भारत की पहली
ओलम्पिक पदक विजेता महिला
श्रीप्रकाश
शुक्ला
वर्ष 2000 के सिडनी ओलम्पिक में जब मादरेवतन शर्मसार होने
की दहलीज पर खड़ा था, ऐसे नाजुक समय में फौलादी कर्णम मल्लेश्वरी ने भारोत्तोलन
में कांस्य पदक जीतकर भारत को खाली हाथ लौटने की शर्मिंदगी से बचा लिया। सिडनी
ओलम्पिक में भारत को मिलने वाला यह एकमात्र पदक था। लौह महिला कर्णम मल्लेश्वरी ने
भारोत्तोलन के 69 किलोग्राम भारवर्ग
में कांस्य पदक जीतकर न केवल इतिहास रचा बल्कि वह ओलम्पिक पदक जीतने वाली भारत की
पहली महिला भी बनीं। उस समय वह व्यक्तिगत पदक जीतने वाली चौथी भारतीय थीं।
मल्लेश्वरी से पहले टेनिस खिलाड़ी लिएंडर पेस ने 1996 के अटलांटा ओलम्पिक में एकल का कांस्य पदक
जीतकर भारत को खाली हाथ लौटने की शर्मिंदगी से बचाया था। आंध्र प्रदेश के
श्रीकाकुलम में पैदा हुईं कर्णम मल्लेश्वरी ने 12 साल की उम्र से ही भारोत्तोलन का अभ्यास शुरू
कर दिया था। भारतीय खेल प्राधिकरण की एक योजना के तहत मल्लेश्वरी को प्रशिक्षण
मिला। मल्लेश्वरी की शानदार उपलब्धियों को देखते हुए उन्हें अर्जुन पुरस्कार
(1995), खेल रत्न पुरस्कार (1996) और पद्मश्री सम्मान (1997) से भी नवाजा जा चुका
है।
जब सितम्बर 2000 में सिडनी ओलम्पिक हुए तब कर्णम मल्लेश्वरी
अचानक सुर्खियों में आ गईं। भारतीय समाचार पत्र-पत्रिकाओं में मल्लेश्वरी के बारे
में प्रमुखता से छापा गया। कारण यही था कि कर्णम मल्लेश्वरी ने महिलाओं के 69 किलोग्राम भारवर्ग में भारत के लिए कांस्य पदक
जीतकर अपना नाम भारतीय खेल इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा लिया। इससे पूर्व
कोई भी भारतीय महिला ओलम्पिक में मैडल जीतने में कामयाब नहीं हुई थी। देखा जाए तो
मल्लेश्वरी के बाद लंदन ओलम्पिक (2012) में शटलर साइना नेहवाल और मुक्केबाज एमसी
मैरीकाम ने कांस्य पदक से अपने गले सजाए तो रियो ओलम्पिक (2016) में पहलवान साक्षी
मलिक ने कांस्य तथा शटलर पी.वी. सिन्धू ने चांदी का पदक अपने नाम किया। पी.वी.
सिन्धू फाइनल तक पहुंचने वाली भारत की पहली महिला खिलाड़ी हैं। रियो पैरालम्पिक
में ही दीपा मलिक ने गोलाफेंक में रजत पदक जीतकर पहली दिव्यांग महिला खिलाड़ी होने
का गौरव हासिल किया।
कहा जा सकता है कि ओलम्पिक में हिस्सा लेने
वाली प्रथम भारतीय महिला होने के जिस गौरवशाली सफर की शुरुआत मेरी लीला राव ने 1952 में की थी उसे अंजाम तक लौह महिला कर्णम
मल्लेश्वरी ने पहुंचाया और एक अरब भारतीयों में वह अकेली प्रथम महिला भारतीय ओलम्पिक
विजेता बनीं। लचकती छड़ के दोनों ओर लटके वजन को देखे बिना वह पूरे विश्वास के साथ
खड़ी हुईं- क्षण भर के लिए उन्होंने आखें बन्द कीं और अपने हौसले को मुंह में बुद-बुद
कर एक झटके के साथ वजन को उठा दिया और तालियां गूंज उठीं। वजन के बोझ से भिंचे उनके
जबड़ों में अपनी महत्वाकांक्षा को साकार करने का दमखम था। देश का मस्तक ऊंचा करने
का फख्र उनकी आंखों में साफ-साफ झलक रहा था।
टाइम एशिया के वेब कालम द्वारा मल्लेश्वरी को वर्ष
की सर्वश्रेष्ठ दक्षिण एशियाई खिलाड़ी चुना गया। परन्तु 1997 में मल्लेश्वरी के लिए सब कुछ इतना आसान नहीं
था। उस वर्ष यूं तो उन्हें पद्मश्री मिला और वह परिणय सूत्र में भी बंधी लेकिन खेलों
से 12 महीने का विश्राम लेने
के बाद जब वह खेलों में लौटीं तो उनका प्रदर्शन अर्श से फर्श पर जा पहुंचा था। ऐसी
परिस्थिति में उसने हिम्मत न हारते हुए 1998 के बैंकाक एशियाई खेलों में रजत पदक जीतकर
अपनी ताकत का जलवा दिखाया। 1999 की एथेंस भारोत्तोलन चैम्पियनशिप से वह बिना कोई पदक लौटीं। इस असफलता के बाद
उसकी क्षमता पर उंगलियां उठने लगीं और कहा जाने लगा कि उसका वजन बढ़ गया है। इससे
मल्लेश्वरी बहुत आहत महसूस कर रही थीं और मन ही मन अपने आलोचकों को चुप कराने के
बारे में सोच रही थीं। आलोचनाओं से परे कर्णम मल्लेश्वरी ने अपने प्रशिक्षक
तारानेंको के साथ प्रशिक्षण आरम्भ किया। उसके प्रशिक्षक को विश्वास था कि वह ओलम्पिक
पदक अवश्य जीतेगी।
मल्लेश्वरी का जन्म स्थान अम्दलावलासा हैदराबाद
से लगभग 800 किलोमीटर उत्तर-पूर्व
में स्थित है। अम्दलावलासा एक छोटा सा शहर है। मल्लेश्वरी के पिता का नाम रामदास
है जो रेलवे सुरक्षा बल में कांस्टेबल हैं। साधारण रेलवे हेड कांस्टेबल की चार
बेटियों में से दूसरे नम्बर की मल्लेश्वरी का बचपन बहुत गरीबी में बीता। बहनें
बहुत सुबह ही रेल की पटरियों पर कोयला बीनने निकल पड़ती थीं। आज मल्लेश्वरी के पास
धन की कोई कमी नहीं है। मल्लेश्वरी जब केवल नौ साल की थीं, तब वह अपनी बड़ी बहन नरसम्मा के साथ जिम जाती थीं। तभी उनकी रुचि खेलों
में जागृत हुई। वैसे 1989 में वह मानचेस्टर विश्व चैम्पियनशिप तथा बीजिंग एशियन खेलों में शिरकत करने 20 सदस्यीय भारतीय टीम के साथ गई थीं। मल्लेश्वरी
की छोटी बहन कृष्णा कुमारी भी राष्ट्रीय स्तर की भारोत्तोलक है।
मल्लेश्वरी खेलों के क्षेत्र में 1989 में आईं जब वह केवल 14 वर्ष की थीं। उदयपुर में उसकी शुरुआत बहुत
धमाकेदार रही क्योंकि उसने छह राष्ट्रीय अंकों तक अपनी पहचान बनाई और फिर
धीरे-धीरे उसने सफलता की सीढ़ियां चढ़ना शुरू किया। थाईलैण्ड की एशियन चैम्पियनशिप
में मल्लेश्वरी ने रजत पदक तो 1993 में मेलबर्न की विश्व भारोत्तोलन चैम्पियनशिप में उसने तीन कांस्य पदक जीते। हिरोशिमा
एशियन खेलों में उसने जिन खेलों में भाग लिया उसमें एक चीनी खिलाड़ी के बाद द्वितीय
स्थान मिला। इसके बाद 1994 में इस्ताम्बूल में विश्व भारोत्तोलन चैम्पियनशिप में मल्लेश्वरी ने दो स्वर्ण
और एक कांस्य पदक जीता। इस स्वर्ण पदक जीतने के वक्त वह एक चीनी खिलाड़ी के बाद
दूसरे नम्बर पर आई थी हालांकि उस खिलाड़ी ने उतना ही वजन उठाया था जितना मल्लेश्वरी
ने, परन्तु मल्लेश्वरी का वजन अपनी प्रतिद्वन्द्वी से आधा किलो अधिक होने के कारण
उसे स्वर्ण पदक से हाथ धोना पड़ा था पर उसके बाद चीनी खिलाड़ी डोप टेस्ट में फेल हो
गई और मल्लेश्वरी को स्वर्ण पदक प्रदान किया गया।
पुणे में हुए राष्ट्रीय खेलों में मल्लेश्वरी
ने विश्व रिकार्ड तोड़ दिया। जर्मनी में हुई विश्व चैम्पियनशिप में वह पांचवें
स्थान पर रही फिर अगले वर्ष बुलगारिया में हुई विश्व चैम्पियनशिप में उसने अपना
स्तर सुधार लिया। 1995 में चीन में हुई
विश्व चैम्पियनशिप में जर्क में मल्लेश्वरी ने 54 किलोग्राम भारवर्ग में नया विश्व रिकार्ड
बनाते हुए तीन स्वर्ण पदक प्राप्त किए। चीनी खिलाड़ी लांग
यूलिप के 112.5 किलो के विश्व रिकार्ड को उसने 113 किलो वजन उठाकर तोड़ दिया। चैम्पियनशिप की शुरुआत
में ही मल्लेश्वरी और कुंजरानी को संयुक्त रूप से विश्व में नम्बर एक बताया गया था।
1998 के बैंकाक एशियाई खेलों
में रजत व 1999 एथेंस चैम्पियनशिप
में वह बिना पदक लिए लौटीं लेकिन मई 2000 में उसने ओसाका की विश्व भारोत्तोलन चैम्पियनशिप में
स्वर्ण पदक जीता। इसके पश्चात् उसे ऐतिहासिक सफलता मिली जब सितम्बर 2000 में उसने सिडनी ओलम्पिक में कड़े मुकाबले में
कांस्य पदक प्राप्त किया।
भारत की स्वतंत्रता के तब तक के इतिहास में वह
केवल तीसरी भारतीय थीं जिसे ओलम्पिक पदक जीतने का गौरव प्राप्त हुआ। लेकिन वह
प्रथम भारतीय महिला हैं जिसने ओलम्पिक पदक जीता। इससे पूर्व भारतीय महिला एथलीट पी.टी.
ऊषा सेकेण्ड के सौंवे हिस्से से कांस्य पदक पाने से चूक गई थीं। मल्लेश्वरी की प्रतिभा को अर्जुन पुरस्कार विजेता मुख्य राष्ट्रीय कोच
श्यामलाल सालवान ने पहचाना, जब वह अपनी बड़ी बहन के साथ 1990 में बैंगलूरु कैम्प में गई थीं। प्रशिक्षक ने
उसे भारोत्तोलन खेल अपनाने की सलाह दी। बस यहीं से उसका खेलप्रेम जाग उठा और वह
पूरी तरह खेल में रम गई। उसकी मेहनत रंग लाई और मात्र एक वर्ष में भारतीय टीम की
दावेदारी में आ गई। 1992 में वह विश्व चैम्पियनशिप में कांस्य पदक पाने में सफल रहीं। इसी उत्साह ने
उसे 1994 व 1995 में विश्व चैम्पियन बना दिया। उसके बाद मल्लेश्वरी
सफलता की सीढ़ियां चढ़ती गईं। लेकिन 2000 में जब सिडनी ओलम्पिक के लिए खिलाड़ियों का चयन हो रहा था
तब उसका नाम लिस्ट में शामिल किये जाने पर यह कहकर आलोचना की गई कि वह भारतीय
सरकार के खर्चे पर टूरिस्ट बनकर जा रही हैं। जब कुंजरानी को हटाकर मल्लेश्वरी को
टीम में चुना गया तब सभी ओर से उसकी आलोचना की गई।
यही कारण था कि जब 19 सितम्बर, 2000 को 69 किलोग्राम भारवर्ग में मल्लेश्वरी का नाम विजेताओं में
लिया गया और पुरस्कार दिया गया तब केवल सात भारतीय वहां
मौजूद थे। भारतीय खिलाड़ियों की बड़ी टीम में से तीन तथा उन 42 पत्रकारों में से जो ओलम्पिक खेलों को कवर
करने गए थे, केवल चार ही उस विजय का आनन्द लेने के लिए वहां उपस्थित
थे। मल्लेश्वरी ने अपने दोनों हाथ रगड़ कर अपनी पकड़ मजबूत की और फिर अपने शरीर के भार
से दोगुने वजन को झटके से उठाकर सभी को आश्चर्यचकित कर दिया। इस प्रकार भारतीय
खेलों के इतिहास में वह प्रथम महिला बनीं जो ओलम्पिक मैडल जीत सकीं। इस प्रकार
उसने पदक जीतकर अपने सभी आलोचकों का मुंह बंद कर दिया। जो लोग उसे ओवरवेट या बीते
समय की खिलाड़ी कहकर हंसी उड़ा रहे थे, कुछ ही जादुई क्षणों में मल्लेश्वरी के
प्रशंसक बन गए। इस सफलता के बाद भारत में मल्लेश्वरी के लिए अनेक नकद पुरस्कारों
की घोषणा की गई। इस पर मल्लेश्वरी ने कहा- जब मुझे सिडनी ओलम्पिक में पदक प्राप्त
हुआ तो अनेकों नकद पुरस्कारों की घोषणा की गई लेकिन जब मैं 1994 व 1995 में विश्व चैम्पियन बनी थी तब इस प्रकार की एक भी घोषणा
नहीं की गई।
मल्लेश्वरी का विवाह हरियाणा के यमुना नगर के
राजेश त्यागी से हुआ है। हरियाणा की बहू होने के कारण उसकी जीत पर हरियाणा में
जश्न का माहौल रहा। मल्लेश्वरी ने 240 किलो वजन उठाया और हरियाणा सरकार ने उसे 25 लाख रुपये देने का ऐलान कर दिया अर्थात् हर एक
किलो पर 10 हजार रुपये। इस
प्रकार सिडनी ओलम्पिक में मल्लेश्वरी ने भारत का झण्डा लहराया हरियाणा की बहू और
भारत में नारी शक्ति का। मल्लेश्वरी को खेलों में आगे बढ़ाने में हिन्दुजा
स्पोर्ट्स फाउण्डेशन का बहुत बड़ा योगदान रहा। हिन्दुजा स्पोर्ट्स फाउण्डेशन ने समय-समय
पर उसे आर्थिक सहायता के अलावा दूसरी मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध कराईं। वैसे
मल्लेश्वरी की सफलता के पीछे उसकी बहन नरसिम्हा का बहुत बड़ा योगदान है। नरसिम्हा
ने बताया कि घर बसाने के बाद जब उसे लगा कि अब वह अन्तरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं
में बेहतर प्रदर्शन के लायक नहीं है तो उसने सारा ध्यान मल्लेश्वरी पर टिका दिया।
मल्लेश्वरी की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि उसका शरीर बचपन से ही तकनीकी तौर पर
भारोत्तोलन के अनुरूप था अर्थात् वह खूब मजबूत थी। मल्लेश्वरी दृढ़संकल्प और साधना
के परिणामस्वरूप ही सफलता के इस मुकाम तक पहुंची। उसे देश के सबसे बड़े खेल
पुरस्कार अर्जुन अवार्ड के अलावा पद्मश्री, राजीव गांधी खेल रत्न और के.के. बिरला
अवार्ड से सम्मानित किया जा चुका है।
मल्लेश्वरी को अर्जुन पुरस्कार मिलने पर उसके
विभाग भारतीय खाद्य निगम ने उसे तरक्की देकर डिप्टी मैनेजर बना दिया और लाल रंग की
मारुति 800 का तोहफा भी
दिया। जरा सोचिये जब मल्लेश्वरी आठवीं कक्षा में पड़ती थी तो विजाग पोर्ट ट्रस्ट ने
उसे चतुर्थ श्रेणी की नौकरी की पेशकश की थी। इसी गरीबी में गुजारे बचपन ने
मल्लेश्वरी के भीतर सुलग रही लगन की आग को धधकते तांबे में बदल दिया। मल्लेश्वरी
का एक कांस्य पदक जीतना भी भारत के लिए बहुत बड़े गौरव की बात रही। अपनी अद्वितीय
सफलता से भावुकता और खुशी के क्षणों में डूबी मल्लेश्वरी ने कहा था- मेरा सपना पूरा
हो गया। अब मुझे लगता है कि मैंने खुद को साबित कर दिया है। यह पूछे जाने पर कि ओलम्पिक
में पदक जीतने वाली प्रथम भारतीय महिला होने पर वह कैसा महसूस कर रही हैं।
मल्लेश्वरी ने कहा- मुझे गर्व है कि मैंने भारत को गौरव प्रदान किया और नई
सहस्त्राब्दी के पहले ओलम्पिक में देश को पहला पदक दिलाया। मल्लेश्वरी की उपलब्धि पर उनके पति राजेश त्यागी
को भी गर्व है। मल्लेश्वरी की सफलता से यह साबित हो गया है कि भारतीय महिला खिलाड़ी
किसी भी खेल में शिखर पर पहुंच सकती हैं चाहे वह ताकत का खेल हो या नजाकत का। यदि
ओलम्पिक के पहले मल्लेश्वरी को और बेहतर प्रशिक्षण दिया गया होता तो वह निश्चित
रूप से स्वर्ण पदक जीत सकती थी।
उपलब्धियां- 1990-91 में 52 किलो भारवर्ग
में राष्ट्रीय चैम्पियन बनी। 1992 से 1998 तक 54 किलो (शारीरिक वजन) वर्ग में
राष्ट्रीय चैम्पियन रहीं। 1994 की एशियाई चैम्पियनशिप मुकाबलों में कोरिया में तीन स्वर्ण पदक जीते। इस्ताम्बूल में 1994 की विश्व चैम्पियनशिप में दो स्वर्ण व एक रजत पदक जीता। दक्षिण कोरिया में 1995 की एशियाई चैम्पियनशिप के 54 किलो वर्ग में तीन स्वर्ण पदक जीते। चीन में 1995 में विश्व चैम्पियनशिप में भी स्वर्ण पदक जीता।
1996 में जापान में एशियाई
प्रतियोगिता में एक स्वर्ण पदक जीता। 1997 के एशियाई खेलों में 54 किलो वर्ग में रजत पदक जीता। 1998 के बैंकाक एशियाई खेलों में 63 किलो वर्ग में रजत पदक जीता। 2000 में ओसका एशियाई चैम्पियनशिप में 63 किलो वर्ग में स्वर्ण जीता लेकिन अंततः कुल
मिलाकर तृतीय स्थान पर रहकर संतोष करना पड़ा।
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