Friday, 8 December 2017

नजर नहीं नजरिया बदलें

 श्रीप्रकाश शुक्ला
बेटी घर का चिराग है। वह भी एक इंसान है, जननी है जो हमारे अस्तित्व का प्रमाण है। काश गर्भस्थ शिशु बोल सकता, शरीर को चीरते औजारों को रोक सकता और कहता मां मुझे भी जीने दो, इस दुनिया में जन्म लेने दो। मुझे भी आसमान छूना है। भ्रूण हत्या हमारे समाज की दुखद त्रासदी है। बेटियां दो परिवारों की आन-बान-शान होती हैं लेकिन इन्हें जन्म से ही अपने अस्तित्व की जंग लड़नी होती है। बेटियों को बचपन से ही परम्पराओं की बेड़ियों में जकड़ दिया जाता है। हर पल उन्हें एक लड़की होने का अहसास कराते हुए लज्जा का आवरण ओढ़े रहने को मजबूर किया जाता है। लाख कठिनाइयों के बावजूद आज भारतीय बेटियां नील गगन को चूम रही हैं, रोज नए प्रतिमान गढ़ रही हैं। कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जहां हमारी बेटियों जय-जयकार न कर रही हों।
आजादी के बाद से हमारे देश ने हर क्षेत्र में तरक्की की है, इसमें बेटियों का योगदान कमतर नहीं है। अफसोस बेटियों को आज भी समाज में वह स्थान नहीं मिल पाया है, जिसकी वह असली हकदार हैं। हमारी हुकूमतों ने बेटियों की रक्षा-सुरक्षा को बेशक कठोर नियम और कानून-कायदे बना दिए हों मगर कठोरता का पालन नहीं होने से स्थिति अब भी बदहाल है। हम धन-समृद्धि के लिए मां लक्ष्मी की आराधना, ज्ञान-विवेक के लिए मां सरस्वती की उपासना तो अपने शत्रुओं पर विजय पाने के लिए मां काली को प्रसन्न करते हैं लेकिन जब यही देवियां लड़की के रूप में उनके घर आना चाहती हैं तब उन्हें यह बात नागवार लगती है और उन्हें गर्भ में ही मौत के घाट उतार दिया जाता है। सच्चाई यह है कि हमारे सभ्य समाज को देवियां सिर्फ मूर्तियों और फोटो में ही अच्छी लगती हैं। यही वजह है कि आज भी बेटियां निर्मोही समाज का संत्रास झेलने को मजबूर हैं।
समय बदल रहा है लेकिन उस द्रुतगति से नहीं जितनी कि आवश्यकता है। आज मुल्क में कई महत्वपूर्ण पदों पर महिलाएं आसीन हैं। लड़कियां लड़कों के समकक्ष ही नहीं उनसे भी आगे कुलांचें भर रही हैं। शिक्षा और विज्ञान का क्षेत्र हो या फिर खेल का मैदान हमारी बेटियां अपने नायाब कौशल से भ्रूण हत्यारों को चिढ़ा रही हैं। किरण बेदी, किरण मजूमदार, कल्पना चावला, पीटी ऊषा, कर्णम मल्लेश्वरी, एम.सी. मैरीकाम, सानिया मिर्जा, साइना नेहवाल, पी.वी. सिन्धु, साक्षी मलिक, झूलन गोस्वामी, मिताली राज आदि न सिर्फ भारत बल्कि अंतरराष्ट्रीय क्षितिज पर मादरेवतन का मान बढ़ा रही हैं। ऐश्वर्या राय, सुष्मिता सेन, प्रियंका चोपड़ा, लारा दत्ता, मानुषी छिल्लर ने जहां विश्व में भारतीय सुन्दरता और विवेक का परचम लहराया है वहीं एकता कपूर अपने धारावाहिकों के जरिए भारतीयों का नजरिया बदलने का सराहनीय प्रयास कर रही हैं। हाल के वर्षों में सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों में महिलाओं की बढ़ती आमद ने समाज को सोचने का अवसर दिया है। आज नारी घर की चारदीवारी में बंद एक अबला नहीं बल्कि एक सशक्त व्यक्त्तिव की मालकिन बन गई है। खेल जगत, व्यापार जगत, फिल्म जगत, राजनीति, वकालत, चिकित्सा आदि सभी क्षेत्रों में नारी शक्ति का बोलबाला है।
सरकारी स्तर पर भी महिलाओं को आगे बढ़ाने के नित नए प्रयास नजर आने लगे हैं। गांव की बेटी योजना, मुख्यमंत्री कन्यादान योजना आदि ने समाज के मिजाज को बदलने में महती भूमिका निभाई है। इतना सब होने के बावजूद भी कई लोग इसी सोच से ग्रसित हैं कि लड़का ही बेहतर है। समाज की इसी सोच का नतीजा है कि आज देश में कई जगह लिंगानुपात की स्थिति भयावह रूप ले चुकी है। बढ़ते लिंगानुपात ने ही हमारी हुकूमतों को बेटी बचाओ अभियान शुरू करने को बाध्य किया है। समय रहते समाज नहीं चेता तो आने वाले कुछ वर्षों बाद भारत के लाखों-लाख पुरुष शादी से वंचित रह जाएंगे और उन्हें मजबूरन अपनी जिन्दगी एकाकी गुजारनी होगी।
भ्रूण हत्या पर लोगों का मानना है कि ऐसी विचारधारा उच्च शिक्षा के अभाव के कारण है लेकिन ताज्जुब की बात तो यह है कि आज पढ़े-लिखे लोग ही संकीर्ण मानसिकता का शिकार हैं। आधुनिक समाज में मध्ययुगीन कुरीतियां सोचने को विवश करती हैं कि क्या आज भी भारत में बेटी का जन्म समाज में उतना ही स्वीकार्य तथा उत्सवी है जितना बेटों का। देश में भ्रूण लिंग परीक्षण पूर्णतया निषेध और गैरकानूनी होने के बाद भी खुलेआम इसकी धज्जियां उड़ाई जाती हैं। यदि हम अपनी सन्तान में बेटा-बेटी का अंतर न करते हुए उन्हें अच्छी शिक्षा और बेहतर मार्गदर्शन दें तो बेटी भी कभी भी बेटे की कमी का अहसास नहीं होने देगी। भले ही बहुत से लोग उच्च तालीम हासिल कर सभ्य समाज का अंग बन गये हों मगर उनकी सोच और मानसिकता अभी भी वही है जो मध्ययुग में लोगों की हुआ करती थी। बेटा-बेटियों में विभेद करने वालों को निःसंतान दम्पतियों को एक नजीर के रूप में देखना चाहिए, जो एक अदद संतान के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार हो जाते हैं।

वसुन्धरा पर मानव जाति का अस्तित्व, आदमी और औरत दोनों की समान भागीदारी के बिना असम्भव है। दोनों ही पृथ्वी पर मानव जाति के अस्तित्व के साथ ही साथ किसी भी देश के विकास के लिये समान रूप से जिम्मेदार हैं। सच कहें तो महिलाएं पुरुषों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इनके बिना हम मानव जाति की निरंतरता के बारे में सोच भी नहीं सकते क्योंकि वह मानव जन्मदात्री है। बेटियों को आगे बढ़ाने के लिये सुरक्षा, सम्मान और समान अवसर प्रदान करना समय की जरूरत है क्योंकि वह सभ्यता के भाग्य निर्माण में मददगार और सृजन की प्रमुख स्रोत हैं। बेटियां बेटों की तुलना में अधिक आज्ञाकारी, कम हिंसक और अभिमानी होने से साथ ही अपने परिवार, नौकरी, समाज या देश के लिए ज्यादा जिम्मेदार साबित हो चुकी हैं। एक महिला माता, पत्नी, बेटी, बहन आदि होती है, लिहाजा नारी के हर एक रूप का सम्मान होना जरूरी है। देश में 1961 से कन्या भ्रूण हत्या एक गैरकानूनी अपराध है  लेकिन सरकारी निष्क्रियता के चलते बेटियां हर रोज गर्भ में मारी जा रही हैं। बेटियों के खिलाफ अपराध देश के समुन्नत विकास में सबसे बड़ी बाधा है। बेटियों से नफरत करने की बजाय समाज तथा देश की भलाई के लिए हमें उन्हें सम्मान और प्यार देना चाहिए। समाज में खुशहाली के लिए अब नजर नहीं नजरिया बदलने की जरूरत है। बेटियों को हौसला देने से ही दुनिया में मादरेवतन का मान बढ़ाया जा सकता है।  

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