Thursday 30 June 2016

ओलम्पिक खेल और भारत

खिलाड़ियों के सामने लक्ष्य भेदने की चुनौती
एक तरफ रियो ओलम्पिक खेलों की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है तो दूसरी तरफ दावे-प्रतिदावे भी परवान चढ़ने लगे हैं। आधुनिक ओलम्पिक खेलों के आयोजन का यह 31वां पड़ाव है जिसमें दुनिया भर के लगभग 17 हजार खिलाड़ी और अधिकारी शिरकत करेंगे। पहली बार ओलम्पिक खेलों का आगाज सन् 1896 में हुआ था। उसके चार वर्ष बाद सन् 1900 में पेरिस में हुए दूसरे ओलम्पिक खेलों से भारत ने इन खेलों में हिस्सा लेना शुरू किया। 116 साल के अपने ओलम्पिक खेलों के सफर में दुनिया की दूसरी सबसे अधिक आबादी वाले भारत ने सिर्फ 24 पदक ही जीते हैं, जिनमें अकेले पुरुष हाकी के नाम रिकार्ड आठ स्वर्ण सहित 11 पदक शामिल हैं। लोग ब्रिटेन के नार्मन पिचार्ड को भारत की तरफ से पहला पदक जीतने का श्रेय देते हैं। पिचार्ड ने 1900 के पेरिस ओलम्पिक खेलों में दो पदक जीते थे, उन्हें भी भारत के पदक मान लें तो पदकों की संख्या 26 हो जाती है। 1900 के बाद अगले 20 वर्षों तक भारत ने किसी भी ओलम्पिक आयोजन में हिस्सा नहीं लिया। 1920 में चार एथलीटों और दो पहलवानों की टीम ने एंटवर्प खेलों में भाग लिया जिसका सारा खर्चा मुम्बई के उद्योगपति सर दोराबजी टाटा ने वहन किया था। अब स्थितियां बदल गई हैं। भारत सरकार प्रतिवर्ष खिलाड़ियों के नाम पर अरबों रुपये निसार करती है, उसका फायदा खिलाड़ियों को मिलता भी है या नहीं इसकी कोई मुकम्मल व्यवस्था नहीं है। जो भी हो रियो ओलम्पिक भारत की नाक का सवाल हैं। इस बार 12 पदकों का भारतीय लक्ष्य हमारे खिलाड़ियों के पौरुष का कड़ा इम्तिहान साबित होगा। हालांकि इस बार हमारे कई सूरमा खिलाड़ी भारतीय खेलों के कीर्तिमान भंग कर ओलम्पिक खेलने जा रहे हैं लेकिन ब्राजील में भी ऐसा ही हो तो बात बने।
ब्राजील के रियो-डी-जेनेरियो में पांच से 21 अगस्त तक होने वाले खेलों के महासंग्राम में सबसे तेज दौड़ने, सबसे ऊंची और लम्बी छलांग लगाने वाले, सबसे तेज तैराक तथा सबसे अच्छा खेलने वाले खिलाड़ी दुनिया भर के साढ़े 10 हजार खिलाड़ी देश, नस्ल और रंगभेद की सभी दीवारें तोड़कर एक-दूसरे से बाजी मारने की होड़ करेंगे। उल्लास और रोमांच से सनसनाती, सिहरती दुनिया इनका न केवल मुकाबला देखेगी बल्कि अपने आपको तालियां पीटने से भी नहीं रोक सकेगी। 120 साल पहले शुरू हुए आधुनिक ओलम्पिक खेलों के जनक पियरे दि कुबर्तिन का यही सपना था कि दुनिया भर के अलग-अलग देशों के खिलाड़ी एक मंच पर इकट्ठे हों, आपसी मनभेद, तनाव और दूरियों को कुछ दिनों के लिए ही सही भूल जाएं और मानवीय सामर्थ्य तथा गरिमा की नई मिसाल कायम करें। 1896 में एथेंस में नौ राष्ट्रों के खिलाड़ियों के साथ शुरू हुआ यह फलसफा आज दुनिया में खेलों का सबसे बड़ा महाकुम्भ बन चुका है। हालांकि हर चार साल बाद होने वाले इस आयोजन ने भी काफी उतार-चढ़ाव देखे हैं। प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्धों के कारण क्रमश: 1912, 1916 और 1940 व 1944 में ओलम्पिक खेलों के आयोजन ही नहीं हो सके। 1972 के म्यूनिख ओलम्पिक में आतंकवादियों ने ग्यारह इस्रायली खिलाड़ियों की हत्या कर इन खेलों में खलल पैदा की तो 1980 के मास्को ओलम्पिक का अमरीका ने बहिष्कार कर खेलभावना को ठेस पहुंचाई। 1984 के लांस एंजिल्स मुकाबलों में साम्यवादी खेमे ने बाहर रहकर विश्व बंधुत्व की भावना को चोट पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इन आघातों के बावजूद ओलम्पिक खेलों की मूलभावना बची रही। यही है वह खेलभावना जिसके कारण हर देश अपने यहां अगला ओलम्पिक आयोजित करने का दावा प्रस्तुत करने को आतुर रहता है।
प्राचीनकाल में शांति के समय योद्धाओं के बीच प्रतिस्पर्धा के साथ खेलों का विकास हुआ। दौड़, मुक्केबाजी, कुश्ती और रथों की दौड़ सैनिक प्रशिक्षण का हिस्सा हुआ करते थे। इनमें से सबसे बेहतर प्रदर्शन करने वाले योद्धा प्रतिस्पर्धी खेलों में अपना दमखम दिखाते थे। प्राचीन ओलम्पिक खेलों का आयोजन 1200 साल पहले योद्धा-खिलाड़ियों के बीच हुआ था। ओलम्पिक का पहला आधिकारिक आयोजन 776 ईसा पूर्व में जबकि आखिरी आयोजन 394 ईस्वी में हुआ। इसके बाद रोम के सम्राट थियोडोसिस द्वारा इसे मूर्तिपूजा वाला उत्सव करार देकर इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इसके बाद लगभग डेढ़ सौ साल तक इन खेलों को भुला ही दिया गया। हालांकि मध्यकाल में अभिजात्य वर्गों के बीच अलग-अलग तरह की प्रतिस्पर्धाएं होती रहीं लेकिन इन्हें खेल आयोजन का दर्जा नहीं मिल सका। कुल मिलाकर रोम और ग्रीस जैसी प्रभुत्वादी सभ्यताओं के अभाव में इस काल में लोगों के पास खेलों के लिए समय ही नहीं था। 19वीं शताब्दी में यूरोप में सर्वमान्य सभ्यता के विकास के साथ ही पुरातनकाल की इस परम्परा को फिर से जिंदा होने का मौका मिला। इसका श्रेय फ्रांस के अभिजात पुरुष बैरो पियरे दि कुबर्तिन को जाता है। कुबर्तिन ने दो लक्ष्य रखे, एक तो खेलों को अपने देश में लोकप्रिय बनाना और दूसरा, सभी देशों को एक शांतिपूर्ण प्रतिस्पर्धा के लिए एक मुल्क में एकत्रित करना। कुबर्तिन मानते थे कि खेल युद्धों को टालने का सबसे अच्छा माध्यम हो सकते हैं।
कुबर्तिन की इसी परिकल्पना को साकार करने की खातिर वर्ष 1896६ में पहली बार आधुनिक ओलम्पिक खेलों का आयोजन ग्रीस की राजधानी एथेंस में हुआ। शुरुआती दशक में तो ओलम्पिक आंदोलन अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष करता रहा और वर्ष 1900 तथा 1904 में पेरिस तथा सेंट लुई में हुए ओलम्पिक खेलों को जो लोकप्रियता मिलनी चाहिए वह नहीं मिली। देखा जाए तो लंदन में अपने चौथे संस्करण के साथ ओलम्पिक आंदोलन शक्ति सम्पन्न हुआ, इसमें 2000 एथलीटों ने शिरकत कर इसकी कामयाबी को चार चांद लगा दिए। वर्ष 1930 के बर्लिन संस्करण के साथ तो मानो ओलम्पिक आंदोलन में नई जान डल गई तथा सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर जारी प्रतिस्पर्धा के कारण नाजियों ने इसे अपनी श्रेष्ठता साबित करने का माध्यम ही बना दिया। 1950 के दशक में सोवियत-अमेरिका प्रतिस्पर्धा खेलों के मैदान में आने के साथ ही ओलम्पिक की ख्याति चरम पर पहुंच गई। इसके बाद तो खेल कभी भी राजनीति से अलग हुए ही नहीं। खेल केवल राजनीति का विषय ही नहीं रहे, ये राजनीति का अहम हिस्सा भी बन गए। चूंकि सोवियत संघ और अमेरिका जैसी महाशक्तियां कभी खुलेतौर पर एक-दूसरे के साथ युद्ध के मैदान में कभी नहीं भिड़ीं सो उन्होंने ओलम्पिक को अपनी श्रेष्ठता साबित करने का माध्यम बना लिया।
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति जॉन एफ. केनेडी ने एक बार कहा था कि अंतरिक्षयान और ओलम्पिक स्वर्ण पदक ही किसी देश की प्रतिष्ठा का प्रतीक होते हैं। शीतयुद्ध के काल में अंतरिक्षयान और स्वर्ण पदक महाशक्तियों का सबसे बड़ा उद्देश्य बनकर उभरे। बड़े खेल आयोजन इस शांति युद्ध का अंग बन गए और खेल के मैदान युद्धस्थलों में परिवर्तित हो गए। सोवियत संघ ने वर्ष 1968 के मैक्सिको ओलम्पिक में पदकों की होड़ में अमेरिका के हाथों मिली हार का बदला 1972 के म्यूनिख ओलम्पिक में चुकाया। सोवियत संघ की 50वीं वर्षगांठ पर वहां के लोग किसी भी कीमत पर अमेरिका से हारना नहीं चाहते थे। इसी का नतीजा था कि सोवियत एथलीटों ने 50 स्वर्ण पदकों के साथ कुल 99 पदक जीते। यह संख्या अमेरिका द्वारा जीते गए पदकों से एक तिहाई अधिक थी। वर्ष 1980 में अमेरिका और उसके पश्चिम के मित्र राष्ट्रों ने मॉस्को ओलम्पिक में शिरकत करने से इनकार कर दिया तो हिसाब चुकाने के लिए सोवियत संघ ने 1984 के लॉस एंजिल्स ओलम्पिक का बहिष्कार कर दिया। साल 1988 के सियोल ओलम्पिक में सोवियत संघ ने एक बार फिर अपनी श्रेष्ठता साबित की और उसने पदकों का सैकड़ा जमाकर (132 पदक जीते) अमेरिका को बगलें झांकने को विवश कर दिया। रूस को जहां 55 स्वर्ण पदक मिले वहीं अमेरिका 34 स्वर्ण सहित 94 पदक ही जीत सका। अमेरिका पूर्वी जर्मनी के बाद तीसरे स्थान पर रहा। वर्ष 1992 के बार्सिलोना ओलम्पिक में भी सोवियत संघ ने अपना वर्चस्व कायम रखा। हालांकि उस वक्त तक सोवियत संघ का विघटन हो चुका था। उस ओलम्पिक में रूस की संयुक्त टीम ने हिस्सा लिया था और 112 पदक जीते, इसमें 45 स्वर्ण थे। अमेरिका को 37 स्वर्ण के साथ 108 पदक मिले थे। साल 1996 के अटलांटा और 2000 के सिडनी ओलम्पिक में रूस गैर अधिकारिक अंक तालिका में दूसरे स्थान पर रहा तो 2004 के एथेंस ओलम्पिक में उसे तीसरा स्थान मिला। बीजिंग ओलम्पिक 2008 को अब तक का सबसे अच्छा आयोजन करार दिया जा सकता है। पंद्रह दिन तक चले ओलम्पिक खेलों के दौरान चीन ने न सिर्फ़ अपनी शानदार मेजबानी से दुनिया का दिल जीता बल्कि सबसे ज्यादा स्वर्ण पदक जीतकर इतिहास भी रच दिया। पहली बार पदक तालिका में चीन सबसे ऊपर रहा जबकि अमरीका को दूसरे स्थान से ही संतोष करना पड़ा। रूस पर डोपिंग डंक लगने के बाद रियो ओलम्पिक में एक बार फिर चीन और अमेरिकी खिलाड़ियों के बीच श्रेष्ठता की जंग हो सकती है।
इन खेलों में हमारे मुल्क की जहां तक बात है भारत में ओलम्पिक संघ का गठन 1917 में परवान चढ़ सका, जिसके पहले अध्यक्ष सर दोराबजी टाटा थे। लेकिन उसी साल पटियाला के तत्कालीन महाराजा अध्यक्ष बने। 1928 में भारत ने एम्सटर्डम में आयोजित खेलों में भाग लिया और भारत की हाकी टीम ने यहां स्वर्ण पदक जीता। भारत ने हाकी में इतना अच्छा प्रदर्शन किया कि उसे हाकी का बादशाह नाम दिया गया। टीम के कप्तान थे जसपाल सिंह जो बाद में संसद सदस्य भी रहे। 1928 के ओलम्पिक खेलों में भारत ने कई खेलों में अपने खिलाड़ी भेजे जिनमें लम्बीकूद में दिलीप सिंह ने 12 फुट दो इंच की छलांग लगाकर प्रथम स्थान हासिल किया। भारत की ओर से भेजे गये खिलाड़ियों में एथलेटिक्स, मुक्केबाजी, साइकिलिंग, फुटबाल, हाकी, कुश्ती आदि के खिलाड़ी शामिल थे। 1932 और 1936 के ओलम्पिक में भारत ने फिर से हाकी का स्वर्ण तमगा जीत दिखाया। इस बीच द्वितीय विश्व महायुद्ध शुरू हुआ। इस कारण 1940 और फिर 1944 के ओलम्पिक खेलों का आयोजन ही नहीं हो सका। 12 वर्ष के अंतराल के बाद लन्दन में 1948 में पुन: ओलम्पिक खेलों का आयोजन हुआ। इन खेलों में एक बार फिर भारतीय टीम के खिलाड़ियों ने स्वर्ण पदक से अपने गले सजाकर यह साबित किया हाकी में वह दुनिया के बेताज बादशाह हैं। 1952 के हेलसिंकी और फिर 1964 मेलबोर्न ओलम्पिक खेलों में भी भारतीय हाकी टीम स्वर्ण पदक विजेता बनी। 1952 के हेलसिंकी में आयोजित 15वें ओलम्पिक खेलों में भारत ने हाकी के अलावा जिमनास्टिक, फुटबाल, मुक्केबाजी, भारोत्तोलन और तैराकी में भी भाग लिया। इसमें कुश्ती में भारत को के.डी. जाधव ने कांस्य पदक दिलाया। यह किसी भारतीय खिलाड़ी का ओलम्पिक खेलों में पहला व्यक्तिगत पदक था। 1956 में आयोजित 16वें ओलम्पिक में भी भारत ने अनेक प्रतियोगिताओं में भाग लिया। कुश्ती के अलावा हाकी में स्वर्ण पदक जीतने के साथ-साथ फुटबाल में भी भारत ने अच्छा प्रदर्शन किया, लेकिन फुटबाल की निर्णायक प्रतियोगिता में वह युगोस्लाविया से हार गया। अन्य खेलों में उसे कोई विशेष सफलता नहीं मिली। 17वें ओलम्पिक खेल 1960 में रोम में हुए। इसमें भारत हाकी प्रतियोगिता में पहली बार हारा तो दूसरी ओर 25 वर्षीय भारतीय धावक मिल्खा सिंह ने 400 मीटर दौड़ में विश्व कीर्तिमान स्थापित किया। मिल्खा बेशक पदक नहीं जीत सके लेकिन उन्हें उड़न सिख की उपाधि जरूर मिल गई। 1964 के टोकियो ओलम्पिक खेलों में भारत ने हाकी में फिर विजय नाद कर स्वर्ण पदक जीता। इसी ओलम्पिक में गुरुबचन सिंह रंधावा ने 100 मीटर की दौड़ में पांचवां स्थान प्राप्त किया। मैक्सिको में 1968 में आयोजित 19वें ओलम्पिक खेलों में भारत हाकी में भी हार गया। उसके बाद हाकी में जो पराजय का सिलसिला प्रारम्भ हुआ वह चलता ही रहा। 1972 एवं 1976 के क्रमश: 20वें और 21वें ओलम्पिक खेलों में भी भारत को हाकी में हार का ही मुंह देखना पड़ा। 1976 के मांट्रियल ओलम्पिक में भारतीय दल बैरंग लौटा तो 1980 मास्को ओलम्पिक खेलों के 22वें पड़ाव में भारत को 16 साल बाद हाकी का स्वर्ण पदक नसीब हुआ। 1984 के लास एंजिल्स ओलम्पिक खेलों में भारत ने स्वर्ण पदक जीतने की बहुत कोशिश की लेकिन उसे निराश होना पड़ा। हां, उड़नपरी पी.टी. ऊषा ने कमाल का प्रदर्शन कर सबका ध्यान अपनी ओर जरूर खींचा। यहां भारत पहली बार 400 मीटर महिला रिले दौड़ के फाइनल में पहुंचा परन्तु सेकेण्ड के सौवें हिस्से से हमारी चौकड़ी पदक से चूक गई। मास्को में कई देशों के भाग नहीं लेने के कारण हाकी टीम ने स्वर्ण पदक तो जीता लेकिन इसके बाद अगले तीन ओलम्पिक खेलों 1984 लास एंजिल्स, 1988 सियोल और 1992 बार्सिलोना में भारत को एक भी पदक हासिल नहीं हुआ।
वर्ष 1996 के अटलांटा ओलम्पिक में भारतीय टेनिस खिलाड़ी लिएंडर पेस ने टेनिस स्पर्धा में कांस्य पदक जीतकर तीन ओलम्पिक खेलों में पदक के अकाल को जहां खत्म किया वहीं वर्ष 2000 के सिडनी ओलम्पिक में भारत की कर्णम मल्लेश्वरी भारोत्तोलन के 69 किलोग्राम वर्ग में कांस्य पदक जीतने वाली पहली महिला ओलम्पिक पदकधारी बनीं। इसके बाद शूटर राज्यवर्धन सिंह राठौड़ ने वर्ष 2004 एथेंस ओलम्पिक की डबल ट्रैप स्पर्धा में रजत पदक जीतकर भारतीय झोली को खाली रहने से बचा लिया। 2008 बीजिंग ओलम्पिक खेल जहां मेजबान चीन के लिए रिकार्डतोड़ साबित हुए वहीं भारत ने भी ओलम्पिक इतिहास में व्यक्तिगत स्पर्धा में पहली बार कोई स्वर्ण पदक जीता और उसे पहली बार एक साथ तीन पदक भी मिले। भारत के शूटर अभिनव बिन्द्रा ने जहां स्वर्ण पदक से अपना गला सजाया वहीं पहलवान सुशील कुमार और मुक्केबाज विजेन्दर सिंह ने भारत की झोली में दो कांस्य पदक डाले। भारत ने 27 जुलाई से 12 अगस्त, 2012 तक हुए 30वें लंदन ओलम्पिक खेलों की 13 स्पर्धाओं में भाग लेते हुए सर्वाधिक छह पदक अपनी झोली में डाले। इन पदकों में दो रजत एवं चार कांस्य पदक शामिल थे। लंदन ओलम्पिक में सुशील कुमार ने पुरुष फ्रीस्टाइल कुश्ती के 66 किलोग्राम वर्ग का रजत, योगेश्वर दत्त ने पुरुष फ्रीस्टाइल कुश्ती के 60 किलोग्राम वर्ग का कांस्य, गगन नारंग ने 10 मीटर एयर रायफल शूटिंग स्पर्धा में कांस्य, शूटर विजय कुमार ने पुरूषों की 25 मीटर रैपिड फायर पिस्टल स्पर्धा का रजत, तो शटलर  साइना नेहवाल ने महिला बैडमिंटन एकल स्पर्धा का कांस्य और मुक्केबाज एमसी मैरीकॉम ने 51 किग्रालोग्राम वर्ग का कांस्य पदक जीत दिखाया। रियो ओलम्पिक में हमारे खिलाड़ी क्या एथलेटिक्स में पदक जीत पाएंगे यह सबसे बड़ा सवाल है।
अंकित ने बचाई एमपी की लाज
बजरंग बली की कृपा से कजाकिस्तान के अलमाटी में चम्बल की माटी का जिसने भी कमाल देखा होगा उसने दांतों तले उंगली जरूर दबाई होगी। जी हां अंकित शर्मा ने उस दिन एक बार नहीं दो बार (8.17 और 8.19 मीटर) मुल्क के लम्बी कूद के रिकार्ड को भंग कर खेलप्रेमियों से किया अपना वादा पूरा कर दिखाया। अब लम्बी कूद के सारे रिकार्ड पीटरसन के नाम हो गये हैं। अंकित का पहला प्यार क्रिकेट था लेकिन लांगजम्पर पिता हरिनाथ शर्मा और जेवलिन थ्रोवर भाई प्रवेश शर्मा की इच्छा थी कि अंकित एथलेटिक्स में ही हाथ आजमाये। हरिनाथ शर्मा और भाई प्रवेश शर्मा भी अपने समय के लाजवाज एथलीट रहे हैं। अपने साथियों में पीटरसन नाम से मशहूर अंकित सिर्फ लाजवाब खिलाड़ी ही नहीं ईश्वर भक्त भी हैं। वह रियाज करने से पहले अलसुबह सुन्दरकाण्ड का पाठ और तुलसी की माला जपना नहीं भुलते। यह दोनों चीजें अंकित शर्मा  के पास 24 घण्टे रहती हैं। कहते हैं कि सफलता के कई बाप होते हैं। अंकित के रिकार्डतोड़ प्रदर्शन के बाद आज उसके कई प्रशिक्षक हो गये हैं तो हर राज्य इसे अपना खिलाड़ी करार दे रहा है। दरअसल मध्यप्रदेश एथलेटिक्स फेडरेशन में चल रही अहम की लड़ाई के चलते ही यह नौटंकी हो रही है। केरल में हुए राष्ट्रीय खेलों में बेशक अंकित मध्य प्रदेश के लिए खेले हों लेकिन उसके बाद वह हरियाणा से ही खेले। सच्चाई तो यह है कि अंकित भारतीय खेल प्राधिकरण की देन है।  अंकित के इस रिकार्डतोड़ प्रदर्शन से मध्य प्रदेश गौरवान्वित महसूस करे या उत्तर प्रदेश या फिर हरियाणा ओलम्पिक में अंकित किसी राज्य का नहीं बल्कि भारत का प्रतिनिधित्व करने जा रहा है। इस लांगजम्पर पर भारतीय एथलेटिक संघ को भी नाज होगा कि उसका कोई पुरुष जम्पर भी रियो में जम्प लगाएगा। इससे पहले ओलम्पिक की लम्बीकूद स्पर्धा में दिलीप सिंह और अंजू बाबी जार्ज छलांग लगा चुके हैं। लिखने को बहुत कुछ लिखा जा सकता है लेकिन अब खेलप्रेमियों को दुआ करनी चाहिए कि अंकित शर्मा ओलम्पिक की एथलेटिक्स स्पर्धा का पदक जीतकर 116 साल की निराशा को दूर करे।
मेरी मेहनत रंग लाईः दुती चंद
ओलम्पिक में खिलाड़ियों के लिए क्लीफिकेशन प्रणाली लागू होने के बाद देश के लिए फर्राटा दौड़ में हिस्सा लेने जा रही उड़ीसा की फर्राटा धावक दुतीचंद ने कहा कि पिछला साल उसके लिए चुनौतियों से भरा रहा लेकिन आखिरकार उसकी मेहनत रंग लाई और उसने 100 मीटर दौड़ में 11.24 सेकेण्ड का न केवल नया कीर्तिमान बनाया बल्कि 31वें ओलम्पिक के लिए भी क्वालीफाई कर लिया। बीस वर्षीय दुतीचंद ने कजाकिस्तान की प्रतियोगिता में महिलाओं की 100 मीटर दौड़ 11.24 सेकेंड में पूरी की और इस तरह से रियो ओलम्पिक में अपनी जगह पक्की कर ली। दुती एक साल तक अभ्यास या किसी प्रतियोगिता में हिस्सा नहीं ले पाई लेकिन उसने इसका पूरे साहस के साथ सामना किया और स्विट्जरलैंड में खेल पंचाट में प्रतिबंध के खिलाफ अपील की। पिछले साल जुलाई में खेल पंचाट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में आंशिक रूप से उनकी अपील को सही ठहराया और उन्हें अपना करियर फिर से शुरू करने की अनुमति दी। महान पीटी ऊषा ओलम्पिक की 100 मीटर दौड़ में हिस्सा लेने वाली आखिरी भारतीय महिला एथलीट थीं। उन्होंने मास्को ओलम्पिक 1980 में हिस्सा लिया था, लेकिन तब क्वालीफिकेशन प्रणाली नहीं थी। ऊषा से पहले भी तीन भारतीय महिला खिलाड़ी ओलम्पिक की 100 मीटर दौड़ में हिस्सा ले चुकी हैं।
रियो ओलम्पिक में भारतीय हॉकी टीमों को आठ-आठ कोच देने की मांग
चैम्पियंस ट्रॉफी हॉकी टूर्नामेंट में भारतीय टीम के शानदार प्रदर्शन के बाद हॉकी इंडिया के अध्यक्ष ने भारतीय ओलम्पिक संघ के शीर्ष अधिकारियों से महिला और पुरुष दोनों ही टीमों के लिए आठ-आठ कोचिंग और सहयोगी स्टाफ देने की लिखित मांग की है। हॉकी इंडिया के अध्यक्ष नरिंदर बत्रा ने लिखा, हाकी इंडिया का मानना है कि पुरुष और महिला हॉकी टीमों में से प्रत्येक को आठ कोचिंग और सहयोगी स्टाफ (कुल 16 कोचिंग और सहयोगी स्टाफ) की जरूरत है। यह चिट्ठी आईओए के अध्यक्ष एन. रामचंद्रन और महासचिव राजीव मेहता को भेजी गई है। साथ ही बत्रा ने यह भी आगाह किया कि यदि आईओए इस मामले को गम्भीरता से नहीं लेता है तो रियो ओलम्पिक में टीम के प्रदर्शन के लिए उसे जिम्मेदार ठहराया जाएगा। उन्होंने कहा, दि आईओए स्थिति से समझौता करने की नीति अपनाता है तो हॉकी इंडिया मानेगा कि आईओए ने टीमों के ओलम्पिक खेलों के लिए रवाना होने से पहले उन्हें हतोत्साहित करने का फैसला किया है और यदि टीमें अपना बेस्ट परफॉर्मेंस नहीं दिखाती हैं तो फिर आईओए को इसकी नैतिक जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार रहना चाहिए। इसके जवाब में मेहता ने कहा कि सहयोगी स्टाफ के सदस्यों की संख्या क्वालीफाई करने वाले कुल खिलाड़ियों की संख्या का 40 फीसदी से अधिक नहीं हो सकती।






Thursday 23 June 2016

भारतीय हाकी बेटियां दूसरी बार खेलेंगी ओलम्पिक

 आओ जानें किसमें है कितना दम
श्रीप्रकाश शुक्ला
भारतीय हाकी बेटियों ने पहली बार 1980 में ओलम्पिक खेला था। उसी साल मास्को में महिला हाकी को ओलम्पिक में शामिल किया गया था। 36 साल बाद फिर भारतीय बेटियां खेलों के महाकुम्भ में शिरकत करने जा रही हैं। प्रदर्शन की जहां तक बात है भारतीय टीम से पदक की उम्मीद करना बेमानी ही होगा क्योंकि यह क्रिकेट नहीं हाकी है जिसमें अजूबा कभी नहीं होता। भारतीय महिला हाकी टीम 1980 मास्को ओलम्पिक खेलों में चौथे स्थान पर रही थी। अब देखना यह होगा कि भारतीय महिला टीम ने 36 साल में अपने खेल में कितनी तरक्की की है। 1980 में जब मास्को में हुए ओलम्पिक में पहली बार महिला हॉकी को शामिल किया गया तो भारत की महिला हॉकी टीम भी पहली बार इतने बड़ी स्पर्धा में भाग लेने गई थी। भारतीय महिला हॉकी टीम के लिए पहली बार कप्तानी का जिम्मा रूपा सैनी ने निभाया था। भारतीय महिला टीम को मास्को ओलम्पिक में चौथा स्थान मिला था। लगभग 36 साल के अंतराल के बाद भारत की महिला हॉकी टीम ने ओलम्पिक में क्वालीफाई किया है। अब देखना यह है कि हमारी किस बेटी में कितना दम है।
रितु रानी (कप्तान)- भारतीय महिला हॉकी टीम की कप्तान रितु रानी ने महिला हॉकी में कई बार शानदार प्रदर्शन कर दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है। भारत के लिए 200 से ज्यादा अंतरराष्ट्रीय मैच खेलने वाली इस खिलाड़ी का भारतीय महिला हॉकी में गजब का योगदान है। 29 दिसंबर, 1991 को हरियाणा में जन्मी रितु रानी ने अपनी पढ़ाई श्री गुरु नानक देव सीनियर हायर सेकेण्ड्री स्कूल से की और 12 साल की उम्र में ही हाकी थाम ली। रितु रानी ने हॉकी की ट्रेनिंग शाहाबाद मारकंडा के शाहाबाद हॉकी अकादमी में ली। प्रशिक्षक बलदेव सिंह ने इसे जुझारू बनाया तो इसने अपनी प्रतिभा के बूते भारतीय महिला हॉकी टीम में जगह बनाई। 14 साल की उम्र में ही हॉकी की यह दिग्गज खिलाड़ी भारतीय सीनियर टीम में शामिल हो गई, साथ ही 2006 मैड्रिड में हुए वर्ल्ड कप में सबसे यंगेस्ट प्लेयर के रूप में टीम का हिस्सा रही। इसके बाद रितु रानी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और 2009 में रूस में आयोजित चैम्पियन चैलेंजर्स (सेकेण्ड) में भारत के लिए सबसे ज्यादा गोल जमाए। रितु रानी के इस बेहतरीन परफॉर्मेंस का ही कारण था कि भारतीय महिला टीम चैम्पियन चैलेंजर्स का खिताब अपने नाम करने में सफल रही। साल 2011 में रितु रानी भारतीय महिला टीम की कप्तान बनी। रितु रानी के नेतृत्व में भारतीय टीम ने अब तक कई सुखद पड़ाव तय किए हैं। रित ने 2013 में क्वालालम्पुर में हुए एशिया कप में जहां भारत को कांस्य दिलाया वहीं 2014 इंचियोन एशियन गेम्स में भी कांसे का तमगा हासिल कर भारतीय हाकी प्रशंसकों के दिल में जगह बनाई। रितु रानी के करियर में सबसे ऐतिहासिक समय अब आया है। उसकी कप्तानी में भारतीय महिला टीम लगभग 36 साल बाद ओलम्पिक में शामिल हुई है। अब देखना यह है कि भारतीय टोली ओलम्पिक में कैसा खेल दिखाती है।
रानी रामपाल (फारवर्ड खिलाड़ी)- भारतीय महिला हॉकी में रानी रामपाल का अहम योगदान है। लगभग 150 इंटरनेशनल मैचों में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाने वाली इस खिलाड़ी का प्रदर्शन रियो ओलम्पिक के लिए विशेष होगा। चार दिसंबर 1994 को हरियाणा के शाहाबाद मारकंडा में जन्मी इस फारवर्ड हॉकी खिलाड़ी ने 2009 में केवल 14 साल की उम्र में ही सीनियर महिला हॉकी टीम में प्रवेश किया था। भारतीय सीनियर महिला टीम में प्रवेश के बाद रानी रामपाल ने फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। रानी रामपाल ने साल 2009 रूस में आयोजित चैम्पियन चैलेंजर्स के फाइनल में चार गोल दागकर भारत को जीत दिलाने में अहम भूमिका निभाई थी। इस शानदार प्रदर्शन के लिए रानी रामपाल को यंग प्लेयर ऑफ द टूर्नामेंट के खिताब से नवाजा गया। भारत की टीम ने जब 2009 के एशिया कप में सिल्वर मेडल जीता तब भी इस खिलाड़ी का ही परफॉर्मेंस यादगार रहा। इतना ही नहीं 2010 के हॉकी वर्ल्ड कप में रानी रामपाल को यंग प्लेयर ऑफ द टूर्नामेंट का खिताब मिला। हॉकी वर्ल्ड कप में रानी रामपाल ने सात गोल किए थे। रानी के करिश्माई प्रदर्शन का ही कमाल कहेंगे कि भारत को पहली बार वर्ल्ड रैंकिंग में 9वां स्थान मिला जो एक रिकॉर्ड है। वर्तमान में भारतीय महिला हॉकी टीम की रैंकिंग 13 है। 2010 में इंटरनेशनल हॉकी फेडरेशन द्वारा ऑल स्टार टीम ऑफ द ईयर में रानी रामपाल को शामिल किया गया था जो किसी भी हॉकी खिलाड़ी के लिए बड़ी बात होती है। महिला वर्ल्ड कप 2010 में रानी रामपाल को बेस्ट यंग प्लेयर ऑफ द टूर्नामेंट का खिताब दिया गया था। इसके साथ-साथ  इस खिलाड़ी ने जूनियर महिला हॉकी में भी कमाल का खेल दिखाया। रानी रामपाल के शानदार खेल से ही भारतीय टीम को 2013 के जूनियर वर्ल्ड कप में कांस्य पदक मिला और वह प्लेयर ऑफ द टूर्नामेंट बनी। 2014 में रानी रामपाल को फेडरेशन ऑफ इंडियन चैम्बर्स ऑफ इंडस्ट्रीज के तरफ से कमबैक ऑफ द ईयर के पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है।
पूनम रानी मलिक (फारवर्ड खिलाड़ी)- भारतीय महिला हॉकी की स्टार फारवर्ड खिलाड़ी पूनम रानी ने अपने बेहतरीन खेल से कई बार हॉकी प्रेमियों का दिल जीता है। आठ फरवरी, 1993 में हरियाणा के हिसार में जन्मी पूनम रानी मलिक ने 2009 में भारतीय महिला हॉकी टीम में प्रवेश किया। इसके साथ-साथ पूनम रानी मलिक 2009 में यूएसए में हुए एफआईएच जूनियर विश्व कप में भारतीय टीम का हिस्सा रही। 2010 में पूनम रानी मलिक ने जापान, चाइना और न्यूजीलैंड के खिलाफ टेस्ट सीरीज में भारतीय महिला हॉकी टीम के लिए अपना शानदार योगदान दिया। अपने शानदार खेल परफॉर्मेंस की बदौलत ही वह कोरिया में आयोजित एफआईएच महिला वर्ल्ड कप में भारतीय टीम में जगह बनाने में सफल हुई। इसके बाद इस हमलावर ने दिल्ली में हुए कॉमनवेल्थ गेम्स तथा चाइना में हुए एशियन गेम्स में भारतीय टीम का प्रतिनिधित्व किया। यह खिलाड़ी भारत के लिए अब तक डेढ़ सैकड़ा मुकाबले खेल चुकी है। रियो ओलम्पिक में पूनम रानी का खेल भारतीय टीम में नई जान डाल सकता है। यह खिलाड़ी सीनियर ही नहीं भारतीय जूनियर हाकी टीम का भी हिस्सा रही है। साल 2013 में जर्मनी में हुए जूनियर वर्ल्ड कप में भारत को कांस्य पदक दिलाने में इस खिलाड़ी का अहम योगदान रहा। पूनम ने साल 2013 में जापान में हुई थर्ड महिला एशियन चैम्पियन ट्रॉफी में भारत को चांदी का तमगा दिलाने में अप्रतिम योगदान दिया था। सच कहें तो यह खिलाड़ी फिलवक्त भारतीय महिला हॉकी टीम की मजबूत कड़ी में से एक है।
वंदना कटारिया (फारवर्ड खिलाड़ी)- वंदना कटारिया का नाम महिला हॉकी में बेहतरीन फारवर्ड खिलाड़ी के तौर पर लिया जाता है। 15 अप्रैल, 1992 को उत्तर प्रदेश में जन्मी वंदना कटारिया आज भारतीय महिला हॉकी का अहम हिस्सा है। वंदना कटारिया को 2006 में पहली बार जूनियर महिला हॉकी टीम प्रवेश मिला और इसके ठीक चार साल बाद वह सीनियर टीम का हिस्सा बनी। भारत की हर जीत में इस खिलाड़ी का अहम योगदान रहता है। फिलवक्त वंदना भारत की टाप स्कोरर है। इस खिलाड़ी का भी 2013 के जूनियर वर्ल्ड कप में भारत को कांस्य पदक दिलाने में अहम योगदान रहा। जूनियर विश्व कप में वंदना चार मैचों में पांच गोल कर भारत की टाप स्कोरर रही। 2014 में हुए हॉकी वर्ल्ड लीग सेमीफाइनल राउंड दो में वंदना ने भारत के लिए कुल 11 गोल किए थे। वंदना कटारिया को साल 2014 में बेहतरीन परफॉर्मेंस के लिए हॉकी इंडिया की तरफ से प्लेयर ऑफ द ईयर के खिताब से भी नवाजा जा चुका है। वंदना कटारिया की बड़ी बहन रीता कटारिया भी रेलवे की तरफ से हॉकी खेलती थी।
सविता पूनिया (गोपकीपर)- भारतीय महिला टीम में गोलकीपर के रूप में सविता पूनिया ने जो कमाल किया है वह अपने आपमें शानदार है। हॉकी में गोलकीपर की भूमिका बेहद ही अहम होती है। 70 मिनट के खेल में गोलकीपर पर ही हमेशा सबसे ज्यादा दबाव रहता है। सविता पूनिया ने अपने शानदार खेल से कई बार विपक्षी टीमों के सम्भावित गोलों को बचाकर भारतीय टीम को जीत दिलाने में अहम भूमिका निभाई है। 11 जुलाई, 1990 को हरियाणा के जोधकां में जन्मी सविता ने भारतीय टीम में गोलकीपर के तौर पर शामिल होकर नई शक्ति प्रदान की है। सविता अब तक भारतीय टीम के लिए सवा सौ इंटरनेशनल मैच खेल चुकी है। मलेशिया में आयोजित 8-जी महिला एशिया कप हॉकी टूर्नामेंट 2013 में सविता पूनिया ने जबरदस्त परफॉर्मेंस कर टीम में अपनी पुख्ता की। इस टूर्नामेंट में भारतीय टीम ने कांस्य पदक जीता था। सच कहें तो सविता पूनिया ने ही बेल्जियम में हुए ओलम्पिक क्वालीफाइंग मुकाबले में शानदार खेल दिखाकर भारत को टूर्नामेंट के अंत तक पांचवें नम्बर पर पहुंचाने में खास भूमिका निभाई थी। सविता रियो ओलम्पिक में कैसा जौहर दिखाती है, यह तो भविष्य के गर्भ में है लेकिन उम्मीद है कि वह सवा अरब देशवासियों को निराश
नहीं करेगी।


Wednesday 22 June 2016

चीते की रफ्तार को मात देता इंसान


उसेन बोल्ट है धरती का सबसे तेज धावक
अगर कोई आपसे यह पूछे कि चीता और इंसान एक साथ 100 मीटर की रेस लगाए तो विजेता कौन होगा?  तो आपका जवाब शायद चीता होगा, लेकिन जिस तरह इंसान अपनी रफ्तार में इजाफा कर रहा है उससे वह भविष्य में चीते की रफ्तार को भी पीछे छोड़ सकता है।
शायद ही कभी किसी ने सोचा होगा कि 100 मीटर की रेस कोई इंसान 10 सेकेंड से कम में पूरा कर लेगा, लेकिन आज यह मुमकिन है। दुनिया के सबसे तेज धावक जमैका के उसेन बोल्ट ने 100 मीटर की रेस 9.58 सेकेंड में पूरी कर एक नया विश्व रिकॉर्ड बना दिया। बोल्ट की इस रफ्तार ने इंसान की सोच को एक नई उड़ान दी और अब हम दुनिया के सबसे तेज दौड़ने वाले जानवर चीता को हराने की सोच रखने लगे हैं। चीता सबसे तेज दौड़ने वाला जानवर है। उसकी रफ्तार इतनी तेज है कि वह अपने शिकार को चंद मिनट में दौड़ कर पकड़ सकता है। चीता 120 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार तक पहुंच सकता है, लेकिन आपको बता दें कि भविष्य में यह मुमकिन है कि छोटी दूरी में इंसान चीते को हरा दे।  शायद ये बातें आपको सुनने में अजीब लग रही हों, लेकिन यह सम्भव हो सकता है।
इंसान अपनी रफ्तार में दिन-ब-दिन सुधार करता जा रहा है और अब इंसान और चीते की रफ्तार में फासला काफी कम रह गया है। अगर 100 मीटर की रेस में चीता और बोल्ट साथ दौड़ें तो बोल्ट पिछड़ जाएंगे, लेकिन अगर बोल्ट की दौड़ शुरू करने के 3.75 सेकंड बाद चीता दौड़ना शुरू करे तो बोल्ट उसे हरा देंगे। 100 मीटर की रेस बोल्ट 9.58 सेकेंड में जबकि चीता 5.95 सेकेंड में पूरी करेगा। अतीत पर नजर डालें तो इंसान जब से धरती में आया तभी से लगातार रहन-सहन में बदलाव हो रहा है। चीते की रफ्तार पहले भी वही थी जो आज है, लेकिन इंसान ने अपनी रफ्तार में काफी सुधार किया है। 120 किलोमीटर प्रति घंटे से दौड़ने वाले चीते में आंतरिक बल की कमी होती है। कुछ मीटर दौड़ने के बाद हिरन के करीब नहीं पहुंच पाता है तो वह उसे छोड़ देता है। चीतों की रफ्तार पर वैज्ञानिकों ने ढेर सारे शोध किए हैं। जापान के शोधकर्ताओं ने चीते की मांसपेशियों के तंतु यानी फाइबर की मैपिंग कर ली है जिससे उसकी रिकॉर्ड रफ्तार का राज पता चल गया है।
घरेलू बिल्ली और कुत्ते से चीते की मांसपेशियों की तुलना करने पर वैज्ञानिकों को पता चला कि चीते को रफ्तार देने वाली विशेष शक्ति पिछले हिस्से की मांसपेशियों से मिलती है। वैज्ञानिकों का कहना है कि चीते में रफ्तार इनके पैरों से ही आती है। ये ठीक ऐसे ही है जैसे रीयर व्हील ड्राइव कार में काम करती है।
दुनिया के तमाम एथलीटों ने आज विज्ञान की मदद से अपनी रफ्तार में काफी सुधार किए है। आलम ये है कि उसेन बोल्ट का विश्व रिकॉर्ड कब टूट जाए और नया रिकॉर्ड बन जाए यह कोई नहीं कह सकता।  इंसान अपनी आंतरिक शक्ति का सही इस्तेमाल कर रहा है जबकि चीते की दौड़ने की ताकत पहले जैसे ही है। 100 मीटर की रेस में लगातार रिकार्डों के टूटने का क्रम जारी है।  1891 में अमेरिका के लुथर केरी ने 10.8 सेकेंड में 100 मीटर की रेस पूरी की थी। 1906 में स्वीडन के कुंट ने 10.6 सेकेंड में 100 मीटर की रेस पूरी कर नया रिकॉर्ड बनाया। 1911 से 1912 तक जर्मन धावकों ने 100 मीटर की रेस 10.5 रिकॉर्ड सेकेंड में पूरी की। 1976 में जमैका के डॉन ने 9.9 सेकेंड में रेस पूरी की।  फिर बोल्ट ने 2009 में इस रिकॉर्ड को 9.58 सेकेंड में हासिल कर इतिहास रच दिया। यानी चीते को 100 मीटर की रेस में हराना आज की तारीख में मुमकिन नहीं है लेकिन जिस तरह से इंसान नए-नए रिकॉर्ड बनाता जा रहा है उससे ये उम्मीद हम जरूर कर सकते हैं कि भविष्य में 100 मीटर की रेस का विजेता चीता नहीं बल्कि इंसान होगा।

Saturday 18 June 2016

खेलों में क्या आप जानते हैं?


चैम्पियंस ट्राफी हाकी में भारत ने कितने पदक जीते? उत्तर- (दो) १९८२ में कांस्य, २०१६ में रजत
एशियाई खेलों का सर्वप्रथम आयोजन कब हुआ था?  उत्तर- चार अप्रैल, १९५१
क्रिकेट का मूल नाम क्या हैं? उत्तर- क्लब़ बाल
क्रिकेट की बाइबिल च्विजडनज् क्या है? उत्तर- वार्षिक पत्रिका
भारतीय धाविका पी.टी. ऊषा का पूरा नाम क्या है? उत्तर- पल्लवुल्लाखंडी थक्केपरमबिला ऊषा
गीत सेठी का सम्बन्ध बिलियर्स्  खेल से है, विश्वनाथ आनन्द का सम्बन्ध किस खेल से है? उत्तर- शतरंज
भारतीय क्रिकेट का च्भीष्म पितामहज् किसे कहा जाता है? उत्तर- सी.के. नायडू
अर्जुन पुरस्कार प्राप्त करने वाले प्रथम एथलीट ( महिला-पुरुष ) कौन हैं? उत्तर-  स्टीफी डिसूजा ( १९६३, महिला ), गुरूबचन सिंह रंधावा ( १९६१, पुरुष )
 द्रोणाचार्य पुरस्कार से पुरस्कृत प्रथम प्रशिक्षक कौन हैं? उत्तर-  ओ.एम. नाम्बियार ( १९८५ )
 च्पदमश्रीज् से सम्मानित प्रथम एथलीट कौन हैं? उत्तर-  मिल्खा सिंह ( १९५९ )
किस खिलाड़ी के जन्मदिन ज्२९ अगस्तज् को राष्ट्रीय खेल दिवस के रूप में मनाया जाता है?
उत्तर-  मेजर ध्यानचंद
भारत की सबसे पुरानी फुटबाल स्पर्धा कौन सी है?  उत्तर-  डूरंड कप
भारत की प्रथम महिला क्रिकेट अम्पायर कौन बनीं?  उत्तर- अंजलि राजगोपाल
किरण बेदी ( आई.पी.एस. ) ने वर्ष १९७२ में लान टेनिस का कौन सा खिताब जीता था?
उत्तर-  एशियाई खिताब
 च्पोलोज् खेलते समय किस बादशाह की मृत्यु हो गई थी? उत्तर- कुतुबुद्दीन ऐबक
 कौन से मुख्यमंत्री अपने अध्ययनकाल में हाकी एवं एथलेटिक्स के कप्तान रह चुके हैं?
उत्तर-  बीजू पटनायक ( उड़ीसा )
किस क्रिकेटर को च्लिटिल मास्टरज् के नाम से जाना जाता है? उत्तर- सुनील मनोहर गावस्कर
फुटबाल का च्ब्लैक पर्लज् किसे कहा जाता है? उत्तर-  पेले
रोनाल्डो, रिवाल्डो व रोनालिडनो किस देश के फुटबाल खिलाड़ी हैं? उत्तर-  ब्राजील
च्हाकी के जादूगरज् नाम से कौन जाने जाते हैं? उत्तर-  मेजर ध्यानचंद
टेस्ट क्रिकेट में तिहरा शतक बनाने वाले भारत के प्रथम बल्लेबाज कौन हैं?  उत्तर- वीरेन्द्र सहवाग
सायना नेहवाल को किस खेल में लंदन ओलम्पिक ( २०१२ ) में कांस्य पदक मिला? उत्तर-  बैडमिंटन
किस खेल को च्टेनिस का मक्काज् कहा जाता है? उत्तर-  विम्बलडन
विम्बलडन प्रतियोगिता किस कोर्ट पर खेली जाती है? उत्तर- हरी घास के कोर्ट पर
विम्बलडन में खिताब जीतने वाली भारत की पहली महिला कौन हैं?
उत्तर- सानिया मिर्जा ( बालिकाओं का युगल खिताब २००३ में )
प्रथम विश्व कप क्रिकेट कब आयोजित हुआ था? उत्तर- १९७५ में
शतरंज आस्कर पुरस्कार किस रूसी शतरंज पत्रिका द्वारा प्रदान किया जाता है? उत्तर- चैस रिव्यू
इंग्लैंड की पत्रिका च्विजडनज् द्वारा २०वीं शताब्दी का सर्वश्रेष्ठ भारतीय क्रिकेटर किसे घोषित किया गया?
उत्तर- कपिल देव
लंदन ओलम्पिक २०१२ में कुश्ती में सुशील कुमार ने कौन सा पदक जीता? उत्तर- रजत पदक
भारत के प्रथम क्रिकेट कप्तान कौन थे? उत्तर- सी.के. नायडू
 च्मादाम तितलीज् के नाम से कौन सा तैराक जाना जाता है? उत्तर-  मेरी मीघर
लैला अली का सम्बन्ध किस खेल से है? उत्तर-  मुक्केबाजी
ओलमिपक खेलों में सर्वाधिक पदक जीतने का रिकार्ड किसके नाम है?
उत्तर-  माइकल फेल्प्स (अमेरिकी तैराक)
उसेन बोल्ट ( जमैका ) का सम्बन्ध किस खेल से है? उत्तर-  एथलेटिक्स (दौड़)
लियोनेल मैसी किस देश के फुटबाल खिलाड़ी हैं? उत्तर- अर्जेण्टीना

Thursday 16 June 2016

भारतीय खिलाड़ियों के कीर्तिमान

खेलना-कूदना हर जीव का शगल है। इसकी शुरुआत बचपन से ही हो जाती है। खेलों को कोई मनोरंजन के लिए खेलता है तो कोई इसे अपना करियर बना लेता है। हमारे मुल्क के कई जांबाज खिलाड़ियों ने भी भारत में खेल संस्कृति के अभाव के बावजूद खेलों को न केवल अपना करियर बनाया बल्कि अपने पराक्रमी प्रदर्शन से दुनिया में यह पैगाम छोड़ा कि गोया हम भी किसी से कम नहीं हैं। खेलों में कीर्तिमान बनना और टूटना इसका हिस्सा है। भारतीय खिलाड़ियों ने हाकी, क्रिकेट, बिलियर्ड्स, लान टेनिस, बैडमिंटन, शतरंज, कुश्ती जैसे खेलों में जहां अच्छा प्रदर्शन किया वहीं फुटबाल, तैराकी और एथलेटिक्स में हमारा प्रदर्शन कमजोर रहा है। एक समय हाकी में हमारी हुकूमत चलती थी तो आज क्रिकेट में भारतीय खिलाड़ियों का जलवा है। क्रिकेट में हर दिन कोई न कोई रिकॉर्ड बनते और टूटते हैं लेकिन कुछ कीर्तिमान ऐसे हैं जिनका टूटना असम्भव नजर आता है। भारत में क्रिकेट की लोकप्रियता किसी से छिपी नहीं है। यहां क्रिकेट को धर्म और क्रिकेटरों को भगवान का दर्जा प्राप्त है।
क्रिकेट में सचिन तेंदुलकर को कीर्तिमानों का बादशाह कहा जाता है। मास्टर ब्लास्टर सचिन ने अपने 24 साल के अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट सफर में जो कीर्तिमान गढ़े हैं उनमें 15-16 कीर्तिमान तो ऐसे हैं जिन तक पहुंचना असम्भव सा लगता है। क्रिकेट की लोकप्रियता वनडे क्रिकेट के चलन से ही हुई और इस विधा में सचिन सिरमौर हैं। क्रिकेट के इस फार्मेट में पहला शतक इंग्लैण्ड के डेनिस एमिस तो दोहरा शतक बनाने का कीर्तिमान ऑस्ट्रेलियाई महिला खिलाड़ी बेलिंडा क्लार्क के नाम है। पुरुष वनडे क्रिकेट में सबसे पहले 200 रन बनाने वाले बल्लेबाज सचिन तेंदुलकर हैं। सचिन ने 37 साल की उम्र में दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ 2010 में ग्वालियर के कैप्टन रूप सिंह मैदान में 200 रनों की नाबाद पारी खेली थी। सचिन शतकों के शतकवीर हैं तो इनके नाम सबसे अधिक वनडे और टेस्ट मैच खेलने के भी कीर्तिमान दर्ज हैं। वनडे और टेस्ट में सबसे ज्यादा रन बनाने का रिकॉर्ड भी मास्टर ब्लास्टर के ही नाम है। भारत रत्न सचिन के नाम अभी 68 कीर्तिमान दर्ज हैं, इनमें से कुछ तो टूट सकते हैं लेकिन कई कीर्तिमानों ने मानों उन्हें हमेशा के लिए अमर कर दिया है। सचिन के इन कीर्तिमानों में सबसे बड़ा है शतकों का शतक। सचिन के नाम टेस्ट में 51 और वनडे में 49 शतक हैं।
463 एकदिवसीय मुकाबलों में सचिन के नाम सर्वाधिक 96 पचासे दर्ज हैं, जिनका टूट पाना असम्भव नहीं तो मुश्किल जरूर है। सचिन के इस कीर्तिमान के पास पहुंचने वाले कुमार संगकारा, जैक्स कैलिस, राहुल द्रविड़ और इंजमाम उल हक क्रिकेट को अलविदा कह चुके हैं। सचिन का वनडे क्रिकेट में एक कैलेंडर वर्ष में सबसे ज्यादा 1894 रन बनाने तथा सबसे ज्यादा 18426 रनों का रिकॉर्ड टूटना भी फिलहाल नामुमकिन सा लगता है। टेस्ट क्रिकेट में अगर सबसे ज्यादा रन बनाने का रिकॉर्ड सचिन तेंदुलकर के नाम है तो राहुल द्रविड़ टेस्ट क्रिकेट में सबसे ज्यादा गेंद खेलने वाले बल्लेबाज हैं। वनडे क्रिकेट में दो दोहरे शतक दुनिया में सिर्फ एक ही बल्लेबाज के नाम हैं और वे हैं भारत के रोहित शर्मा। रोहित ने ऑस्ट्रेलिया और श्रीलंका के खिलाफ दो बार वनडे क्रिकेट में 200 से ज्यादा रन बनाने का कारनामा अंजाम दिया है। क्रिकेट में हैट्रिक लेना कोई साधारण काम नहीं है लेकिन भारत के इरफान पठान ने टेस्ट मैच के पहले ही ओवर में तीन लगातार गेंदों पर तीन विकेट चटकाकर यह मुकाम हासिल किया था।
भारतीय क्रिकेट को सफलता की नई ऊंचाईयों तक पहुंचाने वाले महेन्द्र सिंह धोनी के कप्तान बतौर रिकॉर्ड पर भी हर भारतीय क्रिकेट प्रशंसक को नाज है। धोनी ने न सिर्फ दो बार भारत को विश्व विजेता बनाया बल्कि वे दुनिया के एकमात्र ऐसे कप्तान हैं जिन्होंने आईसीसी के सभी टूर्नामेंट अपनी कप्तानी में जीते हैं। भारत के स्टार बल्लेबाज युवराज सिंह के नाम टी-20 क्रिकेट में छह लगातार छक्के लगाने का रिकॉर्ड दर्ज है। युवराज ने इंग्लैंड के खिलाफ टी-20 विश्व कप 2007 में स्टुअर्ट ब्रॉड के एक ही ओवर की छह गेंदों पर छह छक्के लगाए थे। भारत के पूर्व कप्तान मोहम्मद अजहरूद्दीन ने अपने टेस्ट करियर की सपनीली शुरुआत की थी। अजहर ने 1984 में इंग्लैंड के खिलाफ अपने पहले तीन टेस्ट मैचों में तीन शतक लगाकर जो अंतरराष्ट्रीय कीर्तिमान स्थापित किया था, वह 32 साल बाद भी यथावत है। भारत के विस्फोटक बल्लेबाज वीरेन्द्र सहवाग के नाम टेस्ट क्रिकेट में सबसे तेज तिहरा शतक बनाने का रिकॉर्ड दर्ज है। सहवाग ने दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ केवल 278 गेंदों पर टेस्ट क्रिकेट का सबसे तेज तिहरा शतक बनाया था। सहवाग भारत के एकमात्र ऐसे बल्लेबाज हैं जिन्होंने दो तिहरे शतक लगाये हैं। टेस्ट क्रिकेट में एक पारी में परफेक्ट टेन का गौरव इंग्लैंड के जिम लेकर और भारतीय फिरकी गेंदबाज अनिल कुम्बले के नाम है। भारत के बाएं हाथ के स्पिनर बापू नादकर्णी को क्रिकेट इतिहास के सबसे कंजूस गेंदबाजों में गिना जाता है। नादकर्णी ने इंग्लैंड के खिलाफ 1963 में लगातार 21 मेडन ओवर डाले थे। उन्होंने अपने इस स्पेल में लगातार 131 डॉट बॉल फेंकी थीं। उन्होंने 32 ओवर में 27 मेडन सहित सिर्फ 5 रन खर्च किये थे।
भारत में शतरंज की बात होते ही सबकी जुबां पर विश्वनाथन आनंद का नाम आ जाता है। आनंद वर्ष 2007 से 2013 तक शतरंज की  दुनिया के बेताज बादशाह रहे। यहाँ तक पहुंचने के लिए उन्होंने कई रूसी महारथियों को मात दी। आनंद की बदौलत ही भारत में शतरंज काफी लोकप्रिय हुआ। आनंद 2007 में पहली दफा विश्व विजेता बनकर उभरे। इसके बाद 2008 से 2010 तक विश्व शतरंज चैम्पियनशिप में आनंद ही आनंद छाये रहे। वह 2012 में चैम्पियन बनते ही इस खेल के शहंशाह बन गये। आनंद का दिमाग कितना तेज है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने 2003 में कम्प्यूटर को भी मात दे दी थी। आनंद की ये उपलब्धियां सचिन तेंदुलकर के 100 शतकों से किसी मायने में कम नहीं हैं। देश के प्रतिभाशाली बिलियर्ड्स खिलाड़ी पंकज आडवाणी और गीत सेठी को भला कौन नहीं जानता। पंकज आडवाणी ने बिलियर्ड्स और स्नूकर में कुल बारह विश्व खिताब जीते हैं। आडवाणी स्नूकर तथा बिलियर्ड्स एमेच्योर दोनों खिताबों पर कब्जा करने वाले विश्व के दूसरे खिलाड़ी हैं। इससे पहले यह कारनामा माल्टा के पॉल मिफ्सुद ने किया था। आडवाणी विश्व के एकमात्र ऐसे खिलाड़ी हैं, जिन्होंने प्वाइंट और टाइम आधार पर खेली जाने वाली विश्व बिलियर्ड्स चैम्पिनयनशिप का खिताब दो बार जीता है। उन्होंने यह उपलब्धि 2005 और 2008 में हासिल की थी। विल्सन जोंस और माइकल फरेरा ने इस खेल में शौकिया खिलाड़ी के तौर पर दुनिया में भारत का मान बढ़ाया तो गीत सेठी ने पेशेवर खिलाड़ी के रूप में धमक जमाई। गीत सेठी पेशेवर स्तर पर छह बार तो शौकिया खिलाड़ी के रूप में तीन बार विश्व विजेता बने। गीत सेठी के नाम स्नूकर में 147 अंक और बिलियर्ड्स में 1276 अंक के ब्रेक का विश्व रिकार्ड है। गीत सेठी 1993, 1995, 1998 और 2006 में भी विश्व विजेता रहे। एशियाई खेलों में बिलियर्ड्स में भारत को पदक दिलाने वाले गीत सेठी पहले खिलाड़ी हैं। सेठी ने 1998 में बैंकाक में हुए एशियाई खेलों में डबल्स में स्वर्ण और सिंगल्स में रजत पदक जीता था। गीत सेठी और पंकज आडवाणी के अलावा भारत में 1920 के दशक में बिलियर्ड्स और स्नूकर की जमीन तैयार करने वाले एमएम बेग ने भी काफी शोहरत बटोरी थी। बेग विश्व प्रतियोगिताओं में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले पहले खिलाड़ी थे। बेग के बाद भारत के ही विल्सन जोंस ने 1958 में कलकत्ता के ग्रेट ईस्टर्न होटल में हुई विश्व एमेच्योर बिलियर्ड्स चैम्पियनशिप जीतकर इस खेल की तरफ लोगों का ध्यान खींचा था। बारह बार राष्ट्रीय चैम्पियन रहे जोंस ने 1964 में न्यूजीलैंड में अपना दूसरा विश्व खिताब जीता था। इस खेल में विल्सन जोंस की शुरुआत को माइकल फरेरा ने मजबूती प्रदान की। बांबे टाइगर के नाम से मशहूर माइकल फरेरा 1960 में पहली बार राष्ट्रीय चैम्पियन बने और 1964 में न्यूजीलैंड में हुई विश्व एमेच्योर बिलियर्ड्स चैम्पियनशिप का खिताब जीता। 1977 में उन्होंने पहली बार विश्व एमेच्योर बिलियर्ड्स चैम्पियनशिप जीती और उसी साल वर्ल्ड ओपन बिलियर्ड्स चैम्पियनशिप के खिताब पर कब्जा जमाया। 1978 में बिलियर्ड्स की राष्ट्रीय प्रतियोगिता में एक हजार अंक पार करते हुए उन्होंने एक ही ब्रेक में 1149 अंक का विश्व रिकार्ड कायम किया। 1981 में दूसरा विश्व खिताब जीतने के बाद फरेरा को पद्मश्री दिया गया लेकिन उन्होंने उसे लेने से मना कर दिया। उनका तर्क था कि क्रिकेटर सुनील गावस्कर की तरह उन्हें भी पद्मभूषण दिया जाना चाहिए। यह सम्मान उन्हें मिला लेकिन 1983 में तीसरा विश्व खिताब जीतने के बाद।
इन खेलों से हटकर बात करें तो भारत ओलम्पिक में एथलेटिक्स का मेडल हासिल करने के लिए 116 साल से इंतजार कर रहा है। भारत ने हाकी में अब तक आठ ओलम्पिक स्वर्ण पदक जीते हैं जोकि एक विश्व कीर्तिमान है। एथलेटिक्स की जहां तक बात है भारतीय खिलाड़ियों ने ओलम्पिक में अब तक बेशक कोई पदक न जीता हो लेकिन फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह और पीटी ऊषा समेत कई ऐसे नाम हैं जिन्होंने दुनिया के खिलाड़ियों को अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। मिल्खा सिंह अपनी गलती से जहां 1960 के रोम ओलम्पिक में 400 मीटर दौड़ का तमगा जीतते-जीतते रह गये वहीं 1984 के लॉस एंजिल्स ओलम्पिक में 400 मीटर हर्डल के सेमीफाइनल में पहले पायदान पर रही पीटी ऊषा फाइनल में सेकेंड के 100वें हिस्से से पदक से चूक गईं। देखा जाए तो फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह और उड़न परी पीटी ऊषा ने ही ट्रैक एण्ड फील्ड में भारत को पहचान दिलाई। मिल्खा के कमरे में टंगी 80 तस्वीरें और 77 अंतरराष्ट्रीय पदक उनकी जांबाजी को खुद-ब-खुद बयां करते हैं। भारतीय ट्रैक एण्ड फील्ड की रानी पीटी ऊषा ने भारतीय महिलाओं को एथलेटिक्स में वही रुतबा दिलाया जो काम मिल्खा सिंह ने पुरुषों के लिए किया। पीटी ऊषा ने दुनिया को बताया कि एथलेटिक्स में भारतीय महिलाएं सिर्फ भाग लेना ही नहीं बल्कि जीतना भी जानती हैं। 1983 से 1989 के बीच पीटी ऊषा ने एथलेटिक्स में 13 गोल्ड जीते। 1985 में एशियाई एथलेटिक्स में पीटी ऊषा ने पांच गोल्ड मेडल जीते तो 1986 के सियोल एशियाड में उसने चार गोल्ड और एक सिल्वर जीतकर फिर तहलका मचा दिया। इन खेलों में वह जितने भी इवेंट में उतरीं सभी में एशियाई रिकॉर्ड बने। 101 अंतरराष्ट्रीय मेडल जीतने के बाद उड़नपरी ने ट्रैक को अलविदा कह दिया। ट्रैक को अलविदा कहने के बाद आज भी ऊषा एक सपने को जी रही हैं। वह देश को ऐसे एथलीट देना चाहती हैं जो न सिर्फ उनसे तेज दौड़ें बल्कि तिरंगे की शान को भी आगे ले जाएं। भारतीय एथलेटिक्स के लिए 1980 का दशक अहम रहा। दिल्ली में 1982 में आयोजित एशियाई खेलों में एमडी वालसम्मा ने महिलाओं की 400 मीटर बाधा दौड़ का स्वर्ण पदक जीता। वालसम्मा कमलजीत संधू के बाद एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाली दूसरी भारतीय महिला हैं। सही मायने में भारतीय महिला एथलीटों की प्रेरणास्रोत वालसम्मा ही हैं। सच कहें तो एथलेटिक्स में लांगजम्पर अंजू बॉबी जॉर्ज का प्रदर्शन किसी भी भारतीय एथलीट से कहीं ऊपर है। पेरिस विश्व चैम्पियनशिप में काँस्य पदक, वर्ल्ड एथलेटिक्स में रजत पदक, कॉमनवेल्थ खेलों में काँस्य पदक, दोहा एशियाई खेलों में स्वर्ण और एथेंस ओलम्पिक में छठा स्थान, ये सब अंजू के ऐसे कारनामे हैं जिन्हें आज तक कोई अन्य भारतीय एथलीट नहीं दोहरा सका।
खेलों की दुनिया में भारतीय खिलाड़ियों ने टेनिस, मुक्केबाजी, निशानेबाजी, बैडमिंटन, कुश्ती, भारोत्तोलन में भी बेहतर प्रदर्शन किया है। टेनिस में सानिया मिर्जा, लिएंडर पेस आज भी अपने दमदार प्रदर्शन से जहां भारत को गौरवान्वित कर रहे हैं वहीं महेश भूपति ने भी इस खेल में काफी शोहरत बटोरी। सानिया मिर्जा महिला युगल और मिश्रित युग में जहां दुनिया की बेजोड़ खिलाड़ी हैं वहीं 43 साल के जांबाज लिएंडर पेस की क्या कहना। एकल में जूनियर विम्बलडन का खिताब जीतने के साथ ही अटलांटा ओलम्पिक में कांस्य पदक जीत चुके टेनिस के इस सदाबहार खिलाड़ी ने युगल और मिश्रित युगल में कुल 18 ग्रैंड स्लैम जीते हैं जोकि एक रिकार्ड है। लिएंडर पेस सातवीं बार रियो ओलम्पिक में उतरने जा रहे हैं जोकि किसी भारतीय खिलाड़ी के लिए एक कीर्तिमान है। पांच बार की विश्व चैम्पियन और तीन बच्चों की मां मैरीकाम दुनिया में भारतीय मुक्केबाजी की पहचान हैं। वह ओलम्पिक का तमगा जीतने वाली पहली भारतीय महिला मुक्केबाज हैं। मुक्केबाजी में ओलम्पिक पदकधारी विजेन्दर सिंह भी अपने दमदार मुक्कों से मादरेवतन को लगातार गौरवान्वित कर रहे हैं। निशानेबाजी में ओलम्पिक स्वर्ण पदकधारी अभिनव बिन्द्रा, राज्यवर्धन सिंह राठौर, गगन नारंग, अंजली भागवत, हिना सिद्धू सहित दर्जनों ऐसे शूटर हैं जिन्होंने अपने अचूक निशानों से दुनिया में मुल्क को कई बार गौरवान्वित किया है। बैडमिंटन में ओलम्पिक पदकधारी साइना नेहवाल भारत की शान हैं। इस शटलर ने चीन की चुनौती को कई मर्तबा ध्वस्त कर यह साबित किया कि भारतीय बेटियां भी किसी से कम नहीं हैं। भारोत्तोलन में ओलम्पिक कांस्य पदक जीतने वाली कर्णम मल्लेश्वरी को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। कुश्ती में केडी जाधव के बाद ओलम्पिक में सुशील कुमार ने भी कमाल का प्रदर्शन किया है। ओलम्पिक में एक कांस्य और एक रजत पदक सहित दो पदक जीतने वाले सुशील कुमार भारत के एकमात्र पहलवान हैं। योगेश्वर दत्त भी ओलम्पिक में कुश्ती का कांस्य पदक जीत चुके हैं। महिला कुश्ती में वीनेश फोगाट न केवल विश्व विजेता बनकर इतिहास रच चुकी हैं बल्कि रियो ओलम्पिक में पदक की प्रमुख दावेदार हैं। इन खेलों से इतर तीरंदाज दीपिका कुमारी से भी रियो ओलम्पिक में भारत पदक की उम्मीद कर सकता है। भारत की यह बेटी तीरंदाजी में विश्व कीर्तिमान की बराबरी के साथ कई मर्तबा अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा चुकी है।
अनुपमा शुक्ला








हाकी का ब्रैडमैन केडी सिंह बाबू


हाकी का ब्रैडमैन मेजर ध्यान चंद और रूप सिंह नहीं केडी सिंह बाबू को कहा जाता है। केडी सिंह बाबू के हॉकी करियर की शुरुआत हुई थी 1938 में, जब दिल्ली में हुए एक टूर्नामेंट में उन्होंने ओलम्पियन मोहम्मद हुसैन को डॉज करके गोल मारा था। दूसरे विश्व युद्ध के बाद बाबू भारतीय हॉकी टीम के सदस्य के रूप में पहले श्रीलंका गए और फिर पूर्वी अफ़्रीका। ध्यान चंद के नेतृत्व में गई इस टीम ने कुल 200 गोल किए जिसमें सर्वाधिक 70 गोल बाबू के थे। 1948 में लंदन ओलम्पिक में भाग लेने वाली भारतीय हॉकी टीम का उन्हें उप कप्तान बनाया गया।
केडी सिंह बाबू के बेटे विश्व विजय सिंह याद करते हैं, देश के विभाजन के बाद जितने गोरे भारतीय टीम के साथ खेलते थे वो अपने अपने देश जा चुके थे। भारत के तीस से पैंतीस फ़ीसदी बेहतरीन खिलाड़ी पाकिस्तान चले गए थे। 1948 का ओलम्पिक भारतीय खिलाड़ियों के लिए बहुत इज़्ज़त की बात थी। मेरे पिता बताया करते थे कि आज़ादी के फ़ौरन बाद लंदन में ओलम्पिक होना और ब्रिटिश शासन से आज़ाद होकर वहाँ की राजधानी में ब्रिटेन को फ़ाइनल में हराना मेरे जीवन और भारत के लिए बहुत बड़ी घटना थी।
1952 में हेलसिंकी ओलम्पिक में बाबू भारतीय हॉकी टीम के कप्तान बनाए गए। उनके नेतृत्व में भारत ने हालैंड को फ़ाइनल में 6-1 से हराकर लगातार पांचवीं बार ओलम्पिक स्वर्ण पदक जीता था। विश्व विजय सिंह कहते हैं, 1952 की भारतीय टीम बहुत मज़बूत टीम थी। जब ये लोग वहाँ पहुंचे तो वहाँ का मौसम बहुत ठंडा था। जब ये लोग स्वर्ण पदक जीतकर लौटे तो पूरी दुनिया में इस बात की चर्चा थी कि बाबू जैसा खिलाड़ी इस दुनिया में न तो देखा गया है और न सुना गया है। अन्तरराष्ट्रीय प्रेस ने उनकी ब्रैडमैन से तुलना करते हुए उन्हें हॉकी का ब्रैडमैन कहा था।
वो बताते हैं, हेलसिंकी में उनके खेल और कप्तानी को देखते हुए लॉस एंजिल्स की हेम्सफ़र्ड फ़ाउंडेशन ने उन्हें हेम्स ट्रॉफ़ी दी थी। इसको एक तरह का खेलों का नोबेल पुरस्कार माना जाता था। हर महाद्वीप के बेहतरीन खिलाड़ी को 15 किलो की चाँदी की एक शील्ड दी जाती थी। हमारे पिता को दी गई वो शील्ड अभी भी हमारे पास है। बाबू को ध्यान चंद के बाद भारत का सर्वश्रेष्ठ हॉकी खिलाड़ी माना जाता है लेकिन दोनों के खेल में ज़मीन आसमान का अंतर था।
बाबू के साथ हॉकी खेल चुके ओलम्पियन रघुबीर सिंह भोला याद करते हैंए दोनों का खेल अलग था. ध्यान चंद अपने पास गेंद रखते ही नहीं थे, केडी सिंह की ख़ूबी ये थी कि वो गेंद से नक्शेबाज़ी करते थे. वो डी फ़ेट करके सामने वाले खिलाड़ी को चकमा देते थे। मैंने देखा है उनके साथ आठ खिलाड़ी एक के पीछे एक खड़े कर दो, वो सबको डॉज करके गेंद अपने पास रखते थे, ये उनकी महानता थी।
वो गेंद पर क़ब्ज़े पर यकीन रखते थे। उस ज़माने में बलबीर सिंह सेंटर फ़ॉरवर्ड होते थे। इनकी आपस में बहुत मजेदार लड़ाइयाँ होती थीं। वे कहते थे, अबे बलबीर तू अपने आपको फ़न्ने ख़ाँ समझता है। मैं तुम्हें पास देता हूँ तभी तुम गोल कर पाते हो। अगर मैं तुम्हें पास न दूँ तो देखता हूँ तुम कैसे गोल कर पाते हो। भोला बताते हैं कि एक बार बाबू भारत के बुज़ुर्ग खिलाड़ियों की तरफ़ से भारतीय महिला टीम के ख़िलाफ़ एक नुमाएशी मैच खेल रहे थे। मुझे याद है एक बार बाबू के पास गेंद आई तो उन्होंने एक के बाद एक लड़की को डॉज करना शुरू किया। मैच देखने आए लोग तालियाँ बजाने लगे कि बाबू में हॉकी का अभी भी स्किल है। वाक़ई हुनर तो था उसमें। लेकिन उस मैच की कप्तानी कर रहे ध्यान चंद ने उनसे कहा कि नक्शेबाज़ी बंद करो।
भोला आगे कहते हैं- कहने का मतलब ये कि चाहे ओलम्पिक मैच हो या नुमाएशी मैच हो, हॉकी अपने पास रखो। इसी मैच में मैंने ध्यानचंद को फ़्लिक से पास दिया जो एक मीटर आगे चला गया। मुझसे दादा कहते हैं भोला तुम्हें ओलम्पिक खिलाड़ी किसने बनाया जबकि मैं दो ओलम्पिक खेल चुका था। मैं ये सिर्फ़ इसलिए बता रहा हूँ कि ध्यान चंद, बाबू और केशव दत्त जैसे खिलाड़ी कितनी परफ़ेक्शन मांगते थे। हालाँकि भारत के पूर्व कप्तान हरबिंदर सिंह ने बाबू के साथ कभी हॉकी नहीं खेली लेकिन उन्होंने उन्हें खेलते हुए ज़रूर देखा है। हरबिंदर बताते हैं, वो राइट इन खेलते थे जो टीम का स्कीमर कहा जाता था। पुराने खिलाड़ी बताते हैं कि जब बलबीर सिंह सेंटर फ़ॉरवर्ड खेलते थे तो वो उन्हें डी में गेंद बनाकर देते थे और कहते थे लो गोल कर लो। ये बताता है कि उनके पास कितनी कलात्मक हॉकी थी।
1972 में म्यूनिख ओलम्पिक के दौरान जब वो हमारे कोच थे, तो उन्हें हॉकी छोड़े हुए कई साल हो गए थे। वो हमें लांग कॉर्नर लेना सिखा रहे थे। मुझे याद है कि जब उन्होंने लांग कॉर्नर रिसीव किया तो टैकेल करने वाला खिलाड़ी उनकी तरफ़ बढ़ा। उन्होंने अपनी स्टिक से गेंद ऊपर उठाई और एक रिस्ट शॉट लगाकर गोल कर दिया। रिटायरमेंट के बाद बाबू पहले इंडियन एयरलाइंस के कोच बने और फिर उन्हें 1972 में म्यूनिख ओलम्पिक जाने वाली भारतीय हॉकी टीम का कोच बनाया गया। उनके बेटे विश्व विजय सिंह बताते हैं, 1972 की ओलम्पिक टीम यहाँ लखनऊ में तीन चार महीने हमारे पिता के पास रही। वो शायद पहले कोच थे तो मैदान में हॉकी सिखाने के साथ-साथ क्लास रूम में भी हॉकी सिखाते थे। वे तरह-तरह के मूव सिखाते थे। उन्होंने बहुत ही बेहतरीन टीम दी थी भारत को लेकिन वो जिन खिलाड़ियों को म्यूनिख ओलम्पिक टीम में रखना चाहते थे, राजनीतिक कारणों से उन्हें इसकी अनुमति नहीं मिली।
वे आगे बताते हैं, जिस शख़्स को वह टीम का कैप्टन बनाना चाहते थे, उन्हें टीम में ही नहीं शामिल किया गया। वो थे रेलवे के बलबीर सिंह जूनियर। उस वजह से हम 1972 ओलम्पिक का सेमीफ़ाइनल हारे। न जाने कहाँ-कहाँ से ग़रीब बच्चों को खोज कर लाते थे और उन्हें स्पोर्ट्स हॉस्टल में रखकर हॉकी सिखाते थे। सैयद अली को जो भारत के लिए खेले, उनको वो नैनीताल से लाए थे जहाँ उनकी दर्ज़ी की दुकान थी। उनको उन्होंने वहाँ किसी लोकल टूर्नामेंट में खेलते हुए देखा था। उनको लखनऊ लाना, ट्रेंड करना और 1976 की मॉन्ट्रियल ओलम्पिक टीम में चुनवाना बड़ी बात थी।
ध्यान चंद के बेटे और दो ओलम्पिक खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व कर चुके अशोक कुमार बाबू को दुनिया का बेहतरीन हॉकी कोच मानते हैं। वे कहते हैं, उनका हॉकी सिखाने का तरीक़ा बहुत ज़बरदस्त था। वो लाउडस्पीकर लेकर हॉकी मैदान में खड़े होते थे। सबसे बड़ी बात जो मुझे याद है कोचिंग के दौरान उनकी माँ का देहांत हो गया। दोपहर के वक्त वे उनका अंतिम संस्कार करने गए और शाम को भारतीय टीम को कोच करने के लिए मैदान पर मौजूद थे। म्यूनिख़ ओलम्पिक के दौरान ही मैक्सिको के ख़िलाफ़ मैच में वे अशोक कुमार से नाराज़ हो गए।
अशोक कुमार याद करते हैं, मैक्सिको के ख़िलाफ़ मैच में हम तीन चार गोल से आगे थे लेकिन टीम अच्छा नहीं खेल रही थी। इंटरवल के दौरान जब टीम इकट्ठा हुई तो उन्होंने मेरी तरफ़ इशारा करके कहा तो मेरे मुंह से निकल गया बाबू साहब मैं टीम में अकेला नहीं खेल रहा हूँ। दूसरे लोग भी खेल रहे हैं और उनकी वजह से भी खेल ख़राब हो रहा है। उन्होंने कहा कि तुम्हारे पिताजी ने मुझसे हॉकी के बारे में बहस नहीं की। तुम मुझसे बहस कर रहे हो। मैं देखूँगा तुम भारत के लिए फिर कभी कैसे खेलते हो।
अशोक कुमार आगे बताते हैंए उनकी बातें मुझे चुभीं। मेरे आँसू निकलने लगे। इंटरवल ख़त्म हो गया। मैं सोचता रहा कि ये बातें उन्होंने क्यों कहीं, इस बीच मैंने मैक्सिको की टीम पर एक गोल किया जिसे बाद में टूर्नामेट का सबसे अच्छा गोल माना गया। जब खेल ख़त्म हुआ तो उन्होंने अपनी जेब से 20 मार्क निकाले और बोले जाओ इससे अपने बाप के लिए एक टाई ख़रीद लो। अपने गुस्से के बाद मुझे मनाने का ये उनका अपना अंदाज़ था जिसे सिर्फ़ बाबू ही कर सकते थे।
सिर्फ़ हॉकी ही नहीं, अन्य खेलों में भी कुंवर दिग्विजय सिंह बाबू का उतना ही दख़ल था। शिकार और मछली पकड़ने के तो वे शौकीन थे ही, क्रिकेट और टेबल टेनिस में भी उन्हें उतनी ही महारत हासिल थी। विश्व विजय सिंह याद करते हैं, लखनऊ में एक क्रिकेट टूर्नामेंट होता था शीशमहल, जिसमें उन्होंने तीन शतक लगाए थे। अक्सर मैं उनको देखता था कि वे शाम को प्रैक्टिस करने वाली स्टेट लेवल की क्रिकेट टीम के साथ हॉकी स्टिक लेकर खड़े होते थे और मुझे आज भी याद है कि स्टेट लेवल के टॉप बॉलर उन्हें बीट नहीं कर पाते थे हॉकी स्टिक से। ऐसा खिलाड़ी इस दुनिया में मिलना बहुत मुश्किल है जो किसी भी खेल टेबल टेनिस, बैडमिंटन या गोल्फ़ में उतना ही पारंगत था।

Wednesday 15 June 2016

भारतीय खिलाड़ियों के कीर्तिमान

खेलना.कूदना हर जीव का शगल है। इसकी शुरुआत बचपन से ही हो जाती है। खेलों को कोई मनोरंजन के लिए खेलता है तो कोई इसे अपना करियर बना लेता है। हमारे मुल्क के कई जांबाज खिलाड़ियों ने भी भारत में खेल संस्कृति के अभाव के बावजूद खेलों को न केवल अपना करियर बनाया बल्कि अपने पराक्रमी प्रदर्शन से दुनिया में यह पैगाम छोड़ा कि गोया हम भी किसी से कम नहीं हैं। खेलों में कीर्तिमान बनना और टूटना इसका हिस्सा है। भारतीय खिलाड़ियों ने हाकीए क्रिकेटए बिलियर्ड्सए लान टेनिसए बैडमिंटनए शतरंजए कुश्ती जैसे खेलों में जहां अच्छा प्रदर्शन किया वहीं फुटबालए तैराकी और एथलेटिक्स में हमारा प्रदर्शन कमजोर रहा है। एक समय हाकी में हमारी हुकूमत चलती थी तो आज क्रिकेट में भारतीय खिलाड़ियों का जलवा है। क्रिकेट में हर दिन कोई न कोई रिकॉर्ड बनते और टूटते हैं लेकिन कुछ कीर्तिमान ऐसे हैं जिनका टूटना असम्भव नजर आता है। भारत में क्रिकेट की लोकप्रियता किसी से छिपी नहीं है। यहां क्रिकेट को धर्म और क्रिकेटरों को भगवान का दर्जा प्राप्त है।
क्रिकेट में सचिन तेंदुलकर को कीर्तिमानों का बादशाह कहा जाता है। मास्टर ब्लास्टर सचिन ने अपने 24 साल के अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट सफर में जो कीर्तिमान गढ़े हैं उनमें 15.16 कीर्तिमान तो ऐसे हैं जिन तक पहुंचना असम्भव सा लगता है। क्रिकेट की लोकप्रियता वनडे क्रिकेट के चलन से ही हुई और इस विधा में सचिन सिरमौर हैं। क्रिकेट के इस फार्मेट में पहला शतक इंग्लैण्ड के डेनिस एमिस तो दोहरा शतक बनाने का कीर्तिमान ऑस्ट्रेलियाई महिला खिलाड़ी बेलिंडा क्लार्क के नाम है। पुरुष वनडे क्रिकेट में सबसे पहले 200 रन बनाने वाले बल्लेबाज सचिन तेंदुलकर हैं। सचिन ने 37 साल की उम्र में दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ 2010 में ग्वालियर के कैप्टन रूप सिंह मैदान में 200 रनों की नाबाद पारी खेली थी। सचिन शतकों के शतकवीर हैं तो इनके नाम सबसे अधिक वनडे और टेस्ट मैच खेलने के भी कीर्तिमान दर्ज हैं। वनडे और टेस्ट में सबसे ज्यादा रन बनाने का रिकॉर्ड भी मास्टर ब्लास्टर के ही नाम है। भारत रत्न सचिन के नाम अभी 68 कीर्तिमान दर्ज हैंए इनमें से कुछ तो टूट सकते हैं लेकिन कई कीर्तिमानों ने मानों उन्हें हमेशा के लिए अमर कर दिया है। सचिन के इन कीर्तिमानों में सबसे बड़ा है शतकों का शतक। सचिन के नाम टेस्ट में 51 और वनडे में 49 शतक हैं।
463 एकदिवसीय मुकाबलों में सचिन के नाम सर्वाधिक 96 पचासे दर्ज हैंए जिनका टूट पाना असम्भव नहीं तो मुश्किल जरूर है। सचिन के इस कीर्तिमान के पास पहुंचने वाले कुमार संगकाराए जैक्स कैलिसए राहुल द्रविड़ और इंजमाम उल हक क्रिकेट को अलविदा कह चुके हैं। सचिन का वनडे क्रिकेट में एक कैलेंडर वर्ष में सबसे ज्यादा 1894 रन बनाने तथा सबसे ज्यादा 18426 रनों का रिकॉर्ड टूटना भी फिलहाल नामुमकिन सा लगता है। टेस्ट क्रिकेट में अगर सबसे ज्यादा रन बनाने का रिकॉर्ड सचिन तेंदुलकर के नाम है तो राहुल द्रविड़ टेस्ट क्रिकेट में सबसे ज्यादा गेंद खेलने वाले बल्लेबाज हैं। वनडे क्रिकेट में दो दोहरे शतक दुनिया में सिर्फ एक ही बल्लेबाज के नाम हैं और वे हैं भारत के रोहित शर्मा। रोहित ने ऑस्ट्रेलिया और श्रीलंका के खिलाफ दो बार वनडे क्रिकेट में 200 से ज्यादा रन बनाने का कारनामा अंजाम दिया है। क्रिकेट में हैट्रिक लेना कोई साधारण काम नहीं है लेकिन भारत के इरफान पठान ने टेस्ट मैच के पहले ही ओवर में तीन लगातार गेंदों पर तीन विकेट चटकाकर यह मुकाम हासिल किया था।
भारतीय क्रिकेट को सफलता की नई ऊंचाईयों तक पहुंचाने वाले महेन्द्र सिंह धोनी के कप्तान बतौर रिकॉर्ड पर भी हर भारतीय क्रिकेट प्रशंसक को नाज है। धोनी ने न सिर्फ दो बार भारत को विश्व विजेता बनाया बल्कि वे दुनिया के एकमात्र ऐसे कप्तान हैं जिन्होंने आईसीसी के सभी टूर्नामेंट अपनी कप्तानी में जीते हैं। भारत के स्टार बल्लेबाज युवराज सिंह के नाम टी.20 क्रिकेट में छह लगातार छक्के लगाने का रिकॉर्ड दर्ज है। युवराज ने इंग्लैंड के खिलाफ टी.20 विश्व कप 2007 में स्टुअर्ट ब्रॉड के एक ही ओवर की छह गेंदों पर छह छक्के लगाए थे। भारत के पूर्व कप्तान मोहम्मद अजहरूद्दीन ने अपने टेस्ट करियर की सपनीली शुरुआत की थी। अजहर ने 1984 में इंग्लैंड के खिलाफ अपने पहले तीन टेस्ट मैचों में तीन शतक लगाकर जो अंतरराष्ट्रीय कीर्तिमान स्थापित किया थाए वह 32 साल बाद भी यथावत है। भारत के विस्फोटक बल्लेबाज वीरेन्द्र सहवाग के नाम टेस्ट क्रिकेट में सबसे तेज तिहरा शतक बनाने का रिकॉर्ड दर्ज है। सहवाग ने दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ केवल 278 गेंदों पर टेस्ट क्रिकेट का सबसे तेज तिहरा शतक बनाया था। सहवाग भारत के एकमात्र ऐसे बल्लेबाज हैं जिन्होंने दो तिहरे शतक लगाये हैं। टेस्ट क्रिकेट में एक पारी में परफेक्ट टेन का गौरव इंग्लैंड के जिम लेकर और भारतीय फिरकी गेंदबाज अनिल कुम्बले के नाम है। भारत के बाएं हाथ के स्पिनर बापू नादकर्णी को क्रिकेट इतिहास के सबसे कंजूस गेंदबाजों में गिना जाता है। नादकर्णी ने इंग्लैंड के खिलाफ 1963 में लगातार 21 मेडन ओवर डाले थे। उन्होंने अपने इस स्पेल में लगातार 131 डॉट बॉल फेंकी थीं। उन्होंने 32 ओवर में 27 मेडन सहित सिर्फ 5 रन खर्च किये थे।
भारत में शतरंज की बात होते ही सबकी जुबां पर विश्वनाथन आनंद का नाम आ जाता है। आनंद वर्ष 2007 से 2013 तक शतरंज की  दुनिया के बेताज बादशाह रहे। यहाँ तक पहुंचने के लिए उन्होंने कई रूसी महारथियों को मात दी। आनंद की बदौलत ही भारत में शतरंज काफी लोकप्रिय हुआ। आनंद 2007 में पहली दफा विश्व विजेता बनकर उभरे। इसके बाद 2008 से 2010 तक विश्व शतरंज चैम्पियनशिप में आनंद ही आनंद छाये रहे। वह 2012 में चैम्पियन बनते ही इस खेल के शहंशाह बन गये। आनंद का दिमाग कितना तेज हैए इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने 2003 में कम्प्यूटर को भी मात दे दी थी। आनंद की ये उपलब्धियां सचिन तेंदुलकर के 100 शतकों से किसी मायने में कम नहीं हैं। देश के प्रतिभाशाली बिलियर्ड्स खिलाड़ी पंकज आडवाणी और गीत सेठी को भला कौन नहीं जानता। पंकज आडवाणी ने बिलियर्ड्स और स्नूकर में कुल बारह विश्व खिताब जीते हैं। आडवाणी स्नूकर तथा बिलियर्ड्स एमेच्योर दोनों खिताबों पर कब्जा करने वाले विश्व के दूसरे खिलाड़ी हैं। इससे पहले यह कारनामा माल्टा के पॉल मिफ्सुद ने किया था। आडवाणी विश्व के एकमात्र ऐसे खिलाड़ी हैंए जिन्होंने प्वाइंट और टाइम आधार पर खेली जाने वाली विश्व बिलियर्ड्स चैम्पिनयनशिप का खिताब दो बार जीता है। उन्होंने यह उपलब्धि 2005 और 2008 में हासिल की थी। विल्सन जोंस और माइकल फरेरा ने इस खेल में शौकिया खिलाड़ी के तौर पर दुनिया में भारत का मान बढ़ाया तो गीत सेठी ने पेशेवर खिलाड़ी के रूप में धमक जमाई। गीत सेठी पेशेवर स्तर पर छह बार तो शौकिया खिलाड़ी के रूप में तीन बार विश्व विजेता बने। गीत सेठी के नाम स्नूकर में 147 अंक और बिलियर्ड्स में 1276 अंक के ब्रेक का विश्व रिकार्ड है। गीत सेठी 1993ए 1995ए 1998 और 2006 में भी विश्व विजेता रहे। एशियाई खेलों में बिलियर्ड्स में भारत को पदक दिलाने वाले गीत सेठी पहले खिलाड़ी हैं। सेठी ने 1998 में बैंकाक में हुए एशियाई खेलों में डबल्स में स्वर्ण और सिंगल्स में रजत पदक जीता था।
गीत सेठी और पंकज आडवाणी के अलावा भारत में 1920 के दशक में बिलियर्ड्स और स्नूकर की जमीन तैयार करने वाले एमएम बेग ने भी काफी शोहरत बटोरी थी। बेग विश्व प्रतियोगिताओं में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले पहले खिलाड़ी थे। बेग के बाद भारत के ही विल्सन जोंस ने 1958 में कलकत्ता के ग्रेट ईस्टर्न होटल में हुई विश्व एमेच्योर बिलियर्ड्स चैम्पियनशिप जीतकर इस खेल की तरफ लोगों का ध्यान खींचा था। बारह बार राष्ट्रीय चैम्पियन रहे जोंस ने 1964 में न्यूजीलैंड में अपना दूसरा विश्व खिताब जीता था। इस खेल में विल्सन जोंस की शुरुआत को माइकल फरेरा ने मजबूती प्रदान की। बांबे टाइगर के नाम से मशहूर माइकल फरेरा 1960 में पहली बार राष्ट्रीय चैम्पियन बने और 1964 में न्यूजीलैंड में हुई विश्व एमेच्योर बिलियर्ड्स चैम्पियनशिप का खिताब जीता। 1977 में उन्होंने पहली बार विश्व एमेच्योर बिलियर्ड्स चैम्पियनशिप जीती और उसी साल वर्ल्ड ओपन बिलियर्ड्स चैम्पियनशिप के खिताब पर कब्जा जमाया। 1978 में बिलियर्ड्स की राष्ट्रीय प्रतियोगिता में एक हजार अंक पार करते हुए उन्होंने एक ही ब्रेक में 1149 अंक का विश्व रिकार्ड कायम किया। 1981 में दूसरा विश्व खिताब जीतने के बाद फरेरा को पद्मश्री दिया गया लेकिन उन्होंने उसे लेने से मना कर दिया। उनका तर्क था कि क्रिकेटर सुनील गावस्कर की तरह उन्हें भी पद्मभूषण दिया जाना चाहिए। यह सम्मान उन्हें मिला लेकिन 1983 में तीसरा विश्व खिताब जीतने के बाद।
इन खेलों से हटकर बात करें तो भारत ओलम्पिक में एथलेटिक्स का मेडल हासिल करने के लिए 116 साल से इंतजार कर रहा है। भारत ने हाकी में अब तक आठ ओलम्पिक स्वर्ण पदक जीते हैं जोकि एक विश्व कीर्तिमान है। एथलेटिक्स की जहां तक बात है भारतीय खिलाड़ियों ने ओलम्पिक में अब तक बेशक कोई पदक न जीता हो लेकिन फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह और पीटी ऊषा समेत कई ऐसे नाम हैं जिन्होंने दुनिया के खिलाड़ियों को अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। मिल्खा सिंह अपनी गलती से जहां 1960 के रोम ओलम्पिक में 400 मीटर दौड़ का तमगा जीतते.जीतते रह गये वहीं 1984 के लॉस एंजिल्स ओलम्पिक में 400 मीटर हर्डल के सेमीफाइनल में पहले पायदान पर रही पीटी ऊषा फाइनल में सेकेंड के 100वें हिस्से से पदक से चूक गईं। देखा जाए तो फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह और उड़न परी पीटी ऊषा ने ही ट्रैक एण्ड फील्ड में भारत को पहचान दिलाई। मिल्खा के कमरे में टंगी 80 तस्वीरें और 77 अंतरराष्ट्रीय पदक उनकी जांबाजी को खुद.ब.खुद बयां करते हैं। भारतीय ट्रैक एण्ड फील्ड की रानी पीटी ऊषा ने भारतीय महिलाओं को एथलेटिक्स में वही रुतबा दिलाया जो काम मिल्खा सिंह ने पुरुषों के लिए किया। पीटी ऊषा ने दुनिया को बताया कि एथलेटिक्स में भारतीय महिलाएं सिर्फ भाग लेना ही नहीं बल्कि जीतना भी जानती हैं। 1983 से 1989 के बीच पीटी ऊषा ने एथलेटिक्स में 13 गोल्ड जीते। 1985 में एशियाई एथलेटिक्स में पीटी ऊषा ने पांच गोल्ड मेडल जीते तो 1986 के सियोल एशियाड में उसने चार गोल्ड और एक सिल्वर जीतकर फिर तहलका मचा दिया। इन खेलों में वह जितने भी इवेंट में उतरीं सभी में एशियाई रिकॉर्ड बने। 101 अंतरराष्ट्रीय मेडल जीतने के बाद उड़नपरी ने ट्रैक को अलविदा कह दिया। ट्रैक को अलविदा कहने के बाद आज भी ऊषा एक सपने को जी रही हैं। वह देश को ऐसे एथलीट देना चाहती हैं जो न सिर्फ उनसे तेज दौड़ें बल्कि तिरंगे की शान को भी आगे ले जाएं। भारतीय एथलेटिक्स के लिए 1980 का दशक अहम रहा। दिल्ली में 1982 में आयोजित एशियाई खेलों में एमडी वालसम्मा ने महिलाओं की 400 मीटर बाधा दौड़ का स्वर्ण पदक जीता। वालसम्मा कमलजीत संधू के बाद एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाली दूसरी भारतीय महिला हैं। सही मायने में भारतीय महिला एथलीटों की प्रेरणास्रोत वालसम्मा ही हैं। सच कहें तो एथलेटिक्स में लांगजम्पर अंजू बॉबी जॉर्ज का प्रदर्शन किसी भी भारतीय एथलीट से कहीं ऊपर है। पेरिस विश्व चैम्पियनशिप में काँस्य पदकए वर्ल्ड एथलेटिक्स में रजत पदकए कॉमनवेल्थ खेलों में काँस्य पदकए दोहा एशियाई खेलों में स्वर्ण और एथेंस ओलम्पिक में छठा स्थानए ये सब अंजू के ऐसे कारनामे हैं जिन्हें आज तक कोई अन्य भारतीय एथलीट नहीं दोहरा सका।
खेलों की दुनिया में भारतीय खिलाड़ियों ने टेनिसए मुक्केबाजीए निशानेबाजीए बैडमिंटनए कुश्तीए भारोत्तोलन में भी बेहतर प्रदर्शन किया है। टेनिस में सानिया मिर्जाए लिएंडर पेस आज भी अपने दमदार प्रदर्शन से जहां भारत को गौरवान्वित कर रहे हैं वहीं महेश भूपति ने भी इस खेल में काफी शोहरत बटोरी। सानिया मिर्जा महिला युगल और मिश्रित युग में जहां दुनिया की बेजोड़ खिलाड़ी हैं वहीं 43 साल के जांबाज लिएंडर पेस की क्या कहना। एकल में जूनियर विम्बलडन का खिताब जीतने के साथ ही अटलांटा ओलम्पिक में कांस्य पदक जीत चुके टेनिस के इस सदाबहार खिलाड़ी ने युगल और मिश्रित युगल में कुल 18 ग्रैंड स्लैम जीते हैं जोकि एक रिकार्ड है। लिएंडर पेस सातवीं बार रियो ओलम्पिक में उतरने जा रहे हैं जोकि किसी खिलाड़ी के लिए एक कीर्तिमान है। तीन बच्चों की मां मैरीकाम दुनिया में भारतीय मुक्केबाजी की पहचान हैं। वह ओलम्पिक का तमगा जीतने वाली पहली भारतीय महिला मुक्केबाज हैं। मुक्केबाजी में ओलम्पिक पदकधारी विजेन्दर सिंह भी अपने दमदार मुक्कों से मादरेवतन को लगातार गौरवान्वित कर रहे हैं। निशानेबाजी में ओलम्पिक स्वर्णपदकधारी अभिनव बिन्द्राए राज्यवर्धन सिंह राठौरए गगन नारंगए अंजली भागवतए हिना सिद्धू सहित दर्जनों ऐसे शूटर हैं जिन्होंने अपने अचूक निशानों से दुनिया में मुल्क को कई बार गौरवान्वित किया है। बैडमिंटन में ओलम्पिक पदकधारी साइना नेहवाल भारत की शान हैं। इस शटलर ने चीन की चुनौती को कई मर्तबा ध्वस्त कर यह साबित किया कि भारतीय बेटियां भी किसी से कम नहीं हैं। भारोत्तोलन में ओलम्पिक का कांस्य पदक जीतने वाली कर्णम मल्लेश्वरी को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। कुश्ती में केडी जाधव के बाद ओलम्पिक में सुशील कुमार ने भी कमाल का प्रदर्शन किया है। ओलम्पिक में एक कांस्य और एक रजत पदक सहित दो पदक जीतने वाले सुशील कुमार भारत के पहले पहलवान हैं। योगेश्वर दत्त भी ओलम्पिक में इस विधा का कांस्य पदक जीत चुके हैं। महिला कुश्ती में वीनेश फोगाट न केवल विश्व विजेता बनकर इतिहास रच चुकी हैं बल्कि रियो ओलम्पिक में पदक की प्रमुख दावेदार हैं। इन खेलों से इतर तीरंदाज दीपिका कुमारी से भी रियो ओलम्पिक में भारत पदक की उम्मीद कर सकता है। भारत की यह बेटी तीरंदाजी में विश्व पटल पर कई मर्तबा अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा चुकी है।
  अनुपमा शुक्ला