Wednesday 24 May 2017

भारत में महिला कुश्ती की पहचान है मेरठ की बिटिया


अलका तोमर ने मुश्किलों पर पाई फतह
श्रीप्रकाश शुक्ला
पहलवानी महिलाओं के बूते बात नहीं है, यह कहने वालों के लिए मेरठ की बिटिया और भारत में महिला कुश्ती की पहचान अलका तोमर एक नजीर है। आमिर खान बेशक दंगल फिल्म के बाद दुनिया में चर्चा का विषय हों। उनकी फिल्म को दुनिया भर में सराहा जा रहा हो लेकिन उनसे कहीं न कहीं कुछ त्रुटि भी रह गई है। मसलन इस फिल्म में फोगाट बहनों का ही अधिकतर जिक्र हुआ है जबकि फोगाट बहनों से इतर अलका तोमर, गीतिका जाखड़ जैसी जांबाज पहलवानों ने दुनिया में भारतीय महिला कुश्ती का परचम फहराया है। इनका जिक्र कहीं न कहीं होना चाहिए था। खैर, भारत की जो बेटियां सामाजिक बंधनों को तोड़कर खेल मैदानों में अपने पराक्रम का जलवा दिखा रही हैं, उन पर हर खेलप्रेमी को नाज होना ही चाहिए। लाइम-लाइट से दूर ऐसी बेटियों की सफलताओं को भुलाया नहीं जाना चाहिए। कुश्तीप्रेमियों को यह जानकर अचरज होगा कि मेरठ की महिला पहलवान अलका तोमर ने विश्व कुश्ती चैम्पियनशिप में सुशील कुमार, योगेश्वर दत्त से पहले भारत के भाल को ऊंचा किया था।
असल जिन्दगी से प्रेरित दंगल फिल्म की कहानी अलका तोमर से भी काफी कुछ मिलती-जुलती है। देश को राष्ट्रमण्डल खेलों में पहली बार महिला कुश्ती में गोल्ड मैडल दिलाने वाली अलका तोमर ने केवल अपने पिता की मेहनत को ही साकार नहीं किया बल्कि देश का नाम भी सुनहरे अक्षरों में लिखवा दिया। अलका की कहानी फोगाट परिवार से कम नहीं है। अलका का कहना है कि मेरे पिता को कुश्ती का काफी शौक था। उन्होंने कुश्ती में मैडल का सपना अपने बेटे में ही देखा था। मेरे भाई ने कुश्ती भी की लेकिन जहां तक पहुंचना चाहिए था वहां तक नहीं पहुंच सका। मेरे पिता ने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने मुझे कुश्ती में डाला। जब मैं 10 साल की थी तभी से पिता नैन सिंह तोमर ने मुझे कुश्ती के लिए तैयार करना शुरू कर दिया था। उन्होंने मुझे भी उसी माहौल में पाला जिस माहौल में मेरे दोनों भाई थे। उन्होंने मुझमें और दोनों भाइयों में कोई फर्क नहीं रखा।
मेरठ की इस बेटी के लिए पहलवानी आसान बात नहीं थी। अपने इस शौक के लिए अलका तोमर को सबसे पहले समाज के साथ दंगल करना पड़ा। सिर्फ 10 साल की उम्र में अखाड़े पर कदम रखने वाली अलका बताती है कि एक रोज पापा ने मुझसे पूछा तुम अखाड़े में दमखम दिखाने के लिए क्या लोगी। एक बच्ची के रूप में मैंने भी कहा कि चॉकलेट चाहिए, कपड़े चाहिए। कोल ड्रिंक पीना है। मैं कुश्ती में दांव-पेच दिखाऊं इसके लिए मेरे पापा ने वो सब किया जो मैंने चाहा। मैं भी तैयार हो गई। मेरे बाल कट गए। ट्रैकशूट पहनकर अखाड़ा जाने लगी तो गांव वाले कमेंट करते थे- लड़कियों को बर्बाद कर दिया। बाल कटवा दिए और अजीब कपड़े पहन रही है। लेकिन मैंने हार नहीं मानी। मुझे तो अपने पापा का सपना हर हाल में पूरा करना था, सो मैं विचलित नहीं हुई।
अर्जुन अवार्डी पहलवान अलका तोमर बताती हैं कि कुश्ती में प्रैक्टिस के लिए मुझे अपने गुरुजी के पास जाना पड़ता था। मेरे साथ मेरे परिवार का कोई न कोई जरूर होता था लेकिन एक दिन भाई ने मेरे साथ जाने से मना कर दिया। उसे अजीब लगता था कि मेरी बहन कुश्ती के लिए जाती है। मुझे लोग बड़े ही अजीब तरीके से देखते थे। भाई के मना करने के बाद मेरे पिता ही सामने आए और वही मुझे गुरुजी के पास लेकर जाने लगे। मेरे पिताजी स्कूल में हर तरह के खेलों में भाग लेने को मुझसे कहते थे। मेरे पिता रोज मुझे दौड़ाया करते थे। उन्होंने मेरे साथ काफी मेहनत की। अलका की कही सच मानें तो जब वह कुश्ती के लिए घर से निकलती तो आसपास के लोग कहते थे कि ये लड़की क्या पहलवानी करेगी। पहलवानी लड़कों के लिए होती है। अजीब-अजीब बातें होती थीं। पिताजी ने मेरे दिल और दिमाग में कुश्ती में नाम कमाने का ऐसा जज्बा भर दिया कि उसके अलावा कुछ और सूझता ही नहीं था। सुबह छह बजे चले जाना और शाम को आना। मेरा सिर्फ कुश्ती पर फोकस रहता था। मेरे पिता और मेरा एक ही मकसद बन गया था कि कुश्ती में नाम कमाना है। उसके अलावा हम दोनों को न तो कुछ सुनाई देता था और न ही कुछ दिखाई देता था।
गीता फोगाट को दो बार रिंग में पराजय का सबक सिखाने वाली अलका बताती हैं कि मैंने जैसे ही स्कूल स्तर से कुश्ती में सफलता हासिल और कई ट्रॉफियां जीतीं समाचार-पत्रों में मेरा नाम छपने लगा। फिर क्या था गांव वाले भी मेरी इज्जत करने लगे। 1999 में जब वूमेन रेसलिंग शुरू हुई तो कोच जबर सिंह ने मेरे पापा से कहा कि कोई लड़की सम्पर्क में हो तो बताओ। पापा ने कहा मेरी बेटी तो है लेकिन एक तो उसकी उम्र कम है और दूसरे वह बड़ी ही दुबली-पतली सी है। उन्होंने कहा ले आओ उसे पहलवान बनाऊंगा। नेशनल के लिए टीम भी पूरी हो जाएगी। फिर क्या था पापा खुश हो गए। मेरे अखाड़ा ज्वाइन करने के 15-20 दिन बाद ही मथुरा में सब-जूनियर नेशनल था। मैंने वहां सिल्वर मैडल जीता। उस वक्त ये सिल्वर मेरे लिए किसी ओलम्पिक मैडल से कम नहीं था। अलका कहती हैं कि मैंने दंगल फिल्म देखी है। यह काफी शानदार है। फिल्म में एक पिता की कहानी है जो अपनी बेटियों को एक ऐसा खिलाड़ी बनाता है जिसने देश में महिला खेलों की दशा और दिशा बदल दी। अलका कहती हैं कि बबीता और गीता फोगाट ने काफी मेहनत की है। उन्होंने वह कर दिखाया जो आज तक कोई नहीं कर सका।
              अपनी बेटी और बेटे को बनाऊंगी पहलवानः अलका तोमर
उत्तर प्रदेश के यश भारती सम्मान से विभूषित सिसोली गांव के नैन सिंह तोमर-मुन्नी देवी की बेटी पहलवान अलका तोमर आज अपने पारिवारिक जीवन से बेहद खुश हैं। अलका का कुश्ती के प्रति लगाव घटने की बजाय और बढ़ गया है। ससुरालीजनों के प्रोत्साहन ने अलका में एक नया जोश और जुनून पैदा कर दिया है। प्रतिस्पर्धी कुश्ती को अलविदा कह चुकी अलका तोमर फिलवक्त जहां लगातार प्रतिभाशाली पहलवानों को दांव-पेच सिखा रही हैं वहीं बड़ी संजीदगी से बताती हैं कि वह अपनी बेटी और बेटे को भी सिर्फ पहलवान बनाने का ही सपना देख रही हूं। अलका कहती हैं कि मेरा बेटा बेशक दूसरे खेल को आत्मसात कर ले लेकिन बेटी बनेगी तो सिर्फ पहलवान। अलका अपनी बेटी के साथ हर पल जीना चाहती हैं। बकौल अलका मैं चाहती हूं कि मेरी बेटी भारतीय उम्मीदों को पंख लगाए।
वर्ष 1998 से प्रतिस्पर्धी कुश्ती में दांव-पेच दिखाने वाली अलका तोमर कुश्ती में अपनी सफलता का श्रेय परिजनों के साथ-साथ अपने प्रशिक्षक जबर सिंह सोम जी  और नोएडा कालेज आफ फिजिकल एज्यूकेशन के संचालक सुशील राजपूत को देती हैं। अलका कहती हैं कि सुशील राजपूतजी मेरे लिए भगवान से कम नहीं हैं। उनकी मदद से ही मैं इस मुकाम तक पहुंचने में सफल हुई। श्री राजपूत ने 2001 से 2011 तक मेरे खान-पान का न केवल पूरा खर्चा वहन किया बल्कि मुझे अपने कालेज में निःशुल्क तालीम भी प्रदान की। मुझे ही नहीं वह लगातार अन्य खिलाड़ियों की भी मदद कर रहे हैं। एक पहलवान के लिए बेहतर डाइट जरूरी होती है। श्री राजपूत ने काजू-बादाम से लेकर खानपान का हर खर्च वहन किया। आज के युग में जब इंसान अपने परिजनों को दो जून की रोटी मुहैया न करा रहा हो ऐसे में 10 साल तक श्री राजपूत ने मेरी डाइट की व्यवस्था न की होती तो मेरे परिवार के लिए बहुत मुश्किल होता। सच कहें तो सुशील राजपूत जैसे खेल और खिलाड़ी हितैषी लोग बिरले ही होते हैं।       



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