नामी खिलाड़ी के कमरे से मिला ड्रग्स
इंचियोन
एशियाई खेलों में दो स्पर्धाओं में रहा था चौथे स्थान पर
श्रीप्रकाश
शुक्ला
हाल ही पटियाला में नेशनल एंटी डोपिंग एजेंसी (नाडा) की
छापामार कार्रवाई में एक नामचीन एथलीट के कमरे से ड्रग्स के साथ ही इंजेक्शन बरामद
हुए हैं। यह खिलाड़ी इंचियोन एशियाई खेलों की दो स्पर्धाओं में चौथे स्थान पर रहा
था। देश में डोपिंग के खिलाफ यह कोई पहला मामला नहीं है। हाल ही भारतीय फुटबाल
गोलकीपर सुब्रत पाल पर भी डोपिंग का डंक लगा है। रियो ओलम्पिक के दरम्यान चार
भारतीय खिलाड़ियों के साथ जो हुआ वह कितना शर्मनाक था। लगातार भारतीय खिलाड़ियों
का डोपिंग में पकड़ा जाना बताता है कि खेलों में सफलता पाने और सबसे बेहतर साबित
होने के लिए प्रतिबंधित शक्तिवर्धक औषधियां लेने का चलन किस तरह विस्तार पा चुका
है। चिन्ता की बात तो यह है कि अपनी क्षमता और मेहनत पर भरोसा न कर तत्काल ऊर्जा
भर देने वाले ड्रग्स लेकर खेलभावना को कलुषित करने वाले खिलाड़ियों को किसी भी तरह
की सजा का खौफ भी नहीं रह गया है। नियम कड़े हो रहे हैं और सजा का प्रावधान विस्तृत
होता जा रहा है बावजूद इसके खिलाड़ी ड्रग्स का सहारा लेने का मोह नहीं छोड़ पा रहे
हैं। यह प्रवृत्ति देश में लगातार बढ़ रही है और इस पर रोक नहीं लग पा रही है।
दो साल पहले यमुना नगर (हरियाणा) में हुई राष्ट्रीय युवा व जूनियर वेटलिफ्टिंग चैम्पियनशिप और तिरुवंनतपुरम
में हुए राष्ट्रीय खेलों के दौरान अंतरराष्ट्रीय नियमों के तहत खिलाड़ियों के सैम्पल
लिए गए थे। परीक्षण के जो नतीजे आए वे चौंकाने वाले हैं। पता चला कि विभिन्न खेलों
के दो दर्जन से ज्यादा खिलाड़ियों ने प्रतिबंधित ड्रग्स का सेवन किया था। इनमें
सबसे ज्यादा 21 वेटलिफ्टर शामिल हैं। वेटलिफ्टरों में पंजाब की गीता रानी भी हैं जो
राष्ट्रीय खेलों में 75 किलो से ज्यादा के वर्ग का स्वर्ण जीतने में सफल रही थीं। 2006 के दोहा में हुए राष्ट्रमंडल खेलों में भी
उन्होंने स्वर्ण पदक जीता था। 58 किलो वर्ग में हरियाणा की हरजीत कौर, 75 किलो वर्ग में चंडीगढ़ की मांगती पी कॉम और 75 किलो से ज्यादा के वर्ग में महाराष्ट्र की
कोमल वकाले राष्ट्रीय खेलों में ड्रग्स की बदौलत तिरुवंनतपुरम में रजत पदक जीतने
में सफल हो गई थीं। डोप टेस्ट में पंजाब की एथलीट के एम. रचना भी दोषी पाई गईं।
हैमर थ्रो में उन्होंने रजत पदक जीता था।
पहली बार ड्रग्स के सेवन का दोषी पाए जाने वाले खिलाड़ियों
के लिए नेशनल एंटी डोपिंग एजेंसी ने अब सजा की मियाद दो साल से बढ़ाकर चार साल कर
दी है। नाडा ने अब धोखेबाज खिलाड़ियों के खिलाफ कड़ा रुख अपनाना शुरू कर दिया है।
पहले अपराध के लिए चार साल का प्रतिबंध और वही अपराध फिर करने पर आजीवन प्रतिबंध
का प्रावधान किया गया है। लेकिन समस्या ज्यादा विकराल है। ड्रग्स लेकर अपना
प्रदर्शन बेहतर करने की ललक युवा खिलाड़ियों में ज्यादा बढ़ गई है। स्थापित खिलाड़ियों
के लिए तो एक बार को यह तर्क समझ में आता है कि आगे बने रहने के लिए अपने भविष्य
या सजा की परवाह किए बिना वे ड्रग्स लें। लेकिन जिन खिलाड़ियों का खेलजीवन अभी
शुरू ही हुआ है, ईमानदार खेलभावना विकसित होने की जगह ड्रग्स का इस्तेमाल कर सफलता
का शॉर्टकट रास्ता अपनाने की प्रवृत्ति उनमें घर कर जाए तो यह न खेल के लिए अच्छा
है और न खिलाड़ी के लिए। इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए नाडा ने पांच साल पहले
योजना बनाई थी कि सभी स्तर की क्षेत्रीय व राष्ट्रीय स्तर की खेल स्पर्धाओं के
दौरान सभी खिलाड़ियों के सैम्पल लिए जाएं। समस्या यह है कि नाडा के पास न तो इतना
स्टाफ है और न ही जांच करने की इतनी विस्तृत सुविधा कि वह बड़े पैमाने पर
खिलाड़ियों के सैम्पल लेकर सही और गलत खिलाड़ी का पता लगा सके। नाडा अधिकारियों की
मौजूदगी और औचक रूप से कुछ खिलाड़ियों के सैम्पल लेने की प्रक्रिया से तो खिलाड़ी
सुधरे नहीं हैं। प्रतिबंध लगता है। पदक छिनते हैं। विजेता होने के नाते मिल सकने
वाले मान-सम्मान से हाथ धोना पड़ता है। फिर भी लत है कि छूटती नहीं।
सवाल यह उठता है कि खिलाड़ी प्रतिबंधित ड्रग्स क्यों लेते
हैं। बहुत सी दवाएं तो ऐसी हैं जो काफी महंगी और आसानी से उपलब्ध नहीं हैं। जर्मनी
के एकीकरण से पहले जब पूर्वी जर्मनी अस्तित्व में था तो वहां के कम्युनिस्ट शासन
ने खेलों के जरिए अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए खिलाड़ियों को शक्तिवर्धक
दवाएं देने का चलन शुरू किया। खूब सफलता भी पाई। उसी की नकल पर पूरी दुनिया में इस
तरह की दवाओं के इस्तेमाल की परम्परा चल निकली। ये दवाएं तात्कालिक तौर पर खिलाड़ी
की क्षमता और ऊर्जा को बढ़ा देती हैं। यही पहलू सबसे ज्यादा खिलाड़ियों को ललचाता
है। इस प्रवृत्ति को थामने के लिए वर्ल्ड एंटी डोपिंग एजेंसी (वाडा) ने कई दवाओं
को प्रतिबंधित सूची में डाल दिया है। खिलाड़ियों के लिए उनका इस्तेमाल वर्जित है।
इसके बावजूद इनका इस्तेमाल हो रहा है। खिलाड़ियों को ड्रग्स लेने से रोकने के पीछे
यह सैद्धांतिक मुद्दा तो है ही कि खेल स्पर्धाओं में ईमानदारी बरती जाए। लेकिन
इसमें खिलाड़ियों के दीर्घकालीन भविष्य की चिन्ता भी है। जर्मन दीवार ढहने के बाद
यह रहस्य खुला कि ओलम्पिक या अन्य अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों में तहलका मचाने वाले
पूर्वी जर्मनी के ज्यादातर खिलाड़ी ड्रग्स के सेवन से अपंग हो गए या गम्भीर
व्याधियों का शिकार हो गए।
यही सबसे बड़ा खतरा है। इसे न समझते हुए छोटी उम्र में
खिलाड़ियों को प्रतिबंधित दवाओं का सेवन करने के लिए उकसाने वाले प्रशिक्षकों, इस
प्रवृत्ति को अनदेखा करने वाले प्रशासकों और खिलाड़ियों को भी प्रताड़ित किया जाना
जरूरी है। नाडा ने इसके लिए अपना दायरा बढ़ाया है। दोषी खिलाड़ियों पर पचास हजार
रुपए का जुर्माना करने पर विचार किया जा रहा है। एक नियम यह भी बनाने पर मंथन हो
रहा है कि जिस राज्य के ज्यादा खिलाड़ी डोपिंग के दोषी पाए जाएं उस राज्य के
खिलाड़ियों को कुछ समय के लिए किसी भी प्रतियोगिता में हिस्सा लेने पर प्रतिबंध
लगा दिया जाए। फिलहाल यह व्यावहारिक नहीं होगा। खिलाड़ियों और प्रशिक्षकों को
ईमानदार खेल के लिए प्रेरित करना ज्यादा जरूरी है।
ड्रग्स का असर भारतीय खेलों के लिए कई बार अप्रिय स्थितियां
पैदा करता रहा है। सबसे ज्यादा दुखद यह था कि 4 गुणा 400 मीटर रिले दौड़ में भारतीय महिला एथलीट लंदन
में जुलाई 2012 में हुए ओलम्पिक
खेलों में हिस्सा नहीं ले पाईं। महिला टीम के लंदन ओलम्पिक के लिए क्वालीफाई करने
में अड़चन तो तभी खड़ी हो गई थी जब 2010 के राष्ट्रमंडल और एशियाई खेलों में 4 गुणा 400 मीटर रिले दौड़ का स्वर्ण पदक जीतने वाली
चौकड़ी की तीन खिलाड़ियों मनदीप कौर, अश्विनी एसी व सिनी जोसे पर शक्तिवर्धक
ड्रग्स लेने के आरोप में एक साल का प्रतिबंध लगा दिया गया था। उम्मीद की जो थोड़ी-बहुत
गुंजाइश बची थी उसे वर्ल्ड एंटी डोपिंग एजेंसी की नेशनल एंटी डोपिंग अपील पैनल (एनडीपी)
से की गई गुजारिश ने खत्म कर दिया। वाडा ने तो निर्देश दे दिया कि स्टेरॉयड का
सेवन करने वाली तीनों खिलाड़ियों पर प्रतिबंध एक साल से बढ़ाकर दो साल कर दिया
जाए। राष्ट्रमंडल और एशियाई खेलों की स्वर्ण पदक विजेता टीम का हिस्सा रहीं
उपरोक्त तीनों खिलाड़ियों के अलावा जाउना, मुर्म, प्रियंका पंवार व टियाना मेरी थॉमस
को भी उसी अपराध का दोषी मानकर 2012 में प्रतिबंधित कर दिया गया था। रियो ओलम्पिक के दौरान नरसिंह यादव, धावक
धरमवीर, गोला फेंक खिलाड़ी इंदरजीत सिंह भी डोप टेस्ट में फंसे जिससे भारत की
दुनिया में खूब किरकिरी हुई।
भारतीय खेलों के लिए यह बहुत बड़ा आघात था। खासतौर से तब जब
पहली बार ओलम्पिक खेलों में महिला टीम के बेहतर सफलता पाने के आसार बन रहे थे। ओलम्पिक
इतिहास में पहली बार एथलेटिक्स में कोई पदक जीतने का सपना टूटने से ज्यादा
पीड़ादायक यह रहा कि महिला खिलाड़ी ड्रग्स का इस्तेमाल करने की दोषी पाई गई हैं।
दुनिया भर में खिलाड़ी अवैध रूप से ड्रग्स का सेवन करते हैं। पकड़े जाते हैं तो
अपमानित होते हैं और सजा पाते हैं। भारत में इस तरह के मामले इससे पहले छिटपुट तौर
पर ही हुए।
2006 के राष्ट्रमंडल खेलों में पदक जीतने वाले कुछ
भारोत्तोलक ड्रग्स का इस्तेमाल करने के दोषी पाए गए थे। लेकिन कुल मिलाकर यही
धारणा बनी हुई थी कि भारतीय खिलाड़ी इस व्याधि से अछूते हैं। महिला एथलीटों का
मामला सामने आने के बाद खुलासा हुआ कि राष्ट्रीय स्तर तक पर खिलाड़ी ताकत और
क्षमता बढ़ाने के लिए प्रतिबंधित दवाओं का सेवन कर रहे हैं। प्रशिक्षण शिविरों या
प्रतियोगिता स्थलों में खिलाड़ियों के हॉस्टल के आसपास भारी मात्रा में खाली सीरिंज
मिलने से संदेह तो पैदा हुआ लेकिन उसे गंभीरता से नहीं लिया गया। वैसे भी
खिलाड़ियों की नियमित जांच की कोई पुख्ता व्यवस्था तब तक नहीं थी। वैश्विक दबाव
में नाडा का गठन हुआ और उसने थोड़ी सक्रियता दिखाई तो कई चौंकाने वाले तथ्य सामने
आए। 2012 में लुधियाना में
हुई राष्ट्रीय स्कूल एथलेटिक्स प्रतियोगिता में दो एथलीट स्टेनोजोलोल व मीथेन
डायनोन के इस्तेमाल के दोषी पाए गए। इसके अलावा जिन 80 खिलाड़ियों के नमूने लिए गए उनमें से 11 के नमूनों में प्रतिबंधित ड्रग्स मिले। इससे
पहले हुए राष्ट्रीय स्कूल खेलों में कुश्ती, मुक्केबाजी व भारोत्तोलन स्पर्धा के 14
प्रतियोगियों के सैम्पल पॉजिटिव रहे थे। यह क्योंकि सिर्फ स्कूल स्तर का मामला था
और साधनों की कमी की वजह से सभी प्रतियोगियों की जांच नहीं की जा सकी। हो पाती तो
शायद ज्यादा खतरनाक नतीजे सामने आते। लेकिन इससे यह अंदाजा तो हो गया कि राष्ट्रीय
स्तर पर तस्वीर कितनी भयावह हो गई है।
जब उद्देश्य किसी भी कीमत पर सफलता पाने तक सीमित हो जाए तो
क्षमता, ताकत या ऊर्जा बढ़ाने के लिए खिलाड़ी ड्रग्स का इस्तेमाल करने से नहीं
चूकते। यह जानते हुए भी ऐसा करना खेलभावना के प्रतिकूल है और अपराध भी जिसके लिए
उन्हें अपने खेल जीवन से हाथ भी धोड़ा पड़ सकता है। इससे बड़ा खतरा यह भी है कि इस
तरह की प्रतिबंधित दवाएं तात्कालिक रूप से फायदा भले ही पहुंचा दें, बाद में शरीर
पर बुरा प्रभाव डाल सकती हैं। चिंता की बात यह है कि कुछ प्रतिबंधित ड्रग्स आसानी
से उपलब्ध हो जाते हैं और अक्सर प्रशिक्षक ही इन्हें इस्तेमाल करने की सलाह देते
हैं। तत्काल सफलता पा लेने के धुन में खिलाड़ी जाने-अनजाने आने वाले खतरे को भांप
नहीं पाते। एक साल का प्रतिबंध झेलने वाली महिला एथलीटों का कहना है कि उन्होंने
वही दवा ली जो प्रशिक्षक यूरी ओगोरदोनिक ने उन्हें दी। उन्हें पता ही नहीं था कि
दवा क्या थी। यूरी को तो तत्काल बर्खास्त कर दिया गया लेकिन मूल समस्या का समाधान
करने की कोशिश नहीं हुई। हर खेल के लिए विदेशी प्रशिक्षकों पर निर्भरता कम नहीं
हुई है। ज्यादातर पूर्वी यूरोप के देशों के होते हैं। खिलाड़ियों में ड्रग्स के
सेवन की परम्परा इन देशों में ज्यादा है। प्रशिक्षकों को भारी-भरकम वेतन दिया जाता
है तो उसे न्यायसंगत ठहराने के लिए उन पर जल्दी और बेहतर नतीजा देने का अतिरिक्त
दबाव रहता है। यहीं से शार्ट कट रास्ता अपनाने की शुरुआत हो जाती है। हमारे देश
में खिलाड़ियों के उचित खान-पान की सुविधा भी नहीं है लिहाजा कई खिलाड़ी इससे भी डोप
में फंस जाते हैं।
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