Thursday 26 September 2019

अमरावती की अमर कहानी बबिता ताड़े

पंद्रह सौ रुपये की मासिक पगार पर साढ़े चार सौ बच्चों के लिए दो टाइम खाना बनाने वाली महिला यदि इतना ज्ञान रखती है कि बेहद जटिल प्रक्रिया के बाद केबीसी की हॉट सीट तक पहुंच जाती है, तो उसको नमन करना बनता है।  यदि वह एक करोड़ रुपये तक के सवाल सही-सही बता देती है तो उसकी अध्ययनशीलता व सामान्य ज्ञान की जानकारी रखने की ललक को भी सराहा जाना चाहिए। सराहना इसलिए भी कि जिस देश में जहां एक नामचीन फिल्मी सितारे व पूर्व सांसद की सिनेस्टार बेटी केबीसी में यह पूछे जाने पर कि हनुमान जी किसके लिए संजीवनी बूटी लाये थे, जवाब नहीं दे पायी। अमरावती की बबिता ताड़े का केबीसी में एक करोड़ रुपये जीतना महज इस दृष्टि से महत्वपूर्ण नहीं है कि एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी की पत्नी ने यह राशि जीती, बल्कि महत्वपूर्ण उसकी जीवन में कुछ कर गुजरने की ललक है। अपने आसपास के घटनाक्रम के प्रति सजग रहने की उत्कंठा है। नहीं तो देश के महानगरों में विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले कई छात्र-छात्राएं देश के प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति का नाम नहीं बता पाते, गणतंत्र दिवस व स्वतंत्रता दिवस तक का भी फर्क नहीं बता पाते।
ऐसे समाज में, जहां भरे पेट के सम्पन्न लोगों की पैसे की हवस खत्म नहीं होती, वहां बबिता कहती हैं कि इस पैसे से वह कुछ गांव के मंदिर के पुनर्निर्माण में खर्च करेंगी। वह कुछ पैसे से उस स्कूल में वाटर कूलर लगाएंगी, जहां वह रोज बच्चों के लिये खाना बनाती हैं। उनकी सोच कितनी बड़ी है। वह कहती हैं कि अपने पति की दिक्कतें दूर करने के लिए इस पैसे से उनके लिये मोटरसाइकिल खरीदेंगी। उनका संघर्ष मेरे से ज्यादा बड़ा है। यह बबिता की बड़ी सोच है।
आज के दौर में जब जेब में चार पैसे आते ही लोग उड़ने लगते हैं, इंसान को इंसान नहीं समझते, उस दौर में बबिता कहती हैं कि मैं पंद्रह सौ रुपये की पगार के लिये साढ़े चार सौ बच्चों का खाना बनाना जारी रखूंगी। उसे इससे सुकून मिलता है। पहले स्कूल में गिने-चुने बच्चे आते थे। अब साढ़े चार सौ हैं। उनमें बहुत से बच्चे ऐसे हैं जो सिर्फ अच्छे खाने के लिये ही स्कूल आते हैं। जाहिर है वे गरीबी से जूझ रहे हैं। उन्हें खाना खिलाकर मुझे सुकून मिलता है। मैं करोड़ रुपये कमाने के बाद भी यह काम जारी रखूंगी। इस सोच को सलाम करने का मन करता है। नि:संदेह देर से ही सही, भगवान भी सकारात्मक बड़ी सोच रखने वालों के जीवन में बदलाव लाता है।
इस महिला का संघर्ष देखिये कि वह आठ घंटे स्कूल के बच्चों के लिये दो टाइम खाना बनाने में लगाती हैं। बबिता ने शादी से पहले अधूरी छूटी पढ़ाई को भी पूरा किया। पति को वह इस बात के लिये श्रेय देती हैं कि चपरासी की नौकरी करने वाले पति की सोच बड़ी थी, उन्होंने मुझे आगे पढ़ने से कभी रोका नहीं, बल्कि प्रोत्साहित किया। आज उसके बेटा-बेटी भी अच्छी पढ़ाई कर रहे हैं। मुझे बचपन में पढ़ने का मौका नहीं मिला मगर मैं चाहती हूं कि मेरे बच्चे अच्छा पढ़ें। मैं कुछ पैसे उनकी पढ़ाई पर खर्च करूंगी।
बबिता ने पिछले साल भी केबीसी में भाग लेने की कोशिश की, मगर उसके पास मोबाइल फोन नहीं था। उन्होंने पिछले साल एक फोन खरीदा था जो पति व बच्चों के पास रहता था। केबीसी के सेट पर जब अमिताभ बच्चन ने दस हजार रुपये जीतने पर पूछा, वह इन पैसों से क्या करेंगी तो उसका जवाब था कि सबसे पहले एक मोबाइल खरीदूंगी। अमिताभ बच्चन के लिये यह जवाब चौंकाने वाला था। यह भी कि किसी का जीवन संघर्ष इतना कठिन हो सकता है कि हाड़-तोड़ मेहनत के बावजूद वह अपने लिये एक मोबाइल नहीं खरीद सकता। अमिताभ बच्चन ने तुरंत एक मोबाइल की व्यवस्था करने को कहा और छत्तीस हजार का स्मार्ट फोन बबिता ताड़े को दिया।
बबिता से पूछा गया कि केबीसी में पहुंचने का विचार कैसे आया। वह कहती हैं कि मेरे पिता एक सरकारी गेस्ट हाउस में खानसामा थे, मैं उनका हाथ बंटाने को जाती थी। वहां बड़े-बड़े अधिकारी व नेता ठहरते थे। उनका रहन-सहन व व्यवहार मुझे प्रभावित करता था और उनके जैसे जीवन को प्रेरित करता था। मगर बचपन में ही शादी हो गई, अपनी हैसियत में हुई। पढ़ाई भी अधूरी छूट गई। फिर बच्चों व गृहस्थी में हाथ बंटाने और बाद में स्कूल में खाना बनाने में जुटी रही। मगर मन के किसी कोने में वह ललक थी कि एक दिन कुछ ऐसा किया जाए जो जीवन की काया पलट दे। ईश्वर ने मेरी सुन ली है। मेरे घर में त्योहार जैसा माहौल है। पति व दोनों बच्चे बहुत खुश हैं। यह हमारे जीवन बदलने वाला मोड़ है।
सही मायने में हॉट सीट में बैठकर बबिता ताड़े ने केवल एक करोड़ रुपये ही नहीं जीते, लाखों लोगों के दिल भी जीते। एक आम गृहणी-सी, सदा मुस्कराती हुई। जब उनसे पूछा गया कि सदी के महानायक अमिताभ बच्चन के सामने बैठने पर नर्वसनेस तो नहीं थी। वह बोलीं—नहीं, अमिताभ जी की सबसे बड़ी बात यह है कि वे किसी भी वर्ग के व्यक्ति के साथ उसके स्तर तक जाकर बात करते हैं। उसे कभी हीनता का एहसास नहीं होने देते। इसीलिये तो लोग उन्हें महानायक कहते हैं। मैं आज खुश हूं कि मेरा एक सपना पूरा हुआ। सच कहें तो बबिता अब अमरावती की अमर कहानी बन गई हैं। बबिता को देश का सलाम।

Friday 2 August 2019

डॉ. शालिनी गांधी ब्यूटी कॉन्टेस्ट के टाप पांच में


मिला मोस्ट ब्यूटीफुल आईज और फिटनेस अवॉर्ड
मथुरा। डॉक्टर को समाज में सेवाभावना का सूचक माना जाता है। लोगों की धारणा है कि एक चिकित्सक अपने पेशे के अलावा कुछ कर ही नहीं कर सकता लेकिन के.डी. मेडिकल कालेज-हास्पिटल एण्ड रिसर्च सेण्टर की डॉक्टर शालिनी गांधी ने अपने जुनून, जज्बे और कड़ी मेहनत से ओपेरा मिस एण्ड मिसेज इंडिया ग्लोबल-2019 के ब्यूटी कॉन्टेस्ट में टाप फाइव प्रतिभागियों में स्थान बनाकर एक नई इबारत लिख दी। डॉ. शालिनी गांधी ने ब्यूटी कॉन्टेस्ट में मोस्ट ब्यूटीफुल आईज और फिटनेस अवॉर्ड जीतकर अपने उज्ज्वल भविष्य की छाप जरूर छोड़ दी है।
नई दिल्ली के होटल आई.टी.सी. वेल्कम में हुई ओपेरा मिस एण्ड मिसेज इंडिया ग्लोबल-2019 के ब्यूटी कान्टेस्ट पर डॉ. शालिनी गांधी का कहना है कि स्टाइलिश कोई भी बन सकता है परन्तु उसके लिए एक जुनून, जज्बा व कड़ी मेहनत बहुत जरूरी है। ब्यूटी कॉन्टेस्ट में उन्हें कौन सा राउंड ज्यादा मुश्किल लगा, इस पर डॉ. शालिनी ने कहा कि राउंड तो सारे ही मुश्किल थे परन्तु मैंने हर राउण्ड में बेहतर प्रदर्शन करने के साथ ही पूछे गए हर प्रश्न का जवाब सोच-समझकर दिया।
डॉ. शालिनी गांधी का कहना है कि ब्यूटी कॉन्टेस्ट से पहले हुआ प्रशिक्षण सत्र बहुत ही थकाऊ रहा, चूंकि मेरे लिए यह पहला अवसर था, इसलिए थोड़ी घबराहट जरूर थी। डॉ. शालिनी गांधी का कहना है कि देश भर की 50 प्रतिभागियों में मैं अकेली डॉक्टर थी। डॉक्टर होने की वजह से दर्शकों ने मेरे हर राउण्ड को न केवल सराहा बल्कि मुझसे पूछे गये सवालों के जवाब सुनकर तालियां बजाने से भी अपने आपको नहीं रोक पाए।
डॉ. शालिनी गांधी ने अपनी इस उपलब्धि का श्रेय के.डी. मेडिकल कालेज-हास्पिटल एण्ड रिसर्च सेण्टर के प्रबंधन को दिया। उन्होंने कहा कि प्रबंधन के प्रोत्साहन की वजह से ही मैं लीक से हटकर कुछ करने का साहस जुटा सकी। आर.के. एज्यूकेशन हब के चेयरमैन डॉ. रामकिशोर अग्रवाल, प्रबंध निदेशक मनोज अग्रवाल, प्राचार्य डॉ. मंजू नवानी ने डॉ. शालिनी गांधी की इस उपलब्धि पर प्रसन्नता व्यक्त करते हुए बधाई दी।

Friday 26 July 2019

पचास फीसदी प्रशिक्षक वैज्ञानिक शोध का लाभ खिलाड़ियों को नहीं दे पातेः पीयूष जैन


खेल आयोजन, खेल प्रबंधन और योग पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन
त्रिवेंदरम। त्रिवेंदरम (केरल) में स्पोर्ट्स अथॉरिटी के अंतर्गत संचालित लक्ष्मी बाई शारीरिक शिक्षा विज्ञान संस्थान, फिजिकल एजूकेशन फाउंडेशन ऑफ़ इंडिया (पेफी) एवं केरल विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में तीन दिवसीय खेल आयोजन, खेल प्रबंधन और योग पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में पेफी के राष्ट्रीय सचिव डॉ. पीयूष जैन ने कहा कि पचास फीसदी प्रशिक्षक ज्ञान की कमी के चलते वैज्ञानिक शोध का लाभ खिलाड़ियों को नहीं दे पाते।
सम्मेलन का उद्घाटन डॉ. ए. जय तिलक, केरल सरकार के प्रमुख सचिव, खेल और युवा मामलों और योजना विभाग ने किया। कार्यक्रम में अपने शोध को प्रस्तुत करते हुए फिजिकल एजूकेशन फाउंडेशन ऑफ़ इंडिया (पेफी) के राष्ट्रीय सचिव डॉ. पीयूष जैन ने खेल प्रबंधन में फिजिकल एजूकेशन शिक्षक की भूमिका पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि पांच हजार साल पुरानी हमारी शिक्षा की समृद्ध परम्परा रही है। सदियों से शारीरिक शिक्षा ही मूल शिक्षा है। आज सूचना क्रांति के युग में नित नए प्रयोग शारीरिक शिक्षा एवं खेलों में हो रहे हैं।
डॉ. पीयूष जैन कहा कि विश्वविद्यालय में कुछ ऐसे शिक्षा कार्यक्रम विकसित किए जा रहे हैं, जिससे शिक्षक स्वयं अपना शैक्षिक ज्ञान बढ़ा पा रहे हैं लेकिन अभी और प्रयास किये जाने की जरूरत है। डॉ. पीयूष जैन ने कहा कि आज संसाधनों की कोई कमी नहीं है, बस इसमें दिलचस्पी लेने तथा सही क्रियान्वयन की आवश्यकता है। सही मायने में इस शिक्षा का उद्देश्य छात्रों को स्वस्थ शरीर, मन और आचरण का प्रशिक्षण देना है।
डॉ. जैन ने कहा कि स्वस्थ शरीर में एक स्वस्थ मन रखने के लिए छात्रों को नियमित शारीरिक व्यायाम की आवश्यकता होती है। उन्होंने खेलों के प्रबंधन पर चर्चा करते हुए कहा कि चरित्र निर्माण में खेलों का आयोजन, प्रबंधन जरूरी है। यह युवा पीढ़ी के स्वास्थ्य के लिए भी बहुत जरूरी है। इस सेमिनार में अपने शोध विषय पर पेफी के अध्यक्ष डॉ. अरुण कुमार उप्पल ने भी विचार रखे। इस अवसर पर केरल सरकार के साथ-साथ पूरे देश के शारीरिक शिक्षा और खेलकूद से जुड़े अन्य प्रबुद्ध लोगों ने भी अपने-अपने शोध प्रस्तुत किये। इस अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम में 150 से अधिक पेशेवर खेल और व्यायाम विज्ञान, योग और प्रबंधन के विशेषज्ञों ने भाग लिया।

कृष्णा पूनिया ने विधान सभा में जगाई खिलाड़ियों की अलख



खेल मंत्री और शिक्षा मंत्री ने की सराहना
जयपुर। खिलाड़ी से राजनीति में प्रवेश करने वाली पद्मश्री डा. कृष्णा पूनिया ने विधान सभा में राजस्थान के खिलाड़ियों का जोरदार पक्ष रखते हुए अपनी कार्यशैली की जोरदार बानगी पेश की है। इससे पहले भी सादुलपुर विधायक कृष्णा पूनिया अपनी सरकार से राजगढ़ में अंतरराष्ट्रीय स्टेडियम की मांग को मनवा कर खिलाड़ियों के मायूस चेहरों पर मुस्कान लौटा चुकी हैं। विधायक कृष्णा ने न केवल स्कूल स्तर के खिलाड़ियों का पक्ष रखा बल्कि द्रोणाचार्य अवार्डियों के जीवन-बसर पर भी राजस्थान सरकार का ध्यान आकृष्ट किया है। कृष्णा के इन प्रयासों का असर देश के अन्य राज्यों पर भी पड़ेगा इसमें संदेह नहीं है।
विधायक कृष्णा पूनिया ने शिक्षा मंत्री गोविन्द सिंह से प्रश्न किया कि राजस्थान में स्कूल स्टेट, स्कूल नेशनल और इंटर यूनिवर्सिटी आदि खेलों में पदक जीतने वाले खिलाड़ियों को प्राइज मनी नहीं दी जाती, इससे खिलाड़ियों में मायूसी है। विधायक पूनिया ने कहा कि  जिस तरह से ओपन स्टेट और नेशनल चैम्पियनशिप में खेलने वाले खिलाड़ियों को नगद राशि मिलती है, उसी तरह से शिक्षा विभाग के छात्र-छात्रा खिलाड़ियों को भी प्राइज मिलनी चाहिए। कृष्णा पूनिया ने सवाल किया कि शिक्षा विभाग में भर्ती के दौरान ओपन के पदक विजेता खिलाड़ियों को बोनस अंक क्यों नहीं दिए जाते? इस पर शिक्षामंत्री ने कहा, विभागों से बात कर प्रस्ताव बनाकर कार्रवाई करेंगे। कृष्णा ने कहा कि शिक्षा विभाग ही नहीं सभी विभागों में खिलाड़ियों को नौकरियों में प्राथमिकता मिलनी चाहिए। राजस्थान को खेलों में अग्रणी राज्य बनाने के लिए जरूरी है कि खिलाड़ियों को न केवल आर्थिक मदद मिले बल्कि उन्हें नौकरी में भी प्राथमिकता दी जाए।
प्रश्नकाल के दौरान कृष्णा पूनिया ने खेल मंत्री अशोक चांदना से कहा कि राज्य सरकार अर्जुन पुरस्कार विजेता, ओलम्पिक, एशियन और कॉमनवेल्थ गेम्स के पदक विजेताओं को जिस प्रकार से 25 बीघा जमीन, जेडीए का प्लॉट आदि सुविधाएं देती है उसी प्रकार की सुविधाएं द्रोणाचार्य पुरस्कार विजेताओं को भी मिलनी चाहिए। पूनिया के इस प्रश्न पर खेलमंत्री ने कहा कि इसके लिए सभी सम्बन्धित विभागों से चर्चा करने के बाद प्रस्ताव तैयार कर मुख्यमंत्री को भेजा जाएगा। विधानसभा अध्यक्ष सी.पी. जोशी ने खेल मंत्री अशोक चांदना और शिक्षा मंत्री गोविंद सिंह डोटासरा को खिलाड़ियों के हित में निर्णय लेने के लिए कहा। गौरतलब है कि विधायक कृष्णा पूनिया के पति वीरेन्द्र पूनिया स्वयं भी द्रोणाचार्य अवार्डी एथलेटिक कोच हैं। जो भी हो कृष्णा पूनिया ने खिलाड़ी हित में जो आवाज उठाई है उससे राजस्थान ही नहीं अन्य राज्यों के खिलाड़ियों और द्रोणाचार्य अवार्डियों को भी लाभ मिलेगा।

अब बीएसएफ के लिए पदक जीतना मेरा लक्ष्यः मनीषा


किसान पिता ने लगाए बेटियों के सपनों को पर
मनीषा और मोनिका एथलेटिक्स में करिश्मा करने को बेताब
श्रीप्रकाश शुक्ला
भारत गांवों का देश है। गांवों में खेल प्रतिभाएं भी हैं लेकिन उन्हें उचित परवरिश और सही मार्गदर्शन न मिलने से वे अपना तथा देश का सपना साकार करने से वंचित रह जाती हैं। उदीयमान डिस्कस थ्रोवर किसान की बेटी मनीषा और हैमर थ्रोवर मोनिका शर्मा इसका जीता-जागता उदाहरण हैं। इन बेटियों ने गरीबी के बावजूद अपने राज्य और मुल्क को दर्जनों पदक दिलाए हैं लेकिन हरियाणा सरकार इन्हें आश्वासन के सिवाय कुछ भी नहीं दे सकी। अंतरराष्ट्रीय एथलीट मनीषा अब बी.एस.एफ. में हैं, जहां वह ओलम्पिक खेलने और अपनी यूनिट को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पदक दिलाने का सपना देख रही हैं।
हरियाणा जिसे खेलों और खिलाड़ियों का सबसे बड़ा पैरोकार माना जाता है, वहां की राष्ट्रीय खिलाड़ी बेटियां सरकार की उपेक्षा के चलते खेतों में काम करने को मजबूर हैं। पद्मश्री कृष्णा पूनिया को अपना आदर्श मानने वाली झज्जर जिले के गांव अकेहरी मदनपुर की मनीषा कहती हैं कि सरकार की उपेक्षा से दुःखी तो हूं लेकिन हौसला नहीं हारी हूं। मनीषा के पिता श्रीभगवान शर्मा का भी सपना है कि उनकी बेटियां खेलों में देश का नाम रोशन करें। मनीषा जब 14 साल की थी तभी से वह अपने पिता की देख-रेख में डिस्कस थ्रो में अपनी किस्मत आजमा रही है। मनीषा कहती हैं कि हर खिलाड़ी की तरह मेरे भी सपने हैं जिन्हें मैं बी.एस.एफ. में रहकर पूरा करना चाहती हूं।
अब तक जीते पदक
मनीषा ने हरियाणा के लिए अब तक 68 पदक जीते हैं जिनमें 40 राज्य स्तर, 26 नेशनल स्तर तो दो इंटरनेशनल स्तर पर शामिल हैं। मनीषा ने 2013 में रांची में हुई साउथ एशियन चैम्पियनशिप में रजत पदक जीता था। 18 मई, 1995 को श्रीभगवान शर्मा के घर जन्मी मनीषा स्नातक तक की तालीम हासिल कर लेने के बाद खेल के साथ ही स्नातकोत्तर की पढ़ाई भी करना चाहती हैं। मनीषा की छोटी बहन मोनिका हैमर थ्रो में न केवल हाथ आजमा रही है बल्कि दो नेशनल में उसने एक स्वर्ण और एक रजत पदक जीता है। मनीषा अपनी चार बहनों और एक भाई में सबसे बड़ी है।
पिता का सपना साकार करना है
मनीषा कहती हैं कि मैं अपने प्रशिक्षक पिता की खुशी और उनके सपने को साकार करने के लिए अभी भी खेलना चाहती हूं। मेरा परिवार तंगहाली के दौर से गुजर रहा है, फिर भी पिताजी चाहते हैं कि मैं और मेरी बहनें देश के लिए खेलें और दर्जनों मेडल जीतें। बी.एस.एफ. में नौकरी न लगने से पहले मनीषा अपने पिता के साथ खेतों में काम करती थी तथा सुबह-शाम तीन-तीन घण्टे प्रैक्टिस भी करती थी ताकि परिवार को दो जून की रोटी मयस्सर हो सके। मनीषा बताती हैं कि नेशनल में मेडल जीतने पर मुझे राज्य सरकार की तरफ से कई बार सम्मानित किया गया। सम्मान से कुछ पल के लिए खुशी तो मिली लेकिन उससे पेट नहीं भरा जा सकता। भारत सरकार 2020 में होने वाले ओलम्पिक खेलों के लिए प्रतिभाएं तलाश रही है जबकि मनीषा-मोनिका जैसी प्रतिभाशाली बेटियां अपनी किस्मत पर आंसू बहा रही हैं। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि यदि एक मामूली किसान अपने प्रशिक्षण और जुनून से देश को सितारा खिलाड़ी दे सकता है तो हमारा खेल तंत्र उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर का क्यों नहीं बना सकता।

नई पीढ़ी की प्रेरणा लिसिप्रिया


पर्यावरण के लिए जगाई अलख
आज एक दुबली-पतली बिटिया सबकी प्रिय है। उम्र बेशक बहुत कम हो लेकिन संदेश ऐसे दिए कि भारत ही नहीं दुनिया वाह-वाह करने लगी। यह सहज विश्वास नहीं होता कि कक्षा दो में पढ़ने वाली सात साल की बच्ची ग्लोबल वार्मिंगऔर क्लाइमेट चेंजजैसे मुद्दे पर पूरी दुनिया का ध्यान खींच सकती है, वह भी उस पूर्वोत्तर के मणिपुर से जो मीडिया की मुख्यधारा से हमेशा ही अलग-थलग रहता है। मणिपुर की लिसिप्रिया कंगुजम दुनिया के कई बड़े मंचों को सम्बोधित कर चुकी है। वह स्विट्जरलैंड में जिनेवा स्थित संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में आयोजित ग्लोबल प्लेटफॉर्म फॉर डिजास्टर रिस्क रिडक्शन-2019 के छठे सत्र को सम्बोधित कर आई है। यह कार्यक्रम इसी साल 13 से 17 मई के बीच आयोजित किया गयाथा। वह संयुक्त राष्ट्र और स्विट‍्जरलैंड सरकार की ओर से आमंत्रित सबसे कम उम्र की प्रतिभागी थी। उसने वहां एशिया और प्रशांत क्षेत्र के बच्चों का प्रतिनिधित्व किया।
अंतरराष्ट्रीय मंच पर लिसिप्रिया ने एपीएसी क्षेत्र के बच्चों की चिन्ताओं का प्रतिनिधित्व करते हुए 140 देशों के नुमाइंदों और तीन हजार अन्य प्रतिनिधियों को सम्बोधित कर एक नई पटकथा लिख दी। मई में  लिसिप्रिया के आने-जाने की वह खबर तो आई-गई हो गई लेकिन उसने देश का ध्यान तब खींचा जब वह 21 जून को हाथमें पर्यावरण संरक्षण के नारे लिखी तख्ती लिये संसद भवन के बाहर प्रदर्शन करती नजर आई। उसने प्रधानमंत्री व सांसदों से अपील की कि वे क्लाइमेट चेंज पर कानून बनाकर हमारा भविष्य सुरक्षित करें।
दरअसल, जेनेवा में हुआ कार्यक्रम संयुक्त राष्ट्र और स्विट्जरलैंड सरकार द्वारा आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिये चेतना जगाने के लिए आयोजित किया गया था। लिसिप्रिया कंगुजम अंतरराष्ट्रीय युवा समिति (आईवाईसी) में बाल आपदा जोखिम न्यूनीकरण के प्रतीकात्मक चेहरे के रूप में काम कर रही है। संसद पर प्रदर्शन के दौरान लिसिप्रिया कहती हैं कि जब मैं प्राकृतिक आपदा मसलन भूकम्प, सुनामी व बाढ़ आदि के कारण निर्दोष लोगों को मरते हुए देखती हूं तो भयभीत हो जाती हूं। बच्चों को अपने माता-पिता को खोते देख मेरा दिल भर आता है। समाज के जिम्मेदार लोगों से आग्रह करती हूं कि वे दिल-दिमाग से क्लाइमेट चेंज के प्रभावों को कम करने के लिये प्रयास करें ताकि हम एक बेहतर दुनिया का निर्माण कर सकें। दरअसल, जेनेवा में आयोजित कार्यक्रम में दुनिया के सरकारी, गैर सरकारी संगठनों, रेडक्रास के अलावा संयुक्त राष्ट्र के विभिन्न संगठनों ने भागीदारी की। यह पहला मौका नहीं था जब लिसिप्रिया को किसी वैश्विक कार्यक्रम में भाग लेने को आमंत्रित किया गया था। इससे पहले वह वर्ष 2018 में मंगोलिया के उलानबटार में आपदा जोखिम न्यूनीकरण हेतु आयोजित एशिया मंत्रीस्तरीय सम्मेलन में भाग ले चुकी है। सात साल की छोटी-सी उम्र में लिसिप्रिया कंगुजम अब तक पर्यावरण चेतना जगाने के लिए आठ देशों का दौरा कर चुकी है।
नि:संदेह, लिसिप्रिया कंगुजम की सक्रियता को देखकर आश्चर्य होता है कि खेलने-खाने की उम्र में वह सारी दुनिया की फिक्र लिये घूमती रहती है। इस उम्र में बच्चों को कहां दुनिया के गम्भीर विषयों से जुड़ाव होता है। ऐसे में सवाल यह भी उठता कि क्या वाकई यह बिटिया अपना स्वाभाविक बचपन जी पा रही है? मगर, पर्यावरण के प्रति उसकी चिन्ताओं से सहमत होना पड़ता है कि बच्चे यदि अभी से जागरूक होंगे‍ तभी तो हमारा कल सुधरेगा। बच्चों को देखकर बड़ों को भी सक्रिय होना पड़ेगा।
संसद भवन के बाहर तख्ती लिये लिसिप्रिया ने कहा, ‘प्रिय मोदी जी व सांसदों, जलवायु परिवर्तन कानून बनाकर सजगता दिखाएं। समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है। धरती गर्म हो रही है। हमारा भविष्य बचाने के लिये हमें समस्या की जड़ों पर जल्दी ध्यान देना होगा। हमारे भविष्य को बचा लीजिए। बेहतर दुनिया बनाने के लिये हमें जुनून से जुड़ना होगा।यह संयोग ही है कि पिछले दिनों पर्यावरण संरक्षण के लिये मुहिम चलाती एक अन्य छात्रा पूरी दुनिया में सुर्खियों में थी। स्वीडन में सोलह साल की ग्रेटा को दुनिया के 25 प्रभावशाली टीनएजर्स में शामिल किया गया। यह छात्रा हर शुक्रवार को स्कूल छोड़कर स्वीडन की संसद के बाहर धरना देती रही है। वह वहां बहुचर्चित पोस्टर क्लाइमेट चेंज के लिये स्कूल हड़ताललेकर बैठी रहती है।
भारतीय ग्रेटालिसिप्रिया बहुत छोटी है मगर उसके इरादे बड़े हैं। उम्र से भले ही वह बच्ची हो, मगर उसकी पहल बड़े लोगों को भी प्रेरणा देने वाली है। नि:संदेह क्लाइमेट चेंज का सबसे ज्यादा शिकार बच्चे ही होते हैं। अब चाहे प्राकृतिक आपदाओं की तबाही हो या खाद्य श्रृंखला टूटने से उत्पन्न कुपोषण की भयावहता हो, मगर बच्चों का मुद्दा गम्भीरता से नहीं लिया जाता। नि:संदेह यदि यह जागरूकता बचपन में आयेगी तो आगे चलकर वे एक जिम्मेदार नागरिक की भूमिका निभाकर पर्यावरण संरक्षण में महती योगदान दे सकते हैं। ऐसे में लिसिप्रिया कंगुजम की पहल को नई पीढ़ी का प्रेरणादायक कहा जा सकता है। हमें छोटी लेकिन बढ़ा उद्देश्य लेकर दुनिया को संदेश देती बिटिया का हौसला बढ़ाना चाहिए ताकि समाज से और लिसिप्रिया आगे आएं।

सफलता के सातवें आसमान पर चंद्राणी


सबसे कम उम्र की सांसद
क्षेत्र कोई भी हो सफलता उसे ही मिलती है जिसमें कुछ करने का जुनून हो। राजनीति की पथरीली राह बहुत कठिन होती है। लोग जीवन भर मशक्कत करने के बाद भी संसद की चौखट पर कदम नहीं रख पाते लेकिन इसके विपरीत चंद्राणी मुर्मू ने पहली बार में ही संसद की देहरी पर कदम रख सबको चौंका दिया। चंद्राणी मुर्मू सबसे कम उम्र में संसद तक पहुंचने वाली पहली भारतीय महिला हैं।
किस्मत कैसे करवट लेती है, इसकी जीवंत मिसाल हैं ओड़िशा की चंद्राणी मुर्मू। मैकेनिकल इंजीनियरिंग में बी.टेक. की पढ़ाई पूरी करने के तुरंत बाद नौकरी के लिये तैयारी कर रही चंद्राणी के लिये अब नौकरी तलाशने की कोई जरूरत नहीं रह गई है। वह अब नौकरी बांटने वाली व्यवस्था का हिस्सा बन चुकी हैं। चंद्राणी मुर्मू सत्रहवीं लोकसभा के लिये ओड़िशा के केन्झार से सांसद बनी हैं। खास बात यह है कि वह सत्रहवीं लोकसभा में देश की सबसे कम उम्र की सांसद चुनी गई हैं। चंद्राणी पच्चीस साल ग्यारह महीने महीने में सांसद बनी हैं। पिछली लोकसभा में सबसे कम उम्र के सांसद हरियाणा के दुष्यंत चौटाला थे, जिनकी उम्र चुनाव के वक्त छब्बीस साल थी। यह बात अलग है कि उन्हें राजनीति विरासत में मिली है, वहीं चंद्राणी के पिता के परिवार में सक्रिय राजनीति में हाल-फिलहाल कोई नहीं है। हां, कभी नाना जरूर सक्रिय राजनीति में रहे। आदिवासी समाज में उनका नाम सम्मान से लिया जाता रहा है।
ओड़िशा ने देश को कई तरह के संदेश चुपचाप बिना किसी शोर-शराबे के दिये हैं। चक्रवाती तूफान को चकमा देने वाले ओड़िशा ने नवीन पटनायक को जहां लगातार पांचवीं बार राज्य का मुख्यमंत्री बना दिया वहीं पहली बार राज्य ने 33 फीसदी महिलाओं को संसद में भेजने में सफलता हासिल की है। देखा जाए तो महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण का अधिकार देने वाला बिल राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में संसद में दशकों से लटका हुआ है। तीसरा यह कि राज्य ने सबसे कम उम्र की एक आदिवासी लड़की को संसद में भेजा है। हम कह सकते हैं कि बड़े बदलाव बिना शोरगुल के भी होते हैं, ओड़िशा इसका साक्षी बना है।
नि:संदेह भुवनेश्वर से दिल्ली के रायसीना हिल्स तक पहुंचने का चंद्राणी का सफर एक परीकथा जैसा है। भुवनेश्वर से इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करके नौकरी तलाश रही चंद्राणी की किस्मत अचानक ही बदल गई। उसके मामा ने पूछा कि क्या राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाना चाहती हो।उसने तुरंत हामी भर दी। दरअसल, पार्टी किसी पढ़ी-लिखी प्रत्याशी की तलाश में थी। बीजू जनता दल के मुखिया नवीन पटनायक ने उसे टिकट दिया और वह जीत भी गई। चंद्राणी के पिता सरकारी नौकरी करते हैं। सामान्य परिवार की चंद्राणी के पास न घर है, न गाड़ी और कोई बैंक बैलेंस भी नहीं, कुल रकम बीस हजार के आसपास। चंद्राणी का किसी भी कम्पनी में कोई शेयर और बीमा पॉलिसी भी नहीं है। हां, माता-पिता द्वारा दिये गये सौ ग्राम के सोने के जेवर जरूर हैं। इसके बावजूद लोगों का इतना प्यार मिला कि सांसद बन गईं। हां, उसके नाना हरिहर सोरेन सांसद रह चुके हैं। राजनीति में जो थोड़ी-बहुत दिलचस्पी रही, वह नाना के घर के राजनीतिक माहौल के चलते ही रही। आज भी लोग ओड़िशा में कहते सुने जाते हैं कि अरे ये हरिहर सोरेन की नातिन है। चंद्राणी अपनी सफलता का सारा श्रेय नवीन पटनायक को देती हैं, जिनके प्रयासों से उसे सांसद बनने का मौका मिला।
ओड़िशा की केन्झार सीट से जीती चंद्राणी ने इस चुनाव में राजनीति के अनुभवी भाजपा नेता व दो बार सांसद रह चुके अनंत नायक को हराया। आदिवासी बहुल इलाके में उनकी जीत का अंतर 66200 वोट का है। अब चंद्राणी मुर्मू अपने इलाके में शिक्षा को प्राथमिकता देना चाहती हैं। चंद्राणी मुर्मू का मानना है कि इस आदिवासी इलाके में सरकार की तमाम योजनाएं हैं, मगर शिक्षा के अभाव में लोग इन योजनाओं का लाभ नहीं उठा पाते। उन्हें अधिकारों व सुविधाओं के प्रति जागरूक बनाने की जरूरत है। कुल 21 सांसदों वाले राज्य में सात महिलाओं का चुना जाना नारी सशक्तीकरण की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है। एक को छोड़कर शेष छह महिला सांसद ठीक-ठाक पढ़ी-लिखी भी हैं। इनमें पांच महिला सांसद बीजू जनता दल से तो दो भारतीय जनता पार्टी से हैं। बीजू जनता दल की सांसदों में प्रमिला बिसोयी, मंजूलता मंडल, राजश्री मलिक, शर्मिष्ठा सेठी शामिल हैं वहीं भारतीय जनता पार्टी से चुनी गई सांसदों में भुवनेश्वर से जीती अपराजिता सडांगी तथा बलंगिरी से जीती संगीता कुमारी सिंहदेव शामिल हैं।
चंद्राणी अपने शैक्षिक अनुभवों से क्षेत्र के विकास को नई दिशा देना चाहती हैं। इनका कहना है कि मैं बड़ी-बड़ी घोषणाएं करने के बजाय जमीनी स्तर पर योजनाओं के क्रियान्वयन को प्राथमिकता दूंगी। चंद्राणी मुर्मू का लक्ष्य है कि क्षेत्र में युवाओं के रोजगार तथा महिलाओं और आदिवासियों की प्राथमिकताओं परध्यान केंद्रित किया जाये। चंद्राणी कहती हैं कि उनका क्षेत्र खनिज सम्पदा से भरपूर है, मगर इसके बावजूद बेरोजगारी नीतियों की विफलता को दर्शाती है।
बहरहाल, चंद्राणी अपनी नई पारी को लेकर खासी उत्साहित हैं। वह कहती हैं कि मैंने पढ़ाई के दौरान कभी नहीं सोचा था कि राजनीति में भविष्य तलाशूंगी। अब मौका मिला है तो कुछ नया करने का प्रयास रहेगा। संयुक्त परिवार में रहने वाली चंद्राणी के माता-पिता और दो बहनें उसकी सफलता से खासी प्रफुल्लित हैं। प्रफुल्लित होना भी चाहिए आखिर चंद्राणी ने सातवें आसमान पर कदम जो रखा है।

Tuesday 23 July 2019

हिमा की हिमालयीन सफलता को सलाम


श्रीप्रकाश शुक्ला
भारत में आज एक ही बेटी चर्चा में है। नाम है हिमा दास। हिमा की उपलब्धियों से भारत ही नहीं समूचा खेल-जगत पुलकित है। इस गौरवशाली लम्हे में हम हिमा की हिमालयीन सफलता के साथ उसके प्रशिक्षक निपोन दास को भी सलाम करते हैं। सलामी इसलिए कि उन्होंने ही एक दुबली-पतली बेटी को फौलाद की शक्ल दी है, जोकि ट्रैक पर अपनी बिजली सी फुर्ती से समूचे हिन्दुस्तान को दुनिया भर में गौरवान्वित कर रही है। हिमा दास ने दो जुलाई से 20 जुलाई तक पांच स्वर्ण पदक जीत लेने का ऐसा कारनामा किया है जोकि इससे पहले कभी नहीं हुआ।
19 साल पहले असम के नगांव जिले के एक गांव धींग में जन्मी हिमा के पिता रंजीत दास गांव के मामूली किसान हैं। चावल उगाते हैं। उनके छह बच्चे हैं जिनमें हिमा सबसे छोटी है। घर से स्कूल और खेतों तक दौड़ लगाने वाली लड़की हिमा के बारे में किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था कि एक दिन वह ऐसे दौड़ेगी कि दुनिया सांस रोक उसे ही देखेगी और ताली पीटेगी। जैसे उत्तर भारत के लोगों में क्रिकेट का खुमार है उसी तरह असम के लोगों को सिर्फ फुटबाल से प्यार है। गुवाहाटी से काजीरंगा और तेजपुर के रास्ते में जगह-जगह आपको खाली मैदानों में युवा फुटबाल खेलते मिल जाएंगे। हिमा भी पहले फुटबाल ही खेलती थी लेकिन निपोन दास की परख ने उसे एथलीट बनने को प्रेरित किया।
एक सांवली सी मामूली नैन-नक्श वाली लड़की हिमा दास आज हर भारतीय निगाहों का नूर है। दौड़ने से ठीक पहले वह जमीन को हाथों से चूमती है और बंदूक की आवाज सुनते ही ट्रैक पर उसके पराक्रम की बिजली कौंध जाती है। जुलाई के पहले सप्ताह से ही एक तरफ जहां असम बाढ़ की त्रासदी से जूझ रहा था वहीं वहां की एक बेटी यूरोपीय देशों के ट्रैकों पर अपने पराक्रम का जादू बिखेर रही थी। जीत की खुशी के बीच उसने देश की हुकूमतों और उद्योगपतियों से कई दफा असम को बाढ़ से बचाने की करुण पुकार लगाकर खिलाड़ियों के लिए एक नजीर पेश की।  
खेलप्रेमियों ने इस माह पांच बार हिमा दास को हवा की तरह उड़ते, उसके चेहरे की चमक, सौम्यता और  हंसी को देखा है। दुबली-पतली लेकिन मजबूत भुजाओं वाली लड़की के पैरों की गति, उसकी जांघों का बल मानो नारी शक्ति की नई परिभाषा गढ़ रहा था। सच कहें तो हिमा यूरोपीय देशों में एक पिछड़े मुल्‍क की सताई हुई लड़कियों के सपनों की गति लेकर उड़ रही थी। मैं उसकी देह की ताकत, उसकी फुर्ती, तेजी और उसकी हड्डियों के बल से अभिभूत हूं। हिमा से हर भारतीय खेलप्रेमी को उम्मीद बंधी है कि वह देर-सबेर भारतीय रीती झोली को ओलम्पिक पदक से आबाद कर सकती है।  
2016 के पहले तक हिमा स्कूल स्तर तक फुटबाल खेलती थी। आगे उसे प्रोफेशनली खेलने के लिए प्रॉपर ट्रेनिंग चाहिए थी, उसमें पैसे लगते लिहाजा उसने फुटबाल को बाय-बाय कर दिया। आज की दैदीप्यमान हिमा को दौड़ने की सलाह किसी और ने नहीं उसके फुटबाल प्रशिक्षक शमसुल शेख ने दी थी। शमसुल शेख की सलाह पर ही हिमा ने दौड़ में हाथ आजमाया। मिट्टी के ट्रैक पर दौड़-दौड़कर अभ्यास किया और पहुंच गई एक राज्यस्तरीय प्रतियोगिता में हिस्सा लेने। हिमा का राज्यस्तर पर कांस्य पदक जीतना सबकी कौतुक का विषय बन गया। सब हैरान थे, ये लड़की कौन है। पहले कभी न देखा, न सुना, सब चकित हुए और फिर भूल गए।
हिमा के लिए इससे आगे की राह आसान नहीं दिख रही थी लेकिन कहते हैं हिम्मत बंदे मदद खुदा। आखिर एक दिन असम के खेल कल्याण निदेशालय में एथलेटिक कोच निपोन दास की नजर हिमा पर पड़ी। एक स्थानीय स्पर्धा में मामूली से कपड़े के जूतों में हिमा को दौड़ते देख निपोन दास बेहद प्रभावित हुए और उन्होंने इस लड़की की मदद का मन बना लिया। सच कहें तो निपोन दास ही वह जौहरी हैं जिन्होंने हिमा की प्रतिभा को न केवल परखा, सराहा बल्कि उसे प्रशिक्षण से लेकर हर वह सुविधा दी जोकि एक खिलाड़ी के लिए जरूरी होती है।
हिमा की सफलता में प्रशिक्षक निपोन दास ऐसे हैं जैसे किसी वृक्ष की कहानी में मिट्टी हो। संसार में चाहे जितना फरेब, जितना दंद-फंद हो, वक्त की किताब में दर्ज वही जौहरी हुए जिन्होंने हीरों को गढ़ा। एक गरीब किसान की बेटी को जो सम्बल निपोन दास ने दिया, वह काबिलेगौर है। कहते हैं इंसान में हुनर, ईमानदारी, हिम्मत, ताकत, सौम्यता और विनम्रता हो तो उसे उसकी मंजिल से कोई विचलित नहीं कर सकता। हिमा दास का दौड़ना दरअसल सचमुच हिमा दास हो जाना है, उसका खुद को पा लेना है। आओ भारत की इस बेटी को दिल से बधाई दें ताकि अन्य बेटियां भी खेलों में जौहर दिखाने का सपना देख सकें।

अंशुला के हाथ दुनिया के खजाने की चाबी


भारतीय महिलाओं की साख में इजाफा
सच तो यह है भारतीय नारी शक्ति एक के बाद एक नए प्रतिमान स्थापित कर रही है। आज कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जहां भारतीय महिलाओं के पदचाप न सुनाई दे रहे हों। अंशुला कांत को ही लें उनके हाथ दुनिया के खजाने की चाबी दी गई है। यह हमारी साख का ही कमाल है कि विश्व की तमाम बहुराष्ट्रीय कम्पनियां भारतीय महिलाओं को बड़ी-बड़ी जिम्मेदारियों से नवाज कर उनका हौसला बढ़ा रही हैं। पिछले एक साल पर नजर डालें तो दुनिया की चर्चित बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के एक दर्जन शीर्ष पदों पर भारतीय प्रतिभाओं की नियुक्तियां हुई हैं। इन चर्चित कम्पनियों में फिलिप्स लाइटिंग, जापान की प्रमुख इलेक्ट्रानिक कम्पनी पैनासॉनिक, कोका कोला, चीनी मोबाइल कम्पनी शिओमी, जीबीएस, एरिक्सन आदि का शुमार है।
महिलाओं के साख की इस कड़ी में अब एक बड़ा नाम और जुड़ गया है अंशुला कांत का। अंशुला को विश्व बैंक का एमडी और सीएफओ बनाया गया है। वे भारत के सबसे बड़े सरकारी बैंक स्टेट बैंक ऑफइंडिया में महत्वपूर्ण पदों पर कार्यरत रही हैं। बैंकिंग क्षेत्र में सफलतापूर्वक कार्य करने के लम्बे अनुभव के चलते ही उन्हें विश्व बैंक का प्रतिष्ठित पद मिला है। अंशुला कांत की साख और प्रतिभा का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनकी नियुक्ति के बाबत विश्व बैंक के प्रेसीडेंट डेविड मल्पास ने यहां तक कहा कि विश्व की सर्वोच्च बैंकिंग संस्था को एक ऐसी शख्सियत मिल रही है, जिसका फायदा न केवल बैंक को होगा बल्कि दुनिया के दूसरे देशों को भी लाभ मिलेगा। मैं और मेरी टीम उनके साथ काम करने को उत्साहित है। हम उनके साथ मिलकर बेहतर परिणाम देंगे।  दरअसल, अंशुला विश्व बैंक में फाइनेंशियल और रिस्क मैनेजमेंट की जिम्मेदारी सम्हालेंगी।
नये दायित्वों के अंतर्गत अंशुला कांत विश्व बैंक के प्रबंधन कार्यों के साथ वित्तीय रिपोर्टिंग, रिस्क मैनेजमेंट व अन्य वित्तीय संसाधन जुटाने का कार्य करेंगी। अपने करियर की दूसरी पारी में बैंकिंग सेक्टर में साढ़े तीन दशक के अपने अनुभव का लाभ अंशुला को मिलेगा। एसबीआई में उनकी पारी शानदार रही है। विश्व बैंक में अशुंला का कार्यकाल 30 सितम्बर, 2020 तक रहेगा। अंशुला को गत छह सितम्बर 2018 को भारतीय स्टेट बैंक का मैनेजिंग डायरेक्टर बनाया गया था। इससे पहले वह स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की डिप्टी एमडी एवं सीएफओ के पद पर कार्यरत रही हैं। उत्तराखंड के रुड़की की रहने वाली अंशुला कांत का जन्म सात सितम्बर, 1960 को हुआ। गृह जनपद में प्रारम्भिक पढ़ाई के बाद उन्होंने दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज फॉर वूमेन से इकोनॉमिक्स में आनर्स के साथ ग्रेजुएशन की। कालांतर में दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से अर्थशास्त्र में पोस्ट ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल की। उन्हें स्टेट बैंक के फाइनेंशियल मैनेजमेंट को और बेहतर बनाने के लिये जाना जाता है। इसके अलावा बैंकिंग सेवा में तकनीकी ज्ञान के बेहतर इस्तेमाल के लिये भी उनकी सराहना होती है।
माना जाता है कि अशुंला कांत नेतृत्व की चुनौतियों के मुकाबले में खासी निपुण हैं। उनकी उपलब्धियों में यह भी शुमार है कि उन्होंने स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के सीएफओ के रूप में 38 बिलियन अमेरिकी डॉलर के राजस्व तथा पांच सौ बिलियन डॉलर की कुल सम्पत्ति का प्रबंधन किया। उन्होंने स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की दीर्घकालीन स्थिरता पर फोकस रखा। साथ ही उन्होंने एसबीआई के पूंजी आधार में काफी सुधार किया। नि:संदेह इन तमाम उपलब्धियों के साथ-साथ अंशुला के पास बैंकिंग सेक्टर में 35 साल काम करने का व्यापक अनुभव है, जो निश्चित रूप से उनकी दूसरी पारी में कामयाबी की नई इबारत लिखने में काम आयेगा। आशा है कि अनुभवी और बैंकिंग सेक्टर में लीडरशिप चुनौतियों का मुकाबला करने में सक्षम अंशुला उम्मीदों की कसौटी पर खरा उतरेंगी।
बहरहाल, बनारस की इस बहू ने इस नियुक्ति से देश को गौरवान्वित किया है। साथही भारतीय महिलाओं के लिये भी प्रेरणा की मिसाल बनी हैं। उन्होंने अपनी कार्यशैली से एक नजीर पेश की हैं कि यदि कोई महिला चाहे तो कार्य के प्रति समर्पण व मेहनत से दुनिया के तमाम वे बड़े पद हासिल कर सकती है, जिन पर अब तक पुरुषों का वर्चस्व रहा है। अपने काम के प्रति समर्पित व सख्त अनुशासन की पाबंद अंशुला ने अपने गुणों के चलते करियर में विशिष्ट स्थान बनाया है। उनकी सफलता से प्रफुल्लित उनके पति संजय कांत बताते हैं कि अंशुला कालेज के दिनों से ही मेधावी रही हैं। उनकी सबसे बड़ी खासियत यही है कि वह जो भी काम शुरू करती हैं, उसे पूरा किये बिना नहीं रुकतीं। उसी लगन से उन्होंने पारिवारिक जिम्मेदारियां भी निभाई हैं। बच्चों के पालन-पोषण में भी वह समय की बहुत पाबंद रही हैं। संजय कांत पेशे से चार्टेड एकाउंटेंट हैं। बहरहाल, यह पूरे देशके लिये प्रतिष्ठा की बात है कि एक भारतीय महिला को विश्व बैंक का एमडी बनाया गया है। साथ ही देश के सबसे बड़े सार्वजनिक बैंक स्टेट बैंक आफ इंडिया के लिये भी कि उसके एक बैंकर को वैश्विक स्तर पर मान्यता मिली है। आज के इस प्रतिस्पर्धी दौर में अंशुला की इस उपलब्धि को कमतर नहीं माना जा सकता। यह सम्पूर्ण भारतीय नारी शक्ति के लिए गर्व और गौरव की बात है।


Tuesday 18 June 2019

राजनीतिक लीक लांघती आधी आबादी


श्रीप्रकाश शुक्ला
समय तेजी से बदल रहा है। हर क्षेत्र में भारतीय महिलाएं अपनी प्रतिभा और लगन से सफलता-दर- सफलता हासिल कर रही हैं। अब कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जहां महिलाओं के पदचाप न सुनाई दे रहे हों। भारतीय बेटियां जहां नील गगन में स्वच्छंद उड़ान भर रही हैं वहीं वह राजनीतिक चेतना के रथ पर सवार होकर संसद की देहरी तक भी पहुंच रही हैं। सत्रहवीं लोकसभा के चुनावी परिदृश्य को देखें तो आधी आबादी ने संसद में अपनी मौजूदगी का एक नया कीर्तिमान स्थापित किया है। बावजूद इसके यदि दुनिया भर के राजनीतिक परिदृश्य को देखें तो भारत में महिला सांसदों का औसत सबसे कम है। भारत में जहां पूरे संसद की संख्या का केवल 14 फीसदी महिला सांसद हैं वहीं दक्षिण अफ्रीका में 43 फीसदी, ब्रिटेन में 32 फीसदी, अमेरिका में 24, बांग्लादेश में 21 और रवांडा में 61 फीसदी महिला सांसद हैं। हमारे देश में महिलाएं बेशक राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, लोकसभा में विपक्ष की नेता और लोकसभा अध्यक्ष के साथ-साथ अन्य कई महत्वपूर्ण राजनीतिक पदों पर आसीन रही हों लेकिन राजनीति में महिलाओं की भागीदारी को लेकर उन्होंने भी कभी ठोस पहल नहीं की।
मौजूदा लोकसभा में जो महिला सांसद चुनकर आई हैं,  उनमें हर विधा का सामंजस्य देखा जा सकता है। दिलचस्प पहलू तो यह है कि इस बार जमीन से जुड़ी कई कद्दावर महिलाओं ने संसद की देहरी पर कदम रखे हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में जहां 62 महिला सांसद संसद तक पहुंची थीं वहीं इस बार इनकी संख्या 78 हो गई है। 2019 में पुरुष उम्मीदवारों की अपेक्षा महिला उम्मीदवारों की संख्या सिर्फ 715 थी लेकिन इनकी सफलता का ग्राफ पुरुषों से कहीं बेहतर है। इस मर्तबा उड़ीसा में 21 में से सात महिला सांसद चुनी गई हैं जिनमें से बीजेडी की पांच और भारतीय जनता पार्टी की दो सांसद हैं। राजनीति में महिलाओं को 33 फीसदी प्रतिनिधित्व देने की मांग लम्बे समय से हो रही है लेकिन इस दिशा में अब तक ठोस प्रयास नहीं देखे गए हैं।
देश में बीजू जनता दल ही एकमात्र ऐसी पार्टी है जिसने टिकट बंटवारे में 33 फीसदी महिलाओं को तवज्जो दी थी तो तृणमूल कांग्रेस ने भी 42 में से 17 महिला उम्मीदवारों को टिकट देकर आधी आबादी पर अपना विश्वास जताया था। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस ने 423 में से 54 महिलाओं तो भारतीय जनता पार्टी ने 437 में से 53 महिलाओं को ही टिकट दिया था। सत्रहवीं लोकसभा के चुनावों में कई ऐसे नाम हैं जिसे जनता ने नकार दिया है। जनता जनार्दन ने टीआरएस की के. कविता, पी.डी.पी. की महबूबा मुफ्ती, समादवादी पार्टी की डिम्पल यादव और पूनम सिन्हा, भाजपा की जया प्रदा, कांग्रेस की प्रिया दत्त और उर्मिला मातोंडकर तथा तृणमूल कांग्रेस की मुनमुन सेन को इस मर्तबा संसद जाने से रोक दिया है। संसद पहुंची महिलाओं में ओड़िशा से बीजू जनता दल से जीतीं चंद्राणी मुर्मू (25) सबसे कम उम्र की सांसद हैं। इसी तरह ओड़िशा से ही भाजपा के टिकट पर जीतीं अपराजिता सारंगी आईएएस थीं तो बीजू जनता दल की प्रमिला बिसोई पांचवीं तक पढ़ी हैं और खेती करती हैं। केरल की रेम्या हरिदास कांग्रेस से जीती हैं जो टैलेंट हंट विजेता हैं।
सत्रहवीं लोकसभा के परिदृश्य को देखने के बाद भी राजनीति में महिलाओं की स्थिति संतोषजनक नहीं कही जा सकती। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि संसद में 33 फीसदी आरक्षण दिलाने के लिए लाया गया महिला आरक्षण विधेयक कुछ पार्टियों के रवैये के चलते कई वर्षों से लम्बित है। इससे ज्यादा अफसोस की बात तो यह है कि राष्ट्रीय पार्टियां (कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी) भी महिलाओं को टिकट देने के मामले में संजीदा नहीं हैं। अफसोस की बात है कि राजनीतिक भागीदारी की अहम प्रक्रिया मतदान में भी शहरों के बनिस्बत ग्रामीण महिलाएं अपने परिवार के पुरुषों की राय के मुताबिक ही मतदान कर रही हैं।  आधी आबादी की राजनीतिक उपेक्षा के बावजूद महिलाएं राजनीति में न सिर्फ आगे आ रही हैं बल्कि अपनी सफलता से पुरुष मानसिकता को भी बदल रही हैं। आज महिलाएं संसद और विधानसभा में जहां गंभीर मुद्दों पर अपनी बात रख रही हैं वहीं अपने निर्णयों से लगातार वाहवाही लूट रही हैं। यह खुशी की बात है कि महिलाएं न केवल राजनीति में दिलचस्पी ले रही हैं बल्कि मतदान के मामले में भी पुरुषों को ठेंगा दिखा रही हैं।
देखा जाए तो भारतीय राजनीति में अभी भी पुरुषवादी सोच ही हावी है। हर पार्टी आम आदमी की बात तो करती है लेकिन आम औरत के बारे में कतई नहीं सोचती। गौरतलब है कि स्वतंत्रता से पहले ही (1917) देश में महिलाओं की राजनीति में भागीदारी की मांग उठी थी, उसके बाद वर्ष 1930 में पहली बार महिलाओं को मताधिकार मिला। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट पर गौर करें तो भारत जैसे देशों में यदि महिलाओं की भागीदारी इसी तरह से कम रही तो लिंग असंतुलन को पाटने में कम से कम 50 साल लग जाएंगे। महिला आरक्षण विधेयक की जहां तक बात है यह अब तक चार बार संसद में पेश किया जा चुका है, लेकिन पारित नहीं हुआ। इस विधेयक के कानून बनने के बाद लोकसभा की 33 प्रतिशत सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हो जाएंगी। इस विधेयक को लेकर कुछ पार्टियों में हिचक है तो कुछ का तर्क है कि इससे शहर और उच्च समाज की महिलाओं का संसद में दबदबा हो जाएगा तथा ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएं हाशिए पर चली जाएंगी।
भारतीय राजनीति में महिलाओं के दबदबे को देखें तो इंदिरा गांधी, सुचेता कृपलानी, विजय लक्ष्मी पंडित, सरोजनी नायडू, सोनिया गांधी, मेनका गांधी, जयललिता, सुषमा स्वराज, मायावती, उमा भारती, ममता बनर्जी, प्रतिभा पाटिल, स्मृति ईरानी आदि के नाम प्रमुखता से लिए जा सकते हैं। इंदिरा गांधी भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री बनीं। वह वर्ष 1966 से 1977 तक लगातार तीन बार प्रधानमंत्री रहीं। इसके बाद वह चौथी बार वर्ष 1980 से 1984 तक इस पद पर रहीं। सुचेता कृपलानी की जहां तक बात है वह 1963 में उत्तर प्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं। सुचेता स्वतंत्रता सेनानी के साथ संविधान सभा के लिए चुनी जाने वाली कुछ महिलाओं में शामिल थीं। इसके अलावा वह कई उप-समितियों में भी शामिल रहीं जिन्होंने स्वतंत्र भारत का संविधान तैयार किया। विजयलक्ष्मी पंडित वर्ष 1953 में संयुक्त राष्ट्र संघ आमसभा की पहली भारतीय महिला अध्यक्ष बनी थीं। विजयलक्ष्मी पंडित 1962 से 1964 तक महाराष्ट्र की राज्यपाल भी रहीं। विजयलक्ष्मी पंडित उत्तर प्रदेश के फूलपुर से लोकसभा सदस्य भी रहीं।
भारत कोकिला सरोजनी नायडू की बात करें तो वह आजादी से पहले संयुक्त प्रांत की राज्यपाल थीं। आजादी के बाद भी वह राज्य की गवर्नर रहीं यानी वह स्वतंत्र भारत की पहली महिला राज्यपाल थीं। आजादी से पहले वह कांग्रेस पार्टी की अध्यक्ष भी रहीं। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में भी भाग लिया था। इटली में जन्मीं और रायबरेली से सांसद सोनिया गांधी संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की अध्यक्ष के साथ लगभग डेढ़ दशक तक कांग्रेस की अध्यक्ष रहीं। सूचना अधिकार कानून और मनरेगा लागू कराने में सोनिया गांधी की बड़ी भूमिका रही है। भारतीय जनता पार्टी की कद्दावर नेता सुषमा स्वराज दिल्ली की पहली महिला मुख्यमंत्री रहीं। पेशे से वकील सुषमा स्वराज कुशल वक्ता होने के साथ ही उनका भारतीय राजनीति में विशेष स्थान है। प्रतिभा पाटिल भारत की पहली महिला राष्ट्रपति रह चुकी हैं।
बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। मायावती किसी पद पर हों या नहीं उनका असर उत्तर प्रदेश की राजनीति में स्पष्ट देखा जा सकता है। ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल की पहली महिला मुख्यमंत्री हैं। उन्होंने राज्य से वाम दलों के 34 वर्षीय राज को खत्म किया था। वह देश की पहली महिला रेल मंत्री भी रहीं। उन्होंने अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत कांग्रेस से की थी लेकिन आज वह तृणमूल कांग्रेस की सर्वेसर्वा हैं। स्मृति ईरानी ने अमेठी से राहुल गांधी को पराजित कर इस बात के संकेत दिए कि जनता के सुख-दुख में सहभागी रहने वाला ही असली राजनीतिज्ञ है।
नि:संदेह पितृसत्ता की सीमाओं को लांघते हुए जिन 78 महिलाओं ने संसद में कदम रखा है उससे महिला सशक्तीकरण की दिशा में देर से ही सही परिवर्तन जरूर होगा। आज जब संसद में करोड़पति सांसदों का वर्चस्व हो ऐसे में ओड़िशा की प्रमिला जैसी गरीब तबके की महिला का संसद तक पहुंचना निम्न-मध्यमवर्गीय लोगों की उम्मीदों को ही पंख लगाता है। प्रमिला ने महिलाओं में विश्वास जगाया है कि वे मेहनत व लगन से अपने सपनों को पूरा कर सकती हैं। राजनीति में लैंगिक भेदभाव आज भी है। लोकसभा हो या फैसले लेने वाली अन्य जगह, महिलाओं का कम प्रतिनिधित्व सीधे-सीधे राजनीतिक ढांचे से उनको सुनियोजित ढंग से बाहर रखने और मूलभूत लैंगिक भेदभाव को ही रेखांकित करता है। सत्रहवीं लोकसभा में बेशक 78 महिला सांसद पहुंची हों लेकिन अभी भी उनके लिए 'शीशे की छत' तोड़ पाना आसान नहीं है। भारत में महिलाओं ने दलितों या मुसलमानों जैसे 'किसी खास वर्ग' के रूप में कभी मतदान नहीं किया, न ही किसी राजनीतिक दल ने राज्य या राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी कोशिश की कि उन्हें उनसे जुड़े किसी मुद्दे पर आंदोलित किया जाए। राजनीतिक दलों को महिला मतदाताओं की याद सिर्फ चुनाव के दौरान ही आती है। भारत में महिला आंदोलन इस वक्त संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के सवालों पर सकारात्मक कार्रवाई को लेकर बंटा हुआ है। हम उम्मीद करते हैं कि मोदी सरकार महिला आरक्षण विधेयक पास करवा कर आधी आबादी के चेहरे पर जरूर मुस्कान लाएगी।