर ने 81.48 मीटर के साथ रजत तो लिथुआनिया के एडिस मातुसेविसियस ने 79.31 मीटर की दूरी के साथ कांस्य पदक अपने नाम किया। नीरज चोपड़ा की जहां तक बात है पानीपत के 20 साल के इस जांबाज ने 2016 में उस समय सुर्खियां बटोरी थीं जब उन्होंने विश्व जूनियर चैम्पियनशिप में 86.48 मीटर के विश्व रिकॉर्ड के साथ स्वर्ण पदक जीता था। नीरज ने इस साल गोल्ड कोस्ट राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण पदक जीता और फिर दोहा डाइमंड लीग में चौथे स्थान पर रहने के बावजूद 87.43 मीटर के प्रयास के साथ नया राष्ट्रीय रिकॉर्ड बनाया। हिमा दास और नीरज चोपड़ा का अगला बड़ा इम्तिहान इंडोनेशिया में होने वाले एशियन गेम्स हैं, जहां इन दोनों को गोल्ड मेडल का प्रमुख दावेदार माना जा रहा है।



Friday 13 July 2018

बहुत जिद्दी और जुनूनी है बेटी हिमाः रंजीत दास


हिमा दास की हिमालयीन सफलता
वह किया जो मिल्खा सिंह और पीटी ऊषा भी नहीं कर पाए
श्रीप्रकाश शुक्ला
सच कहूं तो मैं एक सपना जी रही हूं। यह शब्द हैं हिमा दास के जिनके जरिए वह असम के एक छोटे से गांव में फुटबॉलर से शुरू होकर एथलेटिक्स में पहली भारतीय महिला विश्व चैम्पियन बनने के अपने सफर को बयां करना चाहती है। नौगांव जिले के कांदुलिमारी गांव के किसान परिवार में जन्मी 18 वर्षीय हिमा 12 जुलाई, गुरुवार को फिनलैंड में आईएएएफ विश्व अंडर-20 एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में स्वर्ण पदक जीतकर देशवासियों की आंख का तारा बन गई।
हिमा दास महिला और पुरुष दोनों वर्गों में ट्रैक स्पर्धाओं में स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली भारतीय एथलीट है। हिमा अब नीरज चोपड़ा के क्लब में शामिल हो गई है, जिन्होंने 2016 में पोलैंड में आईएएएफ विश्व अंडर-20 चैम्पियनशिप में भाला फेंक स्पर्धा में स्वर्ण पदक जीता था। हिमा के पिता रंजीत दास के पास दो बीघा जमीन है और उनकी मां जुनाली घरेलू महिला हैं। जमीन का यह छोटा सा टुकड़ा ही छह सदस्यों के परिवार की आजीविका का साधन है।
बकौल हिमा मैं अपने परिवार की स्थिति को जानती हूं कि हम कैसे संघर्ष करते हैं। लेकिन ईश्वर के पास सभी के लिए कुछ होता है। मैं सकारात्मक सोच के साथ जिंदगी में आगे के बारे में सोचती हूं। मैं अपने माता-पिता और देश के लिए कुछ करना चाहती हूं। मैं अब विश्व जूनियर चैम्पियन हूं जोकि मेरे लिए सपने की तरह है।
हिमा चार भाई-बहनों में सबसे बड़ी हैं। उनकी दो छोटी बहनें और एक भाई है। एक छोटी बहन दसवीं कक्षा में पढ़ती है जबकि जुड़वां भाई और बहन तीसरी कक्षा में हैं। हिमा खुद अपने गांव से एक किलोमीटर दूर स्थित ढींग के एक कालेज में बारहवीं की छात्रा हैं। पिता रंजीत कहते हैं कि हिमा बहुत जिद्दी है। अगर वह कुछ ठान लेती है तो फिर किसी की नहीं सुनती। वह दमदार लड़की है इसीलिए उसने कुछ खास हासिल किया है। मुझे उम्मीद थी कि वह देश के लिए कुछ विशेष करेगी और उसने कर दिखाया।
हिमा के चचेरे भाई जॉय दास कहते हैं कि शारीरिक तौर पर भी वह काफी मजबूत है। वह हमारी तरह फुटबॉल पर किक मारती है। मैंने उसे लड़कों के साथ फुटबॉल नहीं खेलने के लिए कहा लेकिन उसने हमारी एक नहीं सुनी। उसके माता-पिता की जिंदगी संघर्षों से भरी है। हम लोग बहुत खुश हैं कि उसने खेलों को अपनाया और अच्छा कर रही है। हमारा सपना है कि हिमा एशियाई खेलों और ओलम्पिक खेलों में पदक जीते।
हिमा अपने प्रदर्शन के बारे में कहती है कि मैं पदक के बारे में सोचकर ट्रैक पर नहीं उतरी थी। मैं केवल तेज दौड़ने के बारे में सोच रही थी और मुझे लगता है कि इसी वजह से मैं पदक जीतने में सफल रही। हिमा का कहना है कि मैंने अभी कोई लक्ष्य तय नहीं किया है जैसे कि एशियाई या ओलम्पिक खेलों में पदक जीतना। मैं अभी केवल इससे खुश हूं कि मैंने कुछ विशेष हासिल किया है और अपने देश का गौरव बढ़ाया है।
भारत की हिमा दास ने 12 जुलाई, 2018 को फिनलैंड के टेम्पेरे में आईएएएफ वर्ल्ड अंडर-20 चैम्पियनशिप की महिलाओं की 400 मीटर स्पर्धा में स्वर्ण जीतकर इतिहास रचा। हिमा ने राटिना स्टेडियम में खेले गए फाइनल में 51.46 सेकेंड का समय निकालते हुए गोल्ड पर कब्जा किया। इसी के साथ वह इस चैम्पियनशिप में सभी आयु वर्गों में स्वर्ण जीतने वाली भारत की पहली महिला बनी। देश की उभरती हुई स्प्रिंटर हिमा दास ने गोल्ड कोस्ट ऑस्ट्रेलिया में शानदार प्रदर्शन करते हुए 400 मीटर रेस के फाइनल में छठा स्थान हासिल किया था। जिसके बाद हिमा अखबारों की सुर्खियां बनी और थोड़ी बहुत लोकप्रिय भी हुई लेकिन क्रिकेट के दीवाने इस देश में जैसे ही आईपीएल शुरू हुआ लोग अपने कॉमनवेल्थ के एथलीटों को भूलते गए।
हिमा दास ने इस उपलब्धि के साथ ही उस सूखे को भी खत्म कर दिया जो भारत के दिग्गज और फ्लाइंग सिक्ख मिल्खा सिंह और उड़न परी पीटी ऊषा भी नहीं कर पाई थीं। हिमा दास से पहले भारत की कोई महिला या पुरुष खिलाड़ी जूनियर या सीनियर किसी भी स्तर पर विश्व चैम्पियनशिप में गोल्ड मेडल नहीं जीत सका था। ग्लोबल स्तर पर हिमा दास से पहले सबसे अच्छा प्रदर्शन मिल्खा सिंह, पीटी ऊषा और लांगजम्पर अंजू बाबी जार्ज का रहा था।
पीटी ऊषा ने जहां 1984 ओलम्पिक में 400 मीटर हर्डल रेस में चौथा स्थान हासिल किया था वहीं मिल्खा सिंह ने 1960 रोम ओलम्पिक में 400 मीटर रेस में चौथे स्थान पर रहे थे। इन दोनों के अलावा जेवलिन थ्रोवर नीरज चोपड़ा ने 2016 में अंडर 20 वर्ल्ड चैम्पियनशिप में गोल्ड जीता था वहीं सीमा पूनिया ने साल 2002 में इसी चैम्पियनशिप में ब्रांज और साल 2014 में नवजीत कौर ने भी ब्रांज मेडल जीता था। लांगजम्पर अंजू बाबी जार्ज ने 2004 में विश्व एथलेटिक्स स्पर्धा में कांस्य पदक जीता था।  इसके अलावा कोई भी खिलाड़ी ट्रैक एण्ड फील्ड स्पर्धा में मेडल के करीब नहीं पहुंचा है।
नौ जनवरी, 2000 को असम के नौगांव जिले के कांदुलिमारी गांव में पैदा हुईं हिमा दास 400 मीटर में सबसे तेज दौड़ने वाली भारतीय महिला एथलीट हैं। हिमा ने गोल्ड कोस्ट में राष्ट्रीय रिकॉर्ड को तोड़ते हुए 51.32 सेकेण्ड में अपनी रेस पूरी की थी। वह गोल्ड मेडल जीतने वाली एमांट्ल मोंटशो से सिर्फ 1.17 सेकेण्ड ही पीछे रही थी। 21वीं सदी में पैदा हुई 18 वर्षीय धावक हिमा दास ने घरेलू स्तर पर हुए फेडरेशन कप में शानदार प्रदर्शन करके गोल्ड कोस्ट का टिकट कटवाया था। हिमा गोल्ड कोस्ट में भारत के लिए चार गुणा चार सौ मीटर रेस में भी दौड़ी थीं जहां उन्होंने 33.61 सेकेण्ड का समय निकाला था। हिमा दास के पिता मुख्य रूप से धान की खेती करते हैं। उनके क्षेत्र में खेलों को ज्यादा तरजीह नहीं दी जाती, इसके अलावा उधर ट्रेनिंग की भी व्यवस्था नहीं थी। हिमा दास अपने स्कूल और खेतों में शौकिया तौर पर फुटबॉल खेला करती थीं। बाद में वह लोकल क्लब के लिए खेलने लगी जहां उन्हें पूरी उम्मीद थी कि वह भविष्य में जरूर भारत के लिए खेलेंगी। साल 2016 में उनके टीचर ने उन्हें समझाया कि फुटबॉल में करियर बनाना कठिन है इसलिए उन्हें किसी व्यक्तिगत इवेंट में ट्राई करना चाहिये। उसके कुछ ही महीने बाद हिमा ने साधारण खेत में ही स्प्रिंट की ट्रेनिंग शुरू कर दी और गुहावाटी में आयोजित राष्ट्रीय खेलों में 100 मीटर रेस में भाग लिया। हिमा को इस इवेंट में कांस्य पदक मिला लेकिन इसके बाद उन्हें अपने करियर में सही दिशा मिल गई।
हिमा जब जूनियर स्तर पर असम के लिए नेशनल चैम्पियनशिप में भाग लेने कोयम्बटूर गई थीं तब ये बात सरकार को भी नहीं पता थी लेकिन हिमा ने फाइनल में जगह बनाकर सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। हालांकि हिमा दास मेडल नहीं जीत पाने की वजह से निराशा में ये खेल छोड़ना चाहती थीं लेकिन उनके कोच निपोन दास ने उनके परिवार के अलावा हिमा को खेलने के लिए राजी किया। जिसके बाद हिमा के कोच उसे गुवाहाटी ले आये। निपोन दास ने हिमा को ट्रेनिंग देनी शुरू की और वह बहुत जल्द ही बेहतरीन स्पीड पकड़ने में सफल हो गई। आज वह अण्डर-20 आयु वर्ग में विश्व चैम्पियन एथलीट है।

Wednesday 27 June 2018

पिछले एशियाई खेलों को पीछे छोड़ेगा भारत


रौ में हैं हमारे निशानेबाज, शटलर, पहलवान, मुक्केबाज और एथलीट
श्रीप्रकाश शुक्ला
अठारहवें एशियाई खेलों की दुंदुभी बज चुकी है। हर खिलाड़ी अपना और अपने देश का गौरव बढ़ाने को कौशल निखार रहा है। 18 अगस्त से दो सितम्बर तक इंडोनेशिया में होने वाले एशियाई खेलों को लेकर भारतीय ओलम्पिक संघ भी खिलाड़ियों की चयन प्रक्रिया को अंतिम रूप देने की जद्दोजहद में जुटा हुआ है। हर बड़ी खेल प्रतियोगिता से पूर्व भारतीय खिलाड़ियों के प्रदर्शन को लेकर खेलप्रेमियों में उत्सुकता पैदा हो जाती है। खेलों से जुड़े महासंघ आशा-अपेक्षा के भंवरजाल में फंसे यह कहने की स्थिति में नहीं होते कि भारत किस खेल में कितने पदक जीतेगा। खैर, इंडोनेशिया में होने जा रहे एशियाई खेलों के 18वें संस्करण में पदकों की बात करें तो कई खिलाड़ियों के चोटिल होने के बावजूद भारत काफी अच्छी स्थिति में नजर आ रहा है। भारत के पास कई अच्छे खिलाड़ी हैं जोकि मादरेवतन का मान बढ़ा सकते हैं। हमारे निशानेबाज, शटलर, एथलीट, मुक्केबाज और पहलवान जिस रौ में दिख रहे हैं, उससे उम्मीद है कि इस बार भारत का प्रदर्शन पिछले एशियाई खेलों से बेहतर होगा।
एशियाई खेलों का 18वां संस्करण शुरू होने में लगभग दो माह का समय बचा है। देश के खेलप्रेमियों को यह यक्ष-प्रश्न सता रहा है कि क्या हम चार वर्ष पहले प्राप्त पदकों की संख्या में सुधार कर पाएंगे। भारतीय ओलम्पिक संघ ने बेशक अभी तक पदकों का दावा नहीं किया हो पर मुझे भरोसा है कि इस बार भारतीय खिलाड़ी पिछले 17 एशियाई खेलों से बेहतर प्रदर्शन करेंगे। देखा जाए तो खेलों की दुनिया में साल दर साल जहां अधिकांश देशों का प्रदर्शन बेहतर हो रहा है वहीं भारतीय खिलाड़ियों का हुनर भी निखरा है। 1990 के पेइचिंग एशियाड में हम जहां 11वें स्थान पर थे वहीं उसके बाद भारत शीर्ष दस देशों में शामिल रहा। पिछली बार हम आठवें नम्बर पर थे। हमारा पड़ोसी चीन एशिया ही नहीं, विश्व की खेल महाशक्ति है। वह ओलम्पिक की पदक तालिका में अव्वल आने की होड़ करता है। अमेरिका को कड़ी चुनौती देता है लिहाजा उससे तुलना करना बेमानी है। भारत ही क्या एशियाई खेलों में तो कोई देश उसके आसपास भी नहीं फटक पाता।
इंडोनेशिया जाने से पूर्व भारतीय खिलाड़ियों की परख करें तो कई खिलाड़ियों का चोटिल होना चिन्ता की बात तो है लेकिन उम्मीद की जानी चाहिए कि एशियाड के 18वें संस्करण में हमारे कई गुमनाम खिलाड़ी इस बार करिश्मा करते दिखेंगे। इस बार भारतीय दल 29 प्रतियोगिताओं में शिरकत करेगा लेकिन उम्मीद घूम-फिर कर निशानेबाजी, कुश्ती, एथलेटिक्स, मुक्केबाजी, बैडमिंटन और तीरंदाजी पर ही सिमट जाती है। टीम मुकाबलों में कबड्डी का स्वर्ण लगातार आठवीं बार जीतने की सम्भावना प्रबल है तो हॉकी और वॉलीबाल में भी भारत से तमगे की उम्मीद की जानी चाहिए। बाकी खेलों में जो भी हासिल होगा उसे लॉटरी ही कहा जाएगा। भारत में खेलों के संचालन की जिम्मेदारी भारतीय ओलम्पिक संघ पर है और उसका कारोबार कैसे चलता है, यह बात अब किसी से छिपी नहीं है। देखा जाए तो अन्य खेल संगठनों की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। खेल संघों की कारगुजारियों का नतीजा खिलाड़ियों को भुगतना पड़ता है और अंतरराष्ट्रीय खेल मंचों पर भारत की किरकिरी होती है।
हमारे देश के अधिकांश खेल संगठनों पर नेताओं और नौकरशाहों का कब्जा है। अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताएं उनके सैर-सपाटे का जरिया हैं। खिलाड़ियों को अंतिम क्षण तक पता नहीं होता कि उनका चयन होगा भी या नहीं जबकि पदाधिकारियों का दौरा काफी पहले से तय हो जाता है। देखा जाए तो हर बड़ी खेल प्रतियोगिता के समय भारत में अनुभव अर्जित करने की आड़ में मौज-मस्ती का विचित्र खेल चलता है। ओलम्पिक, एशियाड, राष्ट्रमंडल खेलों या किसी भी अन्य अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में एथलीट भेजने का रिश्ता सिर्फ खर्चे से जुड़ा नहीं होता। बाहर जाने वाली हर टीम और खिलाड़ी के साथ राष्ट्र की प्रतिष्ठा भी जुड़ी होती है। एक भारी-भरकम टीम जब विदेश से खाली हाथ लौटती है, तब निश्चय ही देश के सम्मान को ठेस पहुंचती है।
खैर, इंडोनेशिया में 16 दिनों तक होने वाले एशियाड के 18वें संस्करण में 45 देशों के लगभग 10 हजार एथलीट अपने पौरुष का इम्तिहान देंगे। भारत भी इन खेलों में अपना अब तक का सबसे बड़ा दल भेजने की तैयारी में है। हर बार की तरह इस बार भी भारत अपने शीर्ष खिलाड़ियों के प्रदर्शन पर ही निर्भर है। कोई भी खेल संघ ऐसे अवसर पर नए खिलाड़ियों पर जोखिम नहीं लेना चाहता। कई खेलों में स्थिति तो ऐसी है कि कोई बड़ा खिलाड़ी चोटिल हो जाए तो उसकी जगह लेने के लिए हमारे पास दूसरा खिलाड़ी नहीं है। इसकी मुख्य वजह खिलाड़ियों का अनुभवहीन होना माना जा सकता है। देखा जाए तो पिछले एक दशक में कई राष्ट्रीय कीर्तिमान बने हैं लेकिन अंतरराष्ट्रीय मानदंडों पर उनकी अहमियत दोयमदर्जे की ही नजर आई है। पहले यह बात चिन्ता का विषय नहीं थी लेकिन खेलों में भारत की सुधरती स्थिति को देखते हुए अब इस ओर ध्यान दिया जाने लगा है। खेलों में हमारी सबसे कमजोर कड़ी तैराकी और एथलेटिक्स है, जिनमें सर्वाधिक पदक दांव पर होते हैं। एशियाई स्तर पर हमारे एथलीट कुछ पदक जीतकर जरूर देश का नाम रोशन करते हैं लेकिन तैराकी में प्रायः हम रीते हाथ ही रहते हैं।
एशियाई खेलों का जनक भारत कभी भी इन खेलों में शीर्ष पर नहीं रहा है। एशियाई खेलों के आगाज की जहां तक बात है पहले एशियाई खेल चार से 11 मार्च 1951 के बीच नई दिल्ली में हुए थे। ये खेल पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार 1950 में ही होने थे मगर तैयारियों में देरी के चलते इन्हें 1951 तक के लिए टाल दिया गया था। एशियाई खेलों से पहले इन खेलों को फार ईस्टर्न गेम्स के नाम से जाना जाता था। पहली बार मनीला ने 1913 में इन खेलों का आयोजन किया था। भारत इन खेलों का दो बार आयोजन कर चुका है। भारत में दूसरी बार 1982 में इन खेलों का आयोजन हुआ था।
एशियाई खेलों में भारत के प्रदर्शन की बात करें तो 17वें एशियाई खेलों में हमने 57 पदकों के साथ पदक तालिका में आठवां स्थान हासिल किया था। भारत के 57 पदकों में 11 स्वर्ण, 10 रजत तथा 36 कांस्य पदक शामिल थे। चीन के ग्वांग्झू में 2010 में हुए सोलहवें एशियाई खेलों में भारत ने 65 पदक जीते थे जिसमें 14 स्वर्ण, 17 रजत और 34 कांस्य पदक शामिल थे।  भारत बेशक हर क्षेत्र में विकास की नई पटकथा लिख रहा हो लेकिन खेलों में हमारी स्थिति कतई पीठ ठोकने लायक नहीं है।
चीन, कोरिया, जापान के खेल सिस्टम से हम आज तक कुछ भी नहीं सीखे हैं। पिछले एशियाई खेलों में पदकों की संख्या कम होने के बावजूद भारत ने कई ऐसे मुकाबले जीते थे, जो इतिहास बन गए। बात चाहे पुरुष हॉकी के फाइनल में पाकिस्तान को रौंदकर सोना हासिल करने की हो या फिर बॉक्सिंग में एमसी मैरीकॉम की स्वर्णिम सफलता की, भारत को पिछले एशियाई खेलों में जश्न के कई मौके मिले थे। पिस्टल निशानेबाज जीतू राय और फ्रीस्टाइल पहलवान योगेश्वर दत्त पिछले एशियाई खेलों के नायकों में शामिल रहे। भारत ने एथलेटिक्स और कबड्डी में दो-दो स्वर्ण पदक जीते जबकि तीरंदाजी, मुक्केबाजी, हाकी, निशानेबाजी, स्क्वैश, टेनिस और कुश्ती में एक-एक स्वर्ण पदक हमारे हाथ लगा था। पिछले एशियाई खेलों की ही तरह इस बार भी हमारे खिलाड़ी निशानेबाजी, कुश्ती, मुक्केबाजी, कबड्डी, हाकी, भारोत्तोलन में स्वर्णिम सफलता के हकदार होंगे। देखा जाए तो 17वें एशियाई खेलों में भारत ग्लास्गो में राष्ट्रमंडल खेलों में अच्छा प्रदर्शन करने के बाद गया था बावजूद इसके राष्ट्रमंडल खेलों और एशियाई खेलों के स्तर में अंतर बना रहा। इस बार भी हमारे खिलाड़ियों ने आस्ट्रेलिया में हुए राष्ट्रमंडल खेलों में अच्छा प्रदर्शन किया है लेकिन इंडोनेशिया में उस प्रदर्शन को दोहरा पाना हमारे खिलाड़ियों के लिए आसान बात नहीं होगी।
भारत ने ग्वांग्झू में एथलेटिक्स में पांच स्वर्ण, दो रजत और पांच कांस्य पदक जीते थे जबकि 17वें एशियाई खेलों में हमारे एथलीट दो स्वर्ण, चार रजत और सात कांस्य पदक सहित 13 पदक ही जीत सके थे। पिछले एशियाई खेलों में सीमा पूनिया ने महिला चक्का फेंक में स्वर्ण पदक जीता था तो महिला चार गुणा 400 मीटर रिले टीम भी भारत के लिए स्वर्ण जीतने में सफल रही। एथलेटिक्स की जहां तक बात है इस बार भाला फेंक खिलाड़ी नीरज चोपड़ा, सीमा पूनिया, मंजू बाला, विकास गौड़ा, अरपिंदर सिंह, खुशबीर कौर, तेजस्विन शंकर, रंजीत माहेश्वरी से हम पदक की उम्मीद कर सकते हैं। कबड्डी की जहां तक बात है इस बार भी भारतीय पुरुष और महिला टीमों को शायद ही कोई स्वर्णिम सफलता हासिल करने से रोक पाए। पिछले एशियाई खेलों में भारत ने वुशू में दो कांस्य पदक जीते थे तो पुरुष तैराकी में संदीप सेजवाल ने 50 मीटर ब्रेस्टस्ट्रोक में कांस्य पदक हासिल किया था। भारत ने महिला सेलिंग की 29-ईआर क्लास में पहली बार कांस्य पदक जीता था। इस बार टेनिस से पदक की उम्मीदें कम हैं क्योंकि सानिया मिर्जा इन खेलों में शिरकत नहीं कर रही हैं।
इंडोनेशिया में होने वाले अठारहवें एशियाई खेलों में हमेशा की तरह इस बार भी हम अपने शूटरों से पदक की उम्मीद कर सकते हैं। देखा जाए तो पिछले कुछ समय से हमारे शीर्ष निशानेबाज लक्ष्य से चूके हैं लेकिन इंडोनेशिया में पंजाब की पिस्टल निशानेबाज हीना सिद्धू, मनु भाकर, जीतू राय, विजय कुमार से हम स्वर्णिम सफलता की उम्मीद कर सकते हैं। भारतीय निशानेबाज विजय कुमार एशियाई खेलों में अपने पदक का रंग बदलने के लिए पूरी तरह तैयार हैं। 33 साल के विजय ने लंदन ओलम्पिक में निशानेबाजी की 25 मीटर रैपिड फायर पिस्टल स्पर्धा में देश के लिए रजत पदक जीता था। विजय 2006 से 2014 तक लगातार तीन बार एशियाई खेलों में पदक जीत चुके हैं। उन्होंने 2006 में दोहा एशियाई खेलों में कांस्य, 2010 के ग्वांग्झो में कांस्य और 2014 के इंचियोन खेलों में रजत पदक जीता था। विजय अब चौथी बार एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतने की पुरजोर कोशिश करेंगे। मूलतः हिमाचल प्रदेश के रहने वाले विजय तमाम उपलब्धियों के बावजूद पिछले करीब दो साल से बेरोजगार हैं और इसी के चलते उन्होंने हिमाचल से हरियाणा पलायन किया है। वह पिछले दो साल से हरियाणा में ही रह रहे हैं तथा यहीं पर एशियाई खेलों और ओलम्पिक की तैयारियां कर रहे हैं।
बैडमिंटन में हमारे शटलर पी.वी. सिंधू, साइना नेहवाल, पारुपल्ली कश्यप, किदांबी श्रीकांत भारत को कुछ पदक दिला सकते हैं। मुक्केबाजी में एम.सी. मैरीकॉम, विकास कृष्णन और अमित पदक के प्रबल दावेदार हैं। कुश्ती में दो बार के ओलम्पिक पदकधारी सुशील कुमार, साक्षी मलिक, विनेश फोगाट, योगेश्वर दत्त के दांव पदकों पर लग सकते हैं। भारोत्तोलन में विश्व चैम्पियन मीराबाई चानू तो जिम्नास्ट दीपा कर्माकर से स्वर्ण पदक की उम्मीद है। आओ हम सब किसी किन्तु-परन्तु से परे अपने खिलाड़ियों को एशियाड में सफलता की शुभकामनाएं दें।


Tuesday 1 May 2018

पूनम यादव को तंगहाली ने बनाया फौलादी


अब पूनम बनेगी मिर्जापुर की बहुरिया
श्रीप्रकाश शुक्ला
अच्छी-बुरी परिस्थितियां अमूमन हर इंसान के जीवन में आती हैं। कोई खराब परिस्थितियों के आगे लाचार हो जाता है तो कोई इसे अपनी ताकत बना लेता है। आस्ट्रेलिया के गोल्ड कोस्ट में स्वर्णिम भार उठाने वाली वाराणसी की पूनम यादव ने मुफलिसी से हार मानने की बजाय उसे अपनी ताकत बनाया। आज वाराणसी ही नहीं देश का हर खेलप्रेमी पूनम का मुरीद और इस जांबाज बेटी की दृढ़ इच्छाशक्ति का कायल है। पूनम ने खेल के क्षेत्र में जो जज्बा दिखाया है, उसकी जितनी तारीफ की जाए वह कम है। पूनम के अचानक साधारण लड़की से स्पोर्ट्स वूमेन बनने की कहानी काफी रोचक है। बनारस में आज सबकी जुबां पर बस एक ही नाम है वह है पूनम यादव का नाम। बनारस से सात किलोमीटर दूर दांदूपुर गांव निवासी किसान की बेटी पूनम यादव ने राष्ट्रमंडल खेलों में गोल्ड मेडल जीतकर न ही देश का मान बढ़ाया बल्कि अपने मां-बाप के उस सपने को भी पूरा कर दिखाया जोकि उन्होंने मुफलिसी के दौर में कभी अपनी खुली आंखों से देखे थे। राष्ट्रमंडल खेलों में जब पूनम ने वेटलिफ्टिंग में भारत को पांचवां गोल्ड मेडल दिलाया तो उनके परिवार, गांव सहित पूरे बनारस में में खुशी का माहौल छा गया। पूनम ने कहा कि देश के लिए गोल्ड मेडल जीतना गर्व की अनुभूति है। यह मेडल देश और बनारस को समर्पित है। 2014 के ग्लासगो राष्ट्रमंडल खेलों में पूनम ने कांस्य पदक जीतकर भारत का गौरव बढ़ाया था।
पूनम पांच बहन और दो भाइयों में चौथे पर नम्बर है। मां उर्मिला जहां आज बेटी पूनम की उपलब्धि पर फूली नहीं समा रहीं वहीं बीते दिनों के बारे में भरे गले से कहती हैं कि उन दिनों के बारे में अब मत पूछिए क्योंकि वह दौर हम सब भूलना चाहते हैं। बेटी घर में कुछ अलग करना चाहती थी लेकिन गरीबी और मुफलिसी की वजह से हम सब उसकी मदद नहीं कर पा रहे थे। हालात ऐसे थे कि ग्राउंड में अभ्यास करने के बाद पूनम को घर आकर भूखे पेट सोना पड़ता था। पूनम की मां ने बताया कि उसके पिता कैलाश ने कर्णम मल्लेश्वरी का गेम्स देख कर बेटी को वेटलिफ्टर बनाया। 2011 में बड़ी बहनों को देखकर पूनम ने ग्राउंड जाना शुरू किया। वहां लोग ताना मारा करते थे। गरीबी के चलते पूरी डाइट नहीं मिलने की बात पूनम ने अपने गुरु स्वामी अड़गड़ानंद जी से बताई, जिस पर स्वामी जी ने उसे एक स्थानीय समाजसेवी और नेता सतीश फौजी के पास भेजा। उन्होंने पूनम को खिलाड़ी बनाने में पूरा आर्थिक योगदान दिया।
पूनम की मुफलिसी का आलम ये था कि 2014 ग्लासगो राष्ट्रमंडल खेलों में हिस्सा लेने के लिए पूनम के पिता ने भैंस बेच दी थीं। ग्लासगो राष्ट्रमंडल खेलों से कांस्य पदक जीतकर लौटी बेटी की खुशी में मिठाई बांटने के लिए बाप के पास पैसे तक नहीं थे। बीते दिनों का जिक्र आते ही पूनम की मां और दादी की आंखों से आंसू निकल आते हैं। बचपन में पूनम मां-बाप के साथ खेतों में काम से लेकर घर में भैंस और अन्य जानवरों को चारा देने तक का काम करती थी। पूनम खेतों में जहां खूब मेहनत करती थी वहीं अपना ध्यान खेल में भी शिद्दत से लगाया जिसका नतीजा यह है कि आज वह अपने परिवार के साथ देश का नाम रोशन कर रही है।
पूनम यादव बताती हैं कि उनके परिवार की आर्थिक स्थिति कभी अच्छी नहीं रही। बचपन में तो हम लोगों को एक वक्त भी अच्छे से खाना नहीं मिल पाता था। जब हम बहुत छोटे थे, तभी बाबा चल बसे। उसके बाद की सारी जिम्मेदारी मेरे पिता ने उठाई। उनके लिए यह सब बहुत मुश्किल था। हम सात भाई-बहन थे। पांच बहनें और दो भाई। पापा के पास खेती के अलावा कोई काम नहीं था। जमीन भी सिर्फ दस बीसा ही थी। इसी में खेती करके सभी का पेट भरना होता था। बड़ी मुश्किल से गुजारा होता था। यहां तक कि कभी-कभार भूखे पेट सोना पड़ता था। इस मुश्किल समय में पापा से लोगों ने कहा कि अपनी बच्चियों को पढ़ाइए। पापा ने सरकारी स्कूल में हमारा नाम लिखाया। लेकिन हम लोगों को पढ़ाना उनके लिए बहुत मुश्किल था। एक बार रुपये-पैसे की इतनी तंगी हो गई कि हमारी पढ़ाई बीच में रोकनी पड़ी। पापा बहुत परेशान थे। कहीं से भी वह इतनी रकम नहीं जुटा पा रहे थे कि हमारी पढ़ाई-लिखाई जारी रखी जा सके। फिर पापा को किसी ने सलाह दी कि आप चाहे जो कीजिए, लेकिन इन बच्चियों को अगर आगे बढ़ाना है, तो इन्हें पढ़ाइए जरूर। जैसे-तैसे करके फिर से पढ़ाई शुरू हुई। गांव के पास ही स्कूल था। हम पैदल स्कूल जाते थे। कई बार तो मैं बगैर चप्पल के भी स्कूल गई हूं। भीषण गर्मी में बगैर चप्पल के पैर जलते थे, फिर भी हम स्कूल जाते थे।
पैसा न होने का मतलब ही हर तरह की चुनौतियों का सामना करना होता है। मैं पढ़ने में ठीक थी, लेकिन किसी भी तरह की सुविधा नहीं थी। पापा बहुत सुबह उठा देते थे पढ़ने के लिए। चार बजे के करीब उठकर मैं और मेरी बहनें पढ़ाई करते थे। कई बार तो देर रात तक पापा पढ़ाते थे। पास कोचिंग की सहूलियत तो थी नहीं, इसलिए घर पर ही पढ़ाई करनी होती थी। पापा सभी बहनों को पढ़ाते थे। इतनी मेहनत करने के बाद भी कई बार हम लोगों को टीचर से डांट खानी पड़ती थी। कई बार तो ऐसा हुआ कि स्कूल पहुंचने में अगर देर हुई, तो हमें क्लास के बाहर खड़ा कर दिया गया। प्रिंसिपल कहतीं कि तुम देरी से आई हो, अब दो पीरियड तक बाहर ही खड़ी रहो। शुरू-शुरू में मेरे खेल को लेकर उस तरह का सपोर्ट स्कूल से नहीं मिला, जैसा मिलना चाहिए था। मेरी बहन जब दसवीं में पढ़ती थी, तो उसे लगा कि पापा के लिए कुछ करना चाहिए। उसी ने पापा से बात की, तो पापा ने कहा कि तुम लोग खेलो। पापा ने ही ले जाकर स्टेडियम में हम लोगों को प्रवेश दिलाया। इसके बाद वहां के प्रशिक्षक ने हमारा बहुत साथ दिया। वह हमें लेकर गए और स्पोर्ट्स हॉस्टल में एडमीशन करा दिया। यहीं से हमारी जिन्दगी में बदलाव आना शुरू हुआ।
स्पोर्ट्स हॉस्टल में एडमीशन के बाद भी जिन्दगी बहुत कठिन थी। घर स्टेडियम से बहुत दूर था। 10-12 किलोमीटर की दूरी रही होगी। पापा हम लोगों को साइकिल पर बिठाकर कैंट रेलवे स्टेशन ले जाते। वहां से फिर हम लोग स्टेडियम जाते। वहां लोग बहुत कमेंटमारते थे। सबको लगता था कि इस शहर में गांव से आकर खेलने वाली ये लड़कियां कौन हैं? लड़की होकर ऐसे खेल खेलने जा रही हैं। इससे भी बड़ी मुश्किल यह थी कि घर पर प्रैक्टिस करने का कोई साधन नहीं था। एक दिन पापा कहीं से एक रॉड लेकर आए, उसमें चक्की के पहिए लगाकर हम लोग प्रैक्टिस करने लगे। बाकी थोड़ी-बहुत एक्सरसाइज, जिसके लिए किसी इक्विपमेंट की जरूरत नहीं होती। वह भी हम घर पर ही कर लिया करते थे। फिर भी पापा ने हम लोगों का हौसला बढ़ाए रखा। वह हर तरह से सपोर्ट किया करते थे। पापा कहते कि किसी की बात मत सुनो, बस जाओ और जाकर मेहनत करो। तुम लोगों को कुछ बड़ा करना है। स्टेडियम के अलावा जिम में जाना भी बहुत जरूरी था। लेकिन हमारे पास इतने पैसे नहीं थे कि हम जिम जाएं, तो हम लोगों ने तरह-तरह की कसरत का जुगाड़ घर पर ही कर लिया था।
वेटलिफ्टिंग में डाइटअच्छी चाहिए, जो तब हमें मिलती तक नहीं थी। पर न तो मैंने कभी इन बातों को लेकर दिल छोटा किया और न कभी कोई शिकायत की। दूसरी तरफ, पापा ने भी कभी मुझे मना नहीं किया कि मुझे वेटलिफ्टिंग नहीं करनी है। वह न तो चुनौतियों से घबराए, न ही समाज की तरफ से उठने वाले उन सवालों से कि लड़कियों को खेल में डालने की क्या जरूरत है? मेरे करियर के शुरुआती दिनों से लेकर आज तक जो भी कामयाबी आई, उसके पीछे मेरे पापा का सपना है। हमें सिर्फ मेहनत ही तो करनी थी, जो अब भी चल रही है। गोल्ड कोस्ट में गोल्ड मेडल जीतकर देश का नाम रोशन करने वाली पूनम यादव भविष्य में मिर्जापुर की बहू बनेंगी। ओलम्पिक में हिस्सा लेने के बाद पूनम यादव और फौजी धर्मराज यादव दाम्पत्य सूत्र बंधन में बंधेंगे, इस बात पर सहमति दोनों परिवारों में हो चुकी है। पूनम के पिता कैलाश यादव का कहना है कि उनकी बेटी की शादी मवैया गांव के धर्मराज यादव से तय हुई है। धर्मराज भी खिलाड़ी रहे हैं।



Monday 23 April 2018

मध्य प्रदेश में रंग ला रही है संविदा हाकी प्रशिक्षकों की मेहनत


 अब प्रदेश की बेटियों से होगी महिला हाकी एकेडमी गुलजार
                                     श्रीप्रकाश शुक्ला
मध्य प्रदेश सरकार द्वारा महिला हाकी के उत्थान की दिशा में किए गये कार्यों के नतीजे अब दिखने लगे हैं। 12 साल पहले जहां खोजने से भी प्रतिभाएं नहीं मिल रही थीं वहीं आज स्थिति बिल्कुल अलग है। अब सिर्फ ग्वालियर ही नहीं दमोह, मंदसौर, मुरैना, बालाघाट, नीमच, सिवनी, होशंगाबाद आदि जिलों के फीडर सेण्टरों से भी प्रतिभाएं निकल कर आ रही हैं। हम कह सकते हैं कि सरकार ने संविदा प्रशिक्षकों को बेशक उनका वाजिब हक न दिया हो लेकिन उनकी मेहनत रंग लाने लगी है। संविदा प्रशिक्षकों की लगन से तैयार हुई प्रतिभाशाली बालिकाओं की यह पौध अब मध्य प्रदेश महिला हाकी एकेडमी में रोपी जाएगी। मध्य प्रदेश खेल एवं युवा कल्याण विभाग की मंशा है कि अब महिला हाकी एकेडमी में प्रदेश के फीडर सेण्टरों की बेटियों को ही अधिकाधिक मौका मिले। खेल विभाग के इन प्रयासों को अमलीजामा पहनाया जाए इससे पहले जरूरी है कि संविदा प्रशिक्षकों को नियमित कर फीडर सेण्टरों को और सुविधाएं मयस्सर कराई जाएं।
अब मध्य प्रदेश की बेटियां हाकी उठा चुकी हैं। उनकी प्रतिभा भी परवान चढ़ने लगी है। प्रदेश की हाकी बेटियों का कारवां आहिस्ते-आहिस्ते टीम इण्डिया की तरफ बढ़ रहा है। आज प्रदेश सरकार यदि खिलाड़ियों को सुविधाएं मुहैया करा रही है तो उसके अच्छे परिणाम भी मिलने लगे हैं। 12 साल पहले शून्य से शुरू हुआ महिला हाकी के उत्थान का सफर अब प्रदेश की बेटियों की सफलता का पैगाम साबित हो रहा है। 12 साल पहले देश की 23 प्रतिभाशाली खिलाड़ियों से ग्वालियर में खुली महिला हाकी एकेडमी आज हिन्दुस्तान की सर्वश्रेष्ठ हाकी पाठशाला है। ग्वालियर में जब यह एकेडमी खुली थी उस समय मध्य प्रदेश में हाकी बेटियों का अकाल सा था लेकिन अब ऐसी बात नहीं है। आज मध्य प्रदेश में इतनी प्रतिभाएं हैं कि हर आयु समूह की टीमें तैयार हो सकती हैं।
कभी मध्य प्रदेश की हाकी एकेडमी को चलाने के लिए प्रशिक्षकों को उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब, मणिपुर, मिजोरम, दिल्ली, झारखण्ड आदि राज्यों की हाकी बेटियों का मुंह ताकना पड़ता था लेकिन मध्य प्रदेश खेल एवं युवा कल्याण विभाग द्वारा हर जिले में खोले गए फीडर सेण्टरों से स्थिति में आमूलचूल परिवर्तन देखने को मिल रहा है। यद्यपि फीडर सेण्टरों की प्रतिभाओं को वह सारी सुविधाएं नहीं मिल रहीं जिनकी कि घोषणा की गई थी। दरअसल हाकी जैसे खेल में गरीब-मध्यवर्गीय परिवारों की बेटियां ही रुचि लेती हैं। ऐसे में यदि इन बेटियों को एक हाकी किट की बजाय खेल विभाग दो-दो किट मयस्सर कराने के साथ इन्हें प्रतिदिन कुछ पौष्टिक आहार भी प्रदान करे तो सच मानिए मध्य प्रदेश की बेटियां भी मादरेवतन का मान बढ़ा सकती हैं।
मध्य प्रदेश की प्रतिभाओं को खेलों की तरफ आकर्षित करने के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की पहल पर प्रतिवर्ष ग्रीष्मकालीन खेल प्रशिक्षण शिविर के आयोजन के साथ दर्जनों हाकी के फीडर सेण्टर खोले गये लेकिन खेल विभाग की अनिच्छा के चलते इस महत्वाकांक्षी योजना का जो लाभ मिलना चाहिए वह नहीं मिल रहा। दरअसल, खेल वर्ष भर चलने वाली प्रक्रिया है। हाकी हो या दीगर खेल यदि विभाग के पास बारहमासी खेल नीति नहीं होगी तो बेहतर परिणाम कभी नहीं मिलेंगे। महिला हाकी और फीडर सेण्टरों की जहां तक बात है ग्वालियर के अविनाश भटनागर, संगीता दीक्षित, मंदसौर के अविनाश उपाध्याय, रवि कोपरगांवकर जैसे प्रशिक्षकों के जुनून के चलते ही प्रतिभाशाली हाकी बेटियों ने मैदानों की तरफ रुख किया है। इसमें विभाग के क्वार्डिनेटरों के योगदान को भी नकारा नहीं जा सकता।
सिवनी की क्वार्डिनेटर सुषमा डेहरिया का कहना है कि लड़कियों में प्रतिभा की कोई कमी नहीं है, जरूरत है उन्हें सही दिशा एवं अवसर प्रदान करने की। सुषमा कहती हैं कि सरकार के प्रयासों से अब मध्य प्रदेश हाकी का हब बन रहा है, इस खेल में अपार सम्भावनाएं हैं। इसलिए लड़कियों को हाकी में बढ़ावा देने के लिए विशेष प्रयास किये जाने चाहिए। संविदा प्रशिक्षकों के साथ ही खेलों से जुड़े अन्य लोगों को नियमित किया जाना भी जरूरी है। सुषमा कहती हैं कि फीडर सेण्टरों में हाकी बेटियों को कुछ डाइट मिलना भी जरूरी है। मंदसौर के स्पोर्ट्स टीचर रवि कोपरगांवकर का भी कहना है कि मध्य प्रदेश की प्रतिभाओं में खेल कौशल की कमी नहीं है। यदि खिलाड़ियों को कुछ पौष्टिक आहार मिलने लगे तो हमारे खिलाड़ी किसी भी टीम से लोहा ले सकते हैं।
मध्य प्रदेश के फीडर सेण्टरों से निकलने वाली हाकी बेटियों के बारे में एकेडमी के मुख्य प्रशिक्षक परमजीत सिंह बरार का कहना है कि ग्वालियर को छोड़ दें तो दमोह, मंदसौर, मुरैना, बालाघाट, नीमच, सिवनी और होशंगाबाद के फीडर सेण्टरों से ट्रायल देने आई प्रतिभाओं ने जहां मुझे काफी प्रभावित किया है वहीं इनका शारीरिक दमखम सोचनीय बात है। हाकी में दमखम की जरूरत होती है। बेहतर होगा फीडर सेण्टरों के खिलाड़ियों को प्रतिदिन कुछ न कुछ पौष्टिक आहार दिया जाए। मध्य प्रदेश और अन्य प्रदेशों की प्रतिभाओं के प्रश्न पर श्री बरार का कहना है कि हाकी ही नहीं खेल कोई भी हो जब तक प्रतिस्पर्धा नहीं होगी परिणाम सकारात्मक नहीं मिल सकते। खुशी की बात है कि अब मध्य प्रदेश के पास भी प्रतिभाएं हैं, जिन्हें अवसर की दरकार है।
                               जबलपुर में हाकी का गिरता ग्राफ  
भारतीय महिला हाकी को छह अंतरराष्ट्रीय महिला खिलाड़ी देने वाले जबलपुर में महिला हाकी का गिरता ग्राफ चिन्ता की बात है। जबलपुर की जहां तक बात है यहां की अविनाश कौर सिद्धू, गीता पण्डित, कमलेश नागरत, आशा परांजपे, मधु यादव, विधु यादव ने भारतीय टीम का प्रतिनिधित्व किया है। मधु यादव हाकी में एकमात्र मध्य प्रदेश की महिला अर्जुन अवार्डी हैं। स्वर्गीय एस.आर. यादव की बेटी मधु ने लम्बे समय तक मुल्क की महिला हाकी का गौरव बढ़ाया। वह 1982 एशियन गेम्स की स्वर्ण पदक विजेता टीम का सदस्य भी रहीं। मधु यादव के परिवार की जहां तक बात है इस यदुवंशी परिवार की रग-रग में हाकी समाई हुई है। मधु और विधु ने भारत का प्रतिनिधित्व किया तो इसी घर की बेटी वंदना यादव ने भारतीय विश्वविद्यालयीन हाकी में अपना कौशल दिखाया। छह अंतरराष्ट्रीय महिला हाकी खिलाड़ी देने वाले जबलपुर की गीता पंडित, कमलेश नागरत तथा आशा परांजपे भारत छोड़ विदेश जा बसी हैं। संस्कारधानी जबलपुर में हाकी का गिरता ग्राफ चिन्ता की ही बात है।