ग्वालियर। अपने बेजार, गैरों पर लाखों निसार यह कहावत मध्यप्रदेश खेल एवं युवा कल्याण विभाग पर अक्षरश: सच साबित होती है। प्रदेश का खेल एवं युवा कल्याण विभाग अपने खेल प्रशिक्षकों का पेट काटकर उन लोगों पर अनाप-शनाप पैसा खर्च कर रहा है जोकि बमुश्किल महीने में एक-दो बार ही खिलाड़ियों को समय दे पाते हैं। विभाग क्रिकेट प्रशिक्षक मदनलाल, हॉकी प्रशिक्षक अशोक कुमार, बैडमिंटन प्रशिक्षक पुलेला गोपीचंद और कुश्ती प्रशिक्षक सुशील कुमार पर अब तक कई करोड़ रुपये खर्च कर चुका है। प्रदेश के खिलाड़ियों को इनसे कितना लाभ मिला किसी से छिपा नहीं है।
मध्यप्रदेश खेल युवा कल्याण विभाग वैसे तो प्रदेश की स्थापना वर्ष से ही छू-छू छैया कर रहा है पर यहां खेलों को रफ्तार पकड़े महज आठ साल ही हुए हैं। आठ साल पहले प्रदेश का खेल बजट महज पांच करोड़ हुआ करता था लेकिन आज 136 करोड़ रुपये है। फिलवक्त प्रदेश में खेलों की बयार बहाने वाले खेल प्रशिक्षकों का बुरा हाल है। यह संविदा प्रशिक्षक वर्ष भर खिलाड़ियों का खेल-कौशल तो निखार रहे हैं पर विभाग की नजर इनके पेट की तरफ नहीं है। पांच जून, 2012 को कैबिनेट ने प्रदेश के खेल विभाग में 512 संविदा कर्मियों की न केवल नियुक्ति को कागजी और मैदानी अमला पहनाया बल्कि यह भी तय किया गया कि इन संविदा प्रशिक्षकों व कर्मचारियों को एक अप्रैल, 2012 से प्रतिवर्ष 10 फीसदी वेतन बढ़ोत्तरी का लाभ भी दिया जाएगा। अफसोस की बात है कि आठ साल से मशक्कत कर रहे इन प्रशिक्षकों को एक पैसे का भी लाभ नहीं दिया गया जबकि तीन साल में महंगाई जमीन से आसमान में पहुंच गई है। ऐसा नहीं कि इन प्रशिक्षकों और कर्मचारियों ने विभाग के सामने फरियाद न की हो। कई बार विभागीय मंत्री से लेकर अन्य जवाबदेह लोगों को इन्होंने अपने भूखे पेट से अवगत कराया लेकिन किसी ने ध्यान देने की कोशिश तो क्या भरोसा भी नहीं दिया।
वैसे तो किसी विभाग में अपने कर्मचारी को नियमित सेवा में लेने के लिए 90 दिन की समय सीमा तय है पर खेल विभाग इससे वास्ता नहीं रखता। नियमित करना तो दूर उसने अपने कहे के मुताबिक प्रतिवर्ष प्रशिक्षकों और कर्मचारियों के वेतन में 10 फीसदी की बढ़ोत्तरी भी नहीं की। पानी सिर से ऊपर पहुंचने के बाद खेल प्रशिक्षकों ने 28 जनवरी को ग्वालियर हाईकोर्ट तो चार फरवरी को जबलपुर हाईकोर्ट में एके अराधे की बेंच में मामला पंजीबद्ध करा दिया है। अदालत ने कर्मचारियों की उपेक्षा के मामले को गम्भीरता से लेते हुए खेल विभाग से जवाब मांगा है। खेल विभाग की पहचान प्रशिक्षकों और खिलाड़ियों से होती है लेकिन विभाग बाबुओं पर मेहरबान है। वर्ष 2012 में विभाग ने लगभग एक सैकड़ा बाबुओं की नियमित नियुक्ति की है, जबकि इनकी विभाग को कम ही दरकार थी।
संविदा प्रशिक्षकों और कर्मचारियों की वेतन बढ़ोत्तरी और नियमितीकरण में विभाग के ही कुछ खेलनहार अवरोधक हैं। खेलों के यह मठाधीश नहीं चाहते कि संविदा प्रशिक्षकों और कर्मचारियों का भला हो। इन्हें डर है कि यदि ये नियमित हो गये तो वे अपनी धौंस-दपट आखिर किस पर दिखाएंगे। खेल विभाग में कुछ साल तक जहां चौधराहट चली वहीं लगभग दो दशक से प्रतिनियुक्ति पर जमे एक प्रोफेसर ने विभाग को ही अपने कब्जे में ले लिया है। इस प्रोफेसर की ताकत का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उसे विभाग से खदेड़ने के लिए विभागीय मंत्री तुकोजी राव पवार ने एड़ी-चोटी का जोर लगा लिया लेकिन प्रधान का बाल बांका भी नहीं कर सके। जो भी हो अब वह समय दूर नहीं जब प्रोफेसर साहब को बड़े बेआबरू होकर कूचे से बाहर जाना पड़ सकता है। दरअसल विभाग के ही कुछ लोग प्रोफेसर से मुक्ति के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाने जा रहे हैं। आहत-मर्माहत इन प्रशिक्षकों का कहना है कि उन्हें अब अदालत के सिवाय किसी पर भरोसा नहीं रहा।
मध्यप्रदेश खेल युवा कल्याण विभाग वैसे तो प्रदेश की स्थापना वर्ष से ही छू-छू छैया कर रहा है पर यहां खेलों को रफ्तार पकड़े महज आठ साल ही हुए हैं। आठ साल पहले प्रदेश का खेल बजट महज पांच करोड़ हुआ करता था लेकिन आज 136 करोड़ रुपये है। फिलवक्त प्रदेश में खेलों की बयार बहाने वाले खेल प्रशिक्षकों का बुरा हाल है। यह संविदा प्रशिक्षक वर्ष भर खिलाड़ियों का खेल-कौशल तो निखार रहे हैं पर विभाग की नजर इनके पेट की तरफ नहीं है। पांच जून, 2012 को कैबिनेट ने प्रदेश के खेल विभाग में 512 संविदा कर्मियों की न केवल नियुक्ति को कागजी और मैदानी अमला पहनाया बल्कि यह भी तय किया गया कि इन संविदा प्रशिक्षकों व कर्मचारियों को एक अप्रैल, 2012 से प्रतिवर्ष 10 फीसदी वेतन बढ़ोत्तरी का लाभ भी दिया जाएगा। अफसोस की बात है कि आठ साल से मशक्कत कर रहे इन प्रशिक्षकों को एक पैसे का भी लाभ नहीं दिया गया जबकि तीन साल में महंगाई जमीन से आसमान में पहुंच गई है। ऐसा नहीं कि इन प्रशिक्षकों और कर्मचारियों ने विभाग के सामने फरियाद न की हो। कई बार विभागीय मंत्री से लेकर अन्य जवाबदेह लोगों को इन्होंने अपने भूखे पेट से अवगत कराया लेकिन किसी ने ध्यान देने की कोशिश तो क्या भरोसा भी नहीं दिया।
वैसे तो किसी विभाग में अपने कर्मचारी को नियमित सेवा में लेने के लिए 90 दिन की समय सीमा तय है पर खेल विभाग इससे वास्ता नहीं रखता। नियमित करना तो दूर उसने अपने कहे के मुताबिक प्रतिवर्ष प्रशिक्षकों और कर्मचारियों के वेतन में 10 फीसदी की बढ़ोत्तरी भी नहीं की। पानी सिर से ऊपर पहुंचने के बाद खेल प्रशिक्षकों ने 28 जनवरी को ग्वालियर हाईकोर्ट तो चार फरवरी को जबलपुर हाईकोर्ट में एके अराधे की बेंच में मामला पंजीबद्ध करा दिया है। अदालत ने कर्मचारियों की उपेक्षा के मामले को गम्भीरता से लेते हुए खेल विभाग से जवाब मांगा है। खेल विभाग की पहचान प्रशिक्षकों और खिलाड़ियों से होती है लेकिन विभाग बाबुओं पर मेहरबान है। वर्ष 2012 में विभाग ने लगभग एक सैकड़ा बाबुओं की नियमित नियुक्ति की है, जबकि इनकी विभाग को कम ही दरकार थी।
संविदा प्रशिक्षकों और कर्मचारियों की वेतन बढ़ोत्तरी और नियमितीकरण में विभाग के ही कुछ खेलनहार अवरोधक हैं। खेलों के यह मठाधीश नहीं चाहते कि संविदा प्रशिक्षकों और कर्मचारियों का भला हो। इन्हें डर है कि यदि ये नियमित हो गये तो वे अपनी धौंस-दपट आखिर किस पर दिखाएंगे। खेल विभाग में कुछ साल तक जहां चौधराहट चली वहीं लगभग दो दशक से प्रतिनियुक्ति पर जमे एक प्रोफेसर ने विभाग को ही अपने कब्जे में ले लिया है। इस प्रोफेसर की ताकत का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उसे विभाग से खदेड़ने के लिए विभागीय मंत्री तुकोजी राव पवार ने एड़ी-चोटी का जोर लगा लिया लेकिन प्रधान का बाल बांका भी नहीं कर सके। जो भी हो अब वह समय दूर नहीं जब प्रोफेसर साहब को बड़े बेआबरू होकर कूचे से बाहर जाना पड़ सकता है। दरअसल विभाग के ही कुछ लोग प्रोफेसर से मुक्ति के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाने जा रहे हैं। आहत-मर्माहत इन प्रशिक्षकों का कहना है कि उन्हें अब अदालत के सिवाय किसी पर भरोसा नहीं रहा।
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