Friday, 7 February 2014

रसिकों पर चिरंतरपतझड़

समय दिन और तारीख देख कर आगे नहीं बढ़ता, बल्कि समय की शिला पर हमेशा इंसानी जज्बात परवान चढ़ते हैं। समय करवट बदल रहा है और इंसानी फितरत प्रेमाभाव के विभाजन की रेखा खींच रही है। इंसान की आधुनिकता के इस स्वांग का अंत कहां और कब होगा कहना कठिन है। जीवन फूल है और प्रेम उसकी सुगन्ध इस ध्येय वाक्य पर दिनोंदिन पहरा गहराता जा रहा है। युवा तरुणाई प्रेम की पींगों पर  समय की पाबंदी से खुश हो सकती है पर कवि मन रो रहे हैं। उसके काव्य-संसार में अब आम नहीं बौराते, उसकी डालियां फल-फूल से नहीं लदतीं। कवि मन सहज रसग्राही नहीं रहा। उसकी सहज स्वाभाविक अनुभूतियां प्रकृति से निरंतर दूर होती जा रही हैं। मौसम कैसा भी हो उसका मन मयूर सुखानुभूति से अनुप्राणित होने की बजाय विरह वेदना में समाहित होता जा रहा है। प्रकृति की महत्ता मानव के दोहन का शिकार हो गई है।
जो बावरा मन कभी प्रकृति की सुखानुभूति की तरंगों में गोते लगाने लगता था वही बैरी मन अब एक चिरंतर पतझड़ का मौसम बनता जा रहा है। अब बावरा मन बहकता नहीं बल्कि अनजान जंगली फूलों की महक उसे तरंगित करने की बजाय अनचाहा दर्द दे रही है। एक समय था जब कवि-कलाकार ही नहीं, सामान्य लोग भी बदलते मौसम की बलैंया लेते थे, खासकर वसंत और वर्षा ऋतुएं बूढ़े लोगों के मन को भी जवानी का अहसास कराती थीं। वसंत पंचमी आते-आते कोहरे को चीर सुनहरी गुनगुनी धूप और खेतों की मेड़ों पर पीले, गुलाबी, हल्के नीले छोटे-छोटे जंगली फूलों को देख मन मचल उठता था। हिन्दी कविता प्रकृति के आगोश में समाहित हो जाती थी, तो मन से प्रेम रस झरने लगता था। मध्यकाल का षड्ऋतु वर्णन तो एक प्रकार से रूढ़ि बन चुका था। सावन-भादों में नव यौवन पर विरह की तड़प तो वसन्त में मुग्धा नायिका अपनी ही विकसित होती देह देख लज्जा से लाल हो जाती थी। समय बदला, प्रकृति बदली और लोगों के विचार भी बदल गये। अब प्रेमरस से गांव-कस्बे और प्रकृति से जुड़ाव की अनुभूति नदारद है।
मानव इक्कीसवीं सदी के अतिरेक में बह रहा है। भारतीय संस्कृति की जगह पाश्चात्य संस्कृति ने ले ली है। जो प्रेम-स्नेह सदाबहार होता था उस पर समय की पाबंदी लग गई है। मदर्स-फादर्स डे, वैलेंटाइन-डे आदि बदलते समय की नकारात्मक सोच का परिणाम हैं। मुल्क में इन दिवसों का चलन 21वीं सदी के देन कहें तो सही होगा। हम हर साल बहुत से संकल्प लेते हैं। वे कितना फलीभूत हुए इस पर जरा भी गौर नहीं करते। आज मुल्क की राजनीतिक, सामाजिक,आर्थिक स्थिति सुखद नहीं है। राजनीतिक गतिविधियां बार-बार यही सिद्ध करती हैं कि राजनीतिज्ञों के स्वार्थ सर्वोपरि हैं। देश उनकी नजर में कुछ भी नहीं है। एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप, एक-दूसरे को नीचा दिखाने, भ्रष्टाचार में दूसरों से खुद को कमतर जताने और देशहित के प्रश्नों को हाशिए पर डालकर छल-बल से सत्तासुख भोगना ही उनका राज धर्म या राष्ट्र धर्म रह गया है। कश्मीर समस्या, असम समस्या, चीनी घुसपैठ, पाकिस्तानी घुसपैठ, बांग्लादेशियों की घुसपैठ, नक्सलवाद, आतंकवाद आदि संकट नासूर बन चुके हैं लेकिन इनसे निपटने की बजाय राजनीति मात्र सत्ता-सुख का अवलम्ब बन चुकी है। भ्रष्टाचार, अवसाद, खुशहाली, स्वास्थ्य, जीवन स्तर आदि कई बिन्दुओं पर अन्तरराष्ट्रीय संस्थाएं जो आंकड़े उजागर कर रही हैं, उनमें हमारा मुल्क बहुत पिछड़ा हुआ है। देश का धार्मिक परिदृश्य निराशाजनक है। ढोंगी साधु-संतों ने अपने पाखण्ड और दुराचार से धार्मिक विश्वास और आस्था को खण्ड-खण्ड कर दिया है, फिर भी कदाचारियों के प्रति लोगों की अंधभक्ति और अंधश्रद्धा यह सवाल पैदा करती है कि आखिर यह धार्मिक प्रवंचना समाज को कहां ले जाएगी। परिवार और समाज का ताना-बाना बिखर रहा है। दहेज, बाल विवाह और गृह कलह से भी बढ़कर समलैंगिक सम्बन्ध, सहजीवन, महिलाओं की तस्करी, यौन शोषण जैसे कई नये संकट मुंहबाये खड़े हैं। आधुनिक संचार साधनों ने खुशफहमी के पल कम, नयी मुसीबतें अधिक पैदा की हैं। फेसबुक और इंटरनेट का दुरुपयोग हर वय के लोगों को स्वार्थी, आत्मकेन्द्रित और आत्मघाती बना रहा है। सारे मानवीय मूल्य और जीवन मूल्य तिरोहित हो रहे हैं। हमारे न्यायालय अपने सांस्कृतिक मूल्यों की अवहेलना कर जिन वैश्विक परम्पराओं को भारतीय समाज में स्थापित कर स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रहे हैं वस्तुत: वह मुल्क के साथ छलावा है।
हमारा समाज पतनोन्मुख की राह चल रहा है। हमारी पावन भूमि पर भारतीय सांस्कृतिक मूल्य और भारतीय परम्परा ही सामाजिक उन्नति और स्थिरता में सहायक हो सकते हैं पर हमारी युवा पीढ़ी पाश्चात्य रंग-ढंग को इस तरह आत्मसात कर चुकी है कि उसे उचित-अनुचित का जरा भी भान नहीं रहा। हमारी शिक्षा बौद्धिक विकास की बजाय रोटी का जरिया बन चुकी है। शिक्षा में ज्ञान, विवेक और संवेदना का अभाव हमें मानवीय गुणों से वंचित कर पाशविक बना रहा है। शिक्षा का सही पाथेय क्या है? इस दुनिया की नियति क्या है? मानव जीवन का लक्ष्य क्या होना चाहिए? ऐसे कई महत्वपूर्ण प्रश्न हम दरकिनार करते आए हैं इसीलिए जीवन जटिल होता जा रहा है और हम खुशी के पलों को बेवजह अकारथ करने की गुस्ताखी कर रहे हैं। यह अच्छी बात है कि नवकल्पनाशील वैज्ञानिक दृष्टिवाला तरुण संतुलित पथ पर चलकर नया संसार रचना चाहता है। उसके सामने यथार्थ और वर्चुअल दोनों संसार हैं। उन दोनों को वह जोड़ना चाहता है। वह कलाओं व साहित्य को विज्ञान का प्रतिरोधी नहीं सम्पूरक मानता है। वसंत सिर्फ परपरा ही नहीं हमारे समय का सच है। अपने समय के सच को जानना और समझना तथा सौंदर्य से अभिभूत होना ही तो सुखद सम्मोहन है। आओ कुछ ऐसा करें जिससे मानव जाति हर पल खुशी की अनुभूति करे और हमेशा प्रेमाभाव के अतिरेक में बहे।

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