
लोकतंत्र के मौजूदा महाकुम्भ में कांग्रेस सहित अधिकांश दलों के निशाने पर जहां नरेन्द्र मोदी हैं वहीं भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस व गांधी-वाड्रा परिवार ही नहीं, ममता बनर्जी, फारुख अब्दुल्ला और जयललिता जैसे राजनीतिज्ञों पर शब्दबाण चलाने का कोई मौका जाया नहीं कर रही। नरेन्द्र मोदी न केवल उनकी सरकारों के खिलाफ गम्भीर आरोप लगा रहे हैं बल्कि व्यक्तिगत टीका-टिप्पणियों के जरिए एक साथ कई मोर्चे खोल दिए हैं। कुछ दिन पहले तक जो दल भाजपा के सम्भावित सहयोगी समझे जाते थे, आज वही उसके शत्रु बन गए हैं। क्षेत्रीय छत्रपों पर भाजपा के हमले से नए संकेत मिलते हैं। भाजपा की रणनीति में आए इस बदलाव के कई कारण हैं। पहला यह कि कमल दल को पता चल चुका है कि तृणमूल कांग्रेस, एआईडीएमके जैसे दलों से चुनाव के बाद भी सहयोग या समर्थन मिलने की कोई गुंजाइश नहीं है। इसलिए कमजोर नस दबाकर उन्हें बदनाम करने और अपने लिए ज्यादा से ज्यादा जन समर्थन जुटाने का प्रयास उसके लिए लाभदायी हो सकता है। नरेन्द्र मोदी की जहां तक बात है वह नहीं चाहेंगे कि उनका समय गठबंधन की गांठ सुलझाने में जाया हो। यही वजह है कि वे जिन राज्यों में भाजपा कमजोर है वहां खाता खोलने या फिर सीट बढ़ाकर दूसरे दलों पर निर्भरता कम करने की कोशिश कर रहे हैं।
मौजूदा चुनावों में राजनीतिक शिष्टाचार की सीमाएं लांघकर जिस तरह व्यक्तिगत हमले बोले गये या बोले जा रहे हैं, वह राजनीतिक निरंकुशता की पराकाष्ठा है। लगभग हर राजनीतिक दल में कुछ नेता और प्रचारक ऐसे हैं जिनका काम सिर्फ और सिर्फ आग में घी डालना है। विकास के मुद्दों से बेखबर व्यक्तिगत हमले, महिलाओं के खिलाफ अनर्गल प्रलाप, पिछड़ी जातियों या धर्म विशेष के अपमान की ओछी और खोटी हरकतें अमन की राह का कांटा तो बनेंगी ही इससे भारतीय सम्प्रभुता भी खतरे में पड़ सकती है। माना कि जनभावनाओं के इस खिलवाड़ से राजनीतिज्ञों को वोटों की फसल काटने में सहजता होती है लेकिन इसके दूरगामी परिणाम सुखद नहीं हो सकते। यह सच है कि चुनाव आयोग ने कुछ निरंकुश नेताओं पर अंकुश लगाने के सराहनीय कार्य के साथ कुछ को नोटिस थमाया है, पर यह नाकाफी है। बेहतर होता ऐसे लोगों को चुनाव के अयोग्य ठहराने की पहल की जाती। नेताओं के बड़बोलेपन से आज तक समाज का कितना भला हुआ है या भविष्य में होगा यह बताने की जरूरत नहीं है। ताजा प्रकरण योग गुरु रामदेव का है, जो बहती गंगा में हाथ धोना खूब जानते हैं। ज्यादा वक्त नहीं बीता जब वे कालेधन की समस्या दूर करने का दावा करते-करते भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में अन्ना हजारे के साथ एक मंच पर आ गये थे। उन्होंने खुद का आंदोलन चलाने की भी कोशिश की और जब बात नहीं बनी तो महिलाओं के कपड़े पहन कर भाग निकलने से भी परहेज नहीं किया। पिछले एक दशक में उन्होंने पहले योग शिविरों और बाद में भिन्न-भिन्न खेमों के राजनीतिक शिविरों के जरिए राजनीतिक धुनी रमाने की कोशिश की पर उनके ढोंग और पाखण्ड का लोगों में वह असर नहीं हुआ जो होना चाहिए। आज योगगुरु की महत्वाकांक्षा कमल दल के साथ परवान चढ़ती दिख रही है। रामदेव ने 2010 में अपनी पार्टी भारत स्वाभिमान भी बनाई थी और लोकसभा चुनाव में सभी सीटों पर लड़ने का दम ठोका था पर उसका स्वाभिमान तो बचा नहीं सके अलबत्ता वे दूसरों के सम्मान पर कीचड़ उछालने के कसूरवार जरूर हैं।
योगगुरु रामदेव की राहुल गांधी के खिलाफ की गई ताजा टिप्पणी से हर समझदार आहत है। उनके ये अल्फाज सरासर दलितों का अपमान करने वाले हैं। राहुल गांधी के दलित प्रेम, दलित के घर रुकने, साथ भोजन करने पर राजनीतिक कटाक्ष खूब हुए हैं, लेकिन रामदेव के शब्दों ने शालीनता की सारी सीमाएं पार कर दी हैं। रामदेव कहते हैं कि दलितों और राहुल का अपमान करना हमारा लक्ष्य नहीं है। अगर ऐसा है तो अब तक राहुल गांधी पर निजी प्रहार क्यों किए गए? रामदेव के इस बयान से राहुल गांधी का जो अपमान हुआ सो हुआ, यह दलितों और महिलाओं का भी तो अपमान है। मौजूदा दौर में राजनीतिज्ञ सत्ता की खातिर हर किसी पर उंगली उठा रहे हैं, उन्हें इस बात का भी भान नहीं रहा कि वे तो एक उंगली उठा रहे हैं लेकिन उनके खिलाफ तीन उंगलियां खुद-ब-खुद उठ रही हैं। लोकतंत्र के सोलहवें महाकुम्भ में नरेन्द्र मोदी को लेकर भी विरोधी राजनीतिज्ञों द्वारा बहुत कुछ कहा गया है। उनके खिलाफ कुछ ऐसी टिप्पणियां की गर्इं जोकि कदाचार की श्रेणी में आती हैं। मोदी को लोगों ने राक्षस, हिटलर और न जाने क्या-क्या कहा है। पूरे चुनावी परिदृश्य पर नजर डालें तो मोदी सभी के निशाने पर रहे हैं। उन पर बार-बार साम्प्रदायिक होने की तोहमत लगाई गई, पर उकसावे के शब्दबाणों से बेखबर मोदी अपने राजनीतिक मिशन को अंजाम तक ले जाने के प्रति गम्भीर दिखे। बड़बोले दिग्विजय सिंह मोदी की धर्मपत्नी को लेकर भी फब्तियां कसने से नहीं चूके। दिग्गी ने यह भी नहीं सोचा कि जो शीशे के घरों में रहते हैं उन्हें दूसरों पर पत्थर नहीं फेंकना चाहिए। आज दिग्विजय अपने कृत्य से शर्मिन्दा हों या नहीं भारतीय लोकतंत्र जरूर आहत और मर्माहत है।
(लेखक पुष्प सवेरा से जुड़े हैं।)
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