Saturday, 1 February 2014

साक्षरता पर जवाबदेही का अभाव

लोकसभा की चुनावी रणभेरी बजने में बेशक कुछ दिन शेष हों, राजनीतिक दलों को दिल्ली का भूत डराने लगा है। खुले हाथ सौगातें बंट रही हैं, फिर भी लोग खुश नहीं हैं। इस नाखुशी की कई वजह हैं। सभी को पता है कि चुनाव पूर्व सौगातें और खैरातें हमेशा बंटती हैं लेकिन राजनीतिज्ञों के हाथ सल्तनत लगते ही आम लोग सरकारी रियायतों से दूर हो जाते हैं। शिक्षा सबका अधिकार है लेकिन किसी भी राजनीतिक दल के जेहन और घोषणा-पत्र में इसे कभी तवज्जो नहीं मिली। आजादी के 66 साल बाद भी अशिक्षा के अभाव में प्रतिवर्ष लाखों नौनिहाल बेमौत मर रहे हैं। बेटी बचाओ अभियान के स्वांग पर अरबों रुपये पानी की तरह बहाने के बाद भी आधी आबादी अपने अधिकारों से जहां वंचित है वहीं लगभग 29 करोड़ भारतीय वयस्क ककहरा न सीख पाने से आज भी निरक्षर हैं।
देश में साक्षरता की अलख जगाने में पैसे की कमी कभी आड़े नहीं आई बावजूद निरक्षरता ने भारत का पीछा नहीं छोड़ा। शिक्षा के क्षेत्र में गिरावट एक दिन में नहीं आई। इस दिशा पर समय-समय पर चिन्तन-मनन भी हुआ पर शिक्षा की नब्ज ने रफ्तार नहीं पकड़ी। शिक्षा पर सबका अधिकार है, यह ध्येय वाक्य लोगों के जेहन में अंकित होने की बजाय दीवारी लेखन की शोभा अधिक बना। आज राजनीतिक दलों में दलित और मुस्लिमों का हिमायती बनने की होड़ सी मची है, पर इनके बाल-गोपाल भी साक्षर हों, इस तरफ किसी ने ध्यान नहीं दिया। आज शहरी साक्षरता के आंकड़े कुछ भी कहानी बयां कर रहे हों पर 70 फीसदी गांवों में अभी भी शिक्षा पर छलावा हो रहा है। स्कूलों की हालत खराब है तो शिक्षक और छात्रों के बीच सामंजस्य का घोर अभाव है। देश में शिक्षा खामियों का एक बड़ा कारण राजनीति भी है। सच तो यह है कि राजनीतिज्ञों ने शिक्षा मंदिरों को भी अपनी जद में ले लिया है। स्कूल-कॉलेज अध्ययन-अध्यापन की जगह राजनीति का अखाड़ा बन चुके हैं।
देश के अधिकांश राज्यों में माध्यमिक परीक्षा की घण्टी बज चुकी है। बच्चे कोर्स पूरा न होने का उलाहना दे रहे हैं तो दूसरी तरफ ग्रामीण व कस्बाई क्षेत्रों में बिजली की आंख-मिचौनी कोढ़ में खाज का काम कर रही है। एक तरफ परीक्षाओं में नकल रोकने के विभागीय टोने-टोटके हो रहे हैं तो दूसरी तरफ परीक्षा सेण्टरों की खरीद-फरोख्त पर किसी को गुरेज नहीं है। आधी-अधूरी तैयारी होने के चलते छात्र परीक्षा से डर रहे हैं। बच्चों में परीक्षा का भय नहीं होना चाहिए। आखिर किसी भी शिक्षा का उद्देश्य मूल्यांकन का भय नहीं हो सकता, पर आज आश्चर्यजनक रूप से स्कूली परीक्षाएं इसका पर्याय बन चुकी हैं। भय का यह भूत न केवल बच्चों को डरा रहा है बल्कि बड़े पैमाने पर नकल संस्कृति को भी प्रोत्साहित कर रहा है। आज नकल देशव्यापी मुद्दा है। नकलची छात्रों को सजा दी जाए या नहीं, इस पर शिक्षाविदों में मतैक्य नहीं है।
देश में सरकारी शिक्षा भगवान भरोसे है। नियमित शिक्षा के अभाव में एक तरफ छात्र जहां नकल की ओर विमुख हुए हैं वहीं सरकारें और उनके मातहत विभाग अपनी कामचोरी छिपाने की खातिर नकल को प्रश्रय दे रहे हैं। सवाल यह है कि किसी बच्चे या कुछ बच्चों को आखिर नकल क्यों करना पड़ रही है? ऐसे बच्चे नकल कर पास होने की मानसिकता में क्यों जी रहे हैं? क्या इस प्रवृत्ति की रोकथाम में उड़नदस्ता या  दूसरी व्यवस्थाएं कारगर हैं? शिक्षा मनोविज्ञानी ऐसे उपायों को बेशक घातक मानते हों पर इसे रोक पाना सहज भी तो नहीं है। नकल का चलन शिक्षा व्यवस्था की असफलता का द्योतक है। इस व्यवस्था ने ही नकल माफिया और दूसरे तरह के दलाल पैदा किए हैं। हर साल प्रशासनिक तंत्र और कथित नकल माफियों के बीच हिंसक वारदातें तो परीक्षाओं के दौरान किशोरों में आत्महत्या के मामले बढ़ते जा रहे हैं। कुछ जो ऐसा नहीं करते वे पेपर लीक कराने या अंकों में हेराफेरी का सहारा लेने लगे हैं। ऐसा क्यों हो रहा है?
शिक्षा प्रणाली में परीक्षाओं का आयोजन इसलिए किया जाता है ताकि छात्रों की योग्यता का मूल्यांकन किया जा सके, लेकिन क्या परीक्षाएं योग्यता का सही मूल्यांकन कर पा रही हैं? आज की शिक्षा व्यवस्था समझ के विकास की जगह रटंत विद्या पर केन्द्रित हो गई है। बच्चों का कानून और व्यवस्था पर भरोसा नहीं रहा। वे सफलता के लिए शॉर्टकट का सहारा लेने लगे हैं। गुरुजन छात्रों पर न पढ़ने तो छात्र और अभिभावक शिक्षकों पर शिक्षणेत्तर कार्यों में रुचि न लेने की तोहमत लगाते हैं। कुल मिलाकर इससे जहां छात्रों का नुकसान हो रहा है वहीं साक्षरता की लौ भी दिन-ब-दिन मद्धिम पड़ती जा रही है। शिक्षा को बढ़ावा देकर सभी समस्याओं का समाधान निकाला जा सकता है बशर्ते इसके लिए हमारी सरकारें ईमानदार प्रयास करें।

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