मौत आमजन की हो या किसी खास की, मौत तो आखिर मौत ही होती है। किसी पर दिल से दया करना अच्छी बात है लेकिन पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के मामले को लेकर जो कुछ हो रहा है वह सतही सियासत की पराकाष्ठा के सिवा कुछ भी नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राजीव गांधी के हत्यारों की मृत्युदण्ड की सजा को आजीवन कारावास में बदलना मानवाधिकार उल्लंघन की मजबूत मुखालफत है तो राजनीतिक दलों की सजायाफ्ता लोगों की रिहाई की कुचेष्टा सियासी मजबूरी से प्रेरित शर्मनाक कृत्य है। यदि समय रहते सभी राजनीतिक दल क्षेत्रवाद और जातिवाद के नंगनाच से बाज नहीं आये तो वह दिन दूर नहीं जब लाख सुरक्षा व्यवस्था के बावजूद आमजन का जीना दुश्वार हो जाएगा। अपराधी किसी का सगा नहीं होता, उसे जब भी मौका मिलेगा समाज और मुल्क का अहित ही करेगा।
सर्वोच्च न्यायालय के दिशा निर्देश मानवाधिकार और समाज की इस मान्यता पर आधारित हैं कि यथासम्भव किसी को फांसी न मिले। भारत को छोड़ दें तो दुनिया के अधिकांश देशों में मृत्युदण्ड पर रोक लग चुकी है। हमारे यहां मृत्युदण्ड का प्रावधान तो है लेकिन अब तक दुर्लभतम मामलों में ही लोगों को फांसी दी गई है। इस प्रक्रिया को हमें मजबूत न्यायिक प्रक्रिया के रूप देखना चाहिए। मुल्क में किसी को फांसी देने से पहले उसे राष्टÑपति और राज्यपाल के पास दया याचना की छूट है। अब तक कई सजायाफ्ता लोग राष्ट्रपति की दरियादिली के चलते मौत से बच भी चुके हैं। दया याचिका का जहां तक सवाल है, मौजूदा समय में इस अधिकार पर हमारी सल्तनतें फैसला लेने लगी हैं। राजीव गांधी मामले में आज जो हो रहा है उसके लिए जयललिता ही नहीं कमोबेश कांग्रेस भी कम जवाबदेह नहीं है। कांग्रेस ने इस मामले में यदि त्वरित फैसला लिया होता तो शायद अब तक राजीव गांधी के हत्यारे फांसी का फंदा चूम चुके होते। मृत्यदण्ड ही नहीं दीगर मसलों पर भी हमारी न्यायपालिकाएं समय-समय पर सरकारों को आगाह करती रही हैं लेकिन कार्यपालिका ने हमेशा इसे दखलंदाजी के रूप में देखा। कारण कुछ भी हो, हमारी न्यायपालिका और कार्यपालिका में न केवल सामंजस्य की कमी है बल्कि कार्यप्रणाली भी बेहद धीमी है।
सर्वोच्च न्यायालय ने एक माह पहले फांसी की सजा को उम्रकैद में तब्दील करने के स्पष्ट दिशा-निर्देश बताए थे जिसमें प्रमुख बात यह थी कि अगर फांसी की सजा प्राप्त कैदी की दया याचिका पर लम्बे समय तक कोई फैसला नहीं लिया जाता तो उसे उम्रकैद में बदल दिया जाना चाहिए। इसी आधार पर 15 लोगों की मौत की सजा उम्रकैद में बदली गई। सर्वोच्च न्यायालय ने राजीव गांधी की हत्या के दोषी तीन लोगों की फांसी की सजा को जैसे ही उम्रकैद में बदलने का निर्णय सुनाया तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने बिना समय गंवाये अगले ही दिन राजीव गांधी की हत्या के दोषी सभी लोगों की रिहाई का फरमान सुना दिया। यद्यपि इस पर केन्द्र सरकार की पुनर्विचार याचिका के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने रोक लगा दी है। गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय ने उम्रकैद का मतलब आजीवन कारावास बताया था किन्तु जयललिता ने फांसी की सजा पाए तीन कैदियों सहित सभी सातों दोषियों की रिहाई के सम्बन्ध में जल्दबाजी दिखाकर एक राजनीतिक विवाद की पटकथा लिख दी।
देश में क्षेत्रवाद, भाषावाद और जातिवाद किस कदर अपनी जड़ें जमा चुके हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। उत्तर प्रदेश में जहां मुस्लिमों की रिहाई के प्रयास हो चुके हैं वहीं तमिलनाडु में कई साल से एमडीएमके के वाइको, द्रमुक के करुणानिधि और अन्नाद्रमुक की जयललिता अपने-अपने तरीके से तमिल भावनाओं को भुनाते रहे हैं। जयललिता की मौजूदा मंशा भी राजनीति से ही प्रेरित है। लोकसभा चुनाव निकट हैं लिहाजा जयललिता भी अन्य राजनीतिज्ञों की तरह प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा रखती हैं। आगत लोकसभा चुनावों में वाइको या करुणानिधि तमिल भावनाओं को भुनाने की कोई तुरुप चाल चलते उसके पहले ही जयललिता ने राजीव गांधी के हत्यारों की रिहाई का फरमान सुनाकर अपने आपको तमिलों का सबसे बड़ा रहनुमा होने का दांव चल दिया। इस दांव से उन्हें कितना लाभ मिलेगा और विपक्षी दल इसका जवाब कैसे देंगे, यह तो समय बताएगा पर इससे राष्ट्रीय हितों और न्यायालय की भावना को जरूर ठेस पहुंची है।
फांसी पर राजनीतिक चालें इस देश के लिए अभिशाप हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने जब से 15 लोगों की फांसी की सजा को उम्रकैद में बदला है तभी से अफजल गुरु को दी गई फांसी पर तरह-तरह की बातें होने लगी हैं। कश्मीरी राजनेता अफजल गुरु की फांसी को गलत करार दे रहे हैं। उनका कहना है कि एक ही अपराध की दो अलग-अलग सजाएं कैसे हो सकती हैं। इसी तरह पंजाब में बेअंत सिंह की हत्या के आरोपी बलवंत सिंह राजोआना को लेकर भी बहुत-कुछ कहा-सुना जा रहा है। राजीव गांधी की हत्या दरिन्दगी की इंतहा थी और हमेशा रहेगी, पर इस मामले से कांग्रेस सहित सभी दलों को सावधान होने की जरूरत है। राजीव गांधी के हत्यारों की रिहाई के मामले पर जयललिता की राजनीतिक कुचेष्टा बेशक सवालिया नजरों से देखी जा रही हो पर कांग्रेसियों को उस दिन मुंह खोलना था जिस दिन सर्वोच्च न्यायालय ने 15 दुर्दान्तों की फांसी की सजा को उम्रकैद में तब्दील किया था। इन दुर्दान्तों में कुख्यात वीरप्पन के सहयोगी भी शामिल हैं जोकि जांबाज पुलिस कर्मियों को मौत की नींद सुलाने के गुनहगार हैं। दया याचिकाओं में देरी के लिए कांग्रेस भी कसूरवार है। जब तक मुल्क में दया याचिकाओं में देरी संकीर्ण राजनीतिक लाभ-हानि के नजरिये की भेंट चढ़ेगी तब तक न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच ऊहापोह की स्थिति बनी ही रहेगी। राजनीतिक दलों को न्यायपालिका की उदार और तर्कसंगत सोच का अनुचित राजनीतिक लाभ उठाने से बाज आना चाहिए वरना जनभावनाएं भड़केंगी और अखण्ड भारत खण्ड-खण्ड हो जाएगा।
सर्वोच्च न्यायालय के दिशा निर्देश मानवाधिकार और समाज की इस मान्यता पर आधारित हैं कि यथासम्भव किसी को फांसी न मिले। भारत को छोड़ दें तो दुनिया के अधिकांश देशों में मृत्युदण्ड पर रोक लग चुकी है। हमारे यहां मृत्युदण्ड का प्रावधान तो है लेकिन अब तक दुर्लभतम मामलों में ही लोगों को फांसी दी गई है। इस प्रक्रिया को हमें मजबूत न्यायिक प्रक्रिया के रूप देखना चाहिए। मुल्क में किसी को फांसी देने से पहले उसे राष्टÑपति और राज्यपाल के पास दया याचना की छूट है। अब तक कई सजायाफ्ता लोग राष्ट्रपति की दरियादिली के चलते मौत से बच भी चुके हैं। दया याचिका का जहां तक सवाल है, मौजूदा समय में इस अधिकार पर हमारी सल्तनतें फैसला लेने लगी हैं। राजीव गांधी मामले में आज जो हो रहा है उसके लिए जयललिता ही नहीं कमोबेश कांग्रेस भी कम जवाबदेह नहीं है। कांग्रेस ने इस मामले में यदि त्वरित फैसला लिया होता तो शायद अब तक राजीव गांधी के हत्यारे फांसी का फंदा चूम चुके होते। मृत्यदण्ड ही नहीं दीगर मसलों पर भी हमारी न्यायपालिकाएं समय-समय पर सरकारों को आगाह करती रही हैं लेकिन कार्यपालिका ने हमेशा इसे दखलंदाजी के रूप में देखा। कारण कुछ भी हो, हमारी न्यायपालिका और कार्यपालिका में न केवल सामंजस्य की कमी है बल्कि कार्यप्रणाली भी बेहद धीमी है।
सर्वोच्च न्यायालय ने एक माह पहले फांसी की सजा को उम्रकैद में तब्दील करने के स्पष्ट दिशा-निर्देश बताए थे जिसमें प्रमुख बात यह थी कि अगर फांसी की सजा प्राप्त कैदी की दया याचिका पर लम्बे समय तक कोई फैसला नहीं लिया जाता तो उसे उम्रकैद में बदल दिया जाना चाहिए। इसी आधार पर 15 लोगों की मौत की सजा उम्रकैद में बदली गई। सर्वोच्च न्यायालय ने राजीव गांधी की हत्या के दोषी तीन लोगों की फांसी की सजा को जैसे ही उम्रकैद में बदलने का निर्णय सुनाया तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने बिना समय गंवाये अगले ही दिन राजीव गांधी की हत्या के दोषी सभी लोगों की रिहाई का फरमान सुना दिया। यद्यपि इस पर केन्द्र सरकार की पुनर्विचार याचिका के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने रोक लगा दी है। गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय ने उम्रकैद का मतलब आजीवन कारावास बताया था किन्तु जयललिता ने फांसी की सजा पाए तीन कैदियों सहित सभी सातों दोषियों की रिहाई के सम्बन्ध में जल्दबाजी दिखाकर एक राजनीतिक विवाद की पटकथा लिख दी।
देश में क्षेत्रवाद, भाषावाद और जातिवाद किस कदर अपनी जड़ें जमा चुके हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। उत्तर प्रदेश में जहां मुस्लिमों की रिहाई के प्रयास हो चुके हैं वहीं तमिलनाडु में कई साल से एमडीएमके के वाइको, द्रमुक के करुणानिधि और अन्नाद्रमुक की जयललिता अपने-अपने तरीके से तमिल भावनाओं को भुनाते रहे हैं। जयललिता की मौजूदा मंशा भी राजनीति से ही प्रेरित है। लोकसभा चुनाव निकट हैं लिहाजा जयललिता भी अन्य राजनीतिज्ञों की तरह प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा रखती हैं। आगत लोकसभा चुनावों में वाइको या करुणानिधि तमिल भावनाओं को भुनाने की कोई तुरुप चाल चलते उसके पहले ही जयललिता ने राजीव गांधी के हत्यारों की रिहाई का फरमान सुनाकर अपने आपको तमिलों का सबसे बड़ा रहनुमा होने का दांव चल दिया। इस दांव से उन्हें कितना लाभ मिलेगा और विपक्षी दल इसका जवाब कैसे देंगे, यह तो समय बताएगा पर इससे राष्ट्रीय हितों और न्यायालय की भावना को जरूर ठेस पहुंची है।
फांसी पर राजनीतिक चालें इस देश के लिए अभिशाप हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने जब से 15 लोगों की फांसी की सजा को उम्रकैद में बदला है तभी से अफजल गुरु को दी गई फांसी पर तरह-तरह की बातें होने लगी हैं। कश्मीरी राजनेता अफजल गुरु की फांसी को गलत करार दे रहे हैं। उनका कहना है कि एक ही अपराध की दो अलग-अलग सजाएं कैसे हो सकती हैं। इसी तरह पंजाब में बेअंत सिंह की हत्या के आरोपी बलवंत सिंह राजोआना को लेकर भी बहुत-कुछ कहा-सुना जा रहा है। राजीव गांधी की हत्या दरिन्दगी की इंतहा थी और हमेशा रहेगी, पर इस मामले से कांग्रेस सहित सभी दलों को सावधान होने की जरूरत है। राजीव गांधी के हत्यारों की रिहाई के मामले पर जयललिता की राजनीतिक कुचेष्टा बेशक सवालिया नजरों से देखी जा रही हो पर कांग्रेसियों को उस दिन मुंह खोलना था जिस दिन सर्वोच्च न्यायालय ने 15 दुर्दान्तों की फांसी की सजा को उम्रकैद में तब्दील किया था। इन दुर्दान्तों में कुख्यात वीरप्पन के सहयोगी भी शामिल हैं जोकि जांबाज पुलिस कर्मियों को मौत की नींद सुलाने के गुनहगार हैं। दया याचिकाओं में देरी के लिए कांग्रेस भी कसूरवार है। जब तक मुल्क में दया याचिकाओं में देरी संकीर्ण राजनीतिक लाभ-हानि के नजरिये की भेंट चढ़ेगी तब तक न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच ऊहापोह की स्थिति बनी ही रहेगी। राजनीतिक दलों को न्यायपालिका की उदार और तर्कसंगत सोच का अनुचित राजनीतिक लाभ उठाने से बाज आना चाहिए वरना जनभावनाएं भड़केंगी और अखण्ड भारत खण्ड-खण्ड हो जाएगा।
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