Tuesday 27 February 2018

हरफनमौला ओशिन का कमाल

14 साल की इंटरनेशनल खिलाड़ी बेटी ने जीते 19 पदक
                                 श्रीप्रकाश शुक्ला
हिन्दी में एक प्रसिद्ध कहावत है- होनहार बिरवान के होत चीकने पात अर्थात होनहार बच्चे के लक्षण बचपन में ही दिखाई देने लगते हैं। प्रतिभा किसी उम्र की मोहताज नहीं होती। छोटे बच्चे भी ऐसी कारगुजारी को अंजाम देते हैं जिसे देख बड़े भी दांतों तले उंगली दबा लेते हैं। जरूरत है बच्चों की प्रतिभा निखारने के लिए उन्हें उचित दिशा-निर्देश देने की। अगर माता-पिता अपने बच्चे की प्रतिभा को पहचानें और उस दिशा में आगे बढ़ने में उसका साथ दें तो एक दिन वह सफलता के पायदान पर जरूर खड़ा होता है। सफलता इंसान को केवल मेहनत करने के बाद ही मिल सकती है और मेहनत करने की कोई सीमा नहीं होती। मध्य प्रदेश की ओशिन आलम का ऐसे ही बच्चों में शुमार है। 14 साल की उम्र में ही इस खिलाड़ी बेटी ने न केवल देश का प्रतिनिधित्व किया बल्कि दो अंतरराष्ट्रीय पदकों सहित अब तक कुल 19 पदक अपनी झोली में डाले हैं। मार्शल आर्ट खेलों की हरफनमौला ओशिन के इस हुनर को आज हर कोई सलाम करता है, करना भी चाहिए।
मूलरूप से मध्य प्रदेश के इंदौर शहरवासी सईद-मोनिका आलम के घर 21 जुलाई, 2003 को जन्मी ओशिन की रग-रग में खेल समाये हुए हैं। इस बेटी में मार्शल आर्ट खेलों को लेकर एक जुनून है। बेटी के इसी जुनून और जज्बे को देखते हुए सईद-मोनिका आलम ने ओशिन को खेलों के प्रति प्रोत्साहित किया। सईद-मोनिका आलम ने आर्थिक स्थित की परवाह किए बिना बेटी के हुनर को निखारने में अपना सर्वस्व झोंक दिया है। माता-पिता के समर्थन और समर्पण का ही नतीजा है कि 14 साल की छोटी सी उम्र में ही ओशिन आलम पदक दर पदक जीतते हुए अपने शहर और प्रदेश को गौरवान्वित कर रही है। ओशिन ने कम उम्र में ही अद्भुत कौशल-शैली से सिर्फ भारत ही नहीं अन्य देशों में भी अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है। बचपन से ही घर में मिली उचित परवरिश के चलते ओशिन आलम ने पढ़ाई के साथ-साथ मार्शल आर्ट्स खेलों में अपनी एक नई पहचान बनाई है।
इंदौर शहर की इस बेटी ने चार साल की उम्र से ही खेलना शुरू कर दिया था। ओशिन के पिता मास्टर सईद आलम मार्शल आर्ट खेलों के बेहतरीन प्रशिक्षक हैं। श्री आलम ने बचपन में ही ओशिन की प्रतिभा को पहचान लिया था। हमारे समाज में बेटियों को लेकर तरह-तरह के खयालात हैं लेकिन सईद आलम ने अपनी बेटी का उचित मार्गदर्शन कर एक नजीर स्थापित की है। ओशिन इंदौर पब्लिक स्कूल की कक्षा नौ की छात्रा है। ओशिन ने अब तक कराटे, ताइक्वांडो, नानबूडो, किकबॉक्सिंग, फेंसिंग, स्पोर्ट्स एरोबिक्स, सिलम्बम खेलों की 14 राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में शानदार प्रदर्शन करते हुए नौ स्वर्ण, दो रजत एवं आठ कांस्य सहित कुल 19 पदक अपने नाम किये हैं। इतना ही नहीं ओशिन आलम थाईलैंड में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय ताइक्वांडो स्पर्धा में स्वर्ण पदक तो देहरादून में आयोजित नानबूडो विश्व कप में रजत पदक जीतकर मादरेवतन का मान बढ़ा चुकी है।
हरफनमौला ओशिन में अनगिनत खूबियां हैं। यह बेटी खेलों के साथ-साथ अन्य गतिविधियों में भी शिद्दत से शिरकत करती है। राजधानी भोपाल में आयोजित स्टेट पेंटिंग प्रतियोगिता- अंडर नेशनल चैम्पियन ऑफ एनर्जी कंजर्वेशन में ओशिन 14 लाख से अधिक प्रतिभागियों के बीच ऊर्जा संरक्षण-भू संरक्षण विषय में बेहतरीन पेंटिंग से टॉप 50 प्रतिभागियों में स्थान सुनिश्चित कर अपनी प्रतिभा की बानगी पेश कर चुकी है। रेनबुकान कराटे और नानबूडो में ब्लैक बेल्ट शोदान प्राप्त ओशिन की सफलताओं का सिलसिला अभी खत्म नहीं हुआ है। इस बेटी की शानदार उपलब्धियों को देखते हुए जहां स्वैच्छिक संगठनों द्वारा उसे कई बार सम्मानित किया जा चुका है वहीं  ओशिन के टैलेंट को देखते हुए इंदौर पब्लिक स्कूल द्वारा बेस्ट प्लेयर अवार्ड,  ग्वालियर की उड़ान संस्था द्वारा ध्यानचंद अवार्ड तो नोएडा में प्लेयर मैगजीन द्वारा द प्लेयर एक्सीलेंस अवार्ड से नवाजा जा चुका है। इंदौर जिला खेल एवं युवक कल्याण विभाग भी इस बेटी की प्रतिभा का मुरीद है। विभाग द्वारा ओशिन को कैश प्राइज प्रदान किया जा चुका है। प्रतिभाशाली ओशिन को स्पोर्ट्स एरोबिक्स और डांस में भी रुचि है। ओशिन अपनी सफलता का पूरा श्रेय अपने पिता मास्टर सईद आलम को देते हुए कहती है कि हम सिर्फ मेहनत पर भरोसा करते हैं, इंसा अल्लाह मेरी मेहनत का सुफल जरूर देंगे।



Saturday 24 February 2018

उम्मीदों के आसमां पर अवनि


मध्य प्रदेश की बेटी ने रचा इतिहास
बेटियां समाज का बोझ नहीं गौरव हैं। बस इन पर भरोसा करने की जरूरत है। जो अभिभावक अपनी बेटियों पर भरोसा करते हैं सच मानिए उन्हें कभी निराशा हाथ नहीं लगती। भारतीय बेटियां जिस तरह नित नए प्रतिमान गढ़ रही हैं उससे मुल्क के उन हिस्सों में भी बदलाव की बयार धीरे-धीरे ही सही बह रही है जहां बेटियों को कोख में ही मार दिया जाता रहा। दिल्ली से सटे हरियाणा और पंजाब में लिंगानुपात में थोड़ा सुधार इस बात का संकेत है कि इन राज्यों ने बेटियों के महत्व को स्वीकार्यता देने का मन बनाना शुरू कर दिया है। सरकारें बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ के जरिए लड़कियों की संख्या बढ़ाने के उपाय पर जोर दे रही हैं लेकिन कुछ अभाग्यशाली अभिभावक अभी भी तरह-तरह के उपायों के जरिए बेटियों को इस धरा की खूबसूरती देखने से वंचित कर रहे हैं। निराशा और हताशा भरी खबरों के बीच अवनि चतुर्वेदी की कामयाबी ऐसे लोगों की आंखों से पट्टी हटाने का काम करेगी जो लड़कों और लड़कियों में भेदभाव करते हैं। अवनि ने 19 फरवरी, 2018 को जामनगर एयरबेस से मिग-21 उड़ाकर यह साबित कर दिया कि महिलाएं पुरुषों से किसी भी मायने में कम नहीं हैं। अवनि का अर्थ धरती होता है लेकिन वह आसमान में अपने कौशल से फाइटर प्लेन उड़ा रही हैं। धरती में जितना धैर्य होता है, कुछ वैसे ही अपने नाम को साकार कर मध्य प्रदेश की बेटी अवनि ने उन तमाम लड़कियों में हौसला भरा है जोकि मुश्किलों को देखते ही हार मान लेती हैं।
अवनि चतुर्वेदी का जन्म 27 अक्टूबर, 1993 को मध्य प्रदेश के रीवा में हुआ है। अवनि के पिता दिनकर चतुर्वेदी मध्य प्रदेश सरकार के वाटर रिसोर्स डिपार्टमेंट में एक एग्जीक्यूटिव इंजीनियर हैं और उनकी मां एक घरेलू महिला। अवनि के बड़े भाई भी एक आर्मी ऑफीसर हैं। अवनि की स्कूली शिक्षा मध्य प्रदेश के शहडोल जिले के एक छोटे से कस्बे देउलंद में हुई। 2014 में उन्होंने राजस्थान की वनस्थली यूनिवर्सिटी से टेक्नोलॉजी में ग्रेजुएशन करने के बाद इस बेटी ने इंडियन एयरफोर्स की परीक्षा पास की। 2016 में जब अवनि वायुसेना में बतौर फाइटर प्लेन पायलट कमीशन बनीं, उस मौके पर उन्होंने कहा था कि हर किसी का सपना होता है कि वह उड़ान भरे। अगर आप आसमान की ओर देखते हैं तो पंछी की तरह उड़ने का मन करता ही है। अवनि कहती हैं, आवाज की स्पीड में उड़ना एक सपना होता है और अगर ये मौका मिलता है तो एक सपना पूरे होने जैसा है। अवनि के आदर्शों में कल्पना चावला हैं उन्हें हवाई जहाजों को पेंटिंग के रूप में दिखाना बेहद पसंद था। फुरसत के समय में अवनि पेंटिंग और विमानों को बनाया करती थीं। अवनि बचपन से ही कल्पना चावला की फैन रही हैं। उनके पिता बताते हैं कि जब भी कल्पना के बारे में कुछ भी समाचार पत्रों में छपता था तब अवनि कहती थीं कि पापा एक न एक दिन उन्हें भी कल्पना चावला जैसा मुकाम हासिल करना है।
अवनि 2019 में कर्नाटक के बीदर में स्टेज थ्री की ट्रेनिंग के लिए जाएंगी। एक बार इस ट्रेनिंग को सफलतापूर्वक पूरा कर लेने के बाद अवनि सुखोई और तेजस जैसे फाइटर जेट्स भी उड़ा सकेंगी। अवनि के साथ मोहना और भावना भी ट्रेनिंग के लिए जाएंगी। दुनिया में सिर्फ ब्रिटेन, अमेरिका, इजरायल और पाकिस्तान में ही महिलाएं फाइटर पायलट बन सकती हैं। भारत सरकार ने महिलाओं को 2015 में फाइटर पायलट के लिए अनुमति दी थी। महिला फाइटर पायलट बनने के लिए 2016 में पहली बार तीन महिलाओं अवनि चतुर्वेदी, मोहना सिंह और भावना को वायुसेना में कमीशन मिला था। देश में 1991 से ही महिलाएं हेलीकॉप्टर और ट्रांसपोर्ट एयरक्राफ्ट उड़ा रही हैं लेकिन फाइटर प्लेन से उन्हें दूर रखा जाता था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 28 जनवरी को अपने रेडियो कार्यक्रम मन की बात में महिलाओं के मुद्दे पर चर्चा करते हुए अवनि की उपलब्धि का जिक्र किया था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बताया कि तीन बहादुर महिलाएं भावना कंठ, मोहना सिंह और अवनि चतुर्वेदी फाइटर पायलेट बनी हैं और सुखोई विमान उड़ाने का प्रशिक्षण ले रही हैं।
अवनि कहती हैं कि लोग कहा करते थे कि लड़कियों के लिए आसमान नहीं बना, उन्हें घर संभालना चाहिए। सबने उन्हें सामाजिक बेड़ियों में कैद करना चाहा। लेकिन मेरे दिल ने किसी की नहीं सुनी। अपने सपनों का पीछा करते हुए मैं वहां तक पहुँच गई जहाँ पहुँचने का ख्वाब हर किसी के दिल में होता है। संघर्ष के जरिए सभी बाधाओं पर पार पाने वाली पहली महिला फ्लाइंग ऑफीसर अवनि चतुर्वेदी हर किसी के लिए आदर्श बन गई हैं। अकेले ही मिग-21 बाइसन लड़ाकू विमान उड़ाकर अवनि ने न सिर्फ खुद आसमान का सैर कर लिया बल्कि देश की लाखों लड़कियों की आंखों को भी उन्होंने एक सुनहरा सपना दिखा दिया है।
अवनि कहती हैं कि जब मैं आसमान में पंछियों को उड़ता देखती थी तो उड़ने को मन करता था। आज जब आवाज की ध्वनि की गति से उड़ी तो यह सपना सच होने जैसा था। देश की पहली फाइटर पायलट बनकर इतिहास रचने वाली अवनी चतुर्वेदी के ये शब्द बेशक भावातिरेक में निकले हों लेकिन इस बेटी ने एक नए अध्याय का सृजन किया है। मध्यप्रदेश में रीवा जिले के एक छोटे से गांव से निकली अवनि की यह सफलता उन करोड़ों भारतीय लड़कियों के सपनों को पंख लगने जैसा है जो ऐसा सोचती हैं। दरअसल, वर्ष 2015 में सरकार ने वायुसेना के फाइटर पायलटों में महिलाओं को शामिल करने का मन बनाया था। वैसे तो इंडियन एयरफोर्स में लगभग 100 महिला पायलट हैं मगर ये फाइटर जेट्स नहीं बल्कि हेलीकॉप्टर और दूसरे विमान ही उड़ाती हैं। अवनि खुशकिस्मत रहीं कि इन्हें सबसे पहले युद्धक विमान उड़ाने का मौका मिला।
छोटी उम्र से ही अवनि सेना से जुड़े विषयों के बारे में खासी रुचि रखती थीं। इस क्षेत्र से जुड़ी हर चीज के बारे में गहराई से जानने का प्रयास करती थीं। साहसी-हिम्मती इस बेटी के सपनों की उड़ान की शुरुआत सबसे पहले तब हुई जब उसने एक फ्लाइंग क्लब का विमान उड़ाया। जिसने उसके संकल्प को दृढ़ किया कि मैं देश के लिये युद्धक विमान उड़ाऊंगी। इस लक्ष्य के लिये उसे परिवार का पूरा सहयोग मिला। जब व्यक्ति अपने सपनों को हकीकत बनाने का संकल्प लेकर जीजान से जुट जाता है तो सपनों को हकीकत बनते देर नहीं लगती। अवनि इस हकीकत की मिसाल हैं। निश्चय ही अवनि की उड़ान वायुसेना या यूं कहे सेना के लिये विशेष उपलब्धि है। महिलाओं के लिए इस मायने में कि देशसेवा का कोई क्षेत्र अब महिलाओं की पहुंच से दूर नहीं रहा।
22 वर्षीय अवनि ने एयरफोर्स ज्वाइन करने के बाद हैदराबाद स्थित वायुसेना अकादमी से अपनी ट्रेनिंग पूरी की। इस दौरान उसे कठिन प्रशिक्षण से गुजरना पड़ा। जुलाई, 2017 में अवनि को फ्लाइंग ऑफीसर के तौर पर कमीशन दिया गया। दरअसल, हॉक एडवांस जेट ट्रेनर पर उड़ान भरने से लेकर मिग-21 उड़ाने तक का उनका प्रशिक्षण कड़े दौर से गुजरा। इस दौरान पिछली अक्टूबर में वह स्टेज-दो का प्रशिक्षण ले रही थीं। इस गहन प्रशिक्षण के बाद ही अवनि फाइटर पायलट के तौर पर कमीशन पाने की हकदार बनीं। जब अवनि को फाइटर जेट उड़ाने का मौका मिला तो उसे नये सिरे से सघन प्रशिक्षण से गुजरना पड़ा। 19 फरवरी, 2018 को अवनि ने जब गुजरात के जामनगर एयरबेस से ऐतिहासिक उड़ान भरी और सफलतापूर्वक मिशन को पूरा किया तब अनुभवी पायलटों और प्रशिक्षकों की पूरी टीम उनका मार्गदर्शन कर रही थी। प्रशिक्षकों ने उनके मिग-21 फाइटर की सघन जांच की। उड़ान के दौरान अनुभवी फ्लायर्स और प्रशिक्षक जामनगर एयर बेस के एयर ट्रैफिक कंट्रोल व रनवे पर गहन निगरानी कर रहे थे।

अवनि ने इतिहास तो रच दिया है लेकिन इन्हें दक्ष फाइटर पायलट बनने के लिये अभी खूब निखरना होगा। कड़े प्रशिक्षण व अभ्यास से गुजरना होगा। अभी इस बेटी ने फाइटर पायलट बनने का पहला चरण पूरा किया है, इसे ऑपरेशनल फील्ड के लिये काफी तैयारी करनी होगी। इसमें कोई शक नहीं कि फाइटर जेट उड़ाना एक जीरो एरर प्रोफेशन है। जरा-सी चूक बेहद घातक हो सकती है। पूरी तरह पारंगत होने के लिये अवनि को अभी दो साल के प्रशिक्षण से गुजरना होगा। दरअसल, अकेले मिग-21 उड़ाकर अवनि ने महज अपनी उड़ान की प्रतिभा को दर्शाया है। इस उड़ान से उन्होंने साबित कर दिया कि भारतीय बेटियां हर उस क्षेत्र में दखल दे सकती हैं जिन्हें अब तक पुरुषों के वर्चस्व का क्षेत्र माना जाता रहा है। अवनि ने लड़कियों को अपनी क्षमताओं को समझने और उन्हें सही दिशा में प्रयासरत होने के लिये एक मिसाल जरूर दी है। सही मायने मध्य प्रदेश की बेटी अवनि ने नई पीढ़ी की लड़कियों के सपनों को पंख देने जैसा काम किया है। शाबास अवनि शाबास।

Monday 19 February 2018

खेलो इंडियाः आत्मविश्वास जगाती पहल

गुरु-शिष्य परम्परा को बढ़ावा
श्रीप्रकाश शुक्ला
मानव के समग्र विकास में खेलों की अहम भूमिका है। खेल मनोरंजन ही नहीं शारीरिक दक्षता बढ़ाने का एक माध्यम भी हैं। खेलों के क्षेत्र में भारत की स्थिति ताली पीटने वाली बेशक न हो लेकिन मुल्क प्रतिभा शून्य नहीं है। आजादी के 70 साल बाद देश को पहला खिलाड़ी खेल मंत्री के रूप में मिलना इस बात का ही सूचक है कि पूर्ववर्ती हुकूमतें खेल संस्कृति से बेखबर थीं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यदा-कदा मिली उपलब्धियों से न केवल राष्ट्र गौरवान्वित हुआ बल्कि इस बात के संकेत मिले कि खेलों पर ध्यान देकर ही भारत अपनी युवा तरुणाई का भला कर सकता है। बुनियादी स्तर पर खेल सम्बन्धी सुविधाएं उपलब्ध कराना, खेल और शिक्षा का एकीकरण तथा प्रारम्भिक स्तर पर प्रतिभा परख ऐसे पहलू हैं जिन पर ध्यान दिया जाना जरूरी था। भारत में खेलों के सिस्टम, संस्कृति और अधोसंरचना में सुधार की बहुत गुंजाइश है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सरकार ने खेलो इंडिया स्कूल खेलों के माध्यम से आत्मविश्वास जगाती एक सराहनीय पहल तो की है लेकिन सफलता तभी मिलेगी जब हर स्कूल में खेल मैदान और खेल प्रशिक्षक होगा। भारत खेलों के क्षेत्र में लगातार प्रगति कर रहा है लेकिन अभी भी इसमें और बेहतर करने की जरूरत है।
खेलो इंडिया के माध्यम से मोदी सरकार ने न केवल खिलाड़ी और प्रशिक्षक की भूमिका को प्रमुखता दी है बल्कि स्वस्थ भारत की परिकल्पना को साकार रूप देने का भी मन बनाया है। खेलो इंडिया के शुभारम्भ अवसर पर खेल-जगत की जानी-मानी गुरु-शिष्य जोड़ियों की उपस्थिति ने इस बात को सुनिश्चित किया है कि दिग्गज खिलाड़ियों के साथ ही उनके प्रशिक्षकों को भी वाजिब सम्मान मिलना चाहिए। सरकार ही नहीं समाज का भी यह दायित्व बनता है कि वह खेल प्रशिक्षकों का सम्मान करना सीखे। खेलो इंडिया के शुभारम्भ अवसर पर नामचीन खिलाड़ियों के बीच उनके प्रशिक्षकों की उपस्थिति से हर खेलप्रेमी का मन पुलकित होना इस बात का संकेत है कि खेल मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौर खेलों, खिलाड़ियों और प्रशिक्षकों को मुकम्मल स्थान देने को फिक्रमंद हैं।
देश की राजधानी दिल्ली में नौ दिन दिन चले खेलो इंडिया स्कूल गेम्स में विभिन्न राज्यों सहित 35 यूनिटों के तीन हजार से अधिक बालक-बालिका खिलाड़ियों ने जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम, इंदिरा गांधी स्टेडियम, मेजर ध्यानचंद नेशनल स्टेडियम, कर्णी सिंह शूटिंग रेंज और एसपीएम स्वीमिंग पूल जैसे क्रीड़ांगनों में अपने शानदार खेल का प्रदर्शन कर इस बात के संकेत दिए कि भारत भी खेल महाशक्ति बनने की ताकत रखता है। इन खिलाड़ियों में ऐसी प्रतिभाएं भी शामिल हैं जिनके अभिभावक मेहनत-मजदूरी कर अपने बच्चों को खिलाड़ी बनाने का सपना देखते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने खेलो इंडिया स्कूल गेम्स के आगाज अवसर पर खेल मंत्रालय की पहल को एक मिशन माना है। खेल मंत्रालय की इस शानदार पहल से देश को विभिन्न खेलों की 17 साल से कम उम्र की लगभग एक हजार प्रतिभाएं मिली हैं जिनकी प्रतिभा निखारने को सरकार अगले आठ साल तक प्रशिक्षण सुविधाएं मुहैया कराएगी तथा इस अवधि में इन प्रतिभाशाली खिलाड़ियों को सालाना पांच लाख रुपए खेलवृत्ति के रूप में दिए जाएंगे। खेलो इंडिया का मकसद युवा खिलाड़ियों को अपनी प्रतिभा दिखाने का मंच प्रदान करने के साथ ही उन्हें इस लायक बनाना है ताकि वे भविष्य के बेजोड़ खिलाड़ी बन सकें।
देखा जाए तो खेलों में भारत के फिसड्डी होने का सबसे प्रमुख कारण स्कूली स्तर पर बच्चों में खेल प्रोत्साहन का अभाव है। भारत में शिक्षा प्रणाली भी ऐसी है जहां स्कूलों में खेल गैर-शैक्षिक गतिविधि माने जाते हैं। मोदी सरकार ने इस परम्परा से तौबा करने के साथ ही खेलों को फर्श से अर्श तक पहुंचाने का जो मंतव्य बनाया है, उसमें सुधार की काफी गुंजाइश है। खेलों में भारत को महाशक्ति बनाने के लिए हमें चीन की खेल संस्कृति को नजीर के रूप में लेना चाहिए। चीन में प्रतिभाओं को बहुत कम उम्र में ही चुन लिया जाता है। वहां अभिभावक की बजाय खेल महकमा यह तय करता है कि किस प्रतिभाशाली खिलाड़ी में किस खेल की काबिलियत है। चीन में इन प्रतिभाओं को ज्यों ही नेशनल सेण्टर में दाखिला मिलता है उनकी जवाबदेही सरकार की हो जाती है और अभिभावक को किसी बात की चिन्ता नहीं करनी रहती, यहां तक कि शिक्षा के बारे में भी नहीं। भारत में जिस उम्र में बच्चे को खेलने की आजादी मिलनी चाहिए हम उस पर शिक्षा का बोझ लाद देते हैं।
अब वक्त की मांग है कि देश में हर तहसील या उपखण्ड स्तर पर खेल स्कूल स्थापित किए जाएं और वहां खेल ही प्रमुख पढ़ाई हो। स्कूलों में ऐसे अत्याधुनिक खेल परिसरों का निर्माण किया जाए जहां खिलाड़ियों को हर सुविधा उपलब्ध हो। इन स्कूलों में उन चुनिंदा प्रतिभाओं को तराशा जाए जिनमें हुनर की कमी न हो। अगर हम 10-12 साल के बच्चों को लेकर इस तरह से तैयारी करेंगे तो बहुत जल्दी ही बेहतरीन परिणाम मिलने लगेंगे। बेहतर होगा जो खिलाड़ी देश का प्रतिनिधित्व करते हैं उन्हें सरकार प्रतिमाह वाजिब भत्ता दे ताकि हमारी युवा तरुणाई खेलों को करियर के रूप में देखे, इससे देश में खेल संस्कृति विकसित होगी और प्रतिभाएं खेलों की ओर उन्मुख होंगी। आज भारत में क्रिकेट, बैडमिंटन, कुश्ती, कबड्डी और हॉकी जैसे खेलों में लीग प्रणाली परवान चढ़ने लगी है ऐसे में जरूरी है कि अन्य खेलों में भी ऐसी ही पहल हो ताकि अन्य खेलों के खिलाड़ियों को भी बेहतर अवसर और आर्थिक स्थिरता मिल सके। मोदी सरकार यदि गुरु-शिष्य परम्परा की वाकई फिक्रमंद है तो उसे सभी खेल संघों में भी सफाई अभियान चलाकर संगठनों का बेहतर प्रबंधन और अच्छे खिलाड़ियों को तैयार करने का जिम्मा पेशेवर तथा सक्षम पूर्व खिलाड़ियों व प्रशिक्षकों को दिया जाना चाहिए। खेलो इंडिया कार्यक्रम जब तक जन आंदोलन नहीं बनेगा तब तक भारत खेलों की महाशक्ति नहीं बन सकता।
खेलों में युवाओं की व्यापक प्रतिभागिता को बढ़ावा देने तथा उत्कृष्टता का विकास करने के लिए ही खेल मंत्रालय ने खेलो इंडिया को मूर्तरूप दिया है। स्कूली खेलों के इस पहले संस्करण में 16 खेल विधाएं परवान चढ़ीं जिनमें तीरंदाजी, एथलेटिक्स, बैडमिंटन, बास्केटबॉल, मुक्केबाजी, फुटबॉल, जिमनास्टिक, हॉकी, जूडो, कबड्डी, खो-खो, निशानेबाजी, तैराकी, वालीबाल, भारोत्तोलन एवं कुश्ती शामिल हैं। खेलो इंडिया स्कूल गेम्स के पहले संस्करण में हरियाणा ने 38 स्वर्ण पदकों के साथ पदक तालिका में पहला स्थान हासिल किया। महाराष्ट्र ने सबसे अधिक 111 पदक हासिल किए लेकिन वह स्वर्ण पदकों की दौड़ में हरियाणा से पिछड़ गया। महाराष्ट्र ने 36 स्वर्ण पदक जीते तो दिल्ली 25 स्वर्ण पदकों के साथ तीसरे और कर्नाटक 16 स्वर्ण पदकों के साथ चौथे स्थान पर रहा। हरियाणा ने 38 स्वर्ण के अलावा 26 रजत और 38 कांस्य पदक जीते। महाराष्ट्र को 36 स्वर्ण के अलावा 32 रजत और 42 कांस्य पदक मिले। इन खेलों में हरियाणा और महाराष्ट्र ही ऐसे दो राज्य रहे जिन्होंने 100 से अधिक पदक जीते। दिल्ली ने 25 स्वर्ण के अलावा 29 रजत और 40 कांस्य पदक जीते। दिल्ली को कुल 94 पदक मिले। कर्नाटक ने 16 स्वर्ण के अलावा 11 रजत और 15 कांस्य पदक जीते जबकि मणिपुर ने 13 स्वर्ण, 13 रजत और आठ कांस्य के साथ कुल 34 पदकों के साथ पांचवां स्थान हासिल किया। इसी तरह उत्तर प्रदेश ने 10 स्वर्ण, 24 रजत और 28 कांस्य के साथ कुल 62 पदकों के साथ छठा और पंजाब ने 10 स्वर्ण, पांच रजत और 20 कांस्य के साथ कुल 35 पदकों के साथ सातवां स्थान हासिल किया। स्कूली खेलों के इस पहले संस्करण में मध्य प्रदेश चार स्वर्ण पदक हासिल कर 12वें स्थान पर रहा। इस खराब प्रदर्शन से शिवराज सरकार के खेलों के क्षेत्र में किये जा रहे प्रयासों को करारा झटका लगा है।
केन्द्रीय खेल मंत्री राज्यवर्धन सिंह राठौर ने हरियाणा को श्रेष्ठ राज्य की ट्रॉफी प्रदान करते हुए कहा कि हम चाहते हैं कि खेलो इंडिया से खिलाड़ियों का तो भला हो ही उनके प्रशिक्षकों को भी पर्याप्त प्रोत्साहन मिले। खेल मंत्री की इस मंशा से अब पदक जीतने वाले खिलाड़ी के साथ ही इसका फायदा जमीनी स्तर के प्रशिक्षकों को मिलना तय है। अभी तक जब भी कोई खिलाड़ी राष्ट्रमंडल खेल, एशियाई खेल और ओलम्पिक में पदक जीतता था तो उसके कोच को प्रोत्साहन मिलता था। अब प्रोत्साहन राशि का 20 प्रतिशत हिस्सा उस प्रशिक्षक को भी मिलेगा जिसने जमीनी स्तर यानि शुरुआती दौर में खिलाड़ी को निखारा हो। केन्द्रीय खेल मंत्रालय अब जमीनी प्रशिक्षकों को प्रोत्साहित करने के लिए खिलाड़ियों के प्रशिक्षकों का डेटाबेस तैयार करेगा ताकि आगे जाकर जब ये खिलाड़ी पदक जीतें तो उनके प्राथमिक कोच को भी पहचान मिल सके। खेलो इंडिया के माध्यम से हर साल एक हजार खिलाड़ियों का चयन किया जाएगा जिनमें से प्रत्येक को आठ साल तक पांच-पांच लाख रुपये की छात्रवृति दी जायेगी। आने वाले पांच साल में भारत के पास विभिन्न खेलों के पांच हजार प्रतिभाशाली खिलाड़ी होंगे, इससे सम्भावित खिलाड़ियों और पदक विजेताओं के बीच का अंतर कम होगा। खेलो इंडिया खेल मंत्रालय की एक अच्छी पहल है, पर इसका सुफल मिलने में समय लगेगा।






Saturday 17 February 2018

सेवा की प्रतिमूर्ति मदर टेरेसा

दीन-दुखियों की सेवा में बीता सम्पूर्ण जीवन
ऐसा माना जाता है कि दुनिया में लगभग हर व्यक्ति सिर्फ अपने लिए जीता है लेकिन इतिहास गवाह है कि दुनिया में ऐसे लोग हुए हैं जिन्होंने अपना जीवन परोपकार और दूसरों की सेवा में अर्पित कर दिया। सेवा की प्रतिमूर्ति मदर टेरेसा भी ऐसे ही महान लोगों में से एक हैं। मदर टेरेसा ऐसा नाम हैं जिनका स्मरण होते ही हमारा हृदय श्रद्धा से भर उठता है। मदर टेरेसा एक ऐसी महान विभूति थीं जिनका हृदय संसार के तमाम दीन-दरिद्र, बीमार, असहाय और गरीबों के लिए धड़कता था, इसी कारण उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन उनकी सेवा और भलाई में लगा दिया। मदर टेरेसा का असली नाम अगनेस गोंझा बोयाजिजू था। अलबेनियन भाषा में गोंझा का अर्थ फूल की कली होता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि मदर टेरेसा एक ऐसी कली थीं जिन्होंने छोटी सी उम्र में ही गरीबों और असहायों की जिन्दगी में प्यार की ऐसी खुशबू भरी कि वह दुनिया की मां कहलाईं।
मदर टेरेसा का जन्म 26 अगस्त, 1910 को स्कॉप्जे (अब मसेदोनिया में) में हुआ था। उनके पिता निकोला बोयाजू एक साधारण व्यवसायी थे। मदर टेरेसा जब मात्र आठ साल की थीं तभी उनके पिता परलोक सिधार गए। पिता की मौत के बाद उनके लालन-पालन की सारी जिम्मेदारी उनकी माता द्राना बोयाजू के ऊपर आ गयी। वह पांच भाई-बहनों में सबसे छोटी थीं। उनके जन्म के समय उनकी बड़ी बहन की उम्र सात साल और भाई की उम्र दो साल थी बाकी दो बच्चे बचपन में ही गुजर गए थे। मदर टेरेसा एक सुन्दर, अध्ययनशील एवं परिश्रमी लड़की थीं। पढ़ाई के साथ-साथ उन्हें गीत-संगीत से बेहद लगाव था। वह और उनकी बहन पास के गिरजाघर में मुख्य गायिका थीं। ऐसा माना जाता है कि जब वह मात्र बारह साल की थीं तभी उन्हें ये अनुभव हो गया था कि वे अपना सारा जीवन मानव सेवा में लगाएंगी। 18 साल की उम्र में ही उन्होंने सिस्टर्स ऑफ लोरेटो में शामिल होने का फैसला ले लिया। तत्पश्चात वह आयरलैंड गईं जहां उन्होंने अंग्रेजी भाषा सीखी। अंग्रेजी सीखना इसलिए जरुरी था क्योंकि लोरेटो की सिस्टर्स इसी माध्यम से बच्चों को भारत में पढ़ाती थीं।
सिस्टर टेरेसा आयरलैंड से छह जनवरी, 1929 को कोलकाता में लोरेटो कॉन्वेंट पहुचीं। वह एक अनुशासित शिक्षिका थीं और विद्यार्थी उनसे बहुत स्नेह करते थे। वर्ष 1944 में वह हेडमिस्ट्रेस बन गईं। उनका मन शिक्षण में पूरी तरह रम गया था पर उनके आस-पास फैली गरीबी, दरिद्रता और लाचारी उनके मन को बहुत अशांत करती थी। 1943 के अकाल में शहर में बड़ी संख्या में मौतें हुईं और लोग गरीबी से बेहाल हो गए। 1946  के हिन्दू-मुस्लिम दंगों ने कोलकाता शहर की स्थिति और भी भयावह बना दी। इसी साल मदर टेरेसा ने गरीबों, असहायों, बीमारों और लाचारों की जीवनपर्यंत मदद करने का मन बना लिया। इसके बाद मदर टेरेसा ने पटना के होली फैमिली हॉस्पिटल से आवश्यक नर्सिंग ट्रेनिंग पूरी की और 1948 में वापस कोलकाता आ गईं और वहां से पहली बार तालतला गईं जहां वह गरीब बुजुर्गों की देखभाल करने वाली संस्था के साथ रहीं। उन्होंने मरीजों के घावों को धोया, उनकी मरहम-पट्टी की और उनको दवाइयां दीं। मदर टेरेसा ने धीरे-धीरे अपने सेवाभावी कार्यों से लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा। ऐसे लोगों में देश के उच्च अधिकारी और प्रधानमंत्री भी शामिल थे।
इन सेवाभावी कार्यों के शुरुआती दौर में मदर टेरेसा को बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा वजह लोरेटो छोड़ने के बाद उनके पास कोई आमदनी नहीं थी। उनको अपना पेट भरने तक के लिए दूसरों की मदद लेनी पड़ी। जीवन के इस महत्वपूर्ण पड़ाव पर उनके मन में बहुत उथल-पथल हुई। अकेलेपन का अहसास हुआ और लोरेटो की सुख-सुविधायों में वापस लौट जाने का खयाल भी आया लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। सात अक्टूबर, 1950 को उन्हें वैटिकन से मिशनरीज ऑफ चैरिटी की स्थापना की अनुमति मिल गयी। इस संस्था का उद्देश्य भूखों, निर्वस्त्र, बेघर, लंगड़े-लूले, अंधों, चर्म रोग से ग्रसित और ऐसे लोगों की सहायता करना था जिनके लिए समाज में कोई जगह नहीं थी। मिशनरीज ऑफ चैरिटी का आरम्भ तो 13 लोगों के साथ हुआ पर मदर टेरेसा की मृत्यु के समय दुनिया भर में चार हजार से अधिक सिस्टर्स असहाय, बेसहारा लोगों की सेवा कर रही थीं। अब यह संख्या और भी अधिक है।
मदर टेरेसा ने निर्मल हृदय और निर्मला शिशु भवन के नाम से आश्रम खोले। निर्मल हृदय का ध्येय असाध्य बीमारी से पीड़ित ऐसे रोगियों व गरीबों की सेवा करना था जिन्हें समाज ने बाहर निकाल दिया हो। निर्मला शिशु भवन की स्थापना अनाथ और बेघर बच्चों की सहायता के लिए हुई। सच्ची लगन और मेहनत से किया गया काम कभी असफल नहीं होता यह कहावत मदर टेरेसा के साथ सच साबित हुई। मदर टेरेसा जब भारत आईं तो उन्होंने यहां बेसहारा और विकलांग बच्चों और सड़क के किनारे पड़े असहाय रोगियों की दयनीय स्थिति को अपनी आंखों से देखा। इन सब बातों ने उनके हृदय को इतना द्रवित किया कि वे उनसे मुंह मोड़ने का साहस नहीं कर सकीं। इसके पश्चात उन्होंने जनसेवा का जो व्रत लिया उसका मरते दम तक पालन किया।
बढ़ती उम्र के साथ-साथ मदर टेरेसा का स्वास्थ्य भी बिगड़ता गया। वर्ष 1983 में 73 वर्ष की आयु में उन्हें पहली बार दिल का दौरा पड़ा। उस समय मदर टेरेसा रोम में पॉप जॉन पॉल द्वितीय से मिलने के लिए गई थीं। इसके पश्चात वर्ष 1989 में उन्हें दूसरा हृदयाघात आया और उन्हें कृत्रिम पेसमेकर लगाया गया। साल 1991 में मैक्सिको में न्यूमोनिया के बाद उनके हृदय की परेशानी और बढ़ गयी। इसके बाद उनकी सेहत लगातार गिरती रही। 13 मार्च, 1997 को उन्होंने मिशनरीज ऑफ चैरिटी के प्रमुख का पद छोड़ दिया और पांच सितम्बर, 1997 को उनकी मौत हो गई। उनकी मौत के समय मिशनरीज ऑफ चैरिटी में चार हजार से अधिक सिस्टर और तीन सौ अन्य सहयोगी संस्थाएं काम कर रही थीं जो विश्व के 123 देशों में समाज सेवा में कार्यरत थीं। मानव सेवा और ग़रीबों की देखभाल करने वाली मदर टेरेसा को पाप जॉन पाल द्वितीय ने 19 अक्टूबर, 2003 को रोम में धन्य घोषित किया।
मदर टेरेसा को मानवता की सेवा के लिए अनेक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त हुए। भारत सरकार ने उन्हें 1962 में पद्मश्री और 1980 में देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से अलंकृत किया। मानव कल्याण के लिए किये गए कार्यों की वजह से मदर टेरेसा को 1979 में नोबेल शांति पुरस्कार मिला तो वर्ष 1985 में संयुक्त राज्य अमेरिका ने उन्हें मेडल आफ फ्रीडम से नवाजा। मदर टेरेसा ने गरीबों और असहायों की सहायता करने के लिए दिए गए नोबेल पुरस्कार की धनराशि को गरीबों के लिए एक फण्ड के तौर पर इस्तेमाल करने का निर्णय लिया।
                                   
मदर टेरेसा के अनमोल विचार
-मैं चाहती हूँ कि आप अपने पड़ोसी के बारे में चिंतित रहें। क्या आप अपने पड़ोसी को जानते हैं।
-यदि हमारे बीच शांति की कमी है तो वह इसलिए क्योंकि हम भूल गए हैं कि हम एक-दूसरे से संबंधित हैं।
-यदि आप एक सौ लोगों को भोजन नहीं करा सकते तो कम से कम एक को ही करवाएं।
-यदि आप प्रेम संदेश सुनना चाहते हैं तो पहले उसे खुद भेजें। जैसे एक चिराग को जलाए रखने के लिए हमें दिए में तेल डालते रहना पड़ता है।
-अपने करीबी लोगों की देखभाल कर आप प्रेम की अनुभूति कर सकते हैं।
-अकेलापन और अवांछित रहने की भावना सबसे भयानक गरीबी है।
-प्रेम हर मौसम में होने वाला फल है और हर व्यक्ति की पहुंच में है।
-आज के समाज की सबसे बड़ी बीमारी कुष्ठ रोग या तपेदिक नहीं है बल्कि अवांछित रहने की भावना है।
-प्रेम की भूख को मिटाना, रोटी की भूख मिटाने से कहीं ज्यादा मुश्किल है।
-अनुशासन लक्ष्य और उपलब्धि के बीच का पुल है।
-सादगी से जियें ताकि दूसरे भी जी सकें।
-प्रत्येक वस्तु जो नहीं दी गयी है खोने के समान है।
-हम सभी महान कार्य नहीं कर सकते लेकिन हम कार्यों को प्रेम से कर सकते हैं।
-हम सभी ईश्वर के हाथ में एक कलम के समान हैं।
-यह महत्वपूर्ण नहीं है आपने कितना दिया बल्कि यह है कि देते समय आपने कितने प्रेम से दिया।
-खूबसूरत लोग हमेशा अच्छे नहीं होते लेकिन अच्छे लोग हमेशा खूबसूरत होते हैं।
-दया और प्रेम भरे शब्द छोटे हो सकते हैं लेकिन वास्तव में उनकी गूँज अन्नत होती है।

-कुछ लोग आपकी जिन्दगी में आशीर्वाद की तरह होते हैं तो कुछ लोग एक सबक की तरह।

Friday 16 February 2018

अनाथों की नाथ बनीं अमृता करवंदे


नजीर- महाराष्ट्र बना अनाथों को आरक्षण देने वाला देश का पहला राज्य
मुफलिसी में जीने वाले बहुत कम ही लोग अपने अतीत को अपनी मंजिल बनाते हैं। अमृता करवंदे ने जिस मुफलिसी को जिया उसे ही उन्होंने अपना लक्ष्य बना लिया। अनाथ शब्द सुनते ही हर किसी के चेहरे पर दया के भाव उभरते हैं। यदि अनाथों को अपनाने या हक दिलाने की बात सामने आये तो आमतौर पर लोगों के चेहरे पर हिकारत के भाव देखे जाते हैं। देखा जाए तो एक अनाथ के हिस्से में सारे जमाने के दुःख-दर्द आते हैं। उसके न मां का पता होता है न बाप का। न जाति का पता, न धर्म का। हो सकता है किसी की मजबूरी इन्हें अनाथ आश्रम में धकेलने को बाध्य करती हो लेकिन वे भी इनके जीवन में संत्रास लाने के अभिशाप से बच नहीं सकते। ऐसे ही दुःख-दर्द, हिकारत, तिरस्कार और संत्रास झेलते अमृता करवंदे बड़ी हुईं। इस जांबाज बेटी ने मुफलिसी का रोना रोने के बजाय अनाथों के हक के लिए बीड़ा उठा लिया। अमृता की पहल पर महाराष्ट्र में जो सम्भव हुआ, वह अनाथों की जिन्दगी में नई आशा की किरण बनकर सामने आया है। अमृता करवंदे की यह पहल मुल्क के सामने एक नजीर बन सकती है।
दो साल की उम्र में अमृता को गोवा के एक अनाथालय में जीवन की दुश्वारियों का अहसास हुआ। उसे पिता का चेहरा भी ठीक से याद नहीं जो उसे अनाथालय छोड़ गए थे। इसे नाम भी मिला जो पिता अनाथालय के रजिस्टर में दर्ज करा गए थे। इसके अलावा अमृता को कुछ याद नहीं। एक अनाथ जीवन की टीस लिये अमृता पढ़ाई करती रही। उसे अहसास था कि बालिग होने पर 18 साल में उसे अनाथालय छोड़कर जाना होगा। दरअसल, नियम के तहत हर अनाथ को 18 साल की उम्र पार करते ही उसे अनाथालय छोड़ना पड़ता है। यह माना जाता है कि बालिग होने पर हर अनाथ अपना भरा-बुरा समझ सकता है। वैसे 18 साल तक लड़कियों की शादी कर दी जाती है। अमृता की शादी करने की भी कोशिश हुई लेकिन अमृता जीवन में पढ़-लिखकर कुछ बनना चाहती हैं अतः उन्होंने शादी करने से मना कर दिया। आसमान से आने वाली बूंद की तरह तमाम नियति के चक्रों के साथ 18 साल की अमृता अनाथालय से निकल गईं। यह जानते हुए भी कि बाहर की दुनिया में उसका न कोई रिश्तेदार है और न ही रहने को घर। पुणे में पहली रात स्टेशन में काटना अमृता के लिए किसी दुःस्वप्न जैसा था।
हिम्मत की धनी इस बेटी ने हताश-निराश होने की बजाय घरों-दुकानों में काम करके फीस के लिए पैसे जुटाये और पढ़ाई जारी रखी। बीते वर्ष अमृता ने महाराष्ट्र पब्लिक सर्विस कमीशन की परीक्षा दी। यहां वह सामान्य वर्ग के परीक्षार्थी के रूप में परीक्षा में बैठीं लेकिन आरक्षण न होने की वजह से वह चयनित नहीं हुईं। इन्हें महिला वर्ग का आरक्षण भी कागजात न होने के कारण नहीं मिल सका। अमृता ने तभी ठान लिया था कि अब वह अनाथों के हक के लिए लड़ेंगी। अमृता ने महसूस किया कि अनाथ तो समाज का सबसे दुःखी तबका है। उसे परिवार का जहां साया नहीं मिलता वहीं समाज और सरकार की नजर में भी वह अनाथ ही रहता है। अमृता ने यहीं से अनाथों को न्याय दिलाने का संकल्प लिया। महाराष्ट्र पब्लिक सर्विस कमीशन की परीक्षा में आरक्षित वर्ग के प्रत्याशियों से अधिक अंक लाने के बावजूद चयन न होने पर न्याय के लिए अमृता करवंदे ने तमाम अधिकारियों के दरवाजे खटखटाए। आखिरकार उसने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री से न्याय की गुहार लगाने की सोची।
अमृता दिन भर मेहनत-मजदूरी करने और सायंकालीन कक्षाओं में पढ़ाई करते हुए अनाथों के अधिकारों के लिए संघर्षरत रहीं। आखिरकार वह मुख्यमंत्री के एक मित्र के माध्यम से मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस से मिलने में कामयाब हुईं। मुख्यमंत्री ने अमृता की बातों को ध्यान से सुना और अनाथों का दुःख महसूस किया। अमृता करवंदे की मुलाकात मुख्यमंत्री से अक्टूबर 2017 में हुई और जनवरी, 2018 में महाराष्ट्र सरकार ने सरकारी नौकरियों में अनाथों के लिए एक फीसदी आरक्षण के प्रावधान की घोषणा कर दी। दरअसल, इस फैसले में जातिगत आरक्षण का कोटा बढ़ाने की जरूरत नहीं पड़ी क्योंकि पहले ही 52 फीसदी की सीमा में पहुंचे आरक्षण को बढ़ाने में संवैधानिक सीमा आड़े आती। यह आरक्षण सामान्य वर्ग के तहत देने की घोषणा हुई। इस तरह महाराष्ट्र अनाथों को आरक्षण देने वाला पहला राज्य बन गया।
महाराष्ट्र सरकार के इस फैसले से अमृता को जीवन की सबसे बड़ी खुशी हासिल हुई। अमृता कहती हैं कि अनाथ का कोई अपना नहीं होता यही वजह है कि लाखों अनाथ सहायता की प्रतीक्षा में सड़कों पर जीवन व्यतीत कर देते हैं। यह मेरे जीवन की सबसे बड़ी जीत व खुशी है। निश्चय ही अमृता के प्रयासों से महाराष्ट्र सरकार द्वारा उठाया गया कदम अनाथों का भविष्य तय करने में मील का पत्थर साबित होगा। अमृता की इच्छा है कि केन्द्र व अन्य राज्य सरकारें भी अनाथों को उनका हक दिलाने को  
आगे आएं।
आज से तकरीबन दो दशक पहले एक पिता अपनी नन्हीं सी बच्ची को गोवा के एक अनाथालय में छोड़ आया था। किन हालातों में उन्होंने ये फैसला लिया, उनकी क्या मजबूरियां थीं, कोई नहीं जानता। आज हजारों-लाखों लोग अनाथालय में पली-बढ़ी अमृता का शुक्रिया अदा कर रहे हैं, इसलिए क्योंकि 23 साल की अमृता करवंदे ने अनाथों के हक की एक बड़ी लड़ाई जीत ली है। अमृता की सालों की मेहनत और संघर्ष का ही नतीजा है कि महाराष्ट्र में सरकारी नौकरियों में अनाथों के लिए एक फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया है। एक गैर सरकारी संस्था के आंकड़ों के मुताबिक भारत में तकरीबन दो करो़ड़ अनाथ बच्चे हैं। अमृता की कहानी पहली बार सुनने में किसी फिल्म सी लगती है लेकिन सच्चाई तो ये है कि उन्होंने फिल्मी लगने वाली इस जिन्दगी में असली दुःख और तकलीफें सहन की हैं। अपने प्रेम-सम्बन्धों के लिए मां-बाप ने मुझे छोड़ दिया। अमू यानि अमृता बताती हैं कि मैं 18 साल की उम्र तक गोवा के अनाथालय में ही रही। अमृता बताती हैं कि अनाथालय में मेरे जैसी बहुत सी लड़कियां थीं वहां हम लोग एक-दूसरे के सुख-दुःख के साथी थे। हम लोगों को वहां कभी-कभी माता-पिता की कमी जरूर महसूस होती थी लेकिन हालातों ने मुझे उम्र से ज्यादा समझदार बना दिया। अमृता बताती हैं कि 18 साल की होते ही मुझे अनाथालय छोड़ना पड़ा। मैं अकेले ही पुणे चली गई। पुणे पहुंचकर मैंने पहली रात रेलवे स्टेशन पर बिताई। मैं बहुत डरी हुई थी। समझ में ही नहीं आ रहा था कि कहां जाऊं, क्या करूं। हिम्मत टूट सी रही थी। एक बार तो मन में आया कि ट्रेन के सामने कूद जाऊं लेकिन फिर किसी तरह खुद को संभाला और आगे की पढ़ाई व अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में जुट गई।
अमृता का कहना है कि जीवन बसर के लिए मैंने कुछ दिनों तक घरों, किराने की दुकानों और अस्पतालों में काम किया। मैं पढ़ना चाहती थी लिहाजा किसी तरह एक दोस्त की मदद से पुणे के पास अहमदनगर के एक कॉलेज में दाखिला लिया। मैं दिन में काम करती और शाम को इवनिंग क्लास में पढ़ती। इस दौरान मुझे रहने के लिए एक सरकारी हॉस्टल तो मिल गया लेकिन मुश्किलें कम नहीं हुईं। कभी एक बार का खाना खाकर तो कभी दोस्तों के टिफिन से खाना खाकर स्नातक तक की पढ़ाई पूरी की। ग्रेज्युएशन की डिग्री हासिल करने के बाद अमृता ने महाराष्ट्र लोक सेवा आयोग की परीक्षा दी लेकिन नतीजा आने पर एक बार फिर कामयाबी में उनका अनाथ होना आड़े आ गया। परीक्षा में सफल होने के लिए क्रीमीलेयर ग्रुप का 46 फीसदी और नॉन क्रीमीलेयर का 35 फ़ीसदी कट ऑफ था। अमृता को 39 फीसदी अंक मिले थे लेकिन इनके पास नॉनक्रीमीलेयर परिवार से होने का कोई सर्टिफिकेट या प्रमाण नहीं था इसलिए कामयाबी नहीं मिल पाई।
अमृता बताती हैं कि मैंने और मेरे दोस्तों ने कई जगह से छानबीन के बाद जाना कि देश के किसी राज्य में अनाथों के लिए किसी भी तरह का आरक्षण नहीं है। यह मेरे लिए बेहद निराशाजनक था। मेरे जैसों की मदद के लिए कोई कानून नहीं है, यह जानकर मुझे धक्का लगा। बस फिर क्या था मैंने ठान लिया कि अब अनाथों के हक की लड़ाई लड़ूंगी। काफी सोचने के बाद मैं अकेले ही मुंबई निकल पड़ी और लगातार कई दिनों तक मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस से मिलने की जुगत लगाती रही। आखिरकार फडणवीस के सहयोगी श्रीकांत भारतीय से उनकी बात हुई और उन्होंने मुख्यमंत्री से उनकी मुलाकात करवाई। बकौल अमृता मुख्यमंत्री ने मेरी बात ध्यान से सुनी और इस बारे में कोई ठोस कदम उठाने का भरोसा दिया। यह खुशी की बात है कि जनवरी, 2018 में महाराष्ट्र सरकार ने अनाथों के लिए सरकारी नौकरी में एक फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया। इसी के साथ महाराष्ट्र अनाथों को आरक्षण देने वाला देश का पहला राज्य बन गया। अमृता कहती हैं कि मैंने अपनी पूरी जिन्दगी में इतनी खुशी कभी महसूस नहीं की थी जितनी उस दिन की। ऐसा लगा जैसे मैंने एक बहुत बड़ी जंग जीत ली है। अमृता और उसके दोस्तों की जंग यहीं खत्म नहीं होती। अमृता कहती हैं कि मैं चाहती हूं कि यह नियम देश के सभी राज्यों में लागू हो क्योंकि अनाथ सिर्फ महाराष्ट्र में ही नहीं हैं। फिलहाल अमृता पुणे के मॉडर्न कॉलेज में अर्थशास्त्र में एम.ए. की पढ़ाई कर रही हैं और साथ ही प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी भी। उम्मीद है कि अमृता के प्रयासों और महाराष्ट्र सरकार के निर्णय से देश के अन्य राज्य भी नसीहत लेंगे।