भारत बदल रहा है। हमारे समाज की सोच के साथ उसके सरोकारों में भी अब बदलाव दिखने लगा है। कल तक जो क्षेत्र सिर्फ और सिर्फ पुरुषों के लिए आबाद थे, उनमें बेटियां भी न केवल दखल दे रही हैं बल्कि अपनी कामयाबी से मुल्क के गौरव को चार चांद भी लगा रही हैं। भारत के लम्बे ओलम्पिक इतिहास को देखें तो महिला शक्ति का शानदार आगाज 21वीं सदी में ही हुआ है। 2000 सिडनी ओलम्पिक से रियो ओलम्पिक तक भारत की पांच बेटियां भारोत्तोलक कर्णम मल्लेश्वरी, मुक्केबाज एम.सी. मैरीकाम, शटलर साइना नेहवाल, पी.वी. सिन्धू और पहलवान दीक्षा मलिक मैडल के साथ वतन लौटी हैं। इसमें पैरा एथलीट दीपा मलिक का भी शुमार कर लें तो यह संख्या छह हो जाती है। इसे हम देश में महिला शक्ति का अभ्युदय कहें तो सही होगा। इन छह बेटियों में तीन तो उस राज्य हरियाणा से ताल्लुक रखती हैं जिसे रूढ़िवादी और पुरुष प्रधान समाज के लिए जाना जाता है। हरियाणा में लड़कों के मुकाबले लड़कियों की संख्या काफी कम है। अब इन बेटियों के मैदानों में करिश्माई प्रदर्शन और सफलता के बाद उम्मीद बंधी है कि लोग बेटियों को बेटों से कमतर मानने की भूल नहीं करेंगे।
खेल मैदानों में बेटियों का करामाती प्रदर्शन
ओलम्पिक तक ही सीमित नहीं है। यदि हम सैफ खेलों, एशियन खेलों, राष्ट्रमण्डल खेलों और
क्रिकेट मैदानों पर नजर डालें तो पी.टी. ऊषा, अंजू बाबी जार्ज, सानिया मिर्जा,
डायना एडुलजी, संध्या अग्रवाल, मिताली राज सहित दो सौ से अधिक बेटियां अपने शानदार
खेल कौशल से मुल्क को गौरवान्वित कर चुकी हैं। भारतीय बेटियों के लिए खेल मैदान
कभी मुफीद नहीं माने गये, वजह एक नहीं अनेक हैं। कभी हमारी रूढ़िवादी परम्पराएं तो
कभी लोग क्या कहेंगे जैसी दकियानूसी बातें बेटियों की राह का रोड़ा बन जाती हैं। देखा
जाए तो अधिकांश खेलों में गरीब और मध्यम वर्ग की बेटियां ही खेल खेल में खिलाड़ी
बनी हैं। एक समय था जब खिलाड़ियों पर धन वर्षा नहीं होती थी तब लोगों का नजरिया था
कि बेटियां तो दूसरे की अमानत होती हैं, जिनका जीवन चूल्हे-चौके तक ही सीमित होता
है। अब ऐसी बात नहीं है। आज खेलों में हासिल सफलता हर क्षेत्र से बड़ी है। 21वीं
सदी में देश ने देखा कि बेटियों ने अपनी शानदार दस्तक से सब कुछ बदल कर रख दिया
है।
ओलम्पिक में भारतीय महिलाओं की सहभागिता की
जहां तक बात है, मेरी लीला रो भारत की तरफ से ओलम्पिक
खेलों में शिरकत करने वाली पहली महिला खिलाड़ी हैं तो पैरालम्पिक में तीरंदाज पूजा
ने पहली बार लक्ष्य पर निशाने साधे थे। 1984 के लॉस एंजिल्स ओलम्पिक
खेलों में सेकेण्ड के सौवें हिस्से से पदक से चूकी पी.टी. ऊषा के सपने को 2000
सिडनी ओलम्पिक में भारोत्तोलक कर्णम मल्लेश्वरी ने कांस्य पदक जीतकर साकार किया
था। ओलम्पिक इतिहास में पहली
भारतीय महिला विजेता होने का श्रेय कर्णम मल्लेश्वरी को ही जाता है। जब वर्ष 2000
में कर्णम मल्लेश्वरी सिडनी ओलम्पिक में भाग लेने पहुँचीं तब तक एवरेस्ट के शिखर
पर एक नहीं दो-दो भारतीय महिलाएं कदम रख चुकी थीं। तब तक महिलाएं वायुसेना में हेलीकॉप्टर
भी उड़ाने लगी थीं और एक महिला भारत की प्रधानमंत्री भी बन चुकी थी लेकिन किसी
भारतीय महिला ने ओलम्पिक में पदक नहीं जीता था। सिडनी ओलम्पिक में यह कारनामा कर
दिखाया श्रीकाकुलम आंध्रप्रदेश में जन्मी कर्णम मल्लेश्वरी ने। कर्णम मल्लेश्वरी ने महिलाओं के 69 किलो भारवर्ग की
भारोत्तोलन प्रतियोगिता में कांस्य पदक से अपना गला सजाया। उस दिन मल्लेश्वरी ने
240 किलो वजन उठाया। स्नैच में 110 किलो और क्लीन और जर्क में 130 किलो। उस दिन
मल्लेश्वरी अपने प्रशिक्षक की त्रुटि के चलते स्वर्ण पदक से वंचित रह गई। दरअसल,
इस तरह की प्रतियोगिताओं में आखिरी लिफ्ट में अधिक से अधिक ढाई किलो या फिर बहुत
हुआ तो पाँच किलो वजन बढ़ाया जाता है लेकिन मल्लेश्वरी के प्रशिक्षक ने उससे 137
किलो वजन उठाने को कहा। अगर वह 132 किलो भी उठा लेती तो स्वर्ण उसी का था। यदि उस
दिन मल्लेश्वरी 132 किलो वजन उठाती तो तीनों प्रतिस्पर्धियों के वजन बराबर होते, चूँकि
मल्लेश्वरी का शारीरिक वजन उन दोनों से कम था इसलिए स्वर्ण पदक उसे ही मिलता। खैर,
मल्लेश्वरी से पहले 1988 में भारत की एथलीट पीटी ऊषा पदक के बेहद करीब पहुंची थीं। 1980 के मास्को ओलम्पिक में ऊषा किसी स्पर्धा के फाइनल में पहुँचने वाली पहली
भारतीय महिला बनी थीं। 1984 के लॉस एंजिल्स ओलम्पिक में 400 मीटर हर्डल्स में ऊषा चौथे स्थान पर रहीं।
सिडनी के बाद भारतीय महिलाओं को अपने दूसरे
ओलम्पिक पदक के लिए 12 साल का लम्बा इंतजार करना पड़ा। 2012 के लंदन ओलम्पिक में
पांच बार की विश्व चैम्पियन मुक्केबाज एम.सी. मैरीकाम और शटलर साइना नेहवाल ने
अपने-अपने गले कांसे के पदक से सजाए। मुक्केबाज़ एम.सी. मैरीकॉम रियो ओलम्पिक तो
नहीं खेल पाईं लेकिन 2012 में लंदन ओलम्पिक में भारत को मुक्केबाजी में पदक दिलाकर साबित किया कि वह
वाकई रिंग मास्टर हैं। मैरीकाम ने एशियन चैम्पियनशिप में चार तो 2014 के एशियन गेम्स में भी स्वर्ण पदक जीता था।
मैरीकाम के इस करिश्माई प्रदर्शन को कमतर नहीं माना जा सकता क्योंकि भारत का कोई
पुरुष मुक्केबाज आज तक इतनी कामयाबी हासिल नहीं कर सका है।
लंदन ओलम्पिक में मैरीकाम के अलावा भारत की
बेटी और बैडमिंटन में चीनी दीवार लांघने वाली साइना नेहवाल ने भी कांस्य पदक जीतकर
भारतीय खुशी को दोगुना कर दिया था। बैडमिंडन में ओलम्पिक मैडल जीतने वाली वह पहली
भारतीय महिला बैडमिंटन खिलाड़ी हैं। साइना ने 2010 के दिल्ली राष्ट्रमंडल खेलों में भी स्वर्ण
पदक जीता था। ओलम्पिक 2012 में कांस्य पदक के लिए साइना का मैच चीनी खिलाड़ी और उस समय की विश्व नम्बर दो जिंग वैंग से था। वैंग के घायल होने की वजह से साइना को विजयी घोषित किया गया
और उन्हें कांस्य पदक मिला। साइना उसके बाद से कई बड़े खिताब जीत चुकी हैं। भारत
की यह शटलर चोटिल होने के कारण रियो ओलम्पिक में बेशक पदक नहीं जीत पाई लेकिन
बैडमिंटन खेल में इसने पूरी दुनिया में भारत को पहचान जरूर दिलाई है।
लंदन में भारतीय बेटियों के दो पदक जीतने के
बाद उनसे रियो ओलम्पिक में काफी उम्मीदें बढ़ गई थीं। खुशी की ही बात है कि भारतीय
बेटियों साक्षी मलिक और पी.वी. सिन्धू ने यहां भी भारतीय खेलप्रेमियों को निराश
नहीं होने दिया। दरअसल जो काम ओलम्पिक इतिहास में कोई भारतीय महिला खिलाड़ी नहीं
कर सकी वह काम स्टार शटलर पीवी सिन्धू ने रियो ओलम्पिक में कर दिखाया। सिन्धू
ओलम्पिक में चांदी का पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला खिलाड़ी बनीं। राष्ट्रीय और
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी प्रतिभा का जलवा दिखा चुकी इस खिलाड़ी से लोगों को
काफी उम्मीदें थीं और इसने सवा अरब लोगों को निराश भी नहीं किया। 5 फुट 10 इंच की सिन्धू ने वर्ष 2009 में पहली बार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने दमखम का परिचय
दिया था। उसने 2009 में कोलम्बो में आयोजित सब जूनियर एशियाई
बैडमिंटन चैम्पियनशिप में कांस्य पदक जीता, इसके बाद 2010 में ईरान फज्र इंटरनेशनल बैडमिंटन चैलेंज के एकल वर्ग में चांदी
का तमगा हासिल किया। सिन्धू के जीवन में उल्लेखनीय सफलता सात जुलाई, 2012 को आई जब
इसने एशिया यूथ अण्डर-19 चैम्पियनशिप के फाइनल में जापान की खिलाड़ी नोजोमी ओकुहरा
को हराया। इसके बाद वर्ष 2013 में सिन्धू ने चीन के ग्वांग्झू में आयोजित 2013 की
विश्व बैडमिंटन चैम्पियनशिप में एकल पदक जीतकर इतिहास रचा। ऐसा करने वाली वह पहली
भारतीय महिला बैडमिंटन खिलाड़ी बनीं। एक दिसम्बर, 2013 को सिन्धू ने कनाडा की
मिशेल ली को हराकर मकाऊ ओपन ग्रांप्री गोल्ड का महिला सिंगल्स खिताब भी जीत
दिखाया।
पी.वी. सिन्धू का पूरा नाम पुसरला वेंकट सिन्धू
है। पी.वी. सिन्धू के पिता पी.वी. रमण और मां का नाम पी. विजया है। पी.वी. सिन्धू
के पिता वालीबाल के राष्ट्रीय खिलाड़ी हैं, उन्हें वर्ष 2000 में भारत सरकार का
अर्जुन पुरस्कार प्राप्त हो चुका है। सिन्धू की मां भी एक वालीबॉल खिलाड़ी हैं और
उनकी इच्छा थी कि उनकी बेटी भी इस खेल को अपनाये और उनके सपनों को पूरा करे लेकिन
सिन्धू जब छह वर्ष की थी, उस समय देश को एक बड़ी सफलता मिली। उस वर्ष भारत के
शीर्ष बैडमिंटन खिलाड़ी पुलेला गोपीचंद ने ऑल इंग्लैण्ड ओपन बैडमिंटन चैम्पियनशिप
जीती। इससे सिन्धू इतनी उत्साहित हुई कि उसने भी बैडमिंटन को अपना कैरियर बनाने का
निश्चय कर लिया। महबूब अली से बैडमिंटन की एबीसीडी सीखने के बाद सिन्धू ने बाद में
पुलेला गोपीचंद की बैडमिंटन अकादमी को ज्वाइन किया और पढ़ाई के साथ-साथ बैडमिंटन
में भी महारत हासिल की।
भारत में पहलवानी को बेटियों का खेल नहीं माना
जाता बावजूद इसके हरियाणा की साक्षी मलिक ने अपनी लगन और मेहनत से ओलम्पिक में
पहलवानी का पहला कांस्य पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला पहलवान बनीं। इससे पहले भारत
की इस बेटी ने 2014 के कॉमनवेल्थ
गेम्स में चांदी का पदक जीता था। एक समय था जब हरियाणा में लड़कियों को कुश्ती
खेलने के लिए ज्यादा प्रोत्साहित नहीं किया जाता था लेकिन पिछले 10 साल में हालात काफी बदल चुके हैं। साक्षी के
लिए भी अखाड़े तक पहुंचना आसान बात नहीं थी। उसे और उसके परिवार को इसके लिए कई
सामाजिक परम्पराओं से लड़ना पड़ा। साक्षी ने 2002 में अपने कोच ईश्वर दहिया के साथ पहलवानी शुरू
की। लाख विरोध के बावजूद आखिरकार उसने रियो में अपना सपना साकार कर दिखाया।
साक्षी कोई 12 साल से एक रूटीन लाइफ जीती आ रही
हैं। सुबह चार बजे उठना फिर प्रैक्टिस करना और नौ बजे वापस आना, थोड़ी देर सोना,
खाना-पीना और फिर शाम को वापस प्रैक्टिस पर जाना। सच कहें तो साक्षी की यह तपस्या
है। लड़कों की अपेक्षा लड़कियों का सफर काफी कठिन होता है लेकिन साक्षी के साथ
उसका परिवार हमेशा रहा है। उसके माता-पिता सिर्फ उसे खेल पर ध्यान देने की ही बात
करते हैं। हरियाणा की जहां तक बात है कल तक यहां की बेटियों को खेलों की आजादी
नहीं थी लेकिन महावीर फोगाट ने इस मिथक को तोड़ा है और आज उनके घर में एक-दो नहीं
बल्कि पांच बेटियां अंतरराष्ट्रीय पहलवान हैं। इसी घर से प्रभावित होकर ही सलमान
खान ने दंगल फिल्म बनाई है जोकि इन दिनों सिनेमा घरों में धूम मचा रही है। डिस्कस
थ्रोवर कृष्णा पूनिया और सीमा पूनिया को भला कौन नहीं जानता, यह दोनों भी हरियाणा
की ही देन हैं।
रियो में शटलर पी.वी. सिन्धू और पहलवान दीक्षा
मलिक की शानदार कामयाबी ने पैरा एथलीट दीपा मलिक के लिए प्रेरणा का काम किया।
स्वीमर से एथलीट बनीं दीपा मलिक ने इतिहास रचते हुए गोला फेंक एफ-53 में चांदी का पदक जीतकर पैरालम्पिक खेलों में पदक
हासिल करने वाली देश की पहली महिला खिलाड़ी बनीं। दीपा ने अपने छह प्रयासों में से
सर्वश्रेष्ठ 4.61 मीटर गोला फेंका और यह रजत पदक हासिल करने के
लिए पर्याप्त था। बहरीन की फातिमा नदीम ने 4.76 मीटर गोला फेंककर स्वर्ण तो यूनान की दिमित्रा कोरोकिडा ने 4.28 मीटर के साथ कांस्य पदक हासिल किया। दीपा की कमर से नीचे का
हिस्सा लकवाग्रस्त है। वह सेना के अधिकारी की पत्नी और दो बेटियों की मां हैं। 17
साल पहले रीढ़ में ट्यूमर के कारण उनका चलना असम्भव हो गया था। दीपा के 31 ऑपरेशन
किए गये और उनकी कमर तथा पांव के बीच 183 टांके लगे। गोला फेंक के अलावा दीपा ने
भाला फेंक, तैराकी में भी भाग लिया था। वह अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में तैराकी
में पदक जीत चुकी हैं। भाला फेंक में उनके नाम पर एशियाई रिकॉर्ड है जबकि गोला
फेंक और चक्का फेंक में उन्होंने 2011 में विश्व चैम्पियनशिप में रजत पदक जीते थे।
दीपा भारत की राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में 33 स्वर्ण तथा चार रजत पदक जीत चुकी हैं। वह भारत की एक ऐसी पहली महिला हैं जिन्हें हिमालयन कार
रैली में आमंत्रित किया गया। वर्ष 2008 तथा 2009 में उन्होंने यमुना नदी में तैराकी तथा स्पेशल बाइक सवारी में भाग लेकर दो
बार लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में अपना नाम दर्ज कराया। पैरालम्पिक खेलों में दीपा
की उल्लेखनीय उपलब्धियों के कारण उन्हें भारत सरकार द्वारा अर्जुन पुरस्कार दिया
जा चुका है। भारत की इन बेटियों के अलावा जिम्नास्ट दीपा करमाकर और लम्बी दूरी की
धावक ललिता बाबर ने भी रियो में अपने दमदार प्रदर्शन से दुनिया भर में वाहवाही
लूटी। यह तो शुरुआत है आने वाले ओलम्पिक खेलों में भारतीय बेटियां और भी दमदार
प्रदर्शन का मुल्क का नाम रोशन करेंगी।
No comments:
Post a Comment