Monday 31 July 2017

काजल की कोठरी से बेदाग निकला जम्बो

शह-मात की क्रिकेट
श्रीप्रकाश शुक्ला
भारत में क्रिकेट को धर्म तो क्रिकेटर को भगवान माना जाता है। सदियों से क्रिकेट भद्रजनों की लुगाई रही है लेकिन जब से इसके कपड़े रंग-बिरंगे हुए हैं इसकी स्थिति कोठे वाली से भी बदतर हो गई है।  हॉकी भारत का राष्ट्रीय खेल है लेकिन उसे अपना हक कभी नहीं मिला। भारत में दूसरे खेल भी क्रिकेट के नंगनाच में कहीं खो से गये हैं। भारत में जब टेस्ट क्रिकेट की शुरुआत हुई तब लोगों की समझ में ही नहीं आ रहा था कि इस खेल का भविष्य क्या है। वैसे तो भारत में क्रिकेट की शुरुआत 18वीं सदी में ही हो गई थी लेकिन संगठित क्रिकेट 1848 से परवान चढ़ी। पारसी ओरिएण्टल क्रिकेट क्लब भारत का पहला क्रिकेट क्लब था। 1866 में पहले हिन्दू क्लब का गठन हुआ जिसे बाम्बे यूनियन से जाना गया। भारत में क्रिकेट की जब भी बात होती है तो लोग सुनील गावस्कर, कपिल देव या भारत रत्न सचिन तेंदुलकर को ही ज्यादा याद करते हैं। भारत में एक से बढ़कर एक बिन्दास क्रिकेटर पैदा हुए लेकिन जब से क्रिकेट में शह-मात का खेल शुरू हुआ कालजयी खिलाड़ी बिसरा दिए गए। जुलाई महीने में भारत में क्रिकेट का जो नंगनाच हुआ उसमें एक भद्र क्रिकेटर और महान खिलाड़ी को गुरु पद त्यागना पड़ा। अनिल कुम्बले की जगह रवि शास्त्री को भारतीय टीम का प्रशिक्षक नियुक्त किया जाना कई सवाल खड़े करता है। तुलनात्मक नजरिए से देखें तो कुम्बले और शास्त्री में जमीन-आसमान का फर्क है।
खेल कोई भी हो खिलाड़ियों का मकसद देश की अस्मिता को चार चांद लगाना होना चाहिए। भारत में गुरु का महत्व सबसे ऊपर है लेकिन अनिल कुम्बले प्रकरण से यह बात मिथ्या साबित हो गई। टीम इण्डिया के कप्तान विराट कोहली और कोच अनिल कुम्बले के बीच मतभेद को लेकर भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड तथा क्रिकेट सलाहकार समिति के सदस्यों का रवैया भी गैरजिम्मेदाराना रहा है। सौरव गांगुली, सचिन तेंदुलकर और वीवीएस लक्ष्मण को अनिल कुम्बले का पक्ष भी सुनना था। कप्तान विराट कोहली देश से बड़े नहीं हो सकते। भारतीय क्रिकेट में अनिल कुम्बले का योगदान किसी से कम नहीं है। यदि अनिल कुम्बले ने गाहे-बगाहे टीम इंडिया पर अनुशासन का डंडा चलाया भी तो उसमें हर्ज की क्या बात थी। सौरव गांगुली ने सही कहा कि पूर्व कोच अनिल कुम्बले और कप्तान विराट कोहली के बीच मतभेदों को भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड सही तरीके से सुलझाने में नाकाम रहा। इस मामले को सुलझाने की जिसे भी यह जिम्मेदारी दी गई थी, उसने अपना काम सही ढंग से क्यों नहीं किया। दरअसल क्रिकेट सलाहकार समिति ने ही वीटो का इस्तेमाल करते हुए कोच अनिल कुम्बले की नियुक्ति की थी। उस समय भी विराट कोहली कुम्बले के पक्ष में नहीं थे लेकिन सौरव गांगुली के चलते रवि शास्त्री को मुंह की खानी पड़ी थी। अनिल कुम्बले के कार्यकाल में भारतीय क्रिकेट टीम का प्रदर्शन काफी संतोषजनक रहा है। बेहतर होता कुम्बले को एक और मौका दिया जाता या फिर शास्त्री की जगह पर वीरेन्द्र सहवाग प्रशिक्षक बनते। वीरेन्द्र सहवाग को प्रशिक्षक बनाने से न केवल विराट कोहली पर अंकुश लगता बल्कि टीम इंडिया भी अनुशासित होती। गौरतलब है कि पिछली बार भी शास्त्री प्रशिक्षक पद की दौड़ में सबसे आगे चल रहे थे लेकिन सचिन तेंदुलकर, सौरव गांगुली और वीवीएस लक्ष्मण ने अनिल कुम्बले से आवेदन कराकर शास्त्री का बना बनाया खेल बिगाड़ दिया था।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जब एक खिलाड़ी की जगह लेने को 10-10 खिलाड़ी खड़े हों ऐसे में भारतीय क्रिकेट में प्रशिक्षक की भूमिका के कोई खास मायने नहीं रह जाते। अब क्रिकेट में सिर्फ पैसा ही पैसा है, ऐसे में भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड इसे खेल से ज्यादा व्यवसाय के रूप में ले रहा है। देखा जाए तो क्रिकेट में  11 खिलाड़ी होते हैं लेकिन भारत में क्रिकेट के साथ खिलवाड़ करने वाले बहुत से सफेदपोश खिलाड़ी हैं। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड का गठन 1928 में हुआ। तब कोई नहीं जानता था कि इस बोर्ड का काम क्या होना चाहिए। क्रिकेट को बढ़ावा देना, क्रिकेट के हित में काम करना या सिर्फ क्रिकेट को नियंत्रण करना लेकिन धीरे-धीरे इस बोर्ड का मकसद साफ हो गया, पैसा यानी पैसा। कपिल देव के नेतृत्व में जैसे ही भारतीय टीम ने 1983 का विश्व कप जीता भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के सपनों को पर लग गए। भारतीय क्रिकेट को समृद्ध करने का श्रेय स्वर्गीय जगमोहन डालमिया और स्वर्गीय माधव राव सिंधिया के प्रयासों को जाता है। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड का पहला अध्यक्ष आर.ई. ग्रांट बने जिनका ब्रिटेन के बड़े उद्योगपतियों में शुमार था। तब से लेकर अब तक यह सिलसिला जारी है। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड का अध्यक्ष या तो उद्योगपति बना या फिर राजनेता। भारत में क्रिकेट के सम्पन्न होने से खिलाड़ियों की आर्थिक स्थिति में भी सुधार हुआ है। आईपीएल जैसी प्रतियोगिताओं से नए खिलाड़ियों को न केवल खेलने का मौका मिला बल्कि उनकी तंगहाली भी दूर हुई है लेकिन टके भर का सवाल यह है कि क्या बीसीसीआई को चलाने के लिए हमारे देश में खिलाड़ियों की कमी है।
बीसीसीआई एक संस्था के रूप में बेशक सफल हुई हो लेकिन विवादों ने कभी इसका पीछा नहीं छोड़ा।  दुनिया का सबसे अमीर बोर्ड अपने आपको देश से बड़ा मानने की बार-बार गलती करता रहा है। भला हो सुप्रीम कोर्ट का जिसने निरंकुश भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड पर अंकुश लगाने का काम किया है। भारत जैसे देश में जहां एक आम आदमी अपनी कमाई का कुछ हिस्सा टैक्स के रूप में देता है वहीं    बीसीसीआई जैसी धनकुबेर संस्था का टैक्स चोरी करना शर्म की ही बात है। देखा जाए तो भारत में बीसीसीआई ने किसी दूसरी संस्था को अपने सामने टिकने ही नहीं दिया। बीसीसीआई और आईसीएल विवाद सबको पता है। 2007 में कपिल देव की अगुआई में आईसीएल का गठन हुआ था जिसका मुख्य  मकसद घरेलू खिलाड़ियों को मौका देना था लेकिन बीसीसीआई इससे खुश नहीं थी। बीसीसीआई  ने आईसीएल में खेलने वाले सभी खिलाड़ियों को ब्लैक-लिस्ट किया और कपिल देव से अपना रिश्ता तोड़ लिया। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड ने आईसीएल को चुनौती देते हुए ही आईपीएल की शुरुआत की। आईपीएल और आईसीएल की लड़ाई में आईसीएल का अस्तित्व तो खत्म हो गया लेकिन 2012 में कपिल देव ने भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड से माफी मांगकर अपना दामन तो बचा लिया पर आईसीएल से जुड़े खिलाड़ियों का भविष्य खराब हो गया। इस लड़ाई में सबसे ज्यादा फायदा कपिल देव को ही हुआ। इसे पैसे का रैसा ही कहें कि दुनिया की क्रिकेट को नियंत्रित करने वाली आईसीसी भी बीसीसीआई के सामने बौनी नजर आती है। राजीव शुक्ला और अरुण जेटली जैसे लोगों से जब तक क्रिकेट मुक्त नहीं होगी खिलाड़ियों को बेआबरू होकर ही जाना होगा।

देखा जाए तो 1928 से 2013 तक भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड में 31 अध्यक्ष बने जिनमें सिर्फ छह का ही क्रिकेट से ताल्लुक रहा है बाकी 25 या तो राजनीतिज्ञ थे या फिर उद्योगपति। राज्य स्तर के क्रिकेट बोर्ड भी राजनीतिज्ञों के ही हाथों की कठपुतली हैं। अफसोस की बात है जो राजनेता अपने राज्य को चलाने में समर्थ नहीं हैं वे क्रिकेट बोर्ड को चला रहे हैं। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड की चयन समिति को छोड़ दें तो अधिकांश कमेटियों में क्रिकेटर नजर नहीं आते। जो भी क्रिकेटर क्रिकेट की भलाई के लिए बोर्ड से पंगा लेता है उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। खिलाड़ियों के मान-सम्मान को बार-बार लगती चोट के लिए भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड से कहीं अधिक पूर्व क्रिकेटर जिम्मेदार हैं। भारत में क्रिकेट खिलाड़ियों का कोई संघ भी नहीं है जोकि खिलाड़ियों के हक के लिए लड़ सके। हां कुछ ऐसे खिलाड़ी जरूर हैं जो बीसीसीआई के पैसे से मौज कर खिलाड़ियों को आपस में लड़ाते रहते हैं। विराट कोहली और अनिल कुम्बले विवाद में भी कुछ पूर्व खिलाड़ियों का हाथ है। कहते हैं कि दो के बीच में तीसरे का फायदा। रवि शास्त्री क्या हैं, यह बात किसी से छिपी नहीं है। शास्त्री के कार्यकाल में खिलाड़ी आधी रात को भी बाहर जा सकते हैं जबकि अनिल कुम्बले के रहते खिलाड़ियों का रंगरेलियां मनाना कतई सम्भव नहीं था। वीरेन्द्र सहवाग को भी इसीलिए प्रशिक्षक नहीं बनाया गया। कुल मिलाकर क्रिकेट में जब तक सफेदपोशों की पैठ रहेगी, इस खेल में फिक्सिंग भी होगी और खिलाड़ी भी मौज करेंगे। अनिल कुम्बले का काजल की कोठरी से बेदाग निकलना एक सराहनीय कदम है। सच कहें तो अनिल कुम्बले मुम्बइया राजनीति का शिकार हो गये।

Tuesday 25 July 2017

जो काम पीटी ऊषा न कर सकीं, वो अंजू ने कर दिखाया


विश्व एथलेटिक्स में भारत की प्रथम पदक विजेता अंजू बॉबी जॉर्ज
अंजू बॉबी जॉर्ज भारत की प्रसिद्ध एथलीट हैं। यह पहली भारतीय एथलीट हैं जिन्होंने विश्व स्तर पर देश को पहला पदक दिलाया। अंजू ने सितम्बर 2003 में पेरिस में हुई विश्व एथलेटिक्स चैम्पियनशिप की लम्बीकूद स्पर्धा में कांस्य पदक जीता था। अंजू के करिश्मे के 14 साल बाद भी कोई और महिला खिलाड़ी ऐसा कारनामा नहीं कर सकी है। भारत को प्रथम बार विश्वस्तर की प्रतियोगिता में कांस्य पदक दिलाने वाली अंजू बॉबी जॉर्ज तब 25 वर्ष की थीं। अंजू बॉबी जॉर्ज का प्रदर्शन भारतीय महिला एथलेटिक्स के लिए एक नजीर है। अंजू के इस करिश्मे से पहले भारत का नाम एथलेटिक्स में जरा-सी चूक के लिये जाना जाता था। इस शानदार प्रदर्शन के लिए 2004 में अंजू बॉबी जॉर्ज को खेलों में देश के सबसे बड़े सम्मान राजीव गाँधी खेल रत्न से नवाजा गया था। अंजू को अर्जुन अवार्ड भी मिल चुका है।
अंजू का जन्म केरल के चांगनसेरी में हुआ था। बचपन की पढ़ाई सेंट एनी गर्ल्स स्कूल में हुई। अंजू के पापा भारत के आम पापाओं जैसे नहीं थे। उन्होंने बचपन से ही अपनी बेटी को खेलने के लिए प्रोत्साहित किया। उनका फर्नीचर का बिजनेस था। अंजू ने स्कूल में एथलेटिक्स के बेसिक्स सीखे। पांच साल की उम्र में ही उन्होंने एथलेटिक्स को आत्मसात कर लिया था। अंजू हमेशा ही एक शख्सियत यानी पी.टी. ऊषा से प्रभावित थीं और उन्हें ही अपना आदर्श भी माना। पी.टी. ऊषा भारत की पहली महिला एथलीट थीं जो किसी भी ओलम्पिक के फाइनल में पहुंची थीं। अंजू को भी पी.टी. ऊषा ही बनना था। यही जिद उनकी कामयाबी की पहली सीढ़ी भी बनी। अंजू ने स्कूली जीवन से ही अपनी प्रतिभा का जलवा दिखाना शुरू कर दिया था। उन्होंने स्कूल नेशनल गेम्स में भी हिस्सा लिया और 100 मीटर दौड़ तथा 400 मीटर रिले रेस में तीसरे नम्बर पर रहीं। अंजू ने अपना एथलेटिक्स करियर हैप्थलॉन खेल से शुरू किया। इस अकेले खेल में सात अलग-अलग इवेंट्स होते हैं। बाद में उन्होंने सिर्फ जम्प वाले खेलों पर ध्यान देना शुरू किया।
1996 में अंजू ने दिल्ली जूनियर एशियाई खेलों में मैडल जीता। इसके बाद वे त्रिचूर पहुंचीं जहां उनका करियर शेप-अप होना शुरू हुआ और उनका नाम नेशनल लेवल पर उभरा। इसी दौरान उनका सेलेक्शन नेशनल कोचिंग कैम्प में हुआ। अंजू ने पहले रेलवे में नौकरी की फिर 1998 में रेलवे छोड़ वह चेन्नई कस्टम से जुड़ीं। 20 साल की उम्र में अंजू ने ट्रिपल जम्प में नेशनल रिकॉर्ड बना दिया था। 1999 में नेपाल में हुए साउथ एशियन फेडरेशन कप में उन्होंने सिल्वर मेडल जीता। यह उनके अब तक के करियर की सबसे बड़ी जीत थी लेकिन इसके साथ ही कुछ ऐसा हुआ जिसके कारण वह दो साल तक खेलों से दूर रहीं। इस मैच में उनके एंकल में गहरी चोट आई थी। इसी चोट के चलते वह 2000 में हुए सिडनी ओलम्पिक में भी हिस्सा नहीं ले पाई थीं। अंजू हार मानने वालों में से बिल्कुल भी नहीं थीं। 2001 में वह अपनी चोट से उभरीं और लम्बी कूद में 6.74 मीटर का रिकॉर्ड कायम किया। इसके बाद अंजू ने भारत के ट्रिपल जम्प के राष्ट्रीय चैम्पियन राबर्ट बॉबी जॉर्ज से अपना खेल और बेहतर करने के लिए मदद ली और आगे चलकर अंजू ने उन्हीं के साथ शादी भी कर ली।
अंजू ने मैनचेस्टर के राष्ट्रमंडल खेलों में सिल्वर मैडल जीतकर अपनी पहचान बनाई। यह मैडल जीतने वाली वह भारत की पहली महिला एथलीट थीं। यहां उन्होंने 6.49 मीटर लम्बी छलांग लगाई थी। इसके बाद बुसान एशियाई खेलों में उन्होंने गोल्ड मैडल जीता। यहां उन्होंने 6.53 मीटर की लगाई थी। इसके बाद अंजू ने दुनिया के जाने-माने एथलीट माइक पावेल से ट्रेनिंग ली। उन्होंने अंजू को अमेरिका में कड़ी ट्रेनिंग दी। 2003 में उन्होंने वह कर दिखाया जो तब तक किसी खिलाड़ी ने नहीं किया था। अंजू अपनी सफलता का राज बताते हुए कहती हैं आप जो भी कर रहे हैं उस पर भरोसा होना चाहिए। जब कई गरीब देश के खिलाड़ी मैडल जीत सकते हैं तो भारत क्यों नहीं। अगर मैं भारत में 6.74 मीटर की छलांग दो बार लगा सकती हूं तो आप भी ऐसा कर सकते हैं।
अंजू ने पाँच साल की उम्र में ही एथलेटिक्स स्पर्धाओं में भाग लेना शुरू कर दिया था। अंजू की माँ ग्रेसी तथा पिता के.टी. मार्कोस ने अपनी बेटी को एथलेटिक्स की दिशा में प्रोत्साहित किया। के.टी. मार्कोस का फर्नीचर का व्यवसाय है। एथलेटिक्स की जहां तक बात है 1960 रोम ओलम्पिक में मिल्खा सिंह विश्व रिकार्ड बनाने के बाद भी पदक से चूक गए थे। 1976 में श्रीराम सिंह मांट्रियाल में राष्ट्रीय रिकार्ड बनाने के बावजूद सातवें स्थान पर रहकर पदक पाने से चूके। इसी प्रकार गुरबचन सिंग रंधावा भी पदक जीतते-जीतते रह गये। 1984 में लास एंजिल्स में पी.टी. ऊषा एक मिनट के सौवें हिस्से से पदक पाने से चूक गई थीं। सितम्बर 2003 में पेरिस में हुई विश्व एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में अंजू बॉबी जॉर्ज ने लम्बीकूद में कांस्य पदक जीतकर भारत को पहली बार विश्वस्तर की प्रतियोगिता में पदक दिलाया। अंजू ने इस स्तर तक पहुंचने के लिए कड़ी मेहनत की। अंजू के घर और ससुराल दोनों जगह खेल का अच्छा माहौल रहा इसी वजह से वह लम्बे समय तक खेलों से जुड़ी रहीं। पति बॉबी जॉर्ज ने अंजू के लिए अपना ट्रिपल जम्प में कैरियर छोड़ दिया ताकि वह पूरा समय अंजू की कोचिंग में लगा सकें। अंजू अपनी सफलता का श्रेय अपने पति को देते हुए कहती हैं कि वह आज जहाँ हैं अपने पति की वजह से हैं। विश्व एथलेटिक्स में पदक जीतने वाली अंजू का कहना है देश के लिए पदक जीतना हर खिलाड़ी के लिए गौरव की बात होती है। मैं भी दुनिया में देश का नाम रोशन करने पर गर्व महसूस करती हूं।
दरअसल 2001 में अंजू बॉबी जॉर्ज का भाग्योदय हुआ और उन्होंने 6.74 मीटर लम्बी कूद का रिकार्ड कायम किया। विमला कालेज, त्रिचूर में आते ही उनके कैरियर को एक दिशा मिली और उसका नाम राष्ट्रीय स्तर पर उभरा। इसी दौरान उसका चयन राष्ट्रीय कोचिंग कैम्प में हुआ। अंजू ने मैनचेस्टर में राष्ट्रमंडल खेलों में कांस्य पदक जीतकर अन्य दिग्गज भारतीय खिलाड़ियों के बीच अपनी पहचान बनाई। यहाँ उन्होंने 6.49 मीटर छलांग लगाई। इसके बाद बुसान एशियाई खेलों में अंजू बॉबी जॉर्ज ने स्वर्ण पदक जीता और अपनी श्रेष्ठता की छाप छोड़ी। यहाँ उसने 6.53 मीटर की छलांग लगाई। तत्पश्चात अंजू ने दुनिया के जाने-माने एथलीट माइक पावेल से ट्रेनिंग ली। उन्होंने अंजू को अमेरिका में कड़ी ट्रेनिंग दी। अंजू का अधिकतम रिकार्ड 6.74 मीटर की लम्बी कूद का है। 30 अगस्त, 2003 को पेरिस विश्व एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में अंजू ने 6.70 मीटर की छ्लांग लगाकर कांस्य पदक जीता था। इसके पूर्व भारतीय खिलाड़ी सीमा ने भी विश्व जूनियर एथलेटिक्स में पदक जीता था परंतु डोप टेस्ट में पॉजिटिव पाए जाने पर उसका पदक वापस ले लिया गया था। अतः विश्व स्तर पर सफलता केवल अंजू को ही मिल सकी। लम्बी कूद के विश्व रिकार्डधारी खिलाड़ी पॉवेल का अंजू की सफलता में बड़ा हाथ है। पॉवेल स्वयं लम्बी कूद के विश्व रिकार्ड विजेता रहे हैं। उन्होंने 1991 में टोकियो में 8.95 मीटर की छलांग लगाकर विश्व रिकार्ड बनाया था। देखा जाए तो एक समय ऐसा भी आया जब महिला खिलाड़ियों ने सात मीटर से अधिक की छलांग लगाईं लेकिन डोप टेस्ट के बाद ये आंकड़े सामान्य स्तर तक आ गए। अंजू विश्व के सर्वश्रेष्ठ आठ खिलाड़ियों में से एक रही हैं। एथेंस ओलम्पिक में भारतीय ध्वजवाहक का सम्मान अंजू जॉर्ज को दिया गया।

अंजू ने एथेंस ओलम्पिक में कुल 30 खिलाड़ियों के साथ लम्बी कूद में हिस्सा लिया और 6.69 मीटर की लम्बी छलांग लगाकर फाइनल में प्रवेश किया। फाइनल में पहुँचने के लिए कम से कम 6.65 मीटर छलांग लगानी अनिवार्य थी। फाइनल में 12 प्रतियोगी थीं लेकिन अंजू कोई भी पदक पाने में असफल रहीं।  अंजू ने पहले प्रयास में 6.83 मीटर की छलांग लगाकर नया राष्ट्रीय रिकार्ड कायम किया लेकिन रूसी तिकड़ी ने सात मीटर से ऊपर की छलांग लगाकर भारतीय उम्मीदें समाप्त कर दीं। अंजू अंत में छठा स्थान ही पास सकीं। वर्ष 2004 में 13 खिलाड़ियों का नाम देश के सर्वोच्च खेल सम्मान राजीव गाँधी खेल रत्न पुरस्कार के लिए प्रस्तावित किया गया था लेकिन इनमें से अंजू का नाम सबसे ऊपर रहा। पेरिस विश्व चैम्पियनशिप में अंजू को मिले कांस्य पदक के कारण ही उन्हें राजीव गांधी खेल रत्न सम्मान से नवाजा गया। इसी साल उनके कोच पति राबर्ट बॉबी जॉर्ज को द्रोणाचार्य पुरस्कार से सम्मानित किया गया। ये पुरस्कार अंजू व राबर्ट जॉर्ज को 21 सितम्बर, 2004 को राष्ट्रपति द्वारा प्रदान किए गए। अंजू वर्ष 2005 में कोई बड़ा कमाल नहीं दिखा सकीं। वर्ष 2005 में हीरो होंडा अकादमी ने एथलेटिक्स में वर्ष 2004 के लिए अंजू को श्रेष्ठतम खिलाड़ी नामांकित किया। वर्ष 2006 में अंजू का प्रदर्शन बिगड़ने से महिला लम्बी कूद रैंकिंग में वह चौथे स्थान से लुढ़क कर छठे स्थान पर पहुँच गईं। दिसम्बर 2006 में हुए दोहा एशियाई खेलों में अंजू अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन नहीं दोहरा सकीं। उन्होंने 6.52 मीटर की छलांग लगाकर रजत पदक जीतने में सफलता हासिल की। सर्वश्रेष्ठ छलांग न लगा पाने  के बावजूद अंजू खुश थीं कि आखिर उन्होंने पदक तो जीता। अंजू ने छठवें और अंतिम प्रयास में 6.52 मीटर की छलांग लगाई वरना कजाकिस्तान की खिलाड़ी 6.49 की कूद के साथ रजत पदक ले गई होती और अंजू को कांस्य से संतोष करना पड़ता। बुसान एशियाई खेलों में अंजू ने स्वर्ण पदक जीता था।

Thursday 20 July 2017

तीन दशक बाद देश को मिली दुती चंद रूपी नई उड़न परी

गरीब की इस बेटी का संघर्षों से है चोली-दामन का साथ
श्रीप्रकाश शुक्ला
पूरा भारत एथलीट पीटी ऊषा को उड़न परी के नाम से जानता है। 37 साल पहले सिर्फ 16 वर्ष की पीटी ऊषा ने कामयाबी का एक नया इतिहास रचा था। वह 100 मीटर फर्राटा दौड़ में ओलम्पिक के लिए क्वालीफाई करने वाली देश की पहली महिला बनी थीं। 1980 के मॉस्को ओलम्पिक में पीटी ऊषा का प्रदर्शन बहुत अच्छा नहीं रहा लेकिन 1984 के लॉस एंजिल्स ओलम्पिक्स में पीटी ऊषा ने शानदार प्रदर्शन कर देशवासियों को पुलकित कर दिया था। 400 मीटर हर्डल मुकाबले में पीटी ऊषा एक सेकेंड के 100वें हिस्से से कांस्य पदक जीतने से चूक गई थीं। पीटी ऊषा के उस लाजवाब प्रदर्शन के तीन दशक बाद अब देश को एक नई उड़न परी मिली है, जिसका नाम है दुती चंद। दुती चंद ने 2016 में 100 मीटर दौड़ में रियो ओलम्पिक के लिए न केवल क्वालीफाई किया था बल्कि गरीब की इस बेटी ने फर्राटा दौड़ का राष्ट्रीय रिकार्ड भी बना डाला था। फिलवक्त दुती 100 मीटर फर्राटा दौड़ की राष्ट्रीय रिकार्डधारी है। दुती चंद की यह कामयाबी उसके हौसले और जुनून के साथ ही उसकी संघर्षगाथा भी है।
दुती चंद ने कजाकिस्तान के अलमाटी में कोसनोव मेमोरियल एथलेटिक्स मीट में महिलाओं की 100 मीटर दौड़ 11.24 सेकेंड में पूरी कर न केवल दूसरा स्थान हासिल किया बल्कि रियो ओलम्पिक के लिए भी क्वालीफाई किया था। ओलम्पिक में 100 मीटर की दौड़ में सहभागिता करने वाली दुती चंद दूसरी भारतीय महिला खिलाड़ी है। इससे पहले पीटी ऊषा ने 1980 में मॉस्को ओलम्पिक के लिए क्वालीफाई किया था। रियो ओलम्पिक में क्वालीफाई करने के लिए दुती चंद को 100 मीटर की दौड़ 11.32 सेकेंड में पूरी करनी थी लेकिन उसने 11.24 सेकेंड में दौड़ पूरी कर एक इतिहास लिख दिया। 2014 में दुतीचंद को कॉमनवेल्थ गेम्स से अयोग्य कर दिया गया था  क्योंकि उसके शरीर में टेस्टो-स्ट्रोन  की मात्रा ज्यादा पाई गई थी। टेस्टो-स्ट्रोन को पुरुष हार्मोन भी कहा जाता है और खेल में ऐसा माना जाता है कि जिस खिलाड़ी में ये हॉर्मोन ज्यादा होता है उसका प्रदर्शन  बेहतर हो जाता है। कई बार खिलाड़ी अपना प्रदर्शन बेहतर करने के लिए भी इसे ड्रग के तौर पर ले लेते हैं। इसी शक की वजह से दुतीचंद पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, लेकिन 2015 में दुती चंद के पक्ष में फैसला मिला और उस पर लगा प्रतिबंध हटा दिया गया। इसके बाद दुतीचंद ने ओलम्पिक के लिए क्वालीफाई कर लिया।
दुती चंद की परेशानियां अभी कम नहीं हुई हैं लेकिन अब भारत के पास दुती चंद के रूप में एक नई उम्मीद जरूर है। दुती चंद के सामने पहले के मुकाबले अब ज्यादा गम्भीर चुनौतियां हैं लेकिन प्रतिबंध लगने के बाद जिस तरह दुती ने अपनी लड़ाई लड़ी और कठिनाइयों पर फतह हासिल की, उससे देर-सबेर ही सही भारत के अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पदक जीतने की उम्मीदें बढ़ गई हैं। ओलम्पिक में पदक जीतने के लिए दुती चंद को अपना समय 11 सेकेंड से कम करना होगा यानि दुतीचंद को अगर ओलम्पिक्स में मैडल जीतना है तो उसे बहुत मेहनत करनी होगी तथा अपना प्रदर्शन और बेहतर करना होगा। जुलाई 2017 में भुवनेश्वर में हुई एशियाई एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में उड़ीसा की इस उड़न परी ने 100 मीटर दौड़ में कांस्य पदक जीता है लेकिन प्रतियोगिता से पहले उस पर लिंग सम्बन्धी मामले का जो दबाव डाला गया उससे भी इस लड़की का प्रदर्शन प्रभावित हुआ।
दुती की सफलता के पीछे संघर्ष की एक लम्बी गाथा है। दुती का खेल जीवन काफी उतार-चढ़ाव वाला रहा। गांव के धूल भरे कच्चे रास्तों से निकल सिंथेटिक ट्रैक तक पहुंचने के लिए दुती चंद को काफी संघर्ष करना पड़ा। दुती चंद को गरीबी के कारण अच्‍छी ट्रेनिंग करने का मौका भी नहीं मिला। इसके अलावा गाहे-बगाहे दुती चंद राजनीति का भी शिकार हुई  लेकिन तमाम विपरीत परिस्थितियों के बाद भी दुती चंद ने हिम्‍मत नहीं हारी। दुती चंद आज भारत की सबसे तेज दौड़ने वाली महिला है। एथलीट दुती चंद बहुत ही गरीब परिवार से है। इसका जन्म तीन फरवरी, 1996 को उड़ीसा के चाका गोपालपुर गांव में हुआ। गरीबी दुती चंद के जज्‍बे को कभी कम नहीं कर पाई। गांव से दुतीचंद ने एथलीट बनने का सपना देखा और उसे पूरा करने के लिए एक कठिन सफर पर निकल पड़ी। सफर के दौरान उनके सामने कई रुकावटें भी आईं लेकिन उसके पैर थमे नहीं बल्कि आगे ही बढ़ते ही गये। दुती चंद भारतीय बैडमिंटन प्रशिक्षक पुलेला गोपीचंद को भगवान मानती है। दुती चंद जब लिंग सम्बन्धी विवाद के चलते काफी संकट में थी ऐसे समय में पुलेला गोपीचंद ने उसे हैदराबाद की अपनी एकेडमी में न केवल अभ्यास का मौका दिया बल्कि हर मुमकिन मदद भी की।
दुती चंद के पिता एक गरीब बुनकर थे, जिनकी आय 500 से हजार रुपए थी। दुती के परिवार में कुल नौ लोग हैं, जिनमें एक भाई और छह बहनें शामिल हैं। दुती बताती है कि खेल की वजह से बहुत कुछ मेरे जीवन में बदलाव आया। खेल ने मुझे बहुत कुछ दिया है। काफी गरीबी से हमारा परिवार जूझ रहा था। गरीबी के कारण मेरी बहनों की पढ़ाई नहीं हो पा रही थी, लेकिन खेल में आने के बाद मेरे परिवार में काफी कुछ बदलाव आया और अब सब कुछ सामान्‍य चल रहा है। दुती चंद का गांव भुवनेश्वर से लगभग 100 किलोमीटर की दूरी पर है। दुती का गांव बाढ़ आने पर मुख्य धारा से कट जाता है लेकिन दुती के कारण गांव की चर्चा हमेशा होती रहती है। दुती के पिता चक्रधर चंद अपनी बेटी की उपलब्धियों पर नाज करते हैं, वह कहते हैं कि मैं तो दुती का हर मुकाबला देखना चाहता हूं लेकिन घर में कामकाज के चलते वह कहीं नहीं जा पाते।  चौपायों की देखभाल करने के लिए उन्हें गांव में ही रुकना पड़ता है।

ओलम्पियन दुती चंद का कहना है कि भुवनेश्वर के कलिंगा स्टेडियम से मेरा बहुत पुराना नाता है। जुलाई-2006 से मैंने यहां कई अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताएं खेली हैं। चूंकि मैं यहीं की रहने वाली हूं, सो मुझे समर्थन भी अच्छा मिलता है। दुती 2012 में अंडर-18 वर्ग में नेशनल चैम्पियन बनी थी। दुती ने तब 100 मीटर की दूरी 11.8 सेकेंड में पूरी की थी। 2012 में ही पुणे में हुई एशियन चैम्पियनशिप में उसने कांस्य पदक जीता था। 2013 में दुती ग्लोबल की 100 मीटर रेस के फाइनल में पहुंचने वाली पहली भारतीय महिला खिलाड़ी बनी थी। 2013 में ही दुती 100 और 200 मीटर वर्ग में नेशनल चैम्पियन बनी थी। चक्रधर चंद की यह बेटी अब तक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई दर्जन पदक जीत चुकी है। दुती का कहना है कि उसमें आत्मविश्वास की कमी नहीं है। 2013 में मैंने पहली बार एशियन चैम्पियनशिप में कदम रखा था, इसके बाद मैंने कई प्रतियोगिताओं में दौड़ लगाई है,  जिसमें ओलम्पिक खेल भी शामिल हैं।  दुती को भरोसा है कि वह 100 और 200 मीटर दौड़ में देश के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक न एक दिन पदक जरूर जीतेगी। हर खिलाड़ी की तरह मैं भी ओलम्पिक में पदक जीतना चाहती हूं। दुती का कहना है कि अन्य देशों में हमें मौसम के साथ सामंजस्य बिठाने में समय लगता है, पर हर खिलाड़ी को इसके लिए तैयार रहना होता है। दुती को अब जर्मनी के कोच राल्फ ईक्कट का मार्गदर्शन मिल रहा है जिन्हें इंटरनेशनल एथलेटिक्स महासंघ ने एशियाई देशों के लिए कोच नियुक्त किया है।

रियो में पदक चूकने का अफसोसः दीपा करमाकर

भारत में महिला जिमनास्टिक की पहचान दीपा करमाकर आज भी रियो में पदक न जीत पाने से व्यथित हैं। दीपा कहती हैं कि रियो के टाइम के हिसाब से मेरा इवेंट दो-ढाई बजे था। मुझे सिर्फ इतना याद है कि नंदी सर ने कहा था कि बेटा तुम्हें कुछ भी नया नहीं करना है, जो अब तक सीखती आई हो, बस उसी को खूब अच्छी तरह करना। अपना श्रेष्ठ प्रदर्शन करना। तुमने फाइनल के लिए जगह बनाई जोकि अपने आप में बड़ी कामयाबी है। तुमने आठवें नम्बर पर क्वालीफाई किया है। अब इससे नीचे तो जा नहीं सकती हो। इससे ऊपर आने का मौका तुम्हारे पास जरूर है। मेरे ऊपर किसी तरह का दबाव नहीं था। मैं बिल्कुल फ्री थी। हमारे साथ जो साइकोलॉजिस्ट भावना मैडम थीं उन्होंने भी कहा कि तुम बिल्कुल हंसते हुए अपना इवेंट करना। तुम जब हंसकर जाती हो तो अच्छा करती हो। तुम्हारे दांत दिखते रहने चाहिए।
फिर मैंने कम्पटीशन किया। मेरा फाइनल नम्बर चौथा था। मैं जानती थी कि आठवें से चौथे नम्बर पर आना कितना टफ है। जब मैं एरीना से बाहर निकली, तब मुझे पता चला कि मैं कितने कम अंतर से चौथे पायदान पर आई। इसके बाद तो मैं अपने आंसू रोक नहीं पाई। तब मुझे लगा कि मेरा मैडल मिस हो गया। मैं लगातार रोती जा रही थी। रह-रहकर बस यही ख्याल आ रहा था कि अगर थोड़ी सी मेहनत और कर ली होती तो आज मैं ओलम्पिक मेडल जीत सकती थी।
सर ने मुझे समझाना शुरू किया। कम्पटीशन से पहले सर ने एक भी दिन भी मुझे मैकडॉनल्ड में खाने नहीं दिया था। उस दिन वह खुद बोले- चलो मैकडॉनल्ड चलते हैं। तुम्हें जो मन करे, वह खाओ। अब मेरे दिमाग से रियो ओलम्पिक निकल चुका है। सर जानते थे कि मुझे कैसे सम्हालना है। मैं दोबारा रोने लगीए तो उन्हें भी रोना आ गया। चौथे पायदान पर आने का दुख बहुत बड़ा होता है। मैं एशियन गेम्स में भी चौथे नम्बर पर आई थी। पांचवें-छठे नम्बर पर शायद दुख कम होता है। चौथे नम्बर पर आने का मतलब है, मैडल आते-आते रह जाना। फिर नंदी सर ने मुझे समझाया कि अगली बार और मेहनत करेंगे और मैडल लाएंगे। उस दिन किसी से घर पर बात भी नहीं हुई। अगले दिन जब बात हुई तो पापा-मम्मी बहुत खुश थे। उन्होंने भी समझाया कि मैडल के पीछे मत रोओ, यह सोचो कि तुम ओलम्पिक में चौथे नम्बर पर आई। हो। तुमको मैडल मिल जाता तो क्या पता तुम जिमनास्टिक छोड़ ही देती पर अभी तुम्हें खुद को मोटिवेट करके अगली बार और अच्छा करना है। अगले दिन जब मुझे पता चला कि अमिताभ बच्चन जैसे बड़े स्टार मेरा खेल देख रहे थे तो मुझे बहुत अच्छा लगा। मुझे लगता है कि अब मेरी जिम्मेदारी बढ़ गई है। मुझे अब देश के लिए मैडल जीतना है।
मैं रियो में साक्षी और सिंधु से नहीं मिल पाई थी पर भारत लौटने के बाद मैंने दोनों से मिलकर उन्हें बधाई दी। मुझे बहुत अच्छा लग रहा था कि जहां-जहां उन दोनों का नाम लिया जा रहा था वहां मुझे भी बुलाया गया लेकिन उनमें और मेरे में बहुत फर्क है। उनके पास ओलम्पिक मैडल है। मेरे कोच सर ने अगले ओलम्पिक के लिए तैयारियां शुरू करा दी हैं। हमें देश के लिए मैडल जीतना है। ओलम्पिक से पहले स्पोर्ट्स अथॉरिटी ने बहुत सहयोग दिया। उनके सपोर्ट के बिना इस मुकाम पर नहीं पहुंच सकते थे। यहां सभी लोग बहुत मदद करते हैं। दिल्ली में हमारे स्टेडियम की एडमिनिस्ट्रेटर मंजूश्री मैडम हैं। वह हमें बिल्कुल घर की तरह रखती हैं। यहां तक कि हम यहीं हॉस्टल में पार्टी करते हैं। दोस्तों के जन्मदिन मनाते हैं। त्योहार मनाते हैं। चार साल से मैंने अपना जन्मदिन कैम्प में ही मनाया है।

अब मैं आगे की तैयारी पर फोकस कर रही हूं। हमारे जो मूवमेंट होते हैं उसमें प्वाइंट कट जाते हैं। मुझे अब वह गलती दोबारा नहीं करनी है। जिमनास्टिक के अलावा मेरा कोई शौक नहीं है। 2015 के बाद तो मुझे फिल्म देखने जाने का समय भी नहीं मिला। कुछ पाने के लिए छोटे-मोटे त्याग तो कर ही सकते हैं। हम जब मन चाहे, तब घर नहीं जा सकते। जो मन करे, वह खा नहीं सकते। लेकिन इन सारी बातों को मैं बहुत छोटा त्याग मानती हूं। मुझे मिठाई बहुत पसंद है लेकिन मैं खा नहीं सकती हूं। रियो के बाद बहुत सारे पुराने दोस्तों के फोन आए। उनमें से कई मिलने भी आए। 2016 में मुझे और मेरे कोच को एक साथ सम्मानित भी किया गया। मुझे खेल रत्न दिया गया और कोच सर को द्रोणाचार्य अवॉर्ड। उस दिन को मैं अपनी जिन्दगी में कभी नहीं भूल सकती। सचिन तेंदुलकर और अभिनव बिंद्रा मुझे बहुत अच्छे लगते हैं। मैं सचिन सर से दो बार मिली भी। उन्होंने कहा कि खूब मेहनत करो। दिमाग को जमीन पर रखो। कुछ इधर-उधर का मत सोचो। अभी अगर कोई त्रिपुरा के बारे में पूछता है तो लोग कहते हैं कि वही स्टेट, जहां से दीपा है। मुझे इस बात का बहुत गर्व है।

Wednesday 19 July 2017

रिकार्डधारी फर्राटा धावक साहेब दो जून की रोटी को मोहताज

आंखें नहीं पर बिहारी धावक बढ़ा रहा पश्चिम बंगाल का गौरव
अब तक जीते 28 स्वर्ण, 18 रजत और 34 कांस्य पदक
श्रीप्रकाश शुक्ला
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने निःशक्तजनों को दिव्यांग नाम देकर बेशक सुर्खियों बटोर ली हों लेकिन निःशक्त खिलाड़ियों की पीर कम होने के बजाय लगातार बढ़ती ही जा रही है। पश्चिम बंगाल के नार्थ 24 परगना में अपनी बड़ी बहन सायदा खातून के घर रह रहे फर्राटा धावक साहेब हुसैन के आंखें नहीं हैं लेकिन वह राष्ट्रीय स्तर पर पदक दर पदक बटोर रहा है। बिहार के सीवान जिले के ओरमा नया टोला गांव में तीन फरवरी 1989 को फूल मोहम्मद-नजीफन बीवी के घर जन्मे साहेब हुसैन अपने माता-पिता की चौथी संतान है। साहेब के दो बड़ी बहन और एक बड़े भाई के अलावा एक छोटा भाई भी है। इनमें से किसी में भी खेलकूद के प्रति दिलचस्पी नहीं है लेकिन साहेब आंखों बिना दुनिया जीत लेना चाहता है। अंधत्व पर फतह हासिल कर चुका 28 साल का फर्राटा धावक साहेब हुसैन 100 मीटर दौड़ का राष्ट्रीय चैम्पियन और राष्ट्रीय कीर्तिमानधारी है। टी-12 कैटेगरी का यह धावक अब तक 100 और 200 मीटर दौड़ में राष्ट्रीय स्तर पर एक-दो नहीं बल्कि 28 स्वर्ण, 18 रजत और 34 कांस्य पदक जीत चुका है लेकिन मुस्लिमों की पैरोकार पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और क्रिकेटर से खेल मंत्री बने लक्ष्मीरतन शुक्ला लाख आश्वासनों के बाद भी अब तक इस धावक की एक पैसे की भी मदद नहीं किए हैं। साहेब हुसैन के पिता पश्चिम बंगाल में ही एक जूट मिल में काम करते थे, सो उनका परिवार वहीं बस गया लेकिन 2010 में नौकरी छूटने के बाद फूल मोहम्मद सीवान आ गये। खेलों में अभिरुचि के चलते अब साहेब हुसैन अपनी बड़ी बहन पर आश्रित है।
दो जून की रोटी और तंगहाली से जूझ रहे साहेब हुसैन की अब एकमात्र उम्मीद गो स्पोर्ट्स फाउण्डेशन बेंगलूरु है। यदि गो स्पोर्ट्स फाउण्डेशन बेंगलूरु की मदद साहेब हुसैन को मिल गई तो यह धावक टोक्यो पैरालम्पिक में भारतीय तिरंगा फहरा सकता है। 100 मीटर दौड़ का राष्ट्रीय कीर्तिमान (11.44 सेकेण्ड) साहेब हुसैन के ही नाम है। साहेब दुखी मन से कहता है कि वह देश के लिए दौड़ना चाहता है लेकिन पैसे के अभाव में उसकी सारी उम्मीदों पर पानी फिर रहा है। साहेब कहता है कि वह आर्थिक मदद के लिए हर उस चौखट पर गया जहां से उम्मीद थी लेकिन हर तरफ से उसे निराशा ही हाथ लगी है। इसी साल अप्रैल में जयपुर में हुए पैरा नेशनल खेलों अपनी कामयाबी का परचम फहराने के बाद साहेब मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, खेलनहार अरुप बिस्वास और खेलमंत्री लक्ष्मीरतन शुक्ला से मिला। साहेब ने इन तीनों को अपनी तंगहाली की दास्तां सुनाई। इन तीनों ने आश्वासन दिया था कि उसके आने-जाने, खाने और ठहरने पर जो पैसा खर्च हुआ है, उसे दिया जाएगा लेकिन चार महीने बाद भी उसे एक फूटी कौड़ी भी नसीब नहीं हुई है। साहेब हुसैन बताते हैं कि इससे पहले वह 2012 में पश्चिम बंगाल के पूर्व खेल मंत्री मदन मिश्र से भी मिले थे। उन्होंने भी मदद का भरोसा दिया था लेकिन कोई मदद नहीं की अलबत्ता वह आर्थिक अनियमितताओं के चलते आजकल जेल की रोटियां खा रहे हैं।
साहेब हुसैन को शानदार खेल उपलब्धियों के लिए अब तक दो अवार्ड मिल चुके हैं। साहेब हुसैन को पहला अवार्ड अजात शत्रु उसकी ही जन्मस्थली बिहार में मिला और दूसरा उसकी कर्मस्थली पश्चिम बंगाल में रोल माडल अवार्ड मिला है। साहेब कहता है कि इन अवार्डों से कुछ पल के लिए खुशी तो मिलती है लेकिन इनसे पेट नहीं भरता। पैरा एथलीटों की जहां तक बात है देश के हर राज्य में इनके साथ भेदभाव हो रहा है। पैरालम्पिक में मैडल जीतने वालों पर जरूर हुकूमतों की नजर जाती है और वे मालामाल हो जाते हैं। साहेब हुसैन जैसे गरीब खिलाड़ियों के पास जब दो वक्त का खाना ही नसीब न हो ऐसे में इनका पैरालम्पिक तक पहुंचना कैसे सम्भव है। दरअसल पैरा खिलाड़ियों के अलम्बरदार भी ऐसे खिलाड़ियों की मदद करने की बजाय इनके ही पैसों से देश-विदेश में आरामतलबी करते हैं। इस खबर को पढ़ने के बाद क्या किसी धन्नासेठ या हुकूमत का दिल पसीजेगा या एक और दिव्यांग खिलाड़ी अपना सपना चूर-चूर होते देखेगा।  

आमतौर पर हमारे देश में दिव्यांगों के प्रति दो तरह की धारणाएं देखने को मिलती हैं। पहली यह कि जरूर इसने पिछले जन्म में कोई पाप किया होगा इसलिए उसे ऐसी सजा मिली है और दूसरा कि उसका जन्म ही कठिनाइयों को सहने के लिए हुआ है, इसलिए उस पर दया दिखानी चाहिए। हालांकि यह दोनों धारणाएं पूरी तरह बेबुनियाद और तर्कहीन हैं। एक निःशक्त व्यक्ति की जिन्दगी काफी दुःख भरी होती है। घर-परिवार वाले अगर मानसिक सहयोग न दें तो व्यक्ति अंदर से टूट जाता है। वास्तव में लोगों के तिरस्कार की वजह से ही दिव्यांग स्व-केन्द्रित जीवनशैली व्यतीत करने को विवश हो जाते हैं। देखा जाये तो भारत में दिव्यांगों की स्थिति संसार के अन्य देशों की तुलना में दयनीय है। दयनीय इसलिए कि एक तरफ यहां के लोगों द्वारा दिव्यांगों को प्रेरित कम हतोत्साहित अधिक किया जाता है। सहयोग कम मजाक का पात्र अधिक बनाया जाता है। विदेशों में दिव्यांगों के लिए बीमा तक की व्यवस्था है जिससे उन्हें हरसम्भव मदद मिल जाती है जबकि भारत में ऐसा कुछ भी नहीं है। हां, दिव्यांगों के हित में बने ढेरों अधिनियम संविधान की शोभा जरूर बढ़ा रहे हैं लेकिन व्यवहार के धरातल पर देखा जाये तो आजादी के सात दशक बाद भी समाज में दिव्यांगों की स्थिति सोचनीय ही है। देखा जा रहा है कि प्रतिमाह दिव्यांगों को दी जाने वाली पेंशन में भी राज्यवार भेदभाव होता है। मसलन दिल्ली में यह राशि प्रतिमाह 1500 रुपये है तो झारखंड सहित कुछ अन्य राज्यों में विकलांगजनों को महज तीन-चार सौ रुपये ही रस्म अदायगी के तौर पर दिये जाते हैं। समस्या यह भी कि इस राशि की निकासी के लिए भी उन्हें काफी भागदौड़ करनी पड़ती है। हमारे देश में दिव्यांगों के उत्थान के प्रति सरकारी तंत्र में अजीब-सी शिथिलता नजर आती है। हर स्तर पर दिव्यांगों के प्रति दयाभाव जरूर प्रकट किया जाता है लेकिन इससे किसी दिव्यांग का पेट नहीं भरा जा सकता। दिव्यांगों के लिए क्षमतानुसार कौशल प्रशिक्षण जैसी योजनाओं के होने के बावजूद जागरूकता के अभाव में दिव्यांग आबादी का एक बड़ा हिस्सा ताउम्र बेरोजगार रह जाता है। दिव्यांगजनों को मानसिक सहयोग की जरूरत है। यदि समाज में सहयोग का वातावरण बने, इस वर्ग को आवश्यक संसाधन उपलब्ध कराये जाएं तो ये भी इतिहास रच सकते हैं। साहेब हुसैन जैसे खिलाड़ियों को यदि थोड़ी सी भी मदद मिल जाए तो ये देश का मान बढ़ा सकते हैं। 

Tuesday 18 July 2017

एथलेटिक्स में महानता की प्रतिमूर्ति कृष्णा पूनिया


 दुनिया भर में दिखाया अपनी ताकत का जलवा
श्रीप्रकाश शुक्ला
अपने शानदार खेल-कौशल से दुनिया भर में भारत को गौरवान्वित करने वाली पद्मश्री कृष्णा पूनिया भारतीय महिला एथलेटिक्स में महानता की प्रतिमूर्ति हैं। डिस्कस थ्रो में इनका राष्ट्रीय कीर्तिमान हर भारतीय महिला एथलीट के लिए आज एक प्रतिमान है। सच कहें तो जो महिला इस कीर्तिमान को तोड़ेगी वह राष्ट्रमण्डल ही नहीं ओलम्पिक खेलों में भी पदक जीत सकती है। 2010 में दिल्ली में हुए राष्ट्रमंडल खेलों में कृष्णा पूनिया ने डिस्कस थ्रो में स्वर्ण पदक जीता था। कृष्णा पूनिया पहली एथलीट हैं जिन्होंने राष्ट्रमंड़ल खेलों में स्वर्ण जीता। 2011 में भारत सरकार द्वारा इस शानदार खेल उपलब्धि के लिए कृष्णा पूनिया को पद्मश्री पुरस्कार से नवाजा गया। उन्होंने 2006 में दोहा एशियन खेलों में कांस्य पदक जीता था। कृष्णा पूनिया ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय खेलों में कुल 55 पदक जीते हैं जिसमें 29 स्वर्ण, 16 रजत और 10 कांस्य पदक शामिल हैं।
कृष्णा पूनिया का जन्म हरियाणा के हिसार जिले के अगरोहा गाँव में हुआ था। बचपन में कृष्णा को डिस्कस थ्रो के बारे में कुछ भी मालूम नहीं था। कृष्णा वही खेल खेलती थीं जो और बच्चे खेला करते थे। कृष्णा की बुआ उनकी लम्बाई देखकर उनको इस खेल में लाईं। शादी होने के बाद भी कृष्णा का सम्बन्ध इस खेल से नहीं टूटा। कृष्णा पूनिया बताती हैं कि मेरी ससुराल में खेल के प्रति जागरूकता थी जिसकी वजह से उन्हें काफी प्रोत्साहन मिला। अपनी तमाम उपलब्धियों का श्रेय अपने पति वीरेन्द्र सिंह पूनिया को देते हुए कृष्णा पूनिया कहती हैं कि वह मेरे कोच ही नहीं हमेशा मार्गदर्शक भी हैं। कृष्णा पूनिया के इण्टर कॉलेज में लगातार हर वर्ष अच्छे प्रदर्शन को देखते हुए ही उन्हें नेशनल कैम्प में शामिल किया गया था। कृष्णा पूनिया ने इस खेल में अपने समर्पण की जो पटकथा लिखी है वह हर महिला एथलीट के लिए एक नजीर है।
कृष्णा पूनिया वैसे तो हरियाणा से हैं लेकिन उन्होंने उच्च शिक्षा जयपुर (राजस्थान) से प्राप्त की और उनकी शादी भी राजस्थान के चुरू जिले के गागरवास गांव निवासी वीरेन्द्र सिंह पूनिया से हुई है। खेलों के अलावा वे सामाजिक कार्यों में भी सक्रिय हैं। 2008 से 2014 तक वे कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ राजस्थान सरकार की ब्रांड एम्बेसडर रहीं। 2010 से 2014 तक वह राजस्थान चुनाव आयोग की ब्रांड एम्बेसडर भी रहीं। उन्होंने दहेज के खिलाफ और लड़कियों को पढ़ने-लिखने, खेलों में सुधार के लिए कई कार्यक्रमों में हिस्सा लिया और लड़कियों को प्रोत्साहित किया तथा लड़कियों और महिलाओं को आत्मरक्षा की ट्रेनिंग भी दी। खिलाड़ी और कांग्रेस नेत्री कृष्णा पूनिया राजस्थान के प्रमुख लोगों में शुमार हैं।
इंसान का जीवन तो अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों का ही खेल तमाशा है। मुझे कृष्णा पूनिया का जो भी सान्निध्य मिला उसमें मैंने पाया कि वह बेजोड़ शख्सियत ही नहीं बल्कि हर काम के प्रति पूर्ण समर्पित हैं। कृष्णा पूनिया का जीवन किसी तरह के दिखावे से परे है। वह जो भी ठान लेती हैं, उसे पूरा करके ही दम लेती हैं।  
दिल्ली राष्ट्रमण्डल खेलों की पहली भारतीय स्वर्ण पदकधारी महिला एथलीट कृष्णा पूनिया ने 2006 में दोहा और 2010 में ग्वांगझू एशियाई खेलों में कांस्य पदक जीते थे। चक्का फेंक की नेशनल रिकॉर्डधारी कृष्णा पूनिया राष्ट्रमण्डल खेलों की अपेक्षा एशियाई खेलों को हमेशा चुनौती मानती हैं। राष्ट्रमण्डल खेलों की एथलेटिक स्पर्धा का जहां तक सवाल है पहला स्वर्ण पदक 1958 में मिल्खा सिंह ने जीता था वहीं 2010 में कृष्णा पूनिया स्वर्णिम कामयाबी हासिल करने वाली पहली भारतीय महिला एथलीट बनीं। कृष्णा पूनिया ने 2006 के राष्ट्रमंडल खेलों और 2008 के बीजिंग ओलम्पिक खेलों में भी हिस्सा लिया था लेकिन पदक नहीं जीत सकी थीं बावजूद इसके उन्होंने मैदान से मुंह नहीं मोड़ा और 2010 के एशियन खेलों में वापसी करते हुए कांस्य पदक और एशियन ग्रांड-प्रिक्स 2010 में स्वर्ण पदक जीता। 46वें ओपन नेशनल एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में भी उन्होंने स्वर्ण पदक जीता था। यह उनका उस समय का सबसे अच्छा प्रदर्शन था। 2012 के लंदन ओलम्पिक में भी कृष्णा ने बेहतरीन प्रदर्शन किया और 63.62 मीटर डिस्कस फेंककर वह पांचवें स्थान पर रही थीं।
पद्मश्री के अलावा कृष्णा पूनिया को खेलों के लिए मिलने वाले अर्जुन पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है। खेलों में अच्छे प्रदर्शन के लिये कृष्णा पूनिया राजस्थान सरकार द्वारा महाराणा प्रताप पुरस्कार, हरियाणा सरकार द्वारा भीम पुरस्कार, मेवाड़ फाउंडेशन उदयपुर द्वारा अरावली पुरस्कार से भी नवाजा गया। इन सम्मानों के अलावा कृष्णा पूनिया को इंडिया टुडे द्वारा बेस्ट स्पोर्ट्स पर्सन ऑफ द ईयर का पुरस्कार भी दिया जा चुका है। जहां तक ओलम्पिक की बात है अब तक सात भारतीय एथलीट ही ट्रैक एण्ड फील्ड स्पर्धाओं के फाइनल में जगह बनाने में सफल हुए हैं। इनमें फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह, उड़नपरी पीटी ऊषा, श्रीराम सिंह, गुरुबचन सिंह रंधावा, लांग जम्पर अंजू बॉबी जॉर्ज, कृष्णा पूनिया और धावक ललिता बाबर शामिल हैं। पद्मश्री और अर्जुन अवार्डी कृष्णा ने आठ मई, 2012 को अमेरिका में 64.76 मीटर चक्का फेंककर नेशनल रिकॉर्ड अपने नाम किया था। आज तक किसी खेलप्रेमी को यह समझ में नहीं आया कि बेशुमार उपलब्धियों के बावजूद कृष्णा पूनिया को राजीव गांधी खेल रत्न क्यों नहीं दिया गया।
कृष्णा पूनिया बड़ी बेबाकी से कहती हैं कि उनकी सफलता में पति वीरेन्द्र सिंह पूनिया का बहुत बड़ा योगदान है। वर्ष 2000 में एथलीट वीरेन्द्र सिंह पूनिया के साथ परिणय सूत्र में बंधी कृष्णा पूनिया का कहना है कि उन्होंने न केवल बेहतर प्रशिक्षण दिया बल्कि हमेशा हौसला भी बढ़ाया। कृष्णा पूनिया अपने लाड़ले बेटे लक्ष्य की खेलों में अभिरुचि को लेकर बेहद खुश हैं वह चाहती हैं कि उनका बेटा मेरे अधूरे सपने पूरा करे। लक्ष्य की जहां तक बात है वह न केवल चक्का और हैमर थ्रो करता है बल्कि बास्केटबाल में भी हाथ आजमाता है। कृष्णा और वीरेन्द्र सिंह पूनिया चाहते हैं कि लक्ष्य उनके ही पदचिह्नों पर चले यानि खेलों में ही देश को गौरवान्वित करे। कृष्णा पूनिया अपने आपको राजस्थान और हरियाणा ही नहीं अपितु पूरे देश की बेटी मानती हैं। कृष्णा पूनिया को ओलम्पिक खेलों में अब तक किसी एथलीट द्वारा पदक न जीते जाने का बेहद मलाल है। कृष्णा पूनिया का कहना है कि भारत में खेलों के प्रति जमीनी स्तर पर बहुत कुछ किया जाना जरूरी है। अमेरिका, चीन आदि की सफलता पर कृष्णा पूनिया कहती हैं कि वहां बचपन से ही प्रतिभाओं की परख कर उन्हें खेलों का प्रशिक्षण दिया जाता है।
हमारे देश में खिलाड़ियों को उस तरह की सुविधाएं नहीं मिल रहीं। कृष्णा पूनिया हरियाणा के खिलाड़ियों द्वारा लगातार किए जा रहे शानदार प्रदर्शन पर कहती हैं कि वहां की नई खेल नीति सफलता का परिचायक है। कृष्णा का कहना है कि हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा स्वयं एक अच्छे खिलाड़ी रहे सो उनके कार्यकाल में कई खिलाड़ी हितैषी निर्णय लिए गये। उन्होंने खिलाड़ियों की भावनाओं को हमेशा तरजीह दी। मुख्यमंत्री हुड्डा ने प्रदेश के पदक विजेता खिलाड़ियों को सरकार की तरफ से भी लाखों रुपए की इनामी राशि देकर एक नजीर स्थापित की है जिसका आज भी हरियाणा सरकार अनुसरण कर रही है। कृष्णा पूनिया कहती हैं कि यदि भारत को खेलों में आगे जाना है तो उसे अपने सिस्टम को बदलना होगा। जब तक हम जमीनी हालातों को नहीं सुधारते और खिलाड़ियों को रोजगार नहीं मिलता तब तक हर प्रयास बेकार जाएगा। हम कुछ समय के प्रयासों से अच्छे खिलाड़ी नहीं निकाल सकते। यदि भारत को ओलम्पिक जैसी स्पर्धाओं प्रतिस्पर्धा करनी है तो हमें वर्ष भर खिलाड़ियों सुविधाएं देनी होंगी, उन्हें अच्छे प्रशिक्षकों से प्रशिक्षण दिलाना होगा।