Friday 28 October 2016

हाकी से दर्शकों को जोड़ने के हों प्रयास

 हाकी के मीत मीर रंजन नेगी से बातचीत
श्रीप्रकाश शुक्ला
कहते हैं कि कुछ लोग इस दुनिया में सदियों में एक बार होते हैं क्योंकि वे आम इंसान से काफी हटकर होते हैं और एक मिसाल बन जाते हैं, एक प्रेरणा, एक प्रकाश-पुंज बन जाते हैं। वह प्रकाश जो कई सदियों तक लोगों को रास्ता दिखाता है, मार्गदर्शन करता है। पुश्तैनी खेल हाकी के एक ऐसे ही मार्गदर्शक और मिसाल हैं मीर रंजन नेगी। बुलन्द हौंसलों और अथक प्रयासों के साथ किस तरह आदमी अपने जीवन के संघर्षशील दिनों से पार पाकर पुनः अपने को स्थापित कर सकता है, इसका उदाहरण मीर रंजन नेगी से बेहतर भला कौन हो सकता है। अपनी जीवन गाथा को उन्होंने पुस्तक स्वरूप सामने रखा है और इसे उचित ही नाम दिया है फ्राम ग्लूम टू ग्लोरी।
हाकी के जादूगर मेजर ध्यान सिंह के मुल्क में वैसे तो कई नामवर खिलाड़ी हुए हैं लेकिन हाकी के मीतों की बात करें तो मीर रंजन नेगी विशेष हैं। मीर रंजन नेगी के बचपन का नाम सतेंदर सिंह नेगी था आज भी घर में लोग उन्हें सत्ती नाम से बुलाते हैं। मीर रंजन नेगी मूलतः अल्मोड़ा जिले के ओटला मजखाली गांव के निवासी हैं। लगभग पूरी जिन्दगी पहाड़ से बाहर बिताने के बावजूद उनमें एक सच्चे पहाड़ी की जिजीविषा और संघर्ष करने की क्षमता कूट-कूट कर भरी हुई है। मीर रंजन नेगी के जीवन में भारी उथल-पुथल तो हुई लेकिन यह खिलाड़ी पहाड़ की मानिंद हर मुसीबत पर हिला नहीं बल्कि डटा रहा। जीत-हार खेल का हिस्सा है लेकिन वर्ष 1982 में एशिया कप के फाइनल में भारतीय टीम का पाकिस्तान के हाथों पराजित होना मीर रंजन नेगी के लिए मुसीबत बन गया। नेगी उस पराजित भारतीय हाकी टीम के गोलकीपर थे। उन पर पाकिस्तान को जिताने के लिये देश से गद्दारी करने के बेबुनियाद आरोप लगे और एकबारगी फौलाद का बना यह खिलाड़ी भी टूट सा गया। इन शर्मनाक आरोपों से आजिज राष्ट्रीय खेल की राष्ट्रीय टीम का यह गोलकीपर अचानक गुमनामी के अंधेरे में खो सा गया। लेकिन एक पराक्रमी योद्धा की मानिंद उसने अपयशों पर जीत हासिल कर दिखा दिया कि उसके सामने मुल्क से बड़ा कुछ भी नहीं है।
लाख आरोपों के बावजूद मीर रंजन नेगी ने हाकी के प्रति अपने जुनून को कम नहीं होने दिया और भारतीय महिला हाकी टीम के कोच के रूप में सफलतापूर्वक अपनी पहचान को न सिर्फ पुनर्स्थापित किया बल्कि भारत में महिला हाकी को एक नये मुकाम पर पहुंचा कर ही दम लिया। मीर रंजन के भारतीय महिला हॉकी टीम के गोलकीपिंग कोच नियुक्त होने के बाद 1998 एशियन गेम्स व 2002 में कॉमनवेल्थ गेम्स में महिला हाकी टीम स्वर्ण पदक जीतने में सफल हुई। हाकी टीम के सहायक कोच के रूप में उनकी टीम 2004 में एशियन हॉकी का स्वर्ण भी जीती थी। मीर रंजन नेगी की संघर्ष गाथा को बालीवुड के रुपहले पर्दे पर जब शाहरुख खान द्वारा अभिनीत कर चक दे इण्डिया के रूप में दर्शकों के सामने रखा गया तो यह फिल्म खेलों पर आधारित सर्वाधिक चर्चित और सफल फिल्म साबित हुई। आज चक दे इण्डिया भारतीय खेलप्रेमियों के लिये एक नारा ही नहीं मूलमंत्र है। इस फिल्म की सफलता के बाद मीर रंजन नेगी ग्लैमर की दुनिया से खुद को अलग नहीं रख पाये और टेलीविजन फिल्मों में छा गये। सोनी के डांस शो झलक दिखला जा में नृत्य के मंच पर भी उन्होंने नया सीखने और कभी हार न मानने के अपने सकारात्मक गुणों के आधार पर वाहवाही लूटी। इसके बाद वह कुछ फिल्मों में नजर आये और अपनी जीवनी के माध्यम से अपने जीवन के महत्वपूर्ण घटनाक्रमों को दुनिया के सामने रखा जोकि पहले अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित हुई थी और बाद में मिशन चक दे नाम से हिन्दी में प्रकाशित हुई। मीर रंजन नेगी अभी फाउण्डेशन के माध्यम से सिर्फ हाकी ही नहीं फुटबाल और कबड्डी जैसे परम्परागत खेलों के उत्थान को समर्पित हैं। चक दे इण्डिया की सफलता से उत्साहित एक और हाकी पर मूवीज बनाने की बातें चल निकली हैं। इसके लिए फिल्म निर्माता मीर रंजन नेगी से निरंतर सम्पर्क में हैं। हाकी के महायोद्धा मीर रंजन नेगी हाकी के प्रोत्साहन की दिशा में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा किए जा रहे प्रयासों से बेहद खुश हैं। श्री नेगी स्टार स्पोर्ट्स चैनल के साथ ही नेशनल स्पोर्ट्स टाइम्स, साप्ताहिक खेलपथ जैसी खेल पत्र-पत्रिकाओं की मुक्तकंठ से तारीफ करते हुए कहते हैं कि मीडिया के सहयोग के बिना खेलों का विकास असम्भव बात है।
दूरभाष पर हुई बातचीत में मीर रंजन नेगी ने कहा खेलों की बहुत कहानियां हैं। इनके अच्छे पात्रों यानि खिलाड़ियों की देश में कमी नहीं है। जरूरत है इन पात्रों को जनमानस के सामने पेश करने का। हाकी की जहां तक बात है हाकी खिलाड़ियों के साथ सौतेला व्यवहार हमेशा से ही हुआ है चाहे वह कोई भी राज्य हो। पूरे हिन्दुस्तान में हाकी खिलाड़ियों को कभी भी सरकार ने अपनेपन की दृष्टि से नहीं देखा। खुशी की बात है कि मध्य प्रदेश सरकार हाकी ही नहीं लगभग सभी खेलों की दिशा में अच्छे काम कर रही है लेकिन अकेले शिवराज सिंह सरकार के प्रयासों से ही खेलों का भला नहीं हो सकता। खेलों की बेहतरी के लिए सभी राज्यों को एकजुटता दिखाते हुए मैदानों से दर्शकों को पुनः जोड़ने के प्रयास करने चाहिए। श्री नेगी कहते हैं कि चक दे इण्डिया फिल्म बनने के बाद खेलों में क्रांतिकारी बदलाव देखने को तो मिले लेकिन इस फिल्म की खूबियों से खेल फेडरेशनों ने कोई नसीहत नहीं ली। श्री नेगी कहते हैं कि खेलों के उत्थान में फिल्में और बालीवुड अहम रोल अदा कर सकते हैं। बालीवुड के माध्यम से खेलप्रेमियों को मैदानों की तरफ लाया जा सकता है। कितना ही रोमांचक मुकाबला क्यों न हो यदि दर्शक ही नहीं होंगे तो खिलाड़ियों का हौसला भला कौन बढ़ाएगा। हाकी की बेहतरी के लिए इस खेल से दर्शकों को जोड़ा जाना निहायत जरूरी है।

श्री नेगी कहते हैं कि मैदानों में दर्शकों की कमी का ही नतीजा है कि आज सिर्फ धनराज पिल्लै, सरदारा सिंह जैसे कुछ खिलाड़ियों को ही लोग पहचानते हैं। हमारे देश में अच्छे खिलाड़ियों की कमी नहीं है। बेहतर होगा कि इन अच्छे खिलाड़ियों को मीडिया में पर्याप्त कवरेज मिले ताकि हमारे युवा खेलों को अपना करियर बनाने के बारे में सोचें। श्री नेगी का कहना है कि खेलों के विकास में मीडिया का अहम रोल है। मीडिया स्कूल-कालेज स्तर की खेल प्रतियोगिताओं और खिलाड़ियों को प्रोत्साहित कर देश में क्रांतिकारी बदलाव ला सकता है। हाकी के मौजूदा हालातों पर श्री नेगी का कहना है कि टीम सही दिशा की तरफ अग्रसर है। गोलकीपर पी.जी. श्रीजेश बहुत अच्छा कर रहे हैं। वह नम्बर एक गोलकीपर हैं लेकिन लम्बे अर्से से हमारे पास दूसरे नम्बर का अच्छा गोलकीपर नहीं है। हाकी इण्डिया को इसके लिए गोलकीपरों की अलग से ट्रेनिंग की व्यवस्था करनी चाहिए। पहले हमारे देश में गोलकीपरों की अलग से ट्रेनिंग और कौशल निखारने की व्यवस्था की जाती थी।

Tuesday 25 October 2016

अब आया गुरूर का ऊंट पहाड़ के नीचे

भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड की हठधर्मिता पर सर्वोच्च न्यायालय का तमाचा
       श्रीप्रकाश शुक्ला
वैश्विक स्तर पर अपने धन-धान्य और हुकूमत का रौब झाड़ने वाला भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड फिलवक्त मुश्किल में है। देश की हुकूमत के सामने कभी न झुकने वाला यह खेल संगठन सर्वोच्च न्यायालय के सामने भीगी बिल्ली नजर आ रहा है। सच्चाई यह है कि पहली बार शेर को सवा शेर मिला है। दरअसल यह सब भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के मठाधीशों के अपने निजी स्वार्थों का ही नतीजा है। देखा जाए तो इन मठाधीशों ने अपने जनसमुदाय की भावनाओं की रत्ती भर परवाह किए बिना देश में क्रिकेट के वर्तमान और भविष्य को ही दांव पर लगा दिया है। क्रिकेट के दुर्भाग्यपूर्ण फलसफों से कई बार मुल्क को शर्मसार होना पड़ा लेकिन उसने अपने धन-बल की रौब में भारतीय हुकूमत को भी सिरे से खारिज करने का दुस्साहस दिखाने से गुरेज नहीं किया। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्वतंत्र ऑडीटर की नियुक्ति और राज्य क्रिकेट संघों को अनुदान पर रोक दरअसल भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के हम नहीं सुधरेंगे वाली सोच का ही नतीजा है। इसके लिए और इससे भविष्य में उत्पन्न होने वाली स्थितियों के लिए सर्वोच्च न्यायालय और न्यायमूर्ति लोढ़ा समिति को दोषी ठहराना सर्वथा अनुचित होगा। बेहतर होगा भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड अपनी सोच ही नहीं अपना चोला भी बदल ले वरना उसे अर्श से फर्श में आने से कोई नहीं रोक पाएगा।
सर्वोच्च न्यायालय और उसके द्वारा क्रिकेट प्रबंधन में सुधार के लिए गठित समिति का उद्देश्य देश में सबसे ज्यादा लोकप्रिय इस खेल और इसके प्रबंधन में पारदर्शिता, जिम्मेदारी और जवाबदेही लाना ही है। सर्वोच्च न्यायालय के उद्देश्य को नाकाम करने की हरसम्भव कोशिश कर भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड दरअसल जनसमुदाय में व्याप्त इस धारणा को ही पुष्ट कर रहा है कि उस पर धंधेबाज राजनेताओं, नौकरशाहों और निहित स्वार्थियों का कब्जा है। देखा जाए तो इन मठाधीशों का क्रिकेट की बेहतरी से कुछ भी लेना-देना नहीं है। क्रिकेट में राजनीतिज्ञों की पैठ उनके बुरे वक्त का ऐसा राजमहल है जिसमें वह मनचाहे समय तक रहने को स्वतंत्र हैं। राजनीतिज्ञों की यही धारणा इस खेल के लिए नासूर बनती जा रही है। देखा जाए तो भारतीय क्रिकेट को धंधेबाजों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड को पर्याप्त समय दिया है। सर्वोच्च न्यायालय चाहता है कि भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड अपनी रीति-नीति में आमूलचूल सुधार लाए, लेकिन उसकी हठधर्मिता से लगातार यही संकेत गये कि वह स्वयंभू है, उसे किसी की परवाह नहीं है।
देखा जाए तो सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति लोढ़ा जिनके कार्यकाल में यह सुनवाई शुरू हुई थी, की अगुआई में गठित समिति भी क्रिकेट प्रबंधन में सुधार के लिए ठोस सिफारिशें दे चुकी है। इन सिफारिशों पर अमल के लिए भी सर्वोच्च न्यायालय भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड को बार-बार अल्टीमेटम दे चुका है बावजूद इसके हर बार नया बहाना सामने आ जाता है। दरअसल, एक राज्य एक वोट, एक व्यक्ति एक पद सरीखे प्रावधान और 70 वर्ष की आयु पूरी कर चुके लोगों और मंत्रियों के पद पर रोक जैसी सिफारिशें स्वीकार कर लेने से क्रिकेट प्रबंधन और संचालन कैसे चरमरा जायेगा, भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड सर्वोच्च न्यायालय इसे समझाने में सफल नहीं हुआ है। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड सर्वोच्च न्यायालय की सुधारवादी सिफारिशों पर अमल कर इस खेल में व्याप्त अंधेरगर्दी को दूर कर एक नजीर स्थापित कर सकता था। क्रिकेट को चंद निहित स्वार्थियों के चंगुल से मुक्त करवा कर देश में क्रिकेट प्रबंधन और संचालन को अधिक पारदर्शी, जिम्मेदार और जवाबदेह बनाना समय की नजाकत है। समझना मुश्किल नहीं होना चाहिए कि पारदर्शिता, जिम्मेदारी और जवाबदेही आने के बाद दुनिया के सबसे अमीर भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड पर काबिज लोगों की मनमानी कारगुजारियों पर अंकुश लग जायेगा। दरअसल लोढ़ा समिति की सिफारिशों के विरोध के पीछे यही मुख्य कारण भी है। इसीलिए लोढ़ा समिति की सिफारिशों और सर्वोच्च न्यायालय की सख्ती को क्रिकेट के विरुद्ध पेश करने की कोशिश वाली गलतबयानी करने से भी भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड बाज नहीं आया।
पिछले दिनों जब सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राज्य क्रिकेट संघों को भुगतान पर रोक लगाई गयी तो भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने भारत-न्यूजीलैंड सीरीज पर संकट का बहाना बताकर मामले को और पेंचीदा बनाने की भूल कर दी। राज्य क्रिकेट संघों के भुगतान पर रोक से सीरीज पर संकट की बात कहना पूरी तरह निराधार और असत्य जुमलेबाजी थी। अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट काउंसिल में भी इन सिफारिशों के विरुद्ध दुष्प्रचार और लॉबिंग से पता चलता है कि क्रिकेट पर काबिज इन मठाधीशों के निहित स्वार्थ कितने गहरे हैं। अपनी ऐसी हरकतों से भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड और उस पर काबिज मठाधीश अपनी रही-सही प्रतिष्ठा भी खोते जा रहे हैं। अगर भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड और उसके मठाधीशों के प्रति सर्वोच्च न्यायालय की कुछ टिप्पणियां तल्ख भी नजर आती हैं, तो इसके लिए भी वे खुद ही जिम्मेदार हैं। देश की सर्वोच्च अदालत के प्रति ऐसा अवमाननापूर्ण रुख भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड को ही कठघरे में खड़ा करने वाला है। लोढ़ा समिति की सिफारिशों को लागू करने में आनाकानी कर रहे भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष अनुराग ठाकुर के रवैए से भी सर्वोच्च न्यायालय का आगबबूला होना जायज है। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश टी.एस. ठाकुर की अगुआई वाली तीन सदस्यीय पीठ ने फिलहाल उनके खिलाफ फैसला सुरक्षित कर लिया है और भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड की ओर से दाखिल पुनरीक्षण याचिका पर विचार करने के लिए एक पखवाड़े का समय भी दे दिया है। इस मामले में अदालत का अंतिम फैसला जो भी हो लेकिन अब तक जो तथ्य सामने आए हैं उसमें भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड खासकर उसके अध्यक्ष की किरकिरी ही हुई है। गौरतलब है कि लोढ़ा समिति की प्रमुख सिफारिशों में एक यह भी है कि भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के सभी पदाधिकारियों को हटा दिया जाए और उनकी जगह प्रशासकों का एक पैनल बनाया जाए जो सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मंजूर सिफारिशों को लागू कर सके। समझा जाता है कि भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड अध्यक्ष समेत दूसरे पदाधिकारियों को जो बात नागवार गुजर रही है, वह उनका पद से हटाया जाना ही है। इसीलिए जब से सिफारिशें घोषित हुई हैं तभी से हरसम्भव कोशिश इस पर अमल लटकाने की रही है। क्रिकेट को अपनी मिल्कियत बना चुके राजनीतिज्ञ, पूंजीपति और अफसरशाह इसका मोह नहीं त्याग पा रहे हैं और एन-केन-प्रकारेण खुद को जमाए रखने की हिकमतें आजमा रहे हैं।
भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड अध्यक्ष अनुराग ठाकुर पर आरोप है कि उन्होंने अंतराष्ट्रीय क्रिकेट परिषद से ऐसा बयान जारी करने के लिए कहा था जिसमें इस बात का उल्लेख हो कि लोढ़ा समिति की सिफारिशें सरकारी हस्तक्षेप हैं। हालांकि अध्यक्ष अनुराग ठाकुर ने शीर्ष अदालत में दिए अपने एक हलफनामे में इस आरोप से इनकार किया है लेकिन इतना जरूर कहा है कि वे अगस्त में दुबई में आईसीसी अध्यक्ष शशांक मनोहर से एक बैठक में मिले थे और उन्हें यह याद दिलाया था कि भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड अध्यक्ष रहने के दौरान उन्होंने बोर्ड की शीर्ष परिषद में कैग की नियुक्ति को सरकारी हस्तक्षेप मानते हुए आईसीसी द्वारा बीसीसीआई को निलम्बित करने की बात कही थी। अब जबकि शशांक मनोहर खुद आईसीसी के अध्यक्ष हैं तो इस मामले में पत्र जारी करें। हालांकि शशांक मनोहर ने कोई पत्र जारी नहीं किया। इस मामले में अदालत के न्यायमित्र के तौर पर गोपाल सुब्रहमण्यम ने स्पष्ट किया कि आईसीसी द्वारा बीसीसीआई की सदस्यता रद्द किए जाने की धमकी का जिक्र उठाना अपने आप लोढ़ा समिति की सिफारिशों और उच्चतम न्यायालय के फैसले का पालन न करने का ही प्रयास है।

देखा जाए तो भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड अध्यक्ष का रवैया हर जगह बाधा पहुंचाने वाला प्रतीत होता है। न्यायमित्र ने सवालिया लहजे में कहा कि क्या ऐसे शख्स पर भरोसा किया जाए कि वे सुधारों को लागू करेंगे जबकि वे खुद आईसीसी के अध्यक्ष से पत्र जारी करने को कह रहे हों। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि वह इसकी तह तक जाएगा और यह भी देखेगा कि कहीं यह तौहीन-ए-अदालत का मामला तो नहीं बनता। सर्वोच्च न्यायालय की इस सख्ती का साफ संकेत है कि भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के पदाधिकारियों को अदालत के निर्देशों का सम्मान करना सीखना ही होगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि लोढ़ा समिति की सिफारिशों को लागू करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गयी तीन दिसम्बर तक की नई समय सीमा का भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड सकारात्मक उपयोग करेगा। इस उम्मीद का आधार यह भी है कि अगले 10 वर्षों के मीडिया प्रसारण के उसके अधिकार पर भी अब स्वतंत्र ऑडिटर के रूप में तलवार लटक गयी है। हम कह सकते हैं कि सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से ही सही गुरूर का ऊंट पहाड़ के नीचे आ ही गया है।

Saturday 22 October 2016

पैरालम्पिक में भारतीय दिव्यांगों का कमाल

भारतीय एथलीटों का पैरालम्पिक में प्रदर्शन
नौ खिलाडि़यों ने जीते 12 पदक
श्रीप्रकाश शुक्ला
पैरालम्पिक को दुनिया भर के दिव्यांगों का खेल महोत्सव कहा जाता है। निःशक्तजनों को सर गुडविंग गुट्टमान का अहसान मानना होगा कि उन्होंने खेलों के माध्यम से ही सही दुनिया को एक मण्डप के नीचे ला खड़ा किया। निःशक्तजनों के हौसला-अफजाई की जहां तक बात है, हमारे समाज में अब भी प्रगतिगामी नजरिया नहीं बन पाया है। दिव्यांगता को हम जीवन भर की मुसीबत के रूप में देखते हैं। भारत में दिव्यांगों को दया की नजर से देखा जाता है, बावजूद इसके सारी परेशानियों को ठेंगा दिखाते हुए भारतीय दिव्यांगों ने इस कमजोरी को ही फौलादी शक्ल में बदल दिखाया। समाज और सरकार की ओर से बहुत ज्यादा सहयोग न मिलने के बावजूद पैरालम्पिक जैसे विश्व स्तरीय खेल मंचों पर यदि हमारे खिलाड़ी पदक हासिल करते हैं तो यह बड़ी उपलब्धि है।
ओलम्पिक की गहमागहमी के बाद उसी मैदान पर पैरालम्पिक खेलों में पदक जीतने की होड़ अब ओलम्पिक कैलेंडर का नियमित हिस्सा बन गई है। दिव्यांग खिलाड़ी पूरे जोश और जज्बे के साथ पदक तालिका में अपना और अपने देश का नाम दर्ज कराने के लिए वर्षों की मेहनत को झोंक देते हैं। पैरालम्पिक खेलों की शुरुआत दूसरे विश्व युद्ध के बाद घायल सैनिकों को मुख्यधारा से जोड़ने के मकसद से हुई थी। खासतौर पर स्पाइनल इंज्यूरी के शिकार सैनिकों को ठीक करने के लिए इस खेल को शुरू किया गया। साल 1948 में विश्वयुद्ध के ठीक बाद स्टोक मानडेविल अस्पताल के न्यूरोलाजिस्ट सर गुडविंग गुट्टमान ने सैनिकों के रिहेबिलेशन के लिए खेलों को चुना। तब इसे अंतरराष्ट्रीय व्हीलचेयर गेम्स का नाम दिया गया था। गुट्टमान ने अपने अस्पताल के ही नहीं दूसरे अस्पताल के मरीजों को भी खेल प्रतियोगिताओं में शामिल कराने का अभिनव प्रयास किया जोकि काफी सफल रहा और लोगों ने इसे काफी पसंद किया। सर गुट्टमान के इस सफल प्रयोग को ब्रिटेन की कई स्पाइनल इंज्यूरी इकाइयों ने अपनाया और एक दशक तक स्पाइनल इंज्यूरी को ठीक करने के लिए ये रिहेबिलेशन प्रोग्राम चलता रहा। 1952 में फिर इसका आयोजन किया गया। इस बार ब्रिटिश सैनिकों के साथ ही डच सैनिकों ने भी इसमें हिस्सा लिया। इस तरह पैरालम्पिक खेलों के लिए एक जमीन तैयार हुई। सर गुट्टमान की सोच को पर लगे और 1960 रोम में पहले पैरालम्पिक खेलों का आयोजन किया गया। देखा जाए तो 1980 के दशक में ही इन खेलों में क्रांति आई।
आमतौर पर पैरालम्पिक खेलों से आम जनता अनजान रहती है। अब तक हुए पैरालम्पिक खेलों में भारत का प्रदर्शन कोई खास नहीं रहा बावजूद इसके कुछ ऐसे भारतीय एथलीट हैं जिन्होंने अपने लाजवाब प्रदर्शन से इन खेलों को भी यादगार बना दिया। भारतीय पैरा एथलीटों को व्यक्तिगत पदक लाने में 56 साल लगे तो पहला व्यक्तिगत स्वर्ण पदक हासिल करने के लिए भारत को 112 साल का लम्बा इंतजार करना पड़ा। सामान्य ओलम्पिक खेलों की तरह पैरालम्पिक खेलों का भी खासा महत्व है। भारत ने सामान्य ओलम्पिक खेलों में अब तक 28 पदक जीते हैं तो पैरालम्पिक में हमारे 09 खिलाड़ियों ने ही अपनी क्षमता व लाजवाब प्रदर्शन का लोहा मनवाते हुए अब तक 12 पदक मुल्क की झोली में डाले हैं।
भारतीय खिलाड़ियों ने पैरालम्पिक खेलों में पदक जीतने का सिलसिला 1972 में शुरू किया था, जब मुरलीकांत पेटकर ने भारत के लिए पैरालम्पिक खेलों का पहला गोल्ड मेडल दिलवाया। 1972 में मुरलीकांत पेटकर का जर्मनी जाना मील का पत्थर साबित हुआ और उन्होंने पैरालम्पिक खेलों में इतिहास रच दिया। सेना के इस जांबाज ने न सिर्फ भारत के लिए स्वर्ण पदक जीता बल्कि सबसे कम समय में 50 मीटर की तैराकी प्रतियोगिता जीतने का पैरालम्पिक रिकार्ड भी बना डाला। भारतीय खेलों के नजरिए से देखें तो मुरलीकांत पेटकर आज तरणताल की किंवदंती हैं। पेटकर की सफलता के 12 साल बाद 1984 में न्यूयार्क के स्टोक मैंडाविल में आयोजित पैरालम्पिक खेलों में भारतीयों ने दो रजत व दो कांस्य पदक जीते। इस पैरालम्पिक में भीमराव केसरकर ने भालाफेंक तो जोगिन्दर सिंह बेदी ने गोलाफेंक में रजत पदक जीते। भारतीय पहलवान सुशील कुमार ही एकमात्र ऐसे एथलीट हैं जिन्होंने ओलम्पिक में दो बार पदक जीते हैं लेकिन पैरालम्पिक में एक बड़ा इतिहास दर्ज है। 1984 स्टोक मैंडाविल पैरालम्पिक भारत के लिहाज से सबसे सफल रहे, इसमें जोगिंदर सिंह बेदी ने एक चांदी और दो कांसे के पदक अपने नाम किए थे। यह कारनामा उन्होंने गोला फेंक, भाला फेंक और चक्का फेंक प्रतिस्पर्धा में हासिल किया।
इस सफलता के बाद 20 साल तक भारत की पदक तालिका खाली रही और फिर 2004 के एथेंस पैरालम्पिक खेलों में देवेन्द्र झाझरिया ने भालाफेंक में भारत को स्वर्ण पदक दिलाया तो राजिन्दर सिंह राहेलू ने भारत को पावरलिफ्टिंग में कांस्य पदक दिलवाकर भारत के पदकों की संख्या दो कर दी। 2012 के लंदन पैरालम्पिक खेलों में भारत को केवल एक रजत पदक से संतोष करना पड़ा। भारत को गिरीश नागराज गौड़ा ने ऊंचीकूद में चांदी का पदक दिलाया। रियो में भारतीय पैरा एथलीटों ने दो स्वर्ण, एक रजत और एक कांस्य पदक जीते। भारत ने अब तक पैरालम्पिक खेलों में जीते 12 पदकों में से एथलेटिक्स में 10, तैराकी और पावरलिफ्टिंग में एक-एक पदक जीते हैं। इन एक दर्जन पदकों में चार स्वर्ण, चार रजत और चार कांस्य पदक शामिल हैं। इन 12 पदकों में से तीन स्वर्ण, चार रजत और तीन कांस्य पदक तो एथलेटिक्स में ही मिले हैं। भारत को तैराकी और पावरलिफ्टिंग में एक स्वर्ण और एक कांस्य पदक हासिल हुआ है।
इसी साल रियो पैरालम्पिक में चैम्पियन चीन, ब्रिटेन और अमेरिकी दिव्यांग खिलाड़ियों की अदम्य इच्छाशक्ति से परे भारतीय दिव्यांग खिलाड़ियों ने दो स्वर्ण, एक रजत और एक कांस्य पदक के साथ भारत को तालिका में 42वां स्थान दिलाया। 11 दिनों तक चले इन खेलों में चीन ने 100 से अधिक स्वर्ण पदक जीतकर पदक तालिका में शीर्ष स्थान हासिल किया। चीन ने 105 स्वर्ण, 81 रजत और 51 कांस्य सहित कुल 237 पदक जीते। वह इन खेलों के इतिहास में 100 या उससे अधिक स्वर्ण पदक जीतने वाला तीसरा देश बना। इससे पहले यह रिकॉर्ड अमेरिका और ब्रिटेन के नाम था। ब्रिटेन 64 स्वर्ण, 39 रजत और 44 कांस्य सहित कुल 147 पदक जीतकर दूसरे स्थान पर रहा। तीसरे स्थान पर रहे यूक्रेन ने 41 स्वर्ण, 37 रजत, 39 कांस्य सहित कुल 117 पदक जीते। अमेरिका ने 40 स्वर्ण, 42 रजत, 30 कांस्य जीतकर कुल 112 पदकों के साथ चौथा स्थान हासिल किया।
भारतीय दिव्यांग खिलाड़ियों की यह उपलब्धि कई मायनों में खास है। हमारे 117 सक्षम खिलाड़ियों ने इसी रियो में दो बेटियों शटलर पी.वी. सिन्धू और पहलवान साक्षी मलिक के पदकों की बदौलत बमुश्किल मुल्क को शर्मसार होने से बचाया था तो पैरालम्पिक खेलों में महज 19 सदस्यीय दल ने दो स्वर्ण सहित चार पदक जीतकर धाक जमा दी। ओलम्पिक खेलों में भारतीय बेटियों के नायाब प्रदर्शन की बात करें तो 16 साल में छह महिला खिलाड़ियों ने मादरेवतन का मान बढ़ाया है। भारोत्तोलक कर्णम मल्लेश्वरी ने 2000 के सिडनी ओलम्पिक में भारतीय महिलाओं की तरफ से पहला पदक जीता था। मल्लेश्वरी के बाद 2012 लंदन ओलम्पिक खेलों में शटलर साइना नेहवाल और मुक्केबाज एम.सी. मैरीकाम ने अपने कांस्य पदकों से महिला शक्ति का शानदार आगाज किया तो इसी साल रियो ओलम्पिक में दो बेटियों शटलर पीवी सिन्धू और पहलवान साक्षी मलिक ने धमाल मचाया। पैरालम्पिक खेलों में स्वीमर से एथलीट बनी हरियाणा की दीपा मलिक गोला फेंक में चांदी का तमगा जीतने वाली पहली भारतीय महिला खिलाड़ी बनीं। मेरी लीला रो भारत की तरफ से ओलम्पिक खेलों में शिरकत करने वाली पहली महिला खिलाड़ी हैं तो पैरालम्पिक में तीरंदाज पूजा ने पहली बार लक्ष्य पर निशाने साधे हैं।
सच कहें तो अगस्त में रियो ओलम्पिक में गए अब तक के सबसे बड़े दल के खिलाड़ियों के लिये भारतीयों ने जो दुआएं की थीं वे जाकर पैरालम्पिक खेलों में ही फलीभूत हुईं। पदकों के तीन रंग स्वर्ण, रजत व कांस्य तिरंगे से जुड़े हैं। हरियाणा इस बात पर गर्व कर सकता है कि इस कामयाबी में उसकी बड़ी हिस्सेदारी है। पहले सामान्य वर्ग में साक्षी मलिक की कामयाबी और अब दीपा मलिक की। दोनों ने ही इतिहास रचा है। यह दोनों जांबाज अपने खेलों में पदक हासिल करने वाली भारत की पहली महिला खिलाड़ी हैं। यह कहने में जरा भी गुरेज नहीं कि हरियाणा में जो खेल संस्कृति विकसित की गई उसके सार्थक परिणाम सामने आने लगे हैं। पिछली तीन ओलम्पिक प्रतियोगिताएं इस बात का गवाह हैं कि इनमें हरियाणवी खिलाड़ियों ने मुल्क को एक न एक पदक जरूर दिलवाये हैं। हरियाणा में खेलों की इस कामयाबी के बावजूद दिव्यांग दीपा मलिक की कामयाबी का कद और बड़ा हो जाता है। कुदरत द्वारा दी गई अपूर्णता को उन्होंने अपनी अदम्य इच्छाशक्ति से पूर्णता में बदल दिखाया। कितना प्रेरक है कि जिसका धड़ से नीचे का हिस्सा लकवाग्रस्त हो जाये वह मुल्क को पदक दिलाने का संकल्प बना ले। 31 सर्जरी और 183 टांकों की टीस से गुजरने वाली दीपा में जीत का हौसला तब तक कायम रहा, जब तक कि उसने चांदी का पदक गले में नहीं डाल लिया।
हमें सोना जीतने वाले खिलाड़ी मरियप्पन थंगवेलु, देवेन्द्र झाझरिया व कांस्य पदक विजेता वरुण भाटी को भी याद करना चाहिए। वे भी भारतीय सुनहरी कहानी के महानायक हैं। इन्होंने अपने दर्द को लाचारी नहीं बनने दिया। अपने जोश व हौसले को जिन्दा रखा। भारतीयों के सामने मिसाल रखी कि हालात कितने ही विषम हों, जीत का हौसला कायम रखो। विडम्बना है कि खाते-पीते स्वस्थ लोग जरा-सी मुश्किल से घबराकर आत्महत्या जैसा आत्मघाती कदम उठा लेते हैं लेकिन इन पदक विजेताओं को देखिये, इन्हें समाज की उपेक्षा व सम्बल देने वाली नीतियों के अभाव में भी जीतना आया। रियो पैरालम्पिक में कुछ खास बातें भी हुईं जैसे ऊंची कूद में एक स्वर्ण और एक कांस्य लेकर पहली बार दो भारतीय खिलाड़ी एक साथ पोडियम पर चढ़े। मरियप्पन थंगावेलू ने स्वर्ण जीता तो इसी प्रतियोगिता में वरुण भाटी ने कांस्य पदक से अपना गला सजाया।
मरियप्पन थंगावेलू जब बहुत छोटे थे तभी नशे में धुत एक ट्रक ड्राइवर ने उन पर ट्रक चढ़ा दी थी और उन्हें अपना पैर खोना पड़ा। विकलांगता के कारण उनके पिता ने उन्हें छोड़ दिया और मां ने कठिन परिश्रम कर उन्हें पाला-पोसा। बेहद गरीबी में जीकर भी उन्होंने अपने हौसले से स्वर्ण पदक हासिल कर मुल्क का मान बढ़ाया। मरियप्पन की मां आज भी सब्जी बेचकर अपने परिवार का भरण-पोषण करती हैं। ऊंची कूद में कांस्य पदक हासिल करने वाले वरुण प्रारम्भ में बास्केटबाल खिलाड़ी थे और अच्छा खेलते भी थे लेकिन विकलांग होने के कारण उन्हें बाहर होने वाले मैचों में नहीं ले जाया जाता था और कई बार स्कूल में भी खेल से बाहर कर दिया जाता था। इस संवेदनहीनता से वरुण हारे नहीं और बास्केटबाल छोड़कर ऊंची कूद में भी अपना हुनर दिखाया और पदक विजेता बनकर सारे मुल्क का नाम रोशन किया।

रियो पैरालम्पिक में दूसरा स्वर्ण पदक जीतने वाले राजस्थान के चुरू जिले के देवेंद्र झाझरिया की जितनी भी तारीफ की जाए वह कम है। इस राजस्थानी एथलीट ने भाला फेंक में न केवल स्वर्णिम सफलता हासिक की बल्कि 63.97 मीटर दूर भाला फेंककर विश्व कीर्तिमान भी रच डाला। इससे पहले 2004 के एथेंस पैरालम्पिक खेलों में भी देवेंद्र को स्वर्ण पदक हासिल हुआ था। तब उन्होंने 62.15 मीटर दूर भाला फेंका था। दुर्घटना में एक हाथ खोने वाले देवेंद्र झाझरिया ने साबित कर दिखाया कि एक ही हाथ से दो बार विश्व रिकार्ड बनाने के लिए मानसिक हौसले की जरूरत होती है। देवेन्द्र पैरालम्पिक खेलों में दो स्वर्ण पदक जीतने वाले भारत के पहले खिलाड़ी हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और केन्द्रीय खेल मंत्री विजय गोयल ने भी इस बार खिलाड़ियों की हौसलाअफजाई कर एक नजीर पेश की है। यह सहयोग बना रहे ताकि हमारे खिलाड़ी अपने करिश्माई प्रदर्शन से दुनिया में मादरेवतन का नाम रोशन करते रहें। अधूरेपन से लड़ाई लड़ते हुए भी पैरालम्पिक में पदक जीतने वाले इन खिलाड़ियों की मानसिक ताकत को हर खेलप्रेमी को सलाम करना चाहिए, जो बताते हैं कि मुश्किल कितनी भी बड़ी क्यों न हो, हमें हिम्मत नहीं हारनी। अगले ओलम्पिक टोकियो में होंगे। भारत सरकार को यह सोचना चाहिए कि आर्थिक तंगी में जी रहे खिलाडिय़ों को और सुविधाएं-संसाधन मुहैया कराए जाएं ताकि देश पदक तालिका में और ऊंचे पहुंच सके।

Tuesday 18 October 2016

नाकाबिल पैरों बावजूद रवीन्द्र पाण्डेय का कमाल

कार से टोल बैरियरों पर बिना रुके भरते हैं फर्राटा
राजस्थान के उदयपुर शहर के रवीन्द्र पाण्डेय के जीवन में बचपन में बदकिस्मती ने दरवाजा खटखटाया और उनके पैर लकवाग्रस्त हो गए लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। कुदरत की मंशा बदलने के लिए उन्होंने विपरीत हालात से संघर्ष शुरू कर दिया। अब रवीन्द्र एक विशेष मशीन के आविष्कारक हैं जिसका उन्हें पेटेंट भी हासिल है। अब वे फर्राटे से कार चलाते हैं जिससे किसी टोल बैरियर पर टैक्स नहीं वसूला जा सकता। इसके अलावा उनका नाम लिम्का बुक ऑफ रिकार्ड्स में भी दर्ज है। यह सब उन्होंने अपने बलबूते हासिल किया है।    
रवीन्द्र पाण्डेय बताते हैं कि जब मैं करीब 10 साल का था, सामान्य बच्चों की तरह खेलता-कूदता था। अचानक मुझे बुखार आया। मुझे इंजेक्शन लगाए गए और इसी दौरान मुझे पैरालिसिस हो गया। इलाज चला और धीरे-धीरे सहारे के साथ चलने-फिरने लायक हो गया। वक्त ने बड़ा झटका दे दिया, दौड़ तो नहीं सकता था लेकिन सहारे के साथ धीरे-धीरे टहलते हुए ही जिंदगी की गाड़ी को पटरी पर चलाना था। कठिनाइयों के बावजूद पढ़ाई जारी रखी। साइंस विषयों के साथ हायर सेकेंडरी की परीक्षा पास की। साइंस और तकनीक में रुचि थी इसलिए आईटीआई में ड्रॉफ्ट्समैन के ट्रेड में डिप्लोमा कर लिया। इसके बाद वेदांता ग्रुप की कम्पनी हिन्दुस्तान जिंक लिमिटेड में नौकरी भी मिल गई।
जिंक की अंडरग्राउंड खदानों के लिए माइनिंग प्लानिंग के नक्शे बनाने और जरूरत के मुताबिक मशीनों को डिजाइन करने वाले रवीन्द्र को आने-जाने में परेशानी होती थी, इसके लिए उन्होंने एक कार खरीदी और उसे चलाना भी सीख लिया लेकिन पैरों के सामान्य रूप से काम न करने के कारण ड्राइविंग में परेशानी होती थी। वे कहते हैं कि परेशानी मेरी थी सो उससे छुटकारा भी मैं अपनी कोशिशों से ही पा सकता था।
मशीनों की डिजाइनें बनाने में जुटे रहने वाले रवीन्द्र ने अपनी गाड़ी के लिए भी एक ऐसी मशीन बनाने की ठान ली जो उनकी जरूरत के मुताबिक हो यानी ऐसी मशीन जो उनके पैरों का काम कर सके। वे इसके लिए जुट गए। काफी कोशिशों के बाद वे एक ऐसी डिवाइस बनाने में कामयाब हुए जो कार के मैकेनिज्म के साथ फिट हो सकती थी और उनकी जरूरतें पूरी कर सकती थी। कार के लिए डिवाइस तो बन गई लेकिन इसके उपयोग के लिए आरटीओ ने इजाजत नहीं दी। इसके उपयोग के लिए सरकार की ओर से न तो कोई तकनीकी परीक्षण किया गया था, न ही कोई एप्रूवल था। पुणे में स्थित आटोमोटिव रिसर्च एसोसिएशन ऑफ इंडिया को इस डिवाइस के एप्रूवल के लिए भेजा गया। देश भर में इस मशीन के काम करने की क्षमता के परीक्षण के लिए रिसर्च की गई। इस रिसर्च का व्यय केंद्र सरकार के साइंस एण्ड टेक्नोलॉजी डिपार्टमेंट ने उठाया। एक तरफ जहां रवीन्द्र की बनाई हुई मशीन पर सरकार की रिसर्च चल रही थी वहीं दूसरी तरफ उन्होंने इस मशीन के पेटेंट के लिए आवेदन कर दिया। उन्हें जल्द ही इसका पेटेंट हासिल भी हो गया। उधर साइंस एण्ड टेक्नोलॉजी डिपार्टमेंट ने भी उनकी डिवाइस को हरी झंडी दे दी।
जब सरकारी इजाजत मिल गई और रवीन्द्र को उनके आविष्कार का पेटेंट भी मिल गया तो वे बेफिक्र हुए और लम्बी ड्राइव पर उदयपुर से सोमनाथ (गुजरात) निकल पड़े। इस सफर में उनको रास्ते में कई स्थानों पर टोल देना पड़ा जो काफी आर्थिक बोझ बढ़ाने वाला था। इस सफर ने उनको दिव्यांगों के लिए बने विशेष वाहनों को टोल से छूट दिलाने के लिए संघर्ष के लिए प्रेरित किया। उन्होंने इसके लिए प्रधानमंत्री कार्यालय और भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण को पत्र लिखे। उनके पत्र पर शुरुआत में तो कुछ नहीं हुआ लेकिन वे कोशिशें जारी रखते हुए चिट्ठियों पर चिट्ठियां लिखते रहे। करीब एक साल तक लगातार मशक्कत करने के बाद उनके प्रयास रंग लाए और आठ जून, 2016 को भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण ने एक अधिसूचना जारी करके दिव्यांगों के लिए बने विशेष वाहनों को टोल फ्री करने की अधिसूचना जारी कर दी। प्राधिकरण ने सभी टोल बैरियरों पर इसके बारे में सूचना लिखने के निर्देश दिए। इन वाहनों से टैक्स वसूली पर टोल संचालकों पर कार्रवाई का भी नियम बनाया गया है।
लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में दर्ज कीर्तिमान
रवीन्द्र पाण्डेय ने दिव्यांगों के लिए ऐसी डिवाइस बनाई जिससे कार सिर्फ हाथों के उपयोग से ड्राइव हो सकती है। उन्होंने जब इस तरह की कार से 70 हजार किलोमीटर की ड्राइव पूरी कर ली तो लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स ने उनका यह कीर्तिमान नेशनल रिकॉर्ड में शामिल कर लिया। खुद खास डिवाइस बनाकर हजारों किलोमीटर कार चलाने का उनका यह रिकॉर्ड है। उन्हें 2011 में राजस्थान सरकार ने निःशक्तजन कल्याण के लिए उल्लेखनीय कार्य करने पर राज्य पुरस्कार से सम्मानित किया। 

रवीन्द्र के परिवार में उनकी मां, पत्नी, एक बेटा और एक बेटी है। 52 वर्षीय रवीन्द्र पाण्डेय ने कभी अपनी कमजोरी को अपनी मजबूरी नहीं बनने दिया। वे परिवार की गाड़ी तो दिव्यांग होने के बावजूद आम लोगों की तरह चला ही रहे हैं, सड़कों पर अपनी खास गाड़ी भी पूरे आत्मविश्वास के साथ दौड़ा रहे हैं। उनका परिवार उन पर गर्व करता है। रवीन्द्र की कहानी कुदरत के दिए जख्मों को अभिशाप मान लेने वालों को रास्ता दिखाकर प्रेरित करने वाली है।

Monday 10 October 2016

एक पैर से साइकिल चलाने का बनाया रिकॉर्ड

आदित्य मेहता के नाम दर्ज हैं कई कीर्तिमान
एशियन पैरासाइकिलिंग चैम्पियन और 2013 में डबल सिल्वर मैडल जीतने वाले हैदराबाद के आदित्य मेहता की कहानी किसी के भी अंदर कुछ कर गुजरने का जज्बा पैदा कर सकती है। आदित्य का एक पैर नहीं है यह सुनकर कोई भी सहानुभूति से भर जाएंगा लेकिन आदित्य का जोश ऐसा है जो किसी मुर्दे में भी जान डाल सकता है।
आदित्य हैदराबाद के सिकंदराबाद की उद्योग घराने से ताल्लुक रखते हैं। बिजनेस में शुरू से ही दिलचस्पी के चलते उन्होंने टेक्सटाइल की फील्ड में अपना बिजनेस शुरू किया। इसमें कामयाबी भी मिली लेकिन एक दिन अचानक ही हैदराबाद में हुए हादसे में उन्हें अपना एक पैर गंवाना पड़ा। हादसे के बारे में पूछे जाने पर वह बताते हैं कि मैं पूरी तरह टूट गया था और अपना बिजनेस भी मैंने बंद कर दिया था। सच तो यह है कि जीवन से जुड़ी हर उम्मीद मैंने छोड़ दी थी। लेकिन जिन्दगी हमें उम्मीदों के रास्ते हमेशा दिखाती रही। ऐसा ही एक रास्ता दिखा आदित्य को जब उन्होंने हैदराबाद में बने बाई-साइकिलिंग क्लब के विज्ञापन को देखा। विज्ञापन देखते ही उन्होंने तय किया कि अपनी शारीरिक कमी को पीछे छोड़ वह साइकिलिंग में नया मुकाम बनाएंगे।
उनके लिए यह सफर आसान नहीं था। साइकिलिंग के साथ पहला अनुभव उनके लिए बेहद निराशाजनक था। उनको जो कृत्रिम पैर लगाया गया था, उससे साइकिल के पैडल को चलाना आसान नहीं था। इस समस्या का समाधान करने के लिए उन्होंने खुद ही एक ऐसा कृत्रिम पैर डिजाइन किया जिससे साइकिल को आसानी से चलाया जा सके। आमतौर पर ऐसा किया जाना आसान नहीं था। खैर, पूरे 18 महीने की कड़ी मेहनत के बाद वह प्रोफेशनल पैरासाइकिलिस्ट बनें और 2013 में उनका लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स में नाम दर्ज हुआ।
आदित्य मेहता हैदराबाद से बैंगलूरु का सफर साइकिल से तीन दिन में पूरा कर चुके हैं। वह मनाली से लेह-खरदूंगला को फतह करने निकले और इस दौरान 13050 फुट ऊंचे रोहतांग पास को पार किया। यही नहीं उन्होंने लंदन से पेरिस का 520 किलोमीटर का सफर तीन दिन में तय करके एक नया रिकॉर्ड बनाया। आदित्य ने कश्मीर से कन्याकुमारी के बीच का 3600 किलोमीटर का सफर साइकिल से तय कर नया रिकॉर्ड भी बना दिया। अपने इस रिकॉर्ड के लिए उन्होंने इस रूट में आने वाले देश के 36 शहरों का सफर 36 दिनों में तय किया। बेशक यह रिकॉर्ड आम आदमी के बस की बात नहीं हो लेकिन धुन के पक्के आदित्य यह कारनामा कर दिखाया।

अपने इस सफर के बारे में आदित्य बताते हैं कि इस दौरान थकान के अलावा भी कई परेशानियां उनके सामने आईं। उन्होंने बताया कि इस दौरान उनकी नाक से खून आने लगा, पैर में चोटें आईं और त्वचा भी कई जगहों से कट गई थी। इस सफलता पर आदित्य कहते हैं कि साइकिलिंग से मुझे जिन्दगी में रफ्तार मिलती है। उनका यह भी कहना है कि लगन और पक्की धुन के दम पर इंसान असम्भव को भी सम्भव कर दि‍खाता है। पैरा साइकिलिस्ट आदित्य मेहता नशे के खिलाफ अभियान चला चुके हैं। उन्होंने युवाओं से नशे की प्रवृत्ति से दूर रहने का आह्वान किया। उन्होंने कहा कि युवाओं को नशा ही करना है तो साइकिलिंग का करें। इससे वे हमेशा तंदुरुस्त रहेंगे। उन्होंने कहा कि युवा जंक फूड, चाय, कोल्डड्रिंक और वसा मुक्त भोजन से बचें। अभिभावक अपने बच्चों को भी इन चीजों से दूर रखें।

क्रिकेट का अनमोल हीरा अनमोल वशिष्ठ

जिंदगी पैरों से नहीं हौसले से चलती है
हर किसी के जीवन की अलग-अलग सोच होती है। कुछ लोगों का यह मानना है कि पैरों के बगैर जिंदगी नहीं चल सकती लेकिन हम इसे सही नहीं मानते। हमारा मानना है कि जिंदगी पैरों से नहीं बल्कि हौसले से चलती है। जिसे हमने साबित किया है और कर रहे हैं। तभी तो हम डिसेबल होने के बाद भी क्रिकेट खेलते हैं और अपनी डिसबिलिटी को दूर करते हैं यह कहना है क्रिकेट के इनमोल हीरे अनमोल वशिष्ठ का। अनमोल को मलाल है कि बीसीसीआई और खेल मंत्रालय का ध्यान निःशक्त क्रिकेटरों की तरफ उतना नहीं है जितना कि होना चाहिए। अनमोल कहते हैं कि यदि सरकार और भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड मदद करे और ह्वीलचेयर क्रिकेट को मान्यता दे तो हम दिव्यांगों के बीच से भी विराट कोहली, सचिन तेंदुलकर और महेंद्र सिंह धोनी जैसे खिलाड़ी निकल सकते हैं।
अनमोल का कहना है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका, आस्ट्रेलिया और इंग्लैंड आदि देशों में बड़े पैमाने पर ह्वीलचेयर क्रिकेट टूर्नामेंट का आयोजन होता है। इसके लिए वहां की सरकारें न सिर्फ सपोर्ट करती हैं बल्कि प्लेयर्स का हौसला भी बढ़ाती हैं। टीमें विश्व के कोने-कोने में टूर्नामेंट के लिए भेजी जाती हैं लेकिन भारत में बीसीसीआई को शारीरिक अक्षमता के बाद भी क्रिकेट खेलने वाले दिव्यांगों की कोई परवाह नहीं है। यही वजह है कि आज तक इंडिया में व्हीलचेयर क्रिकेट टीम को मान्यता नहीं मिल सकी है। जबकि भारत में एक से बढ़कर एक बेजोड़ खिलाड़ी हैं। अनमोल का कहना है कि भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड सामान्य खिलाड़ियों पर तो पानी की तरह पैसा बहाता है लेकिन दिव्यांग प्लेयर्स पर उसका उतना ध्यान नहीं है।
पैरों से चल-फिर सकने में असमर्थ होने के बाद भी हम ह्वीलचेयर पर बैठकर बैटिंग करते हैं, बॉलिंग करते हैं और क्षेत्ररक्षण करते हैं। हमारे अंदर भी वह हुनर है कि हम नेशनल और इंटरनेशनल मैचों में विश्व की बड़ी-बड़ी टीमों को हरा सकते हैं। बशर्ते हमें भी खिलाड़ी का दर्जा दिया जाए। सरकार अगर ध्यान नहीं देगी तब भी हमारा आत्मविश्वास कम नहीं होगा। मेरठ निवासी अनमोल वशिष्ठ कहते हैं कि मैं बचपन से ही विकलांगता का शिकार हूं। इसके बाद भी मुझे क्रिकेट खेलने का शौक है और पिछले 11 साल से ह्वीलचेयर पर बैठे-बैठे ही क्रिकेट खेलता आ रहा हूं। मैं देश के लिए खेलना चाहता हूं।


आंखें नहीं सफलता के लिए विजन जरूरीः श्वेता मंडल

इस दुनिया में ऐसे कई लोग हैं जिन्होंने अपने बूते दुनिया को बदल कर रख दिया है। ऐसे ही महान लोगों में कितने ऐसे हैं जो विकलांग हैं लेकिन अपनी शारीरिक संरचना को बहाना न बनाकर उन्होंने अपने नाम को स्वर्णिम अक्षरों में दुनिया के सामने स्थापित किया है। आंखें न होने के बाद भी भारत की बेटी श्वेता मण्डल ने अपनी दृढ़-इच्छाशक्ति से दिखाया कि वह किसी से कम नहीं।
श्वेता देख नहीं सकतीं लेकिन उनका जज्बा गजब का है। रांची विश्वविद्यालय की छात्रा श्वेता ने ह्यूमन राइट्स पोस्ट ग्रेजुएशन डिग्री (2011-13) में टॉप कर दिखा दिया कि वह किसी भी लक्ष्य को हासिल कर सकती हैं। श्वेता को इस उपलब्धि के लिए विश्वविद्यालय में आयोजित 29वें दीक्षांत समारोह में गोल्ड मैडल से नवाजा गया। सबसे बड़ी बात यह है कि श्वेता ने यह उपलब्धि ब्रेल की सहायता के बिना हासिल की। टॉपर बनीं श्वेता दिल्ली के जवाहर लाल विश्वविद्यालय से एमफिल और पीएचडी की पढ़ाई की। श्वेता को बचपन में ब्रेन ट्यूमर जैसी गंभीर बीमारी हो गई। इस बीमारी के इलाज के दौरान रेडिएशन का प्रयोग किया गया जिसका साइड इफेक्ट सालों बाद दिखाई दिया और 10वीं में पढ़ने के दौरान उनकी आंखों की रोशनी पूरी तरह चली गई। लेकिन यह हादसा उनका हौसला नहीं तोड़ पाया। आंखों की रोशनी नहीं होने के चलते उन्होंने अपनी पढ़ाई रिकॉर्डिंग के जरिए की। जवाब लिखने के लिए परीक्षा में उन्हें एक हेल्पर भी दिया गया। लोगों को लगा कि इस तरह परीक्षा पास होना मुश्किल ही है लेकिन 10वीं की परीक्षा में 72 फीसदी नम्बर लाकर श्वेता ने सभी को हैरान कर दिया। बता दें कि 2014 में उन्होंने ह्यूमन राइट्स से नेट भी क्वालीफाई किया।
अपने बारे में बात करते हुए श्वेता कहती हैं कि उनको जन्म से यह समस्या नहीं थी इसलिए उन्होंने कभी ब्रेल लिपि सीखने के बारे में नहीं सोचा। उनके माता-पिता ने हर कदम पर उनका साथ दिया और अपनी सफलता का श्रेय वह उन्हीं को देती हैं। श्वेता के संघर्ष के बारे में उनकी मां बताती हैं कि वह अपनी किताबें साथ क्लीनिक में लेकर आती थी। वह चैप्टर्स को पढ़ती थी और उन्हें एक कैसेट में रिकॉर्ड कर लेती थी। अगले दिन श्वेता इस रिकॉर्डिंग को सुनती थी।

श्वेता बताती हैं कि उन्होंने कभी ब्रेल नहीं सीखी और न ही उनके पास ब्रेल की कोई किताब रही। जब वह ग्रेजुएशन में पहुंचीं तो उन्होंने बहुत सी किताबें और जरनल पढ़े। इसके बाद श्वेता ने टेक्नोलॉजी को अपना दोस्त बना लिया है। वह कहती हैं कि कम्प्यूटर और लैपटॉप के माध्यम से पढ़ाई जारी रखने में उन्हें बेहतर सहयोग मिला। जॉब एक्स विद स्पीच नामक सॉफ्टवेयर उनके लिए काफी कारगर साबित हुआ। अपनी इस कामयाबी पर श्‍वेता का कहना है कि ज्योति यानी रोशनी से ज्यादा जरूरी है आपके पास दृष्टि यानी विजन का होना। उन्होंने इसी को फॉलो किया और आगे भी इसी के दम पर आगे बढ़ना चाहती हैं।

Saturday 8 October 2016

एक हाथ से दुनिया फतह

पैरालम्पिक खेलों का जांबाज खिलाड़ी देवेन्द्र झाझरिया
पैरालम्पिक खेलों में विश्व कीर्तिमान के साथ जीत चुके हैं दो स्वर्ण पदक
रियो पैरालम्पिक में स्वर्णिम छलांग लगाने वाले भाला फेंक खिलाड़ी देवेन्द्र झाझरिया उस राजस्थान के चुरू जिले से ताल्लुक रखते हैं, जहां खेल सुविधाएं सिफर हैं। प्रोत्साहन देने वाले भी बहुत ही कम हैं। वह पैरालम्पिक खेलों में भारत की पहचान हैं। देवेन्द्र झाझरिया पैरालम्पिक खेलों में अब तक दो स्वर्ण पदक जीत चुके हैं वह भी विश्व कीर्तिमान के साथ। रियो की सफलता का श्रेय खुद लेने की बजाय वह इस अपनी बेटी को समर्पित करना चाहते हैं। देवेन्द्र कहते हैं कि रियो पैरालम्पिक से पहले अपनी छह साल की बेटी के साथ हुई डील का ही नतीजा है कि वह पैरालम्पिक में रिकार्ड दूसरा स्वर्ण पदक जीतने में सपल हुए। सच कहें तो मेरी बेटी ही मेरी प्रेरणा बनी।
देवेन्द्र झाझरिया का अपनी बेटी जिया से समझौता हुआ था कि अगर वह अपनी एलकेजी परीक्षा में टॉप करती है तो वह पैरालम्पिक में स्वर्ण पदक जीतकर लाएंगे। पैरालम्पिक में दो स्वर्ण पदक जीतने वाले एकमात्र भारतीय झाझरिया ने पुरुष एफ-46 भाला फेंक में स्वर्ण जीतने के बाद दूरभाष पर हुई चर्चा में कहा कि मैं जब रियो में ही था मेरी बेटी जिया ने गर्व के साथ फोन करते हुए मुझे बताया कि मैंने टॉप किया है और अब आपकी बारी है। देवेन्द्र बताते हैं कि ओलम्पिक स्टेडियम में जब मैं मैदान पर उतरा तो बेटी जिया की बात बार-बार मेरे कानों में गूंज रही थी। आखिरकार उन्होंने निश्चय किया कि वह अब स्वर्ण पदक जीतकर ही वतन लौटेंगे। भारत के लिए गर्व और गौरव की बात है कि देवेन्द्र झाझरिया ने एथेंस में बनाया अपना ही रिकॉर्ड तोड़कर स्वर्ण पदक जीता।
देवेन्द्र झाझरिया कहते हैं कि मैं पूरी रात नहीं सोया और रियो में सुबह पांच बजे तक अपने परिवार के सदस्यों और शुभचिंतकों से बात करते रहे। देवेन्द्र झाझरिया के पैरालम्पिक खेलों में पदकों की संख्या और भी होती यदि उन्हें 2008 और 2012 के पैरालम्पिक खेलों में शिरकत का मौका मिलता। पिछले दो पैरालम्पिक में वह हिस्सा नहीं ले पाए थे क्योंकि उनकी स्पर्धा को ही शामिल नहीं किया गया था। इस दौरान खुद को फिट और चोटमुक्त रखने के लिए झाझरिया ने कड़ी ट्रेनिंग की और बेहद कम बार घर गए। उनका घर राजस्थान के चुरू जिले के एक छोटे से गांव में है। वहां इतने कम घर रहे हैं कि उनका दो साल का बेटा काव्यान अपने पिता को पहचानता भी नहीं है। उन्होंने कहा- उसे तो यह भी नहीं पता कि पिता कैसा होता है। उसकी मां मेरी फोटो दिखाकर कहती है कि यह तुम्हारे पापा हैं। पैरालम्पिक से पहले झाझारिया ने अप्रैल-जून में फिनलैंड के क्योरटेन में अभ्यास किया जहां उनकी कीनिया के भाला फेंक खिलाड़ी यूलियस येगो से दोस्ती हुई जिन्हें वह अपना सबसे बड़ा प्रेरक मानते हैं। देवेन्द्र झाझरिया ने कहा कि उनकी मां जिवानी देवी और पत्नी राष्ट्रीय स्तर की पूर्व कबड्डी खिलाड़ी मंजू ने उनकी सफलता में अहम भूमिका निभाई। रेलवे के पूर्व कर्मचारी देवेन्द्र झाझरिया अब भारतीय खेल प्राधिकरण के साथ काम कर रहे हैं। झाझरिया को द्रोणाचार्य अवार्डी आर.डी. सिंह कोचिंग देते हैं।
देवेन्द्र झाझरिया का जन्म 10 जून, 1981 को राजस्थान के चूरू जिले में हुआ था। मात्र आठ साल की उम्र में देवेन्द्र के साथ ऐसा भयानक हादसा हुआ जिसने उनकी जिन्दगी ही बदल दी। वे एक पेड़ पर चढ़ रहे थे तभी उनका हाथ बिजली के तार से जा टकराया। 11000 वोल्ट के करंट के कारण पूरा हाथ झुलस गया। तमाम कोशिशों के बावजूद देवेन्द्र का बायां हाथ काटना पड़ा और यह उनके और उनके परिवार के लिए किसी वज्रपात से कम नहीं था। देवेन्द्र का हाथ तो काट दिया गया लेकिन इसके बाद भी उनके अंदर जीने का जज्बा बना रहा। उनके मनोबल ने उनके घर वालों को हिम्मत दी और देवेन्द्र ने एथलीट की दुनिया में कॅरियर बनाने का फैसला कर लिया। देवेन्द्र झाझरिया ने एथलेटिक्स में 2004 में एथेंस पैरालम्पिक में स्वर्ण पदक जीता था। उस समय उन्होंने 62.15 मीटर दूर भाला फेंका था लेकिन रियो पैरालम्पिक खेलों में देवेन्द्र ने खुद का ही रिकॉर्ड तोड़ दिया। इस बार उन्होंने 63.15 मीटर दूर भाला फेंका। देवेन्द्र झाझरिया को 2004 में अर्जुन पुरस्कार और 2012 में पद्मश्री पुरस्कार से नवाजा जा चुका है। वे पहले ऐसे पैरालम्पियन खिलाड़ी हैं जिन्हें पद्मश्री का खिताब मिला है। 2012 में देवेन्द्र झाझरिया पद्मश्री से सम्‍मानित होने वाले देश के पहले पैरालम्पिक खिलाड़ी बने। देवेन्द्र झाझरिया ने 2013 में फ्रांस के लियोन में आयोजित आईपीसी एथलेटिक्‍स विश्‍व चैम्पियनशिप में स्‍वर्ण पदक जीता। 2014 में दक्षिण कोरिया में आयोजित एशियन पैरा गेम्‍स और 2015 की वर्ल्‍ड चैम्पियनशिप में उन्‍होंने रजत पदक हासिल किया था। 2014 में देवेन्द्र झाझरिया फिक्‍की पैरा-स्‍पोर्ट्स पर्सन ऑफ द ईयर चुने गए। 2016 में उन्हें सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी का पुरस्कार प्रदान किया गया।


Friday 7 October 2016

मैंने कमजोरी को बनाया अपनी ताकतः अरुणिमा सिन्हा



बिहार की बेटी ने एक पैर से किया माउंट एवरेस्ट फतह
श्रीप्रकाश शुक्ला
कहते हैं हवा के अनुकूल चलने वाला जहाज कभी बन्दरगाह नहीं पहुंचता। प्रतिकूल परिस्थितियों में जो अपने लक्ष्य से विचलित नहीं होता सफलता उसी के कदम चूमती है। कृत्रिम पैर के सहारे हिमालय की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट फतह कर उत्तर प्रदेश के अम्बेडकर नगर का नाम रोशन करने वाली अरुणिमा सिन्हा कहती हैं मेरा कटा पांव मेरी कमजोरी था, जिसे मैंने अपनी ताकत बनाया। बास्केटबॉल खिलाड़ी अरुणिमा को 11 अप्रैल, 2011 की वह काली रात आज भी याद आती है जब पद्मावत एक्सप्रेस से वह दिल्ली जा रही थीं। बरेली के पास कुछ अज्ञात बदमाशों ने उनके डिब्बे में प्रवेश किया। अरुणिमा को अकेला पाकर वे उनकी चैन छीनने लगे। छीना-झपटी के बीच बदमाशों ने उन्हें ट्रेन से नीचे फेंक दिया। जिससे उनका बांया पैर कट गया। लगभग सात घण्टे तक वे बेहोशी की हालत में तड़पती रहीं। इस दौरान दर्जनों ट्रेनें गुजर गईं।
सुबह टहलने निकले कुछ लोगों ने जब पटरी के किनारे अरुणिमा को बेहोशी की हालत में पाया तो तुरंत अस्पताल पहुंचाया। जब मीडिया सक्रिय हुआ तो अरुणिमा को दिल्‍ली के एम्‍स में भर्ती कराया गया। एम्स में इलाज के दौरान उनका बांया पैर काट दिया गया। तब लगा बास्‍केटबॉल की राष्‍ट्रीय स्‍तर की खिलाड़ी अरुणिमा अब जीवन में कुछ नहीं कर पायेगी। लेकिन उसने जिन्दगी से हार नहीं मानी। अरुणिमा की आंखों से आंसू निकले लेकिन उन आंसुओं ने उन्‍हें कमजोर करने के बजाय साहस प्रदान किया और देखते ही देखते अरुणिमा ने दुनिया के सबसे ऊंचे शिखर माउंट एवरेस्‍ट पर चढ़ने की ठान ली। अरुणिमा ने ट्रेन पकड़ी और सीधे जमशेदपुर पहुंच गईं। वहां उन्‍होंने एवरेस्ट फतह कर चुकी बछेन्द्री पाल से मुलाकात की। फिर तो मानो उनके पर से लग गये। प्रशिक्षण पूरा करने के बाद 31 मार्च को उनका मिशन एवरेस्ट शुरू हुआ। 52 दिनों की इस चढ़ाई में 21 मई को माउंट एवरेस्ट पर तिरंगा फहराकर वे विश्व की पहली विकलांग पर्वतारोही बन गईं। अरुणिमा का कहना है विकलांगता व्यक्ति की सोच में होती है। हर किसी के जीवन में पहाड़ से ऊंची कठनाइयां आती हैं जिस दिन वह अपनी कमजोरियों को ताकत बनाना शुरू करेगा हर ऊंचाई बौनी हो जायेगी।
अम्बेडकर नगर के शहजादपुर इलाके में एक मुहल्ला है पंडाटोला वहीं एक छोटे से मकान में रहने वाली अरुणिमा सिन्हा के जीवन का बस एक ही लक्ष्य था- भारत को वॉलीबाल में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाना। छठी कक्षा से ही वे इसी जुनून के साथ पढ़ाई कर रही थीं। समय गुजरता गया, समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर और कानून की डिग्री लेने के साथ अरुणिमा राष्ट्रीय स्तर की वॉलीबाल खिलाड़ी के रूप में पहचान बनाने लगीं। इसी बीच 11 अप्रैल, 2011 की घटना ने उनकी जिन्दगी ही बदल दी। नई दिल्ली के ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज (एम्स) में चार महीने तक भर्ती रहने के बाद जब अरुणिमा को एम्स से छुट्टी मिली तो वह उस हादसे को भूलकर एक बेहद कठिन और असम्भव से प्रतीत होने वाले लक्ष्य को साथ लेकर अस्पताल से बाहर निकलीं। लक्ष्य था विश्व की सबसे ऊंची चोटी एवरेस्ट को फतह करने का। अब तक कोई भी विकलांग ऐसा नहीं कर पाया था। कटा हुआ बायां पैर, दाएं पैर की हड्डियों में पड़ी लोहे की छड़ और शरीर पर जख्मों के निशान के साथ एम्स से बाहर आते ही अरुणिमा सीधे अपने घर न आकर एवरेस्ट पर चढऩे वाली पहली भारतीय महिला पर्वतारोही बछेन्द्री पॉल से मिलने जमशेदपुर जा पहुंचीं। बछेन्द्री पॉल ने पहले तो अरुणिमा की हालत देखते हुए उन्हें आराम करने की सलाह दी लेकिन उनके बुलंद हौसलों के आगे आखिर वे भी हार मान गईं। अरुणिमा ने पॉल की निगरानी में नेपाल से लेकर लेह, लद्दाख में पर्वतारोहण के गुर सीखे। उत्तराखण्ड में नेहरू इंस्टीट्यूट ऑफ माउंटेनियरिंग और टाटा स्टील ऑफ एडवेंचर फाउंडेशन से प्रशिक्षण लेने के बाद एक अप्रैल, 2013 को उन्होंने एवरेस्ट की चढ़ाई शुरू की। 52 दिनों की बेहद दुश्वार पहाड़ी चढ़ाई के बाद आखिरकार 21 मई को वे एवरेस्ट की चोटी फतह करने वाली विश्व की पहली महिला विकलांग पर्वतारोही बन गईं। वे यहीं नहीं रुकीं। युवाओं और जीवन में किसी भी प्रकार के अभाव के चलते निराशापूर्ण जीवन जी रहे लोगों में प्रेरणा और उत्साह जगाने के लिए उन्होंने अब दुनिया के सभी सातों महाद्वीपों की सबसे ऊंची चोटियों को लांघने का लक्ष्य तय किया है। इस क्रम में वे अब तक अफ्रीका की किलिमंजारो और यूरोप की एलब्रुस चोटी पर तिरंगा फहरा चुकी हैं। अरुणिमा ने केवल पर्वतारोहण ही नहीं आर्टीफीशियल ब्लेड रनिंग में भी अपनी धाक जमाई है। इसी वर्ष चेन्नई में हुए ओपन नेशनल गेम्स (पैरा) में उन्होंने 100 मीटर की दौड़ में स्वर्ण पदक जीता। इस बीच समय निकाल कर वे उन्नाव के बेथर गांव में शहीद चंद्रशेखर आजाद खेल अकादमी और प्रोस्थेटिक लिम्ब रिसर्च सेंटर के रूप में अपने सपने को आकार देने में भी जुटी हैं। वह एक किताब भी लिख चुकी हैं।
                             अरुणिमा से बातचीत के अंश-
प्रश्न- एवरेस्ट फतह करने का मन आपने कब और क्यों बनाया।
उत्तर- ट्रेन हादसे में हमने अपने पैर गंवा दिये थे। अस्पताल में बिस्तर पर बस पड़ी रहती थी। परिवार के सदस्य, मेरे अपने मुझे देखकर पूरा दिन रोते, हमें सहानुभूति की भावना से अबला व बेचारी कहकर सम्बोधित करते। यही मुझे मंजूर न था। पर मुझे जीना था, कुछ करना था। मैंने मन ही मन कुछ अलग करने की ठानी जो औरों के लिए एक मिशाल बने।
प्रश्न- क्या परिस्थितियां थीं उस समय।
उत्तर- मूलतः हम बिहार के रहने वाले थे। पिताजी फौज में थे जिस कारण हम लोग सुल्तानपुर आ गये। चार वर्ष की उम्र में पिता का स्वर्गवास हो गया। मां के साथ हम अम्बेडकर नगर पहुंचे वहां उन्हें स्वास्थ्य विभाग में नौकरी मिल गई, पर परिवार को चलाना अब भी मुश्किल था। फिर भी इण्टर के बाद एलएलबी की पढ़ाई की। खेलों में रुझान होने के कारण राष्ट्रीय स्तर पर वॉलीबाल व फुटबाल में कई पुरस्कार जीते लेकिन कुछ खास हाथ न लग सका। मेरा सपना था कुछ अलग करने का।
प्रश्न- उस भयानक ट्रेन हादसे पर क्या कहेंगी।
उत्तर- उस रात को मैं सारी उम्र नहीं भूल सकती। मैं दिल्ली जा रही थी। रात के लगभग दो बजे थे। चारों ओर सन्नाटा था कब मेरी आंख लगी कुछ पता न चला। तभी बरेली के पास कुछ बदमाश गाड़ी पर चढ़े। अकेला जान वे मेरी चैन छीनने लगे, मैंने भी डटकर उनका सामना किया। झपटा-झपटी के बीच उन लोगों ने मुझे ट्रेन से नीचे फेंक दिया, जिससे मेरा बांया पैर कट गया।
प्रश्न- बछेन्द्री पाल से आपने ट्रेनिंग ली, कैसे पहुंचीं उन तक।
उत्तर- एम्स में इलाज के दौरान ही मैंने बछेन्द्री पाल जी का मोबाइल नम्बर इण्टरनेट से प्राप्त किया। उनसे मैंने अपनी पूरी कहानी बतायी और कहा मैं एवरेस्ट पर चढ़ना चाहती हूं। उन्होंने मुझे जमशेदपुर बुलाया। फिर क्या था अगले ही पल मैं वहां थी। दो वर्ष तक मैंने उनसे ट्रेनिंग ली।
प्रश्न- हिमालय की चढ़ाई के दौरान कैसी चुनौतियां थीं।
उत्तर- 52 दिनों की यात्रा हर पल रोमांच खतरों और हौसलों की कहानी से भरी थी। सबसे मुश्किल क्षण डेथ जोन एरिया खम्बू आइसलैण्ड के थे। बर्फ की चट्टानों पर चढ़ाई करनी थी। सिर पर चमकता सूरज था। कब कौन सी चट्टान पिघल कर गिर जाए, अंदाजा लगाना मुश्किल था।
प्रश्न- माउंट एवरेस्‍ट पर लाशें देख कैसा लगा।
उत्तर- जब मैं माउंट एवरेस्‍ट पर चढ़ रही थी, उसके पहले उसे पार करने की कवायद कर चुके आधा दर्जन से ज्यादा पर्वतारोहियों की सामने पड़ी लाशें रोंगटे खड़ी कर देती थीं। कभी बर्फ उन्हें ढंक देती, कभी हवा के झोंके उन पर ढंकी बर्फ हटा देते। ऐसे मंजर का सामना मुश्किल था लेकिन नामुमकिन नहीं।
प्रश्न- सब कह रहे थे वापस आ जाओ, फिर क्‍या हुआ।
उत्तर- पर्वत पर चुनौतियों का सामना करना बहुत मुश्किल था, पर धैर्य नहीं खोया। इसी बीच मेरा आक्सीजन सिलेण्डर खत्म हो गया। कैम्प से मेरे पास फोन आ रहे थे कि अरुणिमा तुम वापस आ जाओ जहां तक तुम पहुंची हो वो भी एक रिकार्ड है लेकिन मैंने तो मंजिल को पाने की ठानी थी बीच में कैसे आ जाती।
प्रश्न- आप युवाओं को क्या संदेश देना चाहेंगी।

उत्तर- मैं बस इतना कहना चाहती हूं कि परिस्थितियां बदलती रहती हैं, पर हमें अपने लक्ष्य से भटकता नहीं चाहिये बल्कि उनका सामना करना चाहिये। जब मैं हॉकी स्टिक लेकर खेलने जाती तो मोहल्ले के लोग मुझ पर हंसते थे, मेरा मज़ाक उड़ाते थे। शादी हुई और फिर तलाक पर मैंने हार नहीं मानी। बड़ी बहन व मेरी मां ने मेरा साथ दिया। हादसे के बाद मेरे जख्मों को कुरेदने वाले बहुत थे पर मरहम लगाने वाले बहुत कम। इतना कुछ होने के बाद मैंने अपने लक्ष्य को पाने के लिए पूरा जोर लगा दिया। अंततः मुझे सफलता मिली।

इन बेटियों को भी करें सलाम

श्रीप्रकाश शुक्ला
समय बदल रहा है। लोगों की सोच भी बदल रही है। इस बदलाव की वजह देश की वे बेटियां हैं जो पिछले कुछ समय से दुनिया में भारत का नाम रोशन कर रही हैं। ओलम्पिक पदकधारी बेटियों को तो अमूमन सभी खेलप्रेमी जानते हैं लेकिन मुल्क में कई ऐसी भी महिला खिलाड़ी हैं जो लगातार भारत के खाते में पदक और ख्याति दोनों ही जमा कर रही हैं बावजूद उन्हें कम ही लोग जानते हैं। जहां एक तरफ सानिया मिर्जा, साइना नेहवाल, पी.वी. सिन्धु, साक्षी मलिक, कर्णम मल्लेश्वरी, एम.सी. मैरीकाम, दीपा मलिक, अंजुम चोपड़ा, ज्वाला गुट्टा और दीपिका कुमारी जैसी महिला खिलाड़ी अपने-अपने खेलों में पुरुष खिलाड़ियों जितनी ही प्रतिष्ठित हैं वहीं दूसरी ओर विभिन्न खेलों से कई महिला खिलाड़ी बिना शोहरत और चर्चा के मादरेवतन के लिए पदक जीत रही हैं। ये सभी युवा हैं, योग्य हैं और देश की प्रतिष्ठा के लिए अपने कॅरियर को दाँव पर लगाने से भी नहीं कतरातीं। इन खिलाड़ी बेटियों ने अपने-अपने खेलों में शिखर तक का सफर तय करने के लिए न केवल मूलभूत समस्याओं का सामना किया बल्कि सामाजिक रुकावटों को भी पार किया।
अरुणिमा सिन्हा (पर्वतारोही)
अरुणिमा सिन्हा भारत की पहली ऐसी विकलांग महिला खिलाड़ी हैं जिन्होंने माउंट एवरेस्ट पर चढ़ाई की। टाटा समूह द्वारा प्रायोजित इको एवरेस्ट एक्सपेडीशन के तहत अरुणिमा ने विश्व की सबसे ऊँची पर्वत श्रृंखला पर चढ़ाई की थी। यह चढ़ाई उन्होंने एक कृत्रिम पैर के साथ की। शिखर तक पहुँचने में उन्हें कुल 52 दिन लगे। उसके बाद उन्होंने दुनिया की अन्य चोटियों को भी अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति से बौना कर दिखाया। राष्ट्रीय स्तर की वॉलीबॉल और फ़ुटबॉल खिलाड़ी रही अरुणिमा सिन्हा को सन् 2011 में बदमाशों ने चलती ट्रेन से धक्का दे दिया था। समानान्तर ट्रैक से गुजर रही दूसरी ट्रेन से अरुणिमा का एक पैर घुटनों के नीचे से कुचल गया और परिणामस्वरूप उनका पैर काटना पड़ा। युवराज सिंह के कैंसर से उभरने की कहानी से प्रेरणा लेकर इस खिलाड़ी ने उपचार के दौरान ही एवरेस्ट पर पर्वतारोहण का निश्चय कर लिया। अरुणिमा सिन्हा ने पहली भारतीय महिला पर्वतारोही बछेन्द्री पाल का सान्निध्य लिया। एवरेस्ट पर चढ़ने की तैयारी स्वरूप अरुणिमा ने 2012 में आइलैंड पीक पर चढ़ाई की थी। उन्होंने बार्न अगेन ऑन दि माउंटेंस नाम की पुस्तक भी लिखी है, जिसे दिसम्बर 2014 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा विमोचित किया गया। 2015 में अरुणिमा सिन्हा को पद्मश्री पुरस्कार से नवाजा गया।
अरन्तकसा साँचिस (स्नूकर और बिलियर्ड्स)
भारत में क्यू स्पोर्ट्स को अधिकतर लोग सिर्फ पंकज आडवाणी के ही नाम से जोड़कर देखते हैं। बहुत ही कम लोग इस तथ्य से अवगत होंगे कि महिलाएं भी क्यू स्पोर्ट्स के क्षेत्र में अपना योगदान दे रही हैं। अरन्तकसा साँचिस वर्ल्ड स्नूकर चैम्पियनशिप में स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला खिलाड़ी हैं। 2013 तक भारतीय महिलाएं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर क्यू स्पोर्ट्स के क्षेत्र में कोई भी बड़ा टाइटल अपने नाम नहीं कर सकी थीं लेकिन उसके बाद से ही इस क्षेत्र में महिला खिलाड़ियों के प्रदर्शन में लगातार सुधार हुआ है। सन् 2015 में ऑस्ट्रेलिया में हुई वर्ल्ड चैम्पियनशिप में अरन्तकसा साँचिस ने इतिहास रचते हुए भारत की ओर से बिलियर्ड्स और स्नूकर के क्षेत्र में एकल खिताब जीतने वाली पहली महिला खिलाड़ी बन गईँ। यह कीर्तिमान पंकज आडवाणी भी अपने नाम कर चुके हैं। साँचिस की कभी हिम्मत न हारने की अभिवृत्ति ही उन्हें धैर्य और दृढ़ता की प्रतिमूर्ति बनाती है। सन् 2013 में उन्हें केरटाकोनस (आँख से सम्बन्धित रोग) हो गया। इस रोग में दृष्टि (आईसाइट) कमज़ोर हो जाती है। इस रोग का उनके खेल पर काफी दुष्प्रभाव पड़ा। इसके बाद भी उन्होंने वर्ल्ड चैम्पियनशिप में खिताब अपने नाम किया।
कोनेरू हम्पी (शतरंज)
सन् 2002 में कोनेरू हम्पी सबसे कम उम्र (15 साल, एक महीना और 27 दिन) में ग्रैंडमास्टर का खिताब जीतने वाली महिला खिलाड़ी बनीं। पिछला रिकार्ड जुडित पोलगर का था जिनकी उम्र खिताब जीतने के वक्त हम्पी से तीन महीने अधिक थी। अक्टूबर, 2007 में वह 2606 की रेटिंग के साथ 2600 की रेटिंग से आगे निकलने वाली पोलगर के बाद दूसरी महिला खिलाड़ी बन गईं। आंध्रप्रदेश की इस महिला खिलाड़ी ने एफआईडीई वूमेन्स ग्रांड प्रिक्स (2009-2010) में हिस्सा लिया और कुल मिलाकर दूसरा स्थान प्राप्त किया। इसके फलस्वरूप वह वूमेन्स वर्ल्ड चेस शतरंज चैम्पियनशिप-2011 के लिए बतौर चैलेंजर क्वालीफाई कर सकीं। एफआईडीई वूमेन्स ग्रांड प्रिक्स (2013-2014) में हम्पी को होउ इफान के हाथों आखिरी दौर में हार का सामना करना पड़ा। वूमेन्स वर्ल्ड चेस शतरंज चैम्पियनशिप 2015 से पहले वह रैंकिंग में पहले स्थान पर थीं लेकिन क्वार्टर फाइनल में उन्हें चैम्पियनशिप की विजेता मारिया मुजाईचुक ने हरा दिया। चेंगडु (चीन) में हुई वूमेन्स वर्ल्ड टीम चेस चैम्पियनशिप-2015 में हम्पी ने एकल कांस्य पदक जीता था। वर्तमान में हम्पी वर्ल्ड चेस रैंकिंग (महिला) में दूसरे स्थान पर हैं।
दीपा करमाकर (जिम्नास्टिक)
दीपा करमाकर ने 2015 की आर्टिस्टिक्स जिम्नास्टिक्स एशियन चैम्पियनशिप जापान में महिला श्रेणी के अंतर्गत कांस्य जीता और बैलेन्स बीम इवेंट में आठवें स्थान पर रहीं। दीपा करमाकर अगरतला (त्रिपुरा) की आर्टिस्टिक जिम्नास्ट हैं। इन्होंने कॉमनवेल्थ गेम्स (2014) में कांस्य पदक जीता था। वह ऐसा करने वाली पहली भारतीय महिला जिमनास्ट हैं। वह प्रोदुनोवा वॉल्ट में प्रवेश करने वाली खिलाड़ी बन चुकी हैं जोकि कुछ ही महिला जिमनास्ट करने में सफल रही हैं। दीपा भारत की ओर से कॉमनवेल्थ गेम्स में पदक जीतने वाली पहली महिला जिम्नास्ट और आशीष कुमार के बाद दूसरी भारतीय जिम्नास्ट बनीं। कॉमनवेल्थ गेम्स से पहले उन्होंने 2014 के एशियन गेम्स के वॉल्ट फाइनल में चौथा स्थान हासिल किया था।  भारत की इस बेटी को रियो ओलम्पिक में बेशक मैडल नहीं मिला लेकिन दुनिया भर में अपनी प्रतिभा का लोहा जरूर मनवा दिया। वह इस विधा के ओलम्पिक फाइनल में पहुंचने वाली पहली महिला खिलाड़ी बनीं। दीपा के करिश्माई प्रगदर्शन को देखते हुए उन्हें खेलरत्न अवार्ड से नवाजा गया।
ललिता बाबर (एथलेटिक्स)

ललिता बाबर लम्बी दूरी की दौड़ में भारत की राष्ट्रीय रिकॉर्ड धारक हैं और 3000 मीटर की स्टीपलचेज में प्रतिभाग करती हैं। रियो ओलम्पिक में उन्होंने फाइनल में प्रवेश कर हर भारतीय का दिल जीत लिया। मुंबई मैराथन लगातार तीन बार जीतने के बाद इस धावक को इसी क्षेत्र में देश के लिए योगदान करने की प्रेरणा मिली। अपने सतत परिश्रम के बल पर ही इस खिलाड़ी ने एशियन गेम्स और कॉमनवेल्थ गेम्स में पदक हासिल किए। मैराथन में जीत के बाद इस खिलाड़ी ने 3000 मीटर की स्टीपलचेज दौड़ में हिस्सा लिया। 2014 के एशियन गेम्स इंचियोन (दक्षिण कोरिया) में इस खिलाड़ी ने 9-35.37 मिनट  की टाइमिंग के साथ कांस्य पदक अपने नाम किया। साथ ही इन्होंने सुधा सिंह का नेशनल रिकॉर्ड भी तोड़ दिया। 2015 की एशियन चैम्पियनशिप वुहान चीन में ललिता ने 9-34.13 मिनट की टाइमिंग के साथ तीन रिकॉर्ड तोड़े खुद का पुराना रिकॉर्ड, भारत का नेशनल रिकॉर्ड और गेम्स रिकॉर्ड। अपने असाधारण प्रदर्शन के बल पर उन्होंने 2016 के समर ओलम्पिक्स के लिए न केवल क्वालीफाई किया बल्कि एथलेटिक्स के फाइनल में पहुंचने वाली दूसरी महिला खिलाड़ी बनीं। इससे पहले पी.टी. ऊषा ही यह करिश्मा कर सकी थीं। महाराष्ट्र की इस युवा महिला खिलाड़ी ने 2015 की वर्ल्ड चैम्पियनशिप (बीजिंग) में 9-27.86 मिनट की टाइमिंग के साथ क्वालीफाई करते हुए नेशनल रिकॉर्ड तोड़ा था।