Thursday 29 September 2016

दवा और दुआ से जीतें दिव्यांगों का दिल

                      
               

जियो तो ऐसे जियो की मौत की ख्वाहिश कदमों पर पड़ी हो,
मरो तो ऐसे मरो कि जिन्दगी तुम्हें वापस ले जाने कब्र पर खड़ी हो।
                                   श्रीप्रकाश शुक्ला
समाज में विकलांगता को अभिशाप मानने वालों की कमी नहीं है। देखा जाए तो दुनिया भर में 15 फीसदी आबादी निःशक्त है बावजूद इसके इन्होंने अपनी अदम्य इच्छाशक्ति से दुनिया को दिखाया है कि हम किसी से कम नहीं। हर साल तीन दिसम्बर को दुनिया भर में विश्व विकलांग दिवस ढेरों आश्वासनों के बीच मनाया जाता है लेकिन जमीनी हकीकत किसी से छिपी नहीं है। वर्ष 1976 में संयुक्त राष्ट्र आमसभा द्वारा विकलांगजनों के लिए एक दिवस तय किया गया, जिसकी घोषणा वर्ष 1981 को की गई। उस समय अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर विकलांगजनों के पुनरुद्धार, रोकथाम, प्रचार और बराबरी के मौकों पर जोर देने के लिये योजना बनायी गयी थी। समाज में उनकी बराबरी के विकास के लिये विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों के बारे में लोगों को जागरूक करने, सामान्य नागरिकों की तरह ही उनकी सेहत पर भी ध्यान देने और उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिये पूर्ण सहभागिता और समानता का थीम निर्धारित किया गया था। सरकारी और निजी संगठनों के लिये निर्धारित समय-सीमा प्रस्ताव के लिये संयुक्त राष्ट्र आमसभा द्वारा विकलांग व्यक्तियों के उद्धार को वर्ष 1983 से 1992 को विकलांग राष्ट्र दशक घोषित किया गया था। इसका मकसद विकलांगों के लिए अनुशंसित क्रियाकलापों को ठीक ढंग से लागू करना था। अफसोस इस दिशा में सुधार की बजाय स्थिति और भयावह हुई है।
दरअसल विकलांगता एक ऐसी परिस्थिति है जिससे आप चाहकर भी पीछा नहीं छुड़ा सकते। एक सामान्य व्यक्ति छोटी-छोटी समस्याओं पर झुंझला उठता है तो जरा विचार कीजिए दुनिया की उस 15 फीसदी आबादी की, जिनका खुद का शरीर साथ छोड़ देता है। फिर भी जीना कैसे है, कोई इनसे सीखे। कई लोग ऐसे हैं जिन्होंने विकलांगता जैसी कमज़ोरी को अपनी ताकत बनाया है, तो कई लोग ऐसे भी हैं जो जिन्दगी से निराश होकर इसी कमजोरी पर सिर्फ आंसू बहा रहे हैं। इनके आंसू कैसे थमें, इसके लिए साल में सिर्फ एक दिन बहुत बड़ी-बड़ी बातें होती हैं लेकिन अगले ही दिन से हम विकलांगजनों से मुंह फेर लेते हैं। समाज की यही उपेक्षा इन्हें हीनभावना का शिकार बना देती है। दरअसल, हम उनकी कमजोरी का मजाक उड़ाकर उन्हें और कमजोर बना रहे हैं। हमें इन पर दया दिखाने की बजाय मदद को आगे आना चाहिए। यह भी हमारे समाज का अभिन्न अंग हैं, इन्हें भी जीवन जीने का पूरा हक है। यह तभी मुमकिन है जब हम इन्हें अहसास करने का मौका दें कि वे भी किसी से कम नहीं। यदि हम इनकी उपेक्षा करते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब यही लोग अलग प्रांत जैसी मांग करेंगे जहाँ इन्हें सुकून और शांति की जिन्दगी मिल सके। सरकार की भी कोशिश होनी चाहिए कि वह भी इन्हें अधिकारों से रूबरू कराए, बंदी न बनने दे। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अपंग और विकलांग कोई भी, कभी भी हो सकता है।
जरा सोचिए इनके हालातों पर। आज के समय में जब खून के रिश्ते तक धोखा दे जाते हैं तो इन्हें अपना सहारा स्वयं बनना पड़ता है। सोचिए यदि आपका खुद का शरीर ही साथ न दे तो आप किस उम्मीद पर जिएंगे, किसके सहारे जिएंगे। सामाजिक उपेक्षा के दंश के चलते ही यह अपनी अलग दुनिया बनाकर खुश रहना सीख लेते हैं। लोगों की हीनभावना ही इन्हें आहत करती है। यह रोज जीते और रोज मरते हैं। कहने को केन्द्र और राज्य सरकारों ने इनके लिए कई योजनाएं चला रखी हैं, मगर क्या सिर्फ इतना ही इनके लिए काफी होगा। विकलांग दिवस सुनिश्चित कर देने मात्र से क्या यह खुश रह सकते हैं। इन्हें हर रोज स्नेह की जरूरत है। जब तक समाज का प्यार इन्हें हर रोज नहीं मिलेगा इनका आत्मसम्मान मर्माहत-आहत होता ही रहेगा।
हम विकलांग लोगों को बेसहारा और अछूत मानने का गुनाह हर रोज करते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि भगवान ने इन्हें भी दो आँखें, दो कान, दो हाथ और दो पैर दिए हैं, अगर इनमें से कोई अंग काम नहीं करता तो इसमें इनकी क्या गलती। यह तो नसीब का खेल है, इंसान तो यह तब भी कहलाएंगे ही। हमारा समाज इनकी मदद ना भी करे तब भी उसे इनके साथ जानवरों सा बर्ताव करना तो कदाचित उचित नहीं है। इंसानी दुनिया को देखें तो किसी के पास पैसे की कमी है, किसी के पास खुशियों की, किसी के पास काम की। वैसे ही अगर इनके शारीरिक, मानसिक, ऐन्द्रिक या बौद्धिक विकास में किसी तरह की कमी रह भी गई है तो यह अछूत नहीं हो जाते। जब कमी सब में कुछ न कुछ है तो निःशक्तों को ही हेय-नजर से आखिर क्यों देखा जाए।
अगर हम इनकी मदद की पहल करें तो हर कोई चैन के साथ रह सकता है। अगर किसी की सुनने की शक्ति कमजोर है तो उसे लिप-रीडिंग यानी होठों से पढ़ने में दक्ष किया जा सकता है। इनकी आंखों का इस्तेमाल करके इन्हें सशक्त बनाया जा सकता है। वैसे ही अगर कोई देख नहीं सकता तो उसके सुनने की शक्ति को इतना मजबूत बना दें कि वह कानों से ही देखने लगे और नाक से महसूस कर ले। कोई अंग खराब है तो उसे ऐसा पहनावा दें कि उसका वह अंग छिप जाए और इंसान पूरे आत्मविश्वास के साथ सर उठाकर चल सके। विकलांगता को अभिशाप मानने की गलती करने की बजाय हम इनकी थोड़ी सी मदद और हौसला देकर विकलांगता के दंश पर मरहम लगा सकते हैं। वैसे भी दवा और दुआ ही तो दो ऐसे विकल्प हैं जिन पर यह दुनिया चलती है। हम निःशक्तता की समस्या को इस दुनिया से मिटा तो नहीं सकते पर हाँ इससे लड़कर इसे दुनिया से गायब जरूर कर सकते हैं।


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