Wednesday 29 April 2015

मुसीबतों की मारी, देश की सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी

आगरा। पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे-कूदोगे होगे खराब, जैसी कहावतें आज भी बच्चों की खेल प्रतिभा के रास्ते का रोड़ा बनी हुई हैं। लेकिन खेलों में ही यदि कोई अपनी पूरी क्षमता झोंक दे, तो वह ऐसी कहावतों पर विश्वास करने वालों की आंखों का तारा बन जाता है। उड़ीसा के जाजपुर जिले के गोपालपुर गांव की उदीयमान एथलीट दुती चंद भी उन्हीं में से एक है। लाख मुसीबतों के बाद भी इस ट्रैक क्वीन ने अपने प्रदर्शन का लोहा देश-दुनिया में मनवाया है। दुती का अगला लक्ष्य चीन के वुहान में तीन से सात जून तक होने वाली एशियन एथलेटिक्स चैम्पियनशिप है।
लगभग एक साल से जेण्डर परिवर्तन की तोहमत झेल रही चक्रधर-अखूजी चंद की बेटी दुती चंद ने खेल पथ से विशेष बातचीत में बताया कि किसी खिलाड़ी का गरीब के घर जन्म लेना कितना मुश्किल होता है, यह मुझसे बेहतर कोई नहीं जानता। मैं पिछले एक साल से खुद को लड़की साबित करने की जो जंग लड़ रही हूं, उसे शब्दों में बयां नहीं कर सकती। मैं शुक्रगुजार हूं भारत सरकार और भारतीय खेल प्राधिकरण का, जिनके प्रयासों और मदद से मैं स्विट्जरलैण्ड के लुसाने में अपना मेडिकल करा सकी। 19 साल की देश की सर्वश्रेष्ठ फर्राटा धावक दुती को अफसोस है कि वह पुरुष हारमोंस की तोहमत लगने के चलते पिछले साल राष्ट्रमण्डल और एशियाई खेलों में शिरकत नहीं कर सकी। राष्ट्रीय स्तर पर अब तक पदकों का खजाना जमा कर चुकी दुती का कहना है कि वह एथलेटिक्स में वह मुकाम हासिल करना चाहती है, जोकि आज तक कोई भारतीय एथलीट नहीं कर सका है। दुती का कहना है कि चीन में होने वाली एशियन एथलेटिक्स चैम्पियनशिप मेरे लिए खास है। मैं हर हाल में देश के लिए पदक जीतना चाहती हूं। लगातार दो राष्ट्रीय खेलों में 100 मीटर फर्राटा दौड़ का स्वर्ण पदक जीत चुकी उड़ीसा की इस जांबाज एथलीट को भरोसा है कि अंतरराष्ट्रीय एथलेटिक फेडरेशन से उसे क्लीन चिट जरूर मिलेगी।
पुलेला गोपीचंद मेरे लिए भगवान समान
पुलेला गोपीचंद बैडमिंटन एकेडमी हैदराबाद में 18 अप्रैल से अपना खेल निखार रही दुती चंद का कहना है कि पुलेला गोपीचंद नेक इंसान ही नहीं मेरे लिए तो भगवान समान हैं। जब एक समय सब ने मुझसे मुंह फेर लिया था, मुसीबत के उन क्षणों में पुलेलाजी ने न केवल मेरा हौसला बढ़ाया बल्कि अपनी एकेडमी में मुझे शरण दी। उन्होंने मुझे खाने-रहने सहित हर किस्म की मदद नहीं की होती तो मैं शायद ट्रैक पर दोबारा वापस नहीं लौट पाती। राष्ट्रीय खेलों से पहले भी दुती पुलेला गोपीचंद बैडमिंटन एकेडमी में प्रशिक्षण ले चुकी है। फिलवक्त वह हैदराबाद में प्रशिक्षक एन. रमेश से प्रशिक्षण ले रही है। दुती चंद हैदराबाद में 30 अगस्त तक प्रशिक्षण लेगी।
अब तक जीते दो सौ से अधिक पदक
केरल में हुए राष्ट्रीय खेलों में 100 मीटर दौड़ का स्वर्ण पदक जीतने वाली दुती पांच साल की उम्र से ट्रैक पर जलवा दिखा रही है। गोपालपुर (उड़ीसा) की जांबाज एथलीट दुती चंद नेशनल स्तर पर 100 और 200 मीटर दौड़ के 200 से अधिक तमगे हासिल करने के साथ ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दो स्वर्ण और एक कांस्य पदक जीत चुकी है।
शांति सुंदरराजन और पिंकी प्रमाणिक भी झेल चुकी हैं जेण्डर परिवर्तन का दंश
भारत में जहां तक जेण्डर परिवर्तन की बात है अकेले दुती चंद ही नहीं इसका दंश शांति सुंदरराजन और पिंकी प्रमाणिक भी झेल चुकी हैं। काफी संघर्ष के बाद यह दोनों खिलाड़ी निर्दोष तो साबित हुर्इं पर उनका खेल जीवन तबाह हो गया। दुती को जुलाई 2014 में ग्लासगो कॉमनवेल्थ खेलों के कुछ दिन पहले ही ट्रैक से अयोग्य करार दिया गया था। तब उसके शरीर में टेस्टोस्टेरोन की मात्रा सामान्य से ज्यादा पाई गई थी। टेस्टोस्टेरोन वह हार्मोन है जो पुरुषोचित गुणों को नियंत्रित करता है। 

Sunday 26 April 2015

सूरते बेहाल, खोते नौनिहाल

बच्चे किसी राष्ट्र का भविष्य होते हैं। उनकी उचित परवरिश और शिक्षा-दीक्षा की जवाबदेही सरकार की होती है। आजादी के बाद से ही भारत सरकार देश के भविष्य यानि बच्चों के स्वास्थ्य और साक्षरता पर अकूत पैसा खर्च कर रही है बावजूद इसके स्थिति संतोषजनक नहीं कही जा सकती। विकासशील भारत के सामने कुपोषण और शिक्षा के आंकड़ों से कहीं अधिक चौंकाने वाली स्थिति लगातार खोते बचपन को लेकर है। पिछले तीन साल में सवा तीन लाख बच्चों का लापता होना हैरत नहीं बल्कि सरकार के लिए शर्मिंदगी की बात है। अफसोस, हर रिपोर्ट के बाद हमारी हुकूमतें भविष्य में ऐसा न होने की दुहाई तो देती हैं लेकिन समय बीतने के साथ ही सब कुछ भुला दिया जाता है। सरकारी तंत्र की इस भूल-भुलैया के चलते ही मुल्क में प्रतिदिन सैकड़ों बच्चे लापता हो रहे हैं।
बच्चों के सुखद भविष्य को लेकर इन दिनों मुल्क में अनेकानेक योजनाएं चल रही हैं, लेकिन उचित मानीटरिंग के अभाव में उनका सुफल नहीं मिल रहा। देश में कानून-व्यवस्था और सुरक्षा के मद में बेइंतहा धनराशि खर्च हो रही है। जनमानस को भरोसा दिया जाता है कि कानून से किसी को भी खिलवाड़ नहीं करने दिया जाएगा, पर बच्चों की सुरक्षा का स्याह सच यह है कि प्रतिवर्ष एक लाख से ज्यादा बच्चे न जाने कहां गुम हो रहे हैं। पिछले साल संसद में पेश आंकड़ों पर गौर करें तो सिर्फ 2011 से 2014 के बीच ही सवा तीन लाख बच्चे न जाने कहां खो गये? यह वे आंकड़े हैं जोकि पुलिस रोजनामचे में दर्ज हैं। देखा जाए तो आजादी के 68 साल बाद भी आम जनमानस के लिए पुलिस की कार्यप्रणाली अबूझ पहेली बनी हुई है। गरीब तो लाख कष्ट सहने के बाद भी पुलिस के सामने अपना दुखड़ा नहीं सुना पाता। देश में गुम होते बच्चों पर कई बार सर्वोच्च न्यायालय भी सरकार को ताकीद कर चुका है लेकिन स्थिति सुधरने की बजाय लगातार बिगड़ती जा रही है। एक तरफ देश का भविष्य गुम हो रहा है तो दूसरी तरफ सरकारी तंत्र नित नये परवाने लिखने में ही व्यस्त है। अफसोस की बात है कि बच्चों के गुम होने के सही आंकड़े हमारी हुकूमत के पास भी नहीं हैं। अदालत ने महिला एवं बाल विकास मंत्रालय से 31 मार्च, 2015 तक गुमशुदा बच्चों की सम्पूर्ण जानकारी मांगी थी, लेकिन मंत्रालय जवाब देने में नाकाम रहा। जब अदालत को लेकर महिला एवं बाल विकास मंत्रालय इतना संवेदनहीन हो तो भला आम आदमी की क्या बिसात कि वह गुमशुदा बच्चों की सही जानकारी जुटा सके।  बच्चों के लापता होने के मामलों पर गौर करें तो मुल्क में सबसे खराब स्थिति उस महाराष्ट्र की है, जोकि अपने आपको सुसंस्कारित होने का दम्भ भरता है। महाराष्ट्र में प्रतिवर्ष 50 हजार से अधिक बच्चे न जाने कहां खो जाते हैं। बच्चों के लापता होने के मामले में मध्यप्रदेश दूसरे स्थान पर है। अन्य राज्यों की स्थिति भी अच्छी नहीं कही जा सकती। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय गुमशुदा बच्चों के आंकड़ों की जानकारी दे भी दे तब भी उसे सच नहीं माना जा सकता। वजह, हमारा राष्ट्रीय अपराध रेकार्ड ब्यूरो सिर्फ और सिर्फ अपहरण किए गए बच्चों के आंकडेÞ ही बताता है। देखा जाये तो ज्यादातर मामलों में निष्ठुर पुलिस प्राथमिकी दर्ज करने से ही इनकार कर देती है। हमारी हुकूमतें बच्चों के देश का भविष्य होने का लाख राग अलापें पर वे इनकी सुरक्षा व्यवस्था को लेकर कितनी गम्भीर हैं, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि किशोर न्याय अधिनियम के तहत पिछले 15 साल में आज तक एक सलाहकार समिति तक गठित नहीं की जा सकी है। कर्तव्य में हीलाहवाली को लेकर सर्वोच्च अदालत कई बार सरकार को फटकार भी लगा चुकी है बावजूद स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ।
देश के खोते बचपन पर शासन-प्रशासन की उदासीनता यही चरितार्थ करती है कि जाके पैर न फटें बेवार्इं, वो का जाने पीर पराई। हर अध्ययन रिपोर्ट के बाद हुकूमतें फौलादी कानून-व्यवस्था का भरोसा तो देती हैं लेकिन इन दावों के बरक्स देश भर में प्रतिदिन सैकड़ों बच्चे लापता हो रहे हैं और उनमें से महज 10-15 फीसदी बच्चे ही अभिभावकों के पास पुन: आ पाते हैं। चौंकाने वाली बात तो यह है कि हमारी सरकारें लाख बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ का राग अलाप रही हों, पर कटु सत्य तो यह है कि लापता होने वाले कुल बच्चों में लगभग 60 फीसदी बेटियां ही होती हैं। लापता होते किशोर जहां बालश्रम करने को मजबूर होते हैं वहीं किशोरियां देह-व्यापार की अंधेरी दुनिया में धकेल दी जाती हैं, जहां से उनका वापस निकल पाना कभी सम्भव नहीं होता। लापता बच्चों में अधिकतर निम्न आयवर्ग से ताल्लुक रखते हैं, जिन्हें मानव-तस्कर गिरोह बंधुआ मजदूरी, भिक्षावृत्ति, मानव अंगों के कारोबारियों के हाथों बेच देते हैं। हाल ही केन्द्रीय मंत्रिमण्डल ने किशोर न्याय अधिनियम में उस संशोधन को मंजूरी दे दी, जिसमें जघन्य अपराधों में शरीक 16 से 18 आयु वर्ग के किशोरों पर वयस्क अपराधियों की तरह मुकदमा चलाया जा सके। किशोर न्याय अधिनियम में संशोधन के इन प्रयासों की चहुंओर सराहना हो रही है। होना भी चाहिए आखिर अपराध तो अपराध ही होता है, करने वाला भले ही कोई हो। किशोरों के हत्या-बलात्कार सरीखे जघन्य अपराधों में संलिप्त पाये जाने पर उनके विरुद्ध वयस्कों की तरह ही भारतीय दण्ड संहिता के तहत मुकदमा चलाये जाने के प्रति गंभीरता ओढ़ने से पहले सरकार को इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि मुल्क का भविष्य अकारण ही कड़े कानूनी दण्ड का शिकार न हो जाये। किशोरों के विरुद्ध वयस्क की तरह भारतीय दण्ड संहिता के तहत मुकदमा चलाये जाने का फैसला किशोर न्याय बोर्ड के लिए आसान नहीं होगा। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय दण्ड विधान के मूल में सुधार प्रक्रिया प्रमुख है। विभिन्न अध्ययनों से पता चलता है कि जेल जाने के बाद किशोरों के पेशेवर अपराधी बनने की आशंकाएं बढ़ जाती हैं। कोई भी सही सोच वाला शांतिप्रिय नागरिक इस संशोधन का स्वागत करेगा, लेकिन भारतीय सामाजिक परिस्थितियों के मद्देनजर हमें किशोर संरक्षण एवं सुधार के लिए भी बहुत कुछ करने की जरूरत है। देश में किशोरों की स्थिति कोई खास अच्छी नहीं है। क्या यह आंकड़ा हमारी प्रतिबद्धता और व्यवस्था को कठघरे में खड़ा नहीं करता कि देश में कुल 815 किशोर सुधार गृह ही हैं, जिनमें 35 हजार किशोरों को ही रखने की व्यवस्था है, जबकि देश में किशोर अपराधियों की संख्या 17 लाख के आसपास है। किशोरों को दण्ड दिलाने की बजाय सरकार को उन पर जुर्म न हों इसके प्रयास सबसे पहले करने चाहिए।
(लेखक पुष्प सवेरा के समाचार संपादक हैं)

Tuesday 21 April 2015

नेताजी का विवाद कालातीत

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस आजादी के मसीहा ही नहीं भारतीय युवा तरुणाई के आदर्श हैं। उनकी तुलना किसी और से की ही नहीं जा सकती।  नेताजी की मौत बेशक रहस्य हो पर उनसे जुड़ी गोपनीय फाइलों के बहाने जो राजनीतिक खेल खेला जा रहा है, वह उन शख्सियतों का घोर अपमान है जिन्होंने देश की आजादी के लिए त्याग और बलिदान दिया है। गोपनीय दस्तावेजों में कुछ भी हो, पर जो लोग हमारे बीच हैं ही नहीं उन पर शोर मचाना न केवल अप्रासंगिक है बल्कि उनकी महानता का अनादर भी। देश की आजादी में नेताजी का क्या योगदान रहा, इस पर आज भी हर हिन्दुस्तानी को नाज है। नेताजी आज भी हर भारतवासी के दिलों में रचे-बसे हैं।
हिन्दुस्तान में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के अलावा दूसरा और कोई ऐसा इंकलाबी हुआ ही नहीं जिस पर जीते जी और उनके निधन के बाद इतना विवाद रहा हो। नेताजी पर निगहबानी की जहां तक बात है इसकी शुरुआत अंग्रेजी राज में ही हो गई थी। 1930 के दशक में अंग्रेजों ने कोलकाता स्थित नेताजी के दोनों मकानों में सीआईडी का पहरा बिठा दिया था। वही वह दौर था जब सुभाष चन्द्र बोस और उनके बड़े भाई शरत चन्द्र बोस बंगाल में स्वतंत्रता आंदोलन के अगुआ बनकर उभरे थे। नेताजी को पहली बार 1941 में नजरबंद किया गया था, पर वे पुलिस को चकमा देकर एल्गिन वाले मकान से बमुश्किल निकल कर नाजी वाले शासन जर्मनी में जाकर न केवल रुके बल्कि उन्होंने एडोल्फ हिटलर से भारत की आजादी के लिए सहयोग भी मांगा। हिटलर से सहयोग मांगने पर न केवल नेताजी से अंग्रेज नाराज हुए बल्कि कांग्रेसियों ने भी उनका साथ छोड़ दिया।
देश की आजादी के बाद से ही देश की आवाम यह जानने को बेचैन है कि नेताजी की मौत कैसे और किन परिस्थितियों में हुई। भारतीय जनता पार्टी जब तब नेताजी की मौत को लेकर कुछ न कुछ कहती रही है। पिछले साल नेताजी की सालगिरह पर यह कहा गया था कि यदि भाजपा सत्ता में आई तो नेताजी की फाइलों को सार्वजनिक किया जाएगा। पिछली दो फरवरी को प्रधानमंत्री कार्यालय ने आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष चन्द्र अग्रवाल को बताया था कि पीएमओ के पास मौजूद नेताजी की फाइलों को सार्वजनिक करना दूसरे देशों के साथ रिश्तों को पूर्वाग्रस्त तरीके से प्रभावित कर सकता है। पीएमओ ने कुछ ऐसा ही जवाब मिशन नेताजी को भी दिया था। मिशन नेताजी वर्ष 2006 से लगातार इन फाइलों को सार्वजनिक किए जाने की लड़ाई लड़ रहा है। नेताजी और उनके परिजनों के पत्रों की जहां तक बात है, ये कोलकाता स्थित राज्य आईबी मुख्यालय की दराजों में बंद हैं। इस बारे में बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी हमेशा से ही इंकार करती रही हैं। नेताजी के प्रपौत्र अभिजीत राय की कही सच मानें तो 1947 से 1968 तक की गई नेताजी की जासूसी व अन्य दस्तावेजों की कोई 64 फाइलें पश्चिम बंगाल सरकार के पास हैं। अभिजीत राय का कहना है कि पिछले सप्ताह जिन दो फाइलों के कारण समूचे देश में सनसनी फैली वे कोलकाता में लार्ड सिन्हा रोड स्थित विशेष शाखा कार्यालय के एक लॉकर में बंद हैं। बकौल राय 62 अन्य फाइलें भी इसी कार्यालय में हैं, जिन्हें सार्वजनिक किए जाने में हीलाहवाली की जा रही है।
दरअसल, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के गोपनीय दस्तावेजों से परदा उठाने का काम केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने किया है। जानकारों का मानना है कि नेताजी से जुड़ी हर फाइल अब दिल्ली के राष्ट्रीय अभिलेखागार में हैं। नेताजी की जासूसी का स्याह सच क्या है, इससे इतर जिस तरह कालातीत मामलों को लेकर आज तमाशा हो रहा है, वह पंडित जवाहर लाल नेहरू को खलनायक साबित करने का ही एक प्रपंच है। यह सौ फीसदी सच है कि सुभाष चन्द्र बोस की राजनीतिक हैसियत भारत के समकालीन इतिहास में सर्वोच्च है, पर जिस तरह उनके खिलाफ नेहरू का इस्तेमाल हो रहा है वह दोनों ही दिवंगत नेताओं का अपमान है। जासूसी की इस आग को आज वही दल प्रज्वलित कर रहे हैं जिनका कि आजादी की लड़ाई में कोई विशेष योगदान नहीं था। देश की आजादी में सुभाष चन्द्र बोस का जहां अमूल्य योगदान है वहीं आजाद भारत की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक तरक्की में जवाहरलाल नेहरू की हैसियत को कतई कमतर नहीं आंका जाना चाहिए। नेहरू की विदेश नीति या राजनीति में खोट निकालने वालों को यह ध्यान रखना चाहिए कि यह उनकी दूरदर्शिता का ही नतीजा है कि आज भारत एक महान देश तो पाकिस्तान बेहद ही पिछड़ा मुल्क है।
इस बात में दो राय नहीं है कि सुभाष चन्द्र बोस ने भारत की आजादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण योगदान देने के साथ ही कांग्रेस के आंतरिक लोकतंत्र को विस्तारित करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। महात्मा गांधी के सत्याग्रही तरीके का पुरजोर विरोध करने के चलते ही उन्हें उनका सैद्धांतिक विरोधी माना गया। आज जो लोग महात्मा गांधी की विरासत को अपनाने और पंडित नेहरू को छोटा साबित करने की रणनीति पर काम कर रहे हैं उनको शायद नहीं मालूम कि कांग्रेस में 1930 के बाद जिन लोगों का प्रभाव था, वही लोग जवाहर लाल और सुभाष चन्द्र बोस जैसे लोगों को किनारे लगाने की कोशिश कर रहे थे, इन पुरातनपंथियों के खिलाफ जो लामबंदी हुई थी उसमें जवाहरलाल नेहरू, जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेन्द्र देव, सुभाषचन्द्र बोस और राम मनोहर लोहिया साथ-साथ थे। सैद्धांतिक मतभेद कभी किसी से भी हो सकते हैं। राजनीतिक इतिहास पर नजर डालें तो नेताजी के हिटलर और मुसोलिनी से सम्पर्क साधने के बाद ही कांग्रेस के अधिकांश नेता उनसे दूर हुए थे। नेताजी आजादी के अप्रतिम सिपाही थे। उनकी रहस्यमय मौत और उससे जुड़ी घटनाओं को नेहरू-विरोधी नेता और कुछ बुद्धिजीवी हमेशा से ही निज स्वार्थ का हथियार बनाते आए हैं। आज जिस विवाद को तूल दिया जा रहा है, उससे देश को तो कुछ हासिल नहीं होगा अलबत्ता समाज में वैमनस्य जरूर फैल जाएगा। आज जरूरत इस बात की है कि नेताजी के आदर्शों और सिद्धांतों की नए सिरे से व्याख्या की जाए तथा उनके उदात्त चरित्र से प्रेरणा ग्रहण की जाए। नेताजी की मौत का विवाद अब कालातीत और कालबाधित हो चुका है। इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़ने से न सिर्फ नेताजी के देशभक्तिपूर्ण कार्यों पर प्रश्नचिह्न लगेगा बल्कि इस महान स्वतंत्रता सेनानी की आत्मा को भी ठेस पहुंचेगी।

Friday 17 April 2015

आंतरिक सुरक्षा में सेंध

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सीमाओं की सुरक्षा को लेकर बड़े-बड़े दावे-प्रतिदावे तो करते हैं लेकिन मुल्क की आंतरिक स्थिति के प्रति उनका नजरिया साफ नहीं है। देश की सल्तनत पर काबिज होने के बाद लोगों को उम्मीद थी कि भारतीय जनता पार्टी अपने पूर्व के क्रिया-कलापों में आमूलचूल परिवर्तन लाकर सिर्फ और सिर्फ विकास की राह चलेगी। आम चुनाव के समय मोदी ने सबका साथ, सबका विकास की बातें भी की थीं। वह विकास के प्रति फिक्रमंद भी दिख रहे हैं लेकिन उनका ध्यान मुल्क की आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था पर कम है। हाल ही में जिस तरह नक्सलवादियों ने छत्तीसगढ़ में खून की होली खेली या देश के अन्य हिस्सों में जिस तरह धार्मिक उन्माद की स्थिति निर्मित की गई, उसे अच्छा संकेत नहीं माना जा सकता। मोदी सरकार को यह सोचना होगा कि देश का विकास धार्मिक उन्माद से कभी नहीं हो सकता।
हमारे राजनीतिज्ञ हमेशा छोटे-छोटे राज्यों की मुखालफत करते हैं। लोगों को भरोसा दिया जाता है कि इससे विकास को पर लगेंगे लेकिन मध्यप्रदेश से अलग हुए छत्तीसगढ़ में अब तक एक हजार से अधिक जवानों का नक्सली हमलों में हताहत होना चिन्ता की ही बात है। अकेले छत्तीसगढ़ ही नहीं समूचे देश में जिस तरह का उन्मादी माहौल बन रहा है, वह खतरे का ही संकेत है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का विदेशों में जाकर शांतिपाठ पढ़ाना, उनके राजनीतिक हितसाधकों के लिए खुशखबर हो सकती है, पर उनके लिए नहीं जिनके घर के चिराग असमय बुझ रहे हों। हिन्दुस्तान के दर्द की खबर रखने वाले प्रधानमंत्री को यह महसूस होना चाहिए कि छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाके सुकमा में नक्सली हमला हो या मुल्क के दूसरे हिस्सों का उन्माद, उस पर यदि समय रहते अंकुश नहीं लगा तो सुरक्षा की सारी बातें बेमानी हो जाएंगी।
मोदी सरकार के सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि अमन के दुश्मन आखिर धन और हथियार कहां से जुटा रहे हैं? नक्सलवादियों की लड़ाई सरकार से है, व्यवस्था से है या उन जवानों से है जो कुछ हजार का वेतन पाकर अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हैं और शहीद हो जाते हैं। वीर जवानों की मौत के बाद हमारी हुकूमतें उनके परिजनों को थोड़ा मुआवजा और अनुकम्पा नियुक्ति तो दे देती हैं लेकिन मुल्क में अमन की बयार बहे, इसके प्रयास कभी सिरे नहीं चढ़ते। हर बड़ी वारदात के बाद राजनीतिज्ञ अफसोस तो जताते हैं लेकिन मुल्क के किसी भी हिस्से में दंगा-फसाद की स्थिति निर्मित न हो इसके कोई ठोस प्रयास कभी नहीं किए जाते। देखा जाए तो आजादी के बाद से ही हमारे राजनीतिज्ञ देश की आंतरिक सुरक्षा को लेकर शांतिजाप कर रहे हैं लेकिन इन खोखली संवेदनाओं से पीड़ितों का दर्द कभी कम नहीं हुआ।
हर रोज देश के किसी न किसी हिस्से में खून-खराबा हो रहा है, इससे निपटने के लिए सरकार के पास इच्छाशक्ति का ही नहीं, शब्दशक्ति का भी घोर अभाव है। यही वजह है कि उन्मादियों का तंत्र, उनका आतंक और उनके हमले लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं। छत्तीसगढ़ सहित विभिन्न राज्यों में लम्बे समय से जहां नक्सली समस्या मुंह चिढ़ा रही है वहीं केन्द्र में भाजपा सरकार के काबिज होने के बाद जिस तरह हरियाणा, दिल्ली, उड़ीसा, मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में चर्च निशाना बने हैं, उससे लगता है कि मोदी अपनों से ही नियंत्रण खो बैठे हैं। देश के आंतरिक उन्माद से निपटने की जहां तक बात है केन्द्र और राज्य सरकारों के पास न कोई सोच है और न ही उससे निपटने की पुख्ता रणनीति। हमारा सूचना तंत्र और सरकारी खुफिया एजेंसियां सांप निकलने के बाद लकीर पीटने की आदी हो चुकी हैं, यही वजह है कि वारदात से पहले उन्हें कुछ भी पता ही नहीं होता। हर साल सरकार देश का बहुत बड़ा खजाना खुफिया एजेंसियों के कामकाज पर खर्च करती है लेकिन उपद्रवी अपने काम को सहजता से अंजाम दे देते हैं।
नित नई जासूसी की खबरें उछालने वाली मोदी सरकार उन हसरतों का पता कब और कैसे लगाएगी, जो देश की व्यवस्था तथा उसके अमन-चैन के लिए बार-बार घातक साबित हो रही हैं? क्या कारण है कि कोई बड़ी वारदात होने के बाद ही सरकार को उसकी कमजोरियों का पता चल पाता है। कहने को सरकार के पास साधन, संसाधन और सुविधाओं की कोई कमी नहीं है बावजूद इसके कहीं भी कुछ भी हो जाता है। केन्द्र में मोदी सरकार के सत्ता सम्हालने के बाद गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने नक्सलवाद को देश की आंतरिक सुरक्षा की सबसे बड़ी समस्या बताया था और इसके समाधान के लिए इस समस्या से जूझ रहे राज्यों में एक साथ बड़ा अभियान शुरू करने की घोषणा की थी। ऐसी सम्भावना देखी जा रही थी कि जल्द ही नक्सलियों के पांव उखड़ जाएंगे और शांति व सुरक्षा के नए वातावरण में नक्सल प्रभावित इलाकों में विकास की रफ्तार तेज होगी, परन्तु स्थिति इसके ठीक विपरीत दिखाई देती है। खासकर बस्तर के मामले में तो यही कहना सही होगा।
देश में आंतरिक कलह का जो ताण्डव हो रहा है उसकी कमाण्ड कौन कर रहा? क्या हमारे सुरक्षा बल आंतरिक उन्माद रोकने में अक्षम हैं या फिर उन्हें ऐसा न करने की मनाही है। यह ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब मोदी सरकार को ही देना है। बात भारत में फैले नक्सलवाद की हो, माओवाद की, अलगाववाद की या फिर आंतरिक उन्माद की, आम चुनाव से पहले कांग्रेस की किरकिरी करने वाली भारतीय जनता पार्टी एक वर्ष में भी इन मसलों पर अपना रुख स्पष्ट नहीं कर पाई है। देशहित में तो यही ठीक होगा कि आधुनिक हथियार व अच्छे संसाधन वाले सुरक्षा बलों का उपयोग कर आंतरिक उन्माद पर अंकुश लगाया जाए अन्यथा निकट भविष्य में मुल्क का साम्प्रदायिक सौहार्द्र तहस-नहस हो जाएगा। देश की सीमाओं की सुरक्षा से भी अधिक जरूरी है कि मुल्क में अमन-चैन कायम हो। धार्मिक उन्माद से मुट्ठी भर लोगों को तो खुश किया जा सकता है लेकिन इससे देश का विकास और हमारी गंगा-जमुनी संस्कृति की हिफाजत नहीं की जा सकती।

Wednesday 15 April 2015

ग्लैमर के मारे, क्रिकेटर बेचारे


खूब उड़ीं गिल्लियां
भारत में क्रिकेट धर्म और इसे खेलने वाला भगवान की तरह माना जाता है। यही वजह है कि इस खेल से जुड़े हर लम्हे और कानाफूसी पर सबकी नजर रहती है। इन दिनों क्रिकेटर विराट कोहली और अनुष्का शर्मा के रोमांस की खबरें सुर्खियां बटोर रही हैं। लोग इनकी व्यक्तिगत जिन्दगी से ऐसा वास्ता रख रहे हैं मानो इससे पहले किसी खिलाड़ी ने प्यार और इजहार किया ही न हो। भारत की जहां तक बात है यहां क्रिकेटर हो या फिल्म अभिनेत्री, उसे स्टार का दर्जा मिलते ही सारा परिदृश्य बदल जाता है। ग्लैमर की दुनिया है ही ऐसी। शोहरत और दौलत हाथ आते ही धर्म-कर्म की सारी सीमाएं एक झटके में टूट जाती हैं। प्यार तो वैसे भी अंधा कहा ही जाता है। क्रिकेटरों और सिने तारिकाओं का एक-दूसरे के करीब आना कोई अजूबा नहीं बावजूद इसके इनकी निकटता लोगों में चर्चा का विषय जरूर बन जाती है। विराट कोहली और अनुष्का शर्मा की सन्निकटता पहली और आखिरी प्रेम कहानी नहीं है, इससे पूर्व भी दुनिया के बहुतेरे क्रिकेटर ग्लैमर की गुगली से बोल्ड हो चुके हैं। क्रिकेटरों और सिने तारिकाओं के रोमांस के किस्सों की लम्बी दास्तां है, पर फिल्मी रोमांस की तरह इनका रोमांस भी शादी तक कम ही पहुंचता है। क्रिकेटरों और सिने तारिकाओं के रोमांस पर नजर डालें तो गैरी सोबर्स-अंजू महेन्द्रू, रवि शास्त्री-अमृता सिंह, विवियन रिचर्ड्स-नीना गुप्ता, सचिन तेंदुलकर-शिल्पा शिरोड़कर, सौरव गांगुली-नगमा, युवराज सिंह-किम दीपिका, नेहा धूपिया, महेन्द्र सिंह धोनी-दीपिका, जहीर-ईशा श्रावणी,  हरभजन सिंह-गीता बसरा आदि कुछ ऐसी जोड़ियां हैं जिनके रोमांस के किस्से तो खूब मशहूर हुए पर एक-दूजे के नहीं हो सके।
प्यार और इजहार की मायावी दुनिया बहुत विचित्र है। किसी को ताउम्र इसका सुख नसीब होता है तो कुछ अल्पसमय सुर्खियां बटोरने के बाद एक-दूसरे से जुदा हो जाते हैं। ग्लैमर की गुगली इस कदर अबूझ होती है कि बहुतेरे क्रिकेटर उसकी तबाही से अपना सब कुछ खो देते हैं। विराट कोहली और अनुष्का के अफेयर की बातें अब किसी के लिए जिज्ञासा का विषय बेशक न हों पर इस ओपन सीक्रेट की गाहे-बगाहे ही सही कुछ दिलचस्प खबरें सुर्खियां जरूर बन जाती हैं। विश्व कप क्रिकेट के दौरान एक नीला स्कार्फ काफी चर्चा में रहा। विराट कोहली विराट पारियां खेलें इसके लिए अनुष्का हमेशा अपने पास नीला स्कार्फ रखती हैं। यह स्कार्फ विराट ने ही अनुष्का को गिफ्ट किया था। यह नीला स्कार्फ अनुष्का अपने पर्स में रखना कभी नहीं भूलतीं। अनुष्का और विराट के प्यार का इजहार तो अब आम हो चुका है। यह जोड़ा शादी के बंधन में कब बंधेगा इसको लेकर जरूर चर्चा होने लगी है। विराट और अनुष्का के बीच प्यार की पींगे बढ़े अभी एक साल ही हुआ है। इसकी शुरुआत हुई थी एक एड फिल्म की शूटिंग के दौरान। इसके बाद दोनों एक-दूसरे को इस कदर भा गये कि अकसर एक साथ नजर आने लगे।
विराट मेरा अच्छा दोस्त
विराट कोहली के साथ शादी को लेकर अनुष्का का जवाब हमेशा डिप्लोमेटिक होता है। वह शादी के सवाल पर हमेशा कहती हैं कि विराट मेरा अच्छा दोस्त है। इसे अफेयर का नाम देने से मुझे चिढ़ होती है। मैं जब भी शादी करूंगी दुनिया जानेगी। सच तो यह है कि हम दोनों अभी अपने करिअर को मजबूत करना चाहते हैं। विराट अपनी क्रिकेट की चमक परवान चढ़ाना चाहते हैं तो मैं बतौर एक्ट्रेस अपने आपको प्रू्व कर रही हूं। बकौल अनुष्का उनकी रुचि फिल्म निर्माण में भी है। उनका भाई करुणेश फिल्म निर्माण में उनका सहयोगी होगा। उनकी पहली निर्मित फिल्म एनएच-10 दर्शकों के बीच है। खैर, विराट और अनुष्का से पहले भी कई क्रिकेटर ग्लैमर की दुनिया को अपना दिल दे चुके हैं। नवाब मंसूर अली खान पटौदी-शर्मिला टैगोर, मोहम्मद अजहरुद्दीन और संगीता बिजलानी आदि की प्रेम कहानियां  पहले ही सुर्खियां बटोर चुकी हैं। देखा जाये तो किकेटरों और सिने तारिकाओं की प्रेम कहानी को हमेशा सुखद धरातल नहीं मिला। इस मामले में पटौदी-शर्मिला और मोहम्मद अजहर-संगीता बिजलानी ही ऐसे दो उदाहरण हैं जिनका रोमांस परिणय सूत्र तक पहुंचा है।
पटौदी और शर्मिला
नवाब पटौदी और शर्मिला टैगोर के रोमांस और शादी की कहानी वर्षों पुरानी है। 1967-68 की बात है जब क्रिकेट दीवानी शर्मिला ने एक मैच के दौरान न केवल पटौदी के खेल की तारीफ की बल्कि उनकी प्रेम दीवानी भी हो गर्इं। इस जोड़ी ने अपने रोमांस को लम्बा नहीं खींचा और 1969 में दोनों परिणय सूत्र में बंध गये। शादी के बाद आइशा बेगम साहिबा बनने के बाद भी शर्मिला ने फिल्मों में काम करना बंद नहीं किया। उनके शौहर पटौदी को इस पर कोई आपत्ति भी नहीं थी। बाद में पटौदी ने अपने दोनों बच्चों सैफ और सोहा के फिल्मों में आने पर भी कोई पाबंदी नहीं लगायी । सच तो यह है कि पटौदी चाहते थे कि सैफ क्रिकेटर बने, मगर सैफ ने जैसे ही एक्टर बनने की इच्छा व्यक्त की, वह तुरंत तैयार हो गये। कुछ ऐसा ही सोहा के साथ भी हुआ। अत्यंत उच्च शिक्षित सोहा ने अचानक ही अच्छी विदेशी कम्पनी की नौकरी छोड़कर फिल्मों में आने का मन बनाया। तब भी बेहद उन्मुक्त विचारों के पटौदी कुछ नहीं बोले। बाद में सोहा ने भी अपने भाई सैफ की तरह प्रेम विवाह किया। नवाब पटौदी ने शर्मिला के साथ अपना वैवाहिक जीवन ताउम्र निभाया। अब पटौदी इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन उनके अधूरे कार्यों को बेवा शर्मिला पूरा कर रही हैं।
मोहम्मद अजहरुद्दीन-संगीता बिजलानी
क्रिकेटर मोहम्मद अजहरुद्दीन और मॉडल-अभिनेत्री संगीता बिजलानी का रोमांस ज्यादा जोशीला था। प्यार के जोश में होश खोने वाले अजहर ने अपने प्यार के लिए अपने बीवी-बच्चों तक को खो दिया।  दो साल के लम्बे रोमांस के बाद अजहर ने संगीता से 1996 में निकाह किया था। दोनों संयुक्त रूप से फिल्म निर्माण में हाथ आजमाते कि अजहर का सम्मोहन संगीता से टूट गया। लगभग चार साल के दाम्पत्य जीवन के बाद 2010 में अज्जू ने संगीता से भी तलाक ले लिया। इसकी वजह संगीता का अपने पूर्व प्रेमी सलमान खान के प्रति अति अनुराग होना माना गया। इन दिनों संगीता फिर से फिल्मी गलियारे में जहां घूम रही हैं वहीं अजहर कांग्रेस के पिटे हुए मोहरे बन अपने राजनीति के टूटे हुए किरचों को फिर से समेटने की कोशिश में मशगूल हैं।
गैरी सोबर्स-अंजू महेन्द्रू
महान क्रिकेटर सर गैरफील्ड सोबर्स ने जब सिने अभिनेत्री अंजू महेन्द्रू को सगाई की अंगूठी पहनायी, तब यह माना जा रहा था कि वह अंजू से शादी करके ही वेस्टइंडीज लौटेंगे। पर उन्होंने अपने देश में जाकर अपनी अलग ही दुनिया बसा ली और गैरी सोबर्स-अंजू महेन्द्रू का रोमांस क्षण भर में एक भूली हुई दास्तां बन गया। अंजू बाद में अभिनेता अमजद खान के अभिनेता भाई इम्तियाज खान की बीवी बनीं। इम्तियाज की मृत्यु के बाद आज वह अपने काम में मशगूल हैं।
युवराज-किम
आज जिस तरह विराट और अनुष्का के बीच प्यार परवान चढ़ रहा है कुछ इसी तरह युवराज सिंह और हीरोइन किम से शादी के चर्चे भी काफी सरगर्म रहे। इस प्रेम कहानी में युवराज की मां खलनायक साबित हुर्इं। युवराज तो किम को अपना जीवनसाथी बनाना चाहते थे लेकिन किम प्रेमिका के रोल में ही खुश थीं। किम से रोमांस के बाद युवराज का नाम दीपिका, नेहा धूपिया आदि तारिकाओं के साथ भी जुड़ा, पर सच यह है कि युवराज आज भी कुंआरे हैं।
रिचर्ड्स-नीना गुप्ता
वैसे विदेशी क्रिकेटरों के रोमांस का अर्द्धसत्य समझना बड़ा मुश्किल है। वह खेल के सिलसिले में इस देश में आते हैं। किसी फिल्म तारिका के प्रेमपाश में बंधते हैं। फिर खेल खत्म होता है और विदेश लौटने के बाद इनका रोमांस भी खत्म हो जाता है। अभिनेत्री नीना गुप्ता और विवियन रिचर्ड्स का प्यार भी कुछ ऐसा ही था। इस प्यार में एक गुल भी खिला। यह गुल यानी इन दोनों की बिटिया मसाबा आज बड़ी हो चुकी है।  वह एक बड़ी डिजायनर है। लेकिन इसका एक दूसरा सच यह है कि नीना को आज भी एक अविवाहित मां माना जाता है। विवियन के साथ उनकी शादी नहीं हुई लेकिन मसाबा को दोनों का नाम जरूर मिला है। नीना गुप्ता ने विवेक मेहरा से शादी तो रचा ली पर रिचर्ड्स जब भी भारत आते हैं अपनी बेटी मसाबा और नीना से जरूर मिलते हैं।
ये भी खूब रहे चर्चा में
भारतीय टीम के कप्तान महेन्द्र सिंह आज बेशक एक बेटी के पिता हैं पर इनका नाम भी कभी दीपिका, बिपाशा आदि के साथ काफी चर्चा में रहा। धोनी की बिपाशा के प्रति आत्मीयता एक एड फिल्म की शूटिंग के दौरान परवान चढ़ी थी लेकिन उनका अफेयर कभी ज्यादा सुनायी नहीं पड़ा। बाद में साक्षी ने उनका कैच लपक लिया। जहीर खान-ईशा श्रावणी और हरभजन सिंह-गीता बसरा के रोमांस की पटकथा के चर्चे तो खूब चले पर इन दोनों जोड़ियों की शादी के बारे में कोई पक्की खबर अभी तक नहीं आयी है। कभी-कभी इनके ब्रेक-अप की खबरें जरूर आती रही हैं।
विदेशी क्रिकेटर भी अछूते नहीं
सिने तारिकाओं से रोमांस के मामले में विदेशी क्रिकेटर भी अछूते नहीं हैं। दक्षिण अफ्रीका के चर्चित क्रिकेटर जैक कैलिस,आस्ट्रेलिया के वर्तमान कप्तान माइकल क्लार्क, शेनवार्न, वेस्टइंडीज के ब्रायन लारा, क्रिस गेल आदि भी ग्लैमर के प्रेमपाश में फंस चुके हैं। जैक कैलिस की जहां तक बात है वह तो हर साल प्रेमिकाएं बदलने के लिए हमेशा सुर्खियों में रहते हैं। 

सानिया का एक और कमाल

खेल की दुनिया में ग्लैमर का तड़का लगाने के लिए सानिया मिर्जा के नाम के साथ अमूमन सनसनी शब्द जोड़ा जाता रहा है। उनके खेल के अलावा उनके टी शर्ट, नाक की बाली, रैंप पर फैशन परेड, पाकिस्तानी खिलाड़ी शोएब मलिक से विवाह, टीवी के रियलिटी शो में प्रतिभागी बनना, हर बात पर सनसनी खोजी गई। लेकिन अब उन्होंने जो कमाल कर दिखाया है, उसके लिए सनसनी शब्द कमजोर लगता है। विश्व की नंबर एक खिलाड़ी बनने की अद्भुत, असाधारण, अभूतपूर्व उपलब्धि उन्होंने हासिल की है और इस ऊंचाई तक पहुंचने वाली पहली महिला खिलाड़ी बन गई हैं। सानिया मिर्जा की यह कामयाबी अनूठी इसलिए हो जाती है, क्योंकि यह सब उन्होंने भारतीय लड़की होते हुए हासिल किया। भारत में लड़की होते हुए खेल को करियर बनाना और उसमें एक दशक से अधिक समय तक टिके रहना, कितना कठिन है, इसका वर्णन सानिया मिर्जा, साइना नेहवाल, मैरीकाम, सबा अंजुम, मिताली राज, दीपिका कुमारी जैसी लड़कियां ही कर सकती हैं। इनमें से किसी को आर्थिक तंगी से होकर अपनी राह बनानी पड़ी, तो किसी को सामाजिक वर्जनाओं का सामना करना पड़ा, कहींलिंगभेद की दीवार खड़ी हुई तो कहींधर्म के कट्टर फरमान। हर किसी की अपनी संघर्ष गाथा है, इसलिए जब वे राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई भी कामयाबी हासिल करती हैं तो वह चांद को छूने जैसी ही होती है। सानिया मिर्जा ने तो अब चांद के साथ-साथ कई सितारों को भी अपने दामन में समेट लिया है। 2003 में जूनियर विम्बलडन चैंपियन बनने के बाद उनका टेनिस करियर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आगे बढ़ा। किंतु इस दौरान कई उतार-चढ़ाव आए। सिंगल्स में उनकी विश्व रैंकिंग 27 तक पहुंची। लेकिन कलाई की एक चोट के कारण सिंगल्स की जगह डबल्स पर उन्होंने अधिक ध्यान देना शुरू किया। इसमें एक के बाद एक जीत का सिलसिला शुरू हुआ। 2009 में आस्ट्रेलियन ओपन, 2012 में फ्रेंच ओपन, 2014 में यू एस ओपन, राष्ट्रमंडल खेल, एशियाड सभी में उन्होंने उल्लेखनीय उपलब्धि हासिल की। स्विट्जरलैंड की मार्टिना हिंगिस के साथ जोड़ी बनाने के बाद उनके करियर को नई ऊंचाइयां मिली। बीते रविवार मार्टिना हिंगिस के साथ डब्ल्यूटीए फैमिली सर्किल कप का फाइनल जीतने के बाद अब सानिया मिर्जा विश्व की नंबर एक टेनिस खिलाड़ी बन गईं, और उन दोनों की जोड़ी भी नंबर वन जोड़ी बन गई है। सानिया से पहले भारत के सिर्फ लिएंडर पेस और महेश भूपति डबल्स रैंकिंग में शीर्ष पर पहुंचे हैं। अपने खेल के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचने के बाद सानिया ने कहा कि जिस खेल को मैं इतना प्यार करती हूं उसमें नंबर-1 बनना सचमुच मेरे लिए असाधारण बात है। उम्मीद है कि इससे सही संदेश जाएगा। लोगों को समझने की जरुरत है कि लड़कियां जो करना चाहें करने दिया जाए। अगर दूसरे उन पर भरोसा नहीं करें तो माता-पिता को उन पर यकीन करना चाहिए। साथ देना चाहिए। 
भारत में महिलाएं खेलों में करियर तलाशने लगी हैं। लेकिन ज्यादातर अब भी ये ही सोचती हैं कि कई चीजें लड़कियों के लिए नहीं हैं। सभ्यता और संस्कृति इसकी अनुमति नहीं देता। मेरी कामयाबी ये ही कहती है कि लड़की जो करना चाहे वो करने दीजिए। मुझे उम्मीद है कि और भी लड़कियां आगे आएंगी। सानिया मिर्जा के इस कथन से असहमत नहींहुआ जा सकता। अभी कुछ दिनों पहले ही बैडमिंटन में साइना नेहवाल ने विश्व का नंबर एक खिलाड़ी होने का ताज पहना था। सानिया और साइना जैसी लड़कियां अन्य भारतीय लड़कियों के लिए प्रेरणा हैं और करारा जवाब हंै उन रूढ़िवादी लोगों के लिए जो लड़की पैदा करने पर मां की कोख पर ही सवाल उठाते हैं।

Saturday 11 April 2015

सपनों के सौदागर

इसी साल के अंत में बिहार में विधान सभा चुनाव होना हैं। चुनाव में अभी आठ माह का समय होने के बावजूद राजनीतिक दल पैंतरेबाजी शुरू कर चुके हैं। बिहार में राजनीतिक ऊंट किस करवट बैठेगा, यह तो समय और मतदाता तय करेगा, फिलहाल यहां का राजनीतिक परिदृश्य इस कदर बदल चुका है कि लगता ही नहीं मतदाता कोई ठोस निर्णय ले पाएगा। 2014 के आम चुनावों में मिली अपार सफलता के बाद से ही कमल दल बिहार को लेकर मदमस्त है। उसे बिहार की सल्तनत मुट्ठी में आई लग रही है, जबकि यहां के बिगड़े समीकरणों पर फतह पाना भाजपा ही नहीं किसी भी दल के लिए आसान बात नहीं होगी।
राजनीति में कोई किसी का सगा नहीं होता, यह बात राजनीतिक दलों के बेमेल गठजोड़ों से बार-बार सच साबित हो रही है। एक-दूसरे के धुर राजनीतिक विरोधी लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार की हालिया एका  बेशक बिहार में कोई कमाल न दिखा पाये पर इन बदले समीकरणों ने कमल दल की पेशानियों में जरूर बल ला दिया है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जहां बिहार की आवाम की ख्वाहिशें पूरी करने में अक्षम साबित हुए हैं वहीं लालू और उनकी जुगलबंदी के पास जात-पात की जोड़-तोड़ के अलावा कोई ठोस राजनीतिक मुद्दा भी नहीं है, जिससे बिहारियों को बहलाया-फुसलाया जा सके। फिलवक्त बिहार में जात-पात की कश्मकश ऐसे मोड़ पर है, जिसमें जीतन राम मांझी तुरुप का इक्का साबित होते दिख रहे हैं। मांझी बिहार की आवाम को मझधार से बाहर निकालने की ताकत तो नहीं रखते लेकिन उनके मैदान में ताल ठोकने मात्र से ही जनता परिवार की दम जरूर निकल सकती है। बिहार में भाजपा यही कुछ चाहती भी है।
भारतीय जनता पार्टी के पास लालू प्रसाद यादव या मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को मात देने का एकमात्र अस्त्र सुशील मोदी हो सकते थे लेकिन इन्हें भी अपनी ही पार्टी की जड़ों पर मठा डालने की बुरी आदत है। नीतीश कुमार ने जीतन राम मांझी को नाराज कर जहां अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली वहीं कमल दल की उम्मीदों को भी पर लगा दिए हैं। स्थितियां कैसी भी हों सुशील मोदी अपनी ही पार्टी के तेज-तर्रार नेताओं का मानमर्दन कर सूबे का सरताज बनने की हसरत जरूर पाले हैं। नीतीश कुमार की जहां तक बात है वह अपने शासनकाल में जनता से किए वायदे पूरे करने में जहां नाकामयाब साबित हुए वहीं जीतन राम मांझी को अपमानित कर लगभग 10 फीसदी महादलितों को भी नाराज कर दिया है। दलितों की इस नाराजगी के चलते लालू-नीतीश का जनता परिवार बिहार में अपना राजनीतिक अभीष्ट पूरा कर पाएगा इसमें संदेह है।
बिहार में महादलित वोट बैंक की जहां तक बात है, यह अब तक जदयू और राजद के हाथों ही खेलता रहा है। भाजपा ने इस वोट बैंक को हासिल करने के प्रयास तो किए लेकिन उसे सफलता कभी नहीं मिली। जीतन राम मांझी और नीतीश कुमार के बीच हुए पंगे के बाद कमल दल को उम्मीद बंधी है कि वह इन वोटों का ध्रुवीकरण कर अपनी हसरत पूरी कर सकता है। बिहार में नीतीश कुमार ताकतवर तो हैं लेकिन सत्ता में आने के बाद उन्होंने भूमि सुधार, समान स्कूल शिक्षा प्रणाली और कृषि रोड मैप की जो तीन बातें प्रमुखता से कही थीं उन्हें आठ साल बाद भी वे धरातल नहीं दे पाए हैं। नीतीश कुमार 2005 में बिहार के मुख्यमंत्री बने थे। 2006 में भूमि सुधार आयोग का गठन हुआ और डी. बंदोपाध्याय के नेतृत्व में भूमि सुधार आयोग ने 2008 में अपनी रिपोर्ट भी सरकार को सौंप दी थी। इसके तहत 12 लाख एकड़ जमीन को सरकारी या भूदान समिति के नियंत्रण से मुक्त कराकर भूमिहीनों में बांटने और पर्चारहित अलग बटाईदारी कानून आदि बनाने की सिफारिश के बाद भी इसे लागू नहीं किया जा सका।
नीतीश कुमार ने बिहार की आवाम से समान स्कूल शिक्षा प्रणाली का भी वादा किया था। प्रोफेसर मुचकुंद दुबे ने समान स्कूल शिक्षा प्रणाली आयोग की सिफारिश 2007 में राज्य सरकार को पेश तो की लेकिन वह भी धरातल पर उतरती नहीं दिखी। इससे संवैधानिक प्रावधान के बावजूद छह से 14 साल की उम्र के बच्चों को नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा मुहैया नहीं हो पाई। नीतीश ने राज्य के सभी बच्चों को उनके घर के पास ही समान स्तर की शिक्षा मुहैया कराने का भरोसा भी दिया था लेकिन इस योजना का भी बच्चों को कोई लाभ नहीं मिला। सपनों के सौदागर नीतीश ने राज्य में खेती को नया रूप देने के लिए वीएस व्यास कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर कृषि रोड मैप तो तैयार कराया लेकिन राजनीतिक खींचतान के चलते सारी सिफारिशें फाइलों में ही दफन हो गर्इं। झारखण्ड के अलग होने के बाद बिहार के पास प्राकृतिक संसाधन के नाम पर बचे जल और जमीन का भी नीतीश सरकार समुचित इस्तेमाल नहीं कर सकी।
नीतीश कुमार केन्द्र की मोदी सरकार को लेकर खूब तंज कसते हैं लेकिन वह यह भूल जाते हैं कि जब तक सामंती ताकतों के गठजोड़ से हुकूमतें चलेंगी तब तक गरीब और मजदूरों के हित में क्रांतिकारी फैसले नहीं लिए जा सकते। आज जब समूची दुनिया आर्थिक राह चल रही हो ऐसे में गरीबों के पक्ष में खड़ा होने के लिए न केवल हौसला चाहिए बल्कि कुर्सी का मोह त्यागने की हिम्मत भी जरूरी है। जनसंख्या घनत्व की दृष्टि से बिहार देश में पहले स्थान पर है। ऐसे में यहां भूमि की उपलब्धता सबसे बड़ी समस्या है। नीतीश ही नहीं हर राजनीतिज्ञ को पता है कि बिहार में भूमि सुधार, कृषि विकास और बच्चों की शिक्षा को लेकर अच्छी सोच और मेहनत से जो रिपोर्ट तैयार हुई वह क्यों और कैसे राजनीतिक दुर्घटना और प्रशासनिक जड़ता का शिकार हो गई। नीतीश कुमार और लालू यादव को गरीबों के सपनों की सौदागरी करने की बजाय बिहार की आवाम का दुख-दर्द दूर करने के प्रयास करने चाहिए। 

Saturday 4 April 2015

साइकिल पर जनता परिवार

राजनीति में कुछ भी गलत और कुछ भी सही नहीं होता। सब कुछ  इस बात पर निर्भर है कि किसका, कितना लाभ होता है। सारे फैसले, जरूरत और स्वहित के लिए होते हैं। यहां अच्छा-बुरा कुछ नहीं होता है। जो दिन में बुरा होता है वही शाम को अच्छा लगने लगता है। कम से कम भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में आजकल कुछ यही हो रहा है। नरेन्द्र मोदी को दिल्ली में बेशक आप ने आईना दिखाया हो पर अधिकांश राज्यों में कमल दल को अकेले टक्कर देने की किसी दल में ताकत नहीं दिखती। कांग्रेस मन से हार मान चुकी है तो दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल यूनाइटेड, जनता दल सेक्युलर, भारतीय राष्ट्रीय लोकदल और समाजवादी जनता पार्टी (राष्ट्रीय) पर मोदी मैजिक हावी है। छह दलों का जनता परिवार इन दिनों गलबहियां कर रहा है। मोदी को राजनीतिक चक्रव्यूह में फंसाने की जनता परिवार की चाल कितना कारगर होगी यह तो समय बताएगा पर मतलब की इस एका से कांग्रेस भी सकते में है।
आम चुनाव में बुरी तरह मात खाने के बाद सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव, राष्ट्रीय जनता दल प्रमुख लालू प्रसाद यादव और मोदी से खुला पंगा लेने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार की समझ में ही नहीं आया था कि उनकी सियासत अनायास अर्श से फर्श पर कैसे आ गई। उस पराजय के बाद से ही छोटे-छोटे राजनीतिक दलों में मोदी के खिलाफ साझा मोर्चा बनाने की विवशता दिखाई देने लगी थी। 16 मई, 2014 से पूर्व नीतिश को लालू नहीं भा रहे थे तो मुलायम भी खासी अकड़ में थे। भला हो उनके पारिवारिक कुनबे का जोकि बमुश्किल संसद की सीढ़ी चढ़ पाये। लोकसभा चुनाव से पहले आज के इस जनता परिवार का हर दल चाहे वह सत्ता में रहा हो या सत्ता से बाहर अपने आपको बाहुबली मान रहा था, लेकिन जब परिणाम निकले तो मोदी की सुनामी में सबके मंसूबे बह गये। हिन्दीभाषी दो बड़े राज्यों उत्तर प्रदेश और बिहार में मुलायम सिंह और नीतिश कुमार की जो फजीहत हुई उसकी तो किसी राजनीतिक विश्लेषक ने भी उम्मीद नहीं की थी। इन दो राज्यों से 140 सदस्य संसद की सीढ़ी चढ़ते हैं। उस पराजय के बाद ही छोटे-छोटे दलों को यह एहसास हुआ कि यदि अब एक नहीं हुए तो देश भर में कमल खिल जाएगा।
नीतिश कुमार के सबसे कटु आलोचक लालू यादव जो स्वयं भी उनके हाथों हारने से पहले 10 साल तक बिहार के मुख्यमंत्री रहे हैं, उन्होंने भी मुख्यमंत्री नीतिश कुमार से हाथ मिलाने में अपनी गनीमत समझी। नतीजा यह रहा कि इन दोनों ने साथ मिलकर बिहार उप चुनाव में अच्छा प्रदर्शन किया और वहां पर भाजपा केन्द्र में खुद की सरकार होने के बावजूद अपनी पुरानी कहानी नहीं दोहरा पायी। जो भी हो पिछले साल नवम्बर में हुए जनता परिवार एकीकरण के प्रयास एक बार फिर नए सिरे से कुलबुलाने लगे हैं। एका की इस बेचैनी की वजह इसी साल बिहार और 2017 में उत्तर प्रदेश में होने वाले विधान सभा चुनाव हैं। इन राज्यों से पहले पश्चिम बंगाल में भी चुनाव होने हैं लेकिन ममता बनर्जी उत्तर भारत की इस एका पर कोई दिलचस्पी नहीं लेना चाहतीं।
आगामी विधान सभा चुनावों में भाजपा को जीत से दूर रखने के लिए पांच अप्रैल को सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के घर न केवल जनता परिवार पर अंतिम मुहर लगने की सम्भावना है बल्कि ये राजनीतिक अलम्बरदार एक झण्डे और एक निशान के नीचे भी आ सकते हैं। यदि ऐसा सम्भव हुआ तो इन दलों के सबसे प्रभावी नेता मुलायम सिंह न केवल जनता परिवार के मुखिया होंगे बल्कि इनका चुनाव चिह्न भी साइकिल हो सकता है। जनता परिवार के एकीकरण से इतर मोदी और भारतीय जनता पार्टी के तेवर और ताकत को देखें तो मोदी सरकार जो कहकर सत्ता में आई थी, वैसा 10 माह के शासनकाल में कुछ भी नहीं हुआ। देश के जो हालात हैं उसे देखते हुए साल के अंत तक इसमें और क्षरण हो जाये तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। भूमि अधिग्रहण अधिनियम को भाजपा ने जिस तरह नाक का सवाल बनाया है उसे देखते हुए मोदी सरकार पर किसान विरोधी होने का ठप्पा लग गया है। राजनीति में असम्भव नाम का कोई शब्द नहीं होता, ऐसे में छह दलों के जनता परिवार में सौदेबाजी से भी इंकार नहीं किया जा सकता। स्थानीय पार्टियों को मिलाकर जनता परिवार तो बन जाएगा पर यह कितने दिन का होगा इसकी गारण्टी भी बहुत कम है। देश के राजनीतिक इतिहास में इससे पूर्व भी कई गठबंधन अस्तित्व में आए लेकिन वे लम्बी रेस का घोड़ा कभी साबित नहीं हुए। देश में इमरजेंसी के बाद हुए चुनावों में जनता पार्टी के रूप में एक गठबंधन सरकार बनी थी लेकिन यह सरकार अपने ओछे कारनामों से तीस महीने में ही बिखर गई थी। इस बिखराव की वजह इसके तीन शीर्ष नेताओं मोरारजी देसाई, चरण सिंह और जगजीवन राम की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं रहीं। इस टूटन के बाद 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जनता की तालियों के बीच प्रधानमंत्री पद सम्हाला था लेकिन मंडल-कमंडल के प्रयोग से वह भी 11 माह में ही लोगों की आंख की किरकिरी बन गये। खैर, इन दिनों भारतीय राजनीति में जनता परिवार के विलय को लेकर खासी दिलचस्पी देखी जा रही है। छह दलों के इस कुनबे को समाजवादी जनता दल या समाजवादी जनता पार्टी के नाम से जाना जाएगा। इस नये गठबंधन की मुखालफत करने वालों का कहना है कि चूंकि मोदी सरकार भारत की मूल भावना के खिलाफ  काम कर रही है, यही वजह है कि समाजवादी विचारधारा के पुराने लोग देश बचाने के लिए एकजुट हो रहे हैं। इस राजनीतिक एकजुटता का ऊंट किस करवट बैठेगा, यह तो समय बताएगा पर आने वाले कुछ दिनों में भारतीय राजनीति का परिदृश्य जरूर बदला-बदला सा नजर आएगा।
(लेखक पुष्प सवेरा के समाचार संपादक हैं।)

Thursday 2 April 2015

ताकि बना रहे क्रिकेट में गेंद और बल्ले का रोमांच...

इस बार क्रिकेट वर्ल्ड कप 2015 में रनों की बारिश होती रही। कई बल्लेबाजों ने ना सिर्फ मैदान पर चौके और छक्के उड़ाए बल्कि ताबड़तोड़ कई रिकार्ड भी बना डाले। बल्ले से रनों की रिमझिम बारिश होती रही और बेचारे गेंदबाज विकेट के लिए संघर्ष करते नजर आए।
मिसाल के तौर पर इस बार के क्रिकेट वर्ल्ड कप में तीन बल्लेबाजों के रनों को अगर आप देखे तो ऐसा लगता है कि क्रिकेट की दुनिया में अब सिर्फ बल्लेबाजों की हीं चांदी होती दिख रही है। इसका दूसरा पहलू यह भी है कि बल्लेबाज  गेंदबाजों पर हावी होता नजर आता है। न्यूजीलैंड के मार्टिन गुप्टिल ने 9 मैचों में 547 रन बनाए जो इस टूर्नामेंट में सबसे ज्यादा रन रहा। दूसरी तरफ श्रीलंका के कुमार संगकारा ने 7 मैचों में 541 रन बनाए तो दक्षिण अफ्रीका के विस्फोट बल्लेबाज एबी डिविलियर्स ने 8 मैचों में 482 रन बनाकर टूर्मामेंट में तीसरे स्थान पर रहे।
दरअसल बल्लेबाजों का यह शानदार प्रदर्शन सिर्फ उनके बल्ले या फॉर्म की वजह से ही नहीं हुआ है बल्कि आईसीसी के उस नए नियम की बदौलत भी मुमकिन हो पाया है जिसके तहत 30 गज के दायरे के बाहर 4 खिलाड़ी से ज्यादा गेंदबाजी कर रही टीम खड़ा नहीं कर सकती। सेमीफाइनल में टीम इंडिया के कप्तान महेंद्र सिंह धोनी ने ऑस्ट्रेलिया से हाथों हुई हार के बाद इस नियम की जमकर आलोचना की थी। पहले जो नियम था उसके मुताबिक सर्किल के अंदर पांच खिलाड़ी हुआ करते थे। लेकिन जब से यह नियम (सिर्फ चार खिलाड़ियों को बतौर फिल्डर खड़ा करने का) लागू हुआ है तबसे बल्लेबाजों का पक्ष गेंदबाजों के मुकाबले मजबूत और हावी होता चला जा रहा है। हमेशा छक्के और चौके पड़ने से ही रोमांच नहीं बढ़ता। गेंद और बल्ले के बीच अच्छा मुकाबला तभी देखने को मिलता है जब मैच करीब का  होता है । यह तभी मुमकिन है जब गेंद और बल्ले का मुकाबला बराबरी का हो। इसी नियम की वजह से अब मैच एकतरफा हो गए हैं।
धोनी ने इस नियम में बदलाव की वकालत की थी। धोनी के मुताबिक क्रिकेट के इतिहास में वनडे मैचों में दोहरा शतक नहीं देखा और अब 3 साल में 3 दोहरे शतक (असल  में 6) बन गए हैं। धोनी का मानना है कि इस नियम की वजह से ज्यादा रन बनते है और गेंदबाजों के करने लायक ज्यादा कुछ नहीं बच जाता। क्योंकि सर्किल के अंदर सिर्फ 4 खिलाड़ी ही रहते है लिहाजा बल्लेबाज को रन बनाने और लॉफ्टर शॉट लगाने में पहले के मुकाबले अब आसानी होती है। फिर स्कोर बोर्ड पर रनों का अंबार खड़ा हो जाता है।
वनडे क्रिकेट में चार फील्डरों के नियम पर महेंद्र सिंह धोनी के सुर में सुर मिलाते हुए आस्ट्रेलियाई कप्तान माइकल क्लार्क ने भी 30 गज के भीतर पांच फील्डर रखने के पक्ष में है जिससे गेंदबाजों को भी अधिक मौके मिल सके। दरअसल गेंदबाज को अधिक मौके मिलते हैं और मुकाबला बराबरी का होता है जिससे क्रिकेट के असल रोमांच के दीदार होते है। लेकिन चार फिल्डरों की वजह से गेंदबाज पर बल्लेबाज पूरी तरह हावी हो जाता है। क्लार्क की तरह भारतीय क्रिकेट टीम के दिग्गज बल्लेबाज राहुल द्रविड़ भी इस नियम के खिलाफ है और बदलाव की वकालत कर रहे है।
दरअसल धोनी सहित क्रिकेट के कई जानकारों को इस बात का डर सता रहा है कि इस नियम की वजह से क्रिकेट सिर्फ चौकों और छक्कों का खेल ना बनकर रह जाए। क्योंकि इससे यह ‘उबाऊ’ हो जाएगा। क्रिकेट एक रोमांचकारी खेल है जिसमें ओवर के अंतिम गेंद तक कभी-कभार रोमांच देखने को मिलता है। क्रिकेट वर्ल्ड कप 2015 के तहत न्यूजीलैंड और दक्षिण अफ्रीका के बीच यह रोमांच देखने को मिला। जहां हर गेंद पर बल्ले से बनता रन रोमांच में हर पल इजाफा करता चला जा रहा था, तो दूसरी तरफ गिर रहे विकेट भी रोमांचक मैच की पटकथा लिख रहे थे। दरअसल क्रिकेट के मैदान में बल्लेबाज सिर्फ रन बनाता जाए तो यह उबाऊ सा बन जाता है जिसमें मजा नहीं आता है। कुछ अंतराल पर विकेटों का गिरना खेल में रोमांच पैदा करता है। इस खेल का तानाबाना ही ऐसा है कि रन बनना और विकेट गिरना दोनों दर्शकों को रोमांचित करते है। रन बनने के दौरान जहां दर्शकों को चौके और छक्के लुभाते है तो वही विकेट गिरने के वक्त 'रन आउट, पगबाधा (lbw), कैच आउट और बोल्ड' रोमांच के साथ दिल की धड़कनें भी बढ़ा देते है।
वनडे (50-50 ओवर) के फॉर्मेट से उबने और उसके विकल्प के बाद ही टी-20 का जन्म हुआ। और अब टी-20 के बाद क्रिकेट की दुनिया में फिलहाल नए फॉर्मेट की गुंजाईश कतई नहीं दिखती। क्रिकेट के इतिहास में टेस्ट मैच का खेल  सबसे पुराना है। लेकिन पांच दिनों तक खेले जाने वाले इस फॉर्मेट के बाद 50-50 ओवरों वाला वनडे मैच का जन्म हुआ। क्रिकेट के जानकार वनडे को परफेक्ट रोमांच का माध्यम मानते है जिसमें लगभग 9 घंटे के बाद मैच के परिणाम का पता चल जाता है। और एक दिन में यह पता चला जाता है कि जीत का स्वाद किसने चखा और हार किसे मयस्सर हुई।
रही बात रन बनने के रोमांच की तो बोलिंग और बैटिंग पावरप्ले के तहत 15 ओवर काफी ज्यादा होते है। जब भी कोई टीम खेल रही होती है तो शुरुआती 10 ओवर और 35 से 40 ओवर के पांच ओवरों का इंतजार सभी करते है क्योंकि यह पावरप्ले के ओवर होते हैं जिसमें बल्लेबाज रनों की बारिश करता है और विकेट भी गिरते है। इसलिए धोनी की इस दूरदर्शी सोच पर आईसीसी को नए सिरे से विचार करना चाहिए जिसमें उन्होंने क्रिकेट के रोमांच के खत्म हो जाने और उबाऊ होने की आशंका जताई है। हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि क्रिकेट गेंद और बल्ले के उस मिक्सड रोमांच का नाम है जहां बल्लेबाज रन बनाता है तो गेंदबाज गेंद के बल पर विकेटों को चटखाता है।
SANJEEV KUMAR DUBEY  

राष्ट्रीय स्कूल खेलों में उत्तर प्रदेश का शर्मनाक प्रदर्शन

देश की सबसे बड़ी आबादी वाला राज्य 15वें स्थान पर
18 स्वर्ण, 37 रजत, 59 कांस्य सहित 114 पदक जीते
श्रीप्रकाश शुक्ला
आगरा। 15 मार्च, 2012 को जब युवा अखिलेश यादव ने देश की सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश की सल्तनत सम्हाली थी, तब लगा था कि अब सूबे के खिलाड़ी खिलखिलाएंगे और प्रदेश में खेलों का कायाकल्प होगा। अफसोस ऐसा नहीं हुआ। राष्ट्रीय स्कूल खेलों की ओवर आॅल चैम्पियनशिप जीतने की कौन कहे 2014-15 में वह तालिका में 15वें स्थान पर रहा। यह राष्ट्रीय स्कूली खेलों में उत्तर प्रदेश का अब तक का सबसे खराब प्रदर्शन है।
स्कूल खेलों को किसी राज्य की प्रतिभा कसौटी माना जाता है। इस कसौटी में उत्तर प्रदेश की प्रतिभाएं लगातार पिछड़ रही हैं। यहां स्कूली शिक्षा जहां नकल की भेंट चढ़ रही है वहीं स्कूली खिलाड़ी अव्यवस्था के चलते अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने में नाकाम हैं। राष्ट्रीय स्कूल खेलों में देश के सभी राज्यों सहित कोई 41 यूनिटें शिरकत करती हैं। पिछले पांच साल के आंकड़ों पर नजर डालें तो राष्ट्रीय स्कूल खेलों में शीर्षता की जंग दिल्ली और महाराष्ट्र के बीच ही रही है। स्कूल खेलों में उत्तर प्रदेश की जहां तक बात है, उसके खिलाड़ी हरियाणा, पंजाब, मणिपुर, केरल मध्य प्रदेश और असम जैसे छोटे-छोटे राज्यों के खिलाड़ियों को भी माकूल जवाब नहीं पा रहे हैं। साल दर साल स्थिति में सुधार की कौन कहे उनका प्रदर्शन लगातार गिरता जा रहा है।
कहने को प्रदेश की मिनी राजधानी सैफई में भारतीय खेल प्राधिकरण के कई खेल सेण्टर आबाद हैं लेकिन वहां से भी कोई नायाब प्रतिभाएं राष्ट्रीय क्षितिज पर चमक बिखेरती नहीं दिख रहीं। खेलों में जहां छोटे-छोटे राज्यों के खिलाड़ी अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रहे हैं वहीं उत्तर प्रदेश की प्रतिभाएं लगातार पिछड़ रही हैं। प्रदेश सरकार खिलाड़ियों के प्रोत्साहन की बातें तो करती है लेकिन जमीनी स्तर पर प्रयास होते नहीं दिख रहे। 2012-13 के राष्ट्रीय स्कूल खेलों में उत्तर प्रदेश के खिलाड़ियों ने 27 स्वर्ण, 36 रजत, 74 कांस्य सहित 137 पदक तो 2013-14 में 40 स्वर्ण, 46 रजत, 84 कांस्य सहित 195 पदक जीते थे। मौजूदा (2014-15) सत्र में प्रदेश के खिलाड़ी 18 स्वर्ण, 37 रजत, 59 कांस्य सहित 114 पदक के साथ 15वें स्थान पर रहे। राष्ट्रीय स्कूल खेलों में उत्तर प्रदेश का यह अब तक का सबसे शर्मनाक प्रदर्शन है। राष्ट्रीय स्कूल खेलों में प्रदेश के खिलाड़ियों का यह प्रदर्शन युवा अखिलेश यादव सरकार के लिए अच्छा संकेत नहीं कहा जा सकता।
आगरा से संचालित होते हैं राष्ट्रीय स्कूल खेल
खेलों में उत्तर प्रदेश की स्थिति बेशक खस्ताहाल हो पर आगरा शहर स्कूल खेलों में हिस्सा लेने वाले खिलाड़ियों के लिए खास है। स्कूल गेम्स  फेडरेशन आॅफ इण्डिया का मुख्यालय आगरा में ही है। वर्ष 2012 से विभिन्न स्कूली खेल गतिविधियां यहीं से संचालित हो रही हैं। शाहगंज के राधा बल्लभ इण्टर कॉलेज परिसर स्थित एसजीएफआई के इस मुख्यालय से ही राष्ट्रीय स्कूल खेलों का संचालन होता है। देश के सभी राज्यों सहित 41 यूनिटों की कमान एसजीएफआई के महासचिव डॉ. राजेश मिश्रा सहित 30 लोगों के हाथों में है।

राष्ट्रीय स्कूल खेलों में उत्तर प्रदेश की स्थिति
58वें स्कूल खेल 2012-13
क्रमांक राज्य स्वर्ण रजत कांस्य कुल पदक
01- दिल्ली 293 129 97 519
02- महाराष्ट्र 219 184 191 594
03- हरियाणा 76 91 125 292
04- पंजाब 64 87 124 275
05- मणिपुर 50 56 38 144
06- केरल 48 52 52 152
07- एमपी 37 42 74 153
08- कर्नाटक 31 32 51 114
09- छत्तीसगढ़ 28 23 46 97
10- प. बंगाल 27 38 36 101
11- उत्तरप्रदेश 27 36 74 137

59वें स्कूल खेल 2013-14
क्रमांक राज्य स्वर्ण रजत कांस्य कुल पदक
01- दिल्ली 354 151 109 614
02- महाराष्ट्र 197 219 248 664
03- हरियाणा 68 76 77 221
04- पंजाब 60 107 158 325
05- केरल 55 52 53 160
06- मणिपुर 54 42 42 135
07- तमिलनाडु 47 38 62 147
08- एमपी 43 45 74 162
09- उत्तर प्रदेश 40 46 84 170
10- गुजरात 34 69 92 195
11- प. बंगाल 34 33 42 109


60वें स्कूल खेल 2014-15
क्रमांक राज्य स्वर्ण रजत कांस्य कुल पदक
01- दिल्ली 362 161 131 654
02- महाराष्ट्र 219 233 222 674
03- हरियाणा 82 68 131 281
04- मणिपुर 56 38 43 137
05- पंजाब 53 112 142 307
06- तमिलनाडु 53 65 64 182
07- केरल 53 48 48 149
08- एमपी 48 46 99 193
09- प. बंगाल 36 39 54 129
10- झारखण्ड 29 28 27 84
11- असम 28 53 72 153
12- छत्तीसगढ़ 27 34 79 140
13- गुजरात 26 59 95 180
14- कर्नाटक 24 42 52 118
15- उत्तर प्रदेश 18 37 59 114

Wednesday 1 April 2015

खिलाड़ी ही नहीं डोपिंग में कोच को भी निलम्बित करना जरूरी: मिल्खा


मैं अपनी जिंदगी में केवल तीन बार रोया
नई दिल्ली। अपने जमाने के दिग्गज एथलीट मिल्खा सिंह ने खेलों में डोपिंग को कैंसर करार देते हुए कहा कि केवल प्रतिबंधित दवाईयां लेने वाले खिलाड़ी ही नहीं बल्कि उसके कोच और संबंधित डॉक्टर को भी निलम्बित किया जाना चाहिए।
उड़न सिख ने मिल्खा श्योरफिट फिटनेस कार्यक्रम की शुरुआत करते हुए कहा, डोपिंग खेलों में कैंसर की तरह है। सरकार और खेल संघों को इस पर सख्त रवैया अपनाना चाहिए। इसके लिए खिलाड़ी ही नहीं कोच और डॉक्टरों को भी निलम्बित किया जाना चाहिए क्योंकि यह सब इनकी देखरेख में होता है।
भारत के कई खिलाड़ी विशेषकर भारोत्तोलक पिछले कुछ वर्षों में डोपिंग में पकडेÞ जाते रहे हैं। केरल में हाल में हुए राष्ट्रीय खेलों के दौरान भी कुछ खिलाड़ी प्रतिबंधित दवाईयों के सेवन के दोषी पाये गये थे। मिल्खा ने इसके साथ ही कहा कि यदि देश आजादी के छह दशक से भी अधिक समय बाद दूसरा मिल्खा तैयार नहीं कर पाया है तो उसके लिये काफी हद तक भारतीय एथलेटिक्स संघ भी दोषी है जोकि अपने काम के प्रति संजीदा नहीं है।
उन्होंने कहा, हमारी जनसंख्या 120 करोड़ से अधिक है लेकिन हम पिछले 60 साल में दूसरा मिल्खा पैदा नहीं कर पाये। इससे मुझे दुख होता है। इसकी वजह यह है कि हमारे खिलाड़ी, हमारे कोच और हमारी एसोसिएशन संजीदा नहीं हैं। रोम ओलम्पिक 1964 में मामूली अंतर से पदक से चूकने वाले 86 वर्षीय मिल्खा ने कहा, मैं चाहता हूं कि मैं जो नहीं कर पाया वह कोई और करे। मैं भारत को ओलम्पिक में एथलेटिक्स में स्वर्ण पदक जीतते हुए देखने के लिये जीवित रहना चाहता हूं।
मिल्खा ने हालांकि उम्मीद जतायी कि चीन के वुहान में जून में होने वाली 21वीं एशियाई एथलेटिक्स चैम्पियनशिप में भारतीय खिलाड़ी अच्छा प्रदर्शन करेंगे। उन्होंने कहा, एशियाई स्तर पर हम हमेशा अच्छा प्रदर्शन करते रहे हैं। यहां हमें ज्यादा चुनौती नहीं मिलती। मुझे उम्मीद है कि यहां एशियाई चैम्पियनशिप में हम कुछ पदक जीतने में सफल रहेंगे।
मिल्खा ने हाल में इंडिया ओपन का खिताब जीतने वाली विश्व की नम्बर एक खिलाड़ी बैडमिंटन खिलाड़ी साइना नेहवाल की तारीफ करते हुए कहा कि अन्य खिलाड़ियों को उससे प्रेरणा लेनी चाहिए।
उन्होंने कहा, बैडमिंटन में साइना नेहवाल बहुत अच्छा प्रदर्शन कर रही है। हमने मुक्केबाजी, कुश्ती, निशानेबाजी में भी अच्छा प्रदर्शन किया है लेकिन हमारे पास आज भी एथलेटिक्स में कोई ऐसा खिलाड़ी नहीं है जो ओलम्पिक में पदक जीत सके जबकि एथलेटिक्स सभी खेलों की जननी है। इस महान एथलीट ने मिल्खा श्योरफिट कार्यक्रम के बारे में बताया, यह देश के बच्चों को स्वस्थ और पूरी तरह फिट से बनाने से जुड़ा है। तभी हम प्रतिभाशाली खिलाड़ी तैयार कर सकते हैं।
मिल्खा इस अवसर पर अपने पुराने दिनों को याद करते हुए भावुक भी हो गये। उन्होंने कहा,अपनी जिंदगी में मैं केवल तीन बार रोया। पहले 1947 में बंटवारे के समय जब मैंने अपने सामने अपने माता-पिता और भाई-बहनों का कत्ल होते हुए देखा। दूसरा जब मैं रोम ओलम्पिक में पदक से चूका और तीसरा जब मैंने खुद पर बनी फिल्म भाग मिल्खा भाग देखी। इस फिल्म ने मेरी उम्र दस साल बढ़ा दी।

आंवलखेड़ा में बन रहा अनूठा सूर्य मंदिर

दिन में सूर्य की किरणों से प्रकाशित होगा मंदिर
इस साल के अंत तक तैयार हो जाएगा मंदिर
आगरा। सामाजिक परिवर्तन की चाह, आत्म परिष्कार की उमंग और अध्यात्म के वैज्ञानिक स्वरूप को जन-जन तक पहुंचाने के लिए अखिल विश्व गायत्री परिवार के संस्थापक पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य की जन्मस्थली आंवलखेड़ा में एक अनूठे सूर्य मंदिर का निर्माण किया जा रहा है।  इस मंदिर की खासियत यह है कि दिन के समय सूर्य की किरणें ही मंदिर के भीतर स्थापित भगवान भास्कर की मूर्ति और भवन को प्रकाशित करेंगी।
आगरा जिला मुख्यालय से कोई 35 किलोमीटर दूर आंवलखेड़ा में सूर्य मंदिर का निर्माण किया जा रहा है। दो तलों में बन रहे इस मंदिर की खासियत इसमें लगाया जाने वाला लेंस होगा जिससे सूर्य की किरणें मंदिर के भीतर पहुंचेंगी। सूर्योदय से सूर्यास्त तक मंदिर सूर्य की रोशनी से ही प्रकाशित होगा।  इस अनूठे सूर्य मंदिर और ब्रह्मकमल का निर्माण कार्य अंतिम दौर में है। उम्मीद है कि यह मंदिर इसी साल बनकर तैयार हो जाएगा। अब आंवलखेड़ा आध्यात्मिक ऊर्जा ही नहीं, पर्यटन के लिहाज से भी लोगों के आकर्षण का केन्द्र होगा। अब देश-विदेश से आने वाले लोग न सिर्फ ताजमहल का दीदार करेंगे बल्कि सूर्य मंदिर देखने आंवलाखेड़ा भी जरूर जाएंगे। भारत में उत्कल के कोणार्क के बाद अब पर्यटक आंवलखेड़ा में भगवान भास्कर के अद्भुत मंदिर तथा ब्रह्मकमल के दर्शन भी कर सकेंगे। आंवलखेड़ा में सूर्य से अध्यात्म और तकनीक की किरणें फूटेंगी तो साधकों को ध्यान का अवसर भी मिलेगा।
जलेसर रोड के किनारे स्थित आंवलखेड़ा को दिन-रात की अथक मेहनत के बाद आध्यात्मिक पर्यटन स्थल के रूप में तैयार किया जा रहा है। गायत्री परिवार के मुख्यालय हरिद्वार स्थित शांतिकुंज द्वारा तीर्थों की परम्परा में एक नया प्रयोग करते हुए आध्यात्मिक दृष्टि से अमूल्य धरोहर के रूप में इस सूर्य मंदिर को विकसित किया जा रहा है तो यहां के पुराने परिसर को ज्यों का त्यों संवारा जा रहा है।
कक्ष के केन्द्र में धवल संगमरमर से बनी मूर्ति में भगवान भास्कर देव सारथी के साथ रथ पर सवार हैं। उनके रथ में सात घोड़े ऐसी मुद्रा में लगाए गए हैं मानो अभी दौड़ने लगेंगे। इसके पीछे उदीयमान सूर्य का दृश्य उकेरा गया है। मंदिर में गायत्री मंत्र और प्रज्ञा गीत निरंतर चलते रहेंगे। सूर्य मंदिर के नीचे के तल में स्वास्तिक भवन बनाया गया है। इसमें पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य के जीवनवृत्त, व्यक्तित्व और कृतित्व को प्रदर्शित करने वाली प्रदर्शनी लगाई जाएगी। यहां उनके द्वारा लिखी गई 3200 पुस्तकें, चारों वेद, 108 उपनिषद, छह दर्शन, 20 स्मृति, 18 पुराण, गीता एवं रामायण सारांश, गायत्री महाविज्ञान तथा दैनिक जीवन से जुड़ी वस्तुएं देखने को मिलेंगी।
मंदिर के शिखर पर लगेगा लेंस
मंदिर के शिखर पर एक लेंस लगाया जाएगा।  इस लेंस पर पड़ने वाली सूर्य की किरणों से मंदिर में स्थापित भगवान भास्कर की मूर्ति और भवन प्रकाशित होगा। ऐसी व्यवस्था की जा रही है कि सूर्योदय से सूर्यास्त तक मंदिर में सूर्य की रोशनी से ही प्रकाश रहे ताकि कृत्रिम प्रकाश की आवश्यकता न पड़े।
2011 में शुरू हुआ था निर्माण कार्य
अभियंता शरद पारधी ने बताया, मंदिर का निर्माण अगस्त 2011 से शुरू हुआ है। परिसर का नक्शा नागपुर के आर्किटेक्ट अशोक मोखा द्वारा तैयार किया गया है। निर्माण कार्य दिल्ली की कंस्ट्रक्शन कम्पनी कर रही है। दिल्ली और नागपुर से आए कुशल कारीगरों की कही सच मानें तो मंदिर का निर्माण छह माह में ही पूरा हो जाएगा।
चेन्नई में तैयार हुई है भगवान भास्कर की मूर्ति
मंदिर में स्थापित की गई सूर्यदेव की मूर्ति चेन्नई से तैयार होकर आई है। मंदिर के शिखर पर लगने वाले लेंस के लिए वृत्ताकार जगह छोड़ दी गई है। जानकारों का मानना है कि लेंस लगने के बाद मंदिर भव्य और अनूठेपन की मिसाल कायम करेगा। अखिल विश्व गायत्री परिवार प्रमुख डॉ. प्रणव पण्ड्या के अनुसार, गुरु चरणों में समर्पित योजना को पूरा होने के बाद लोग आश्चर्यचकित हुए बिना नहीं रहेंगे। गायत्री शक्तिपीठ,आंवलखेड़ा के व्यवस्थापक घनश्याम देवांगन के अनुसार यहां सूर्य से अध्यात्म और तकनीक की किरणें फूटेंगी।