Wednesday 12 February 2014

खेलों की कलंक गाथा

चौदह माह के निर्वासन के बाद भारत का अंतरराष्ट्रीय खेल बिरादर में पुन: शामिल होना हर भारतीय के लिए खुश खबर है तो दूसरी तरफ आईपीएल-6 की बोतल से निकले फिक्सिंग के जिन्न ने खेलप्रेमियों को फिर से डरा दिया है। खेलप्रेमी, खिलाड़ी और खेलों से थोड़ी-बहुत दिलचस्पी रखने वाले लोगों की समझ में नही आ रहा कि आखिर मुल्क से खेलों की कलंक गाथा का पटाक्षेप कब और कैसे होगा। दिल्ली में 2010 में हुए राष्ट्रमण्डल खेलों में अरबों रुपये का घोटाला, भारत रत्न सचिन तेंदुलकर का आयकर में छूट का लोभ तो कप्तान महेन्द्र सिंह धोनी का फिक्सिंग खेल उन सब के लिए चिन्ता का सबब है जोकि खेलों को अपना करियर बनाना चाहते हैं। देश में पारदर्शी खेल व्यवस्था लाने की सोच पर धन्नासेठों की पैठ आग में घी का काम कर रही है। भारतीय ओलम्पिक संघ हो या मालामाल क्रिकेट इन पर जिस तरह  धनकुबेर काबिज होते जा रहे हैं उससे खेलों का दामन पाक-साफ होने पर हमेशा संदेह रहेगा।
यह बात सही है कि धनकुबेर खिलाड़ियों को हमेशा खेल मंच उपलब्ध कराते रहे हैं पर इस उपकार के पीछे भी गहरी साजिश छिपी होती है। खिलाड़ियों के हक हमेशा इनके रहमोकरम पर आश्रित होते हैं। खिलाड़ी सुविधाओं का रोना रोते हैं तो ये आरामतलबी में मस्त हो अपने तरीके से खेल चलाते हैं। आज मुल्क तो आजाद है पर भारतीय खिलाड़ी परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ है। वह उनका चाकर है जोकि खिलाड़ी न होते हुए भी सब कुछ हैं। खेलों में हमारा लचर प्रदर्शन सवा अरब आबादी को मुंह चिढ़ा रहा है तो दूसरी तरफ हमारा खेल तंत्र बड़े-बड़े खेल आयोजनों के लिए अंतरराष्ट्रीय खेल संघों के सामने मिन्नते करता है। दरअसल खेलनहारों के इस खेल के पीछे खिलाड़ियों के भले की जगह उनका स्वयं का हित संवर्द्धन होता है। आज मुल्क का खिलाड़ी अंधकूप में है जिसे बाहर निकालने के सारे जतन इसलिए अकारथ हैं क्योंकि खेल अनाड़ियों के हाथ संचालित हो रहे हैं।
हम खुश हैं कि सोचि विंटर ओलम्पिक के समापन पर तिरंगा फहरेगा लेकिन हमारे खेलनहारों को इस बात पर शर्म कभी नहीं आई कि आखिर हमारे खिलाड़ियों ने इन खेलों में पांच दशक बाद भी कोई पदक क्यों नहीं जीता है। 1924 में पहली बार इन खेलों का आयोजन फ्रांस में हुआ था। इन खेलों में भारतीय प्रतिभागिता का जहां तक सवाल है 1964 में आस्ट्रिया में हुए विंटर ओलम्पिक खेलों में एकमात्र भारतीय एथलीट जेरेमी बुजाकोवास्की एल्पाइन स्कीइंग में जौहर दिखाने उतरे थे। इन बर्फीले खेलों में नौ मर्तबा भारतीय खिलाड़ी अपना पराक्रम दिखाने तो गये लेकिन पदक तालिका आज भी रीती की रीती ही है। देखा जाए तो मुल्क में खेल संस्कृति का घोर अभाव है। धनकुबेरों के हाथ अधिकांश खेल संगठन होने के चलते खिलाड़ी कभी नहीं उबर पाया। किसी बड़े खेल आयोजन से पूर्व विदेशी प्रशिक्षकों को मोेटी रकम देकर बुलाया जाता है लेकिन इनकी काली करतूतों ने पदक तो नहीं दिलाए अलबत्ता हमारे खिलाड़ी शक्तिवर्द्धक दवाओं के लती जरूर हो गये। हमारे वेटलिफ्टरों की इसी खराब लत ने मुल्क को दो बार प्रतिबंध का दंश तो तीन करोड़ का भारी-भरकम जुर्माना अदा करने को बाध्य किया। दीगर खेलों के खिलाड़ी भी कामयाबी के लिए शॉर्टकट रास्ता अपना रहे हैं। मुल्क में जहां प्रतिभाएं हैं वहां खेल संसाधनों का अभाव है, जहां सुविधायें हैं वहां शक्तिवर्द्धक दवाओं का मायाजाल खिलाड़ियों को ललचा और मुल्क को लजा रहा है।
हाल ही दो शीर्ष खेल संस्थाएं एक ही परिवार की जागीर हो गई हैं। क्रिकेट पर एन. श्रीनिवासन काबिज हैं तो भारतीय ओलम्पिक संघ पर उनके अनुज एन. रामचंद्रन का कब्जा हो गया है। खेल की इन दो महत्वपूर्ण संस्थाओं पर दो भाइयों का शीर्ष पदों पर काबिज होना अनूठा संयोग नजर आता है, लेकिन यह भी मुमकिन है कि खेलजगत के वर्तमान दौर में धन और शक्ति का वर्चस्व जिस तरह से बढ़ता जा रहा है, उसके चलते ही ऐसा संयोग बना है। आईओए पिछले 14 महीनों से अंतरराष्ट्रीय ओलम्पिक समिति से निलम्बित था। इसके प्रमुख कारणों में भ्रष्टाचार, शीर्ष पदों पर दागियों की नियुक्ति और चुनाव में धांधली आदि थे। आईओसी से इस निलम्बन के कारण वैश्विक स्तर पर भारत की खूब किरकिरी हुई। खैर, भारत पुन: बहाल हो गया है। अब हर खेल आयोजन में हमारा प्रदर्शन बेशक थू-थू करने वाला रहे पर अब तिरंगा जरूर फहरेगा। यह खुशी की बात है। पर  मूल सवाल अब भी वहीं कायम है कि क्या सचमुच भारतीय खेलों की गंगोत्री साफ-सुथरी हो चुकी है।
एन. रामचंद्रन विश्व स्क्वैश संगठन के अध्यक्ष भी हैं, हालांकि ओलम्पिक में यह  नहीं खेला जाता। बहरहाल, दिसम्बर 2012 में आईओए के निलम्बन के पहले एन. रामचंद्रन इसके कोषाध्यक्ष थे। उन पर राष्ट्रीय खेल प्रोत्साहन पुरस्कार में गड़बड़ी के अलावा धोखाधड़ी और जानकारी छिपाने के मुकदमे अदालतों में चल रहे हैं और इनमें से किसी एक में भी आरोप पत्र दाखिल होता है तो उन्हें आईओए के अध्यक्ष पद को छोड़ना पड़ेगा। इससे आईओए को फिर निलम्बन का सामना करना पड़ सकता है और खेल जगत में जो किरकिरी होगी, सो अलग। आईसीसी के बदले स्वरूप में एन. श्रीनिवासन का अध्यक्ष पद पर काबिज होना चौंकाने वाला समाचार हो सकता था, लेकिन क्रिकेट में जब पैसों का ही बोलबाला है, तो फिर नैतिकता किस बात की। आईपीएल में गड़बड़ी, बीसीसीआई के अध्यक्ष पद से न हटने की जिद जैसी कुछ घटनाओं में एन. श्रीनिवासन की धृष्टता पूरे देश ने देखी है। लेकिन आईसीसी में उन्होंने अपना दबदबा कायम कर लिया क्योंकि विश्व क्रिकेट के कुल राजस्व में भारत का सबसे अधिक योगदान जो है। जुलाई में जैसे ही वह आईसीसी की आसंदी पर काबिज होंगे तो भारत में क्रिकेट के सभी प्रारूपों में उनका प्रत्यक्ष-परोक्ष दखल होगा। इसके बाद क्रिकेट में सट्टा, स्पाट फिक्सिंग और न जाने कितनी नीचता आएगी, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। 

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