श्रीप्रकाश शुक्ला
आबादी के हिसाब से देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर
प्रदेश में हुए निकाय चुनाव परिणामों ने बेशक कमल दल में ऊर्जा का संचार किया हो लेकिन
इन परिणामों ने कुछ गम्भीर संकेत भी दिए हैं। प्रदेश की 16 नगर निगमों में भाजपा
ने 14 पर कब्जा कर शहरी जनाधार तो बरकरार रखा लेकिन अलीगढ़ और मेरठ की पराजय को
सहजता से खारिज नहीं किया जा सकता क्योंकि उसे प्रदेश में सत्ता सम्हाले अभी आठ
माह ही हुए हैं। यूपी में वर्ष 2012 में जब अखिलेश राज्य में मुख्यमंत्री थे तो भाजपा का 12 में से 10 नगर निगमों पर कब्जा था। अलीगढ़ को छोड़ इन
सीटों पर भाजपा ने अपनी जीत की लय जहां बरकरार रखी वहीं पार्टी ने चार उन सीटों को
अपने कब्जे में ले लिया जो नये नगर निगम सृजित किये गये हैं। इस जीत को इस लिहाज
से तो महत्वपूर्ण कहा जाएगा कि उत्तर प्रदेश में योगी सरकार बनने के बाद भाजपा को
किसी बदलाव सरीखी लहर का सामना नहीं करना पड़ा, मगर छोटी-छोटी नगरपालिका परिषदों और
नगर पंचायतों में भाजपा की खस्ताहाल स्थिति इस बात का संकेत जरूर दे रही है कि आने
वाले लोकसभा चुनाव तक गुरूर का ऊंट पहाड़ के नीचे आ सकता है।
उत्तर प्रदेश के निकाय चुनाव में भाजपा को नगर
पालिका परिषदों में 17.5 तो नगर पंचायतों में सिर्फ 12 फीसदी सीटें ही नसीब हुई
हैं। दिग्गज रणनीतिकारों तथा सिपहसालारों के पास इस बात का कोई जवाब नहीं है कि
भाजपा वाराणसी में बहुमत से क्यों चूक गई तथा जहां योगी आदित्यनाथ ने वोट डाला उस
वार्ड में शर्मनाक हार क्यों हुई। पार्टी को यह भी बताना चाहिए कि उपमुख्यमंत्री
केशव प्रसाद मौर्य के हलके की छह नगर पंचायतों में कौन जीता तथा कौन हारा। जहां तक
शहरों व गांवों का सवाल है, भाजपा ने मेट्रो के वोटरों का विश्वास जीतने में तो सफलता
हासिल की है लेकिन दूसरे इलाकों में उसे सिर्फ 15 फीसदी कामयाबी ही मिली है, जो शहरों के फीसद से लगभग आधा है। भाजपा
को अगला लोकसभा चुनाव लड़ने से पहले यह मान लेना चाहिए कि वोटरों का मूड अब बदल रहा
है। खैर, आम लोकसभा चुनाव होने से पहले उत्तर प्रदेश में एक रोचक चुनावी मल्लयुद्ध
होना है। वह है योगी आदित्यनाथ तथा केशव प्रसाद मौर्य द्वारा खाली की गई सीटों पर
लोकसभा चुनाव। अगर ये दोनों सीटें भाजपा की झोली में आ जाती हैं तो पार्टी
निष्कर्ष देगी कि स्थानीय निकायों में असंतोषजनक प्रदर्शन के पीछे स्थानीय कारण ही
जिम्मेदार थे लेकिन इसके उलट परिणाम से केसरिया का रंग फीका पड़ जाएगा।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी वर्ष 2014 से सबका
साथ, सबका विकास की बातें कहते आ रहे हैं लेकिन देश की अधिकांश आवाम को उनकी समृद्धि
की भाषा समझ में नहीं आ रही। मुल्क की पढ़ी-लिखी युवा पीढ़ी बेशक प्रधानमंत्री
मोदी की कार्यशैली से प्रभावित हो लेकिन ग्रामीण तबके के लोगों की जुबान से तथाकथित
विकास का एक लफ्ज भी सुनने को नहीं मिल रहा। ग्रामीण आवाम अपने आपको छला हुआ महसूस
कर रही है। देखा जाए तो भाजपा के विकास में पृथ्वी व प्रकृति की मूल समझ गायब है।
जिस धरती से हम सब कुछ जुटाने की कोशिशें करते हैं और विकास के नाम पर मस्त हुये
फिर रहे हैं उसकी पीड़ा का भान न ही प्रधानमंत्री मोदी को है और न ही उनके
मंत्रिमंडल को। सवाल यह पैदा होता है कि मोदी सरकार कब पृथ्वी और प्रकृति को समझेगी।
मोटे तौर पर एक बात समझ में आ जानी चाहिये कि हम जो कुछ भी किसी भी रूप में विकास
या समृद्धि जुटाने के लिये करते हैं उसकी कीमत पृथ्वी और प्रकृति दोनों को ही
चुकानी पड़ती है। हम आज जिसे वैभव मान रहे हैं वह प्रकृति से लिया हुआ उधार है,
जिसे हम सदियों से चुकाने में कतरा रहे हैं। हिन्दू धर्म के अनुसार प्राणी का पहला
कर्तव्य व धर्म हवा, पानी, मिट्टी, अग्नि व सूर्य के प्रति है क्योंकि पूरे भूमण्डल
की सभी गतिविधियां इन्हीं के चारों तरफ घूमती हैं। आज का पूरा विकास इन्हीं
संसाधनों के चारों तरफ है। असल में विकास व प्रकृति के बीच संतुलन की चिन्ता
शुरुआती दौर में ही होनी चाहिये थी। अजीब सी बात है कि मनुष्य ने सदियों से
बौद्धिक प्रगति की ओर इसका लाभ अपने जीवन को बेहतर बनाने में तो लगाया लेकिन
पारिस्थितिकीय संतुलन के प्रति असंवेदनशील ही रहा।
गुजरात चुनाव में कुर्सी की खातिर क्या कुछ
नहीं कहा गया या कहा जा रहा है। पिछले साढ़े तीन साल में भारतीय जनता पार्टी ने विकास
का जाप कुछ इस तरह किया है मानो इससे पहले देश आदिम युग में जी रहा हो। प्रधानमंत्री
नरेन्द्र मोदी अपने लगभग हर भाषण में 70 साल में देश की क्या दुर्गति हुई इसका जिक्र तो करते हैं लेकिन देश की
आवाम जानती है कि आज मुल्क जहां खड़ा है वह साढ़े तीन साल की लफ्फाजी से नहीं 70
साल की मेहनत का परिणाम है। विकास का शिगूफा छोड़ने की बजाय कमल दल को आम आवाम की
दुखती रग की फिक्र करनी चाहिए। भाजपा, डिजिटल इंडिया की बातें करने और ट्रेनों को
हवाई जहाज की मानिंद उड़ाने का सपना दिखाने की बजाय इस बात की कोशिश करे कि मुल्क
में कोई भूखा न सोये। हर चुनाव से पूर्व राम मंदिर का जिक्र और सत्ता में आने के
बाद सबको साथ लेकर चलने जैसी विपरीत बातें एक साथ नहीं चल सकतीं। भाजपा को इस बात
का इल्म होना चाहिए कि भूखे भजन न होय गोपाला, यह लो अपनी कंठी माला।
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