Wednesday 27 May 2015

फिर राम राग

भारतीय जनता पार्टी लाख कहती हो कि राम मंदिर उसके एजेंडे में नहीं है लेकिन उत्तर प्रदेश की सल्तनत पर जब भी पार्टी के रणनीतिकारों की नजर जाती है, उसे भगवान राम बरबस याद आने लगते हैं। कमल दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह दो दिन से जिस तरह राम राग सुना रहे हैं, उसे देखते हुए साफ है कि पार्टी 2017 में उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव हिन्दुत्व के नाम पर ही लडेÞगी। भाजपा और राम मंदिर एक-दूसरे के पूरक हैं। कमल दल पर जब भी साम्प्रदायिता की तोहमत लगती है, वह राम नाम से किनारा करते हुए इसे अपने एजेण्डे से बाहर की बात करने लगती है, जबकि उसे पता है कि राम नाम ने उसके कितने बिगड़े काम बनाये हैं। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को पता है कि बिहार और उत्तर प्रदेश में यदि भगवा दल को सत्ता हासिल करनी है तो उसे हिन्दुत्व कानों में राम का मंत्र फूंकना होगा। पिछले दो दिन से अमित शाह जिस तरह राम राग अलाप रहे हैं, उसके निहितार्थ हैं। राम मंदिर मुद्दे पर शाह जहां फूंक-फूंक कर कदम रख रहे हैं वहीं उन्हें 10 मई का वाक्या भी याद है, जब अयोध्या में केन्द्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह के बयान पर हिन्दू संत नाराज हो गये थे। राजनाथ ने कहा था कि भाजपा राम मंदिर निर्माण के लिए कानून नहीं ला सकती क्योंकि उसे राज्यसभा में बहुमत प्राप्त नहीं है जबकि शाह ने 26 मई को राम मंदिर की खातिर लोकसभा में 370 सीटों का हवाला दिया था। राम मंदिर की जहां तक बात है, यह मामला उच्चतम न्यायालय में लम्बित है। उच्चतम न्यायालय का फैसला जब भी आए, भाजपा और उसके आनुषांगिक संगठन इस मुद्दे को जिन्दा रखना चाहते हैं। अयोध्या में राम मंदिर निर्माण और कश्मीर से धारा 370 हटाने को लेकर भाजपा चौराहे पर खड़ी है। उसे समझ में ही नहीं आ रहा कि आखिर वह किस रास्ते पर चले। हिन्दुत्व समर्थकों का कहना है कि मोदी सरकार बहुमत में है, लिहाजा उसे अपना वादा निभाना चाहिए जबकि संविधान संशोधन के लिए भाजपा को 370 सांसदों यानी दो तिहाई बहुमत की जरूरत है। जो भी हो भाजपा के राम राग से उनींदी अयोध्या और सरयू की तलहटी में अचानक थोड़ी-सी हलचल पैदा हो गई है। साल भर पहले तक अयोध्या को इस बात पर यकीन नहीं था कि ध्वस्त बाबरी मस्जिद की जगह भव्य राम मंदिर बनेगा लेकिन जिस तरह सियासत बदली है, उसे देखते हुए हिन्दुत्व को लगने लगा है कि यह काम मुश्किल तो है पर असम्भव कदापि नहीं। राम मंदिर मुद्दे पर यदा-कदा ही सही आम सहमति के प्रयास भी हुए लेकिन दोनों ही तरफ के अक्खड़पंथी अपना नजरिया बदलने को तैयार नहीं हैं। राजनाथ और शाह के इशारों पर गौर करें तो मामला अदालत में है, प्रतीक्षा करिए। सरकार के पास बहुमत लोकसभा में है, राज्यसभा में नहीं। मतलब साफ है, राम मंदिर मुद्दा बीरबल की खिचड़ी की तरह है, जिससे बहुत आस नहीं रखनी चाहिए। राम मंदिर को लेकर कमल दल की नीति और नीयत कैसी भी हो पर बेहतर यही होगा कि राम मंदिर के निर्माण के लिए गारा दूध से बने, खून से नहीं।

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