Saturday 17 June 2017

मरियप्पन की संघर्ष पर फतह

ऊंची कूद में लगाई स्वर्णिम छलांग
तमिलनाडु के मरियप्पन थंगावेलु ने रियो पैरालम्पिक में टी-42 ऊंची कूद में स्वर्णिम छलांग लगाकर देश का नाम रोशन कर किया है लेकिन सोने की छलांग वाले मरियप्पन के जीवन में यहां तक पहुंचना कितना कष्टदायक रहा उसकी कल्पना मात्र से रोंगटे खड़े हो जाते हैं। रियो पैरालम्पिक्स में ऊंची कूद में भारत को स्वर्ण पदक दिलाने वाले मरियप्पन थंगावेलु को पूरा देश सराह रहा है। लेकिन उसकी इस जीत के पीछे बहुत मुश्किल मेहनत छुपी है जो हर कोई नहीं जानता। एक गरीब परिवार के मरियप्पन के लिए यह सब इतना आसान भी नहीं था। तमिलनाडु के सालेम जिला निवासी मरियप्पन की मां सरोजा सब्जियां बेचती हैं और उन्होंने अकेले ही अपने बच्चों की परवरिश की है। दिन में सौ रुपए कमाने वाली सरोजा अपने बेटे की जीत पर बहुत खुश हैं। इससे पहले सरोजा दिहाड़ी मजदूर थीं और ईंट उठाने का काम करती थीं। वह कहती हैं जब मुझे छाती में दर्द की शिकायत हुई तो मरियप्पन ने किसी से 500 रुपये उधार लेकर मुझसे कहा कि मैं सब्जियां बेचने का काम कर लूं। मरियप्पन के संघर्ष और शानदार उपलब्धियों पर अब एक फिल्म भी बनने जा रही है। इस फिल्म के प्रसारण के बाद निःसंदेह दिव्यांग लोगों के जीवन में कुछ न कुछ परिवर्तन जरूर आएगा।
मरियप्पन ने बीबीए की पढ़ाई एवीएस कॉलेज से पूरी की जहां के शारीरिक शिक्षा निदेशक ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और मरियप्पन को आगे बढ़ाया। वह करो या मरो क्लब का हिस्सा भी था जहां उसे प्रोत्साहन मिला करता था। मरियप्पन के भाई टी. कुमार बताते हैं कि बाद में बैंगलुरू के सत्यनारायण ने उसे दो साल तक ट्रेनिंग दी और साथ में 10 हजार रुपए का मासिक वेतन (स्टायपेंड) भी दिया। 1995 में जब मरियप्पन महज पांच साल के थे तब स्कूल के पास एक सरकारी बस से टक्कर होने के बाद अपना पैर खो बैठे लेकिन वह रुके नहीं। 17 साल की लम्बी कानूनी लड़ाई के बाद उनके परिवार को दो लाख रुपए का मुआवजा मिला। मरियप्पन की मां सरोजा ने कानूनी खर्चों के लिए एक लाख रुपए भरे और बाकी एक लाख रुपये अपने बेटे के भविष्य के लिए जमा कर दिए। मरियप्पन के तीन भाई और एक बहन है जिसकी शादी हो गई है। गरीबी की वजह से बड़े भाई टी. कुमार को पढ़ाई अधूरी छोडऩी पड़ी। दूसरा भाई स्कूल के आगे पढ़ ही नहीं पाया। सबसे छोटे भाई ने इसी साल 12वीं की परीक्षा पास की है। उनकी मां कहती हैं कि अगर मदद मिले तो वह अपने बेटों को कॉलेज भेजना चाहेंगी। पति द्वारा परिवार को कथित तौर पर छोड़ देने के बाद सरोजा ने अकेले ही अपने बच्चों की परवरिश की है।
सरोजा कहती हैं मेरे कई रिश्तेदारों और पड़ोसियों ने मुझे अपमानित किया। यहां तक कि मेरा बहिष्कार भी किया गया क्योंकि मैं एक विकलांग बच्चे को पाल रही थी। ऐसे मुश्किल वक्त में पति ने भी मेरा साथ छोड़ दिया था। मरियप्पन की मां सरोजा बताती हैं कि मेरे लिए किराए का घर लेना भी मुश्किल हो गया था। ज्यादातर मकान मालिक ऐसे थे जो मेरी जैसी हालात की मारी औरत को घर नहीं देना चाहते थे। दो वक्त की रोटी का इंतजाम करने लिए जूझना पड़ रहा था। ऐसे भी दिन थे जब मेरे पास अपने बच्चों को खिलाने के लिए सिर्फ थोड़ा सा दलिया हुआ करता था। वे दोपहर में स्कूल में सरकार की ओर से मिलने वाले खाने पर पले-बढ़े हैं। आज सरोजा का सिर गर्व से ऊंचा है। एक परम्परागत समाज में अकेली मां के तौर पर उनके लिए जिन्दगी चुनौतियों से भरी थी। इन चुनौतियों के साथ उन्होंने लगातार जीवन भर संघर्ष किया। उनका कहना है कि वे इन मुसीबतों का सामना इसलिए कर पाईं क्योंकि तीन बेटों वाले उनके परिवार में आपस में बहुत प्यार और एक-दूसरे का ख्याल रखने की भावना है।
सरोजा बताती हैं कि मुझे पता चल गया था कि मेरे बच्चों को खेल-कूद में विशेष रुचि है। मुझे लगा कि मेरे पास इसके सिवा कोई चारा नहीं है कि मैं अपने बच्चों को वही करने दूं जो उन्हें पसंद है। जब मरियप्पन ईनाम जीतता था तब मेरे पास इतना समय नहीं होता था कि मैं उसके पुरस्कार वितरण समारोह में जा सकूं। उस समय मैं दिहाड़ी मजदूरी करने में लगी रहती थी। वह कहती हैं कि एक समय ऐसा भी आया जब मैं गरीबी और समाज के ताने से परेशान होकर खुदकुशी करने के बारे में सोचने लगी थी। मेरे बेटे ने कई प्रतियोगिताओं में जीत हासिल की थी और ढेर सारे मैडल भी घर ला चुका था, फिर भी समाज की ओर से खारिज किए जाने के रवैये से हम निराश थे। सामाजिक हैसियत में अब भी हम नीचे थे लेकिन हमने अपने अच्छे दिनों के आने का इंतजार किया। मरियप्पन जब ब्राजील जा रहे थे तब सरोजा ने उन्हें दस रुपये का नोट दिया था। उन्होंने यह नोट ऐसे ही किसी बड़े दिन के लिए बचाकर रखा था। जब मरियप्पन भारत लौटे तब उन्हें उपहार और अवार्ड देने का तांता लग गया। केन्द्र सरकार ने 75 लाख तो तमिलनाडु सरकार ने मरियप्पन को दो करोड़ रुपये का पुरस्कार दिया है। सरोजा खुश हैं कि अब जब मरियप्पन कहीं बाहर जाएगा तो वह उसे दस की नोट से ज्यादा दे पाएंगी।
पेरियावादागामपट्टी गांव के जांबाज मरियप्पन थंगावेलु का जन्म 28 जून, 1995 को हुआ था। उसने वर्ष 2015 में ही बिजनेस एडमिस्ट्रेशन की अपनी डिग्री पूरी की। नौकरी तो हालांकि उसे अभी नहीं मिली लेकिन नाम और पहचान जरूर मिल गई है। मरियप्पन के कोच सत्यनारायण बैंगलूरु के रहने वाले हैं। उन्होंने ही मरियप्पन को प्रशिक्षण दिया और कुछ बड़ा करने का सपना भी दिखाया। मार्च, 2016 में मरियप्पन थंगावेलु ने 1.78 मीटर की छलांग लगाकर रियो के लिए क्वॉलीफाई किया था जबकि क्वॉलीफिकेशन मार्क 1.60 मीटर था। मरियप्पन के शानदार प्रदर्शन से इस बात का अंदाजा लग गया था कि ओलम्पिक का पदक उनकी पहुंच से दूर नहीं है। भारत को 2016 पैरालम्पिक खेलों में स्वर्ण पदक दिलाने वाले मरियप्पन थंगावेलु का कहना है कि उन्होंने अपने जीवन पर फिल्म बनने के बारे में कभी सोचा भी नहीं था। फिल्मकार ऐश्वर्य धनुष की आगामी तमिल फिल्म मरियप्पन के जीवन पर आधारित है। मरियप्पन वर्तमान में आगामी एशियन खेलों की तैयारी कर रहे हैं। भारतीय एथलीट मरियप्पन ने का कहना है कि मैं इस फिल्म को लेकर काफी खुश हूं। मैंने सपने में भी अपने जीवन पर फिल्म बनने के बारे में नहीं सोचा था। मरियप्पन ने कहा कि मेरे लिए यह सपने जैसी बात है। इससे मुझे और भी कड़ी मेहनत करने की प्रेरणा मिलेगी। ऐश्वर्य की मरियप्पन पर बनने वाली फिल्म का नाम मरियप्पन है और इसका पहला पोस्टर सुपरस्टार शाहरुख खान ने जारी किया है।

मरियप्पन ने अपनी फिल्म के बारे में कहा कि मैंने अभी इस फिल्म पर आधिकारिक रूप से हस्ताक्षर नहीं किए हैं। अगर मेरी कहानी ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले पिछड़े वर्ग के लोगों को प्रेरित करती है तो इससे बड़ी खुशी मेरे लिए कुछ नहीं होगी। फिल्म में संगीत सीन रोल्डन देंगे। सिनेमाटोग्राफी वेलराज की होगी और संवाद फिल्मकार राजू मुरुगन लिखेंगे। पोस्टर से यह भी खुलासा हुआ कि फिल्म अंग्रेजी में भी बनेगी। इस फिल्म में किस अभिनेता को अपना किरदार निभाते देखेंगे, इस बारे में मरियप्पन ने कहा कि मैं इस बात को फिल्म की टीम पर छोड़ रहा हूं कि वे इसके लिए सही कलाकार का चयन करें। यह मायने नहीं रखता कि मेरा किरदार कौन निभा रहा है लेकिन मैं चाहता हूं कि मेरी कहानी अधिक लोगों को प्रेरित करे ताकि हमारा समाज दिव्यांगता को अभिशाप न माने।

Friday 16 June 2017

भारत में खेल पत्रकारिता कल और आज

स्वर्गीय प्रभाष जोशी ने दिखाई खेल पत्रकारिता को दिशा
मध्य प्रदेश में नई दुनिया ने किए सराहनीय प्रयास
अब खेलों की सम्पूर्ण पत्रिका नेशनल स्पोर्ट्स टाइम्स
श्रीप्रकाश शुक्ला
हर जीव जन्म से ही उछल-कूद शुरू कर देता है। हम कह सकते हैं कि खेलना हर जीव का शगल है। दुनिया पर नजर डालें तो हम पाते हैं कि आम इंसान जब काम पर नहीं होता तो उसके जेहन में खेलने की लालसा बलवती हो जाती है। खेल बिना जीवन के कोई मायने भी नहीं हैं। जीत-हार हमारे लिए किसी प्रेरणा-पुंज से कम नहीं होती। असफलता ही हमें सफलता की राह दिखाती है। दो जुलाई को विश्व खेल पत्रकारिता दिवस पर हमें भारतीय खेल पत्रकारिता को कलमबद्ध कर पाना किसी चुनौती से कम नहीं है। बचपन से ही खेलों में अभिरुचि, खिलाड़ियों की उपेक्षा और भारतीय खेल तंत्र की निष्फलता ने हमें खेलों पर लिखने को प्रोत्साहित किया। तीन दशक की खेल पत्रकारिता में मैंने कई तरह के उतार-चढ़ाव देखे हैं। 1980 के दशक में खेल की खबरों का सुर्खियां बनना आश्चर्य की तरह था। उस दौर में अखबार के पन्नों पर क्रिकेट, फुटबाल, टेनिस, हाकी तथा अन्य खेलों का प्रकाशन तो होता था लेकिन सूचना मात्र। तब खेल की खबरें राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय और स्थानीय स्तर पर होने वाले खेलों से सम्बन्धित होती थीं। वर्तमान समय में जिस तरह से खेल की खबरों में क्रिकेट का वर्चस्व है, वह तब नहीं दिखता था। हम कह सकते हैं कि हाकी के अधोपतन ने ही भारत में क्रिकेट को पैर पसारने का मौका दिया है। समय बदला है। अब खेल पत्रकारिता को सुर-ख्वाब के पर लग चुके हैं। यह बात अलग है कि हम क्रिकेट के अलावा दूसरे खेलों को उतना महत्व नहीं दे रहे जितना उन्हें मिलना चाहिए।
खेल केवल मनोरंजन का साधन ही नहीं बल्कि वह अच्छे स्वास्थ्य, शारीरिक दमखम और बौद्धिक क्षमता का भी प्रतीक है। यही कारण है कि पूरी दुनिया में प्राचीनकाल से खेलों का प्रचलन रहा है। मल्ल-युद्ध, तीरंदाजी, घुड़सवारी, तैराकी, गुल्ली-डंडा, पोलो रस्साकशी, मलखम्भ, वॉल गेम्स, जैसे आउटडोर या मैदानी खेलों के अलावा चौपड़, चौसर या शतरंज जैसे इंडोर खेल प्राचीनकाल से ही लोकप्रिय रहे हैं। आधुनिक समय में इन पुराने खेलों के अलावा इनसे मिलते-जुलते खेलों तथा अन्य आधुनिक स्पर्धात्मक खेलों ने पूरी दुनिया में अपना वर्चस्व कायम कर रखा है। खेल आधुनिक हों या प्राचीन, खेलों में होने वाले अद्भुत कारनामों को जगजाहिर करने तथा उसका व्यापक प्रचार-प्रसार करने में खेल पत्रकारिता का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। आज पूरी दुनिया में खेल यदि लोकप्रियता के शिखर पर हैं तो उसका काफी कुछ श्रेय खेल पत्रकारिता को ही जाता है। खेलों का मानव जीवन से काफी पुराना सम्बन्ध है। मनोरंजन तथा स्वास्थ्य की दृष्टि से भी मनुष्य ने खेलों के महत्व को समझा है। आज शायद ही कोई दिन ऐसा हो जब राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किसी न किसी प्रतियोगिता का आयोजन नहीं हो रहा हो। अतः खेलों के प्रति जनरुचि को देखते हुए पत्र-पत्रिकाओं में खेलों के समाचार तथा उनसे सम्बन्धित नियमित स्तम्भों का प्रकाशन किया जाता है। आज स्थिति यह है कि समाचार पत्रों या पत्रिकाओं के अलावा किसी भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का स्वरूप तब तक परिपूर्ण नहीं माना जाता जब तक उसमें खेलों का भरपूर कवरेज नहीं हो। खेलों के प्रति मीडिया का यह रुझान जनरुचि के चलते ही सम्भव हो सका। आज भारत युवाओं का देश है, जिसकी पहली पसंद विभिन्न खेल स्पर्धायें हैं, शायद यही कारण है कि पत्र-पत्रिकाओं में अगर सबसे आधिक कोई पन्ने पढ़े जाते हैं तो वे खेल से सम्बन्धित होते हैं। प्रिंट मीडिया के अलावा टेलीविजन चैनलों का भी एक बड़ा हिस्सा खेलों के प्रसारण से जुड़ा होता है। खेल चैनल तो चौबीसों घंटे कोई न कोई खेल लेकर हाजिर ही रहते हैं। लाइव कवरेज या सीधा प्रसारण की बात तो छोड़िये रिकॉर्डेड पुराने मैचों के प्रति भी दर्शकों का रुझान कहीं कम नहीं दिखाई देता।
अतीत की बात करें तो भारत में कबड्डी, खो-खो, कुश्ती, हाकी से लेकर आधुनिक खेल खेले और देखे जाते थे। आजादी के बाद भारत में हाकी को राष्ट्रीय खेल का दर्जा दिया गया, वजह पर गौर करें तो ओलम्पिक में 1928 से 1956 के बीच हमारे खिलाड़ियों का अपराजेय पौरुष रहा है। खेलों के क्षेत्र में गुलाम भारत में यदि किसी खेल की दुनिया भर में विजय पताका फहरी तो वह हाकी ही थी। हमारा ओलम्पिक हाकी में लगातार छह स्वर्ण पदक जीतना आज भी इतिहास है। 1980 मास्को ओलम्पिक में आखिरी बार भारतीय टीम स्वर्ण पदक जीती थी। बाद के दशकों में हाकी इस कदर पिछड़ती चली गई कि 2008 के बीजिंग ओलम्पिक में हमें खेलने तक की पात्रता नसीब नहीं हुई। 80 साल में ऐसा पहली बार हुआ था लेकिन अखबारों में हाकी की स्थिति पर कोई विशेष टीका-टिप्पणी नजर नहीं आई। 1983 में कपिल देव की जांबाज टोली का क्रिकेट में दुनिया फतह करना इस खेल को चार चांद लगा गया। उस विजय ने क्रिकेट को न केवल गांव-गली, नुक्कड़-चौराहे तक जगह दिला दी बल्कि समाचार पत्रों के संपादकों को भी अपना नजरिया बदलने को विवश कर दिया।
आज भारत में क्रिकेट अखिल भारतीय दर्जा प्राप्त है। आज जो भाव विराट कोहली को लेकर है वही भाव कुछ साल पहले तक सचिन तेंदुलकर को लेकर रहा है। क्रिकेट मैदानों में क्रिकेट इज आवर रिलीजन, सचिन इज आवर गाड के पोस्टर भारत में क्रिकेट खिलाड़ियों को मिलने वाली शोहरत और प्रतिष्ठा की ही तरफ इशारा करते हैं। हिन्दुस्तान में क्रिकेट की दीवानगी और सैटेलाइट टेलीविजनों के अभ्युदय ने इस खेल पर लिखने वालों की एक बड़ी पलटन तैयार कर दी है। जिन संपादकों की खेलों से अरुचि रही है, उन्होंने भी इस खेल पर लिखने की ठान ली। संपादकों की इसी रुचि ने एक तरह से खेल-पत्रकारिता को नई ऊर्जा प्रदान की है। आजादी के लगभग तीन दशक तक संपादकों ने खेल-पत्रकारिता को गरीब की लुगाई की ही तरह देखा। ऐसा नहीं कि तब अखबारों में खेल की खबरें नहीं होती थीं, लेकिन जिस तरह से हमारे समाज में खेलों को लेकर एक तरह की उदासीनता का भाव दिखाई पड़ता है उसी रूप में अखबारों ने भी खेलों की खबरों के साथ सलूक किया।
हिन्दीभाषी क्षेत्रों में पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे-कूदोगे होगे खराब यह जुमला आज भी सुनाई देता है। भारत में खेल-पत्रकारिता के अभ्युदय से पहले अज्ञेय के मन में दिनमान की कल्पना का भूत सवार हुआ और उन्होंने अपने ऊपर शोध करने वाले एक छात्र योगराज थानी को खेल डेस्क का प्रमुख बनाकर हिन्दी खेल-पत्रकारिता के भविष्य पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिया। हिन्दी पत्रकारिता पर साहित्यकारों के हावी होने के कुछ दुष्परिणामों में से एक यह भी था। ऐसे साहित्यकार-संपादकों ने खेल पत्रकारिता को एक स्वतंत्र विधा के रूप में विकसित नहीं होने दिया। इसके विपरीत मैं स्वर्गवासी प्रभाष जोशी को हिन्दी खेल पत्रकारिता का पितृ पुरुष मानता हूं। 1984 में जब जनसत्ता का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ तब बतौर संपादक प्रभाष जोशी जी ने खेलों के लिए अखबार में पर्याप्त जगह निकाली। इतना ही नहीं श्री जोशीजी ने सक्षम खेल पत्रकारों को चुनकर जनसत्ता की मजबूत खेल डेस्क बनाई और उन्हें वाहन भत्ता देकर हिन्दी में स्वतंत्र खेल रिपोर्टिंग की नींव डाली। उन्होंने दैनंदिन खेल पृष्ठ के साथ-साथ सप्ताह में एक पन्ने का खेल परिशिष्ट भी शुरू किया। श्री जोशी जी स्वयं भी खेलों पर लिखते थे। लक्ष्मीबाई राष्ट्रीय शारीरिक शिक्षा संस्थान देश का पहला ऐसा संस्थान है जिसने खेल-पत्रकारिता में शिक्षण की नींव डाली लेकिन संस्थान का यह प्रयास लम्बे समय तक नहीं चल सका। लक्ष्मीबाई राष्ट्रीय शारीरिक शिक्षा संस्थान ने खेल-पत्रकारिता की तालीम हासिल करने वाले छात्र-छात्राओं को देश के वरिष्ठ खेल लेखकों के अनुभवों का लाभ दिलाने के प्रयास भी किए। यह अवसर प्रभाष जोशी के साथ ही मुझे भी नसीब हुआ। कुछ घण्टे की इस मुलाकात में मुझे भी अग्रज प्रभाष जोशी से बहुत कुछ सीखने को मिला। प्रभाष जोशी के खेल लेखन में भारतीयता कूट-कूट कर भरी थी।
मध्य प्रदेश की जहां तक बात है, मैं नई दुनिया समाचार-पत्र प्रबंधन का शुक्रगुजार हूं कि उसने खेलों और खिलाड़ियों के प्रोत्साहन के लिए न केवल समय-समय पर खेलों के बहुरंगी परिशिष्टों का प्रकाशन किया बल्कि पाक्षिक खेल-पत्रिका खेल-हलचल का प्रकाशन कर खेल पत्रकारिता की दिशा में एक नजीर पेश की। हालांकि इक्कीसवीं सदी के पहले ही दशक में इसका प्रकाशन बंद कर दिया गया लेकिन फिर भी विशेष खेल अवसरों पर नई दुनिया समाचार पत्र में विशेषांक निकलते रहे। खेल हलचल की हलचल समाप्त होने से पूर्व ही इंद्रजीत मौर्य जी ने खेलों की सम्पूर्ण पत्रिका नेशनल स्पोर्ट्स टाइम्स का प्रकाशन भोपाल से शुरू कर खेल-खिलाड़ियों को निराश नहीं होने दिया। सच कहें तो नेशनल स्पोर्ट्स टाइम्स पत्रिका इस समय देश की पहली ऐसी खेल पत्रिका है जिसमें सभी खेलों को पर्याप्त स्थान दिया जा रहा है। इस पत्रिका ने खेलों पर लिखने वालों को ऐसा प्लेटफार्म दिया है, जोकि अन्य पत्रिकाओं में सम्भव नहीं है। मौर्य जी दो दशक से पत्रिका के प्रकाशन का जो चुनौतीपूर्ण दायित्व निर्वाह रहे हैं, उसकी जितनी प्रशंसा की जाए वह कम है। दरअसल देश और प्रदेश में खेलों का पाठक वर्ग तो है लेकिन वह पैसा खर्च नहीं करना चाहता।
मध्य प्रदेश में इंदौर को खेल पत्रकारिता का गढ़ माना जाता है तो ग्वालियर में भी खेलों के प्रति लगाव कम नहीं है। ग्वालियर में खेल पत्रकारिता का प्रतिस्पर्धात्मक दौर न होने के वाबजूद मैंने 2009 में साप्ताहिक खेलपथ समाचार पत्र के प्रकाशन का निर्णय लिया। यह निर्णय मेरे लिए चुनौतीपूर्ण साबित हुआ। लाख किन्तु-परन्तु के बाद भी मैं हर रोज खेलों और खिलाड़ियों के प्रोत्साहन के लिए कुछ कर पा रहा हूं, यह मेरे लिए संतोष की बात है। देश की अन्य पत्र-पत्रिकाओं की बात की जाए तो आजकल खेल-खिलाड़ी, खेल युग, स्पोर्ट्स वीक, क्रिकेट सम्राट, क्रिकेट भारती जैसी अनेक पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं जो विश्व भर की खेल हलचलों को अपने पत्र में स्थान देने का प्रयास कर रही हैं। खेलों की पत्र-पत्रिकाओं से इतर हर पत्रिका में खेलों का एकाध आलेख प्रकाशित होना खेल-पत्रकारिता के लिए सम्बल का ही काम कर रहा है। खुशी की बात है कि आज लगभग सभी अखबारों में एक अलग खेल डेस्क है तथा खेल पत्रकारों को अन्य पत्रकारों से कुछ अलग सुविधाएं मिलने लगी हैं।
पाठकों और दर्शकों की खेलों के प्रति दीवानगी का ही नतीजा है कि आज खेल की दुनिया में अकूत धन बरस रहा है। एक समय ऐसा भी था जब खेलों में धन-दौलत का कोई नामोनिशान नहीं था। प्राचीन ओलम्पिक खेलों जैसी प्रसिद्ध खेल स्पर्धाओं में भी विजेता को जैतून की पत्तियों के मुकुट बतौर पुरस्कार दिये जाते थे। खेलों में धन-वर्षा का प्रारम्भ कार्पोरेट जगत के प्रवेश से हुआ। कार्पोरेट जगत के प्रोत्साहन से कई खेल और खिलाड़ी प्रोफेशनल होने लगे और खेल-स्पर्धाओं से लाखों-करोड़ों कमाने लगे। आज टेनिस, फुटबॉल, बास्केटबॉल, बॉक्सिंग, स्क्वैश, गोल्फ जैसे खेलों में भी पैसे की बरसात हो रही है। खेलों की लोकप्रियता और खिलाड़ियों की कमाई की बात करें तो आज क्रिकेट ने, जो दुनिया के गिने-चुने देशों में ही खेला जाता है, लोकप्रियता की नई ऊंचाइयां हासिल की हैं। क्रिकेट में कारपोरेट जगत के रुझान के कारण नवोदित क्रिकेटर भी अन्य खिलाड़ियों की तुलना में अच्छी खासी कमाई कर रहे हैं। खेलों में धनवर्षा में कोई बुराई नहीं है। इससे खेलों और खिलाड़ियों के स्तर में सुधार ही होता है, लेकिन उसका बदसूरत पहलू यह भी है कि खेलों में गलाकाट स्पर्धा के कारण इसमें फिक्सिंग और डोपिंग जैसी बुराइयों का प्रचलन भी बढ़ने लगा है। फिक्सिंग और डोपिंग जैसी बुराईयां न खिलाड़ियों के हित में हैं और न खेलों के। खेल-पत्रकारों की यह जिम्मेदारी है कि वह खेलों में पनप रहे ऐसे कुलक्षणों पर भी कलम चलाएं ताकि हर हाल में खेलभावना की रक्षा हो सके।
खेल पत्रकारों से यह उम्मीद भी की जाती है कि वे आम लोगों से जुड़े खेलों को भी उतना ही महत्व और प्रोत्साहन दें जितना अन्य लोकप्रिय खेलों को मिल रहा है। खेल पत्रकारिता किसी भी समाचार मीडिया संगठन का आज एक अनिवार्य अंग है। 
खिलाड़ियों के लिए खेल में करियर आज अपने उफान पर है तो खेल पत्रकारों के लिए भी यह सुखद अवसर से कम नहीं है। आज टेलीविजन, रेडियो, पत्रिकाएं, इंटरनेट लोगों के जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन गए हैं। हर कोई चाहता है कि उसे खेलों की नवीनतम जानकारी हासिल हो। पाठकों को खेल पत्रकारिता के इस अवसर का लाभ तब तक नहीं मिल सकता जब तक कि हर भाषा में खेल पत्रिकाएं नहीं प्रकाशित होतीं। खेल पत्रकारिता कड़ी मेहनत और जुनून का कार्य है। हम अपने दफ्तर में बैठकर ही खेल-खिलाड़ियों के प्रोत्साहन के साथ न्याय नहीं कर सकते। जरूरत है कि हम हर खेल के तकनीकी पहलू को समझें, टेनिस में गोल नहीं होता इसकी जानकारी भी हमें हर हाल में होनी चाहिए। खेल पत्रकारिता का अभी शैशवकाल है, इसे हम ईमानदारी से ही समृद्ध कर सकते हैं। कालांतर में बेशक खेल-पत्रकारिता को कमतर आंका जाता रहा हो, आज यह सबसे दुरूह कार्य है। पत्रकारिता के क्षेत्र में खेल पत्रकारिता सबसे कठिन है। इस महती कार्य को हर कोई नहीं कर सकता। यह एक तरह से तपस्या है, जो जितना तपेगा उतना ही निखरेगा।


   

Wednesday 14 June 2017

महिला क्रिकेट में मिताली राज

 बेटी के लिए मां ने छोड़ दी थी नौकरी
श्रीप्रकाश शुक्ला
महिला क्रिकेट की सचिन कही जाने वाली भारतीय टीम की कप्तान मिताली राज ने सही मायने में अपनी प्रतिभा और लगन से उन मिथकों को तोड़ा है जिन्हें जिन्हें क्रिकेट की दुनिया में असम्भव करार दिया जाता था। मिताली एकिदवसीय क्रिकेट इतिहास में 5000 रन पूरे करने वाली भारत की पहली और दुनिया की दूसरी खिलाड़ी हैं। मिताली ने यह मुकाम न्यूजीलैंड के खिलाफ चौथे एकदिवसीय मैच में 81 रनों की नाबाद पारी के दौरान हासिल किया। मिताली ने अब तक 157 मैचों की 144 पारियों में 48.82 की शानदार औसत और पांच शतक और 37 पचासों की मदद से 5029 रन बनाए हैं। इस लिस्ट में मिताली से आगे इंग्लैंड की पूर्व खिलाड़ी सीएम एडवर्ड्स हैं जिन्होंने 185 मैचों की 174 पारियों में 38.49 के औसत से नौ शतकों और 45 पचासों के साथ 5812 रन बनाए हैं। उम्मीद है कि मिताली राज इंग्लैण्ड में होने जा रहे विश्व कप में अपने बल्ले का शानदार आगाज करते हुए कुछ नए कीर्तिमान अपने नाम करेंगी। मिताली के नाम महिला एकदिवसीय क्रिकेट में सबसे ज्यादा नाबाद रहने का रिकॉर्ड भी है। मिताली के बाद इस लिस्ट में पूर्व ऑस्ट्रेलियाई बेलिंडा क्लार्क तथा के.एल. रोल्टन हैं जो कि क्रमशः 2005 तथा 2009 में ही रिटायर हो चुकी हैं। इन दोनों के बाद इस लिस्ट में इंग्लैंड की एस.सी. टेलर तथा वेस्टइंडीज की डी.ए. हॉकली का शुमार है लेकिन ये भी क्रिकेट से संन्यास ले चुकी हैं।
मिताली की बादशाहत लम्बी चलने वाली है। मिताली और एडवर्ड्स के बीच लगभग 800 रनों का ही फासला है और हम उम्मीद करते हैं कि मिताली जल्द ही एकदिवसीय क्रिकेट में सबसे ज्यादा रन बनाने वाली खिलाड़ी हो जाएंगी। मिताली राज का जन्म तीन दिसम्बर, 1982 को जोधपुर (राजस्थान) में हुआ था। उन्होंने भरतनाट्यम नृत्य में भी ट्रेंनिग प्राप्त की है और अनेक स्टेज कार्यक्रम दिए हैं। क्रिकेट के कारण वह अपनी भरतनाट्यम् नृत्य कक्षाओं से बहुत समय तक दूर रहती थीं। तब नृत्य अध्यापक ने उसे क्रिकेट और नृत्य में से एक चुनने की सलाह दी। उनकी माँ लीला राज एक अधिकारी थीं। उनके पिता धीरज राज डोराई राज बैंक में नौकरी करने के पूर्व एयर फोर्स में थे। वे स्वयं भी क्रिकेटर रहे हैं। उन्होंने मिताली को प्रोत्साहित करने के लिए हरसम्भव प्रयत्न किए। उसके यात्रा खर्च उठाने के लिए अपने खर्चों में कटौती की। इसी प्रकार मिताली की माँ लीला राज को भी अनेक कुर्बानियाँ बेटी के लिए देनी पड़ीं। उन्होंने बेटी की सहायता हेतु अपनी नौकरी छोड़ दी ताकि जब खेलों के अभ्यास के पश्चात थकी-हारी लौटे तो वह अपनी बेटी का ख्याल रख सकें। बचपन में जब उसके भाई को क्रिकेट की कोचिंग दी जाती थी, तब वह मौका पाने पर गेंद को घुमा देती थी। तब क्रिकेटर ज्योति प्रसाद ने उसे नोटिस किया और कहा कि वह क्रिकेट की अच्छी खिलाड़ी बनेगी। मिताली के माता-पिता ने उसे आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया। राजस्थान में महिला क्रिकेट की सम्भावनाएं कम थीं सो मिताली ने हैदराबाद की शरण ली। मिताली राज ने एक दिवसीय अंतरराष्ट्रीय मैच में 1999 में पहली बार भाग लिया। यह मैच मिल्टन कीनेस आयरलैंड में हुआ था जिसमें मिताली ने नाबाद 114 रन बनाए। उन्होंने 2001-02 में लखनऊ में इंग्लैंड के विरुद्ध प्रथम टेस्ट मैच खेला। मिताली जब प्रथम बार अंतरराष्ट्रीय टेस्ट मैच में शामिल हुईं तो बिना कोई रन बनाए आउट हो गईं लेकिन उसके बाद इस भारतीय बेटी ने अपनी मेहनत के दम पर आगे बढ़कर दिखाया और 2002 में अंतरराष्ट्रीय महिला क्रिकेट में दोहरा शतक (214) रन बनाकर आस्ट्रेलिया की करेन बोल्टन (209) के रिकार्ड को तोड़ दिया। मिताली के इस रिकार्ड को पाकिस्तान की किरण बलोच ने तोड़ा। किरण बलोच ने वेस्टइंडीज के खिलाफ टेस्ट में 242 रन बनाकर मिताली का रिकॉर्ड तोड़ा था।
चार वर्षों के अंतराल के पश्चात जुलाई 2006 में मिताली राज के नेतृत्व में महिला क्रिकेट टीम ने पुनः इंग्लैंड का दौरा किया। यह भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड तथा वूमेंस क्रिकेट एसोसिएशन ऑफ इंडिया के एकीकरण की ओर पहला कदम था। मिताली की अगुआई में भारतीय टीम ने टांटन में इंग्लैंड को दूसरे टेस्ट में पाँच विकेट से करारी शिकस्त देकर दो मैचों की सीरीज 1-0 से जीत ली। इस प्रकार मिताली के नेतृत्व में महिला क्रिकेट टीम ने इंग्लैंड को उसकी ही जमीन पर मात देकर देशवासियों की भरपूर प्रशंसा बटोरी। मिताली ने विश्व कप 2005 में भारतीय महिला टीम की कप्तानी की। उन्होंने 2010-11 एवं 2012 में आईसीसी वर्ल्ड रैंकिंग में प्रथम स्थान प्राप्त किया। क्रिकेट में बेशुमार उपलब्धियों को देखते हुए मिताली राज को 21 सितम्बर, 2004 को अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
जानें मिताली राज के बारे में

मिताली राज एक तमिल परिवार की हैं हालांकि उनका जन्म जोधपुर (राजस्थान) में साल 1982 में हुआ था। उनके पिता भारतीय वायुसेना के अधिकारी रहे हैं। उन्होंने क्रिकेट की शुरुआती कोचिंग सेट जॉन्स हाईस्कूल हैदराबाद से हासिल की। मिताली ने 10 साल की उम्र से क्रिकेट को गम्भीरता से लेना शुरू किया और 17 साल की उम्र में वे भारतीय क्रिकेट टीम में शामिल हो गई थीं। साल 2005 में दक्षिण अफ्रीका में हुए विश्व कप में मिताली की कप्तानी में भारतीय टीम फाइनल तक पहुंची जहां ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ उसे पराजय का सामना करना पड़ा था। साल 2006 में मिताली की ही कप्तानी में भारत ने इंग्लैंड को उसी की जमीन पर टेस्ट सीरीज में मात दी और उसी साल मिताली की कप्तानी में भारत ने एशिया कप भी जीता।

Friday 9 June 2017

खेतों में काम करती है नेशनल डिस्कस थ्रोवर मनीषा




जीता पदकों का खजाना, नहीं भर पेट खाना

पद्मश्री कृष्णा पूनिया को मानती है अपना आदर्श
श्रीप्रकाश शुक्ला
भारत गांवों का देश है। गांवों में खेल प्रतिभाएं भी हैं लेकिन उन्हें उचित परवरिश और सही मार्गदर्शन न मिलने से वे अपना तथा देश का सपना साकार करने से वंचित रह जाती हैं। उदीयमान डिस्कस थ्रोवर किसान की बेटी मनीषा शर्मा को ही लें उसने भूखे पेट जूनियर नेशनल स्तर पर 15 स्वर्ण, 5 रजत और दो कांस्य पदक उस हरियाणा राज्य की झोली में डाले जिसे खेलों और खिलाड़ियों का सबसे बड़ा पैरोकार माना जाता है। अफसोस हरियाणा सरकार की उपेक्षा के चलते वह आज खेतों में काम करने को मजबूर है। पद्मश्री कृष्णा पूनिया को अपना आदर्श मानने वाली झज्जर जिले के गांव अकेहरी मदनपुर की यह बेटी दुखी मन से कहती है कि सरकार ने आश्वासन तो बहुत दिए लेकिन उसे न नौकरी मिली और न ही भर पेट फूड सप्लीमेंट।
मनीषा के पिता श्री भगवान शर्मा का सपना है कि उनकी बेटियां खेलों में देश का नाम रोशन करें। सिर्फ पांच बीघा जमीन में पत्नी कृष्णा तथा चार बेटियों और एक बेटे का भरण-पोषण उनके लिए आसान बात नहीं है बावजूद इसके वह अलसुबह से ही मनीषा को डिस्कस थ्रो तो मोनिका को हैमर थ्रो का प्रशिक्षण देने के साथ बेटे दीपक को कबड्डी में पारंगत करते हैं। मनीषा जब 14 साल की थी तभी से वह अपने पिता की देख-रेख में डिस्कस थ्रो में देश को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वर्णिम सफलता दिलाने का सपना देख रही है। राष्ट्रमण्डल खेलों में भारत की एकमात्र स्वर्ण पदकधारी एथलीट कृष्णा पूनिया ही मनीषा यानि मिसू का आदर्श हैं। मनीषा कहती है कि कृष्णा दीदी ने एथलेटिक्स के क्षेत्र में मुल्क को जो शोहरत दिलाई है उसकी बराबरी करना आसान नहीं है लेकिन मैं प्रयास करना चाहती हूं। हर खिलाड़ी की तरह मेरे भी सपने हैं लेकिन गरीबी और सरकार की उपेक्षा मेरे प्रयासों में हमेशा बाधा बन जाती है।
मनीषा ने हरियाणा के लिए जूनियर स्तर पर 22 तो सीनियर स्तर पर दो नेशनल खेले हैं। जूनियर स्तर पर जीते 15 स्वर्ण, 5 रजत और दो कांस्य पदक मनीषा के प्रतिभाशाली होने का ही सबूत हैं। मनीषा 2013 में रांची में हुई साउथ एशियन चैम्पियनशिप में रजत पदक भी जीत चुकी है। 18 मई, 1995 को श्री भगवान के घर जन्मी मनीषा सीनियर नेशनल में कांस्य पदक जीतने के बाद इस उम्मीद में जी रही है कि उसे सरकार नौकरी देगी और वह उस पैसे को फूड सप्लीमेंट में खर्च कर देश को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई पदक दिलाएगी। बी.ए. की तालीम हासिल कर रही मनीषा दुखी मन से कहती है कि मेरी बहन मोनिका हैमर थ्रो में न केवल हाथ आजमा रही है बल्कि दो नेशनल में उसने एक स्वर्ण और एक रजत पदक जीता है। मनीषा अपनी चार बहनों और एक भाई में सबसे बड़ी है।
मनीषा कहती है कि मैं अपने प्रशिक्षक पिता की खुशी और उनके सपने को साकार करने के लिए खेलना चाहती हूं। मेरा परिवार तंगहाली के दौर से गुजर रहा है। पिताजी चाहते हैं कि मैं देश के लिए खेलूं और दर्जनों मैडल जीतूं लेकिन जब खिलाड़ी को पर्याप्त डाइट ही नहीं मिलेगी तो वह भला देश का मान कैसे बढ़ा सकता है। मैं अपने पिता के साथ खेतों में काम करती हूं ताकि परिवार को दो जून की रोटी मयस्सर हो। मनीषा बताती है कि नेशनल में मैडल जीतने पर मुझे राज्य सरकार की तरफ से कई बार सम्मानित किया गया। सम्मान से कुछ पल के लिए खुशी तो मिली लेकिन उससे पेट नहीं भरा जा सकता। समय रहते यदि हरियाणा सरकार का ध्यान राष्ट्रीय स्तर पर दो दर्जन पदक जीत चुकी मनीषा की तरफ नहीं गया तो उसका आगे खेल पाना मुश्किल होगा।
भारत सरकार 2020 में होने वाले ओलम्पिक खेलों के लिए प्रतिभाएं तलाश रही है जबकि मनीषा जैसी प्रतिभाशाली बेटियों को एक अदद नौकरी और भर पेट भोजन का मलाल है। यहां ध्यान देने वाली बात यह भी है कि यदि एक मामूली किसान अपने प्रशिक्षण और जुनून से देश को सितारा खिलाड़ी दे सकता है तो हमारा खेल तंत्र उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर का क्यों नहीं बना सकता। क्या केन्द्र और राज्य सरकार मनीषा और मोनिका जैसी बेटियों का हौसला बढ़ाएगी या फिर किसान की ये बेटियां असमय ही खेलों से नाता तोड़ लेंगी।                  


शिक्षा की साख पर सवाल

श्रीप्रकाश शुक्ला
हम विश्व गुरु हैं। हमारे महापुरुषों ने दुनिया को जीवन जीने की कला सिखाई है। भारतीय संस्कृति का देश-दुनिया में अपना अलग महत्व है। किसी नौनिहाल की प्रथम पाठशाला उसका अपना घर और माता-पिता उसके प्रथम गुरु होते हैं। हम अपने बचपन में शिक्षा का पहला पाठ अपनी माँ से ही सीखते हैं। अफसोस आज भारतीय शिक्षा व्यवस्था पर संदेह के बादल मंडराने लगे हैं। हमारी शिक्षा और संस्कार ही अब प्रतिप्रश्न करते दिख रहे हैं। देश की प्राथमिक शिक्षा मध्याह्न भोजन तक सिमट कर रह गई है तो उच्च शिक्षा के क्षेत्र में हमारे देश का सौ शीर्ष देशों में भी शुमार नहीं है। कहने को हमारी हुकूमतें घर-घर शिक्षा की अलख जगा रही हैं लेकिन बात बनने की बजाय बिगड़ती ही जा रही है। हाल ही बिहार के 12वीं के परीक्षा परिणामों से निकला स्याह सच पूरे देश के सामने प्रश्न बन चुका है। टापर गणेश को लेकर सारे देश में गणेश वंदना हो रही है। आखिर क्यूं हम शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ने की बजाय पीछे लौट रहे हैं।
कालांतर में हमारी शिक्षा प्रणाली को महंगा और कठिन माना जाता था। गरीब के बच्चे 12वीं कक्षा के बाद उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाते थे। समाज में लोगों के बीच बहुत बड़ा अन्तर और असमानता थी। उच्च जाति के लोग तो अच्छी शिक्षा प्राप्त कर लेते थे लेकिन निम्न जाति के लोग स्कूल या कॉलेज भी नहीं जा पाते थे। अब शिक्षा की पूरी प्रक्रिया में परिवर्तन आया है। कोई किसी भी उम्र में दूरस्थ शिक्षा प्रणाली से न केवल साक्षर बन सकता है बल्कि वह अपना करियर भी संवार सकता है। भारत सरकार ने शिक्षा प्रणाली को सुगम और सरल बनाने के बहुत से नियम और कानून बनाए हैं ताकि पिछड़े क्षेत्रों, गरीबों और मध्यम वर्ग के लोगों को भी समान शिक्षा और सफलता प्राप्त करने के अवसर मिल सकें। शिक्षित व्यक्ति देश का मजबूत आधार स्तम्भ होता है। शिक्षा से ही जीवन, समाज और राष्ट्र का समुन्नत विकास सम्भव है।
देखा जाए तो अतीत में उच्च शिक्षा के लिए नालंदा देश-देशांतर में विख्यात रहा है। बिहार अपने इस गौरवशाली अतीत का बखान बड़ी शान से करता है लेकिन उसी बिहार में स्कूली शिक्षा का स्तर कहां से कहां पहुंच गया है इसका अंदाजा दो साल के परीक्षा परिणामों से सहज ही लगाया जा सकता है। पिछले वर्ष यहां की टापर छात्रा अपने विषयों के सही नाम तक नहीं बता पाई थी तो इस साल के टापर गणेश का मजाक भी देश भर में उड़ रहा है। बिहार सरकार की सख्ती से परीक्षा में ऐसी गड़बड़ी करने वालों और करवाने वालों को सजा का पात्र बनना पड़ा जिसमें वह छात्रा और गणेश भी शामिल है। परीक्षाओं में नकल और उत्तर-पुस्तिकाओं की जांच में गड़बड़ी कई राज्यों का दस्तूर सा बन गई है। इस मामले में उत्तर प्रदेश और बिहार लगातार बदनामी का दंश झेल रहे हैं। इस बार भाजपाशासित उत्तर प्रदेश में नकल पर प्रतिबंध लगते ही लाखों परीक्षार्थियों ने परीक्षा देने से तौबा कर ली। बिहार सरकार ने भी पिछले साल से सबक लेते हुए सख्ती बरती लेकिन जो नतीजे आए हैं वे चौंकाते हैं, सवाल खड़े करते हैं कि आखिर पढ़ाई का स्तर क्या है और इन बच्चों का भविष्य क्या होगा।
बिहार शिक्षा बोर्ड ने पिछले साल के टापर घोटाले के दाग को धोने के लिए इस बार ऐसी सख्ती अपनाई कि 64 प्रतिशत बच्चे अनुत्तीर्ण हो गये। इस साल बिहार में इण्टर आर्ट्स, साइंस और कॉमर्स की परीक्षा में 12 लाख 40 हजार 168 परीक्षार्थी शामिल हुए थे जिनमें से सात लाख 54 हजार 622 छात्र-छात्राएं फेल हो गए। निराशाजनक परीक्षा परिणाम के लिए परीक्षार्थियों ने मूल्यांकन प्रक्रिया को जिम्मेदार ठहराया है तो अभिभावकों का आरोप है कि कॉपी की जांच ठेके पर बहाल ऐसे शिक्षकों से कराई गई जिनकी योग्यता अपने आप में संदिग्ध है। जबकि बिहार विद्यालय परीक्षा समिति के अध्यक्ष आनंद किशोर दावा करते हैं कि परीक्षा के दौरान सख्ती और बार कोडिंग की वजह से यह रिजल्ट आया है। परीक्षा में कड़ाई और निष्पक्षता का होना सही है लेकिन क्या इसके पहले विद्यार्थियों को इस तरह पढ़ाना जरूरी नहीं है कि वे कठिन से कठिन परीक्षा के लिए खुद को तैयार कर सकें। नकल जैसे हथकंडे तभी अपनाए जाते हैं जब स्कूलों में ठीक से पढ़ाई न हो। बिहार के परीक्षा परिणाम यह साबित कर रहे हैं कि वहां पढ़ाई के स्तर में सुधार लाने की सख्त आवश्यकता है। इसके लिए केवल सरकार नहीं बल्कि अभिभावकों और छात्रों को भी अपने रवैये और विचार में बदलाव लाना होगा। फिलहाल अनुत्तीर्ण छात्रों को मानसिक तौर पर सम्बल देना किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है।
स्कूली शिक्षा व्यवस्था की बदहाली सिर्फ बिहार और उत्तर प्रदेश तक सीमित नहीं है। भारत के अधिकतर राज्यों में शिक्षा का बुरा हाल है। समस्या यह है कि हमारा शिक्षा तंत्र इस कमजोरी को स्वीकारने की बजाय लीपापोती में रुचि लेता है। सफलता का वर्णन जहां बढ़ा-चढ़ाकर होता है वहीं असफलता को नजरंदाज किया जाता है। परीक्षा परिणाम हर साल सरकार और समाज को आईना दिखा रहे हैं लेकिन हम न सुधरने की मानों कसम खा चुके हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार की ही तरह, मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ में भी सरकारी स्कूलों की शैक्षिक स्थिति अच्छी नहीं है। छत्तीसगढ़ में इस बार इसकी सूरत बदलने के लिए एक नया आदेश लागू किया गया है। इस बार जब स्कूल खुलेंगे तो सरकारी प्राइमरी स्कूलों में बच्चों के उपयोग के लिए दर्पण, कंघी और नेलकटर की व्यवस्था की जाएगी ताकि बच्चे आते ही अपना अवलोकन कर स्वच्छ व व्यवस्थित रूप से स्कूल आने की कोशिश करें। इस सम्बन्ध में स्कूल शिक्षा विभाग के सचिव विकासशील ने सभी जिला शिक्षा अधिकारियों को आदेश जारी किए हैं, साथ ही यह भी कहा है कि असेम्बली में बच्चों को यह जानकारी दी जाए कि दर्पण के उपयोग से बच्चों को किस तरह स्वच्छ रहने की प्रेरणा मिलती है। सभी सरकारी स्कूलों में हमारे आदणीय गुरुजन शीर्षक के साथ स्कूलों में कार्यरत शिक्षकों का संक्षिप्त परिचय एवं उपलब्धियों के विवरण सहित फोटोग्राफ लगाने को कहा गया है। इस आदेश में यह भी कहा गया है कि सभी सरकारी स्कूलों में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह के फोटो लगाए जाएं।

बच्चे स्वच्छता का महत्व समझें और अच्छे से तैयार होकर स्कूल आएं इसमें किसी को क्या आपत्ति होगी लेकिन प्रशासन को यह भी देखना चाहिए कि जो बच्चे बिखरे बालों, बढ़े नाखूनों और मैले-कुचैले कपड़ों में स्कूल पहुंचते हैं, उनकी पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक पृष्ठभूमि क्या है। जिन परिवारों को रोजगार, भोजन, इलाज आदि के लिए हर दिन संघर्ष करना पड़ता है उनके लिए प्राथमिकता में पौष्टिक भोजन, दवाइयां, रहने के लिए हवादार मकान होगा या आईना या नेलकटर। स्कूली पाठ्यक्रम में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की फोटो की क्या आवश्यकता है, अगर इनके बारे में जानकारी देनी ही है तो उसे सामान्य ज्ञान अथवा राजनीति विज्ञान विषय के तहत दी जा सकती है। स्कूली पाठ्यक्रम के जरिए व्यक्ति, राजनीतिक दल या विचारधारा का प्रसार सिर्फ छत्तीसगढ़ ही नहीं अन्य राज्यों में भी होता रहा है और यह चलन बढ़ता ही जा रहा है, जिसे तत्काल रोका जाना चाहिए। दरअसल हमारी हुकूमतों को इस बात पर गौर करना चाहिए कि आखिर क्या वजह है कि निजी स्कूल-कालेजों का परीक्षा परिणाम सरकारी स्कूल-कालेजों से क्यों बेहतर है। हम शिक्षकों की शैक्षिक कार्यों से इतर सेवाएं क्यों लेते हैं। देश में शिक्षा का स्तर सुधारना है तो सरकारों को प्राथमिक स्तर से ही व्यवस्थाएं चाक-चौबंद करनी होंगी। कोशिश हो तेली का काम तमोली से न कराया जाए। 

Tuesday 6 June 2017

साक्षी मलिक को ईश्वर सिंह दहिया ने बनाया ओलम्पिक मेडलिस्ट

कुछ यूं सिखाई पहलवानी
साक्षी मलिक ने जिस मेहनत और लगन से दुनिया में नाम कमाया है, वह एक शख्स की देन है। इन्होंने ही साक्षी मलिक को ओलम्पिक मेडलिस्ट बनाया। हम बात कर रहे हैं ओलम्पियन पहलवान साक्षी मलिक के कोच ईश्वर सिंह दहिया की। उनके जीवन में कुश्ती बचपन में ही शामिल हो गई और पूरा जीवन कुश्ती को समर्पित कर दिया। वह खुद तो पहलवान बने ही, देश को ओलम्पिक मेडलिस्ट साक्षी मलिक समेत कई पहलवान और कोच दिए। उनकी इस राह में मुश्किलें आईं, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। उनके सामने सबसे बड़ी समस्या तब आई, जब उन्होंने बेटियों को कुश्ती में आगे लाने का बीड़ा उठाया। तब लोगों के ताने सुनने को मिले, लेकिन उन्होंने बेटियों को कुश्ती के गुर सिखाने नहीं छोड़े और लोगों को समझाकर उनका नजरिया बदला। उनकी मेहनत रंग लाई और रोहतक में महिला पहलवानों की फौज तैयार हो गई। मूल रूप से सोनीपत जिले के सिसाना गांव के रहने वाले दहिया साल 1976-1980 तक आल इंडिया इंटर यूनिवर्सिटी रेसलिंग चैम्पियन रहे हैं। जूनियर नेशनल में गोल्ड तो सीनियर नेशनल में कांस्य जीतने वाले ईश्वर दहिया को एचएयू में बतौर प्रोफेसर की नौकरी मिल गई, लेकिन उन्होंने कुश्ती कोच की राह चुनी। वह विदेश में जाकर मेडल जीतने के सपने को शिष्यों के सहारे पूरा करना चाहते थे।
दहिया साल 1983 में खेल विभाग में कुश्ती कोच बने। साल 2003 में अखाड़े में पहली बार बेटियों को कुश्ती सिखाने की तैयारी की। इनमें ओलम्पिक मेडलिस्ट साक्षी मलिक के साथ ही कामनवेल्थ में मेडल जीतने वाली सुमन कुंडू समेत कई बेटियां शामिल थीं। उस समय ईश्वर सिंह दहिया को लोगों के ताने भी सुनने पड़े कि बेटियों को कुश्ती में उतारकर समाज के खिलाफ राह पकड़ी है। लेकिन ईश्वर सिंह ने उनको दांवपेंच सिखाने बंद नहीं किए, बल्कि लोगों की सोच बदलने के लिए उनको समझाया।
इसके बाद तो रोहतक के सर छोटूराम स्टेडियम में बेटियों की कुश्ती सीखने के लिए भरमार हो गई। अब कई लड़के और लड़कियां यहां से कुश्ती के दांव-पेंच सीखकर नेशनल और इंटरनेशनल स्तर पर मेडल जीत रहे हैं।
ईश्वर सिंह दहिया साल 2014 में जिला खेल अधिकारी के पदक से रिटायर्ड हुए, लेकिन पहलवान तैयार करने का उनका जज्बा कम नहीं हुआ। वह आज भी रोजाना सुबह-शाम स्टेडियम में जाकर पहलवानों को कुश्ती के दांव-पेंच सिखाते हैं। इसके लिए वह कोई शुल्क नहीं लेते हैं।
कुश्ती कोच ईश्वर सिंह दहिया बताते हैं कि पहलवान को पहले सम्मान की नजर से नहीं देखा जाता था। इसलिए पहलवान को सम्मान दिलाना और लड़कियों को कुश्ती में उतारना, दोनों किसी चुनौती से कम नहीं थे।
जब साल 2003 में कविता और सुनीता आदि पहलवान अखाड़े में आईं तो लोग हंसी उड़ाते थे। लेकिन पहलवानों को सम्मान दिलाया, लड़कियों को अखाड़े में उतारा तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मेडल भी दिलवाए। वह कहते हैं कि आज सबसे बड़ी खुशी यही है कि उनकी मेहनत सफल हो गई।
इंटरनेशनल रेसलिंग चैम्पियनशिप में गोल्ड मेडल जीतने वाली कविता, सुनीता, सुमन, साक्षी, सीमा, रितु मलिक, गुड्डी के अलावा दीपक, भीम, मनदीप सभी उनके शिष्य हैं जो कुश्ती में ऊंचाइयां छू चुके हैं या ऊंचाइयां छूने में लगे हैं। जबकि ईश्वर सिंह दहिया का पहलवान तैयार करने का सफर जारी है।

Friday 2 June 2017

अलका तोमर ने मुश्किलों पर पाई फतह

 भारत में महिला कुश्ती की पहचान है मेरठ की बिटिया
  श्रीप्रकाश शुक्ला  -9627038004
पहलवानी महिलाओं के बूते बात नहीं है, यह कहने वालों के लिए मेरठ की बिटिया और भारत में महिला कुश्ती की पहचान अलका तोमर एक नजीर है। आमिर खान बेशक दंगल फिल्म के बाद दुनिया में चर्चा का विषय हों। उनकी फिल्म को दुनिया भर में सराहा जा रहा हो लेकिन उनसे कहीं न कहीं कुछ त्रुटि भी रह गई है। मसलन इस फिल्म में फोगाट बहनों का ही अधिकतर जिक्र हुआ है जबकि फोगाट बहनों से इतर अलका तोमर, गीतिका जाखड़ जैसी जांबाज पहलवानों ने दुनिया में भारतीय महिला कुश्ती का परचम फहराया है। इनका जिक्र कहीं न कहीं होना चाहिए था। खैर, भारत की जो बेटियां सामाजिक बंधनों को तोड़कर खेल मैदानों में अपने पराक्रम का जलवा दिखा रही हैं, उन पर हर खेलप्रेमी को नाज होना ही चाहिए। लाइम-लाइट से दूर ऐसी बेटियों की सफलताओं को भुलाया नहीं जाना चाहिए। कुश्तीप्रेमियों को यह जानकर अचरज होगा कि मेरठ की महिला पहलवान अलका तोमर ने विश्व कुश्ती चैम्पियनशिप में सुशील कुमार, योगेश्वर दत्त से पहले भारत के भाल को ऊंचा किया था।
असल जिन्दगी से प्रेरित दंगल फिल्म की कहानी अलका तोमर से भी काफी कुछ मिलती-जुलती है। देश को राष्ट्रमण्डल खेलों में पहली बार महिला कुश्ती में गोल्ड मैडल दिलाने वाली अलका तोमर ने केवल अपने पिता की मेहनत को ही साकार नहीं किया बल्कि देश का नाम भी सुनहरे अक्षरों में लिखवा दिया। अलका की कहानी फोगाट परिवार से कम नहीं है। अलका का कहना है कि मेरे पिता को कुश्ती का काफी शौक था। उन्होंने कुश्ती में मैडल का सपना अपने बेटे में ही देखा था। मेरे भाई ने कुश्ती भी की लेकिन जहां तक पहुंचना चाहिए था वहां तक नहीं पहुंच सका। मेरे पिता ने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने मुझे कुश्ती में डाला। जब मैं 10 साल की थी तभी से पिता नैन सिंह तोमर ने मुझे कुश्ती के लिए तैयार करना शुरू कर दिया था। उन्होंने मुझे भी उसी माहौल में पाला जिस माहौल में मेरे दोनों भाई थे। उन्होंने मुझमें और दोनों भाइयों में कोई फर्क नहीं रखा।
मेरठ की इस बेटी के लिए पहलवानी आसान बात नहीं थी। अपने इस शौक के लिए अलका तोमर को सबसे पहले समाज के साथ दंगल करना पड़ा। सिर्फ 10 साल की उम्र में अखाड़े पर कदम रखने वाली अलका बताती है कि एक रोज पापा ने मुझसे पूछा तुम अखाड़े में दमखम दिखाने के लिए क्या लोगी। एक बच्ची के रूप में मैंने भी कहा कि चॉकलेट चाहिए, कपड़े चाहिए। कोल ड्रिंक पीना है। मैं कुश्ती में दांव-पेच दिखाऊं इसके लिए मेरे पापा ने वो सब किया जो मैंने चाहा। मैं भी तैयार हो गई। मेरे बाल कट गए। ट्रैकशूट पहनकर अखाड़ा जाने लगी तो गांव वाले कमेंट करते थे- लड़कियों को बर्बाद कर दिया। बाल कटवा दिए और अजीब कपड़े पहन रही है। लेकिन मैंने हार नहीं मानी। मुझे तो अपने पापा का सपना हर हाल में पूरा करना था, सो मैं विचलित नहीं हुई।
अर्जुन अवार्डी पहलवान अलका तोमर बताती हैं कि कुश्ती में प्रैक्टिस के लिए मुझे अपने गुरुजी जबर सिंह सोम के पास जाना पड़ता था। मेरे साथ मेरे परिवार का कोई न कोई जरूर होता था लेकिन एक दिन भाई ने मेरे साथ जाने से मना कर दिया। उसे अजीब लगता था कि मेरी बहन कुश्ती के लिए जाती है। मुझे लोग बड़े ही अजीब तरीके से देखते थे। भाई के मना करने के बाद मेरे पिता ही सामने आए और वही मुझे गुरुजी के पास लेकर जाने लगे। मेरे पिताजी स्कूल में हर तरह के खेलों में भाग लेने को मुझसे कहते थे। मेरे पिता रोज मुझे दौड़ाया करते थे। उन्होंने मेरे साथ काफी मेहनत की। अलका की कही सच मानें तो जब वह कुश्ती के लिए घर से निकलती तो आसपास के लोग कहते थे कि ये लड़की क्या पहलवानी करेगी। पहलवानी लड़कों के लिए होती है। अजीब-अजीब बातें होती थीं। पिताजी ने मेरे दिल और दिमाग में कुश्ती में नाम कमाने का ऐसा जज्बा भर दिया कि उसके अलावा कुछ और सूझता ही नहीं था। सुबह छह बजे चले जाना और शाम को आना। मेरा सिर्फ कुश्ती पर फोकस रहता था। मेरे पिता और मेरा एक ही मकसद बन गया था कि कुश्ती में नाम कमाना है। उसके अलावा हम दोनों को न तो कुछ सुनाई देता था और न ही कुछ दिखाई देता था।
गीता फोगाट को दो बार रिंग में पराजय का सबक सिखाने वाली अलका बताती हैं कि मैंने जैसे ही स्कूल स्तर से कुश्ती में सफलता हासिल और कई ट्रॉफियां जीतीं समाचार-पत्रों में मेरा नाम छपने लगा। फिर क्या था गांव वाले भी मेरी इज्जत करने लगे। 1999 में जब वूमेन रेसलिंग शुरू हुई तो कोच जबर सिंह ने मेरे पापा से कहा कि कोई लड़की सम्पर्क में हो तो बताओ। पापा ने कहा मेरी बेटी तो है लेकिन एक तो उसकी उम्र कम है और दूसरे वह बड़ी ही दुबली-पतली सी है। उन्होंने कहा ले आओ उसे पहलवान बनाऊंगा। नेशनल के लिए टीम भी पूरी हो जाएगी। फिर क्या था पापा खुश हो गए। मेरे अखाड़ा ज्वाइन करने के 15-20 दिन बाद ही मथुरा में सब-जूनियर नेशनल था। मैंने वहां सिल्वर मैडल जीता। उस वक्त ये सिल्वर मेरे लिए किसी ओलम्पिक मैडल से कम नहीं था। अलका कहती हैं कि मैंने दंगल फिल्म देखी है। यह काफी शानदार है। फिल्म में एक पिता की कहानी है जो अपनी बेटियों को एक ऐसा खिलाड़ी बनाता है जिसने देश में महिला खेलों की दशा और दिशा बदल दी। अलका कहती हैं कि बबीता और गीता फोगाट ने काफी मेहनत की है। उन्होंने वह कर दिखाया जो आज तक कोई नहीं कर सका।
              अपनी बेटी और बेटे को बनाऊंगी पहलवानः अलका तोमर
कुश्ती में अलका तोमर ने मेरठ को विश्व स्तर पर पहचान दिलाई। हरियाणा, पंजाब के इस खेल में अलका ने दिखाया कि कैसे मेरठ शहर की एक लड़की अपना दम दिखा सकती है। ओलम्पिक मैडल को छोड़कर अलका के नाम हर मैडल है। अलका तोमर ने अपने पहलवानी जीवन में 40 अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में शिरकत करते हुए 22 मैडल जीते। उत्तर प्रदेश के यश भारती सम्मान से विभूषित सिसौली गांव के नैन सिंह तोमर-मुन्नी देवी की बेटी पहलवान अलका तोमर आज अपने पारिवारिक जीवन से बेहद खुश हैं। दिसम्बर 2012 में बुलंदशहर निवासी एसोसिएट प्रोफेसर अनूप सिंह के साथ परिणय सूत्र में बंधीं अलका तोमर के एक बेटा और एक बेटी है। अलका का कुश्ती के प्रति लगाव घटने की बजाय और बढ़ गया है। ससुरालीजनों के प्रोत्साहन ने अलका में एक नया जोश और जुनून पैदा कर दिया है। प्रतिस्पर्धी कुश्ती को अलविदा कह चुकी अलका तोमर फिलवक्त लगातार प्रतिभाशाली पहलवानों को दांव-पेच सिखा रही हैं। अलका बड़ी संजीदगी से बताती हैं कि वह अपनी बेटी अनन्या और बेटे आयुष को भी सिर्फ पहलवान ही बनाना चाहती हैं। अलका कहती हैं कि मेरा बेटा बेशक दूसरे खेल को आत्मसात कर ले लेकिन बेटी बनेगी तो सिर्फ पहलवान। अलका अपनी बेटी के साथ हर पल जीना चाहती हैं। बकौल अलका मैं चाहती हूं कि मेरी बेटी भारतीय उम्मीदों को पंख लगाए।
वर्ष 1998 से प्रतिस्पर्धी कुश्ती में दांव-पेच दिखाने वाली अलका तोमर कुश्ती में अपनी सफलता का श्रेय परिजनों के साथ-साथ अपने प्रशिक्षक जबर सिंह सोम  और नोएडा कालेज आफ फिजिकल एज्यूकेशन के संचालक सुशील राजपूत को देती हैं। अलका कहती हैं कि सोम सर ने जहां मेरी पहलवानी को परवाज दिया वहीं सुशील राजपूत जी मेरे लिए भगवान से कम नहीं हैं। हमारे पहलवानी करियर में सोम सर और राजपूत सर का बहुत बड़ा योगदान है, इनकी मदद से ही मैं इस मुकाम तक पहुंचने में सफल हुई। सोम सर ने मेरे खिलाफ हुए षड्यंत्रों पर जहां खुलकर मेरा साथ दिया वहीं श्री राजपूत ने 2001 से 2011 तक मेरे खान-पान का न केवल पूरा खर्चा वहन किया बल्कि मुझे अपने कालेज में निःशुल्क तालीम भी प्रदान की। मुझे ही नहीं वह लगातार अन्य खिलाड़ियों की भी मदद कर रहे हैं। एक पहलवान के लिए बेहतर डाइट जरूरी होती है। श्री राजपूत ने काजू-बादाम से लेकर खानपान का हर खर्च वहन किया। आज के युग में जब इंसान अपने परिजनों को दो जून की रोटी मुहैया न करा रहा हो ऐसे में 10 साल तक श्री राजपूत ने मेरी डाइट की व्यवस्था न की होती तो मेरे परिवार के लिए बहुत मुश्किल होता। सच कहें तो सुशील राजपूत जैसे खेल और खिलाड़ी हितैषी लोग बिरले ही होते हैं।