एक तरफ भारतीय लोकतंत्र के महापर्व में राजनीतिज्ञ सत्ता की खातिर अपनी जुबान खराब कर रहे हैं तो दूसरी तरफ मुल्क के सबसे लोकप्रिय खेल क्रिकेट में रसूख का नंगनाच हो रहा है। भारतीय राजनीति और क्रिकेट बेशक विरोधाभासी लगते हों पर इनके मूल में जनता और क्रिकेटरों की वेदना समाहित है। चुनाव से पूर्व राजनीतिज्ञ मुल्क की आवाम को रामराज्य का सपना दिखा रहे हैं तो दूसरी तरफ दुनिया की सबसे समृद्ध खेल संस्था भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड पर काबिज होने के लिए दोस्त दुश्मन, तो दुश्मन दोस्त बन रहे हैं। लंदन में चार साल से निर्वासित जीवन बसर कर रहे आईपीएल के दागी ललित मोदी का राजस्थान क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष पद पर जीतकर आना और भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड द्वारा आरसीए की सदस्यता भंग करना लोगों के गले नहीं उतर रहा। टके भर का सवाल यह है कि बीसीसीआई एक दागी व्यक्ति विशेष की खातिर समूचे राज्य की क्रिकेट को प्रतिबंधित कैसे कर सकता है?
क्रिकेट को भद्रजनों का खेल माना जाता है लेकिन जब से इसमें बेशुमार दौलत का समावेश हुआ तभी से इसमें कदाचरण ने अपनी पैठ बना ली है। यही वजह है कि पिछले डेढ़ दशक में क्रिकेट को शर्मसार करने वाली करतूतों में बेइंतहा इजाफा हुआ है। 1983 में कपिल देव के नेतृत्व में क्रिकेट का मदमाता विश्व खिताब जीतने वाली टीम को बतौर प्रोत्साहन देने के लिए भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड के पास जहां पैसा नहीं था वहीं आज सिर्फ पैसे का खेल हो रहा है। अतीत की गरीब क्रिकेट को मालामाल करने में स्वर्गीय माधव राव सिंधिया का बड़ा योगदान है। 1990 से 1993 तक भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष रहे श्री सिंधिया ने क्रिकेट के समुन्नत विकास के लिए जहां कई नीतियां बनार्इं वहीं खिलाड़ियों की माली हालत सुधारने के लिए उन्हें रोजगार के अवसर भी मुहैया कराये। श्री सिंधिया के प्रयासों का ही नतीजा है कि आज देश भर में सैकड़ों खिलाड़ी रोजगार से लगे हुए हैं। विश्व विकलांग क्रिकेट और महिला क्रिकेट के प्रोत्साहन की दिशा में भी श्री सिंधिया ने अतुलनीय कार्य किये थे।
क्रिकेट की बेहतरी के लिए वैसे तो आईएस बिन्द्रा और राजसिंह डूंगरपुर ने भी नेक प्रयास किए लेकिन माधव राव सिंधिया की विकासोन्मुखी नीतियों को अमलीजामा पहनाने का असल काम जगमोहन डालमिया के कार्यकाल में ही हुआ। जगमोहन डालमिया 2001 से 2004 तक भारतीय क्रिकेट के प्रमुख रहे और उनके कार्यकाल में ही क्रिकेट में कारपोरेट जगत को प्रवेश मिला। डालमिया ने गरीब क्रिकेट को जहां मालामाल किया वहीं खिलाड़ियों को नकद प्रोत्साहन की दिशा में भी सराहनीय कार्य किए। सच्चाई यह है कि वर्ष 2001 के बाद भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड एक कमाऊ कारखाना बन गया। बस यहीं से क्रिकेट में विद्रूपता ने अपने पैर जमाने शुरू कर दिए। भारतीय क्रिकेट में आये आशातीत बदलाव के बाद जगमोहन डालमिया सिर्फ भारत ही नहीं विश्व क्रिकेट बिरादरी में भी जाना-पहचाना नाम हो गये। क्रिकेट में डालमिया के इसी रसूख ने उनके कई विरोधी पैदा कर दिए और उनके क्रिकेट में बढ़ते प्रभुत्व के खिलाफ एन. श्रीनिवासन, ललित मोदी और शशांक मनोहर जैसे लोग सक्रिय हो गये। कहते हैं कुर्सी के लिए कभी कोई किसी का स्थायी शत्रु या मित्र नहीं होता। यदि यह सच न होता तो कल तक गलबहियां करने वाले ललित मोदी और एन. श्रीनिवासन आज एक-दूसरे के जानी दुश्मन नहीं होते। भारतीय क्रिकेट में रसूख की जंग 21वीं सदी की ही देन है। जगमोहन डालमिया को भारतीय क्रिकेट से दूर करने के बाद इण्डियन प्रीमियर लीग को ऊंचाइयों तक ले जाने वाले पूर्व आयुक्त ललित मोदी इस कदर सक्रिय हुए कि एन. श्रीनिवासन उनके दुश्मन बन गये। ललित मोदी को ठिकाने लगाने के लिए ही एन. श्रीनिवासन, शशांक मनोहर और जगमोहन डालमिया का गठजोड़ हुआ। ललित मोदी को बीते साल सितम्बर में बीसीसीआई ने भ्रष्टाचार और अनुशासनहीनता के गम्भीर आरोपों के चलते आजीवन निष्कासित कर दिया था। भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड की परवाह किए बिना मोदी ने निष्कासन के बावजूद राजस्थान क्रिकेट एसोसिएशन के चुनावों में खड़े होने का फैसला किया और लंदन में रहते हुए भी वे 33 में से 24 मत लेकर विजयी रहे। मोदी के प्रतिद्वंद्वी रामपाल शर्मा को सिर्फ पांच मत ही मिले।
मोदी की विजय बीसीसीआई को नागवार गुजरी और उसने न केवल मोदी के चुनाव को खारिज कर दिया बल्कि आरसीए पर भी प्रतिबंध लगा दिया। इस प्रतिबंध के बाद राजस्थान क्रिकेट पर संकट के बादल छा गये। मोदी के चुनाव लड़ने पर तर्क दिया जा रहा है कि उन्हें इन चुनावों में खड़ा होने का हक राजस्थान क्रिकेट संघ के संविधान ने दिया था, जिसमें स्पष्ट लिखा है कि यह क्रिकेट संघ बीसीसीआई के नहीं बल्कि राजस्थान स्पोर्ट्स एक्ट के अधीन संचालित होता है। मोदी के सहयोगियों ने आरसीए चुनावों के सभी अहम पदों पर कब्जा जमाया। मोदी के वकील मोहम्मद एम. नबी सहयोगी अध्यक्ष, सोमेन्द्र तिवारी महासचिव तो पवन गोयल को कोषाध्यक्ष चुना गया। क्रिकेट की इस नूरा-कुश्ती का हश्र क्या होगा यह तो भविष्य तय करेगा पर यह प्रकरण अदालती कवायद का हिस्सा जरूर बन गया है। फिलहाल एन. श्रीनिवासन बेशक भारतीय क्रिकेट से दूर हों पर पर्दे के पीछे वे आज भी सक्रिय हैं।
खुन्नस मिजाज श्रीनिवासन का शिकार ललित मोदी तो हुए ही मध्य प्रदेश क्रिकेट ने भी इसकी बड़ी कीमत चुकाई है। दरअसल पिछले साल आईपीएल से निकले फिक्सिंग के जिन्न ने बीसीसीआई में काफी उथल-पुथल मचाई थी। तब क्रिकेट की गंदगी पर जहां मध्यप्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष और बीसीसीआई की अनुशासन समिति के प्रमुख के साथ इसकी वित्त समिति में रह चुके ज्योतिरादित्य सिंधिया ने श्रीनिवासन की आलोचना की थी वहीं बीसीसीआई के महासचिव संजय जगदाले ने इस्तीफा दे दिया था। सिंधिया और जग्गू दादा की नसीहत को स्वीकारने की बजाय श्रीनिवासन बदले की भावना में बह गए और एमपीसीए को हर तरह की मदद से हाथ खींच लिए। दरअसल इसी को कहते हैं खिसियाई बिल्ली खम्भा नोचे। जो भी हो पाप का घड़ा एक न एक दिन फूटता ही है सो फूटा भी। उच्चतम न्यायालय के निर्णय से न केवल श्रीनिवासन का आसन हिला बल्कि दामाद मोह के फेर में आज वे खून के आंसू रो रहे हैं।
क्रिकेट को भद्रजनों का खेल माना जाता है लेकिन जब से इसमें बेशुमार दौलत का समावेश हुआ तभी से इसमें कदाचरण ने अपनी पैठ बना ली है। यही वजह है कि पिछले डेढ़ दशक में क्रिकेट को शर्मसार करने वाली करतूतों में बेइंतहा इजाफा हुआ है। 1983 में कपिल देव के नेतृत्व में क्रिकेट का मदमाता विश्व खिताब जीतने वाली टीम को बतौर प्रोत्साहन देने के लिए भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड के पास जहां पैसा नहीं था वहीं आज सिर्फ पैसे का खेल हो रहा है। अतीत की गरीब क्रिकेट को मालामाल करने में स्वर्गीय माधव राव सिंधिया का बड़ा योगदान है। 1990 से 1993 तक भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड के अध्यक्ष रहे श्री सिंधिया ने क्रिकेट के समुन्नत विकास के लिए जहां कई नीतियां बनार्इं वहीं खिलाड़ियों की माली हालत सुधारने के लिए उन्हें रोजगार के अवसर भी मुहैया कराये। श्री सिंधिया के प्रयासों का ही नतीजा है कि आज देश भर में सैकड़ों खिलाड़ी रोजगार से लगे हुए हैं। विश्व विकलांग क्रिकेट और महिला क्रिकेट के प्रोत्साहन की दिशा में भी श्री सिंधिया ने अतुलनीय कार्य किये थे।
क्रिकेट की बेहतरी के लिए वैसे तो आईएस बिन्द्रा और राजसिंह डूंगरपुर ने भी नेक प्रयास किए लेकिन माधव राव सिंधिया की विकासोन्मुखी नीतियों को अमलीजामा पहनाने का असल काम जगमोहन डालमिया के कार्यकाल में ही हुआ। जगमोहन डालमिया 2001 से 2004 तक भारतीय क्रिकेट के प्रमुख रहे और उनके कार्यकाल में ही क्रिकेट में कारपोरेट जगत को प्रवेश मिला। डालमिया ने गरीब क्रिकेट को जहां मालामाल किया वहीं खिलाड़ियों को नकद प्रोत्साहन की दिशा में भी सराहनीय कार्य किए। सच्चाई यह है कि वर्ष 2001 के बाद भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड एक कमाऊ कारखाना बन गया। बस यहीं से क्रिकेट में विद्रूपता ने अपने पैर जमाने शुरू कर दिए। भारतीय क्रिकेट में आये आशातीत बदलाव के बाद जगमोहन डालमिया सिर्फ भारत ही नहीं विश्व क्रिकेट बिरादरी में भी जाना-पहचाना नाम हो गये। क्रिकेट में डालमिया के इसी रसूख ने उनके कई विरोधी पैदा कर दिए और उनके क्रिकेट में बढ़ते प्रभुत्व के खिलाफ एन. श्रीनिवासन, ललित मोदी और शशांक मनोहर जैसे लोग सक्रिय हो गये। कहते हैं कुर्सी के लिए कभी कोई किसी का स्थायी शत्रु या मित्र नहीं होता। यदि यह सच न होता तो कल तक गलबहियां करने वाले ललित मोदी और एन. श्रीनिवासन आज एक-दूसरे के जानी दुश्मन नहीं होते। भारतीय क्रिकेट में रसूख की जंग 21वीं सदी की ही देन है। जगमोहन डालमिया को भारतीय क्रिकेट से दूर करने के बाद इण्डियन प्रीमियर लीग को ऊंचाइयों तक ले जाने वाले पूर्व आयुक्त ललित मोदी इस कदर सक्रिय हुए कि एन. श्रीनिवासन उनके दुश्मन बन गये। ललित मोदी को ठिकाने लगाने के लिए ही एन. श्रीनिवासन, शशांक मनोहर और जगमोहन डालमिया का गठजोड़ हुआ। ललित मोदी को बीते साल सितम्बर में बीसीसीआई ने भ्रष्टाचार और अनुशासनहीनता के गम्भीर आरोपों के चलते आजीवन निष्कासित कर दिया था। भारतीय क्रिकेट कण्ट्रोल बोर्ड की परवाह किए बिना मोदी ने निष्कासन के बावजूद राजस्थान क्रिकेट एसोसिएशन के चुनावों में खड़े होने का फैसला किया और लंदन में रहते हुए भी वे 33 में से 24 मत लेकर विजयी रहे। मोदी के प्रतिद्वंद्वी रामपाल शर्मा को सिर्फ पांच मत ही मिले।
मोदी की विजय बीसीसीआई को नागवार गुजरी और उसने न केवल मोदी के चुनाव को खारिज कर दिया बल्कि आरसीए पर भी प्रतिबंध लगा दिया। इस प्रतिबंध के बाद राजस्थान क्रिकेट पर संकट के बादल छा गये। मोदी के चुनाव लड़ने पर तर्क दिया जा रहा है कि उन्हें इन चुनावों में खड़ा होने का हक राजस्थान क्रिकेट संघ के संविधान ने दिया था, जिसमें स्पष्ट लिखा है कि यह क्रिकेट संघ बीसीसीआई के नहीं बल्कि राजस्थान स्पोर्ट्स एक्ट के अधीन संचालित होता है। मोदी के सहयोगियों ने आरसीए चुनावों के सभी अहम पदों पर कब्जा जमाया। मोदी के वकील मोहम्मद एम. नबी सहयोगी अध्यक्ष, सोमेन्द्र तिवारी महासचिव तो पवन गोयल को कोषाध्यक्ष चुना गया। क्रिकेट की इस नूरा-कुश्ती का हश्र क्या होगा यह तो भविष्य तय करेगा पर यह प्रकरण अदालती कवायद का हिस्सा जरूर बन गया है। फिलहाल एन. श्रीनिवासन बेशक भारतीय क्रिकेट से दूर हों पर पर्दे के पीछे वे आज भी सक्रिय हैं।
खुन्नस मिजाज श्रीनिवासन का शिकार ललित मोदी तो हुए ही मध्य प्रदेश क्रिकेट ने भी इसकी बड़ी कीमत चुकाई है। दरअसल पिछले साल आईपीएल से निकले फिक्सिंग के जिन्न ने बीसीसीआई में काफी उथल-पुथल मचाई थी। तब क्रिकेट की गंदगी पर जहां मध्यप्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष और बीसीसीआई की अनुशासन समिति के प्रमुख के साथ इसकी वित्त समिति में रह चुके ज्योतिरादित्य सिंधिया ने श्रीनिवासन की आलोचना की थी वहीं बीसीसीआई के महासचिव संजय जगदाले ने इस्तीफा दे दिया था। सिंधिया और जग्गू दादा की नसीहत को स्वीकारने की बजाय श्रीनिवासन बदले की भावना में बह गए और एमपीसीए को हर तरह की मदद से हाथ खींच लिए। दरअसल इसी को कहते हैं खिसियाई बिल्ली खम्भा नोचे। जो भी हो पाप का घड़ा एक न एक दिन फूटता ही है सो फूटा भी। उच्चतम न्यायालय के निर्णय से न केवल श्रीनिवासन का आसन हिला बल्कि दामाद मोह के फेर में आज वे खून के आंसू रो रहे हैं।
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