Thursday 22 September 2016

रियो पैरालम्पिक खेलः दिव्यांगों ने जमाई धाक

                  
                

देवेन्द्र झाझड़िया ने भाला फेंक में बनाया कीर्तिमान

पैरालम्पिक में दो स्वर्ण जीतने वाले पहले भारतीय एथलीट
दीपा मलिक पैरालम्पिक खेलों में पदक जीतने वाली पहली भारतीय महिला
              श्रीप्रकाश शुक्ला
चैम्पियन चीन तथा ब्रिटेन व अमेरिकी दिव्यांग खिलाड़ियों की अदम्य इच्छाशक्ति से परे भारतीय दिव्यांग खिलाड़ियों ने भी रियो पैरालम्पिक खेलों में दो स्वर्ण, एक रजत और एक कांस्य पदक के साथ भारत को तालिका में 42वां स्थान दिलाने में अहम भूमिका निभाई। भारतीय दिव्यांग खिलाड़ियों की यह उपलब्धि कई मायनों में खास है। हमारे 117 सक्षम खिलाड़ियों ने इसी रियो में दो बेटियों शटलर पी.वी. सिन्धू और पहलवान साक्षी मलिक के पदकों की बदौलत बमुश्किल मुल्क को शर्मसार होने से बचाया था तो पैरालम्पिक खेलों में महज 19 सदस्यीय दल ने दो स्वर्ण सहित चार पदक जीतकर धाक जमाई। ओलम्पिक खेलों में भारतीय बेटियों के नायाब प्रदर्शन की बात करें तो 16 साल में छह महिला खिलाड़ियों ने मादरेवतन का मान बढ़ाया है। भारोत्तोलक कर्णम मल्लेश्वरी ने 2000 के सिडनी ओलम्पिक में भारतीय महिलाओं की तरफ से पहला पदक जीता था। मल्लेश्वरी के बाद 2012 लंदन ओलम्पिक खेलों में शटलर साइना नेहवाल और मुक्केबाज एम.सी. मैरीकाम ने अपने कांस्य पदकों से महिला शक्ति का शानदार आगाज किया तो इसी साल रियो ओलम्पिक में भी दो बेटियों ने ही धमाल मचाया। पैरालम्पिक खेलों में स्वीमर से एथलीट बनी हरियाणा की दीपा मलिक गोला फेंक में चांदी का तमगा जीतने वाली पहली भारतीय महिला खिलाड़ी हैं। मेरी लीला रो भारत की तरफ से ओलम्पिक खेलों में शिरकत करने वाली पहली महिला खिलाड़ी रही हैं। पैरालम्पिक में तीरंदाज पूजा ने पहली बार लक्ष्य पर निशाने साधे थे।
अगस्त में रियो ओलम्पिक में गए अब तक के सबसे बड़े दल के खिलाड़ियों के लिये भारतीयों ने जो दुआएं की थीं वे जाकर पैरालम्पिक खेलों में फलीभूत हुईं। पदकों के तीन रंग स्वर्ण, रजत व कांस्य तिरंगे से जुड़े हैं। हरियाणा इस बात पर गर्व कर सकता है कि इस कामयाबी में उसकी बड़ी हिस्सेदारी है। पहले सामान्य वर्ग में साक्षी मलिक की कामयाबी और अब दीपा मलिक की। दोनों ने इतिहास रचा है। यह दोनों जांबाज अपने खेलों में पदक हासिल करने वाली भारत की पहली महिला खिलाड़ी हैं। यह कहने में जरा भी गुरेज नहीं कि हरियाणा में जो खेल संस्कृति विकसित की गई उसके सार्थक परिणाम सामने आने लगे हैं। पिछली तीन ओलम्पिक प्रतियोगिताएं इस बात का गवाह हैं कि इनमें हरियाणवी खिलाड़ियों ने मुल्क को एक न एक पदक जरूर दिलवाये हैं। हरियाणा में खेलों की इस कामयाबी के बावजूद दिव्यांग दीपा मलिक की कामयाबी का कद और बड़ा हो जाता है। कुदरत द्वारा दी गई अपूर्णता को उन्होंने अपनी अदम्य इच्छाशक्ति से पूर्णता में बदल दिखाया। कितना प्रेरक है कि जिसका धड़ से नीचे का हिस्सा लकवाग्रस्त हो जाये वह मुल्क को पदक दिलाने का संकल्प बना ले। 31 सर्जरी और 183 टांकों की टीस से गुजरने वाली दीपा में जीत का हौसला तब तक कायम रहा, जब तक कि उसने चांदी का पदक गले में नहीं डाल लिया।
हमें सोना जीतने वाले खिलाड़ी मरियप्पन थंगवेलु, देवेन्द्र झाझरिया व कांस्य पदक विजेता वरुण भाटी को भी याद करना चाहिए। वे भी भारतीय सुनहरी कहानी के महानायक हैं। इन्होंने अपने दर्द को लाचारी नहीं बनने दिया। अपने जोश व हौसले को जिन्दा रखा। भारतीयों के सामने मिसाल रखी कि हालात कितने ही विषम हों, जीत का हौसला कायम रखो। विडम्बना है कि खाते-पीते स्वस्थ लोग जरा-सी मुश्किल से घबराकर आत्महत्या जैसा आत्मघाती कदम उठा लेते हैं लेकिन इन पदक विजेताओं को देखिये, इन्हें समाज की उपेक्षा व सम्बल देने वाली नीतियों के अभाव में भी जीतना आया। बेल्जियम की रियो पैरालम्पिक पदक विजेता मेरिएके वेरवूर्ट के जीवन में आये बदलाव को देखिये। बेल्जियम सरकार से इच्छा मृत्यु की गुहार लगाने वाली यह पैरा खिलाड़ी अब कहती है कि फिलहाल मैं जीवन को भरपूर जीना चाहती हूं। रीढ़ की हड्डी की असाध्य बीमारी से जूझ रही वेरवूर्ट कहती हैं कि इच्छा मृत्यु का विकल्प उसके पास है मगर अभी उसकी जरूरत नहीं है।
पैरालम्पिक खेलों का मौजूदा ग्लैमर दूसरे विश्व युद्ध के घायल सैनिकों को फिर से मुख्यधारा में लाने के मकसद से हुआ। स्पाइनल इंज्यूरी के शिकार सैनिकों को ठीक करने के लिए खासतौर से इसे शुरू किया गया था। साल 1948 में दूसरे विश्व युद्ध में घायल हुए सैनिकों की स्पाइनल इंज्यूरी को ठीक करने के लिए स्टोक मानडेविल अस्पताल में काम कर रहे न्यूरोलाजिस्ट सर गुडविंग गुट्टमान ने इस रिहेबिलेशन कार्यक्रम के लिए स्पोर्ट्स को चुना, इन खेलों को तब अंतरराष्ट्रीय व्हीलचेयर गेम्स का नाम दिया गया था। वर्ष 1948 में लंदन में ओलम्पिक खेलों का आयोजन हुआ और इसी के साथ ही डॉक्टर गुट्टमान ने दूसरे अस्पताल के मरीजों के साथ एक खेल प्रतियोगिता की भी शुरुआत की। 1952 में फिर इसका आयोजन हुआ। इस बार इन खेलों में ब्रिटिश सैनिकों के साथ ही डच सैनिकों ने भी हिस्सा लिया। इस तरह इससे पैरालम्पिक खेलों के लिए जमीन तैयार हुई। 1960 रोम में पहले पैरालम्पिक खेल हुए, इसमें 23 देशों के 400 खिलाड़ियों ने हिस्सा लिया। शुरुआती पैरालम्पिक खेलों में तैराकी को छोड़कर खिलाड़ी सिर्फ व्हीलचेयर के साथ ही भाग ले सकते थे लेकिन 1976 में दूसरी तरह के पैरा लोगों को भी पैरालम्पिक में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया।
देखा जाए तो 1980 के दशक में ही इन खेलों में क्रांति आई। 1988 में कोरिया की राजधानी सियोल में हुए ओलम्पिक खेलों के तत्काल बाद वहां पैरालम्पिक खेलों का आयोजन किया गया। सियोल में खेलों को सफल बनाने के लिए पैरालम्पिक कमेटी और अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक महासंघ ने जबरदस्त काम किया नतीजन 1992 बार्सिलोना ओलम्पिक में पैरालम्पिक एथलीटों की तादात एकदम से बढ़ गई। इस बार 82 देशों के 3500 एथलीटों ने अपना दमखम दिखाया तो स्टेडियम खेलप्रेमियों से पूरी तरह से भरे नजर आए। 1996 अटलांटा पैरालम्पिक में रिकॉर्डतोड़ देशों के दिव्यांग खिलाड़ियों ने हिस्सा लिया। इसके बाद सिडनी पैरालम्पिक खेलों में 132 देशों के खिलाड़ियों ने शिरकत की। इन खेलों में पहली बार रग्बी और व्हीलचेयर बॉस्केटबॉल जैसे खेलों को लाया गया। 2004 के एथेंस पैरालम्पिक खेलों में 135 देशों के खिलाड़ियों ने हिस्सा लिया। इसमें 17 नए देश और 19 नए खेलों को शामिल किया गया। 2004 में 304 वर्ल्ड रिकॉर्ड बने।
आमतौर पर पैरालम्पिक खेलों से आम जनता अनजान रहती है। अब तक हुए पैरालम्पिक खेलों में भारत का प्रदर्शन कोई खास नहीं रहा बावजूद इसके कुछ ऐसे भारतीय एथलीट रहे हैं जिन्होंने अपने लाजवाब प्रदर्शन से इन खेलों को भी यादगार बनाया। भारतीय पैरा एथलीटों को व्यक्तिगत पदक लाने में 56 साल लगे। पहला व्यक्तिगत गोल्ड मेडल हासिल करने के लिए भारत को 112 साल का लम्बा इंतजार करना पड़ा। साल 1972 हैडिलवर्ग पैरालम्पिक में भारत के मुरलीकांत पेटकर ने 50 मीटर फ्री स्टाइल-3 तैराकी में गोल्ड मेडल जीतकर इतिहास रचा था। अपने फौलादी हौसले से पेटकर उन लोगों के लिए आदर्श बने जो किन्हीं वजहों से अक्षम हो जाते हैं। पेटकर बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने 1968 पैरालम्पिक खेलों की टेबल टेनिस प्रतियोगिता में भी हिस्सा लिया था और दूसरे दौर तक पहुंचे थे लेकिन उन्हें यह अहसास हुआ कि वे तैराकी में ज्यादा बेहतर कर सकते हैं। पेटकर पैरा एथलीट होने से पहले भारतीय सेना में थे। एक फौजी होने के नाते पेटकर ने कभी हारना तो सीखा नहीं था फिर हुआ भी कुछ ऐसा ही। तैराकी में वे सोने का तमगा जीतकर लौटे। यह भारतीय पैरा खेलों के लिए सबसे बड़ी उपलब्धि थी। 1972 हैडिलवर्ग में ही भारत की ओर से तब सबसे ज्यादा तीन महिलाओं ने भाग लिया था। पैरालम्पिक में शिरकत करने वाली पहली भारतीय महिला तीरंदाज पूजा हैं।
दिव्यांगों का हौसला बढ़ाने की जहां तक बात है, हमारे समाज में अब भी प्रगतिगामी नजरिया नहीं बन पाया है। हम इसे जीवन भर की मुसीबत के रूप में देखते हैं, जिससे मौत के बाद ही मुक्ति मिल सकती है। भारत में दिव्यांगों को दया की नजर से देखा जाता है, बावजूद इसके सारी परेशानियों को ठेंगा दिखाते हुए कुछ भारतीय दिव्यांगों ने इस कमजोरी को ही फौलादी शक्ल में बदल दिखाया। नृत्यांगना अभिनेत्री सुधा चंद्रन, एवरेस्ट फतह करने वाली अरुणिमा सिन्हा, संगीतकार स्वर्गीय रवीन्द्र जैन जैसे दर्जनों उदाहरण देखने के बावजूद हमारे समाज में विकलांगता में छिपी शक्ति को देखने की प्रवृत्ति अभी पल्लवित नहीं हो सकी है। हमारी हुकूमतों ने इनके लिए कई नीतियां बनाई हैं, कई तरह की सुविधाएं देने का दावा किया जाता है लेकिन सार्वजनिक स्थलों, विद्यालयों, अस्पतालों आदि में विकलांगों के लिए अलग व्यवस्था न होने का संताप उन्हें भुगतना पड़ता है। समाज और सरकार की ओर से बहुत ज्यादा सहयोग न मिलने के बावजूद पैरालम्पिक जैसे विश्व स्तरीय खेलों में अगर हमारे चार खिलाड़ी पदक हासिल करते हैं तो यह बड़ी उपलब्धि है।
रियो पैरालम्पिक में कुछ खास बातें भी हुईं जैसे ऊंची कूद में एक स्वर्ण और एक कांस्य लेकर पहली बार दो भारतीय खिलाड़ी एक साथ पोडियम पर चढ़े। मरियप्पन थंगावेलू ने स्वर्ण जीता तो इसी प्रतियोगिता में वरुण भाटी ने कांस्य पदक से अपना गला सजाया। मरियप्पन जब बहुत छोटे थे तभी नशे में धुत एक ट्रक ड्राइवर ने उन पर ट्रक चढ़ा दी थी और उन्हें अपना पैर खोना पड़ा। विकलांगता के कारण उनके पिता ने उन्हें छोड़ दिया और मां ने कठिन परिश्रम कर उन्हें पाला-पोसा। बेहद गरीबी में जीकर भी अपने हौसले से स्वर्ण पदक हासिल करने वाले इस खिलाड़ी पर अब सौगातों की बरसात हो रही है। मरियप्पन की मां आज भी सब्जी बेचकर अपने परिवार का भरण-पोषण करती हैं। मरियप्पन की आर्थिक कठिनाइयां तो दूर होनी ही चाहिए, लेकिन सरकार को यह भी सोचना चाहिए कि उनकी तरह आर्थिक तंगी में जी रहे और भी बहुत से खिलाडिय़ों को अगर सुविधाएं-संसाधन मुहैया कराए जाएं तो पदक तालिका में हम और ऊंचे पहुंच सकते हैं।
ऊंची कूद में कांस्य पदक हासिल करने वाले वरुण प्रारम्भ में बास्केटबाल खिलाड़ी थे और अच्छा खेलते भी थे लेकिन विकलांग होने के कारण उन्हें बाहर होने वाले मैचों में नहीं ले जाया जाता था और कई बार स्कूल में भी खेल से बाहर कर दिया जाता था। इस संवेदनहीनता से वरुण हारे नहीं और बास्केटबाल छोड़कर ऊंची कूद में भी अपना हुनर दिखाया और पदक विजेता बनकर सारे मुल्क का नाम रोशन किया। रियो पैरालम्पिक में दूसरा स्वर्ण पदक जीतने वाले राजस्थान के चुरू जिले के देवेंद्र झाझरिया की जितनी भी तारीफ की जाए वह कम है। इस राजस्थानी एथलीट ने भाला फेंक में न केवल स्वर्णिम सफलता हासिक की बल्कि 63.97 मीटर दूर भाला फेंककर विश्व कीर्तिमान भी रच डाला। इससे पहले 2004 के एथेंस पैरालम्पिक खेलों में भी देवेंद्र को स्वर्ण पदक हासिल हुआ था। तब उन्होंने 62.15 मीटर दूर भाला फेंका था। दुर्घटना में एक हाथ खोने वाले देवेंद्र झाझरिया ने साबित कर दिखाया कि एक ही हाथ से दो बार विश्व रिकार्ड बनाने के लिए मानसिक हौसले की जरूरत होती है। देवेन्द्र पैरालम्पिक खेलों में दो स्वर्ण पदक जीतने वाले भारत के पहले खिलाड़ी हैं। भारत सरकार को इस खिलाड़ी को भी खेल रत्न से नवाजना चाहिए।
पी.वी. सिन्धू और साक्षी मलिक के बाद अब हरियाणा की दिव्यांग दीपा मलिक देश में महिलाओं के लिए नयी प्रेरणा बनकर उभरी हैं। वे पहली भारतीय महिला हैं, जिन्होंने पैरालम्पिक खेलों में चांदी का पदक हासिल किया है। दीपा का कहना है कि हमारे देश में तो जैसे अपंगता को सामाजिक कलंक समझ लिया जाता है। मैं अपनी उपलब्धियों से इस धारणा को बदलना चाहती हूं। वे दस साल से खेल रही हैं और विश्व चैम्पियनशिप, कॉमनवेल्थ और एशियन खेलों में हिस्सा ले चुकी हैं। एक सैन्य अधिकारी की पत्नी दीपा दो लड़कियों की मां हैं। रीढ़ की हड्डी में ट्यूमर के कारण उनका निचला हिस्सा निष्क्रिय है, लेकिन उनकी सक्रियता दो पैरों पर सही सलामत खड़े लोगों से कहीं अधिक है। स्वीमर से एथलीट बनीं दीपा मानती हैं कि हम अपनी ही नकारात्मक धारणाओं के शिकार होकर अपने ख्वाब छोड़ देते हैं। दीपा मलिक का जीवन केवल शारीरिक निःशक्त लोगों के लिए ही नहीं वरन उन लाखों महिलाओं के लिए प्रेरक है, जो समय और परिस्थितियों के आगे हारकर अपने सपनों को कुर्बान कर देती हैं। दीपा खुश हैं कि इस बार पैरालम्पिक खेलों को लेकर भारतीय मीडिया में अच्छी चर्चा हुई और समाज की ओर से भी सहयोगात्मक वातावरण बना। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और केन्द्रीय खेल मंत्री विजय गोयल ने भी इस बार खिलाड़ियों की हौसलाअफजाई कर एक नजीर पेश की है। यह सहयोग बना रहे ताकि हमारे खिलाड़ी अपने करिश्माई प्रदर्शन से दुनिया में मादरेवतन का नाम रोशन करते रहें। अधूरेपन से लड़ाई लड़ते हुए भी पैरालम्पिक में पदक जीतने वाले इन खिलाड़ियों की मानसिक ताकत को हर खेलप्रेमी को सलाम करना चाहिए, जो बताते हैं कि मुश्किल कितनी भी बड़ी क्यों न हो, हमें हिम्मत नहीं हारनी। अगले ओलम्पिक टोकियो में होंगे, रियो के लचर प्रदर्शन पर आंसू बहाने की बजाय हमें इसकी तैयारियां अभी से शुरू कर देनी चाहिए।


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