Wednesday 9 April 2014

हौसला हारती आधी आबादी

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चुनावी बिगुल बज चुका है। राजनीतिक सेनाएं छल-प्रपंच के हथियारों से सज्जित हो दिल्ली कूच करने को बेताब हैं। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के महाभारत में इस बार दागी, बागी, बाहुबली और भ्रष्टों के साथ राजा-महाराजा, उनके बेटे-बेटियां ही नहीं सैकड़ों शिखण्डी भी ताल ठोक रहे हैं। विजय वरण से पहले आधी आबादी के मतों पर हर दल और राजनीतिज्ञ की गिद्ध दृष्टि है पर उसके सरोकार सिरे से खारिज हैं। हमारे राजनीतिज्ञों के घोषणा पत्र चीख-चीख कर बता रहे हैं कि पांच साल में उनकी तिजोरी में कई गुना बढ़ोत्तरी हुई है पर मुल्क का गरीब भुखमरी की कगार तक जा पहुंचा है। राजनीति में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की बात करें तो आजादी के 67 साल बाद भी वह निचले पायदान पर ही खड़ी है।
भारत में लोकतंत्र के आंदोलन का लम्बा इतिहास है। मुल्क को आजादी सैकड़ों साल के आंदोलन और हजारों लोगों की कुर्बानियों के बाद नसीब हुई है। उन आंदोलनों में वीरांगनाओं का भी असीम योगदान रहा है। मुल्क आजाद हुआ, लोकतंत्र अस्तित्व में आया लेकिन आधी आबादी को उसके समुचित अधिकार नहीं मिले, नतीजन वह आज भी उपेक्षा का दंश झेल रही है। सवाल राजनीति में आधी आबादी के प्रतिनिधित्व का नहीं बल्कि उनके सरोकारों और अस्तित्व का है। महिला सशक्तीकरण और बेटी बचाओ अभियान पर अकूत पैसा जाया करने के बाद भी किसी सल्तनत ने यह जानने-समझने की कोशिश नहीं की कि जिस मर्ज की दवा की जा रही है उसमें सुधार हो भी रहा है या नहीं। चुनावी पावन बेला में राजनीतिज्ञ अल्पसंख्यकों और दलितों की माली हालत में सुधार को बड़े फिक्रमंद हैं। उनके हालातों में सुधार को बड़ी-बड़ी बातें हो रही हैं पर जो काम छह दशक में नहीं हुआ वह आगे होगा भी इसकी क्या गारण्टी ?
हमारी सरकारें बेशक विकास का दम्भ भर रही हों पर राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन की रिपोर्ट पर नजर डालें तो बीते तीन साल में एक करोड़ से अधिक महिला श्रमिक बेगार हुई हैं। इसका असर सीधे तौर पर दलित और गरीब परिवारों पर पड़ा है। हम लाख विकास की बातें करें मुल्क में आज भी करोड़ों लोगों को दो जून की रोटी मयस्सर नहीं है। हमारे राजनीतिज्ञ जिस आधी आबादी की तरक्की का राग अलाप रहे हैं उसकी जमीनी हकीकत कुछ और ही कहानी बयां कर रही है। दरअसल बाजार की मेहरबानी पर टिकी भारतीय अर्थव्यवस्था ने महिला कामगारों को रोजगार बाजार से ही परे कर दिया है। नतीजन समाज में अत्याचार, हिंसा और बलात्कार की घटनाओं में बेतरतीब बढ़ोत्तरी हुई है। आर्थिक तंगहाली ने सामाजिक ताने-बाने को भी तहस-नहस कर दिया है। वैश्वीकरण और बाजार आधारित आर्थिक मॉडल से मुल्क को कुछ हासिल होने की बजाय नुकसान अधिक हुआ है। 1972-73 में महिला कामगारों का योगदान जहां 32 फीसदी था वहीं उदारीकरण की राह चलने के बाद दो दशक में यह घटकर 18 फीसदी ही रह गया। मुल्क में 90 फीसदी मजदूर असंगठित क्षेत्र में जीवन बसर करते हैं इनमें महिलाओं की संख्या कहीं अधिक है।
कहने को हमारे संविधान में सभी को बराबरी का दर्जा प्राप्त है पर रोजगार के मोर्चे पर लगी कामगार महिलाओं को आज भी पुरुषों से बहुत कम पारिश्रमिक मिलता है। ग्रामीण क्षेत्रों में तो यह स्थिति और भी खराब है। शहरों में भी महिला कामगारों की स्थिति संतोषजनक नहीं कही जा सकती। गृहस्थी की गाड़ी खींचने के लिए महिलाएं श्रम करने को तो तैयार हैं पर उन्हें काम नहीं मिल रहा। कामगार महिलाओं से इतर पढ़ी-लिखी बेटियों के सामने भी आज रोजगार परेशानी का सबब है। हालात दिनोंदिन बेकाबू होते जा रहे हैं। गलाकाट महंगाई के इस दौर में साधारण और गरीब परिवारों के सामने घर खर्च चलाना असम्भव होता जा रहा है। कम होते रोजगार के अवसरों के कारण चाहते हुए भी महिलाएं घर की माली हालत सुधारने में असहाय हैं। मुल्क पूर्ण साक्षर नहीं हुआ पर जितने लोग साक्षर भी हैं उन्हें भी रोजगार के अवसर नहीं मिल पा रहे। आज देश की आधी आबादी 30 वर्ष से कम आयु की है। यह युवा वर्ग देश का भाग्य बदलने का जज्बा तो रखता है पर काम के अभाव में वह गलत दिशा की तरफ चल निकला है।
बात आधी आबादी की करें तो इनके साथ सदियों से भेदभाव होता रहा है और आज भी बदस्तूर जारी है। अनिश्चित रोजगार के चलते उन पर यौन शोषण की सम्भावनाएं बढ़ जाती हैं। उदरपूर्ति और गृहस्थी की गाड़ी खींचने की मजबूरी उन्हें जुल्मोसितम सहने को मजबूर कर देती है। वर्ष 2007 में जहां 28.5 फीसदी श्रमशक्ति को साल में छह माह तक बेगार रहना पड़ता था वहीं इन सात वर्षोें में बेगारों की संख्या 36 फीसदी से अधिक हो गई है। जिस मुल्क के एक तिहाई से अधिक कामगार साल के आधे समय तक निठल्ले रहने को मजबूर हों वहां समुचित विकास कैसे सम्भव है। इकोनामिक्स का सिद्धांत है जब किसी मुल्क में विकास का पहिया द्रुतगति से घूमता है तब लोग खेती-किसानी से तौबा कर उद्योगों की ओर पलायन करते हैं। लेकिन विश्व की आर्थिक महाशक्ति का सपना देखते हिन्दुस्तान में आज भी आधी से अधिक आबादी खेती-किसानी पर ही निर्भर है। कृषि लागत बढ़ने और जोत लगातार घटने से आज खेती भी घाटे का सौदा हो गई है। देश में खेतिहर महिला श्रमिकों की संख्या आज भी करोड़ों में है। यही कारण है कि आज पुरुष ही नहीं महिलाएं भी शहरी पलायन के रास्ते चल निकली हैं।
खेती-किसानी में काम करने वाली अधिकतर श्रमशक्ति अशिक्षित और अकुशल होती है लिहाजा उसे शहरों में सलीके का काम भी नहीं मिलता। जीवकोपार्जन के लिए मजदूरी इनकी मजबूरी है। यह बात सच है कि जब से सरकार रोजगार गारण्टी योजना अमल में लाई है ग्रामीण क्षेत्र से पलायन कुछ कम हुआ है। लाखों किसान-मजदूर पुन: शहरों से गांवों की तरफ लौटने लगे हैं। हम कह सकते हैं कि आज गंगा उलटी बह रही है। शहरों से गांवों की तरफ लौटने वालों में महिलाओं की संख्या अधिक है। यह खुशखबर तभी हो सकती है जब इन्हें गांवों में पर्याप्त काम मिले। भारतीय लोकतंत्र का महापर्व सिर पर है लेकिन कोई भी राजनीतिक दल आधी आबादी के उद्धार की बात नहीं कर रहा। कन्या भ्रूण हत्या, महिला कुपोषण, बेटियों की शिक्षा और महिलाओं के प्रति बढ़ती हिंसक घटनाओं का मूल कारण गरीबी और आर्थिक तंगहाली ही है जब तक इस दिशा में सुधार नहीं किया जाता और आधी आबादी अपने पैरों पर खड़ी नहीं होती, सरकार किसी की हो कोई भी बनाए मुल्क के विकास का पहिया नहीं घूमने वाला।    

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