बैडमिंटन फैन से बैडमिंटन स्टार बनने की कहानी
बैडमिंटन कोर्ट में अपनी चहलकदमी से दुनिया के
आकर्षण का केन्द्र बनी भारतीय शटलर पुरसला वेंकट सिंधु कब क्या कर डालें, नहीं कहा
जा सकता। लंदन ओलम्पिक 2012 में जब साइना नेहवाल ने कांस्य पदक जीता तो लगा कि यह
सबसे बड़ी उपलब्धि है लेकिन उसके ठीक चार साल बाद पी.वी. सिंधु ने जो चमत्कार किया वह एक पहेली
बन चुका है। ओलम्पिक में चांदी का तमगा जीतने वाली पी.वी. सिंधु जिस तरह खिताब दर खिताब जीत रही
हैं उससे साफ पता चलता है कि यह शटलर बेटी जो कीर्तिमान गढ़ेगी वह किसी भारतीय
महिला खिलाड़ी के लिए प्रतिमान होंगे। महिला बैडमिंटन की दुनिया में भारत का झंडा
साइना नेहवाल और पी.वी. सिंधु ने जिस तरह ऊंचा कर रखा है, वह गर्व और गौरव की बात
है। पी.वी. सिंधु एक शानदार खिलाड़ी ही नहीं एक
धार्मिक रीति-रिवाज की भारतीय बेटी भी हैं। सिन्धु की शानदार उपलब्धियों को देखते
हुए तेलंगाना के मुख्यमंत्री ने उन्हें सीधे डिप्टी कलेक्टर की नौकरी प्रदान की
है।
विश्व वरीयता प्राप्त भारतीय महिला बैडमिंटन
खिलाड़ी तथा भारत की ओर से ओलम्पिक खेलों में महिला एकल बैडमिंटन का रजत पदक जीतने
वाली पी.वी. सिंधु का जन्म एक तेलुगू परिवार में
हुआ है। पी.वी. सिंधु की बैडमिंटन फैन से बैडमिंटन
स्टार बनने तक की कहानी बड़ी ही रोचक है। वालीबाल खिलाड़ी माता-पिता की यह बेटी
चाहती तो अपनी लम्बाई के चलते वालीबाल में भी नाम कमा सकती थी लेकिन उसने टीम खेल
की बजाय बैडमिंटन को चुना। नेशनल चैम्पियन रह चुकी सिंधु ने कोलम्बो में आयोजित 2009 की सब जूनियर एशियाई बैडमिंटन चैम्पियनशिप में
कांस्य पदक के साथ अपने अंतरराष्ट्रीय पदक की शुरुआत की, उसके बाद भारत की इस शटलर
ने 2010 में ईरान फज्र इंटरनेशनल बैडमिंटन चैलेंज के एकल वर्ग में रजत पदक जीतकर
अपने स्वर्णिम भविष्य की जो आहट दी वह अब तक बरकरार है। पी.वी. सिन्धु का खेल
दिन-ब-दिन निखर रहा है और वह हर प्रतियोगिता में खिताब की प्रबल दावेदार मानी जाती
हैं।
पुरसला वेंकट सिन्धु के पिता का नाम पी.वी. रमण
और माता का नाम पी. विजया है। दोनों ही अपने समय के लाजवाब वालीबाल खिलाड़ी रहे। 2000
में रमण को शानदार खेल के लिये अर्जुन अवार्ड से भी सम्मानित किया गया। दरअसल, जब
सिन्धु के माता-पिता प्रोफेशनल वालीबाल खेल रहे थे तभी सिन्धु ने बैडमिंटन खेलने
का निर्णय ले लिया था। अपनी सफलता की प्रेरणा सिन्धु ने 2001 में ऑल इंग्लैंड ओपन बैडमिंटन चैम्पियन पुलेला
गोपीचंद से ली। असल में सिन्धु ने आठ
साल की उम्र से ही बैडमिंटन खेलना शुरू कर दिया था। पी.वी. सिन्धु ने पहले महबूब अली
के प्रशिक्षण में इस खेल की मूलभूत जानकारियां हासिल कीं और सिकंदराबाद के भारतीय
रेलवे इंस्टीट्यूट में ही प्रशिक्षण की शुरुआत की। बैडमिंटन का ककहरा सीखने के तुरंत
बाद सिन्धु पुलेला गोपीचंद बैडमिंटन एकेडमी में शामिल हो गईं। सिन्धु के घर से
उनके प्रशिक्षण लेने की जगह तकरीबन 56
किलोमीटर दूर थी लेकिन यह उनकी अपार इच्छा और जीतने की चाह ही थी जिसके लिये
उन्होंने कठिन परिश्रम किया और एक सफल बैडमिंटन खिलाडी बन पाईं। सिंधु की मां की
इच्छा थी कि उनकी बेटी वालीबाल खेल को अपनाये और उनके सपनों को पूरा करे लेकिन
सिंधु जब छह वर्ष की थी, उस समय एक बड़ी घटना घटी।
उस वर्ष भारत के शीर्ष बैडमिंटन खिलाड़ी पुलेला गोपीचंद ने ऑल इंग्लैण्ड ओपन
बैडमिंटन चैम्पियनशिप जीती। इससे सिंधु इतनी उत्साहित हुईं कि उन्होंने भी
बैडमिंटन को अपना करियर बनाने का निश्चय कर लिया। पुसरला वेंकट सिंधु की खासियत उनका
एप्टीट्यूड और कभी न खत्म होने वाला जज्बा है।
रियो ओलम्पिक में बैडमिंटन के सिंगल स्पर्धा
में चांदी का पदक जीतकर इतिहास रचने वाली पीवी सिंधु की प्रतिभा को निखारने में
पुलेला गोपीचंद के योगदान को कमतर नहीं आंका जा सकता। जब पीवी सिंधु छोटी ही थीं
गोपीचंद ने उसे बैडमिंटन खेलते देखा और उन्हें यह महसूस हो गया कि इस लड़की में
कुछ खास है। उसकी इसी खासियत को संवारने का जिम्मा गोपीचंद ने सिंधु के वॉलीबाल
खिलाड़ी रहे मां-बाप से ले लिया। गोपीचंद स्वयं ऑल इंग्लैंड बैडमिंटन चैम्पियन और
दुनिया के चौथे नम्बर के खिलाड़ी रहे हैं। लेकिन इससे भी बड़ी बात है उनके अंदर का गुरुत्व
जिसके आधार पर वे अपने खिलाड़ियों को आदेश से कहीं अधिक अपने आचरण से प्रेरित करते
हैं। सिंधु बैडमिंटन एकेडमी में जब रोजाना सुबह चार बजे पहुंचती तो वहां उन्हें
गोपीचंद पहले से मौजूद दिखाई देते थे। रियो ओलम्पिक से पूर्व गोपीचंद ने अपनी बेटी
गायत्री को इस काम में लगा रखा था कि वह सुबह जल्दी आकर सिंधु को नेट की प्रैक्टिस
कराए। सच कहें तो यदि पी.वी. सिंधु को गोपीचंद नहीं मिले होते तो भारत रियो ओलम्पिक
में हिन्दुस्तान का तिरंगा फहराने वाली सिंधु से वंचित रह जाता। वे गोपीचंद ही हैं
जिन्होंने एक पतली-दुबली, लम्बी लड़की को हिन्दुस्तान का गौरव बना दिया।
गोपीचंद उन गुरुओं में हैं जो अपने शिष्यों को
गुड़ खाने से मना करने से पहले खुद गुड़ खाना बंद करते हैं। सिंधु की आज की
उपलब्धियां बहुत से युवाओं के लिए प्रेरणा का कारण बन सकती हैं लेकिन वे शायद नहीं
जानते कि इसके लिए गोपीचंद ने उनसे कितना कुछ क्या-क्या कराया है। सिंधु को चॉकलेट
और हैदराबादी बिरयानी बहुत पसंद है लेकिन वह ओलम्पिक मेडल जीतने के तीन महीने पहले
से उसके दर्शन तक नहीं कर सकती थी। यहां तक कि यदि मंदिर का प्रसाद भी मिलता था तो
उसे खाने की सख्त मनाही थी। डाइट पर यह नियंत्रण केवल सिंधु के लिए ही नहीं है
बल्कि उन्होंने अपने ऊपर भी लगा रखा था। पुलेला जी सिंधु को अपने साथ ही खिलाते
थे। तीन महीने के दौरान उन्होंने सिंधु को मोबाइल से भी दूर रखा। ओलम्पिक के दौरान
गोपी सिंधु के खाने-पीने से लेकर उसके घूमने-फिरने और सोने तक पर बारीक नजर रखते
थे। 2003 में बैडमिंटन को अलविदा कहने के बाद पुलेला गोपीचंद ने बैडमिंटन एकेडमी
खोलने की ठानी। इस एकेडमी के लिए उन्हें कम पापड़ नहीं बेलने पड़े। आंध्र प्रदेश
सरकार से उन्होंने इसके लिए हैदराबाद में जमीन की मांग की। सरकार ने उन्हें सस्ती
दर पांच एकड़ जमीन तो दे दी मगर इसके निर्माण के लिए उनके पास धन नहीं था। ऐसे में
उन्हें अपना घर भी गिरवी रखना पड़ा। पांच साल की कोशिश के बाद 2004 में यह एकेडमी
बनकर तैयार हुई और यहां खिलाड़ियों को ट्रेनिंग दी जाने लगी। पिछले 14 साल में
अपने चरित्र की दृढ़ता और खेल के प्रति पूरे समर्पण के भाव से ही गोपी ने इस
बैडमिंटन एकेडमी को विश्व की श्रेष्ठतम एकेडमी में परिवर्तित कर दिखाया है। कहा
जाता है कि गोपीचंद जब अपनी एकेडमी में होते हैं तो कोई उन्हें उनके विचारों से जरा
भी हिला-डुला नहीं सकता। वे अपने खिलाड़ियों को इस तरह सिखाते हैं मानो किसी बच्चे
को सिखा रहे हों।
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