Thursday 29 September 2016

सरिता ने खीचीं हाथों बिना उम्मीदों की लकीरें


इलाहाबाद यूनिवर्सिटी की फाइन आर्ट छात्रा रही है यह बेटी
आप अगर सरिता की बनाई पेंटिंग और मूर्तियाँ देखेंगे तो आपका दिल कह उठेगा कि इस कलाकार के हाथों में जादू है। मगर जब आपको यह पता चले कि इन शानदार कलाकृतियों की शिल्पी सरिता के हाथ ही नहीं हैं तो आप क्या सोचेंगे। जी हां, भारत की इस बेटी ने अपनी निःशक्तता को ही अपनी ताकत बनाकर एक मिसाल पेश की है। चार साल की उम्र में बिजली के झटके की वजह से दोनों हाथ और बांया पैर खो देने वाली सरिता द्विवेदी ने समाज के सामने ऐसी मिसाल पेश की है जो बिरली ही देखने को मिलती है। सरिता दाँतों में पेंटिंग ब्रश पकड़ कर कागज पर जो कुछ रंगती और बनाती है वह हम या आप अपने हाथों से भी नहीं बना सकते। सरिता अपने पैरों की उंगलियों से मिट्टी में जिस अद्भुत तरीके से लकीरें उकेर कर जान फूँक देती है वैसा कोई आम इंसान नहीं कर सकता।
  आम इंसानों जैसी नहीं है सरिता
व्हील चेयर ही 24 साल की सरिता की जिन्दगी है। वह शाम को अपने दोस्तों के साथ भीड़ भरे बाजार और रेस्तरां में बैठकर बिल्कुल वैसे ही हँसती है जैसे उसके बाकी दोस्त। दाँतों में पेंटिंग ब्रश दबाकर कोरे कागज पर वह रंग बिखेर देती है। उनमें ऐसे चित्रों और दृश्यों को भरती है जिसे देखकर आप वाह-वाह कहे बिना नहीं रह पाएंगे। जिस तेजी से हम मोबाइल उठाकर हैलो कहते हैं वह भी उतनी ही जल्दी मोबाइल पर हैलो कहती है। घूमने की शौकीन सरिता शरीर से सही सलामत लोगों के जैसे कभी इस शहर तो कभी उस शहर की सैर करती है। तो फिर वह हम सबसे अलग कैसे हो सकती है। यही सवाल तो सरिता भी अपने समाज से पूछती है।
एक पैर और दोनों हाथ दुर्घटना में खो चुकी सरिता को अब तक बहादुरी और सशक्तीकरण के लिए दर्जनों पुरस्कार मिल चुके हैं। पेंटिंग्स और स्कल्पचर मेकिंग के लिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त सरिता की उपलब्धियों पर अब हर कोई नाज कर सकता है। सरिता कहती हैं- मैं खुद को कभी किसी से अलग करके नहीं देखती। जिन्दगी में कभी कुछ तय नहीं किया न ही कभी यह सोचा की कुछ अलग करना है। मेरे पास हाथ और पैर नहीं हैं तो क्या समाज मुझे खुद से अलग कर देगा। समाज ऐसा करने वाला कौन होता है। मैं भी आम बच्चों की तरह इलाहाबाद के ओल्ड कैंट केन्द्रीय विद्यालय में पढ़ती थी। जैसे बाकी बच्चे पढ़ते थे वैसे मैं भी क्लास अटेंड करती। पेंटिंग मुझे पसंद थी इसलिए इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के फाइन आर्ट डिपार्टमेंट में दाखिला लिया और कालेज जाने लगी।
सरिता द्विवेदी का अपना फेसबुक पेज है और पर्सनल प्रोफाइल भी। वह अपनी रोजाना की ज़िंदगी से जुड़ी तस्वीरों को शेयर करती है। तस्वीरों को देखकर कोई भी सहजता से यह समझ सकता है की वह विकलांगता को अभिशाप की तरह नहीं बल्कि उसे भुलाकर आम इंसानों की तरह जिन्दगी जी रही है। सरिता का कहना है कि डिसेबल शब्द का मतलब सहानुभूति हासिल करना नहीं होना चाहिए। जो हर तरह से सही सलामत हैं वे हमें लेकर दया दिखाना शुरू कर देते हैं। यह एक तरह का ह्यूमन नेचर है। मुझे बुरा लगता है और मैं ऐसे लोगों से बात करके उनकी यह सोच बदलने के लिए कहती हूँ। यह सोच बदलनी चाहिए। इसके साथ ही जो डिसेबल लोग हैं वे भी अपनी अपंगता को कमज़ोरी की तरह न लें। मैं स्लीवलेस कपड़े पहनती हूं जबकि अक्सर देखा यह गया है कि जिनके हाथ किसी दुर्घटना में खो गए वे इसे छुपाते हैं। हम खुद भी कुछ हद तक सहानुभूति और दया के पात्र बने रहना चाहते हैं।
सरिता ने बातचीत करते हुए एक उदहारण भी पेश किया। उसने कहा- हम घर में कोई परिंदा लाते हैं तो वह परिवार के हर सदस्य को पसंद नहीं आता लेकिन धीरे-धीरे सब लोग उससे फ्रेंडली हो जाते हैं। जो उसे नापसंद करते थे, वह उनकी भी जरूरत बन जाता है तो हम उसे अपना लेते हैं। समय के साथ परिवर्तन सब जगह होता है, बस कोशिश करते रहना चाहिए। विकलांगता कोई अभिशाप या सजा नहीं होती, यह हमारे साथ अनजाने में हुई दुर्घटना भर है। हमें समाज में विकलांगों के प्रति बनाई गई धारणा बदलने के लिए खुद को बदलना होगा। मैं बहुत मस्ती खोर हूँ।
                                  सरिता की उपलब्धियाँ-
सरिता ने कहती हैं कि अब तक मुझे इतने अवार्ड और पुरस्कार मिल चुके हैं कि मैं खुद भी भूल गई हूँ। स्वर्गीय पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने 2005 में बालश्री, 2007 में उपराष्ट्रपति ने विकलांगता सशक्तीकरण के लिए सरिता को पुरस्कृत किया। गोडफ्रे फिलिप्स नेशनल ब्रेवरी अवार्ड 2010 में दिया गया। इजिप्ट एम्बेसी ने 2007 में पेंटिंग्स के लिए सरिता को पुरस्कृत किया। बाल भवन द्वारा पेंटिंग में सिल्वर अवार्ड प्रदान किया गया।
फतेहपुर की रहने वाली सरिता के पिता आर्मी से रिटायर हो चुके हैं। विजय कान्त द्विवेदी की सबसे छोटी बेटी सरिता का एक भाई और दो बहनें हैं। परिवार ने हमेशा से सरिता का साथ दिया और कभी यह अहसास नहीं होने दिया की वह बगैर हाथ और पैर की बच्ची है। खिर में सरिता कहती हैं मैंने अभी तक जो कुछ किया है उससे संतुष्ट नहीं हूँ और बेहतर करने की भूख हमेशा बनी रहती है। अपनी पेंटिंग्स और कला की प्रदर्शनी लगाने की उसकी ख्वाहिश है। परिवार के लिए अपने पैसे से घर भी लेना है। नौकरी भी करनी है। अभी तो सफर बस शुरू हुआ है।





No comments:

Post a Comment