Thursday 28 September 2017

हिन्दी साहित्य में पत्र-पत्रिकाओं का योगदान

श्रीप्रकाश शुक्ला
हिन्दी साहित्य की समृद्धि में पत्र-पत्रिकाओं का बहुत बड़ा योगदान है। कुछ पत्रिकाएं तो आज भी पाठकों की जुबां पर रची-बसी हैं तो कुछ आर्थिक तंगहाली के चलते अतीत का हिस्सा बन चुकी हैं। पत्र-पत्रिकाओं ने हिन्दी साहित्य की मशाल को जलाने का ही काम नहीं किया बल्कि जन-जागरूकता में भी अहम भूमिका निभाई है। हमारे देश में पत्रिकाओं के अभ्युदय का बहुत पुराना इतिहास है लेकिन पर्याप्त शासकीय प्रोत्साहन के अभाव में कोई भी पत्रिका लम्बा सफर तय नहीं कर सकी। भारत में हिन्दी पत्रकारिता की शुरुआत बंगाल से मानी जाती है। इसका श्रेय राजा राममोहन राय को दिया जाता क्योंकि उन्होंने ही सबसे पहले प्रेस को सामाजिक उद्देश्य से जोड़ने की कोशिश की और भारतीयों के सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक हितों का समर्थन किया। समाज में व्याप्त अंधविश्वास और कुरीतियों पर प्रहार किये और अपने पत्रों के जरिए जनता में जागरूकता पैदा की।
पत्र-पत्रिकाएं मानव समाज की दिशा-निर्देशिका मानी जाती हैं। समाज के भीतर घटती घटनाओं से लेकर परिवेश की समझ उत्पन्न करने का कार्य पत्रकारिता का प्रथम कर्तव्य है। राजनीतिक, सामाजिक चिन्तन की समझ पैदा करने के साथ विचार की सामर्थ्य पत्रकारिता के माध्यम से ही उत्पन्न होती है। पत्रकारिता की यह यात्रा कब और कैसे आरम्भ हुई और किन पड़ावों से गुजर कर राष्ट्रीयता के मिशन से व्यावसायिकता में बदल गई, सर्वविदित है। भारत में आजादी से पूर्व का युग राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय चेतना की अनुभूति के विकास का युग था। इस युग का मिशन और जीवन का उद्देश्य एक ही था- स्वाधीनता की चाह और प्राप्ति का प्रयास। इस प्रयास के तहत ही हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं का अभ्युदय हुआ। तब अहिन्दी भाषी क्षेत्रों ने भी हिन्दी भाषा को न केवल राष्ट्रीय अस्मिता का वाहक माना बल्कि हिन्दी भाषा की पत्र-पत्रिकाओं के संवर्धन में अपना योगदान भी दिया।
समाचार-पत्रों एवं पत्रिकाओं का मूल उद्देश्य सदैव जनता की जागृति और जनता तक विचारों का सही सम्प्रेषण करना रहा है। महात्मा गांधी के शब्दों में समाचार पत्र का पहला उद्देश्य जनता की इच्छाओं, विचारों को समझना और उन्हें व्यक्त करना, दूसरा उद्देश्य जनता में वांछनीय भावनाओं को जागृत करना तथा तीसरा उद्देश्य सार्वजनिक दोषों को निर्भयतापूर्वक प्रकट करना है। समाचार-पत्र और पत्रिकाओं ने इन उद्देश्यों को अपनाते हुए आरम्भ से ही भारतीयों के हित के लिए विचार को जागृत करने का कार्य किया। अतीत में उदन्त मार्तण्ड जहां हिन्दीभाषी शब्दावली का प्रयोग कर भाषा निर्माण का प्रयास कर रहा था वहीं काशी से निकलने वाला प्रथम साप्ताहिक पत्र बनारस अखबार पूर्णतया उर्दू और फारसीनिष्ठ रहा। भारत में भारतेन्दु के आगमन से पूर्व ही पत्रकारिता का आगाज हो चुका था। हिन्दी भाषा का प्रथम समाचार-पत्र उदन्त मार्तण्ड 30 मई, 1826 को कानपुर निवासी पण्डित युगल किशोर शुक्ल ने निकाला। सुखद आश्चर्य की बात यह थी कि यह पत्र बंगाल से निकला और बंगाल में ही हिन्दी पत्रकारिता के बीज प्रस्फुटित हुए।
वर्ष 1780 में प्रकाशित बंगाल गजट भारतीय भाषा का पहला समाचार पत्र है। इस समाचार पत्र के संपादक गंगाधर भट्टाचार्य थे। इसके अलावा राजा राममोहन राय ने मिरातुल, संवाद कौमुदी, बंगाल हैराल्ड पत्र भी निकाले और लोगों में चेतना फैलाई। पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन का प्रमुख उद्‌देश्‍य जनता-जनार्दन में पवित्र भावना को उत्‍पन्‍न कर उसे अन्‍याय एवं अत्‍याचार के खिलाफ मुखर करना होता है। सन्‌ 1868 में भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने साहित्‍यिक पत्रिका कवि वचन सुधा का प्रकाशन कर हिन्दी की गरिमा को चार चांद लगाने की शुरुआत की, इसके बाद हिन्दी पत्रिकाओं के प्रकाशन में तेजी आई और आलोचना, वसुधा, अक्षर पर्व, वागर्थ, आकल्प, साहित्य वैभव, परिवेश, कथा, संचेतना, संप्रेषण, कालदीर्घा, दायित्वबोध, अभिनव कदम, हंस आदि पत्रिकाएं हिन्दी भाषा की समृद्धि का ही प्रतीक बनीं।
भारतेन्दु ने अपने युग धर्म को पहचाना और युग को दिशा प्रदान की। भारतेन्दु ने हिन्दी पत्रकारिता के विकास के साथ ही आने वाले पत्रकारों के लिए दिशा-निर्माण किया। उन्होंने पत्र-पत्रिकाओं को पूर्णतया जागरण और स्वाधीनता की चेतना से जोड़ते हुए 1867 में कवि वचन सुधा का प्रकाशन किया। कवि वचन सुधा को 1875 में साप्ताहिक किया गया जबकि अनेकानेक समस्याओं के कारण 1885 में इसे बंद कर दिया गया। 1873 में भारतेन्दु ने हरिश्चंद्र मैगजीन का प्रकाशन किया जिसका नाम 1874 में बदलकर हरिश्चंद्र चन्द्रिका कर दिया गया। देश के प्रति सजगता, समाज सुधार, राष्ट्रीय चेतना, मानवीयता, स्वाधीन होने की चाह इनके पत्रों की मूल विषयवस्तु थी। स्त्रियों को गृहस्थ धर्म और जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिए भारतेन्दु ने बाला बोधिनी पत्रिका निकाली जिसका उद्देश्य महिलाओं के हित की बात करना था। भारतेन्दु से प्रेरणा पाकर भारतेन्दु मण्डल के अन्य पत्रकारों ने भी पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन किया। पण्डित बालकृष्ण भट्ट का हिन्दी प्रदीप इस दिशा में अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रयास था। इस पत्र की शैली व्यंग्य और विनोद का सम्मिश्रण थी और व्यंग्यात्मक शैली का प्रयोग करते हुए जन जागृति का प्रयास करना इनका उद्देश्य था।
1857 के संग्राम से प्रेरणा लेकर भारतवासियों की जागृति का यह प्रयास चल ही रहा था कि 14 मार्च, 1878 को वर्नाकुलर प्रेस एक्ट लागू कर दिया गया। लार्ड लिटन द्वारा लागू इस कानून का उद्देश्य पत्र-पत्रिकाओं की अभिव्यक्ति को दबाना और उनके स्वातंत्र्य का हनन करना था। 1881 में पण्डित बद्रीनारायण उपाध्याय ने आनन्द कादम्बिनी नामक पत्र निकाला और पण्डित प्रताप नारायण मिश्र ने कानपुर से ब्राह्मण का प्रकाशन किया। आनन्द कादम्बिनी ने जहां साहित्यिक पत्रकारिता में योगदान दिया वहीं ब्राह्मण ने अत्यंत धनाभाव में भी सर्वसाधारण तक जानकारी पहुंचाने का कार्य किया। 1890  में हिन्दी बंगवासी ने कांग्रेस पर व्यंग्य की बौछार की वहीं 1891 में बदरीनारायण चौधरी प्रेमघन ने नागरी नीरद का प्रकाशन किया। भारतीयों में राष्ट्र चेतना के बीज बोना और अंग्रेजों की काली करतूतों का पर्दाफाश करना इस पत्र का उद्देश्य था। भारतेन्दु युग राष्ट्रीय चेतना के प्रसार का युग था। इस दौर में पत्रकारों का उद्देश्य किसी भी प्रकार की व्यावसायिक पत्रकारिता को प्रश्रय देना नहीं था। वह पत्रकारिता का सही दिशा में सदुपयोग करते हुए आमजन के भीतर वह जोश एवं उमंग भरना चाहते थे जिसके द्वारा वह स्वयं खड़े होने का साहस कर सकें।
हिन्दी साहित्य का दिशा-निर्देश करने वाली पत्रिका सरस्वती का प्रकाशन जनवरी 1900 में हुआ जिसके संपादक मण्डल में जगन्नाथ दास रत्नाकर, राधाकृष्ण दास, श्यामसुंदर दास जैसे सुप्रसिद्ध विद्वतजन थे। 1903 में महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इसका कार्यभार सम्हाला और उन्होंने साहित्यिक और राष्ट्रीय चेतना को स्वर प्रदान किया। द्विवेदी जी ने भाषा की समृद्धि कर नवीन साहित्यकारों को राह दिखाई। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने सरस्वती पत्रिका के माध्यम से ज्ञानवर्धन करने के साथ-साथ नए रचनाकारों को भाषा का महत्व समझाया व गद्य और पद्य के लिए राह निर्मित की। 1901 में प्रकाशित होने वाले पत्रों में चंद्रधर शर्मा गुलेरी का समालोचक महत्वपूर्ण है। इस पत्र का दृष्टिकोण आलोचनात्मक था और इसी दृष्टिकोण के कारण यह पत्र चर्चित भी रहा। 1905 में काशी से भारतेन्दु पत्र का प्रकाशन हुआ। यह पत्र भारतेन्दु हरिश्चंद्र की स्मृति में निकाला गया। 1907 का वर्ष समाचार पत्रों की दृष्टि से महत्वपूर्ण रहा। महामना मदन मोहन मालवीय ने अभ्युदय का प्रकाशन किया वहीं बाल गंगाधर तिलक के केसरी की तर्ज पर माधवराव सप्रे ने हिन्दी केसरी का प्रकाशन किया। 1910 में गणेश शंकर विद्यार्थी ने प्रताप का प्रकाशन किया। यह पत्र उग्र एवं क्रांतिकारी विचारधारा का पोषक था। उग्र नीतियों के समर्थक इस पत्र ने उत्साह एवं क्रांति के पोषण में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।
देखा जाए तो भारत में छायावाद काल में पत्रिकाओं का प्रकाशन अधिक हुआ। इस काल की प्रमुख पत्रिकाओं में इन्दु, प्रभा, चांद, माधुरी, शारदा, मतवाला आदि थीं। इस दौर में जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, महादेवी वर्मा आदि ने भी पत्रिकाएं निकालीं। इन साहित्यकारों ने अपने लेखों के माध्यम से जनजागृति का कार्य किया। 1909 में जयशंकर प्रसाद ने इन्दु पत्रिका का प्रकाशन किया। हिन्दी काव्यधारा में छायावाद का आरम्भ इसी पत्रिका से हुआ। प्रभा का प्रकाशन सन् 1913 में हुआ। इसके संपादक कालूराम गंगराडे थे। इस पत्रिका ने ही माखनलाल चतुर्वेदी जैसे राष्ट्रीय चेतना के कवि को दुनिया के समक्ष प्रस्तुत एवं स्थापित किया। माखनलाल चतुर्वेदी ने इस पत्र को उग्र एवं सशक्त स्वर जागरण का माध्यम बनाया। माधुरी का प्रकाशन 1921 से हुआ। यह छायावाद की प्रमुख पत्रिका थी परंतु अनेक अस्थिर नीतियों का इसे भी सामना करना पड़ा तथापि यह छायावाद की सबसे लोकप्रिय पत्रिका रही। विष्णु नारायण भार्गव इस पत्रिका के संस्थापक थे। 1922 में रामकृष्ण मिशन से जुड़े स्वामी माधवानन्द के संपादन में समन्वय का प्रकाशन हुआ। यह मासिक पत्र था। यह पत्र निराला की सूझ-बूझ और उनके पाण्डित्य का उत्कृष्ट उदाहरण है। सुधा का संपादन 1927 में दुलारे लाल भार्गव व पण्डित रूपनारायण पाण्डेय ने किया। इस पत्रिका का मूल उद्देश्य बेहतर साहित्य के साथ ही लेखकों को प्रोत्साहन देना, कृतियों को पुरस्कृत करना व विविध विषयों पर लेख छापना था। एक ओर इन पत्रिकाओं के माध्यम से स्वच्छंदतावाद की स्थापना हुई वहीं सामाजिक, राजनीतिक घटनाओं को स्वर मिला। इस दौर में चांद पत्रिका का प्रकाशन हुआ जिसमें महादेवी वर्मा का अधिकांश साहित्य छपा। प्रेमचंद ने 1932 में जागरण और 1936 में हंस का प्रकाशन किया। हंस का उद्देश्य समाज का आह्वान था। हंस साहित्यिक पत्रिका थी जिसमें साहित्य की विविध विधाओं का प्रकाशन किया जाता था। गांधीजी की नीतियों का समर्थन, स्वराज्य स्थापना के लिए जागरण का प्रयास और साहित्यिक विधाओं का विकास ही हंस का लक्ष्य था। प्रेमचंद के पश्चात् शिवरानी देवी, विष्णुराव पराड़कर, जैनेन्द्र, शिवदान सिंह चौहान, अमृतराय ने इस पत्रिका का संपादन किया। हंस अब नए रूप और नए आदर्श यथार्थ का आईना है। अब इसका प्रमुख स्वर किसान, स्त्री एवं दलित पीड़ा है।
1947 में मिली स्वतंत्रता के पश्चात् भारत को लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने और इसकी सम्प्रभुता की रक्षा करने का संकल्प प्रत्येक भारतवासी ने किया। अपनी भाषा की समृद्धि और उसका विकास करने की चाह सभी के हृदय में विद्यमान थी परंतु धीरे-धीरे राजभाषा विधेयकों के माध्यम से हिन्दी की उपेक्षा करके अंग्रेजी को उसके माथे पर बिठाने की तैयारी की योजनाएं बनने लगीं। समाचार-पत्रों के लिए सबसे अधिक संकट की घड़ी आपातकाल की थी जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन किया गया और सृजन पर रोक लगा दी गई। यह पत्रकारों के लिए अंधेरी सुरंग में से गुज़रने जैसा कठोर यातनादायक अनुभव था। धीरे-धीरे पत्रों पर भी व्यावसायिकता हावी होने लगी। पत्रों को स्थापित होने के लिए अर्थ की आवश्यकता हुई और अर्थ की सत्ता उद्योगपतियों के हाथों में होने के कारण इनके द्वारा ही पत्रों को प्रश्रय प्राप्त हुआ। ऐसे में उद्योगपतियों के हितों को ध्यान में रखना पत्रों का कर्तव्य हो गया। जो भी हो आजाद भारत में भी अनेक उत्कृष्ट साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं की शुरुआत हुई। धर्मयुग, उत्कर्ष, ज्ञानोदय, कादम्बिनी, नया ज्ञानोदय, सरिता, आलोचना, इतिहास बोध, हंस आदि पत्रिकाएं आज भी भारतीय साहित्य के यशगान का ही काम कर रही हैं। यह बात अलग है कि पत्र-पत्रिकाओं में नवीन विचारों और मान्यताओं को प्रश्रय मिलने के कारण भाषा व शिल्प में लचीलापन आया है। कविताओं में छंदबद्धता के प्रति आग्रह टूटा है। फिलवक्त अखण्ड ज्योति पत्रिका जहां धर्म और अध्यात्म को स्थान दे रही है वहीं योजना में उद्योग जगत् की खबरों को प्रमुखता मिल रही है। फिल्मी दुनिया, फिल्मी कलियाँ जहां मनोरंजन उद्योग की तस्वीर उकेरती हैं वही गृहशोभा, मनोरमा स्त्रियों के निजी संसार में हस्तक्षेप करती हैं। बच्चों के लिए चन्दा मामा, नन्हें सम्राट, चंपक नए क्षितिज खोलती हैं वही विज्ञान डाइजेस्ट विज्ञान के नए आविष्कारों से परिचय कराती है।










Saturday 16 September 2017

तो बदल जाएगी भारतीय फुटबाल की सूरत

                 
भारतीय युवाओं में उलटफेर करने की क्षमता
                  अण्डर-17 विश्व कप
         श्रीप्रकाश शुक्ला
दुनिया के नम्बर एक खेल फुटबाल का महासंग्राम भारत में होना खेलप्रेमियों के लिए बेशक खुशखबर है लेकिन आलोचकों को यह फैसला रास नहीं आ रहा। बहुत से लोग इसे फिजूलखर्ची मान रहे हैं लेकिन भारतीय जांबाज युवा टोली को कमतर नहीं आंका जाना चाहिए। बेशक फुटबाल में हम अर्श से फर्श पर आ गये हों लेकिन हम जीत ही नहीं सकते, गिरकर खड़े नहीं हो सकते यह सोचना गलत बात है। आज दुनिया में जिस भारतीय क्रिकेट की तूती बोलती है 1983 के पहले उसका भी बुरा हाल था। जय-पराजय खेल का हिस्सा है। अण्डर-17 विश्व कप के आयोजन से जहां हमारे पास मुकम्मल फुटबाल मैदान हो जाएंगे वहीं प्रतिभाओं की इस खेल के प्रति दिलचस्पी भी बढ़ेगी। आयोजन होंगे उत्सुकता बढ़ेगी, जीतने का कौशल सीखेंगे और एक दिन हम जीतेंगे भी।
खेल कोई भी हो हमारे खिलाड़ी बहुत पीछे नहीं हैं। भारत की अण्डर-17 फुटबाल विश्व कप टीम ने 20 मई, 2017 को अरिजो में मेजबान इटली को एक मैत्री मैच में 2-0 से हराते हुए इस बात के संकेत दिए थे कि युवाओं के विश्व कप में मेजबान भारत को कमतर नहीं माना जाना चाहिए। फीफा अण्डर-17 फुटबाल विश्व कप की मेजबानी का जहां तक सवाल है भारत ने आयरलैंड, उज्बेकिस्तान और अजरबेजान जैसे मुल्कों को पीछे छोड़ते हुए इस प्रतिष्ठित प्रतियोगता की मेजबानी हासिल की है। छह से 28 अक्टूबर तक आयोजित होने वाले विश्व कप में कुल दो दर्जन टीमें हिस्सा ले रही हैं जिनमें 23 टीमें क्वालीफाइंग के बाद प्रतियोगता में शिरकत कर रही हैं तो भारतीय टीम को मेजबान होने के चलते पैर की जादूगरी दिखाने का मौका मिला है। विश्व कप के सभी मुकाबले दिल्ली, गुवाहाटी, मुंबई, गोवा, कोलकाता और कोच्चि के मैदानों में खेले जाएंगे जबकि खिताबी मुकाबला 28 अक्टूबर को कोलकाता में खेला जाएगा।
भारतीय टीम की जहां तक बात है, पिछले चार साल से उसने विश्व कप की तैयारियां मुकम्मल की हैं, इस युवा टीम में जीत की भूख भी है ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि हमारे खिलाड़ी अपनी धरती और अपने दर्शकों के बीच दमदार प्रदर्शन करेंगे। पिछले चार साल में भारतीय जांबाजों ने भारतीय फुटबाल को चार चांद लगाए हैं। दुनिया  के नम्बर एक खेल में भारत का लगातार ऊंचा उठता स्तर कोई संयोग नहीं है। भारतीय खिलाड़ियों ने कड़ी मेहनत और जज्बे से कई अविश्वसनीय सफलताएं हासिल की हैं। अण्डर-17 फुटबाल विश्व कप में कई मंझी हुई और अनुभवी टीमें होंगी जबकि भारत पहली बार इतने बड़े और प्रतिष्ठित मैदानी जलसे में अपना जलवा दिखाएगा। भारत के लिए यह टूर्नामेंट बेशक चुनौतीपूर्ण होगा लेकिन भारतीय फुटबाल प्रेमियों को इस बात का संतोष जरूर होना चाहिए कि टीम सही दिशा में बढ़ रही है। खेलप्रेमियों के लिए यह अच्छी खबर है कि क्रिकेट के साथ-साथ अन्य खेलों में भी भारत की स्थिति लगातार सुधर रही है। फुटबाल की बात करें तो भारत ने खिलाड़ियों की कड़ी मेहनत और बुलंद हौसले की बदौलत ही 20 साल बाद फीफा रैंकिंग में खासा सुधार किया है। भारत की सर्वश्रेष्ठ फीफा रैंकिंग 94 रही है, जो उसने फरवरी 1996 में हासिल की थी। पिछले दो वर्षों में भारतीय टीम ने शानदार प्रदर्शन करते हुए 13 मैचों में 11 में फतह हासिल करते हुए कुल 31 गोल दागे हैं।
फुटबाल की जहां तक बात है यह खेल दुनिया में 200 साल पहले से खेला जा रहा है। भारतीय राष्ट्रीय फुटबाल की जहां तक बात है 1948 से वह अंतरराष्ट्रीय फुटबाल महासंघ से जुड़ा हुआ है। आजादी के बाद से भारतीय फुटबाल महासंघ एशियाई फुटबाल महासंघ के संस्थापक सदस्यों में से एक है। भारतीय फुटबाल टीम ने पहली और अंतिम बार 1950 में फीफा विश्व कप के लिए क्वालीफाई किया था लेकिन नंगे पैर खेलने की आदत के चलते वह सुनहरा मौका दोबारा हासिल नहीं हुआ। भारतीय टीम ने अब तक दो एशियाई खेलों में स्वर्ण तथा एएफसी एशिया कप में एक बार रजत जीता है। भारतीय टीम ने 1930 में ही आस्ट्रेलिया, जापान, मलेशिया, इंडोनेशिया और थाईलैंड के दौरे शुरू कर दिए थे। कई भारतीय फुटबाल क्लबों की सफलता के बाद 1937 में अखिल भारतीय फुटबाल महासंघ अस्तित्व में आया। 1948 का लंदन ओलम्पिक भारतीय टीम के लिए पहला बड़ा टूर्नामेंट था जहां उसे फ्रांस से 2-1 से पराजय स्वीकारनी पड़ी थी। 1951 से 1962 के कालखण्ड को भारतीय फुटबाल का स्वर्ण युग माना जाता है। तब सैय्यद अब्दुल रहीम के प्रशिक्षण में भारतीय टीम एशिया की सर्वश्रेष्ठ टीमों शुमार की जाने लगी थी।
भारतीय टीम ने अपनी ही मेजबानी में 1951 के एशियाई खेलों का स्वर्ण जीता तो 1954 में मनीला में हुए एशियाई खेलों में भारत को ग्रुप चरण में दूसरा स्थान मिला। 1956 के ओलम्पिक खेलों में भारत ने चौथा स्थान प्राप्त किया। यही भारतीय टीम की सबसे बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है। पहले एशियाई खेलों के स्वर्ण पदक के बाद भारतीय टीम ने 1962 के एशियाई खेलों में दक्षिण कोरिया को 2-1 से हराकर एक बार फिर स्वर्ण पदक पर कब्जा जमाया। 1964 के एशिया कप में भारत उपविजेता रहा। 1964 के बाद भारतीय टीम का प्रदर्शन गिरता ही चला गया। 1982 के दिल्ली एशियाई खेलों में भारतीय टीम क्वार्टर फाइनल तक ही पहुंच सकी। इसके बाद भारतीय टीम 20 वर्षों बाद 1984 के एशिया कप के लिए क्वालीफाई करने के बावजूद पदक जीतने से वंचित रही। हैदराबाद की मेजबानी में 2003 में हुए एफ्रो-एशियन खेलों में भारतीय टीम ने शानदार प्रदर्शन करते हुए रजत पदक जीता परिणामस्वरूप भारतीय टीम के तात्कालिक कोच स्टेफेन कोंसटेनटाइन की जमकर प्रशंसा हुई। 2006 में बॉब हॉटन भारतीय टीम के कोच बने उनके मार्गदर्शन में टीम ने 2007 में नेहरू कप तो 2008 में एएफसी चैलेंजर्स कप जीता जिसके फलस्वरूप 27 वर्षों बाद एशिया कप में भारतीय टीम को खेलने का मौका मिला। भारतीय टीम ने 2009 में पुनः नेहरू कप जीतने के बाद 2011 में एफसी एशिया कप में भाग तो लिया लेकिन अपने सभी मुकाबले हार गया। भारत में फुटबाल की जहां तक बात है यहां के मैदान फीफा की नियमावली पर खरे नहीं उतरते वहीं यह खेल कुछ शहरों तक ही सीमित है। अण्डर-17 विश्व कप के आयोजन से हमारे देश में फुटबाल के छह अंतरराष्ट्रीय मैदान हो जाएंगे। अखिल भारतीय फुटबाल महासंघ के अध्यक्ष प्रफुल्ल पटेल और महासचिव कुशाल दास का मानना है कि विश्व कप के इस आयोजन से समूचे देश में फुटबाल की अलख जगेगी और इस खेल का भला होगा। भारत में फुटबाल की लोकप्रियता बढ़ाने में इण्डियन सुपर लीग का अहम योगदान है। इण्डियन सुपर लीग में रॉबर्टो कार्लोस, विसेंट काल्डेरोन, वेस्ट ब्रोंविच एल्बिअन जैसे खिलाड़ियों ने खेलकर एक तरह से सोते भारतीय खिलाड़ियों को जगा दिया है। एक दिन में सब कुछ नहीं बदल सकता लेकिन इण्डियन सुपर लीग से दुनिया की नजर भारत पर जरूर पड़ी है। भारत में फुटबाल की स्थिति बदली है अब विदेशी खिलाड़ी भी भारत को फुटबाल खेलने की एक अच्छी जगह मानने लगे हैं।
इण्डियन सुपर लीग ने अपने पहले ही सीजन में जो मुकाम हासिल किया उसकी कल्पना शायद ही किसी ने की हो। इससे भारत को विश्व फुटबाल जगत में एक पहचान मिली है। अण्डर-17 विश्व कप की मेजबानी मिलना भी इण्डियन सुपर लीग के चलते ही सम्भव हो सका। भारत की सफल मेजबानी यूरोपियन निवेश की सम्भावना को पर लगा सकती है। इण्डियन सुपर लीग ने जहां बड़े-बड़े खिलाड़ियों को अपनी ओर आकर्षित किया है वहीं भारतीय खिलाड़ियों में भी जोश पैदा हुआ है। विश्व कप से भारतीय खिलाड़ियों को बहुत फायदा होगा तथा उन्हें काफी कुछ सीखने को मिलेगा। इस आयोजन से व्यावसायिक विकास के जहां द्वार खुलेंगे वहीं युवा खिलाड़ी फुटबाल खेल में अपना करियर संवारने की कोशिश करेंगे। दरअसल, इण्डियन सुपर लीग से अच्छे विदेशी कोच और अनुभवी विदेशी खिलाड़ियों के जुड़ने से भारतीय खिलाड़ियों के स्तर में भी सुधार हुआ है और उन्होंने अपने खेल पर फोकस किया है। संदेश झिंगन इसका जीवंत उदाहरण है।
फुटबाल को हमेशा भारत में क्रिकेट के सामने कमतर आंका गया। इसका श्रेय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय क्रिकेट के प्रदर्शन और इसका समर्थन करने वाले भारतीय खेलप्रेमियों को जाता है। ऐसा नहीं कि भारत में फुटबाल की हालत हमेशा से खराब रही है। 1950 और 60 के दशक में इण्डियन फुटबाल का सुनहरा दौर था जब भारतीय टीम को एशिया की सबसे बेहतरीन टीमों में गिना जाता था। भारत के पास हमेशा नायाब खिलाड़ी तो रहे लेकिन एक टीम को रूप में सफलताएं कम ही नसीब हुईं।
ये हैं भारतीय फुटबाल की पहचान
क्लाइमेक्स लॉरेंस
क्लाइमेक्स लॉरेंस एक दशक तक भारतीय टीम की धुरी रहे वह सालगांवकर, ईस्ट बंगाल, डेम्पो जैसे क्लबों के लिए भी खेले। लॉरेंस मैदान में तो एक खतरनाक मिडफील्डर थे पर स्वभाव से बहुत ही सीधे और सरल इंसान थे। जब तक वह टीम का हिस्सा रहे उनके बारे में कोच या किसी ने भी कभी कोई सवाल नहीं उठाए। लॉरेंस के करियर में सबसे बेहतरीन पल 2008 एएफसी चैलेंज कप के फाइनल में आया जब उन्होंने अफगानिस्तान के खिलाफ 91वें मिनट में अपनी टीम को जीत दिलाई। क्लाइमेक्स के नाम 74 इंटरनेशनल कैप्स हैं जो उनके अलावा केवल भूटिया, विजयन और छेत्री जैसे महान खिलाड़ी ही हासिल कर सके हैं।
गोस्था पाल
गोस्था पाल का नाम भारतीय फुटबाल में बहुत इज्जत से लिया जाता है। पाल अपने पूरे करियर के दौरान नंगे पांव खेले। उन्हें अपने दौर का बेहतरीन डिफेंडर माना जाता था। फुटबाल प्रेमी गोस्था पाल को चीन की दीवार कहते थे। पाल मोहन बागान के लिए 1912 से 1936 तक खेले जिसमें वह 1921 से 1936 तक टीम के कप्तान रहे। 1924 में पाल भारतीय टीम के कप्तान बने। तगड़ी कद काठी वाले इस प्लेयर को विदेशी धरती पर पहला भारतीय फुटबाल कप्तान बनने का गौरव हासिल हुआ। गोस्था का जन्म बांगलादेश में हुआ था। पाल पहले भारतीय फुटबॉलर थे जिन्हें 1962 में पद्मश्री जैसे खिताब से नवाजा गया। 9 अप्रैल, 1976 को इस महान खिलाड़ी ने दुनिया को अलविदा कह दिया। पाल की याद में कोलकाता के ईडन गार्डन में उनकी एक प्रतिमा बनाई गई और शहर की एक सड़क का नाम भी उनके नाम पर रखा गया।
पीटर थंगराज
पीटर थंगराज को अगर हम भारतीय फुटबाल इतिहास का सबसे महान गोलकीपर कहें तो गलत नहीं होगा। लम्बे कद के इस खिलाड़ी का अकेले दम कड़े संरक्षण का लोहा पूरे देश में माना जाता था। हैदराबाद में पैदा हुए थंगराज ने अपने करियर की शुरुआत मद्रास रेजीमेंटल सेण्टर से सेण्टर फॉरवर्ड खिलाड़ी के रूप में की। 1955 और 1958 में अपनी टीम को डूरंड कप जिताने में थंगराज का खासा योगदान रहा। उन्होंने 1955 में नेशनल टीम में डेब्यू किया। थंगराज के रूप में दशकों बाद भारत को एक शानदार गोलकीपर मिला था। अपने बेहतरीन इंटरनेशनल करियर के दौरान थंगराज 1956 और 1960 के ओलम्पिक में भारतीय टीम का हिस्सा रहे और इसके साथ ही 1958 और 1962 में टोक्यो और जकार्ता एशियन गेम्स में भारत की कमान सम्हाली जहां भारत ने स्वर्ण पदक जीते। थंगराज को 1958 में एशिया के सर्वश्रेष्ठ गोलकीपर के लिए नामित किया गया और 1967 में उन्हें अर्जुन अवॉर्ड मिला। पीटर दो बार एशियन ऑल स्टार्स टीम का हिस्सा रहे और 1971 में उन्हें सर्वश्रेष्ठ गोलकीपर के सम्मान से नवाजा गया और 1971 में उन्होंने अपने फुटबॉल के बेहतरीन करियर को अलविदा कहा।
जरनैल सिंह ढिल्लन
ढिल्लन भारतीय फुटबाल के दिग्गज नामों में से एक हैं। जकार्ता में 1962 में हुए एशियन गेम्स में भारत की शानदार जीत में जरनैल सिंह के बेहतरीन प्रदर्शन का बड़ा योगदान रहा। जरनैल भारत के लिए अब तक के सबसे बेहतरीन डिफेंडर माने जाते हैं जो जरूरत पड़ने पर टीम के लिए स्ट्राइकर रूप में भी खेलते रहे। पंजाब से ताल्लुक रखने वाले जरनैल अपने फुटबाल खेलने के सपने को पूरा करने के लिए 1936 में कोलकाता चले आए। पहले वह राजस्थान क्लब और फिर मोहन बागान के लिए खेले जहां वे हरी और महरून जर्सी में एक बेजोड़ खिलाड़ी के रूप में जाने जाते थे। जरनैल मैदान में एक तेज-तर्रार डिफेंडर रहे। 1962 के एशियन गेम्स जकार्ता में सेमीफाइनल मैच के दौरान चोटिल होने के बावजूद फाइनल में उनके बेहतरीन योगदान को हमेशा याद किया जाता है जबकि उन्हें चोट की वजह से 6 टांके आए थे। इस मैच में कोच सैयद अब्दुल रहीम ने उन्हें सेण्टर फॉरवर्ड खेलने को कहा और जरनैल सिंह ने अपने सिर से एक गोल जड़ दिया। वे इकलौते ऐसे भारतीय फुटबालर थे जिन्होंने उस समय अपनी जगह एशियन ऑल स्टार टीम में बनाई थी। 1964 में जरनैल सिंह को अर्जुन अवॉर्ड मिला। सन् 2000 में इस महान खिलाड़ी ने अपनी आखिरी सांस ली।
सुबीमाल चुनी गोस्वामी
ये फुटबालर सिर्फ चुनी गोस्वामी के नाम से जाना जाता रहा। गोस्वामी 1962 एशियन गेम्स जकार्ता में विजयी रही भारतीय टीम के कप्तान थे और उन्होंने 1964 एशिया कप साकर टूर्नामेंट में टीम को रजत पदक दिलाया था। चुनी एक बेहतरीन स्ट्राइकर थे जो अपनी सूझबूझ, गेंद पर नियंत्रण और खेल की शानदार समझ के लिए जाने जाते थे। गोस्वामी दूसरे खेलों के भी अच्छे जानकार थे। उन्होंने बंगाल के लिए प्रथम श्रेणी क्रिकेट खेलते हुए रणजी ट्रॉफी में भी भाग लिया। 1938 में बंगाल में जन्मे इस खिलाड़ी ने मोहन बागान क्लब आठ साल की छोटी सी उम्र में ज्वॉइन किया। वे अपने करियर में कभी किसी और क्लब के लिए नहीं खेले। गोस्वामी का नेशनल टीम में पदार्पण 1956 में हुआ जब भारतीय टीम ने चाइना की ओलम्पिक टीम को 1-0 से शिकस्त दी। वे भारतीय टीम के लिए लगभग 50 मैच खेले और 32 गोल किए। गोस्वामी 1962 में सर्वश्रेष्ठ एशियाई स्ट्राइकर के लिए नामित किये गए। 1963 में उन्हें अर्जुन और 1983 में पद्मश्री सम्मान से नवाजा गया।
सुनील छेत्री
इस भारतीय फुटबॉल खिलाड़ी को किसी परिचय की जरूरत नहीं है। सिकंदराबाद में जन्मे इस स्ट्राइकर ने हाल के दिनों में भारतीय फुटबॉल को नई ऊंचाइयां दी हैं। सुनील छेत्री भारतीय टीम के कप्तान होने के साथ-साथ टीम के सबसे ज्यादा कैप वाले और सबसे अधिक 91 मैचों में 51 गोल करके टॉप स्कोरर हैं। छेत्री ने अपने फुटबाल सफर की शुरुआत मोहन बागान से की और 2005 में वह पंजाब से खेले। 2010 में अमेरिका के मेजर लीग सॉकर में कैन्सस सिटी विजार्ड्स की तरफ से खेलते हुए उनकी क्षमता को अलग पहचान मिली। हालांकि वहां वह अपनी छाप नहीं छोड़ पाये फिर भी उनके चाहने वालों पर कोई फर्क नहीं पड़ा। छेत्री के जीवन का एक बड़ा मौका तब आया जब वे यूएस में मैनचेस्टर यूनाइटेड के खिलाफ फ्रैंडली मैच खेलने मैदान में उतरे। छेत्री के जीवन में एक और बड़ा मौका तब आया जब उन्हें स्पोर्टिंग पुर्तगाल टीम ने अपने साथ खेलने के लिए अनुबंधित किया। दो साल के कड़े परिश्रम के बाद सुनील भारत वापस लौट आए और बैंगलूरू एफसी के लिए बतौर कप्तान आई-लीग में खेले साथ ही नेशनल टीम के लिए भी हाई गोल स्कोरर बने रहे। सुनील को 2007, 2011, 2013 और 2014 में प्लेयर ऑफ द इयर के लिए नामित किया गया।
शैलेन्द्र नाथ मन्ना
अगर हम फुटबाल के बारे में बात करें और मन्ना का जिक्र न हो तो उनके चाहने वालों के साथ नाइंसाफी होगी। भारत की धरती में पैदा हुए मन्ना फुटबाल की दुनिया के एक शानदार खिलाड़ी के रूप में गिने जाते हैं। वह 1948 में ओलम्पिक में भाग लेने वाली भारतीय टीम के हिस्सा थे। इस जादुई डिफेंडर की अगुवाई में इंडियन टीम ने 1951 के एशियन गेम्स में गोल्ड जीता और इसके अलावा 1952 से 1956 तक लगातार चार साल तक चतुष्कोणीय टूर्नामेंट जीता। वे इकलौते ऐसे एशियन खिलाड़ी रहे जिन्हें विश्व के 10 बेहतरीन कप्तानों की लिस्ट में इंग्लिश फुटबॉल एसोसिएशन ने जगह दी। इस महान खिलाड़ी का जन्म 1924 में हावड़ा में हुआ और 1942 में मन्ना फेमस मोहन बागान का हिस्सा बन गए। वह 19 साल तक निरंतर टीम के लिए खेले और रिटायरमेंट के बाद 2001 में उन्हें मोहन बागान रत्न दिया गया।
आई.एम. विजयन
विजयन भारतीय फुटबाल इतिहास का एक और ऐसा नाम है जो किसी पहचान का मोहताज नहीं है। अपनी तेजी के बल पर ब्लैक बक के नाम से मशहूर ये खिलाड़ी भारत के लिए एक महान स्ट्राइकर माना जाता है। विजयन भारतीय फुटबाल में एक कहानी की तरह ही है। फुटबालर बनने से पहले वह स्टेडियम के बाहर सोडा बेचा करते थे। फिर उनके टैलेंट को नई जमीन केरल पुलिस ने दी। उसके बाद इस खिलाड़ी ने मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने मोहन बागान, एफसी कोच्चि, ईस्ट बंगाल जैसे नामी क्लब्स की तरफ से फुटबाल खेली और एक समय वह देश के सबसे महंगे फुटबालर भी बने। विजयन ने अपने करियर के दौरान देश के लिए 79 मैच खेले और 40 गोल दागे। विजयन ने अपना इंटरनेशनल डेब्यू 1992 में किया। 2003 एफ्रो-एशियन के बाद उन्होंने फुटबाल को अलविदा कहा तब तक वह भारतीय टीम का हिस्सा बने रहे। विजयन के करियर का सबसे शानदार क्षण 1999 में आया जब उन्होंने सैफ खेलों में भूटान के खिलाफ मैच के 12वें सेकेंड में ही गोल दाग दिया। यह इंटरनेशनल फुटबाल इतिहास का अब तक का तीसरा सबसे फास्ट गोल था। विजयन के खेल को थाई और मलेशियन क्लबों में खासी सराहना मिली। आईएम विजयन इकलौते ऐसे खिलाड़ी रहे जिन्हें एक से अधिक बार प्लेयर ऑफ द ईयर का अवॉर्ड मिला। उन्होंने यह अवॉर्ड 1993, 1997 और 1999 में जीते। विजयन की तुलना अक्सर भारतीय फुटबाल के पेले से की गई।
पीके बनर्जी
अपने समय के महान स्ट्राइकर प्रमोद कुमार बनर्जी निश्चित तौर पर भारतीय फुटबाल इतिहास के बेहतरीन खिलाड़ियों में से एक हैं। पीके ने पीटर थंगराज के साथ 1955 ढाका में चार देशों के टूर्नामेंट से अपना अंतरराष्ट्रीय करियर शुरू किया। बनर्जी 1962 की एशियन गेम्स विजेता भारतीय टीम का हिस्सा रहे जहां उन्होंने जापान, दक्षिण कोरिया और थाईलैंड जैसी टीमों के खिलाफ गोल दागे। बंगाल के जलपाईगुड़ी होते हुए पहले पीके ने आर्यन क्लब और फिर पश्चिमी रेलवे के लिए बतौर कप्तान खेले। 1960 के समर ओलम्पिक रोम में वे भारत के कप्तान बने जहां उन्होंने फ्रांस के सामने क्वालीफायर मुकाबले में गोल दागकर 1-1 से मैच ड्रॉ कराया। पीके ने क्वालालम्पुर मरडेका कप में भारत का तीन बार प्रतिनिधित्व किया जहां भारत ने 1959 और 1964 में सिल्वर मैडल जीता और 1965 में ब्रांज मैडल अपने नाम किया। हालांकि इस बात का कोई ऑफिसियल रिकॉर्ड नहीं है लेकिन पीके ने अपने करियर के 84 मैचों में 60 गोल किये। फीफा ने इस महान खिलाड़ी को 20वीं सदी का श्रेष्ठ भारतीय खिलाड़ी फुटबॉलर घोषित किया।
बाईचुंग भूटिया

बाईचुंग भूटिया भारत के लिए सबसे लम्बे समय तक खेलने वाले खिलाड़ी हैं। भूटिया का जन्म 15 दिसम्बर, 1976 को सिक्किम में हुआ। छोटी उम्र से ही बाईचुंग फुटबाल खेलना पसंद करते थे। 13 साल की उम्र से ही सन्तोष ट्रॉफी में शानदार जौहर दिखाने के चलते भूटिया को ईस्ट बंगाल क्लब ने अपनी टीम में शामिल किया। 1990 और 2000 के दशक में भूटिया ने भारतीय फुटबाल को अकेले दम पर आगे बढ़ाया। भूटिया और विजयन की जोड़ी का लोग लोहा मानते थे। विजयन भूटिया गाड गिफ्टेड फुटबालर मानते थे। 1995 में भूटिया ने 19 साल की उम्र में ईस्ट बंगाल के साथ अपने प्रोफेशनल करियर की शुरूआत की। उसके बाद वे भारत के लिए 100 से अधिक मैच खेले। फीफा के अनुसार आधिकारिक तौर पर उनके मैचों की संख्या 84 बताई जाती है। सन् 1999 में बाईचुंग को पहली बार विदेशी धरती पर ब्यूरी क्लब की तरफ से खेलने का मौका मिला। वह पहले ऐसे भारतीय खिलाड़ी बने जिसने यूरोपियन क्लब के साथ कॉन्ट्रेक्ट किया और मोहम्मद सलीम के बाद दूसरे ऐसे भारतीय खिलाड़ी बने जो यूरोप में प्रोफेशनल तौर पर खेले। क्लब के दिवालिया होने से पहले वे ब्यूरी के लिए 30 मैच खेले।

Saturday 9 September 2017

लंका पर बजा भारत का डंका

विराट कोहली की कप्तानी में भारत ने रचा इतिहास
श्रीप्रकाश शुक्ला
क्रिकेट अनिश्चितताओं का खेल है। भारतीय टीम ने श्रीलंका दौरे में जैसा प्रदर्शन किया वह न केवल ऐतिहासिक है बल्कि इस खेल के करोड़ों प्रशंसकों के लिए न भूलने वाला लम्हा भी है। जी हां, विराट कोहली की अगुआई में भारतीय जांबाज क्रिकेटरों ने लंका पर डंका बजाकर इस बात के संकेत दिए कि उन्हें अब विदेशी पट्टियों पर भी जीतना आ गया है। श्रीलंका दौरे पर विराट सेना ने जो उपलब्धि हासिल की है वह अपने आपमें एक मिसाल है। इससे पहले जो भी टीमें श्रीलंका दौरे पर गई थीं उन्हें या तो पराजय से दो-चार होना पड़ा या फिर मामूली सफलताएं ही मयस्सर हुईं। लेकिन इस बार विराट सेना ने अपने फौलादी प्रदर्शन से सारे किन्तु-परंतु मिथ्या साबित कर दिए। टेस्ट क्रिकेट के शिखर पर बिराजमान भारतीय पलटन का श्रीलंका में इस खेल के तीनों प्रारूपों में अपराजेय रहना तुक्का नहीं है।
कहते हैं किसी टीम की सफलता में उसके कप्तान का अहम रोल होता है। विराट कोहली ने अपनी पराक्रमी बल्लेबाजी और कुशल नेतृत्व की जो बानगी श्रीलंका में पेश की उससे टीम इंडिया के प्रशंसक ही नहीं क्रिकेट बिरादर भी अचम्भित है। इस दौरे में शिखर धवन, रोहित शर्मा, चेतेश्वर पुजारा, के.एल राहुल और विराट कोहली ने जहां श्रीलंकाई गेंदबाजों की नाक में दम किया वहीं जसप्रीत बुमराह की घातक गेंदबाजी से सिंहली बल्लेबाज हर मुकाबले में सहमे-सहमे से नजर आए। एकदिवसीय क्रिकेट में बुमराह को सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी घोषित किया जाना भारतीय तेज गेंदबाजी के लिए सुखद संदेश है। श्रीलंका का उसकी ही सरजमीं पर मानमर्दन करने के बाद भारतीय क्रिकेट प्रेमियों को उम्मीद है कि विराट सेना अपनी ही सरजमीं पर कंगारुओं को पराजय का पाठ जरूर पढ़ाएगी। 
विराट कोहली न केवल करिश्माई कप्तान हैं बल्कि टीम सहयोगियों का आदर्श भी हैं। विराट कोहली गेंदबाजों को सहयोग और आजादी देते हैं तो बल्लेबाजों को उन्मुक्त बल्लेबाजी के लिए भी प्रेरित करते हैं। यह कहने में जरा भी संकोच नहीं कि मैदान में कोहली की प्रतिबद्धता साथी खिलाड़ियों के लिए प्रेरणा का काम करती है। विराट कोहली बल्लेबाजी और फील्डिंग दोनों ही मोर्चों में अपना शत-प्रतिशत योगदान देते हैं वहीं वह जब क्षेत्ररक्षण करते हैं तो जान लगा देते हैं तथा मैदान या नेट पर उनकी मशक्कत टीम साथियों में जुनून पैदा करती है। श्रीलंका दौरे पर कप्तान विराट कोहली ने सभी खिलाड़ियों को बारी-बारी से मौका देकर न केवल उनकी प्रतिभा को परखा बल्कि क्रिकेट में एक नजीर भी पेश की। भारत ने श्रीलंका को उसकी ही सरजमीं पर पराजय का पाठ पढ़ाकर कई मिथक तोड़े तो क्रिकेट बिरादर को यह संदेश भी दिया कि उसे अब घरू शेर के सम्बोधन से न नवाजा जाए।
श्रीलंका दौरा हर भारतीय खिलाड़ी के लिए खास रहा। इस दौरे में बल्लेबाजों ने जहां मनमाफिक रन बनाए वहीं गेंदबाजों ने श्रीलंकाई बल्लेबाजों को उन्मुक्त बल्लेबाजी करने से भी रोका। इस दौरे में विकेटकीपर बल्लेबाज महेन्द्र सिंह धोनी ने जहां विकेट के पीछे कमाल का प्रदर्शन किया वहीं जब-जब मौका मिला उन्होंने अपनी सदाबहार बल्लेबाजी का भी नायाब उदाहरण पेश किया। इस दौरे में धोनी 100 स्टम्प करने वाले दुनिया के पहले विकेटकीपर बने। इससे पहले यह रिकॉर्ड श्रीलंका के विकेटकीपर कुमार संगकारा के नाम दर्ज था जिन्होंने एकदिनी क्रिकेट करियर में 99 स्टम्प किए थे। भारतीय टीम ने छह सितम्बर की आधी रात को मेजबान श्रीलंका को ताबड़तोड़ क्रिकेट में सात विकेट से पराजित कर उसका 9-0 से सफाया कर दिया। विराट कोहली की कप्तानी में पहली बार भारतीय टीम ने विदेशी सरजमीं पर किसी टीम का तीनों प्रारूपों में क्लीन स्वीप किया। इस पूरे दौरे में कप्तान कोहली ने रनों का अम्बार लगाकर कई कीर्तिमान अपने नाम किए। विराट कोहली की कप्तानी में भारत ने श्रीलंका को टेस्ट में 3-0, एकदिवसीय में 5-0 और टी-20 में 1-0 से पराजित किया। इससे पहले 9-0 से फतह हासिल करने का कीर्तिमान कंगारुओं के नाम रहा था, जिसने साल 2009-10 में अपनी ही सरजमीं पर पाकिस्तान को 9-0 से पराजय का हलाहल पिलाया था। भारतीय टीम की यह सफलता इसलिए खास है क्योंकि उसने श्रीलंका को उसकी ही पट्टियों पर पटका है।
श्रीलंका दौरे पर गई भारतीय टीम का शुरू से अंत तक मेजबान टीम पर पलड़ा भारी रहा। किसी भी मैच में ऐसा नहीं लगा जब श्रीलंकाई टीम जीतती नजर आई हो। श्रीलंका टीम इस समय बुरे दौर से गुजरती नजर आ रही है। सिंहलियों की लगातार पराजय ने उसके मुरीदों का भी दिल तोड़ दिया है। अपनी टीम की पराजय-दर-पराजय से वे इतने आहत-मर्माहत थे कि पल्लेकेले में खेले गए तीसरे एकदिवसीय मैच में उन्होंने गुस्से में मैदान पर बोतलें तक फेंकना शुरू कर दीं। दर्शकों के इस खराब व्यवहार को देखते हुए अम्पायरों को काफी समय तक मुकाबला रोके रखना पड़ा। यहां तक कि इस मुकाबले को पूरा करने के लिए दर्शकों को मैदान से भी बाहर करना पड़ा। श्रीलंकाई टीम के खराब प्रदर्शन का ही नतीजा रहा कि हर मुकाबले में दर्शक दीर्घाएं खाली पड़ी रहीं। श्रीलंका पर ऐतिहासिक सफलता हासिल करने के बाद टीम इण्डिया के कप्तान विराट कोहली ने सफलता का पूरा श्रेय टीम खिलाड़ियों को दिया। बकौल कोहली जहां तक मेरी बात है, मैं अपने मजबूत पक्षों पर ध्यान देता हूं और क्रिकेटिया शाट खेलता हूं। मैं हर प्रारूप के अनुरूप अपना खेल ढालने का प्रयास करता हूं। मैं सभी मैचों में खेलना चाहता हूं।
श्रीलंका के अंतरिम कोच निक पोथास भी मानते हैं कि भारतीय टीम काफी बेरहम प्रतिस्पर्धी है। पोथास ने भारतीय टीम की तारीफ करते हुए कहा कि श्रीलंकाई टीम जहां विकास की प्रक्रिया से गुजर रही है वहीं भारतीय टीम मुकम्मल है और उसमें गजब की काबिलियत भी है। भारतीयों के खिलाफ खेलना या उन्हें हराने की कोशिश करना हमारी टीम के लिए कठिन था। पोथास ने कहा कि हमारी टीम को कुछ और प्रतिस्पर्धी रुख अपनाना चाहिए था। हमें भारतीय टीम से खेल के तौर-तरीके सीखने होंगे। मैं विराट कोहली की विकेटों के बीच दौड़ का कायल हूं। मैदान पर बतौर कप्तान उसे जो सम्मान मिलता है, वह अकल्पनीय है। विराट क्रिकेटरों के लिये रोल माडल हैं। विराट ने टीम के भीतर जो संस्कृति बनाई है, वह काफी प्रभावी है। भारतीय टीम की सबसे अच्छी बात मैदान में उसका सकारात्मक पक्ष है। वे विरोधी का सम्मान तो करते हैं लेकिन मैदान पर कोई रियायत नहीं दिखाते। उनके खेल के तौर-तरीके भी काबिले तारीफ हैं।
भारतीय टीम की जहां तक बात है उसने अपने टेस्ट मैचों के 85 साल के ‌इतिहास में पहली बार विराट कोहली की कप्तानी में विदेशी धरती पर श्रीलंकाई टीम का तीन टेस्ट मैचों की सीरीज में क्लीन स्वीप किया। इससे पहले कभी भी कोई भारतीय कप्तान विदेशी सरजमीं पर तीन टेस्ट मैचों की सीरीज में 3-0 से क्लीन स्वीप नहीं कर सका था। कोहली की कप्तानी में भारत ने टेस्ट क्रिकेट के इतिहास में पहली बार श्रीलंका की सरजमीं पर लगातार दो सीरीज जीतीं, इससे पहले भारतीय टीम ने 2015 में कोहली की ही कप्तानी में श्रीलंका के खिलाफ तीन टेस्ट मैचों की सीरीज खेली थी। उस दौरे में भारत ने श्रीलंका को उन्हीं की सरजमीं पर 2-1 से हराकर 22 साल बाद सीरीज पर कब्जा किया था। विदेशी धरती पर जीतने का जहां तक सवाल है इस मामले में विराट कोहली ने महेन्द्र सिंह धोनी के कीर्तिमान को भी तोड़ दिया है। तीसरे टेस्ट में जीत के साथ ही विदेशी सरजमीं पर विराट कोहली ने सातवीं टेस्ट जीत हासिल की। धोनी की कप्तानी में टीम इण्डिया ने विदेशों में छह टेस्ट सीरीज जीती थीं।
भारत के तकरीबन हर खिलाड़ी ने श्रीलंकाई दौरे में अपनी प्रतिभा से इंसाफ किया तो यह दौरा बतौर बल्लेबाज कप्तान कोहली के लिए खास रहा। टेस्ट क्रिकेट में शिखर धवन ने जहां अपनी बल्लेबाजी की धाक जमाई वहीं एकदिनी क्रिकेट में रोहित शर्मा ने दो शानदार शतक जड़कर अपनी पिछली नाकामियों को धो डाला। कप्तान कोहली ने भी फटाफट क्रिकेट में दो शतक जड़े और कई कीर्तिमानों पर पानी फेर दिया। विराट कोहली ने पांचवें एकदिवसीय मैच में 110 रनों की नाबाद शतकीय पारी खेलकर अपने वनडे करियर के 30 शतक पूरे किए। इसी के साथ उन्होंने आस्ट्रेलिया के पूर्व कप्तान रिकी पोंटिंग के कीर्तिमान की भी बराबरी कर ली। कोहली और पोंटिंग से आगे मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर हैं जिनके नाम 49 शतक दर्ज हैं। रिकी पोंटिंग तो क्रिकेट को अलविदा कर चुके हैं लिहाजा सचिन के इस कीर्तिमान को कोहली से ही खतरा है। जहां तक शतकों की बात है कोहली सबसे कम मैचों में 30 शतक लगाने वाले दुनिया के पहले बल्लेबाज हैं। 

कोहली ने श्रीलंका के खिलाफ पांच मैचों की सीरीज के आखिरी दो मैचों में शतक जमाते हुए 2017 में सबसे पहले 1000 रन पूरे करने वाले बल्लेबाज भी बन गये हैं। विराट ने इस साल 18 मैचों में 92.45 के शानदार औसत से अब तक 1017 रन बनाए हैं जिनमें चार शतक और छह पचासे शामिल हैं। विराट कोहली ने टी-20 क्रिकेट में लक्ष्य का पीछा करते हुए हुए 21 पारियों में 1016 रन पूरे किए। इस मामले में उन्होंने न्यूजीलैंड के ब्रैंडन मैकुलम को पीछे छोड़ा है जिन्होंने 38 पारियों में 1006 रन बनाए थे। कोहली ने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट के तीनों प्रारूपों में 15 हजार  रनों का जादुई आंकड़ा भी छू लिया है। इस मुकाम पर पहुंचने वाले वह भारत के सातवें और दुनिया के 33वें बल्लेबाज हैं। विराट ने अब तक 60  टेस्ट मैचों में 4658 रन, 194 एकदिवसीय मैचों में 8587 रन तथा 50 टी-20 मैचों में 1830 रन बनाए हैं। सफलता के शिखर पर सवार विराट कोहली की पलटन को अब अपनी ही सरजमीं में कंगारुओं से फटाफट और ताबड़तोड़ क्रिकेट में दो-दो हाथ करने हैं। भारतीय टीम को कंगारुओं से सावधान रहना होगा क्योंकि वह कभी भी हावी होने की क्षमता रखते हैं।  

फेडरेशन के रवैये से तीरंदाज परेशान

सांड़ों की लड़ाई में तीरंदाजों का हो रहा नुकसान
श्रीप्रकाश शुक्ला
भारतीय तीरंदाजी संघ के ढुलमुल रवैये से तीरंदाज न केवल असमंजस में हैं बल्कि उनका प्रदर्शन लगातार अर्श से फर्श पर आ रहा है। हम कह सकते हैं कि भारतीय तीरंदाज घुट-घुट कर मरने को मंजबूर हैं। 2010 में दिल्ली में हुए राष्ट्रमण्डल खेलों में भारत को तीरंदाजी में स्वर्णिम सफलता दिलाने वाली दीपिका कुमारी का प्रदर्शन लगातार गिर रहा है। तीरंदाजों की इस पीड़ा के लिए कुछ हद तक भारतीय खेल मंत्रालय और भारतीय तीरंदाजी संघ जवाबदेह है। दरअसल इन दोनों के बीच बीते पांच साल से अनबन चल रही है। भारतीय खेल मंत्रालय द्वारा तीरंदाजी संघ को निष्काषित किए जाने से उसकी हालत खस्ता है। तीरंदाजों को भी न ही प्रशिक्षक मिल पा रहे हैं और न ही सुविधाएं। दो सांड़ों की लड़ाई में तीरंदाजों का नुकसान हो रहा है।
प्रशासनिक विवाद और दिसम्बर 2012 से जारी सरकारी स्पोर्ट्स कोड को भारतीय तीरंदाजी संघ अपनी नाक का सवाल बना लिया है। भारतीय तीरंदाजी संघ  झुकने को तैयार नहीं है नतीजन भारतीय तीरंदाजों का प्रदर्शन औसत से नीचे आ गया है। हाल ही रोम में आयोजित विश्व कप तीरंदाजी में दीपिका कुमारी पहले राउंड में ही बाहर हो गईं। इस टूर्नामेंट में वह चीनी ताइपे की तान या टिंग से 6-0 से मुकाबला हारीं। दीपिका विश्व कप के लिए क्वालीफाई करने वाली वह एकमात्र भारतीय थीं। दीपिका ने अंतिम बार अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वर्ष 2015 में विश्व कप में रजत पदक जीता था। भारतीय तीरंदाजों ने इंचियोन एशियन गेम्स में शानदार चार पदक हासिल किये थे। उस समय तीरंदाजों से बेहतरीन भविष्य की उम्मीद जगी थी लेकिन भारतीय तीरंदाजी संघ और भारतीय खेल मंत्रालय के बीच चल रही नूराकुश्ती ने तीरंदाजों के भविष्य पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिया है।  

आज भारतीय तीरंदाज कहां खड़े हैं इसके जवाब में वरिष्ठ तीरंदाज दीपिका कुमारी का जवाब है कहीं भी नहीं। दीपिका ने कहा- मैक्सिको सिटी में 13  से 23  अक्टूबर तक विश्व चैम्पियनशिप का आयोजन होना है लेकिन हम लोगों से पदक की कोई उम्मीद नहीं की जानी चाहिए क्योंकि हम टूर्नामेंट में बिना किसी आशा के प्रवेश करेंगे। हम लम्बे समय से स्थायी प्रशिक्षक की मांग कर रहे हैं लेकिन भारतीय तीरंदाजी संघ आज तक एक अदद कोच (भारतीय और विदेशी कोच) नहीं दे सका है। बिना प्रशिक्षक के हमारे प्रदर्शन पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा। भारतीय तीरंदाजी संघ ने विदेशी कोच चाई वुंग लिम को तीन साल के लिए नियुक्त किया था लेकिन रियो ओलम्पिक में भारतीय निशानेबाजों के निराशाजनक प्रदर्शन के बाद उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। जब भी कोच के रिक्त पद को भरने की बात कही गई तभी भारतीय तीरंदाजी संघ ने रटा-रटाया जवाब सुना देता है कि हम उम्मीदवारों को छांटने की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं। अफसोस की बात है कि भारतीय खेल मंत्रालय भी भारतीय तीरंदाजों की मदद करने से परहेज कर रहा है।