Tuesday 30 January 2018

करिश्माई करिश्मा, नेहा और इशिका


एम.पी. में महिला हॉकी की विकास यात्रा
श्रीप्रकाश शुक्ला
आज हमारा देश क्रिकेट का दीवाना है किन्तु एक समय ऐसा भी था जब लोगों में हॉकी के लिए इससे भी ज्यादा दीवानगी थी। 1928 से 1956 तक के 28 साल के लम्बे अन्तराल तक भारतीय हॉकी दुनिया में सिरमौर रही। हॉकी की इसी उपलब्धि ने इस खेल को मुल्क के राष्ट्रीय खेल का गौरव दिलाया। यह ग्वालियर-चम्बल सम्भाग के लिए गर्व और गौरव की ही बात है कि भारतीय हॉकी फेडरेशन का गठन सन् 1925 में ग्वालियर में ही हुआ। इसके बाद सन् 1928 में भारतीय हॉकी फेडरेशन अंतरराष्ट्रीय हॉकी महासंघ से जुड़ा। भारत अंतरराष्ट्रीय हॉकी महासंघ से सम्बद्ध होने वाला पहला गैर यूरोपिन सदस्य देश रहा। जहां तक महिला हॉकी की बात है, विक्टोरियाई शासन में खेलों में महिलाओं पर प्रतिबंध होने के बावजूद महिलाओं में हॉकी की लोकप्रियता चरम पर थी। महिला हॉकी के इतिहास को देखें तो 1895 से ही महिला टीमें नियमित रूप से सद्भावना मुकाबलों में भाग लेती रहीं लेकिन इनके बीच अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं की शुरुआत 1970 के दशक तक नहीं हुई थी। 1974 में हॉकी का पहला महिला विश्व कप आयोजित किया गया और 1980 में पहली बार महिला हॉकी मास्को ओलम्पिक खेलों में शामिल की गई। इसे संयोग ही कहेंगे कि भारतीय महिला हॉकी टीम भी 1980 मास्को ओलम्पिक में पहली बार खेली इसके बाद उसे 36 साल बाद ओलम्पिक खेलने का सौभाग्य मिला। महिला हॉकी संगठन की जहां तक बात है, 1927 में अंतरराष्ट्रीय नियामक संस्था यानि इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ वूमेंस हॉकी एसोसिएशन का गठन हुआ।
परिवर्तन प्रकृति का नियम ही नहीं मनुष्य के लिए एक चुनौती भी है। जो चुनौतियों से पार पाता है वही सिकंदर कहलाता है। मध्यप्रदेश की शिवराज सिंह चौहान सरकार ने खेलों के समुन्नत विकास की जो चुनौती स्वीकारी है, उसमें खेल मंत्री यशोधरा राजे सिंधिया का अप्रतिम योगदान है। हॉकी, खासकर महिला हॉकी के अभ्युदय का काम 2006 में खेल मंत्री यशोधरा राजे सिंधिया ने अपने हाथ लिया था। उन्होंने पुरुष हॉकी के लिए भोपाल तो महिला हॉकी के लिए ग्वालियर को चुना। 12 साल पहले दूसरे राज्यों की प्रतिभाशाली खिलाड़ियों के सहारे मध्यप्रदेश में चला हॉकी का कारवां आहिस्ते-आहिस्ते अपनी मंजिल की ओर अग्रसर है। ग्वालियर के जिला खेल परिसर कम्पू में स्थापित देश की सर्वश्रेष्ठ महिला हॉकी एकेडमी खिलाड़ियों की प्रथम पाठशाला ही नहीं आज ऐसी वर्णमाला है जिसके बिना महिला हॉकी की बात ही पूरी नहीं होती। सच कहें तो यह खेलों की ऐसी कम्पनी है जहां खिलाड़ी का खेल-कौशल ही नहीं निखरता बल्कि उसका जीवन भी संवरता है। 12 साल में इस एकेडमी ने मुल्क को जहां दर्जनों नायाब खिलाड़ी दिए वहीं दर्जनों बेटियों को रेलवे में रोजगार भी मिला।
प्रतिद्वंद्विता सफलता का मूलमंत्र है। जिस ग्वालियर-चम्बल सम्भाग में 12 साल पहले एक भी महिला हॉकी खिलाड़ी नहीं थी वहां आज दर्जनों बेटियां राष्ट्रीय तो लगभग आधा दर्जन खिलाड़ी भारतीय टीम की चौखट पर दस्तक दे रही हैं। ग्वालियर की करिश्मा यादव ग्वालियर-चम्बल सम्भाग की पहली अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी हैं। इसी शहर की नेहा सिंह और इशिका चौधरी भी भारतीय प्रशिक्षण शिविर में शिरकत कर रही हैं। 2006 में ग्वालियर में स्थापित महिला हॉकी एकेडमी से पूर्व यहां तीन राष्ट्रीय महिला हॉकी प्रतियोगिताएं तो हुई थीं लेकिन उनमें इस अंचल की किसी भी बेटी को सहभागिता का मौका नहीं मिला था। जुलाई, 2006 में ग्वालियर में स्थापित महिला हॉकी एकेडमी की पहली प्रशिक्षक अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी अविनाश कौर सिद्धू को बनाया गया था। एकेडमी का आगाज लक्ष्मीबाई राष्ट्रीय शारीरिक शिक्षा संस्थान से हुआ। उसके बाद जिला खेल परिसर कम्पू में फ्लड-लाइटयुक्त कृत्रिम हॉकी मैदान आबाद हुआ।
एकेडमी में ग्वालियर की प्रतिभाओं को भी मौका मिले इसके लिए सरकार ने जिला खेल परिसर कम्पू के साथ-साथ दर्पण मिनी स्टेडियम का भी कायाकल्प किया। यही वह मैदान है जिसमें पहली दफा ग्वालियर की बेटियों को हॉकी का ककहरा सीखने का मौका मिला। बेटियों की प्रतिभा निखारने का दुरूह काम प्रशिक्षक अविनाश भटनागर (एनआईएस) के कंधों पर डाला गया। प्रशिक्षक भटनागर ने इस काम को सही अंजाम देकर यह सिद्ध किया कि लगन और मेहनत से काम हो तो एकेडमी को बाहरी खिलाड़ियों की जरूरत ही न पड़े। एकेडमी में प्रशिक्षणरत करिश्मा यादव, नेहा सिंह, इशिका चौधरी, नीरज राणा, प्रतिभा आर्य और राखी प्रजापति सहित दर्जनों बेटियां दर्पण मैदान का ही दर्पण हैं।
मध्य प्रदेश सरकार द्वारा महिला हॉकी के उत्थान की दिशा में किए गए सराहनीय कार्य का ही परिणाम है कि अब हमारे प्रदेश की बेटियां भी हॉकी उठा चुकी हैं। उनकी प्रतिभा न केवल परवान चढ़ रही है बल्कि कई हॉकी बेटियों के कदम आहिस्ते-आहिस्ते टीम इण्डिया की तरफ बढ़ रहे हैं। लम्बे अंतराल बाद मध्य प्रदेश से भारतीय टीम में दस्तक देने वाली पहली बेटी ग्वालियर की करिश्मा यादव ही है। ग्वालियर की यह बिटिया अपने नाम के अनुरूप ही अपने करिश्माई खेल से सभी की चहेती बनी हुई है। आस्ट्रेलिया से तीन मैचों की हॉकी सीरीज खेली करिश्मा मध्य प्रदेश की तरफ से देश का मान बढ़ाने वाली सातवीं खिलाड़ी है। सीनियर टीम में प्रवेश से पूर्व मिडफील्डर करिश्मा को न्यूजीलैण्ड के खिलाफ भारतीय जूनियर हॉकी टीम से भी खेलने का मौका मिला था। करिश्मा यादव और नेहा सिंह के लाजवाब प्रदर्शन को देखते हुए ही इन्हें प्रदेश सरकार के खेल एवं युवा कल्याण विभाग द्वारा पहली बार एकलव्य अवार्ड से नवाजा गया।
12 साल पहले देश की 23 प्रतिभाशाली खिलाड़ियों से ग्वालियर में खुली महिला हॉकी एकेडमी आज मुल्क की सर्वश्रेष्ठ हॉकी पाठशाला बन चुकी है। इसी पाठशाला की होनहार खिलाड़ी करिश्मा यादव के माता-पिता नहीं चाहते थे कि उनकी बेटी हॉकी खेले। यद्यपि उनके घर के पास ही दर्पण मिनी स्टेडिटम में एक ऐसा शख्स खिलाड़ियों को निखार रहा था जिसकी रग-रग में हॉकी समाई हुई थी। अपनी धुन के पक्के एनआईएस अविनाश भटनागर के प्रयासों से ही करिश्मा यादव को हॉकी खेलने की इजाजत मिली। करिश्मा को हॉकी का ककहरा भी श्री भटनागर ने ही सिखाया। करिश्मा यादव को भारतीय टीम का सदस्य बनाने में एकेडमी की सुविधा और तालीम के साथ-साथ अविनाश भटनागर का योगदान भी कमतर नहीं है। करिश्मा का भारतीय टीम में प्रवेश कोई तुक्का नहीं है। इस मिडफील्डर ने इसके लिए कड़ी मेहनत की है। करिश्मा की कड़ी मेहनत और निरंतर अभ्यास का ही परिणाम है कि हॉकी इण्डिया ने उसकी प्रतिभा को न केवल पहचाना बल्कि पहले जूनियर और फिर सीनियर स्तर पर उसे भारतीय टीम का प्रतिनिधित्व करने का मौका दिया। करिश्मा को 2014 में जहां भारतीय जूनियर टीम से न्यूजीलैण्ड का दौरा करने का मौका मिला वहीं नवम्बर 2016 में सीनियर टीम से आस्ट्रेलिया के खिलाफ खेलने का मौका मिला।
ग्वालियर के भीकम सिंह-सुषमा यादव की इस प्रतिभाशाली बेटी ने लगातार राज्य एवं राष्ट्रीय स्तर पर अपने दमदार प्रदर्शन से अपनी टीम को दर्जनों बार विजेता और उपविजेता होते देखा है। सब-जूनियर, जूनियर और सीनियर चैम्पियनशिप की बात करें तो करिश्मा राष्ट्रीय स्तर पर बीस से अधिक बार खेल चुकी है। करिश्मा जूनियर नेहरू हाकी प्रतियोगिता में लगातार चार साल खेली। 2011 और 2012 में उसकी टीम ने स्वर्णिम सफलता हासिल की तो 2013 में रजत और 2014 में कांस्य पदक जीता। हॉकी की यह बिटिया कहती है कि लड़कियों में खेल प्रतिभा की कोई कमी नहीं है, जरूरत है उन्हें सही दिशा एवं मार्गदर्शन की। करिश्मा कहती हैं कि ग्वालियर अब हॉकी का हब बन चुका है, जिसमें महिला हॉकी खिलाड़ियों के लिए अपार सम्भावनाएं हैं।   
मध्यप्रदेश की महिला हॉकी बेहतरी में कुछ ऐसे लोगों का भी योगदान है जोकि राष्ट्रीय स्तर पर बेशक बड़े गुरुज्ञानी न माने जाते हों पर उन्होंने इस खेल की बेहतरी के लिए दिन-रात एक कर साबित किया कि मेहनत से कुछ भी हासिल करना सम्भव है। मध्यप्रदेश राज्य महिला हॉकी एकेडमी में बतौर प्रशिक्षक अविनाश कौर सिद्धू, पूबालन, द्रोणाचार्य अवार्डी गुरुदयाल सिंह भंगू अपनी सेवाएं दे चुके हैं। अब यह गुरुतर कार्य परमजीत सिंह बरार, वंदना उइके और रजनी सेंगर के हाथों में है। परमजीत सिंह बरार महिला हॉकी के वह शख्स हैं जिन्होंने मुश्किल हालातों में भी न केवल स्थानीय खिलाड़ियों के महत्व को स्वीकारा बल्कि कोशिश की कि मध्यप्रदेश की बेटियां हर आयु वर्ग में राष्ट्रीय चैम्पियन बनें। टीम इण्डिया के दरवाजे पर दस्तक देने वाली ग्वालियर की करिश्मा यादव, नेहा सिंह, इशिका चौधरी के साथ ही साथ भोपाल की डिफेण्डर सीमा वर्मा भी देश की उदीयमान खिलाड़ियों में शुमार हैं। देखा जाए तो ग्वालियर में यदि महिला हॉकी एकेडमी न होती तो मध्यप्रदेश की रैना यादव, जहान आरा बानो, निहारिका सक्सेना, रीना राठौर, प्रीति पटेल जैसी हाकी बेटियां कहीं गुमनामी के अंधेरे में ही खो गई होतीं। मध्यप्रदेश में खेलों के कायाकल्प की वह दिन-तारीख आज भी मेरे जेहन में है। जिला खेल परिसर कम्पू में 31 मार्च, 2006  को तत्कालीन खेल मंत्री यशोधरा राजे सिंधिया ने हॉकी को लेकर कई घोषणाएं की थीं। उस समय उनकी कही बातों पर यकीन नहीं हो रहा था लेकिन आज खेलों में मध्यप्रदेश जिस मुकाम पर है उसका सारा श्रेय मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और ग्वालियर की बिटिया यशोधरा राजे सिंधिया को ही जाता है।
भारतीय महिला हॉकी को छह अंतरराष्ट्रीय महिला खिलाड़ी देने वाले जबलपुर के बिना हॉकी की वर्णमाला पूरी नहीं होती। महाकौशल के कौशल को सलाम करना होगा कि जब सुविधाएं नहीं थीं तब यहां की एक दो नहीं आधा दर्जन बेटियों ने भारतीय टीम का प्रतिनिधित्व किया। इनमें अविनाश कौर सिद्धू, गीता पण्डित, कमलेश नागरत, आशा परांजपे, मधु यादव और विधु यादव के साथ अब ग्वालियर की करिश्मा यादव का नाम भी जुड़ गया है। मधु यादव हॉकी में एकमात्र मध्य प्रदेश की महिला अर्जुन अवार्डी हैं। स्वर्गीय एस.आर. यादव की बेटी मधु ने लम्बे समय तक मुल्क की महिला हॉकी का गौरव बढ़ाया। वह 1982 एशियन गेम्स की स्वर्ण पदक विजेता टीम का सदस्य भी रहीं। मधु यादव के परिवार की जहां तक बात है इस यदुवंशी परिवार की रग-रग में हॉकी समाई हुई है। मधु और विधु ने भारत का प्रतिनिधित्व किया तो इसी घर की बेटी वंदना यादव ने भारतीय विश्वविद्यालयीन हॉकी में अपना कौशल दिखाया। छह अंतरराष्ट्रीय महिला हॉकी खिलाड़ी देने वाले जबलपुर की गीता पंडित, कमलेश नागरत तथा आशा परांजपे भारत छोड़ विदेश जा बसी हैं लेकिन अविनाश कौर सिद्धू, मधु और विधु यादव आज भी गाहे-बगाहे ही सही हॉकी को लेकर चिन्तातुर रहती हैं।

महिला हॉकी का गढ़ बन चुका ग्वालियर अब तक तीन बार राष्ट्रीय जूनियर महिला हॉकी प्रतियोगिता की मेजबानी कर चुका है। ग्वालियर में पहली बार 1969-70 में राष्ट्रीय जूनियर महिला हॉकी प्रतियोगिता हुई थी। तब खिताबी मुकाबले में पेप्सू ने पंजाब को पराजित किया था। ग्वालियर में 1976-77 में दूसरी बार हुई राष्ट्रीय जूनियर महिला हॉकी प्रतियोगिता में केरल ने कर्नाटक को हराकर खिताब जीता था। तीसरी और अंतिम बार यहां 1982-83 में राष्ट्रीय जूनियर महिला हॉकी प्रतियोगिता हुई। इस वर्ष खिताबी मुकाबले में पंजाब ने बाम्बे का मानमर्दन किया था। ग्वालियर में हॉकी की मेजबानी का पुराना इतिहास है। यहां लम्बे समय से चल रही सिंधिया गोल्ड कप हॉकी प्रतियोगिता को भला कौन नहीं जानता। यह बात अलग है कि 1958-59 को छोड़कर ग्वालियर कभी विजेता तो क्या फाइनल तक भी नहीं पहुंच सका। उम्मीद है कि महिला हॉकी के गढ़ ग्वालियर की करिश्मा यादव के बाद अब दूसरी बेटियां भी मादरेवतन का मान बढ़ाएंगी।

Wednesday 17 January 2018

दिव्यांगों के नारायण हैं स्वामी रामभद्राचार्य


राष्ट्रीय ग्रंथ है रामचरित मानस
श्रीप्रकाश शुक्ला
कटु वचन किसी के भी हों मर्माहत और आहत करते ही हैं। अपनों के कटु वचनों को कोई तो अभिशाप मानकर स्वयं को होम कर देता है तो कोई इसे चुनौती के रूप में लेकर वह कर गुजरता है जिसे लोग असम्भव मान लेते हैं। पद्म-विभूषण कुलाधिपति जगद्गुरु स्वामी रामभद्राचार्य जी भी कुछ ऐसे ही हैं। बचपन में ही अपनी आंखें खो देने वाले संतश्री स्वामी रामभद्राचार्य ने अब तक एक-दो नहीं बल्कि 156 पुस्तकें लिखी हैं। श्रेष्ठ संत-महात्माओं की श्रेणी में शिखर पर आरूढ़ स्वामी रामभद्राचार्य जी को किसी और से नहीं बल्कि अपने पिता से अपशकुन शब्द की ऐसी चोट मिली जिसके चलते वह अपने बड़े भाई की शादी में नहीं जा सके। आज स्वामी रामभद्राचार्य जी सिर्फ हजारों हजार दिव्यांगों के ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण मानव समाज के दिग्दर्शक हैं। मकर संक्रांति के पावन पर्व पर 14 जनवरी, रविवार को गाजियाबाद के रामलीला मैदान में अपना 69वां जन्मदिन मनाते हुए संतश्री ने मोदी सरकार के तीन मंत्रियों वी.के. सिंह, गिरिराज सिंह और अश्वनी चौबे से दोटूक शब्दों में कहा कि अब देश की सल्तनत आपके हाथों है लिहाजा अयोध्या में श्रीराम मंदिर तो बने ही कश्मीर की रोज-रोज की पंगेबाजी-पत्थरबाजी भी बंद हो।
चित्रकूट स्थित तुलसी पीठाधीश्वर जगद्गुरु रामानन्दाचार्य स्वामी श्री रामभद्राचार्य जी महाराज ने हजारों श्रद्धालुओं के बीच कहा कि लोग मुझसे पूछते हैं कि मैं अपना जन्मदिन क्यों मनाता हूं। मैं उनसे पूछता हूं कि क्यों न मनाऊं। जन्मदिन वे न मनाएं जिन्होंने जीवन में कुछ किया ही न हो। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की तारीफ करते हुए जगद्गुरु स्वामी रामभद्राचार्य जी ने कहा कि आजाद भारत में पहली बार कोई कर्मयोगी प्रधानमंत्री बना है। अब देश में भारतीय जनता पार्टी की पूर्ण बहुमत की सरकार है ऐसे में श्रीराम मंदिर तो बने ही रामचरित मानस को भी राष्ट्रीय ग्रंथ घोषित किया जाए। राम शब्द की व्याख्या करते हुए स्वामी रामभद्राचार्य जी ने कहा कि रा का अर्थ है राष्ट्र और म का अर्थ मंगल है यानि श्रीराम राष्ट्र मंगल हैं ऐसे में रामचरित मानस हमारा राष्ट्रीय ग्रंथ होना ही चाहिए। स्वामी रामभद्राचार्य जी ने चुटकी लेते हुए कहा कि आज राजनीतिज्ञ अपनी कुर्सी की खातिर सच बोलने से डरते हैं। हमारे धर्म-ग्रंथों में आरक्षण जैसी कोई बात ही नहीं है जबकि आज आरक्षण को राजनीतिज्ञ हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं, जोकि कतई उचित नहीं है। मानव कल्याण की बात कहने की बजाय आज राजनीतिज्ञ असमतामूलक कार्य कर रहे हैं, इससे विद्वेश फैल रहा है और मुल्क की अमन-शांति भंग हो रही है।
स्वामी रामभद्राचार्य जी के जन्मदिन पर तीन पुस्तकों का भी विमोचन हुआ। इनमें दो पुस्तकें स्वयं स्वामी जी ने तो एक पुस्तक सासाराम बिहार निवासी डा. रीभा तिवारी द्वारा लिखी गई है। दिव्यांगता एक वरदान पुस्तक में 55 ऐसे दिव्यांगों की अकल्पनीय इच्छाशक्ति को उजागर किया गया है जिन्होंने अपने कौशल से दुनिया भर में भारत का नाम गौरवान्वित किया है। स्वामी रामभद्राचार्य जी ने दिव्यांगता एक वरदान पुस्तक की लेखिका डा. रीभा तिवारी की मुक्तकंठ से तारीफ करते हुए कहा कि आपने सिर्फ कुछ पन्नें नहीं बल्कि सही मायने में एक ग्रंथ लिखा है जिसे पढ़कर दिव्यांगों को अपशकुन मानने वाले लोगों की जरूर आंखें खुलेंगी। डा. रीभा तिवारी स्वयं बचपन में अपना एक पैर खो चुकी हैं। इस अवसर पर तीनों केन्द्रीय मंत्रियों वी.के. सिंह, गिरिराज सिंह और अश्वनी चौबे ने भी दिव्यांगता एक वरदान पुस्तक को श्रेष्ठ कृति निरूपित किया।
चित्रकूट की जहां तक बात है यह पावन धरती भगवान श्रीराम के चलते कालांतर से हर हिन्दू के लिए तीर्थ-स्थल है। चित्रकूट आज एक ऐसे विलक्षण संत की कर्मस्थली है, जहां देश भर के दिव्यांगों को स्वयं के पैरों पर खड़े होने का सम्बल मिलता है। सच कहें तो स्वामी रामभद्राचार्य जी के प्रयत्नों की पराकाष्ठा ने चित्रकूट की पावन भूमि को मानव सेवा का अभिनव तीर्थ बना दिया है। संत-महात्मा मन्दिरों-मठों तक सीमित न रहें, वे समाज में निकलें और पीड़ित मानवता की सेवा को ही राघव सेवा मानकर अपना सर्वस्व अर्पित करें, यही जगद्गुरु स्वामी रामभद्राचार्य का मूल मंत्र है। चित्रकूट में देश का पहला विकलांग विश्वविद्यालय स्वामी रामभद्राचार्य जी की साधना का प्रतिबिम्ब है। 26 जुलाई, 2001 को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह द्वारा इसका उद्घाटन किया गया था। आठ जनवरी, 2018 को देश के राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द ने इस विश्वविद्यालय को केन्द्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा देने का आश्वासन दिया है। इस विश्वविद्यालय की जहां तक बात है अब तक यहां अध्ययन करने वाले पांच हजार से अधिक दिव्यांग छात्र-छात्राएं अपने पैरों पर खड़े हो चुके हैं।  
जगद्गुरु रामभद्राचार्य जी के प्रयासों से विश्वविद्यालय में विकलांग विद्यार्थियों के लिए अधिकांश सुविधाएं निःशुल्क या फिर नाममात्र के शुल्क पर उपलब्ध हैं। जगद्गुरु के तुलसी पीठ आश्रम में छात्राओं को छात्रावास सुविधा मिली हुई है। इसके अतिरिक्त आश्रम परिसर में ही प्रज्ञाचक्षु (नेत्रहीन), मूक-बधिर एवं अस्थि विकलांग बच्चों के लिए प्राथमिक पाठशाला से लेकर उच्च माध्यमिक स्तर तक विद्यालय भी चलता है। यहां अध्ययनरत सभी बच्चों को आवास, भोजन, वस्त्र इत्यादि की सुविधाएं निःशुल्क मिलती हैं। स्वामी रामभद्राचार्य कहते हैं कि विकलांग ही मेरे भगवान हैं। 68 साल पहले 14 जनवरी, 1950 को जौनपुर जिले के सुजानगंज तहसील के शांडी खुर्द में एक कृषक ब्राह्मण परिवार में जन्में जगद्गुरु रामभद्राचार्य जी को जन्म के ठीक दो महीने बाद ही रोहुआ रोग के चलते अपनी आंखें खोनी पड़ी थीं। सात साल की उम्र में ही सम्पूर्ण रामचरित मानस कंठस्थ करने स्वामी रामभद्राचार्य कहते हैं कि जो ईश्वर की इच्छा थी सो हुआ। मेरी आंखों का रोग तो गया नहीं किन्तु मेरे भव रोगों का निदान जरूर हो गया। स्वामी जी के बचपन का नाम गिरिधर था। बालपन में अपने बाबा पंडित सूर्यबली मिश्र के सान्निध्य में रहकर बालक गिरिधर ने रामचरित मानस, श्रीमद् भगवद्गीता को खेल-खेल में ही कंठस्थ कर लिया था।

समय के साथ गिरिधर की मेधा निखरती ही चली गई। सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी से उन्होंने अपना शोध कार्य पूर्ण किया। अध्ययन अवधि में कितने ही स्वर्ण पदकों ने उनके गले की शोभा बढ़ाई। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने गिरिधर की अनोखी प्रतिभा से प्रभावित होकर इन्हें संस्कृत विश्वविद्यालय में संस्कृत विभागाध्यक्ष पद पर नियुक्त कर दिया लेकिन स्वामीजी के जीवन का उद्देश्य तो और ही था। 19  नवम्बर, 1983 को तपोमूर्ति श्रीरामचरण दास जी महाराज फलाहारी से इन्होंने संन्यास की दीक्षा ली और 1987  में तुलसी जयंती के दिन चित्रकूट में तुलसी पीठ की स्थापना की। बचपन और युवावस्था में शारीरिक न्यूनता ने स्वामीजी के सहज जीवन में कदम-कदम पर विपदाएं, बाधाएं पैदा कीं लेकिन इससे वे विचलित होने की बजाय मजबूत होते गए। इन कष्टों की अनुभूति के चलते ही स्वामीजी दिव्यांगों के नर नहीं बल्कि नारायण बन गए। कुलाधिपति जगद्गुरु रामभद्राचार्य जी के प्रयासों से चित्रकूट में संचालित विकलांग विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों को साक्षर ही नहीं स्वावलम्बी भी बनाया जा रहा है। यहां पढ़ने वाले सभी छात्रों के लिए कम्प्यूटर अनिवार्य है। गुरुकुल परिवार की एक और श्रद्धा केन्द्र हैं डा. गीता मिश्र, जोकि स्वामी जी की बड़ी बहन हैं। स्वामी रामभद्राचार्य के सपनों को साकार करने में इनका त्याग भी अवर्णनीय है। स्वामी जी की छत्रछाया में रहने वाले सैकड़ों बालक-बालिकाएं जात-पात के भेद से परे तालीम हासिल कर अपने सपनों को पंख लगा रहे हैं। विकलांग देव की सेवा में लगे स्वामी रामभद्राचार्य कहते हैं भगवान की कोई जाति नहीं होती लिहाजा हम ताउम्र इनकी सेवा करते रहने के साथ राष्ट्र कल्याण की बातें लिखते रहेंगे।

Thursday 4 January 2018

पूनम चोपड़ा ने हिम्मत से जीता जहां


जहां चाह, वहां राह
श्रीप्रकाश शुक्ला
सिर्फ सपने देखने से मंजिल नहीं मिलती। मंजिल तक पहुंचने के लिए अथक मेहनत की जरूरत होती है। जूडो में देश की पहली अर्जुन अवार्डी पूनम चोपड़ा का रुझान तो बचपन में क्रिकेट से था लेकिन उन्होंने जूडो खेल को ही अपना हमसफर मानकर दिन-रात एक कर दिए। पूनम चोपड़ा ने 1993 में हुई एशियन चैम्पियनशिप में देश को पहली बार जूडो में रजत पदक दिलाया उसके बाद 1994 में एशियन गेम्स में भी चांदी का तमगा जीता। पूनम लगभग 35 बार विदेशी धरती पर भारत का प्रतिनिधित्व करने वाली देश की एकमात्र जूडोका हैं। पूनम को भारत की झोली में एक-दो नहीं बल्कि 20 पदक डालने का श्रेय हासिल है। यह सब भारत की इस बेटी की जीवटता, जोश एवं जज्बे का कमाल है। देश का मान बढ़ाने वाली पूनम को अपने साथ हुए सलूक का मलाल तो है लेकिन वह आज भी मुश्किल में पड़ी बेटियों में जीत की चाह पैदा करने को दिन-रात एक कर रही हैं।
पूनम चोपड़ा ऐसी शख्सियत हैं जिन्होंने जिन्दगी में बहुत मुश्किल फैसले लिए और मुश्किल दौर से दो-चार भी हुईं। पूनम ने परिवार के गुस्से की परवाह न करते हुए जहां जूडो को अपनाया वहीं सफलता का परचम भी फहराया। एशियन खेलों में जूडो का पहला पदक दिलाने वाली इस जांबाज बेटी को अर्जुन पुरस्कार तो मिला लेकिन एक अदद नौकरी की तलाश उसे आज भी है। खिलाड़ी और चोट एक-दूसरे के पूरक हैं। पूनम को 2005 में ऐसी चोट लगी कि उन्हें लम्बे समय के लिए खेल से बाहर होना पड़ा, पर जीवटता की धनी पूनम दस साल ब्रेक के बाद 2015 में जब जूडो के मैदान में उतरीं तो उसी पुराने अंदाज में। पूनम का इस खेल के प्रति लगाव घटने की बजाय और बढ़ गया। अर्जुन अवार्डी पूनम फिलहाल द्रोण की भूमिका में जूडो खिलाड़ियों को तराश कर उन्हें अर्जुन बनाने में लगी हुई हैं।
चीन के मकाऊ शहर में हुई एशियन चैम्पियनशिप के 56 किलो भार वर्ग में जीते रजत पदक को पूनम चोपड़ा अपना सबसे बड़ा खुशी का लम्हा मानती हैं। हो भी क्यों न आखिर यह देश के लिए जीता गया उनका पहला मेडल जो था। वह बताती हैं कि चीन में जब उनको पहला मेडल मिला तो सम्मान के लिए देश का झंडा नहीं था, इसके लिए करीब आधे घण्टे तक सम्मान समारोह रोकना पड़ा। भारतीय दूतावास से जब भारतीय तिरंगा मंगवाया गया उसके बाद ही उन्हें पदक के साथ सम्मानित किया गया। इसी दौरान उनके कोच को इतनी ज्यादा खुशी हुई कि वह बंद कमरे में घण्टों खुशी के आंसू बहाते रहे। यही वह पल था जिसे वह ताउम्र नहीं भूलना चाहतीं।
पूनम कहती हैं कि 2005 का साल भी उनके करियर में दर्द भरी याद बन गया। उस समय खेल के दौरान उसके घुटने में चोट लगी और उसे घुटने का आपरेशन करवाना पड़ा। 10 साल के लम्बे विराम के बाद वर्ष 2015 में वह फिर से जूडो के मैदान में उतर पाईं। यह सफर मेरे लिए काफी मुश्किल भरा रहा क्योंकि मैं 10 साल जूडो नहीं खेल सकी। पूनम कहती हैं कि मैंने हर परिस्थिति का हिम्मत से सामना किया। बड़ा मुकाम पाने के लिए जीतोड़ मेहनत की। पूनम चोपड़ा बताती हैं कि उन्होंने वर्ष 1984 में खेल में कदम रखा था। वह पहले क्रिकेट में अपना करियर बनाना चाहती थी। मैं आरम्भ में क्रिकेट खेलती थी। सब जूनियर में भारतीय टीम की खिलाड़ी भी रही लेकिन बाद में जूडो से जुड़ गई। हमारे माता-पिता और भाई को मेरा जूडो खेलना रास नहीं आ रहा था लेकिन मुझ पर खेलों में मुकाम हासिल करने का भूत सवार था। पूनम बताती हैं कि जैसे-जैसे मुझे सफलताएं मिलती गईं लोगों का मलाल भी कम होता गया। बड़ा मुकाम पाने पर उनके माता-पिता ने भी आशीर्वाद दिया और खुशी जताई। लड़कियों को खेलों में आने का विरोध करने वाले भी आखिर बधाई देने लगे।
देश को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महिला जूडो में पहचान दिलवाने वाली अर्जुन अवार्डी पूनम चोपड़ा को तीन दशक तक लगातार खेलने के बावजूद आज तक सरकारी नौकरी का इंतजार है। सरकारें आईं और गईं लेकिन पूनम की उपलब्धियों से नेताओं का दिल नहीं पसीजा। पूनम देश की पहली महिला जूड़ो खिलाड़ी हैं जिन्हें 1997 में जूडो के लिए अर्जुन अवार्ड प्रदान किया गया। 1974 में दिल्ली के व्यवसायी दर्शन लाल व एयर फोर्स में कार्यरत मां के घर जन्मी इस बेटी ने साल 1988 में अपनी बड़ी बहन मोनिका शौकीन को देखते हुए जूडो में कदम रखा था। पाकिस्तान से भारत आए दर्शनलाल के परिवार में पूनम दूसरे नम्बर की बेटी हैं। पूनम की मां एयरफोर्स से रिटायर्ड हैं। पूनम की बड़ी बहन मोनिका शौकीन जूडो की नेशनल खिलाड़ी रह चुकी हैं। पूनम ने दिल्ली की ओर खेलते हुए राष्ट्रीय चैम्पियनशिप में पहली बार रजत पदक हासिल किया था। 1989 में पूनम ने हरियाणा से खेलने का निश्चय किया तब से लेकर आज तक वह हरियाणा को ही अपनी कर्मस्थली मानती हैं। जूडो को ओलम्पिक खेलो में 1966 में पहली बार मान्यता मिली। 1997 में पूनम विश्व जूडो रैंकिंग में सातवें स्थान पर पहुंची। 2000 में उन्होंने बैंकाक एशियाई खेलों तो 2004 में विश्व जूडो चैम्पियनशिप में देश का प्रतिनिधित्व किया। पूनम ने साल 2004 में नेशनल गेम्स में स्वर्ण पदक जीतने के बाद चोट की वजह से खेलना छोड़ दिया।
10 साल चोट से जूझने के बाद इस जुझारू महिला खिलाड़ी ने 2015 में तेलगांना में सम्पन्न हुई राष्ट्रीय सीनियन जूडो चैम्पियनशिप में स्वर्ण पदक हासिल किया तो 2016 में शिलांग में सम्पन्न हुए सीनियर नेशनल जूडो खेलों में रजत पदक हासिल किया। पूनम चोपड़ा कहती हैं कि उन्होंने देश का सम्मान ऊंचा रखने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी और आज भी उनकी इच्छा है कि देश के लिए खेलूं और देश के लिए जान लगा दूं। सरकारी उपेक्षा पर पूनम कहती हैं कि उन्होंने अभी उम्मीद नहीं छोड़ी है। केरल में सम्पन्न हुए नेशनल गेम्स की जूडो स्पर्धा में मणिपुर की खिलाड़ी को हराते हुए कांस्य पदक हासिल करने वाली पूनम का कहना है कि खेलों में वापसी कर वे बेहद खुश हैं। वह ओलम्पिक में भाग लेकर पदक जीतने का अपना सपना साकार करना चाहती हैं। खेल और खिलाड़ियों को तमाम सुविधाएं देने का दम भरने वाली सरकारों के हर दरवाजे पर पूनम ने दस्तक दी लेकिन उसे सिर्फ आश्वासन ही मिला, मदद नहीं। पूनम को मध्य प्रदेश सरकार ने भी कुछ समय के लिए नौकरी दी लेकिन एक खिलाड़ी की गलत शिकायत पर उसे हटा दिया गया। अब निराश-हताश पूनम को खट्टर सरकार की नई खेल नीति से बेहद उम्मीद है। पूनम चोपड़ा के सिर से पिता का साया उठने के बाद मां भी बीमार रहने लगीं। बहन और भाई की जिम्मेदारी भी पूनम के कंधों पर आ पड़ी। प्राइवेट नौकरी करते हुये पूनम ने अपनी छोटी बहन और भाई की शादी की लेकिन वह खुद शादी नहीं कर पाईं। पूनम कहती हैं कि अब उम्र ज्यादा हो गई है लिहाजा वह शादी नहीं नौकरी के बारे में चिन्तित हैं।


Wednesday 3 January 2018

षड्यंत्रकारी रोशन ने बुझाई दीपक की लौ

मध्यप्रदेश में योग्य प्रशिक्षकों की नाकद्री
श्रीप्रकाश शुक्ला
खेल एवं युवा कल्याण विभाग मध्य प्रदेश द्वारा हाकी प्रशिक्षक अर्जुन अवार्डी अशोक कुमार, जूडो प्रशिक्षक अर्जुन अवार्डी पूनम चोपड़ा को बेजा तरीके से हटाए जाने का मामला अभी शांत भी नहीं हुआ कि एक और बाक्सिंग प्रशिक्षक हिटलरशाही का शिकार हो गया। सच कहें तो बाक्सिंग प्रशिक्षक दीपक महाजन की लौ षड्यंत्रकारी रोशन लाल के कारनामों से बुझी है। रोशन लाल ने अपनी बहन को नौकरी दिलाने की खातिर ऐसा षड्यंत्र रचा कि खेल मंत्री यशोधरा राजे सिंधिया और संचालक खेल उपेन्द्र जैन की नजर में दीपक महाजन कसूरवार नजर आने लगे। जबकि बतौर प्रशिक्षक दीपक महाजन की उपलब्धियां किसी भी मायने में कमतर नहीं कही जा सकतीं।
देखा जाए तो पिछले 11 साल में मध्य प्रदेश सरकार के मुखिया शिवराज सिंह चौहान ने खेलों की दिशा में एक नजीर स्थापित की है लेकिन तेली का काम तमोली से कराने के फेर में जो परिणाम मिलने चाहिए वे नहीं मिले। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और खेल मंत्री यशोधरा राजे सिंधिया निरा भोले हैं। इनके भोलेपन का ही रोशन लाल जैसे खोटे सिक्कों ने नाजायज फायदा उठाया है। मुख्यमंत्री श्री चौहान और खेल मंत्री सिंधिया हर मंच पर टोक्यो ओलम्पिक 2020 में मध्य प्रदेश के अधिकाधिक खिलाड़ियों की सहभागिता का बखान करते नहीं थकते। इन्हें कौन समझाए कि जब हमारे खिलाड़ी राष्ट्रीय स्तर पर ही औंधे मुंह गिर रहे हों तो भला वे ओलम्पिक कैसे खेलेंगे।
दरअसल, भोपाल, इंदौर, जबलपुर, ग्वालियर और शिवपुरी में संचालित खेल एकेडमियों में प्रशिक्षणरत कोच अपनी लाज बचाने की खातिर खिलाड़ियों को ऐसी प्रतियोगिताओं में खेलाने को ले जाते हैं जिनका कोई अस्तित्व नहीं होता। जाहिर सी बात है मुख्यमंत्री और खेल मंत्री को असली-नकली प्रतियोगिताओं का भान नहीं होता इसी बात का फायदा नाकारा प्रशिक्षक उठा रहे हैं। पिछले साल की ही बात करें तो मध्य प्रदेश की विभिन्न एकेडमियों के खिलाड़ी सैकड़ों राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पदक जीतकर लाए हैं लेकिन इन पदकों के सहारे ओलम्पिक में शिरकत करना कतई सम्भव नहीं होगा। बावजूद इसके यही पदक मुख्यमंत्री और खेल मंत्री की बांछें खिला रहे हैं।
मध्य प्रदेश खेल एवं युवा कल्याण विभाग में प्रशिक्षकों के साथ न्याय नहीं हो रहा है। प्रदेश भर में सैकड़ों प्रशिक्षक पिछले 10 साल से संविदा पर काम कर रहे हैं लेकिन उन्हें नियमित करने की बजाय प्रदेश के पैसे पर शाहखर्ची दिखाई जा रही है। प्रदेश में प्रतिभाओं की कमी नहीं है लेकिन उन्हें प्रोत्साहित करने की बजाय खेल विभाग उन पर पैसा लुटा रहा है जिन्हें पैसे की जरूरत ही नहीं है। ओलम्पिक, पैरालम्पिक, विश्व कप में अच्छा प्रदर्शन करने वाले खिलाड़ियों का सम्मान किया जाना यदि जरूरी है तो फिर प्रदेश के गरीब खिलाड़ी और प्रशिक्षक मदद की गुहार आखिर किससे लगाएं। जिस प्रदेश में गुरु का ही सम्मान नहीं होगा वहां प्रतिभाएं कैसे खिलखिलाएंगी। देखा जाए तो प्रशिक्षकों को गैरवाजिब तरीके से बाहर निकालना खेल विभाग का चलन बनता जा रहा है।   
कुछ माह पहले की ही बात है जब हाकी प्रशिक्षक अशोक ध्यानचंद को खेल एवं युवा कल्याण विभाग से बड़े बेआबरू होकर निकलना पड़ा था। इसी तरह जूडो खेल की देश की पहली अर्जुन अवार्डी महिला प्रशिक्षक पूनम चोपड़ा के साथ दुर्व्यवहार का मामला सामने आया था। पूनम का आरोप था कि संचालक उपेन्द्र जैन ने न केवल उनके साथ अभद्र व्यवहार किया बल्कि उन्हें धक्के मारते हुए अपने कक्ष से बाहर निकलवाया था। इतना ही नहीं संचालक जैन ने यहां तक कहा था कि बाहर निकलो बहुत देखे तुम्हारे जैसे अर्जुन अवार्डी। सोचने की बात है कि जिस आलाधिकारी को बोलने की तमीज न हो वह खिलाड़ियों का क्या लाख भला करेगा। खैर उसी समय इस बात का संज्ञान लिया गया होता तो शायद मध्य प्रदेश की इतनी किरकिरी न होती। देखा जाए तो खेल एवं युवा कल्याण विभाग प्रशिक्षकों के मामलों में खिलाड़ियों को हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहा है। अशोक कुमार और पूनम चोपड़ा के मामले कुछ यही बयां कर रहे हैं।
खेल एवं युवा कल्याण विभाग के हिटलरशाही रवैये के खिलाफ अशोक कुमार तो कुछ नहीं बोले लेकिन पूनम चोपड़ा ने संचालक उपेन्द्र जैन की शिकायत तात्या टोपे नगर थाने में की थी। पूनम ने शिकायत में कहा था कि वे हाईकोर्ट के स्टे आदेश के साथ अपना पक्ष रखने जैन के पास गई थीं। कोर्ट सम्बन्धी बातें सुनते ही संचालक बिफर गए। दरअसल पूनम चोपड़ा को एकेडमी की खिलाड़ी अंतिम यादव की शिकायत पर कोच पद से हटाया गया था, इसके बाद ही उन्होंने हाईकोर्ट का रुख किया।
ताजा मामला बाक्सिंग प्रशिक्षक दीपक महाजन का सामने आया है। दीपक महाजन से प्रशिक्षण हासिल बाक्सरों ने 63वें स्कूल नेशनल खेलों में दो स्वर्ण, चार रजत और पांच कांस्य पदक सहित कुल 11 पदक जीतने के साथ ही नेशनल चैम्पियनशिप में उप-विजेता होने का गौरव हासिल किया था। इस साल रोशन लाल से प्रशिक्षण हासिल एकेडमी के बच्चों ने दो रजत और एक कांस्य पदक ही हासिल किये हैं। पिछले साल स्कूल नेशनल में बालक वर्ग में टीम ने चौथा तथा बालिका वर्ग में तीसरा स्थान हासिल करते हुए खेलों इंडिया के लिए क्वालीफाई किया था और प्रदेश के बाक्सरों ने सात पदक भी जीते थे। इस बार प्रदेश के बाक्सर खेलने की पात्रता ही हासिल नहीं कर पाए। प्रशिक्षक दीपक महाजन के खिलाफ रोशन लाल द्वारा उस समय षड्यंत्र रचा गया जब वह 13 से 20 सितम्बर तक आईबा-1 स्टार कोर्स करने रोहतक गए हुए थे। 22 सितम्बर को जब दीपक महाजन भोपाल के टीटी नगर स्टेडियम लौटे तो उन्हें काम संतोषजनक न होने की तोहमत लगाकर सेवा समाप्ति का परवाना थमा दिया गया। खेल एवं युवा कल्याण विभाग के कई अधिकारी जहां आज भी दीपक के कामकाज की सराहना कर रहे हैं वहीं दूसरी तरफ रोशन लाल अपनी सफलता की ढींगें हांक रहा है।   

इंसाफ के लिए दीपक महाजन खेल मंत्री के साथ संचालक खेल उपेन्द्र जैन से भी मिले लेकिन किसी के कानों में जूं नहीं रेंगी। रोशन लाल के बारे में संचालक का यह कहना कि वह उनके सारे काम करता है, सोचनीय बात है। श्री जैन की बातों से तो यही लगता है कि खेल विभाग को प्रशिक्षक नहीं रोशन लाल जैसे घरेलू चाकर की जरूरत है। बेहतर होता इस साल के खराब प्रदर्शन के लिए रोशन लाल से पूछा जाता लेकिन पूछे भी तो कौन। दीपक महाजन के खिलाफ कान भरने वाले रोशन लाल की फिलवक्त चांदी ही चांदी है। दीपक को निकलवा कर रोशन ने अपनी बहन नेहा का रास्ता बनाया जिसमें उसे कामयाबी भी मिल गई। संचालक के रहमोकरम पर भाई-बहन कितने दिन गुरुता का पाठ पढ़ाते हैं, यह समय बताएगा।