लोकतंत्र के सोलहवें महायज्ञ में मताहुति प्रारम्भ हो चुकी है। राजनीतिक दल भय-भूख-भ्रष्टाचार के समूल नाश की कसम खाने के साथ जनता जनार्दन को सुखराज का भरोसा दे रहे हैं। ऐसा पहली बार नहीं हो रहा आजादी के बाद से ही मुल्क की आवाम राजनीतिज्ञों के झूठे आश्वासनों का झुनझुना बजा रही है। मौजूदा चुनाव में कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और आम आदमी पार्टी ने ही चार सौ से अधिक प्रत्याशी मैदान में उतारे हैं बाकी सभी क्षेत्रीय दलों ने अपने मजबूत ठौर-ठिकानों पर ही कसरत करने का मन बनाया है। देश में गठबंधन का फार्मूला सफल नहीं रहा। लम्बे समय से गठबंधन सरकारों के चलते ही मुल्क की आर्थिक स्थिति तहस-नहस हुई है। कहने को अटल बिहारी बाजपेयी और मनमोहन सिंह ने गठबंधन धर्म का सलीके से पालन करते हुए सरकारें चलार्इं लेकिन सहयोगी दलों की कारगुजारियों से न केवल लोकतंत्र शर्मसार हुआ बल्कि मुल्क की जनता भी खूब खून के आंसू रोई। मुल्क की आवाम गठबंधन सरकारों से उकता गई है ऐसे में उम्मीद बंधी है कि वह इस बार नेक फैसला ही लेगी और उसे लेना भी चाहिए।
गठबंधन के बंधन में फंसे बड़े दल जहां जनहितैषी फैसले नहीं ले पाते वहीं लोक-मर्यादा का सारा ठीकरा भी उन्हीं पर फूटता है। 1984 से अब तक मुल्क में कांग्रेस और भाजपा की ही गठबंधन सरकारें रही हैं लेकिन सुख भोगने में छोटे दलों के साथ स्वतंत्र सांसद भी पीछे नहीं रहे। महंगाई से जनता का दम घुटता रहा पर माननीयों की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा। गठबंधन धर्म के दौर में भी भारत ने विज्ञान, शिक्षा, रोजगार, उद्योग, रक्षा जैसे अनेक क्षेत्रों में महत्वपूर्ण उपलब्धियां दर्ज कीं किन्तु उनका उतना बखान नहीं हुआ जितना विभिन्न घोटालों को लेकर हंगामा होता रहा। देश में प्रगति के जितने भी कार्य हुए, उसके पीछे निश्चित ही सरकार की सोच, योजनाएं और नीतियां रही हैं, लेकिन उन पर चर्चा कम होने की वजह यूपीए के नेताओं का जनता से जीवंत जुड़ाव और प्रत्यक्ष संवाद न होना रहा। कई बार नाराज जनता सड़कों पर उतरी लेकिन सत्तासीन राजनीतिज्ञों ने उनकी पीड़ा पर जरा भी परवाह नहीं की।
आज जनता के फैसले का वक्त है पर वह अपने स्वतंत्र मताधिकार से झिझक रही है, उसे अनचाहा डर सता रहा है। चुनाव आयोग लाख दुहाई दे पर राजनीतिज्ञ आज भी मतदाता को धमका रहे हैं। लोकतंत्र में जनता किसे अपना प्रतिनिधि बनाना चाहती है, यही सवाल महत्वपूर्ण होता है किन्तु भारत की वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों में पार्टी किसे प्रतिनिधि बनवाना चाहती है, यह अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। टिकटों की मारामारी, जोड़-तोड़ और रूठने-मनाने का अभी तक का परिदृश्य तो कम से कम यही गवाही दे रहा है। लोग कपड़े की तरह दल और अपने विचार बदल रहे हैं। आलम यह है कि राजनीतिक पार्टियां असमंजस में हैं। वे जीत के भरोसे से नहीं बल्कि हार की आशंका से इस कदर डरी हुई हैं कि एक कदम आगे बढ़कर दो कदम पीछे हटने को मजबूर हैं। यह सभी दलों के टिकट बंटवारे में भी साफ देखा गया। दल-बदल से सभी राजनीतिज्ञ क्षत्रप परेशान हैं। 24 अप्रैल तक पार्टियों में क्या-क्या होता है, यह देखना दिलचस्प होगा।
नए गठजोड़ हो रहे हैं, नेताओं में पाला बदलने की होड़ चल रही है, ऐसे में टिकटों के फैसलों से बदलाव कोई अचरज वाली बात नहीं है। सोलहवें लोकतंत्र के गठन से पूर्व जो हो रहा है उसमें कुछ भी नया नहीं दिखता। ऐसा हमेशा हुआ है, यह बात दीगर है कि इस बार परिणामों के बाद होने वाली नंगनाच पहले ही हो रही है। राजनीतिक दल जिस तरह नूरा-कुश्ती लड़ रहे हैं उसे देखते हुए मुल्क में मजबूर नहीं बल्कि मजबूत सरकार की दरकार है। यह काम कोई और नहीं बल्कि हमारा बेरोजगार युवा और मुल्क की आधी आबादी ही कर सकती है। वैसे तो मुल्क में प्रारम्भ से ही महिलाओं को मताधिकार प्राप्त है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में राजनीति में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी ने हर दल को मजबूर कर दिया है कि वे अपने एजेण्डे में महिलाओं को विशेष स्थान दें। इस बार 38.79 करोड़ महिलाएं 543 सांसदों का भाग्य लिखेंगी तो 50 फीसदी युवा सारे आकलन मटियामेट कर सकते हैं।
यह खुशखबर है कि चुनाव आयोग के विशेष प्रयासों से देश में न केवल मतदाता बढ़े बल्कि उन्होंने मतदान के महत्व को भी स्वीकारा है। कल तक चूल्हे-चौके से वास्ता रखने वाली महिलाएं भी बड़ी संख्या में मतदान के लिए निकलने लगी हैं। चुनावों में 70 फीसदी से अधिक औसत मतदान इस बात का सुबूत है कि लोगों ने मतदान के महत्व को जान लिया है और उन्हें अपने मत की कीमत का अंदाजा भी हो गया है। स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव के लिए यह जरूरी है कि लोग न केवल अपने मताधिकार का प्रयोग करें बल्कि राजनीतिक दलों को यह संदेश दें कि अब उनका कोई भी प्रलोभन नहीं चलने वाला। भारतीय युवाओं में चुनाव नतीजे बदलने का माद्दा है। वे पढ़े-लिखे हैं और यह जानते हैं कि एक योग्य प्रत्याशी का चुना जाना उनके और देश के लिए कितना अहम है।
लोकतंत्र के इस महाकुम्भ में इस बार 25 वर्ष से कम उम्र के लोगों का प्रतिनिधित्व 50 प्रतिशत के करीब है। अगर 35 साल से कम उम्र के लोगों को भी इस चुनाव के लिए एक पैमाना मान लें तो यह कुल आबादी का 65 फीसदी होता है। भारत में सामान्यत: 35 साल का व्यक्ति युवा श्रेणी में आता है, इस लिहाज से देश की अधिकांश आबादी युवाओं की है। यही वजह है कि आज हर क्षेत्र में युवाओं पर दांव लगाया जा रहा है। मुल्क की सियासत भी इससे अछूती नहीं है। वैसे भी जिस देश के 21 करोड़ मतदाता 32 साल से कम उम्र के हों और पहली बार वोट देने जा रहे युवा वोटरों की तादाद भी 12 करोड़ से अधिक हो, ऐसे में यह तरुणाई क्या नहीं कर सकती। सत्ता का सोपान तय करने का वक्त आज उसके हाथ है। भारत गांवों का देश है। विकास की बयार गांवों तक पहुंचे इसके लिए जरूरी है कि मुल्क में मजबूर नहीं मजबूत सरकार हो।
गठबंधन के बंधन में फंसे बड़े दल जहां जनहितैषी फैसले नहीं ले पाते वहीं लोक-मर्यादा का सारा ठीकरा भी उन्हीं पर फूटता है। 1984 से अब तक मुल्क में कांग्रेस और भाजपा की ही गठबंधन सरकारें रही हैं लेकिन सुख भोगने में छोटे दलों के साथ स्वतंत्र सांसद भी पीछे नहीं रहे। महंगाई से जनता का दम घुटता रहा पर माननीयों की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा। गठबंधन धर्म के दौर में भी भारत ने विज्ञान, शिक्षा, रोजगार, उद्योग, रक्षा जैसे अनेक क्षेत्रों में महत्वपूर्ण उपलब्धियां दर्ज कीं किन्तु उनका उतना बखान नहीं हुआ जितना विभिन्न घोटालों को लेकर हंगामा होता रहा। देश में प्रगति के जितने भी कार्य हुए, उसके पीछे निश्चित ही सरकार की सोच, योजनाएं और नीतियां रही हैं, लेकिन उन पर चर्चा कम होने की वजह यूपीए के नेताओं का जनता से जीवंत जुड़ाव और प्रत्यक्ष संवाद न होना रहा। कई बार नाराज जनता सड़कों पर उतरी लेकिन सत्तासीन राजनीतिज्ञों ने उनकी पीड़ा पर जरा भी परवाह नहीं की।
आज जनता के फैसले का वक्त है पर वह अपने स्वतंत्र मताधिकार से झिझक रही है, उसे अनचाहा डर सता रहा है। चुनाव आयोग लाख दुहाई दे पर राजनीतिज्ञ आज भी मतदाता को धमका रहे हैं। लोकतंत्र में जनता किसे अपना प्रतिनिधि बनाना चाहती है, यही सवाल महत्वपूर्ण होता है किन्तु भारत की वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों में पार्टी किसे प्रतिनिधि बनवाना चाहती है, यह अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। टिकटों की मारामारी, जोड़-तोड़ और रूठने-मनाने का अभी तक का परिदृश्य तो कम से कम यही गवाही दे रहा है। लोग कपड़े की तरह दल और अपने विचार बदल रहे हैं। आलम यह है कि राजनीतिक पार्टियां असमंजस में हैं। वे जीत के भरोसे से नहीं बल्कि हार की आशंका से इस कदर डरी हुई हैं कि एक कदम आगे बढ़कर दो कदम पीछे हटने को मजबूर हैं। यह सभी दलों के टिकट बंटवारे में भी साफ देखा गया। दल-बदल से सभी राजनीतिज्ञ क्षत्रप परेशान हैं। 24 अप्रैल तक पार्टियों में क्या-क्या होता है, यह देखना दिलचस्प होगा।
नए गठजोड़ हो रहे हैं, नेताओं में पाला बदलने की होड़ चल रही है, ऐसे में टिकटों के फैसलों से बदलाव कोई अचरज वाली बात नहीं है। सोलहवें लोकतंत्र के गठन से पूर्व जो हो रहा है उसमें कुछ भी नया नहीं दिखता। ऐसा हमेशा हुआ है, यह बात दीगर है कि इस बार परिणामों के बाद होने वाली नंगनाच पहले ही हो रही है। राजनीतिक दल जिस तरह नूरा-कुश्ती लड़ रहे हैं उसे देखते हुए मुल्क में मजबूर नहीं बल्कि मजबूत सरकार की दरकार है। यह काम कोई और नहीं बल्कि हमारा बेरोजगार युवा और मुल्क की आधी आबादी ही कर सकती है। वैसे तो मुल्क में प्रारम्भ से ही महिलाओं को मताधिकार प्राप्त है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में राजनीति में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी ने हर दल को मजबूर कर दिया है कि वे अपने एजेण्डे में महिलाओं को विशेष स्थान दें। इस बार 38.79 करोड़ महिलाएं 543 सांसदों का भाग्य लिखेंगी तो 50 फीसदी युवा सारे आकलन मटियामेट कर सकते हैं।
यह खुशखबर है कि चुनाव आयोग के विशेष प्रयासों से देश में न केवल मतदाता बढ़े बल्कि उन्होंने मतदान के महत्व को भी स्वीकारा है। कल तक चूल्हे-चौके से वास्ता रखने वाली महिलाएं भी बड़ी संख्या में मतदान के लिए निकलने लगी हैं। चुनावों में 70 फीसदी से अधिक औसत मतदान इस बात का सुबूत है कि लोगों ने मतदान के महत्व को जान लिया है और उन्हें अपने मत की कीमत का अंदाजा भी हो गया है। स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव के लिए यह जरूरी है कि लोग न केवल अपने मताधिकार का प्रयोग करें बल्कि राजनीतिक दलों को यह संदेश दें कि अब उनका कोई भी प्रलोभन नहीं चलने वाला। भारतीय युवाओं में चुनाव नतीजे बदलने का माद्दा है। वे पढ़े-लिखे हैं और यह जानते हैं कि एक योग्य प्रत्याशी का चुना जाना उनके और देश के लिए कितना अहम है।
लोकतंत्र के इस महाकुम्भ में इस बार 25 वर्ष से कम उम्र के लोगों का प्रतिनिधित्व 50 प्रतिशत के करीब है। अगर 35 साल से कम उम्र के लोगों को भी इस चुनाव के लिए एक पैमाना मान लें तो यह कुल आबादी का 65 फीसदी होता है। भारत में सामान्यत: 35 साल का व्यक्ति युवा श्रेणी में आता है, इस लिहाज से देश की अधिकांश आबादी युवाओं की है। यही वजह है कि आज हर क्षेत्र में युवाओं पर दांव लगाया जा रहा है। मुल्क की सियासत भी इससे अछूती नहीं है। वैसे भी जिस देश के 21 करोड़ मतदाता 32 साल से कम उम्र के हों और पहली बार वोट देने जा रहे युवा वोटरों की तादाद भी 12 करोड़ से अधिक हो, ऐसे में यह तरुणाई क्या नहीं कर सकती। सत्ता का सोपान तय करने का वक्त आज उसके हाथ है। भारत गांवों का देश है। विकास की बयार गांवों तक पहुंचे इसके लिए जरूरी है कि मुल्क में मजबूर नहीं मजबूत सरकार हो।
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