Wednesday 27 July 2016

ओलम्पिक से पहले ही मुल्क शर्मसार


रियो ओलम्पिक में धाक जमाने से पहले ही भारतीय पहलवान नरसिंह यादव और अब गोलाफेंक एथलीट इंद्रजीत सिंह पर डोपिंग का डंक लग जाने की खबर ने पदक की उम्मीद लगाए करोड़ों खेलप्रेमियों को गहरा धक्का पहुंचाया है। इससे न केवल खिलाड़ियों का मनोबल टूटेगा बल्कि मुकाबले से पहले ही देश बार-बार शर्मसार होगा। आज ही नरसिंह यादव के मामले की सुनवाई के बाद पता चल जाएगा कि वह रियो जाएंगे या नहीं। खैर, इन दोनों शर्मनाक घटनाओं ने एक बार फिर भारत में बढ़ती डोपिंग की प्रवृत्ति पर सोचने को मजबूर कर दिया है। जब भी अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतिस्पर्धाएं शुरू होती हैं, कुछ न कुछ खिलाड़ी डोपिंग के फंदे में फंसे पाए जाते हैं। एशियाई खेल हों या फिर ओलम्पिक, तमाम देशों के होनहार खिलाड़ियों को इस कठिन परीक्षा से गुजरना पड़ता है और हर बार कुछ खिलाड़ी डोपिंग परीक्षण पास न कर पाने के कारण खेलों में हिस्सा लेने से रह जाते हैं। दरअसल, दुनिया भर में डोपिंग को लेकर एक आचार संहिता बनी हुई है, जिसका सभी देशों को पालन करना पड़ता है। इसमें कई ऐसी दवाएं लेने पर प्रतिबंध है, जिनसे खिलाड़ी का रक्तसंचार तेज हो जाता है, वह कुछ अधिक ताकत महसूस करने लगता है और उसकी खेलने की क्षमता बढ़ जाती है।
अक्सर देखा जाता है कि जिन खिलाड़ियों को अपनी प्रदर्शन क्षमता पर कुछ संदेह होता है, वे ऐसी शक्तिवर्द्धक दवाएं चुपके से ले लेते हैं। कई बार उनके प्रशिक्षक भी उन्हें ऐसी दवाएं लेने को कहते हैं। फिर जब डोपिंग जांच में मामला सामने आता है तो वे तरह-तरह की दलीलों के जरिए बचने का प्रयास करते हैं कि जुकाम-खांसी-बुखार वगैरह के चलते उन्हें ऐसी दवाएं लेनी पड़ीं। रूस में खिलाड़ियों के शक्तिवर्द्धक दवाएं लेने पर प्रतिबंध नहीं है। इसलिए ओलम्पिक महासंघ ने वहां के खिलाड़ियों पर प्रतिबंध लगा रखा है। भारत की राष्ट्रीय डोपिंग निरोधक एजेंसी यानी नाडा इस मामले में काफी सजग और सख्त है। नरसिंह यादव और इंद्रजीत सिंह के खून में अगर ऐसा तत्व मिला है जो डोपिंग निरोधक नियमों के तहत प्रतिबंधित है, तो वह उन्हें ओलम्पिक में हिस्सा लेने का अधिकार नहीं है।
ओलम्पिक में हिस्सेदारी के लिए नरसिंह यादव का चुनाव शुरू से विवादों में घिरा रहा। 74 किलोग्राम भार वर्ग में दोहरा ओलम्पिक पदक जीतने वाले सुशील कुमार की जगह जब उन्हें भेजने का फैसला किया गया तो सुशील कुमार ने कड़ी आपत्ति दर्ज की। यहां तक कि उन्होंने अदालत का दरवाजा भी खटखटाया। अब वही नरसिंह यादव अगर ओलम्पिक में पदक हासिल करने के लिए शक्तिवर्द्धक दवाएं लेते पाए गए हैं तो उन लोगों को एक बार फिर उंगली उठाने का मौका मिल गया है जो सुशील कुमार के समर्थन में थे। जिस तरह नरसिंह यादव के चयन को लेकर देशभर में माहौल बना उससे निसंदेह उन पर पदक लाने का मानसिक दबाव रहा होगा। क्या पता इससे उनका आत्मविश्वास कुछ डिगा हो। उनके प्रशिक्षक की प्रतिष्ठा भी दांव पर होगी। इसलिए दवाओं के जरिए यादव ने अपनी क्षमता बढ़ाने की कोशिश की हो। अगर ऐसा है तो यह नहीं भूलना चाहिए कि ओलम्पिक खेलों के दौरान अगर परीक्षण में बाहर हो गए तो न सिर्फ उनकी बल्कि पूरे देश की किरकिरी होगी। आखिर कृत्रिम ताकत के सहारे पदक जीत लेना उनका कौन सा कौशल माना जाएगा। खेल प्रशिक्षकों को भी सोचना चाहिए कि धोखे से किसी खिलाड़ी को पदक की प्रतिस्पर्धा में शामिल कराने से बेहतर है कि उसकी वास्तविक क्षमता को पहचाना और विकसित किया जाए।
देखा जाए तो भारत में नाडा की सक्रियता जनवरी 2009 से प्रभावी हुई। सात साल में ही डोप परीक्षण में सात सौ से अधिक खिलाड़ी डोपिंग रोधी नियमों के उल्लंघन के दोषी पाए गए हैं। डोपिंग रोधी अनुशासन पैनल ने सैकड़ों खिलाड़ियों को सजा भी सुनाई है। डोपिंग के दोषियों की सूची में एथलीट सबसे ऊपर हैं। नाडा सात साल में 2000 से अधिक खिलाड़ियों के डोप परीक्षण कर चुकी है। डोपिंग से मुल्क को शर्मसार करने वाले खिलाड़ियों में एथलीट, भारोत्तोलक सबसे ऊपर हैं। कहा तो यहां तक जाता रहा है कि जब से भारत में रूसी प्रशिक्षकों का आना हुआ तभी से देश में यह कृत्य बढ़ा। एथलेटिक्स और भारोत्तोलन के अलावा डोपिंग के दोषियों की सूची में कबड्डी, बाडीबिल्डिंग, पावर लिफ्टिंग, कुश्ती, मुक्केबाजी और जूडो के खिलाड़ी शामिल हैं।


Tuesday 26 July 2016

मैं और आपका खेलपथ

आपके स्नेह से मिला सम्बल हर पल-हर क्षण खेलों के लिए कुछ करने को अभिप्रेरित करता है। खेलों से जुड़ाव की जहां तक बात है, बचपन से पचपन तक किसी न किसी रूप में मैदानों से जुड़ा रहा हूं। रायबरेली जिले के कोड़रा गांव के ऊबड़-खाबड़ 52 बीघे के मैदान में ही सुबह-शाम होती थी। खेलों के इस जुनून को लोगों की शाबासी मिलने की बजाय उपहास का दंश झेलना पड़ता था, बावजूद मैं अपनी धुन में लगा रहा। स्कूल-कालेज स्तर पर एथलेटिक्स की कई विधाओं में मिली अनापेक्षित सफलता तो गंवारू क्रिकेट में हरफनमौला खिलाड़ी के रूप में जवारि के लोग जानते थे। खैर, कानपुर के प्रतिष्ठित पीपीएन कालेज से हिन्दी में मास्टर डिग्री और बनारस के काशी विद्यापीठ से बीपीएड करने के बाद तत्काल एक शासकीय विद्यालय में शिक्षक के रूप में नियुक्ति हुई। एक साल के अध्यापन के बाद मन नहीं लगा। देश में खेलों की दुर्दशा पर श्रीप्रकाश किस तरह प्रकाश डाले इस बात को लेकर मन उलझन में रहने लगा।
आखिर शिक्षक की नौकरी छोड़ भोपाल चला गया। वर्ष 1987 में मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में नवभारत समाचार पत्र सबसे लोकप्रिय था। मैंने वहां नौकरी का मन बना लिया। एक रात अपने मामा रमेश चंद्र दीक्षित, जोकि नवभारत पत्र समूह के ही अंग्रेजी समाचार पत्र क्रानिकल में थे, उनसे पत्रकारिता करने की इच्छा जाहिर की। उन्होंने समझाया कि पप्पू पत्रकारिता में कुछ नहीं है, मास्टरी करते रहो। मैं नहीं माना और उन्होंने कोल्हटकर जी से बात की, पत्रकार की जगह तो वहां नहीं थी लेकिन एक प्रूफरीडर का पद जरूर रिक्त था। मुझे नवभारत में प्रवेश मिले, इसके लिए मैंने यह पद स्वीकार लिया।
बहुरंगी परिशिष्टों का प्रकाशन तब नहीं था लेकिन नवभारत ने पहल की। रविवारीय के साथ बुधवारीय प्रकाशित होने लगा। प्रूफरीडिंग के साथ मेरी फीचर पेजों में दिलचस्पी बढ़ी। मैंने लेखन की शुरुआत फिल्मों से की। राम तेरी गंगा मैली में फिल्माए दृश्य पर जब सारे देश में हंगामा बरप रहा था, उसी समय फिल्म तो महज एक दृश्य है, पर मेरा आलेख प्रकाशित हुआ। इस आलेख में समाज पर चोट करती मेरी कलम को न केवल सराहा गया बल्कि एक हजार से अधिक पत्र भी आए। इससे मेरा मनोबल ही नहीं खेलों पर लिखने की ललक भी बढ़ गई। उसके बाद खेलों पर चली कलम आज तक चल रही है। इसका श्रेय मैं अपने हृदय गुरु, पद्मश्री सप्रे संग्रहालय के संचालक आदरणीय विजय दत्त श्रीधर को दूंगा। श्रीधर जी ने मेरी लेखनी को धार दी। वह मुझे अपना शिष्य मानते भी हैं या नहीं, कह नहीं सकता लेकिन पत्रकारिता में मैं उन्हीं को अपना गुरु मानता हूं।
प्रूफरीडर के रूप में मुझे देश के जाने-माने वरिष्ठ पत्रकारों के लिखे पर सुधार की छूट थी तो उनसे बहुत कुछ सीखने के मंत्र भी मिले। मेरा किसी लेख को 10 प्रकार से लिखना, वरिष्ठजनों से मिली अमूल्य धरोहर है। नवभारत की रविवारीय का एक पेज खेलों के लिए था। श्रीधर जी के सान्निध्य में नवभारत का हर रविवार मेरे नाम रहने लगा। खेलों पर जो लिखूं वह देश के अन्य राज्यों में भी पढ़ा जाए इसके लिए मैंने अन्य समाचार पत्रों राजस्थान पत्रिका, नई दुनिया, भास्कर, जनसत्ता, क्रिकेट सम्राट सहित अन्य दर्जनों पत्र-पत्रिकाओं में अंशुल शुक्ला, एसपी शुक्ला नामों से हजारों आलेख प्रकाशित हुए। तब पारिश्रमिक तो कम था लेकिन मिलता जरूर था। दूरदर्शन और आकाशवाणी पर भी समय-समय पर बुलाया जाता है। 1995 में ग्वालियर से नवभारत के नए संस्करण के प्रकाशन के साथ ही मैं ग्वालियर का हो गया। पद आए-गए लेकिन मैं लिखता रहा। सिर्फ खेल ही नहीं अन्य विषयों पर भी लेखनी खूब चली। इस यात्रा में कई अच्छे साथी मिले जो कहीं भी रहें खूब याद आते हैं।

दरअसल, खेलों में कुछ विशेष करने की कुचेष्टा ही वर्ष 2009 में खेलपथ के प्रकाशन का कारण बनी। खेलों का समाचार पत्र निकालने से पहले जो बातें आसान लग रही थीं, वे काफी दुरूह साबित हुईं। खेलपथ के प्रथमांक प्रकाशन के ही दिन पितृ-विछोह ने अंदर से तोड़ दिया था। खैर, धर्मपत्नी जी ने हिम्मत दी कि खेलपथ का प्रकाशन बंद नहीं होना चाहिए। समय के साथ समझौता करना नहीं बल्कि चलना सीखो। सच कहें खेलपथ अब चल नहीं लोगों के बीच अपनी पहचान स्थापित कर रहा है। देश के लगभग पांच सैकड़ा अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों के साथ-साथ एक लाख से अधिक खेलप्रेमियों द्वारा (खेलपथडाटकाम) पढ़ा और सराहा भी जा रहा है। खेलपथ का बहुरंगी रियो ओलम्पिक विशेषांक शीघ्र ही आपके हाथ होगा। सोशल मीडिया के इस दौर में खेलपथ को निरंतर मिल रही लोकप्रियता के लिए मैं खिलाड़ियों, खेलप्रेमियों और मित्रों का आभार मानता हूं।          

Monday 25 July 2016

लाइलाज शहरों का जलभराव

केन्द्र की मोदी सरकार द्वारा जोर-शोर से प्रचार-प्रसार किया जा रहा है कि देश तरक्की के नए-नए कीर्तिमान स्थापित कर रहा है। जनमानस को स्मार्ट सिटी के सपने दिखाए जा रहे हैं लेकिन हकीकत पर गौर करें तो विकास की लौ सतही धरातल पर कहीं भी टिमटिमाती नहीं दिख रही। सच कहें तो हमारी हुकूमतें जनमानस को दिवा स्वप्न दिखा रही हैं और विकास के नाम पर फिजूल का ढिंढोरा पीटा जा रहा है। महंगाई निरंतर बढ़ रही है। गरीब व्यक्ति के लिए रोटी, कपड़ा और मकान जुटाना दुरूह कार्य हो रहा है तो शहर बदइंतजामी का शिकार हैं। विकास की रफ्तार इतनी धीमी है कि जनसाधारण को उसका कुछ भी फायदा मिलता नहीं दिख रहा। जनमानस रो रहा है तो नीरो बंशी बजाने में मस्त है।
पिछले सप्ताह की ही बात है, कुछ घण्टे की बारिश से मथुरा और आगरा जैसे जगप्रसिद्ध शहर जलभराव से ठिठक गए तो जनमानस सहम गया। सड़क पर दरिया था तो उफनते नाले किसी प्रलय का संकेत दे रहे थे। ब्रज मण्डल का कोई ऐसा शहर नहीं था जो घुटने-घुटने पानी में डूबता न दिखा हो। शहर की घनी बस्तियां ही नहीं उसके हृदयस्थल भी जलप्रलय से सिहर उठे थे। शहरों में जलभराव की समस्या ब्रज मण्डल तक ही सीमित नहीं है, देश की राजधानी दिल्ली और उसके आसपास के शहरों सहित भोपाल-इंदौर जैसे शहर और उनकी सड़कें जरा सी बरसात में जलमग्न हो जाती हैं। ऐसे ही जलभराव की आफत से लखनऊ, गोंडा, औरैया, गुवाहाटी और मुंबई भी त्राहिमाम-त्राहिमाम करते दिखे। बीते सप्ताह जिसने भी इन शहरों में कदम रखा हो उसका दिल गर्मी से निजात के आनंद की कल्पना से परे अब बारिश के नाम से ही डर गया है।
इसे विडम्बना और सरकारी तंत्र की निष्क्रियता ही कहेंगे कि हर बरसात में शहरों का जलभराव कई अनुत्तरित सवाल छोड़ जाता है। जलभराव पर सफेदपोश सारा दोष नालों की सफाई न होने, बढ़ती आबादी, घटते संसाधनों और पर्यावरण से छेड़छाड़ पर थोप देते हैं। कोई भी जनप्रतिनिधि इस बात का जवाब नहीं दे पाता कि नालों की सफाई सालभर क्यों नहीं होती और इसके लिए मई-जून का ही इंतजार क्यों होता है। यह सभी जानते हैं कि छोटे शहरों और महानगरों में बने ढेर सारे पुलों के निचले सिरे, अंडरपास और सब-वे हल्की सी बरसात में जलभराव के स्थाई स्थल हैं लेकिन कभी कोई यह जानने का प्रयास नहीं करता कि आखिर निर्माण में कोई कमी है या फिर उसके रखरखाव में।
देखा जाए तो देश भर के शहरों में बढ़ते यातायात को सुव्यवस्थित करने की खातिर बीते एक दशक में लाखों फ्लाई ओवर और अंडरपास बने। बावजूद इसके हर शहर में हर साल बार-बार जाम के झाम से जनमानस को जूझना पड़ता है। ब्रज मण्डल के आगरा शहर में तो प्रतिदिन चार से पांच छोटे-बड़े जाम लगना आम बात सी हो गई है। बरसात में यही संरचनाएं जाम का कारण बनती हैं।
बारिश के दिनों में अंडरपास में पानी भरना हमारे नीति-निर्माताओं की सोच पर ही सवाल उठाता है। देखा जाए तो शहरों के यातायात को सिग्नल मुक्त बनाने के नाम पर हर साल अरबों रुपए खर्च किया जाता है लेकिन बरसात होते ही यही अंडरपास कोढ़ में खाज का काम करने लगते हैं। बरसात में अधिकांश अंडरपास नाले में तब्दील हो जाते हैं और हमारा जवाबदेह तंत्र पानी निकालने वाले पम्पों के खराब होने का बहाना बनाता है तो सड़क डिजाइन करने वाले नीचे के नालों की ठीक से सफाई न होने का रोना रोते हैं। अंडरपास की समस्या केवल बारिश के दिनों में ही नहीं है। आम दिनों में भी यदि यहां कोई वाहन खराब हो जाए या दुर्घटना हो जाए तो उसे खींचकर ले जाने का काम इतना जटिल है कि जाम लगना आम बात हो जाती है। सच कहें तो जमीन की गहराई में जाकर ड्रेनेज किस तरह बनाया जाए कि पानी की हर बूंद बह जाए, यह तकनीक अभी तक हमारे इंजीनियर नहीं सीख पाए हैं।
मोदी सरकार जिन शहरों को स्मार्ट सिटी बनाने को आतुर है उन्हीं शहरों के बीआरटी कॉरीडोर थोड़ी सी बरसात में ही नाव चलाने लायक हो जाते हैं। ठीक ऐसे ही हालात फ्लाईओवरों के भी हैं। जहां जरा सा भी पानी बरसा कि उसके दोनों ओर पानी जमा हो जाता है। कारण वहां बने सीवरों की ठीक से सफाई न होना बता दिया जाता है। असल में तो इनके डिजाइन में ही कमी होती है। कई स्थानों पर इन पुलों का उठाव इतना अधिक है कि आएदिन इन पर भारी मालवाहक वाहन लोड न ले पाने के कारण खराब हो जाते हैं और जाम की स्थिति बन जाती है। इसे विडम्बना ही कहेंगे कि हमारे नीति-निर्धारक यूरोप या अमेरिकी देशों की सड़क व्यवस्था का अध्ययन करते हैं जहां न तो भारत की तरह मौसम होता है और न ही एक ही सड़क पर विभिन्न तरह के वाहनों का संचालन। हमारे देश के अधिकांश शहरों का सीवर सिस्टम बरसात के जल का बोझ उठाने लायक ही नहीं है। साथ ही उसकी सफाई महज कागजों पर होती है।

शहरों का जलभराव रोकने के लिए सबसे पहला काम तो वहां के पारम्परिक जलस्रोतों में पानी की आवक और निकासी के पुराने रास्तों में बन गए स्थाई निर्माणों को हटाने का होना चाहिए। यह काम भेदभाव से परे हो तो शासन-प्रशासन को भी दिक्कत नहीं होगी। महानगरों में भूमिगत सीवर जलभराव का सबसे बड़ा कारण है। पालीथिन, घर से निकलने वाले रसायन और नष्ट न होने वाले कचरे की बढ़ती मात्रा कुछ ऐसे कारण हैं, जो गहरे सीवरों के दुश्मन हैं। महानगरों में सीवर और नालों की सफाई भ्रष्टाचार का बड़ा माध्यम हैं। यह कार्य किसी जिम्मेदार एजेंसी को सौंपना आवश्यक है वरना आने वाले दिनों में महानगरों का यह जलभराव महामारी का रूप ले लेगा। शहरों का सुन्दर और सुव्यवस्थित होना ही नहीं जलनिकास व्यवस्था सुदृढ़ होना भी बेहद जरूरी है। केन्द्र और राज्य सरकारों को आम आवाम को स्मार्ट सिटी का सपना दिखाने से पहले शहरों की बदहाल स्थिति कैसे सुधरे इस पर मंथन करना जरूरी है। शहरों में जलभराव की समस्या बेशक मोदी सरकार की देन न हो लेकिन जनमानस को सब्जबाग दिखाने से पहले सरकार को शहरों की प्रमुख समस्याओं के समाधान की पहल तो करनी ही चाहिए।  

अंतिम चार में पहुंच सकती हैं हाकी बेटियां

हाकी इण्डिया ने युवाओं पर दिखाया विश्वास
श्रीप्रकाश शुक्ला
यदि खिलाड़ियों में जीत का जुनून और मन में विश्वास हो तो खेलों में असम्भव कुछ भी नहीं हो सकता। 36 साल बाद डिफेंडर सुशीला चानू की अगुवाई में ओलम्पिक खेलों में शिरकत करने गई भारतीय टीम युवा है, वह कमाल कर सकती है। रक्षा पंक्ति में सुशीला की साथी अनुभवी दीपिका कुमारी पर काफी दारोमदार होगा। इस युवा पलटन को यह बात हमेशा अपने जेहन में रखनी होगी कि 1980 मास्को ओलम्पिक में रूपा सैनी की अगुवाई में गई भारतीय पलटन ने चौथा स्थान हासिल किया था। ओलम्पिक कड़ी प्रतिस्पर्धा है, इसके हर मुकाबले का अपना महत्व है। भारतीय टीम में पांच डिफेंडर, पांच मिडफील्डर, पांच फारवर्ड और सिर्फ एक गोलकीपर सविता को शामिल किया गया है। डिफेंस में टीम के पास दीपिका, सुनीता लाकड़ा, नमिता टोप्पो और दीप ग्रेस एक्का जैसी अनुभवी खिलाड़ी हैं तो मिडफील्ड में रेणुका, लिलिमा मिंज, मोनिका, नवजोत कौर और युवा निक्की प्रधान को स्थान मिला है। भारतीय हमलावरों में रानी रामपाल, पूनम रानी, वंदना कटारिया, अनुराधा देवी थोकचोम और प्रीति दुबे में मजबूत से मजबूर रक्षापंक्ति को तितर-बितर करने की क्षमता है बशर्ते वे मुकाबले के दिन अपनी क्षमता पर भरोसा रखें। खेल कोई भी हो हमला ही जीत की बुनियाद पक्की करता है। महिला टीम सात अगस्त को जापान के खिलाफ अपने ओलम्पिक अभियान का आगाज करेगी। ओलम्पिक हॉकी प्रतियोगिता में पहली बार क्वार्टर फाइनल मुकाबले खेले जाएंगे। हर एक पूल की टॉप चार टीमें नॉकआउट राउण्ड के लिए क्वालीफाई कर जाएंगी। क्वार्टर फाइनल की विजेता टीमें सेमीफाइनल में प्रवेश करेंगी जहां से गोल्ड और कांस्य पदक के मुकाबले निर्धारित होंगे।
भारतीय महिला टीम को पूल बी में अर्जेण्टीना, आस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, अमेरिका और जापान के साथ रखा गया है। सुशीला चानू की इस युवा फौज को अंतिम आठ में पहुंचने के लिए कम से कम अपने पूल की दो टीमों का मानमर्दन करना होगा। भारतीय लड़कियों ने ओलम्पिक खेलों से पहले हुए अपने अभ्यास मैचों में अमेरिका को हराया है तो जापान की टीम को वे आसानी से हरा सकती हैं। दरअसल भारत के पदक की उम्मीद तभी बनेगी जब वह अपने पूल की श्रेष्ठ टीमों पर विजय दर्ज करे। ओलम्पिक खेलों की जहां तक बात है महिला हाकी को शामिल हुए अभी 36 साल ही हुए हैं और भारतीय महिला हाकी टीम दूसरी बार इन खेलों में अपनी काबिलियत कर परिचय देगी। सुशीला चानू की इस युवा पलटन ने 2015 में विश्व हाकी लीग सेमीफाइनल के जरिये क्वालीफाई किया था। भारतीय महिला हाकी टीम जब 1980 में मास्को ओलम्पिक में खेली थी तब क्वालीफिकेशन प्रक्रिया नहीं थी। देखा जाए तो अब महिला हाकी भी काफी प्रतिस्पर्धी हो गई है। 
भारतीय महिला हॉकी टीम के मुख्य कोच नील हागुड का साफ कहना है कि हमने योग्यता के आधार उपलब्ध खिलाड़ियों की सर्वश्रेष्ठ टीम चुनी है। खैर, यह भारतीय बेटियों के लिए ऐतिहासिक लम्हा है क्योंकि इस टीम की सभी सदस्य पहली बार ओलम्पिक खेल रही हैं। भारतीय महिला टीम की कप्तान सुशीला चानू को भी पता है कि उन्हें बड़ी जिम्मेदारी सौंपी गई है। वह और उनकी पलटन यदि ओलम्पिक में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करती है तो उससे भारतीय महिला हाकी का ही भला होगा। सात अगस्त को जापान से दो-दो हाथ करने से पहले भारतीय टीम ने कनाडा और अमेरिका से अभ्यास मुकाबले खेलकर अपनी क्षमता का अंदाजा लगा चुकी है। अभ्यास मैचों में टीम खिलाड़ियों से जो गलतियां हुईं उम्मीद है कि उन्हें नहीं दोहराया जाएगा। रियो ओलम्पिक खेलने गई भारतीय महिला टीम में बेशक मध्यप्रदेश की कोई बेटी नहीं है लेकिन इस टीम की सात सदस्य ग्वालियर में संचालित महिला हाकी एकेडमी की कभी न कभी सदस्य रह चुकी हैं। इनमें कप्तान सुशीला चानू, वंदना कटारिया, पूनम रानी मलिक, रेणुका यादव, मोनिका, अनुराधा देवी थोकचोम और प्रीति दुबे शामिल हैं। एकेडमी की वर्तमान सदस्य प्रीति दुबे काफी प्रतिभाशाली हमलावर है, उसने अभ्यास मैचों में अपनी काबिलियत को सिद्ध भी किया है। यद्यपि वह अभी मुल्क की तरफ से काफी कम मुकाबले खेली है लेकिन उसकी प्रतिभा और इस खेल के प्रति उसके समर्पण को देखते हुए यह कहने में जरा भी संकोच नहीं कि वह लम्बे समय तक भारतीय महिला हाकी का भला कर सकती है।
रियो ओलम्पिक में भारत की सदाबहार हमलावर रानी रामपाल पर काफी दारोमदार है। भारतीय महिला हॉकी में रानी रामपाल का अहम योगदान है। रानी रामपाल न केवल युवा हैं बल्कि उन्हें डेढ़ सौ से अधिक अंतरराष्ट्रीय मैचों का अनुभव भी है। चार दिसम्बर, 1994 को हरियाणा के शाहाबाद मारकंडा में जन्मी इस फारवर्ड हॉकी खिलाड़ी ने 2009 में केवल 14 साल की उम्र में ही सीनियर महिला हॉकी टीम में प्रवेश किया था। भारतीय सीनियर महिला टीम में प्रवेश के बाद रानी रामपाल ने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। रानी रामपाल ने साल 2009 रूस में आयोजित चैम्पियन चैलेंजर्स के फाइनल में चार गोल दागकर भारत को जीत दिलाने में अहम भूमिका निभाई थी। इस शानदार प्रदर्शन के लिए रानी रामपाल को यंग प्लेयर ऑफ द टूर्नामेंट के खिताब से नवाजा गया था। भारत की टीम ने जब 2009 के एशिया कप में सिल्वर मेडल जीता तब भी इस खिलाड़ी का ही परफॉर्मेंस यादगार रहा। इतना ही नहीं 2010 के हॉकी वर्ल्ड कप में रानी रामपाल को यंग प्लेयर ऑफ द टूर्नामेंट का खिताब मिला। हॉकी वर्ल्ड कप में रानी रामपाल ने सात गोल किए थे। रानी के करिश्माई प्रदर्शन का ही कमाल कहेंगे कि भारत को पहली बार वर्ल्ड रैंकिंग में 9वां स्थान मिला जो एक रिकॉर्ड है। वर्तमान में भारतीय महिला हॉकी टीम की रैंकिंग 13 है। 2010 में इंटरनेशनल हॉकी फेडरेशन द्वारा ऑल स्टार टीम ऑफ द ईयर में रानी रामपाल को शामिल किया गया था जो किसी भी हॉकी खिलाड़ी के लिए बड़ी बात है। महिला वर्ल्ड कप 2010 में रानी रामपाल को बेस्ट यंग प्लेयर ऑफ द टूर्नामेंट का खिताब दिया गया था। इसके साथ-साथ इस खिलाड़ी ने जूनियर महिला हॉकी में भी कमाल का खेल दिखाया। रानी रामपाल के शानदार खेल से ही भारतीय टीम को 2013 के जूनियर वर्ल्ड कप में कांस्य पदक मिला और वह प्लेयर ऑफ द टूर्नामेंट बनी। 2014 में रानी रामपाल को फेडरेशन ऑफ इंडियन चैम्बर्स ऑफ इंडस्ट्रीज के तरफ से कमबैक ऑफ द ईयर के पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है।
रानी रामपाल की ही तरह भारतीय महिला हॉकी की स्टार फारवर्ड पूनम रानी ने भी अपने बेहतरीन खेल से कई बार हॉकीप्रेमियों का दिल जीता है। आठ फरवरी, 1993 को हरियाणा के हिसार में जन्मी पूनम रानी मलिक ने 2009 में भारतीय महिला हॉकी टीम में प्रवेश किया। इसके साथ-साथ पूनम रानी मलिक 2009 में यूएसए में हुए एफआईएच जूनियर विश्व कप में भारतीय टीम का हिस्सा रहीं। 2010 में पूनम रानी मलिक ने जापान, चीन और न्यूजीलैंड के खिलाफ टेस्ट सीरीज में भारतीय महिला हॉकी टीम के लिए अपना शानदार योगदान दिया। अपने शानदार खेल परफॉर्मेंस की बदौलत ही वह कोरिया में आयोजित एफआईएच महिला वर्ल्ड कप में भारतीय टीम में जगह बनाने में सफल हुई। इसके बाद इस हमलावर ने दिल्ली में हुए कॉमनवेल्थ गेम्स तथा इंचियोन में हुए एशियन गेम्स में भारतीय टीम का प्रतिनिधित्व किया। रियो ओलम्पिक में पूनम रानी का खेल भारतीय टीम में नई जान डाल सकता है। सच कहें तो यह खिलाड़ी फिलवक्त भारतीय महिला हॉकी टीम की मजबूत कड़ी में से एक है।
वंदना कटारिया का नाम महिला हॉकी में बेहतरीन फारवर्ड खिलाड़ी के तौर पर लिया जाता है। 15 अप्रैल, 1992 को उत्तर प्रदेश में जन्मी वंदना कटारिया आज भारतीय महिला हॉकी का अहम हिस्सा है। वंदना कटारिया को 2006 में पहली बार जूनियर महिला हॉकी टीम प्रवेश मिला और इसके ठीक चार साल बाद वह सीनियर टीम का हिस्सा बनी। भारत की हर जीत में इस खिलाड़ी का अहम योगदान रहता है। फिलवक्त वंदना भारत की टाप स्कोरर है। इस खिलाड़ी का भी 2013 के जूनियर वर्ल्ड कप में भारत को कांस्य पदक दिलाने में अहम योगदान रहा। जूनियर विश्व कप में वंदना चार मैचों में पांच गोल कर भारत की टाप स्कोरर रही। 2014 में हुए हॉकी वर्ल्ड लीग सेमीफाइनल राउंड दो में वंदना ने भारत के लिए कुल 11 गोल किए थे। वंदना कटारिया को साल 2014 में बेहतरीन परफॉर्मेंस के लिए हॉकी इंडिया की तरफ से प्लेयर ऑफ द ईयर के खिताब से भी नवाजा जा चुका है। वंदना कटारिया की बड़ी बहन रीता कटारिया भी रेलवे की तरफ से हॉकी खेलती थी।
भारतीय महिला टीम में गोलकीपर के रूप में सविता पूनिया ने जो कमाल किया है वह अपने आपमें शानदार है। हॉकी में गोलकीपर की भूमिका बेहद ही अहम होती है। रियो में वह भारत की एकमात्र गोलकीपर हैं। 70 मिनट के खेल में गोलकीपर पर ही हमेशा सबसे ज्यादा दबाव रहता है। सविता पूनिया ने अपने शानदार खेल से कई बार विपक्षी टीमों के सम्भावित गोलों को बचाकर भारतीय टीम को जीत दिलाने में अहम भूमिका निभाई है। सविता अब तक भारतीय टीम के लिए सवा सौ से अधिक अंतरराष्ट्रीय मुकाबले खेल चुकी है। मलेशिया में आयोजित 8-जी महिला एशिया कप हॉकी टूर्नामेंट 2013 में सविता पूनिया ने जबरदस्त परफॉर्मेंस कर टीम में अपनी जगह पुख्ता की। इस टूर्नामेंट में भारतीय टीम ने कांस्य पदक जीता था। सच कहें तो सविता पूनिया ने ही बेल्जियम में हुए ओलम्पिक क्वालीफाइंग मुकाबले में शानदार खेल दिखाकर भारत को टूर्नामेंट के अंत तक पांचवें नम्बर पर पहुंचाने में खास भूमिका निभाई थी। सविता रियो ओलम्पिक में कैसा जौहर दिखाती है, यह तो भविष्य के गर्भ में है लेकिन उम्मीद है कि वह सवा अरब देशवासियों को निराश नहीं करेगी।

                          यह है 16 सदस्यीय महिला टीम-
गोलकीपर- सविता (कप्तान)। डिफेंडर- सुशीला चानू (कप्तान) दीप ग्रेस एक्का, दीपिका (उपकप्तान), नमिता टोपो, सुनीता लाकड़ा। मिडफील्डर- नवजोत कौर, मोनिका, निक्की प्रधान, रेणुका यादव, लिलिमा मिंज। फारवर्ड- अनुराधा देवी थोकचोम, पूनम रानी, वंदना कटारिया, रानी रामपाल, प्रीति दुबे।
                                     टीमों की स्थिति
                     पूल ए- नीदरलैण्ड, न्यूजीलैंड, चीन, जर्मनी, कोरिया और स्पेन
                     पूल बी- अर्जेण्टीना, आस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, अमेरिका, जापान, भारत


Thursday 21 July 2016

ओलम्पिक पदक जीतना हर खिलाड़ी का सपनाः विनेश फोगाट


मुझे रियो में स्वर्ण से कम मंजूर नहीं 
ओलम्पिक खेलना और पदक हासिल करना हर खिलाड़ी का सपना होता है। मेरा भी सपना है कि मैं रियो में स्वर्ण पदक जीतूं। यह कहना है हरियाणा के बलाली गांव की पहलवान विनेश फोगाट का। फोगाट बहनों में दो विनेश और बबिता (चचेरी बहनें) रियो ओलम्पिक में दांव-पेच लगाएंगी। विनेश फोगाट 48 किलोग्राम भारवर्ग में खेलती है। रियो में पदक की सम्भावना पर विनेश कहती हैं कि तैयारियां तो काफी हैं लेकिन जब तक हाथ में पदक नहीं तब तक सब बेकार की बात है। उसका साफ कहना है कि देशवासियों की दुआएं मिलीं तो रियो में स्वर्णिम सफलता पक्की है। विनेश अपनी कामयाबी से इतर अपने प्रशिक्षक कुलदीप मलिक की तारीफ करते नहीं थकती। प्रशिक्षक कुलदीप मलिक भी मानते हैं कि विनेश को हराना किसी पहलवान के लिए आसान नहीं होगा।
                      रियो जाने से पहले विनेश से हुई खास बात 
विनेश रियो में पदक की कितनी उम्मीद है?
-मुझे उम्मीद है तभी ओलम्पिक जा रही हूं। एक खिलाड़ी का हमेशा सपना होता है कि वह न केवल ओलम्पिक खेले बल्कि पदक भी जीते। रियो में मैं उसी सपने को पूरा करने का प्रयास करूंगी।
कुलदीप जी (प्रशिक्षक) विनेश कितना तैयार है?
-देखिए विनेश एक ऐसी लड़की है जो कुश्ती में कहीं नहीं मार खाती। विनेश से मुझे ही नहीं पूरे देश को उम्मीद है।
विनेश क्या आप अपने मूव्स में कोई बदलाव कर रही हैं?
अब इतना वक्त नहीं है कि मैं कुछ ज्यादा चेंज करूं। ये रिस्क हो जाएगा। बस स्पीड पर ज्यादा काम कर रही हूं, क्योंकि 48 किलोग्राम भारवर्ग में स्पीड का अहम रोल होता है।
कुलदीप जी, कुश्ती सिर्फ शरीर का ही नहीं दिमाग का भी खेल है। विनेश की स्पीड पर मूव्स कैसे काम कर रहे हैं?
स्पीड पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है। पैरों पर काफी काम कर रहे हैं क्योंकि कुश्ती में पैरों पर ही सारे मूव्स निर्भर करते हैं।
विनेश किन-किन देशों की ऐसी पहलवान हैं,जिनके मूव्स अच्छे होते हैं ?
मेरी मानें तो जापान के पहलवानों के मूव्स काफी फास्ट हैं। इसी वजह से मैं अपनी स्पीड बढ़ा रही हूं ताकी बाउट टफ हो और मैं अपनी स्पीड और दांव से विरोधी को मात दे सकूं।
विनेश स्पीड इतनी महत्वपूर्ण क्यों है?
देखिए स्पीड से हम चकमा दे सकते हैं, अपोनेंट की पलक झपकी और हम एक जगह से दूसरी जगह तक पहुंच जाएं। स्पीड से आपका विरोधी आपके मूव्स को समझ नहीं पाता। इससे प्वॉइंट्स लेने में आसानी होती है।
कुलदीप जी डिफेंस को आप बेहतर तकनीक मानते हैं अटैक को?
ये निर्भर करता है कि आपके सामने रेसलर कौन है, किस देश का है,उसका तरीका क्या है।
विनेश आपके दिमाग में बाउट के दौरान क्या चलता है?
मेरे दिमाग में बस ये चलता है कि ज्यादा से ज्यादा प्वॉइंट्स लेना है और किसी भी सूरत में मैच जीतना है।
विनेश क्या जब कोच बाउट के दौरान चिल्लाकर कुछ बताते हैं तो उस पर ध्यान होता है?
बिल्कुल होता है। क्योंकि कोच विरोधी खिलाड़ियों के मूव्स को देखते हैं और वो बताते हैं कि अब अटैक करना है चूंकि विरोधी हिन्दी नहीं समझते तो हमें आसानी हो जाती है, अटैक करने में। दरअसल बाउट के दौरान ध्यान कुश्ती पर और कान कोच पर होता है।
विनेश आखिरी पलों में जब किसी मैच का फैसला होता है, उस समय खुद पर संयम कैसे रखती हैं ?
दिमाग में बस यही ख्याल आता है कि मैं इससे हार ही नहीं सकती। यही ख्याल मुझे अटैक करने के लिए फोर्स करता है।
कोच साहब कंसनट्रेशन कितना जरूरी है ?
बहुत जरूरी,एक कोच को अपने पहलवानों की मानसिकता समझना होता है। जब पहलवान बाउट के लिए जा रहा होता है तो हमें समझना होता है कि पहलवान को क्या बोलना है, हम ये सोचते हैं कि अगर विनेश कुश्ती लड़ने जा रही है, मतलब मैं लड़ रहा हूं।
विनेश क्या बाउट के दौरान अपने अप्रोच को बदलने में दिक्कत आती है?
नहीं, इसमें कोई दिक्कत नहीं होती। इसका काफी अभ्यास करते हैं और अगर इसमें दिक्कत आई तो हम मुकाबला नहीं जीत पाएंगे।
 विदेशी दौरे पर हिन्दुस्तानी पहलवानों को किस नजर से देखा जाता है?
अभी हाल की एक घटना बताता हूं ओलम्पिक क्वालीफाई की। सेमीफाइनल की बाउट थी तुर्की के पहलवान के साथ और हम बुल्गारिया में अभ्यास कर रहे थे तो उनको पता था कि विनेश अच्छा बाउट करती है, उनकी भाषा मिलती है तो तुर्की के कोच बोल रहे थे कि इंडिया की लड़की है आसानी से जीत जाएंगे तो बुल्गारिया कोच ने बोला कि ये इंडिया की है लेकिन बेहतरीन पहलवान है लेकिन उन्होंने अनसुना कर दिया। हालांकि मैच में विनेश ने आसानी से जीत हासिल की। उसके बाद तुर्की के कोच आए और कहा कि ‘ये है तो इंडिया की लड़की लेकिन भयंकर है’।
विनेश जब जीतती हैं तिरंगा लहराती हैं तो कैसा महसूस करती हैं?
उस समय बॉडी में एक हलचल सी होती है, पूरे शरीर में एक करंट सा दौड़ता है। कभी लगता है कि रो दूं लेकिन खुद को रोकती हूं और हां तिरंगे को जब ऊपर जाते देखती हूं फक्र होता है।
कोच साहब कभी-कभी हमने आपको उछलता हुआ देखा है।
(विनेश खुद आगे आईं और जवाब देने लगी) जब हमारा क्वालीफाई राउंड था तो सर ने काफी शॉपिंग किया था कि जीत के बाद नए कपड़े पहनूंगा,लेकिन ऐसा नहीं हो पाया था तो सर काफी उदास हो गए थे,फिर हमने सर से वादा किया था कि हम जरूर क्वालीफाई करेंगे,फिर हमने क्वालीफाई किया तो सर काफी उछल रहे थे और फिर वो कपड़े सर ने पहने थे।
बाउट से पहले विनेश क्या करती हो?
शांत रहती हूं, भजन सुनती हूं भगवान को याद करती हूं।
कुलदीप जी बाउट से पहले आप क्या करते हैं ?
(जवाब विनेश देने लगी) सर बोलते हैं कि सारा हिन्दुस्तान देख रहा है। हमेशा बताते रहते हैं कि इसका ध्यान रखना है। (फिर कुलदीप ने कहा) दिमागी रूप से मजबूत करता हूं बस।
विनेश कोई ऐसी घटना जब कोच साहब ने बहुत डांटा हो।
काफी हंसने के बाद हां कभी-कभी जब हम उठते नहीं हैं, थके होते हैं तो सर काफी डांटते हैं।
विनेश क्या बाउट से पहले कभी महावीर फोगाट से बात होती है?
मुझे काफी डर लगता है। मेरी कभी बात नहीं हुई, आज भी मैं डरती हूं। बस मेरा सपना है कि ओलम्पिक का मेडल लाकर उनको दूं, ये उनकी इच्छा है। ताऊ जी ने कभी ऐसा नहीं कहा कि तुमने अच्छा किया बस वह यह बोलते हैं कि ओलम्पिक का पदक लाओ। मैं उनकी यह चाहत पूरी करना चाहती हूं।
तीन महिला पहलवानों का चयन हुआ है आप लोग एक-दूसरे को कितना सपोर्ट करती हैं ?
जैसे हम अभी बुल्गारिया में प्रैक्टिस कर रहे थे, तो हम लगातार बताते रहते हैं एक दूसरे को। खुद की बाउट को भूलकर हम एक-दूसरे को चियर करते हैं।
अपोनेंट को लेकर रणनीति बनाती हैं?
बिल्कुल, जो पावर से खेलते हैं हमारी कोशिश होती है कि उनको स्पीड से मात दूं और जिनकी ताकत स्पीड है उनको पावर से चौंका देते हैं।
विनेश देशवासियों से कुछ कहना चाहती हैं आप।
बस यही कि दुआ कीजिए हमारे लिए हमने काफी मेहनत की है, दुआ में भगवान बसता है और अगर दुआ मिली तो हम आठ पहलवान (महिला-पुरुष मिलाकर) जा रहे हैं आठों गोल्ड ला सकते हैं।
कोच साहब आप कुछ कहना चाहते हैं।
यही आशीर्वाद दीजिए, बच्चे अच्छा करें।

Wednesday 20 July 2016

लंदन का प्रदर्शन दोहराने की चुनौती


खिलाड़ियों पर उम्मीदों का बोझ
श्रीप्रकाश शुक्ला
ब्राजील का रियो-डी-जेनेरियो शहर दुनिया के 206 देशों के लगभग 10 हजार से अधिक खिलाड़ियों के पौरुष का इम्तिहान लेने को तैयार है। इन खेलों के दौरान जहां फर्राटा किंग उसेन बोल्ट से लेकर तरणताल के जादूगर माइकल फेल्प्स तक कई दिग्गज शानदार और जानदार प्रदर्शन कर ओलम्पिक खेलों को अलविदा कहना चाहेंगे वहीं भारत के सामने लंदन का प्रदर्शन दोहराने की दुर्लभ चुनौती होगी। पांच से 21 अगस्त तक होने वाले 31वें ओलम्पिक खेलों के महासमर की रणभेरी बज चुकी है। हर मुल्क वर्षों की तैयारी के बाद अधिक से अधिक पदक जीत लेने के इरादे से ही ओलम्पिक खेलों में उतरा है। भारत के भी 122 सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी विभिन्न स्पर्धाओं में लंदन के प्रदर्शन को पीछे छोड़ देने की तैयारी के साथ ब्राजील पहुंचे हैं। सवा अरब की आबादी वाले भारत के करोड़ों खेलप्रेमियों का दिल भी चाहता कि उसका हर खिलाड़ी गले में पदक लटकाकर ही मादरेवतन वापस लौटे। आना भी चाहिए आखिर यह मुल्क की अस्मिता का सवाल जो है।
खेलों में जहां रिकार्ड बनते और टूटते हैं वहीं कभी-कभी खराब प्रदर्शन पर खेलप्रेमियों के दिल भी टूट जाते हैं। भारत ने हाकी को छोड़कर ओलम्पिक खेलों के महासमर में कभी कोई ऐसा अजूबा नहीं किया जिसे साल दर साल याद किया गया हो। आज लंदन में जीते छह पदक लोगों के जेहन में जरूर हैं। उन्हीं छह पदकों की उम्मीदों का एक बड़ा बोझ हमारे सूरमा खिलाड़ियों पर भी है। हर ओलम्पिक से पहले हम अपने खिलाड़ियों से अपार अपेक्षाएं करते हैं लेकिन वह कभी पूरी होती नहीं दिखीं। लंदन से भारतीय खेलों के एक नए युग का आगाज हुआ। तब हमारे 81 खिलाड़ियों ने 13 स्पर्धाओं में न केवल पदकों की जोर-आजमाइश की थी बल्कि सर्वाधिक छह पदकों के साथ वतन लौटे थे। इस बार भारतीय खेलनहारों और कुछ एजेंसियों के आकलन जहां भारत को 10 से अधिक पदक जीतता बता रहे हैं वहीं मेरी नजर में भारतीय खिलाड़ी लंदन के प्रदर्शन को भी दोहारा दें तो बड़ी बात होगी। इस बार भारतीय खिलाड़ियों की संख्या बेशक अधिक है लेकिन ब्राजील पहुंचे 70 खिलाड़ी तो हाकी (पुरुष-महिला) और एथलेटिक्स से ही हैं, जहां भारत का एक भी पदक की उम्मीद करना बेमानी सा लगता है। दरअसल हमारी सारी उम्मीदें उन 52 खिलाड़ियों और उन खेलों पर ही टिकी हैं जिन्होंने लंदन में मुल्क का मान बढ़ाया था।
देखा जाए तो भारत में खेलों को लेकर हमेशा विधवा विलाप ही हुआ है। खेल अभी भी हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं हैं लिहाजा हमेशा ऊहापोह की स्थिति बनी रहती है। दरअसल, खेलों में बदलाव की शक्ति होती है, प्रेरणा देने की शक्ति होती है, लोगों को जोड़ने की शक्ति होती है। खेल हर उस सिक्के की तरह है जिसके दो पहलू होते हैं। अफसोस जहां आज दुनिया ऊपर चढ़ने के लिए स्वचालित सीढ़ियों का सहारा ले रही है वहीं हम आज भी सीढ़ियों का ही इस्तेमाल कर रहे हैं। साल 1996 से 2004 तक के ओलम्पिक की बात करें तो एक समय हमारे पास सिर्फ एक पदक था। उसके बाद ये बढ़कर तीन हुए और अब ये दोगुना होकर छह तक जा पहुंचे हैं लेकिन यदि इस प्रदर्शन को सवा अरब की जनसंख्या को ध्यान में रखकर सोचें तो लंदन में जीते छह पदकों को भी नगण्य ही कहा जाएगा। इसका मतलब तो यही हुआ कि भारत में हर बीस करोड़ की आबादी में सिर्फ एक ही पदकवीर है। हमें यह कहने में जरा भी गुरेज नहीं कि भारत एक खिलाड़ी देश नहीं, एक ऐसा देश है जिसे अभी ओलम्पिक पदकों से कहीं ज्यादा शिक्षा, स्वास्थ्य और आधारभूत संरचना की जरूरत है। खिलाड़ी तभी बेहतर कर पाएंगे जब हम उन पर और अधिक पैसा खर्च कर सकेंगे।
बीते ओलम्पिक की ही तरह इस बार भी भारत तीरंदाजी, मुक्केबाजी, निशानेबाजी, बैडमिंटन, टेनिस और कुश्ती में पदकों का दावेदार है। सच्चाई तो यह है कि बीजिंग ओलम्पिक ने भारतीय खिलाड़ियों के सपनों को जो पंख दिए थे वे लंदन में फड़फड़ा चुके हैं। बीजिंग में निशानेबाज अभिनव बिंद्रा के स्वर्ण, सुशील कुमार और मुक्केबाज विजेंदर सिंह के कांस्य पदक ने नई उम्मीदें जगाते हुए अतीत की नाकामियों की कसक काफी हद तक कम कर दी थी। लंदन के रजत पदक विजेता पहलवान सुशील कुमार और कांस्य पदक विजेता एमसी मैरीकाम जहां रियो नहीं जा सके हैं वहीं नई उड़ान भरने को तैयार खिलाड़ियों के हालिया प्रदर्शन को देखते हुए नहीं लगता कि वे भारतीय उम्मीदों पर खरा उतरेंगे। भारतीय खिलाड़ियों ने रियो ओलम्पिक की तैयारी काफी पहले शुरू कर दी थी और अधिकांश खिलाड़ियों ने लगातार गैर मुल्कों में रहकर कड़ी मशक्कत भी की है। हमारे खिलाड़ियों को सरकार और निजी स्रोतों से मिली सहायता के कारण आधुनिक सुविधाएं और विदेशों में अभ्यास मयस्सर हो सका लिहाजा खिलाड़ी कमजोर प्रदर्शन के लिए सरकार पर तोहमत नहीं लगा सकते।
रियो में भारत की नुमाइंदगी करने वाला यह सर्वश्रेष्ठ दल है। ओलम्पिक खेलों की जहां तक बात है कुछ साल पहले तक हमारे खिलाड़ी बैरंग लौटने के लिए बदनाम होते रहे हैं। इन खेलों में भारत ने सुनहरा अतीत भी देखा है, जब हॉकी टीम ने उसे आठ स्वर्ण पदक दिलाए जोकि आज भी ओलम्पिक खेलों का कीर्तिमान है। व्यक्तिगत स्तर पर भारत को अभिनव बिन्द्रा, गगन नारंग, सुशील कुमार, योगेश्वर दत्त, मैरीकाम, विजेन्दर सिंह, साइना नेहवाल के अलावा के.डी. जाधव (हेलसिंकी-1952-कुश्ती) लिएंडर पेस (अटलांटा-1996-टेनिस) कर्णम मल्लेश्वरी (सिडनी-2000-भारोत्तोलन) ने पदक दिलवाए तो निशानेबाज राज्यवर्धन सिंह राठौड़ ने एथेंस ओलम्पिक 2004 में रजत पदक जीता था। लिएंडर पेस का यह रिकॉर्ड सातवां ओलम्पिक है और वह अपने आखिरी ओलम्पिक में एक और पदक जीतने को बेकरार हैं। लिएंडर पेस रोहन बोपन्ना के साथ युगल में भारत को पदक दिला दें तो बड़ी बात नहीं होगी।
देखा जाए तो खेलों में एथलेटिक्स और तैराकी ही वह विधाएं हैं जिनमें सर्वाधिक पदक दांव पर होते हैं। अफसोस इन दोनों ही विधाओं पर हमारे देश में कभी भी संजीदगी से प्रयास नहीं हुए। कहने को रियो ओलम्पिक में भारतीय एथलीटों का 38 सदस्यीय दल 116 साल का पदक सूखा समाप्त करने के इरादे से पहुंचा है लेकिन यह एक मुश्किल चुनौती है। यद्यपि इस बार हमारे कई एथलीट राष्ट्रीय रिकार्ड तोड़कर ओलम्पिक गांव पहुंचे हैं लेकिन रियो में वे चमत्कार कर पाएंगे इसको लेकर संशय बरकरार है। रियो ओलम्पिक में एथलेटिक्स के मुकाबले 12 से 21 अगस्त तक होंगे। भारत ने अपने ओलम्पिक इतिहास में एथलेटिक्स में सिर्फ दो रजत पदक जीते हैं। ये दोनों पदक एंग्लो इंडियन एथलीट नार्मन प्रिचार्ड ने 1900 के पेरिस ओलम्पिक में पुरुषों की 200 मीटर दौड़ और 200 मीटर बाधा दौड़ में दिलाये थे। उसके बाद से भारत को एथलेटिक्स में अपने पहले पदक की तलाश है। भारतीय एथलेटिक्स दल में 20 पुरुष और 18 महिलाएं शामिल हैं। 800 मीटर दौड़ में पीटी ऊषा की शिष्या टिंटू लूका, 3000 मीटर स्टीपलचेज में सुधा सिंह और ललिता बाबर, 400 मीटर दौड़ में मोहम्मद अनस, 200 मीटर दौड़ में धर्मवीर सिंह और लम्बी कूद में अंकित शर्मा से अच्छे प्रदर्शन की तो उम्मीद है लेकिन इन खिलाड़ियों को पदक जीतने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाना होगा।
ओलम्पिक खेलों की एथलेटिक्स स्पर्धाओं में भारत के सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन की जहां तक बात है उड़न सिख मिल्खा सिंह 1960 के रोम ओलम्पिक की 400 मीटर दौड़ तो उड़नपरी पीटी ऊषा 1984 के लॉस एंजिल्स ओलम्पिक में 400 मीटर बाधा दौड़ में चौथे स्थान पर रहे थे। इसके अलावा लांग जम्पर अंजू बॉबी जार्ज 2004 के एथेंस ओलम्पिक और डिस्कस थ्रोअर विकास गौड़ा, कृष्णा पूनिया 2012 के लंदन ओलम्पिक में अपनी-अपनी स्पर्धाओं के फाइनल तक पहुंचे थे। एथलेटिक्स में भारत के भारी-भरकम दल में सबसे ज्यादा उम्मीदें पुरुष डिस्कस थ्रोअर विकास गौड़ा पर ही हैं लेकिन उनके कंधे में चोट है। विकास लंदन ओलम्पिक के फाइनल में आठवें स्थान पर रहे थे। विकास 2014 के ग्लास्गो राष्ट्रमंडल खेलों के स्वर्ण विजेता और उसी वर्ष इंचियोन एशियाई खेलों के रजत पदक विजेता हैं। विकास के अलावा 100 मीटर दौड़ में महिला एथलीट दुती चंद पर भी सभी की निगाहें हैं जो 1980 में पीटी ऊषा के बाद 100 मीटर दौड़ में ओलम्पिक में उतरने वाली पहली भारतीय एथलीट हैं। पुरुष 4 गुणा 400 मीटर रिले टीम ने इस साल दूसरा सबसे तेज समय तो निकाला है लेकिन ओलम्पिक में पदक जीतने के लिए यह प्रदर्शन नाकाफी है।
रियो में भारत की ओर से 52 साल बाद ओलम्पिक खेलों के लिये क्वालीफाई करने वाली पहली और एकमात्र महिला कलात्मक जिम्नास्ट दीपा करमाकर करिश्मा कर सकती है। दीपा ने अप्रैल में ओलम्पिक के लिये क्वालीफाई किया था। वह इन खेलों का टिकट पाने वाली देश की पहली महिला जिम्नास्ट हैं तो वर्ष 1964 के बाद वह पहली भारतीय भी हैं, जिसने जिम्नास्टिक में ओलम्पिक के लिये क्वालीफाई किया है। देश की आजादी के बाद से 11 भारतीय पुरुष जिम्नास्ट ओलम्पिक में शिरकत कर चुके हैं जिसमें से दो ने 1952, तीन ने 1956 और छह ने 1964 में भाग लिया था। दीपा की जहां तक बात है वह तमाम विषम परिस्थितियों के बावजूद राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में अब तक 77 पदक जीत चुकी है, जिसमें 67 स्वर्ण पदक शामिल हैं। दीपा ने वर्ष 2014 के ग्लास्गो राष्ट्रमण्डल खेलों में देश को कांस्य पदक दिलाया था। दीपा का सफर काफी कांटों भरा रहा है। एक समय ऐसा भी था जब चपटे पैर के कारण उन्हें इस खेल का हिस्सा नहीं बनाया जा रहा था लेकिन उसने अपने दृढ़ संकल्प से ओलम्पिक तक का सफर तय किया।
भारतीय मुक्केबाजों की जहां तक बात है रियो ओलम्पिक के रिंग में शिवा थापा (56 किलोग्राम) मनोज कुमार (64 किलोग्राम) और विकास कृष्णन (75 किलोग्राम) ही जौहर दिखाएंगे। लंदन ओलम्पिक में भारत के आठ मुक्केबाज उतरे थे जिनमें मैरीकाम ने कांस्य पदक दिलाया था। इस बार भारत की कोई बेटी क्वालीफाई नहीं कर सकी है। रियो में 24 वर्षीय विकास कृष्णन से हम पदक की उम्मीद कर सकते हैं। लंदन ओलम्पिक में विकास कृष्णन 69 किलोग्राम भारवर्ग में अमेरिका के एरोल स्पेंस के खिलाफ बाउट जीतने के बाद भी टेक्निकल जजों की समीक्षा में असफल घोषित कर दिए गये थे, वह रियो में पदक जीतकर उस विफलता को दूर कर सकते हैं। 116 साल के अपने ओलम्पिक इतिहास में भारत सिर्फ 24 पदक ही जुटा सका है जिसमें हाकी के रिकार्ड 11 पदक शामिल हैं। हाकी में भारत ने रिकार्ड आठ स्वर्ण पदक जीते हैं। भारत ने अंतिम बार 1980 के मास्को ओलम्पिक में हाकी का स्वर्ण पदक जीता था उसके बाद से स्वर्ण की कौन कहे कांसा भी नसीब नहीं हुआ है। लंदन ओलम्पिक में भारतीय हाकी टीम अंतिम पायदान पर थी। इस साल चैम्पियंस ट्राफी हाकी में चांदी का पदक जीतने के बाद श्रीजेश की युवा पलटन से हाकी मुरीदों को पदक की उम्मीद बंधी है लेकिन इसके लिए भारतीय युवा तुर्कों को बड़ी टीमों को पराजय का हलाहल पिलाना होगा। पुरुष हाकी टीम ने जहां 36 साल से ओलम्पिक में कोई तमगा नहीं जीता है वहीं महिला हाकी टीम 36 साल में दूसरी बार ओलम्पिक खेलने पहुंची है। महिला टीम पदक तो दूर की बात अंतिम चार में भी स्थान बना ले तो चमत्कार होगा।
रियो में भारत की उम्मीदें एक बार फिर पहलवानों, शूटरों, शटलरों, तीरंदाजों और मुक्केबाजों पर ही आ टिकी हैं। भारतीय कुश्ती दल में शामिल पहलवान संदीप तोमर को विश्वास है कि इस बार भारत को एक-दो नहीं कुश्ती में आठ पदक मिलेंगे। इसी साल बैंकॉक में हुई एशियन चैम्पियनशिप में गोल्ड मेडल हासिल करने वाले संदीप ने खुद के लिए कहा कि इस बार वह दिग्गज पहलवान सुशील कुमार और योगेश्वर दत्त की सफलता को दोहराना चाहेंगे। फ्रीस्टाइल 75 किलोग्राम भारवर्ग के इस जांबाज की उम्मीदें पूरी हों, यही तो हर भारतवासी चाहता भी है। रियो में भारत के आठ पहलवान दांव-पेच दिखाने गये हैं जिनमें तीन महिला पहलवान शामिल हैं। इस बार कुश्ती में भारत के पांच पुरुष पहलवान संदीप तोमर, योगेश्वर दत्त, नरसिंह यादव फ्रीस्टाइल वर्ग तो रविन्द्र खत्री और हरदीप सिंह ग्रीको रोमन में ताल ठोकेंगे वहीं महिला पहलवान वीनेश फोगाट, साक्षी मलिक और बबिता फोगाट फ्रीस्टाइल वर्ग में दमखम दिखाएंगी। विश्व चैम्पियन वीनेश फोगाट से भारतीय कुश्ती प्रेमी 48 किलोग्राम भारवर्ग में पदक की उम्मीद कर सकते हैं। बैडमिण्टन की जहां तक बात है भारतीय शटलर और लंदन ओलम्पिक की कांस्य पदकधारी साइना नेहवाल यदि अंतिम समय तक फिट रहीं तो पोडियम तक पहुंच सकती हैं। इस बार टेनिस में लिएंडर पेस और रोहन बोपन्ना की जोड़ी युगल तो सानिया मिर्जा रोहन बोपन्ना की मिश्रित युगल जोड़ी इतिहास लिख सकती हैं।
भारतीय शूटरों की जहां तक बात है इस बार भी भारत की सारी उम्मीदें उन्हीं पर टिकी हैं। अभिनव बिन्द्रा, गगन नारंग, क्यानन चेनाई, मानवजीत सिंह संधू, मेराज अहमद खान, प्रकाश नाजप्पा, चैन सिंह, जीतू राय, गुरप्रीत सिंह पुरुषों की निशानेबाजी में कुछ भी कर सकते हैं तो अपूर्वी चंदेला, हिना सिद्धू, अयोनिका पाल में से कौन सटीक निशाने लगाएगी यह देखने की बात होगी। सच कहें तो यदि हमारे शूटरों के निशाने लक्ष्य पर लगे तभी भारत की जय-जयकार होगी वरना हम लंदन के प्रदर्शन तक भी नहीं पहुंच पाएंगे। इस बार निशानेबाजी में अप्रत्याशित परिणाम मिलने की सम्भावना को देखते हुए भी बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती, वजह इस बार संगीत की सुर लहरियों के बीच शूटरों को निशाने साधने होंगे, इससे भारतीय शूटरों का ध्यान जरूर भंग हो सकता है क्योंकि वे इसके अभ्यस्त नहीं हैं। इस बार भारत के तीरंदाज इतिहास लिखने को बेताब हैं। दीपिका कुमारी, बोम्बलया देवी जहां लंदन की नाकामयाबी को पीछे छोड़ना चाहेंगी वहीं पुरुष तीरंदाज भी करिश्मा दिखाने की काबिलियत रखते हैं। भारतीय खिलाड़ी टेबल टेनिस, भारोत्तोलन में भी उतर रहे हैं लेकिन इन खेलों में पदक जीतना दूर की कौड़ी साबित होगा।
                  सात ओलम्पिक खेलने वाला भारत का सपूत लिएंडर पेस

कुछ कर गुजरने का जज्बा और मन में विश्वास हो तो कुछ भी असम्भव नहीं है। भारत के मशहूर और सफल टेनिस खिलाड़ी लिएंडर पेस ने इस बात को एक बार नहीं अनेकों बार साबित किया है। लिएंडर पेस टेनिस जगत ही नहीं सही मायने में असली भारत रत्न हैं। इस खिलाड़ी ने खेल के प्रति अपनी मेहनत, लगन और जुनून से वह मुकाम हासिल किया जोकि सदियों तक असम्भव होगा। लगातार सात ओलम्पिक खेलना किसी अचम्भे से कम नहीं है। भारत के इस श्रेष्ठ टेनिस खिलाड़ी का जन्म कोलकाता में 17 जून, 1973 को हुआ। पेस के माता-पिता दोनों का ही खेल जगत से गहरा ताल्लुक रहा है। उनके पिता वेस पेस अंतरराष्ट्रीय स्तर के हॉकी खिलाड़ी तो उनकी मां जेनिफर पेस एक बास्केटबॉल खिलाड़ी रहीं। लिएंडर का रुझान बचपन में फुटबॉल की तरफ था लेकिन पिता के कहने पर उन्होंने टेनिस खेलना शुरू किया और खेलते-खेलते उनकी दिलचस्पी इस खेल के प्रति बढ़ती ही चली गई। उनके पिता की यह सलाह उनके लिए भाग्यशाली साबित हुई और उन्होंने टेनिस जगत में अपनी एक अलग पहचान बनाई। पेस ने अपनी स्कूली पढ़ाई कोलकाता के ला मार्टिनीयर स्कूल से की। सेंट जेवियर कॉलेज से अपनी स्नातक की पढ़ाई करने के बाद 1985 में पेस ने मद्रास के ब्रिटानिया अमृतराज टेनिस अकादमी में दाखिला लिया। कोच देव ओमेरिया के मार्गदर्शन में पेस ने अपनी टेनिस प्रतिभा को निखारा। टेनिस में अपने प्रोफेशनल करियर की शुरुआत के पहले ही पेस ने खुद को दुनिया का एक होनहार खिलाड़ी साबित कर दिखाया था। पेस ने जूनियर यूएस ओपन और जूनियर विम्बलडन का खिताब जीतकर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया और जूनियर रैंकिंग में नम्बर वन का दर्जा भी हासिल किया। इन शानदार कामयाबियों के बाद पेस ने टेनिस को अपना प्रोफेशन बनाने का निर्णय लिया और 1991 में प्रोफेशनल टेनिस खिलाड़ी के रूप में सामने आए। पेस की खेल प्रतिभा एकल से ज्यादा युगल मुकाबलों में उभर कर सामने आई। पेस युगल और मिश्रित युगल में 18 बार खिताबी जश्न मनाकर मादरेवतन को गौरवान्वित कर चुके हैं। रियो ओलम्पिक में वह रोहन बोपन्ना के साथ मिलकर भी करिश्मा कर सकते हैं। पेस 1996 में अटलांटा में कांस्य पदक जीतकर भारत के ओलम्पिक पदक जीतने वाले दूसरे खिलाड़ी बने थे। इस जीत के बाद लिएंडर पेस ने महेश भूपति के साथ जोड़ी के रूप में अपने करियर को आगे बढ़ाया। पेस-भूपति की जोड़ी भारत के लिए एक बड़ी उपलब्धि साबित हुई। पेस-भूपति ने साथ मिलकर भारत और भारत के बाहर कई महत्वपूर्ण मुकाबलों में जीत हासिल की। लिएंडर पेस को टेनिस में अपने योगदान के लिए 1996 में भारत के गौरवपूर्ण राजीव गांधी खेल रत्न अवॉर्ड और 2001 में पद्मश्री अवॉर्ड से नवाजा गया। पेस भारत के सबसे सफल टेनिस खिलाड़ियों में से एक हैं। अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त यह भारतीय जांबाज आज टेनिस प्रेमी युवाओं का आदर्श है तो मेरे लिहाज से भारत रत्न। काश लिएंडर पेस अपने अंतिम ओलम्पिक को पदक के साथ अलविदा कहे।

लंदन का प्रदर्शन दोहराने की चुनौती



 श्रीप्रकाश शुक्ला
ब्राजील का रियो-डी-जेनेरियो शहर दुनिया के 206 देशों के लगभग 10 हजार से अधिक खिलाड़ियों के पौरुष का इम्तिहान लेने को तैयार है। इन खेलों के दौरान जहां फर्राटा किंग उसेन बोल्ट से लेकर तरणताल के जादूगर माइकल फेल्प्स तक कई दिग्गज शानदार और जानदार प्रदर्शन कर ओलम्पिक खेलों को अलविदा कहना चाहेंगे वहीं भारत के सामने लंदन का प्रदर्शन दोहराने की दुर्लभ चुनौती होगी। पांच से 21 अगस्त तक होने वाले 31वें ओलम्पिक खेलों के महासमर की रणभेरी बज चुकी है। हर मुल्क वर्षों की तैयारी के बाद अधिक से अधिक पदक जीत लेने के इरादे से ही ओलम्पिक खेलों में उतरा है। भारत के भी 122 सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी विभिन्न स्पर्धाओं में लंदन के प्रदर्शन को पीछे छोड़ देने की तैयारी के साथ ब्राजील पहुंचे हैं। सवा अरब की आबादी वाले भारत के करोड़ों खेलप्रेमियों का दिल भी चाहता कि उसका हर खिलाड़ी गले में पदक लटकाकर ही मादरेवतन वापस लौटे। आना भी चाहिए आखिर यह मुल्क की अस्मिता का सवाल जो है।
खेलों में जहां रिकार्ड बनते और टूटते हैं वहीं कभी-कभी खराब प्रदर्शन पर खेलप्रेमियों के दिल भी टूट जाते हैं। भारत ने हाकी को छोड़कर ओलम्पिक खेलों के महासमर में कभी कोई ऐसा अजूबा नहीं किया जिसे साल दर साल याद किया गया हो। आज लंदन में जीते छह पदक लोगों के जेहन में जरूर हैं। उन्हीं छह पदकों की उम्मीदों का एक बड़ा बोझ हमारे सूरमा खिलाड़ियों पर भी है। हर ओलम्पिक से पहले हम अपने खिलाड़ियों से अपार अपेक्षाएं करते हैं लेकिन वह कभी पूरी होती नहीं दिखीं। लंदन से भारतीय खेलों के एक नए युग का आगाज हुआ। तब हमारे 81 खिलाड़ियों ने 13 स्पर्धाओं में न केवल पदकों की जोर-आजमाइश की थी बल्कि सर्वाधिक छह पदकों के साथ वतन लौटे थे। इस बार भारतीय खेलनहारों और कुछ एजेंसियों के आकलन जहां भारत को 10 से अधिक पदक जीतता बता रहे हैं वहीं मेरी नजर में भारतीय खिलाड़ी लंदन के प्रदर्शन को भी दोहारा दें तो बड़ी बात होगी। इस बार भारतीय खिलाड़ियों की संख्या बेशक अधिक है लेकिन ब्राजील पहुंचे 70 खिलाड़ी तो हाकी (पुरुष-महिला) और एथलेटिक्स से ही हैं, जहां भारत का एक भी पदक की उम्मीद करना बेमानी सा लगता है। दरअसल हमारी सारी उम्मीदें उन 52 खिलाड़ियों और उन खेलों पर ही टिकी हैं जिन्होंने लंदन में मुल्क का मान बढ़ाया था।
देखा जाए तो भारत में खेलों को लेकर हमेशा विधवा विलाप ही हुआ है। खेल अभी भी हमारी संस्कृति का हिस्सा नहीं हैं लिहाजा हमेशा ऊहापोह की स्थिति बनी रहती है। दरअसल, खेलों में बदलाव की शक्ति होती है, प्रेरणा देने की शक्ति होती है, लोगों को जोड़ने की शक्ति होती है। खेल हर उस सिक्के की तरह है जिसके दो पहलू होते हैं। अफसोस जहां आज दुनिया ऊपर चढ़ने के लिए स्वचालित सीढ़ियों का सहारा ले रही है वहीं हम आज भी सीढ़ियों का ही इस्तेमाल कर रहे हैं। साल 1996 से 2004 तक के ओलम्पिक की बात करें तो एक समय हमारे पास सिर्फ एक पदक था। उसके बाद ये बढ़कर तीन हुए और अब ये दोगुना होकर छह तक जा पहुंचे हैं लेकिन यदि इस प्रदर्शन को सवा अरब की जनसंख्या को ध्यान में रखकर सोचें तो लंदन में जीते छह पदकों को भी नगण्य ही कहा जाएगा। इसका मतलब तो यही हुआ कि भारत में हर बीस करोड़ की आबादी में सिर्फ एक ही पदकवीर है। हमें यह कहने में जरा भी गुरेज नहीं कि भारत एक खिलाड़ी देश नहीं, एक ऐसा देश है जिसे अभी ओलम्पिक पदकों से कहीं ज्यादा शिक्षा, स्वास्थ्य और आधारभूत संरचना की जरूरत है। खिलाड़ी तभी बेहतर कर पाएंगे जब हम उन पर और अधिक पैसा खर्च कर सकेंगे।
बीते ओलम्पिक की ही तरह इस बार भी भारत तीरंदाजी, मुक्केबाजी, निशानेबाजी, बैडमिंटन, टेनिस और कुश्ती में पदकों का दावेदार है। सच्चाई तो यह है कि बीजिंग ओलम्पिक ने भारतीय खिलाड़ियों के सपनों को जो पंख दिए थे वे लंदन में फड़फड़ा चुके हैं। बीजिंग में निशानेबाज अभिनव बिंद्रा के स्वर्ण, सुशील कुमार और मुक्केबाज विजेंदर सिंह के कांस्य पदक ने नई उम्मीदें जगाते हुए अतीत की नाकामियों की कसक काफी हद तक कम कर दी थी। लंदन के रजत पदक विजेता पहलवान सुशील कुमार और कांस्य पदक विजेता एमसी मैरीकाम जहां रियो नहीं जा सके हैं वहीं नई उड़ान भरने को तैयार खिलाड़ियों के हालिया प्रदर्शन को देखते हुए नहीं लगता कि वे भारतीय उम्मीदों पर खरा उतरेंगे। भारतीय खिलाड़ियों ने रियो ओलम्पिक की तैयारी काफी पहले शुरू कर दी थी और अधिकांश खिलाड़ियों ने लगातार गैर मुल्कों में रहकर कड़ी मशक्कत भी की है। हमारे खिलाड़ियों को सरकार और निजी स्रोतों से मिली सहायता के कारण आधुनिक सुविधाएं और विदेशों में अभ्यास मयस्सर हो सका लिहाजा खिलाड़ी कमजोर प्रदर्शन के लिए सरकार पर तोहमत नहीं लगा सकते।
रियो में भारत की नुमाइंदगी करने वाला यह सर्वश्रेष्ठ दल है। ओलम्पिक खेलों की जहां तक बात है कुछ साल पहले तक हमारे खिलाड़ी बैरंग लौटने के लिए बदनाम होते रहे हैं। इन खेलों में भारत ने सुनहरा अतीत भी देखा है, जब हॉकी टीम ने उसे आठ स्वर्ण पदक दिलाए जोकि आज भी ओलम्पिक खेलों का कीर्तिमान है। व्यक्तिगत स्तर पर भारत को अभिनव बिन्द्रा, गगन नारंग, सुशील कुमार, योगेश्वर दत्त, मैरीकाम, विजेन्दर सिंह, साइना नेहवाल के अलावा के.डी. जाधव (हेलसिंकी-1952-कुश्ती) लिएंडर पेस (अटलांटा-1996-टेनिस) कर्णम मल्लेश्वरी (सिडनी-2000-भारोत्तोलन) ने पदक दिलवाए तो निशानेबाज राज्यवर्धन सिंह राठौड़ ने एथेंस ओलम्पिक 2004 में रजत पदक जीता था। लिएंडर पेस का यह रिकॉर्ड सातवां ओलम्पिक है और वह अपने आखिरी ओलम्पिक में एक और पदक जीतने को बेकरार हैं। लिएंडर पेस रोहन बोपन्ना के साथ युगल में भारत को पदक दिला दें तो बड़ी बात नहीं होगी।
देखा जाए तो खेलों में एथलेटिक्स और तैराकी ही वह विधाएं हैं जिनमें सर्वाधिक पदक दांव पर होते हैं। अफसोस इन दोनों ही विधाओं पर हमारे देश में कभी भी संजीदगी से प्रयास नहीं हुए। कहने को रियो ओलम्पिक में भारतीय एथलीटों का 38 सदस्यीय दल 116 साल का पदक सूखा समाप्त करने के इरादे से पहुंचा है लेकिन यह एक मुश्किल चुनौती है। यद्यपि इस बार हमारे कई एथलीट राष्ट्रीय रिकार्ड तोड़कर ओलम्पिक गांव पहुंचे हैं लेकिन रियो में वे चमत्कार कर पाएंगे इसको लेकर संशय बरकरार है। रियो ओलम्पिक में एथलेटिक्स के मुकाबले 12 से 21 अगस्त तक होंगे। भारत ने अपने ओलम्पिक इतिहास में एथलेटिक्स में सिर्फ दो रजत पदक जीते हैं। ये दोनों पदक एंग्लो इंडियन एथलीट नार्मन प्रिचार्ड ने 1900 के पेरिस ओलम्पिक में पुरुषों की 200 मीटर दौड़ और 200 मीटर बाधा दौड़ में दिलाये थे। उसके बाद से भारत को एथलेटिक्स में अपने पहले पदक की तलाश है। भारतीय एथलेटिक्स दल में 20 पुरुष और 18 महिलाएं शामिल हैं। 800 मीटर दौड़ में पीटी ऊषा की शिष्या टिंटू लूका, 3000 मीटर स्टीपलचेज में सुधा सिंह और ललिता बाबर, 400 मीटर दौड़ में मोहम्मद अनस, 200 मीटर दौड़ में धर्मवीर सिंह और लम्बी कूद में अंकित शर्मा से अच्छे प्रदर्शन की तो उम्मीद है लेकिन इन खिलाड़ियों को पदक जीतने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाना होगा।
ओलम्पिक खेलों की एथलेटिक्स स्पर्धाओं में भारत के सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन की जहां तक बात है उड़न सिख मिल्खा सिंह 1960 के रोम ओलम्पिक की 400 मीटर दौड़ तो उड़नपरी पीटी ऊषा 1984 के लॉस एंजिल्स ओलम्पिक में 400 मीटर बाधा दौड़ में चौथे स्थान पर रहे थे। इसके अलावा लांग जम्पर अंजू बॉबी जार्ज 2004 के एथेंस ओलम्पिक और डिस्कस थ्रोअर विकास गौड़ा, कृष्णा पूनिया 2012 के लंदन ओलम्पिक में अपनी-अपनी स्पर्धाओं के फाइनल तक पहुंचे थे। एथलेटिक्स में भारत के भारी-भरकम दल में सबसे ज्यादा उम्मीदें पुरुष डिस्कस थ्रोअर विकास गौड़ा पर ही हैं लेकिन उनके कंधे में चोट है। विकास लंदन ओलम्पिक के फाइनल में आठवें स्थान पर रहे थे। विकास 2014 के ग्लास्गो राष्ट्रमंडल खेलों के स्वर्ण विजेता और उसी वर्ष इंचियोन एशियाई खेलों के रजत पदक विजेता हैं। विकास के अलावा 100 मीटर दौड़ में महिला एथलीट दुती चंद पर भी सभी की निगाहें हैं जो 1980 में पीटी ऊषा के बाद 100 मीटर दौड़ में ओलम्पिक में उतरने वाली पहली भारतीय एथलीट हैं। पुरुष 4 गुणा 400 मीटर रिले टीम ने इस साल दूसरा सबसे तेज समय तो निकाला है लेकिन ओलम्पिक में पदक जीतने के लिए यह प्रदर्शन नाकाफी है।
रियो में भारत की ओर से 52 साल बाद ओलम्पिक खेलों के लिये क्वालीफाई करने वाली पहली और एकमात्र महिला कलात्मक जिम्नास्ट दीपा करमाकर करिश्मा कर सकती है। दीपा ने अप्रैल में ओलम्पिक के लिये क्वालीफाई किया था। वह इन खेलों का टिकट पाने वाली देश की पहली महिला जिम्नास्ट हैं तो वर्ष 1964 के बाद वह पहली भारतीय भी हैं, जिसने जिम्नास्टिक में ओलम्पिक के लिये क्वालीफाई किया है। देश की आजादी के बाद से 11 भारतीय पुरुष जिम्नास्ट ओलम्पिक में शिरकत कर चुके हैं जिसमें से दो ने 1952, तीन ने 1956 और छह ने 1964 में भाग लिया था। दीपा की जहां तक बात है वह तमाम विषम परिस्थितियों के बावजूद राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में अब तक 77 पदक जीत चुकी है, जिसमें 67 स्वर्ण पदक शामिल हैं। दीपा ने वर्ष 2014 के ग्लास्गो राष्ट्रमण्डल खेलों में देश को कांस्य पदक दिलाया था। दीपा का सफर काफी कांटों भरा रहा है। एक समय ऐसा भी था जब चपटे पैर के कारण उन्हें इस खेल का हिस्सा नहीं बनाया जा रहा था लेकिन उसने अपने दृढ़ संकल्प से ओलम्पिक तक का सफर तय किया।
भारतीय मुक्केबाजों की जहां तक बात है रियो ओलम्पिक के रिंग में शिवा थापा (56 किलोग्राम) मनोज कुमार (64 किलोग्राम) और विकास कृष्णन (75 किलोग्राम) ही जौहर दिखाएंगे। लंदन ओलम्पिक में भारत के आठ मुक्केबाज उतरे थे जिनमें मैरीकाम ने कांस्य पदक दिलाया था। इस बार भारत की कोई बेटी क्वालीफाई नहीं कर सकी है। रियो में 24 वर्षीय विकास कृष्णन से हम पदक की उम्मीद कर सकते हैं। लंदन ओलम्पिक में विकास कृष्णन 69 किलोग्राम भारवर्ग में अमेरिका के एरोल स्पेंस के खिलाफ बाउट जीतने के बाद भी टेक्निकल जजों की समीक्षा में असफल घोषित कर दिए गये थे, वह रियो में पदक जीतकर उस विफलता को दूर कर सकते हैं। 116 साल के अपने ओलम्पिक इतिहास में भारत सिर्फ 24 पदक ही जुटा सका है जिसमें हाकी के रिकार्ड 11 पदक शामिल हैं। हाकी में भारत ने रिकार्ड आठ स्वर्ण पदक जीते हैं। भारत ने अंतिम बार 1980 के मास्को ओलम्पिक में हाकी का स्वर्ण पदक जीता था उसके बाद से स्वर्ण की कौन कहे कांसा भी नसीब नहीं हुआ है। लंदन ओलम्पिक में भारतीय हाकी टीम अंतिम पायदान पर थी। इस साल चैम्पियंस ट्राफी हाकी में चांदी का पदक जीतने के बाद श्रीजेश की युवा पलटन से हाकी मुरीदों को पदक की उम्मीद बंधी है लेकिन इसके लिए भारतीय युवा तुर्कों को बड़ी टीमों को पराजय का हलाहल पिलाना होगा। पुरुष हाकी टीम ने जहां 36 साल से ओलम्पिक में कोई तमगा नहीं जीता है वहीं महिला हाकी टीम 36 साल में दूसरी बार ओलम्पिक खेलने पहुंची है। महिला टीम पदक तो दूर की बात अंतिम चार में भी स्थान बना ले तो चमत्कार होगा।
रियो में भारत की उम्मीदें एक बार फिर पहलवानों, शूटरों, शटलरों, तीरंदाजों और मुक्केबाजों पर ही आ टिकी हैं। भारतीय कुश्ती दल में शामिल पहलवान संदीप तोमर को विश्वास है कि इस बार भारत को एक-दो नहीं कुश्ती में आठ पदक मिलेंगे। इसी साल बैंकॉक में हुई एशियन चैम्पियनशिप में गोल्ड मेडल हासिल करने वाले संदीप ने खुद के लिए कहा कि इस बार वह दिग्गज पहलवान सुशील कुमार और योगेश्वर दत्त की सफलता को दोहराना चाहेंगे। फ्रीस्टाइल 75 किलोग्राम भारवर्ग के इस जांबाज की उम्मीदें पूरी हों, यही तो हर भारतवासी चाहता भी है। रियो में भारत के आठ पहलवान दांव-पेच दिखाने गये हैं जिनमें तीन महिला पहलवान शामिल हैं। इस बार कुश्ती में भारत के पांच पुरुष पहलवान संदीप तोमर, योगेश्वर दत्त, नरसिंह यादव फ्रीस्टाइल वर्ग तो रविन्द्र खत्री और हरदीप सिंह ग्रीको रोमन में ताल ठोकेंगे वहीं महिला पहलवान वीनेश फोगाट, साक्षी मलिक और बबिता फोगाट फ्रीस्टाइल वर्ग में दमखम दिखाएंगी। विश्व चैम्पियन वीनेश फोगाट से भारतीय कुश्ती प्रेमी 48 किलोग्राम भारवर्ग में पदक की उम्मीद कर सकते हैं। बैडमिण्टन की जहां तक बात है भारतीय शटलर और लंदन ओलम्पिक की कांस्य पदकधारी साइना नेहवाल यदि अंतिम समय तक फिट रहीं तो पोडियम तक पहुंच सकती हैं। इस बार टेनिस में लिएंडर पेस और रोहन बोपन्ना की जोड़ी युगल तो सानिया मिर्जा रोहन बोपन्ना की मिश्रित युगल जोड़ी इतिहास लिख सकती हैं।
भारतीय शूटरों की जहां तक बात है इस बार भी भारत की सारी उम्मीदें उन्हीं पर टिकी हैं। अभिनव बिन्द्रा, गगन नारंग, क्यानन चेनाई, मानवजीत सिंह संधू, मेराज अहमद खान, प्रकाश नाजप्पा, चैन सिंह, जीतू राय, गुरप्रीत सिंह पुरुषों की निशानेबाजी में कुछ भी कर सकते हैं तो अपूर्वी चंदेला, हिना सिद्धू, अयोनिका पाल में से किसने निशाने सटीक लगेंगे यह देखने की बात होगी। सच कहें तो यदि हमारे शूटरों के निशाने लक्ष्य पर लगे तभी भारत की जय-जयकार होगी वरना हम लंदन के प्रदर्शन तक भी नहीं पहुंच पाएंगे। इस बार निशानेबाजी में अप्रत्याशित परिणाम मिलने की सम्भावना को देखते हुए भी बहुत उम्मीद नहीं की जा सकती, वजह इस बार संगीत की सुर लहरियों के बीच शूटरों को निशाने साधने होंगे, इससे भारतीय शूटरों का ध्यान जरूर भंग हो सकता है क्योंकि वे इसके अभ्यस्त नहीं हैं। इस बार भारत के तीरंदाज इतिहास लिखने को बेताब हैं। दीपिका कुमारी, बोम्बलया देवी जहां लंदन की नाकामयाबी को पीछे छोड़ना चाहेंगी वहीं पुरुष तीरंदाज भी करिश्मा दिखाने की काबिलियत रखते हैं। भारतीय खिलाड़ी टेबल टेनिस, भारोत्तोलन में भी उतर रहे हैं लेकिन इन खेलों में पदक जीतना दूर की कौड़ी साबित होगा।
                 सात ओलम्पिक खेलने वाला भारत का सपूत लिएंडर पेस
कुछ कर गुजरने का जज्बा और मन में विश्वास हो तो कुछ भी असम्भव नहीं है। भारत के मशहूर और सफल टेनिस खिलाड़ी लिएंडर पेस ने इस बात को एक बार नहीं अनेकों बार साबित किया है। लिएंडर पेस टेनिस जगत ही नहीं सही मायने में असली भारत रत्न हैं। इस खिलाड़ी ने खेल के प्रति अपनी मेहनत, लगन और जुनून से वह मुकाम हासिल किया जोकि सदियों तक असम्भव होगा। लगातार सात ओलम्पिक खेलना किसी अचम्भे से कम नहीं है। भारत के इस श्रेष्ठ टेनिस खिलाड़ी का जन्म कोलकाता में 17 जून, 1973 को हुआ। पेस के माता-पिता दोनों का ही खेल जगत से गहरा ताल्लुक रहा है। उनके पिता वेस पेस अंतरराष्ट्रीय स्तर के हॉकी खिलाड़ी तो उनकी मां जेनिफर पेस एक बास्केटबॉल खिलाड़ी रहीं। लिएंडर का रुझान बचपन में फुटबॉल की तरफ था लेकिन पिता के कहने पर उन्होंने टेनिस खेलना शुरू किया और खेलते-खेलते उनकी दिलचस्पी इस खेल के प्रति बढ़ती ही चली गई। उनके पिता की यह सलाह उनके लिए भाग्यशाली साबित हुई और उन्होंने टेनिस जगत में अपनी एक अलग पहचान बनाई।
पेस ने अपनी स्कूली पढ़ाई कोलकाता के ला मार्टिनीयर स्कूल से की। सेंट जेवियर कॉलेज से अपनी स्नातक की पढ़ाई करने के बाद 1985 में पेस ने मद्रास के ब्रिटानिया अमृतराज टेनिस अकादमी में दाखिला लिया। कोच देव ओमेरिया के मार्गदर्शन में पेस ने अपनी टेनिस प्रतिभा को निखारा। टेनिस में अपने प्रोफेशनल करियर की शुरुआत के पहले ही पेस ने खुद को एक होनहार खिलाड़ी साबित कर दिखाया था। उन्होंने जूनियर यूएस ओपन और जूनियर विम्बलडन का खिताब जीतकर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया और जूनियर रैंकिंग में नम्बर वन का दर्जा हासिल किया। इन शानदार कामयाबी के बाद पेस ने टेनिस को अपना प्रोफेशन बनाने का निर्णय लिया और 1991 में एक प्रोफेशनल टेनिस खिलाड़ी के रूप में सामने आए। पेस की खेल प्रतिभा सिंगल से ज्यादा युगल मुकाबलों में उभर कर सामने आई। अब तक पेस युगल और मिश्रित युगल मुकाबलों में कई कीर्तिमान रच चुके हैं। 18 खिताब उनकी मेहनत और लगन का ही सूचक हैं। उन्होंने टेनिस के 18 युगल और मिश्रित युगल खिताबों में जीत दर्ज कर भारत के गौरव को बढ़ाया है। रियो ओलम्पिक में वह रोहन बोपन्ना के साथ मिलकर कोई भी करिश्मा कर सकते हैं। पेस 1996 में अटलांटा ओलम्पिक्स में कांस्य पदक जीतकर भारत के लिए ओलम्पिक पदक जीतने वाले दूसरे खिलाड़ी बने थे। इस जीत के बाद लिएंडर पेस ने महेश भूपति के साथ जोड़ी के रूप में अपने करियर को आगे बढ़ाया। पेस-भूपति की जोड़ी भारत के लिए एक बड़ी उपलब्धि साबित हुई। पेस-भूपति ने साथ मिलकर भारत और भारत के बाहर कई महत्वपूर्ण मुकाबलों में जीत हासिल की। लिएंडर पेस को टेनिस में अपने योगदान के लिए 1996 में भारत के गौरवपूर्ण राजीव गांधी खेल रत्न अवॉर्ड और 2001 में पद्मश्री अवॉर्ड से नवाजा गया। पेस भारत के सफल टेनिस खिलाड़ियों में से एक हैं और टेनिस में अपने इस योगदान के कारण वे टेनिस टीम की कप्तानी की बागडोर भी सम्हाल चुके हैं। टेनिस जगत में अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त यह भारतीय सितारा आज अनेक टेनिस प्रेमी युवाओं का आदर्श है तो मेरे लिहाज से भारत रत्न। पेस के जोश और जुनून से युवाओं को प्रेरणा लेनी चाहिए।